‘निंदक नियरे राखिए आंगन कुटी छवाय‘ वाली कहावत बताती है कि अपनी निंदा करने वाले को भी पूरा अधिकार देना चाहिए. आज के समय में सरकार निंदा करने वाले या अपना दर्द सुनाने वाले को अपने से कुछ ज्यादा ही दूर रखना चाहती है, जिस की वजह से धरना, प्रदर्शन और अपनी बात सुनाने की आड़ में अराजकता भी होने लगी है. जनता का दर्द सीधे सुनने के लिए कुरसी पर बैठे नेताओं को प्रयास करने चाहिए तभी देश में असल लोकतंत्र स्थापित हो सकेगा.

दर्द को सुनना भी दर्द को दूर करने की एक प्रक्रिया हर शासनकाल में रही है. रामायण काल में भी ‘कोपभवन‘ होता था. कोपभवन में जाने का यह मतलब होता था कि व्यक्ति को दर्द है, वह पीड़ित है और न्याय चाहता है.

ये भी पढ़ें- बलात्कार कानून: बदलाव की जरूरत

कोपभवन में आए व्यक्ति की बात सुनना और उसे न्याय देना राजा का धर्म होता था. कैकेयी और राजा दशरथ का प्रसंग सबको याद है. आजाद देश में भी कोपभवन की जरूरत पर बल दिया गया था.

मुगल बादशाह जहांगीर ने अपने महल के बाहर एक घंटा लगवाया था. जहांगीर का आदेश था कि इस घंटे को बजाने वाले का दर्द वह खुद अगले दिन दरबार में सुनेंगे.

जब पीड़ित की बात सीधे राजा तक पहुंचने लगे, तब नीचे काम करने वाले लोग डरने लगते हैं. जब राजा जनता का दर्द सुनने से परहेज करने लगता है, तब शासन करने वाले लोग बेफिक्र हो जाते हैं. उन को लगता है कि अब तो राजा वही सुने जब उन के कर्मचारी सुनाएंगे.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...