लेखक- शहनवाज
शादी यानी 2 इंसानों का मिलन. शादियों के मौकों पर अकसर रिश्तों में पड़ी खटास को मिटाया जाता है, मगर कई बार इस का उलटा भी होता है. शादी के रिश्ते में बंधने के लिए काफी पैसा खर्च करना पड़ता है.
वर्ष 2018 में मुझे मेरे दोस्त ने अपने चाचा की बेटी की शादी में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया. यह शादी उत्तर प्रदेश के फैजाबाद में होनी थी. मैं शादी से एक दिन पहले वहां पहुंच गया. घर को देख कर महसूस हो गया था कि उन की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी. जमीन के एक छोटे से टुकड़े पर उस के चाचा खेती करते थे और औफसीजन में शहर में जा कर मजदूरी करते थे. मेरे दोस्त ने मुझे बताया कि लड़के वालों की तरफ से किसी तरह की दहेज़ की डिमांड नहीं है. उन्होंने कहा है कि सिर्फ बरातियों के स्वागत में कोई कमी नहीं होनी चाहिए.
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जब वर और वधू को सात फेरों के लिए खड़ा किया जा रहा था तब मेरी नजर पंडाल के बाहर एक ट्रक पर पड़ी जिस में घरेलू सामान, जैसे टीवी, फ्रिज, डबल बैड, अलमारी इत्यादि लोड किया जा रहा था. मुझे अपने दोस्त की बात याद आई पर उस समय मैं ने उस से इस विषय पर कुछ भी पूछना जरूरी नहीं समझा. जब शादी कार्यक्रम निबट गया और हम दिल्ली के लिए वापस रवाना हुए तो बस में मैं ने उस से पूछ ही लिया कि वह सामान किसलिए लोड किया जा रहा था?
उस ने जवाब दिया की वह सारा सामान उस के चाचा ने अपनी तरफ से तोहफे के तौर पर दिया था, ताकि कल को अगर कुछ भी होता है तो कोई उन की बेटी को ताना न मार सके. लड़के वालों के घर का डर नहीं, बल्कि उन के खानदान के लोग उन को ताना न मारें. उस ने यह भी बताया कि परिवार में बाकी शादियों में इसी तरह से ही घर का सामान देना पड़ा था. सो, उस के चाचा यह नहीं चाहते थे कि उन के घरपरिवारखानदान के लोग उन की बेटी की शादी के लिए कानाफूसी करें, बातें बनाएं और उन्हें ताने मारें. आखिर, वे अपने परिवार में अपना रुतबा बनाए रखने के लिए भी खुल कर खर्चा कर रहे थे.
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कुछ ऐसा ही हम ने हिंदी सिनेमा की कई सारी फिल्मों में भी होते हुए देखा है जिस में लड़की के पिता पूरी जिंदगी पाईपाई जोड़ कर बेटी की शादी के समय उन पैसों को खर्च करता है. यह भी हो सकता है कि कई लोगों को ऐसी शादी करने का सपना रहा हो परंतु जो व्यक्ति इन समारोह के लिए धनदौलत खर्च करता है, उसे ही पता होता है कि किस प्रकार से उस ने अपने बच्चों की शादी करवाई है.
कुछ ऐसा होता है सामाजिक दबाव
शादी के मौके पर कई प्रकार के सामाजिक दबाव आते हैं जो हमआप देखते हैं और उन को नजरअंदाज करते रहते हैं. मेरे पड़ोस में रहने वाले रामदास जी ने अपने बेटे रवि की शादी करवाई. कोरोना के कारण एक तो वैसे ही सभी की जेबें खाली थीं और ऐसे में शादी पर होने वाला खर्चा मामूली नहीं बल्कि किसी पहाड़ जितना बड़ा ही होगा. यों तो रामदास जी का दिल्ली में अपना मकान है, जिस कारण उन्हें लौकडाउन के इन कठिन दिनों में किसी किराएदार की तरह घर का भाड़ा नहीं देना पड़ा. लेकिन जब से लौकडाउन लगाया गया तो ज्यादातर लोगों की तरह उन की नौकरी भी छुट गई.
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इन्हीं दिनों रवि को एक युवती से प्रेम हो गया और वह अपने पिता से उस युवती से शादी करने की जिद्द करने लगा. रामदास जी ने अपने बेटे को बहुत समझाया कि घर की माली हालत अभी सही नहीं है, जब सबकुछ नौर्मल हो जाएगा तो उस की शादी करवा देंगे. लेकिन रवि नहीं माना. आखिर, रामदास जी को अपने बेटे की शादी करने के लिए झुकना पड़ा. उन्होंने भी सोचा कि कोरोना के समय ज्यादा लोगों को आमंत्रित नहीं करेंगे और लड़की वालों से किसी तरह की कोई डिमांड नहीं करेंगे.
पर, युवा तो युवा होते हैं, थोड़ाबहुत करतेकरते रवि के दोस्त, रिश्तेदार और कुछ जानपहचान वालों को मिला कर 50 लोगों के आसपास बरातियों की लिस्ट तैयार की गई. शादी हो जाने के बाद पता चला कि रवि को ससुराल की तरफ से एक बाइक और घर का थोड़ाबहुत सामान मिला है.
शादी के 3 दिनों बाद रवि अपने पिता से लड़की वालों और अपने दोस्तों को अपने घर पर छोटामोटा रिसैप्शन देने की मांग करने लगा. उस ने कहा कि अगर हम ऐसा नहीं करते तो लड़की वालों के परिवार और रिश्तेदारों के बीच क्या इज्जत रह जाएगी. सो, रामदास जी को उस की यह बात भी माननी पड़ी.
रामदास जी और रवि के इस किस्से से साफ है कि किस प्रकार सिर्फ सामाजिक दबाव ही नहीं, बल्कि एक पिता पर अपने बेटे का या फिर कई जगह अपनी बेटी का दबाव भी रहता है. अब इस छोटी सी शादी में होने वाले खर्चे के बारे में आप खुद सोच सकते हैं. एक तो जेब में पैसे नहीं, इस के बावजूद, लोगों को ऐसे समारोह में सिर्फ सामाजिक दबाव के कारण खर्चा करना पड़ता है, मात्र इस लिए कि उन के सम्मान का मजाक न बनाया जा सके.
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अब कोई यह कह सकता है कि क्या लोग शादी करना छोड़ दें या फिर अपने रिश्तेदारों को न बुलाएं. यहां पर लोगों के सामूहिक मेलमिलाप पर रोक लगाने की बात नहीं हो रही, और ना ही किसी को शादी न करने की सलाह दी जा रही है, बल्कि इस विषय का सार संग्रह बेहद सिंपल है. वह, बस, इतना है कि लोग शादियों में खर्चा करने से पहले समाज के बाकी लोगों के बारे में सोचते हैं. लोगों के दिमाग में उन की आर्थिक स्थिति, अपने बच्चों की खुशी से ज्यादा यह सोच हावी रहती है कि अगर ऐसा नहीं किया, तो लोग क्या कहेंगे.
लौकडाउन के आजकल के दिनों में शादी के मौके पर पैसा खर्च करना अर्थव्यवस्था के लिए बेहद जरूरी है. इस से कई तरह के व्यापार जुड़ें हैं, उदाहरण के लिए कैटरर (हलवाई) से खाना बनवाना, बैंक्वेट हौल बुक करवाना या फिर समुदाय भवन बुक करना, वेटर का काम, शादी कराने के लिए पंडित, मौलवी या पादरी की सेवा इत्यादि.
ये हैं उपाय
सामाजिक दबाव में संपन्न हुई शादी के खर्चे का समाज पर बुरा असर पड़ता है. सामाजिक दबाव के कारण किया गया खर्चा दूसरों को भी उसी प्रकार से खर्च करने के लिए मजबूर करता है. शादियां आजकल सिर्फ 2 लोगों के दिलों का बंधन नहीं हैं बल्कि स्टेटस को प्रदर्शित करने का ढोंग भी बन गई हैं. शादियां एकदूसरे को ताना मारने का जरिया भी हो गई हैं.
किसी पिता का यह सपना हो सकता है कि वह अपने बच्चों की शादी धूमधाम से करे, या फिर किसी का खुद का ही यह सपना हो सकता है कि वह अपनी शादी बाकियों से अच्छे से करेगा. यहां किसी को उस के सपनों को पूरा करने से रोकने की बात नहीं हो रही, बल्कि लोगों को एक ऐसी मानसिकता के विकास की जरूरत पर जोर दिया जा रहा है कि लोग अपनी और अपने बच्चों की शादियों पर खर्चा अपने अनुसार करें, उन के भविष्य को ध्यान में रख कर करें.
जितना खर्चा एक शादी के संपन्न होने में लगाया जाता है, उस का यदि आधा पैसा भी लोग बचा लें, तो रकम छोटी नहीं होगी. गरीबों के लिए, निम्नमध्य आयवर्ग के लोगों के अनिश्चित भविष्य के लिए आने वाले समय में यह पैसा काम आ सकता है. मेरे एक दोस्त (प्रवीण) की कहानी इसी से प्रेरित है.
प्रवीण के पिता ने उस की शादी किसी बड़े बैंक्वेट हौल में या किसी बड़े से पार्क को बुक कर नहीं की, बल्कि इलाके के एसडीएम औफिस में जा कर मैरिज रजिस्ट्रेशन करा कर कानूनी तरीके से करवाई. रजिस्ट्रेशन हो जाने के 3 दिनों बाद रिसैप्शन के लिए उन्होंने सरकारी समुदाय भवन बुक किया जिस में कुल 150 लोगों को आमंत्रित किया. अगर वे परंपरागत तरीके से अपने बेटे की शादी करवाते तो शायद मौजूदा खर्चे का 3 गुना अधिक खर्च होता. उन्होंने बाकी बचे हुए पैसों की प्रवीण के नाम पर एफडी करवा दी, जो कि आने वाले समय में उस के काम आएगी. और सिर्फ यही नहीं, लड़की वालों ने भी के वधू के नाम पर बैंक में एफडी करवा दी, जिस से जरूरत के वक्त उसे कैश कराया जा सके.
कितनी समझदारी से प्रवीण के पिताजी ने उस की शादी करवाई, आप खुद भी अंदाजा लगा सकते हैं. आज समाज की जरूरत भी यही है की वह इस बढ़ती हुई महंगाई को ध्यान में रखे. समाज की इस बोझ वाली मानसिकता को तोड़ने के लिए जरूरी है कि हम सब कदम बढ़ा कर परंपरागत तरीके से नहीं, बल्कि कानूनी तरीके से मैरिज रजिस्ट्रेशन करवाएं. रिश्तेदारों से मेलमिलाप खत्म करने की नहीं, बल्कि उसे एक नया स्वरूप देने की जरूरत है. परंपरागत तरीकों से शादियां करनेकरवाने से सिर्फ दिखावे और अवैज्ञानिक सोच को बढ़ावा मिलता है. इस के अलावा, रिश्तेदारों द्वारा छत्तीस चीजों में कमियां निकाली जाती हैं अलग से.