अंधविश्वास और धार्मिक पाखंडों के मकड़जाल में उलझे समाज को जगाने की सजा शायद मौत है. तभी तो डा. नरेंद्र दाभोलकर जैसी शख्सीयत, जिस का ध्येय ही समाज को जादूटोने और अंधविश्वास के दलदल से बाहर निकालना था, को दिनदहाड़े गोलियों से भून दिया जाता है. क्या समाज इस कदर स्वार्थी व भ्रष्ट हो चुका है जो उस के भले के लिए ही लड़ने वाले को ऐसा अंजाम बख्शे? पढि़ए जितेंद्र कुमार मित्तल का लेख.
लगभग 30 साल तक डा. नरेंद्र दाभोलकर नामक अदना सा इंसान देश के गांवगांव घूम कर धार्मिक अंधविश्वासों, काले जादू और टोनेटोटकों के खिलाफ अपनी मुहिम अकेला ही चलाता रहा. जब कभी कोई व्यक्ति अपनेआप को भगवान या उस का विशेष दूत कह कर लोगों को अपने चमत्कारों से सम्मोहित कर देता था तो
डा. दाभोलकर उन्हीं चमत्कारों को लोगों के सामने पेश कर के उस तथाकथित भगवान या उस के विशेष दूत को बेनकाब कर देते थे और लोगों के समक्ष बहुत सीधी व आसान भाषा में यह भी स्पष्ट कर देते थे कि वह चमत्कार कैसे किया गया था. और अगर किसी ढोंगी ने बांझ स्त्रियों को संतान प्रदान करने का दावा कर के उन से लाखों रुपए ऐंठ कर असीम संपत्ति एकत्र कर ली तो डा. दाभोलकर अपनी सूझबूझ से उस के इस दावे की तह तक जा कर जनता के समक्ष उस का ढोंगी चेहरा उजागर कर देते थे.
उन का मकसद केवल एक ही था कि वे धर्म के नाम पर चल रहे करोड़ों रुपए के इस काले व्यापार का भंडाफोड़ कर देश के असंख्य अनपढ़ व नादान लोगों को इस कुचक्र से बाहर निकाल सकें और उन के भीतर अच्छेबुरे का ज्ञान व तथाकथित धार्मिक चमत्कारों को तर्क की कसौटी पर परखने की सोच पैदा कर सकें. लेकिन 67 वर्षीय डा. दाभोलकर का यह अभियान अचानक 20 अगस्त को पुणे में बहुत दर्दनाक ढंग से समाप्त कर दिया गया. उस दिन जब वे अपने दैनिक योगाभ्यास के बाद बाहर घूमने निकले तो एक पुल पार करते समय 2 लोगों ने पीछे से गोली मार कर उन की हत्या कर दी. इस कू्रर हत्या के बाद ये हत्यारे अपनी मोटरसाइकिल पर सवार हो कर भीड़ में गायब हो गए.
डा. दाभोलकर की हत्या पोंगापंथी धर्म के तथाकथित ठेकेदारों और सामाजिक सुधारकों के बीच चल रहे शताब्दियों पुराने संघर्ष की एक नवीनतम कड़ी है. जब पुलिस ने इन हत्यारों को पकड़ने के लिए डा. दाभोलकर के दुश्मनों की सूची तैयार करनी शुरू की तो उन्हें यह जान कर आश्चर्य हुआ कि यह सूची वास्तव में काफी लंबी है. उन्हें समयसमय पर कट्टर हिंदू संगठनों से धमकियां मिलती रही थीं. साथ ही हिंदू गुरुओं के शिष्य अपने गुरुओं का परदाफाश करने के कारण उन से इतने नाराज हो गए थे कि उन्होंने कई बार उन की पिटाई तक कर डाली थी.
इतना ही नहीं, खाप पंचायत जैसे जातीय समूहों की दादागीरी की कड़ी आलोचना करने व उन के खिलाफ अभियान चलाने के कारण इन पंचायतों के सामंत भी उन की जान के दुश्मन बन गए थे. पिछले 14 साल से वे धार्मिक अंधविश्वासों के नाम पर लोगों को ठगने वालों के खिलाफ महाराष्ट्र में कानून बनाने के लिए आंदोलन चलाते आ रहे थे और उन के सुझाव पर ही समयसमय पर विधेयक का मसविदा भी सरकार द्वारा तैयार किया गया, लेकिन शिवसेना व भारतीय जनता पार्टी के निहित हितों के चलते वह कभी विधानसभा में पारित ही नहीं हो सका.
डा. दाभोलकर इन अड़चनों से कभी निराश नहीं हुए, न घबराए. वे इस बारे में कहा करते थे, ‘मैं जानता हूं कि इस तरह की लड़ाइयां युगों तक चला करती हैं …हमारा जीवनकाल 70-80 साल का होता है और इस एक जीवनकाल में हम जिस महान क्रांति का सपना देखते हैं उस का एक छोटा सा अंश ही हासिल हो पाता है.’
लेकिन उन की दर्दनाक हत्या के तुरंत बाद महाराष्ट्र की कांगे्रस व राष्ट्रवादी कांगे्रस पार्टी की मिलीजुली सरकार हरकत में आ गई और 5 दिनों के भीतर ही राज्यपाल ने इस आशय के एक अध्यादेश पर हस्ताक्षर कर दिए. पुलिस का कहना है कि दाभोलकर के हत्यारे अपने पीछे कोई ठोस सुबूत छोड़ कर नहीं गए हैं. इस हत्या के विषय में वहां लगे कैमरे में केवल इतना ही कैद हो पाया कि हत्या के 1 घंटे पहले से दोनों हत्यारे उस पुल पर चहलकदमी कर रहे थे. उन की हिम्मत तो देखिए कि वे अपनी मोटरसाइकिल पास के ही एक पुलिस स्टेशन के बाहर पार्क कर के पुल पर आए थे और जैसे ही डा. दाभोलकर उस पुल पर घूमने आए, वे हत्यारे उन के शरीर को गोलियों से छलनी कर के भाग गए.
धर्म के इन तथाकथित ठेकेदारों ने इस हत्या से कुछ समय पहले मुंबई में उन्हें सीधे शब्दों में धमकी दी थी कि तुम अपनी हरकतों से बाज आ जाओ. हम ने जब गांधी को ही नहीं छोड़ा तो तुम भला क्या चीज हो.
उन पर जानलेवा हमले भी होते रहे थे. उन्होंने हमलों की रिपोर्ट पुलिस में लिखवाने से इनकार कर दिया था. स्वयं उन्हीं के शब्दों में, ‘अगर अपने ही देश में अपने ही लोगों से बचने के लिए मुझे पुलिस की सुरक्षा लेनी पड़े तो यह समझना चाहिए कि मैं ही कहीं गलत हूं. मेरी लड़ाई संवैधानिक है और यह किसी के खिलाफ नहीं है, बल्कि यह तो सभी के हित की लड़ाई है.’
डा. दाभोलकर पर यह भी आरोप लगा कि वे केवल हिंदू धर्म के पीछे पड़े हुए थे. इस आरोप के जवाब में उन का कहना था, ‘मैं खुद एक हिंदू हूं, इसलिए सब से पहले मैं अपने घर की सफाई करना चाहता हूं.’ महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने डा. दाभोलकर की हत्या को उस मानसिकता से जोड़ा जो महात्मा गांधी की हत्या के लिए जिम्मेदार थी. उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा है, ‘‘जिन लोगों ने महात्मा गांधी की हत्या की उन्हीं लोगों ने डा. नरेंद्र दाभोलकर की भी हत्या की है.’’ मुख्यमंत्री का यह कथन शायद इस तथ्य पर आधारित है कि उन्हें धमकियां देने वाले संगठनों में ‘सनातन संस्था’ नामक एक कट्टरपंथी हिंदू संगठन भी शामिल है, लेकिन इस संगठन के संस्थापक ने उन की हत्या के बाद दिए अपने बयान में केवल इतना ही कहा है कि ‘हम इस हत्या की निंदा करते हैं’, लेकिन उन्होंने इस हत्या पर अपना शोक प्रकट करना जरूरी नहीं समझा.
डा. जयंत अठवले, जो पहले सम्मोहन विद्या से लोगों का इलाज करने का दावा किया करते थे (जाहिर है कि डा. दाभोलकर उन के तौरतरीकों के कट्टर विरोधी थे) और जो अब अपनेआप को किसी गौडमैन से कम नहीं मानते, ने इस संस्था के मुखपत्र ‘सनातन प्रभात’ में अपने संपादकीय में डा. दाभोलकर की हत्या पर अपने विचार कुछ इन शब्दों में अभिव्यक्त किए हैं : ‘‘कष्टदायक वृद्धावस्था या किसी शल्यचिकित्सा के बाद मरने के बजाय आज डा. दाभोलकर को जो मृत्यु प्राप्त हुई है वह भगवान का आशीर्वाद ही है.’’
डा. दाभोलकर का जन्म महाराष्ट्र के एक प्रतिष्ठित व प्रगतिशील परिवार में 1 नवंबर, 1945 को हुआ था. 6 भाइयों व 3 बहनों में वे सब से छोटे थे. उन के पिता वकील थे. मां एक प्रगतिशील महिला थीं. इस प्रकार एक प्रगतिशील समाज का सपना उन्हें विरासत में मिला था. उन के सब से बड़े भाई देवदत्त, जिन का 2010 में देहांत हो गया, गांधीवादी थे और वे पुणे विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर रह चुके थे. उन के दूसरे भाई श्रीपद, जो अब इस दुनिया में नहीं हैं, प्रोफैसर थे और वे महाराष्ट्र में औरगैनिक फार्मिंग के प्रणेता माने जाते हैं. उन के तीसरे भाई दत्ता प्रसाद एक प्रमुख लेखक, वैज्ञानिक व सामाजिक कार्यकर्ता हैं. स्वयं डा. दाभोलकर पेशे से चिकित्सक थे और उन की धर्मनिरपेक्ष सोच का सुबूत इसी बात से मिल जाता है कि उन्होंने स्वयं हिंदू होते हुए भी अपने बेटे का नाम महान विचारक व समाजसुधारक हमीद दलवाई के नाम पर हमीद रखा था.
हमीद अपने पिता की ही तरह स्वयं एक चिकित्सक व सामाजिक कार्यकर्ता हैं. डा. दाभोलकर ने अपना पूरा जीवन धार्मिक अंधविश्वासों के खिलाफ अपनी लड़ाई को समर्पित करने के उद्देश्य से 40 साल की उम्र में अपनी मैडिकल प्रैक्टिस बंद कर दी और 1983 में सतारा में इस दिशा में काम करना शुरू कर दिया.
वर्ष 1989 में उन्होंने इस उद्देश्य से ‘अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति’ का गठन किया. उन्हें अपने इस अभियान में अपने पुत्र हमीद, बेटी मुक्ता व पत्नी शैला का पूरा समर्थन प्राप्त था. शैला बताती हैं, ‘‘तब हम केवल समाज के विषय में ही सोचा करते थे और केवल इसी बात की चिंता रहती थी कि सामाजिक बुराइयों से हम किस प्रकार मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं. हम दोनों ही आदर्शवादी देशभक्त थे. हम एक अच्छे समाज के सपने देखा करते थे.’’
पिछले 2 दशकों के दौरान डा. दाभोलकर ने महाराष्ट्र के सभी प्रमुख सामाजिक अभियानों में सक्रिय रूप से भाग लिया था. उन की लड़ाई केवल अंधविश्वासों के खिलाफ ही नहीं थी बल्कि वे महिलाओं के अधिकारों, पर्यावरण सुरक्षा जैसे अनेक मोरचों पर एकसाथ काम कर रहे थे. लेकिन इन सब में तथाकथित धर्मगुरुओं का परदाफाश करना उन का सब से बड़ा व महत्त्वपूर्ण काम था.
एक जरमन विद्वान डा. दाभोलकर की संस्था ‘अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति’ के कार्यों से इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने इस पर पूरी एक किताब ही लिख डाली है. इस पुस्तक में उन्होंने इस संस्था के एक कार्यक्रम का बड़ा दिलचस्प चित्र पेश किया है. डा. दाभोलकर के शिष्य सड़क के बीचोंबीच एक मजमा लगाए हुए हैं. उन में से कुछ नुकीली कीलों और कांच के टुकड़ों की शैया पर लेटे हुए हैं और कुछ नारियल में यकबयक अग्नि प्रज्वलित कर देते हैं. वे वहां एकत्र भीड़ को अपने कारनामों के विषय में समझाते हुए कह रहे हैं कि भाइयो, धार्मिक चमत्कार जैसी कोई चीज नहीं होती. यह सब हाथ की सफाई है जिसे आप जादूगरी भी कह सकते हैं. कभी किसी के बहकावे या छलावे में न आएं…धर्मगुरुओं की दिलचस्पी केवल आप के पैसे ऐंठने में है. उन्हें किसी कथित भगवान का कोई विशेष आशीर्वाद प्राप्त नहीं है.
डा. दाभोलकर व उन के शिष्य जानबूझ कर ऐसे काम करते थे जिन के बारे में तथाकथित धर्मगुरु या कर्मकांड करने वाले तांत्रिक अकसर यह कहते सुने जाते थे कि वैसा करने से भगवान का कोप भुगतना पड़ेगा या फिर यंत्रतंत्र (काला जादू) उन लोगों को नेस्तनाबूद कर देगा. यह सबकुछ करने का उन का मकसद आम जनता को केवल यह समझाना होता था कि इन धार्मिक पोंगापंथियों की ये सारी बातें कोरी बकवास होती हैं और उन में से कभी किसी को भी यह सबकुछ करने के बावजूद आज तक कोई नुकसान नहीं पहुंचा था.
कुछ समय से डा. दाभोलकर काला जादू विरोधी विधेयक पर ही अपना ज्यादातर समय लगा रहे थे और उन्हें इस बात का खेद था कि राजनीतिज्ञ कोई न कोई बहाना बना कर इस विधेयक को पारित नहीं होने दे रहे थे.
पुणे विश्वविद्यालय की समाजशास्त्र की प्राध्यापक श्रुति तांबे के अनुसार, इस के मार्ग में अनेक अवरोध पैदा हो गए थे. सब से पहली बात तो यह थी कि हाल ही में मध्यमवर्ग के हिंदुओं में रूढि़वादी विचार जोर पकड़ते जा रहे थे. इस के अलावा, कुछ जातियां किन्हीं खास धार्मिक कर्मकांडों से विशेष रूप से जुड़ी हुई थीं और यह विधेयक उन की रोजीरोटी के लिए खतरा बन गया था. इन सब बातों के अलावा अंधविश्वास को किसी कानूनी परिभाषा में अभिव्यक्त करना एक कठिन काम था.
इन सब बातों का नतीजा यह हुआ कि विधेयक में प्रतिबंधित गतिविधियों की सूची दिन ब दिन छोटी होती चली गई. श्रुति तांबे के अनुसार, आज जो विधेयक का मसविदा है, वह एक बिना धार वाली तलवार की तरह रह गया है. स्वयं उन्हीं के शब्दों में, ‘‘विश्वास व अंधविश्वास को एकदूसरे से अलग करने वाली रेखा बहुत पतली है.’’
कट्टरपंथी हिंदू संगठन इस विधेयक के घोर विरोधी रहे हैं. ‘सनातन संस्था’ के प्रवक्ता शंभू गावरे के अनुसार, इस विधेयक के शुरू के मसविदे में उपवास जैसी धार्मिक क्रियाओं पर भी सवालिया निशान लगा दिया गया था. इस मसविदे के मुताबिक किसी भी ऐसे कृत्य पर जिस से शरीर को नुकसान पहुंचे, प्रतिबंध लगा दिया गया था. इस में कानून की दृष्टि से परंपरागत धार्मिक व्रत या उपवास को आसानी से शामिल किया जा सकता है. हालांकि ऐसी अनेक विवादग्रस्त धाराएं इस विधेयक से निकाल दी गई हैं, इस के बावजूद अभी भी इस में अनेक विवादास्पद प्रावधान शामिल हैं. गावरे, जो एक मैकेनिकल इंजीनियर हैं, कहते हैं कि यह पूरा विधेयक ही हिंदुओं और उन के धर्म के खिलाफ है. इन समस्त विरोधों के बावजूद महाराष्ट्र सरकार ने इस विधेयक को अध्यादेश के रूप में जारी कर के डा. दाभोलकर को अपनी सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित की है.
मराठी व अंगरेजी के सुप्रसिद्ध लेखक और उपन्यासकार किरण नगरकर ने डा. दाभोलकर के बारे में कहा, ‘‘दाभोलकर की हत्या हमारे समाज के ऊपर एक कलंक है. वे एक अदम्य साहसी व्यक्ति थे और उन्होंने कभी अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया. उन की लड़ाई सामाजिक व धार्मिक बुराइयों के खिलाफ थी और अपनी इस लड़ाई में वे हमेशा खतरों से खेलते रहे…’’
वर्तमान में हम अगर डा. दाभोलकर के सुझाए रास्ते पर चल कर समाज को अंधविश्वास और जादूटोने के कुचक्र से बाहर निकालने का प्रयत्न करें तो शायद उन की मौत सार्थक हो जाए.