बनवारी ने घर में लोन ले कर भैंस पाल रखी है. पर दूध के लिए नहीं, भैंस गोबर और भैंस मूत्र के लिए. आजकल न सरकार दूध देती है, न भैंस. पर भाई साहब, इस का मतलब यह बिलकुल नहीं हो जाता कि सरकार और भैंस को पालना बंद कर दो. कुछ काम नफेनुकसान की सोचने के बदले परंपरा निभाने के लिए भी करने पड़ते हैं.

वैसे, जब से बाजार में शुद्ध नकली दूध आया है, दूध हर जगह खत्म सा हो गया है. भैंस का गोबर बनवारी स्वदेशी अगरबत्तियां बनाने के लिए बेच देते हैं तो भैंस का मूत्र घर की शुद्धी के लिए फर्श क्लीनर बनाने के लिए.

आजकल देश में हर जगह स्वदेशी का परचम लहरा रहा है. जिसे देखो वही बाहर के माल पर स्वदेशी की छाप लगा कर लाखोंकरोड़ों रुपए कमा रहा है.

इसी परचम की नाक तले लोग शान से भैंस के गोबर को गाय का बता कर स्वदेशियों को उल्लू बनाते फिरें तो बनाते फिरें, इस से बनवारी को क्या. इस देश को कभी विदेशियों के तो कभी स्वदेशियों के हाथों उल्लू बनना ही लिखा है.

कल बनवारी ने अपने नहाने के पानी से खुद के नहाने के बजाय अपनी प्रिय भैंस नहलाधुला कर आंगन में बांधी ही थी कि कहीं से वे अचानक आ टपके.

बनवारी तो उस वक्त उन्हें पहचान नहीं पाए, पर भैंस उन को पहली ही नजर में पहचान गई. उन्हें सामने से आता देख वह इस तरह चारा खाने लगी जिस तरह नेता को आते देख जनता अपनी थाली का रूखासूखा दनादन खाने लगती है.

उन को सामने से आता देख भैंस अपने चारे को दबादब अपने पेट में छिपाने की कोशिश करने लगी मानो वह बरसों से जनता की तरह भूखी हो.

यह देख कर बनवारी परेशान, ‘हद है यार, इस भैंस को अपने मुंह का निवाला भी खिलाता हूं और यह उस के बाद भी भूखी की भूखी…’

भैंस को चारे के 4-4 ग्रासों का एक ग्रास करते देखा तो बनवारी ने भैंस से पूछा, ‘‘हे भैंस, यह क्या? इस देश में चारा खत्म तो नहीं हुआ जा रहा है जो तू इस तरह…’’

‘‘देखते नहीं सामने से कौन आ रहा है?’’ कह कर भैंस ने उसी तरह से चारा खाना जारी रखा तो बनवारी को बहुत गुस्सा आया, ‘हद है यार, इस देश में किसी को कितना भी खिला लो, पर उस का पेट है भरता ही नहीं.’

‘‘वह देखो मेरा चारा खाने वाला आ रहा है. डर है कि इस बार भी कहीं यह… इस से पहले कि यह आ कर मेरे मुंह का भी चारा न खा ले…’’ भैंस चिल्लाई.

भैंस की अक्ल तो बनवारी से भी बड़ी निकली. उन्होंने कुछ देर तक अपना दिमाग धुना, तब जा कर उन्हें पहचान पाए.

कल तक जो दूसरों की आंखों में आंसुओं का सैलाब रखते थे, आज उन की आंखों में लबालब आंसू. बनवारी ने तो सोचा था कि सब की आंखों में आंसू हो सकते हैं, पर उन के कारनामों के चलते उन की आंखों में तो उन की आने वाली 7 पुश्तों तक की आंखों में आंसू नहीं आ सकते.

आते ही उन्होंने आव देखा न ताव और भैंस के पैर पकड़ लिए. बनवारी ने उन्हें भैंस के पैरों के पास से उठाने की बहुत कोशिश की, पर वे भैंस के पैरों से ऐसे चिपक गए जैसे भक्त भगवान के पैरों से चिपक जाता है.

तब बनवारी ने उन से कहा, ‘‘हे नेताजी, पैर पकड़ने हैं तो उन के पकड़ो. हो सकता है, सजा के चक्करों से भवसागर पार हो जाओ.

‘‘लोकतंत्र में भैंस के पैरों से ज्यादा जनता द्वारा गच्चा खा चुकों के पैर होते हैं.’’ पर वे नहीं माने तो नहीं माने.

बस, भैंस के पैर पकड़ कर गिड़गिड़ाते हुए कहते रहे, ‘‘हे परमादरणीय

सुश्री भैंसजी, मैं थकाहारा तुम्हारे चरणों में आया हूं. लगातार हो रही सजाओं से मैं तंग आ गया हूं. अब तो मुझे माफ कर दो प्लीज. मैं ने तुम्हें बहुत कष्ट दिए हैं. तुम से छीन कर बहुत चारा खाया, पर अब इस की सजा बहुत नहीं हो गई क्या? मैं तुम्हारे चरणों में पड़ कर अपने किए की तुम से माफी मांगता हूं.

‘‘अगले जन्म में तुम्हारा चारा खाना तो दूर अपना चारा भी तुम्हें ही दिया करूंगा. पर मुझे अब इन लगातार हो रही सजाओं से छुटकारा दिला दो…’’

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