4 जून, 2024 को आए आम चुनाव के नतीजों ने एक अहम बात यह स्पष्ट कर दी है कि लोकतंत्र में जनता अपना भविष्य खुद लिखने में भरोसा करती है. लेकिन ये नतीजे कई सवाल भी खड़े कर गए हैं, मसलन यह कि अगर कोई लहर भाजपा के पक्ष में थी या नहीं भी थी तो उसे मध्य प्रदेश, ओडिशा, दिल्ली और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में बंपर सफलता क्यों मिली और उत्तर प्रदेश, राजस्थान व हरियाणा जैसे अपने दबदबे वाले राज्यों में वह उम्मीद से ज्यादा दुर्गति का शिकार क्यों हुई और क्यों दक्षिण में भी उसे मुंह की खानी पड़ी? वहां क्यों उस के हिंदुत्व का कार्ड नहीं चला?
क्यों भाजपा राम वाली अयोध्या सीट से हारी जिस के चलते हिंदू घोषिततौर पर दोफाड़ हो गए. अलावा इस के, जवाब इस सवाल का भी महत्त्वपूर्ण है कि कांग्रेस क्यों सियासी पंडितों की उम्मीद से ज्यादा सीटें बटोर ले गई. पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र में भी उसे पिछले चुनाव के मुकाबले कुछ खास हाथ नहीं लगा और इन से भी ज्यादा अहम सवाल यह कि क्या वाकई में नरेंद्र मोदी का जादू उतर रहा है और राहुल गांधी की स्वीकार्यता बढ़ रही है? और ऐसा क्या हो गया जो फिर से गठबंधन वाली सरकार को आकार लेना पड़ा?
इन सवालों का कोई एक जवाब जो सटीक और नतीजों को जस्टिफाई करता हुआ है वह यह है कि इस बार जनता ने अपने वोट का इस्तेमाल कलम की तरह किया और लिख दिया कि उसे कोई अवतार नहीं, भगवान नहीं, धर्मकर्म, कर्मकांडों के नाम पर फलतेफूलते पाखंड नहीं, अयोध्या, काशी, मथुरा नहीं, रासलीलाएं और रामलीलाएं नहीं, कलश यात्राएं और कांवड़ भी नहीं बल्कि एक अच्छी मैनेजिंग गवर्नमैंट चाहिए जो स्कूल, सड़क, अस्पताल बनाए और अर्थव्यवस्था मजबूत बनाए, फैक्ट्रियां व कारखाने बनाए जिन से रोजगार के नएनए मौके मिलते हैं. यह और ऐसा बहुतकुछ पिछले 10 सालों से नहीं हो रहा था, उलटे आम लोग इतनी दहशत और घुटन में जी रहे थे कि इस से नजात पाना ही एक वक्त में दुष्कर काम लगने लगा था.
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