आरोप तो इतने गंभीर और सनसनीखेज हैं कि पहली नजर में ही हिंदुजा परिवार बेहद क्रूर, हिंसक और शोषक नजर आता है. स्विट्जरलैंड की एक अदालत के सरकारी वकील यवेस बर्टोसा की दलीलों पर गौर करें तो हिंदुजा परिवार ने अपनी एक महिला नौकर से हफ्ते में सातों दिन काम कराया और हर दिन 18 घंटे कराया. एवज में महज 7 स्विस फ्रैंक यानी 650 रुपए प्रतिदिन दिए. और तो और, हिंदुजा परिवार ने अपने कर्मचारियों के पासपोर्ट भी जब्त कर रखे हैं. काम करने वालों को बिना इजाजत बाहर नहीं जाने दिया जाता और उन्हें पगार भी इंडियन करैंसी में दी जाती है जिसे वे स्विट्जरलैंड में खर्च नहीं कर पाते.
यवेस बर्टोसा की अक्ल और प्रैक्टिस की दाद देनी होगी जिन्होंने एक झटके में हिंदुजाओं को विलेन बना कर रख दिया. यह हालांकि एक अच्छे वकील की पहचान भी यही है कि वह अपने मुवक्किल के हक और हित में मामले को इतना बढ़ाचढ़ा कर पेश करे कि अदालत और उस में मौजूद लोगों का दिल करुणा से भर आए. फिर इन दलीलों ने तो जमींदारी और पौराणिक युग की याद दिला दी जहां नौकर नौकर नहीं, बल्कि गुलाम होता था. वह चिलचिलाती धूप में हल में बैलों के मानिंद जुता रहता था और मालिक अट्टहास लगाता उस की नंगी पीठ पर कोड़े बरसाता रहता था. उसे इतना ही खाने को दिया जाता था कि वह जिंदा रहते काम भर करता रहे और इसे ही अपनी नियति व समय मान बैठे.
लेकिन इस मामले में ऐसा कुछ नहीं है क्योंकि नौकरानी अदालत पहुंच कर इंसाफ, मुआवजा और मालिक को सजा की भी मांग कर रही है. मुआवजा भी कोई ऐसावैसा नहीं बल्कि करोड़ों में मांगा गया है- अदालती खर्च के लिए 10 मिलियन फ्रैंक यानी 9.43 करोड़ रुपए और बतौर मुआवजा 3.5 मिलियन फ्रैंक यानी लगभग 33 करोड़ रुपए. इस मांग में नौकर की दौ कौड़ी की नहीं बल्कि मालिक की खरबों की हैसियत को आधार बनाया गया है. अब यहां यह पूछने और बताने वाला कोई नहीं कि जब इतनी ही परेशानियां और दुश्वारियां थीं तो नौकरानी ने काम क्यों नहीं छोड़ दिया, जब वह अदालत तक दौड़ सकती थी तो काम मांगने कहीं और भी जा सकती थी.
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