लोकसभा चुनाव में नोटबंदी, जीएसटी और आतंकवाद अब प्रचार का मुद्दा नहीं रह गया है. चायवाला और 15 लाख नकद के पुराने जुमलों की जगह पर चौकीदार नया जुमला उभर कर प्रचार का जरीया बन गया है. ऐसे जुमलों से साफ लग रहा है कि देश के नेताओं की नजर में लोकसभा चुनाव क्या महत्व रखते है? सत्ता पक्ष अपने 5 साल के काम को मुद्दा बनाने की जगह पर चौकीदार को मुद्दा बना रही है. 25 सौ रूपये माह का वेतन पाने वाला चौकीदार की व्यथा देखने वाला भले ही कोई ना हो पर सोशल मीडिया पर चौकीदार बनने की होड़ में नेता ही नहीं कार्यकर्ता कोई भी किसी से पीछे चलने को तैयार नहीं है.

पिछले लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने खुद को ‘चायवाला’ कहा था. 2019 के लोकसभा चुनाव में खुद को ‘मैं भी चौकीदार’ कह कर अपना प्रचार शुरू किया. प्रधानमंत्री ने खुद के टिवट्र एकांउट में चौकीदार शब्द जोड़ा. इसके बाद भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह और दूसरे नेताओं ने खुद को चौकीदार लिखना शुरू कर दिया. ‘चायवाला’ की बात हो या ‘चौकीदार’ चुनावी मुद्दा बनने के बाद भी इनके जीवन में कोई बदलाव नही आया है.

2014 के चुनाव के बाद किसी भी चाय बेचने वाले की जिदंगी में कोई बदलाव नहीं आया है. सड़क के किनारे चाय बेचने वाले पुलिस, नगर पलिका और स्थानीय नेताओं का शिकार होते हैं. इनकी दुकानों को बारबार उठाकर फेंक दिया जाता है. इसके बाद ज्यादा पैसा लेकर ही दोबारा दुकान लगाने दी जाती है. ‘चायवाला’ को चुनावी मुद्दा बनाकर भले ही नरेन्द्र मोदी सत्ता तक पहुंच गये हों पर चाय बेचने वालों की जिदंगी में कोई बदलाव नहीं आया है.

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