उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की रथयात्रा की शुरुआत जिस तरह से हुई, उसने उन लोगों को जरूर निराश किया होगा, जो यह उम्मीद बांधे बैठे थे कि इस कार्यक्रम से पार्टी के विभाजन का आरंभ हो जाएगा. हुआ इसका उल्टा. काफी समय बाद यह पहला मौका था, जब पार्टी के सारे बडे़ नेता एक साथ दिखाई दिए और उनके व्यवहार में मनमुटाव भी नहीं दिखा.

यह ठीक है कि पिछले कुछ सप्ताह में पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के झगड़े जिस तरह से सतह पर आए, उनसे उसकी छवि को खासा नुकसान पहुंचा. अभी न तो यह कहा जा सकता है कि रथयात्रा की शुरुआत में जो एकता दिखाई दी है, वह उस नुकसान की कितनी भरपाई कर पाएगी, और न ही यह कि ये एकता कितनी स्थायी होगी. पार्टी अगर आगामी विधानसभा चुनाव से कोई बड़ी उम्मीद बांधना चाहती है, तो उसे चुनाव तक लगातार यह दिखाना होगा कि उसके शीर्ष नेतृत्व में कोई दरार नहीं है.

मुख्यमंत्री अखिलेश अपनी ‘विकास से विजय की ओर’ रथयात्रा उस समय शुरू कर रहे हैं, जब चुनाव प्रचार के मामले में समाजवादी पार्टी बाकी दलों से पिछड़ चुकी है. भारतीय जनता पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह पहले ही कई सभाएं कर चुके हैं. इसके अलावा भाजपा ने विरोधी दलों के बड़े नेताओं को तोड़ने का अभियान भी चलाया हुआ है. कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की खाट सभाएं भी पिछले दिनों खूब चर्चा में रहीं. कांग्रेस ने राज बब्बर व शीला दीक्षित जैसे नेताओं की टीम को वहां लगातार सक्रिय कर रखा है. दूसरी ओर, बहुजन समाज पार्टी की मायावती अपनी जनसभाओं में भीड़ जुटाने के सारे रिकॉर्ड तोड़ चुकी हैं. अखिलेश यादव ने आगामी चुनाव के लिए अपनी उपलब्धियों को सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा बनाया है. बेशक उनकी उपलब्धियां छोटी नहीं हैं, लेकिन सिर्फ उपलब्धियों के नाम पर वोट हासिल करना कभी आसान नहीं होता.

सत्ताधारी दल जब दोबारा जनादेश हासिल करने के लिए मैदान में उतरता है, तो उसे ‘एंटीइनकंबेन्सी’ का सामना भी करना पड़ता है. मुख्यमंत्री यह मान रहे होंगे कि वह अपनी उपलब्धियों के बखान से इस कारक को खत्म करने में सफल हो जाएंगे. लेकिन फिलहाल उनकी समस्या सिर्फ ‘एंटीइनकंबेन्सी’ नहीं होगी, बल्कि उन्हें लोगों को इस बात के प्रति भी आश्वस्त करना होगा कि उनकी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में कोई मतभेद नहीं है. यह आसान नहीं होगा, खासकर उस समय, जब विरोधी दल इस मतभेद को चुनाव का सबसे बड़ा मुद्दा बनाते दिख रहे हैं.

अगले विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की अपनी छवि भी दांव पर लगी है. शुरू में भले ही उन्हें नौसिखुआ कहा जा रहा था, यहां तक कहा जा रहा था कि असली मुख्यमंत्री वह नहीं, पार्टी के दूसरे वरिष्ठ नेता हैं. पर अब पांच साल बाद उनकी उपलब्धियों की चर्चा होती है. सबसे बड़ी बात यह है कि पांच साल सरकार चलाने के बाद उनके विरोधी भी उन पर कोई निजी आरोप लगाने की स्थिति में नहीं हैं. पर अब अखिलेश को यह साबित करना है कि उनकी यह छवि पार्टी को वोट भी दिला सकती है. और इससे कठिन काम लोगों को यह भरोसा दिलाना है कि मुख्यमंत्री पद के लिए वह अपनी पार्टी की सर्वसम्मत पसंद हैं. विधानसभा चुनाव अब बहुत पास हैं, फिर भी इतना वक्त तो है ही कि अगर कोशिश हो, तो पार्टी की छवि को पहुंचे नुकसान की भरपाई की जा सके. हालांकि, यह वक्त भरपाई से आगे जाकर विरोधियों को परास्त करने की रणनीति बनाने का है.

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