चार चरणों के मतदान के बाद अब लोगों की दिलचस्पी इस बात में सिमटती नजर आ रही हैं कि कौन सी पार्टी कितनी सीटें कहां से ले जाकर सरकार बनाएगी. चुनाव का हाल तो गर्भवती बहू जैसा हो गया है जिसकी चाल- ढाल, खान- पान और हाव- भाव देखते घर के बड़े बूढ़े अंदाजा लगाते रहते हैं कि लड़का होगा या फिर लड़की होगी. यही 23 मई को लेकर हो रहा है. सबका अपना-अपना अंदाज हैं कि इस दिन क्या होगा, क्या भाजपा नरेंद्र मोदी के चेहरे और नाम के सहारे अपनी चुनावी नैया पार लगा पाएगी या फिर कांग्रेस उसकी राह में रोड़े अटकाने में कामयाब हो पाएगी. इस बात को लेकर राजनैतिक पंडितों, वैज्ञानिकों, विश्लेषकों और सटोरियों के साथ साथ तोता छाप और ब्रांडेड ज्योतिषों के माथे पर भी बल हैं. यानि कोई दावे या पूरे आत्मविश्वास से यह नहीं कह पा रहा कि 23 तारीख को क्या होगा. यह दिलचस्पी, जैसे जैसे दिन चढ़ते जा रहे हैं, वैसे वैसे रोमांच में बदलती जा रही है. और यही चुनावी लुत्फ भी है कि 23 मई की दोपहर हर कोई यह कहता नजर आए कि देखा...... मैंने तो पहले ही कहा था कि ..... और ऐसा न होता तो बात कुछ और होती.

‘राजनीतिक उदासीनता’ है कम मतदान की वजह

यह चुनाव 2014 के चुनावों से एकदम भिन्न है क्योंकि वोटर की कसौटी पर आस्था नहीं बल्कि पांच साल का कार्यकाल है. प्रचार भले ही धर्म, जाति, भूतपूर्व व वर्तमान भ्रष्टाचार और राष्ट्रवाद को लेकर ज्यादा हो रहा हो लेकिन हकीकत में वोट इस बात पर ज्यादा पड़ रहा है कि मोदी सरकार ने ऐसा किया क्या है, जो उसे दोबारा देश सौंप दिया जाये. सिर्फ यहीं सवाल, जो कोई 90 फीसदी लोग पूछ और सोच रहे हैं. पर कांग्रेस की उम्मीदें टिकी हैं. वजह उसे यह समझ आ रहा है कि एयर स्ट्राइक और आतंकवाद के खात्मे का हल्ला भाजपा को 200 पार नहीं ले जा पाएगा. और वह 100 सीटें बड़े इतमीनान से जीतकर एनडीए को सरकार बनाने से रोक लेगी और दूसरों के दम पर सरकार बना ले जाएगी, ठीक वैसे ही जैसे साल 2004 में 144 सीटें ले जाकर बनाई थी.

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