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और प्रतिभा नहीं रही- भाग 1: प्रतिभा अस्पताल में अकेली क्यों थी

‘‘पापाआप जल्दी आओ… मम्मी का औक्सीजन लेवल कम होता जा रहा है…’’ बेटे की घबराई हुई आवाज से सहम गया था मैं।

‘‘तुम चिंता मत करोमैं बस अभी पहुंच रहा हूं,” कहते हुए बिस्तर से उठ खड़ा हुआ। ऐसा कैसे हो सकता है। मैं अभी ही तो अस्तपाल से लौटा हूंतब तो सबकुछ ठीक था. सुबह डाक्टर ने भी बोला था कि प्रतिभा अब स्वस्थ्य हो रही है और 1-2 दिनों में ही उस का वैंटीलेटर हटा देंगे। फिर अचानक क्या हो गया… हो सकता है बच्चे घबरा रहे होंगे. जल्दी से कपड़े बदले और अस्पताल की ओर चल पड़ा। हालांकि दिल जोरजोर से धड़क रहा था। रास्तेभर कुदरत से कामना करता रहा कि सबकुछ ठीक ही करना… प्रतिभा को कुछ न होने पाए.

लगभग 1 माह पहले ही तो वे इस अस्पताल में भर्ती हुए थे। उन्हें कोरोना ने अपनी चपेट में ले लिया था।‘‘इन्फैक्शन ज्यादा है…औक्सीजन की कमी कभी भी महसूस हो सकती हैइसलिए तुम किसी बड़े अस्पताल में भर्ती हो जाओ…’’ डाक्टर ने कहा तो उसे प्रतिभा ने सुन लिया था,”आप कहीं जाने और जाने की व्यवस्था कर लो…’’

‘‘अरेमुझे कुछ नहीं हुआ…मैं एकदम स्वस्थ महसूस कर रहा हूं…’’‘‘नहीं…अभी स्वस्थ लग रहे हो पर यदि औक्सीजन की कमी हुई तो तत्काल कहां मिलेगी…आप तो चलने की तैयारी करो…हम चले ही चलते हैं…’’डर तो मुझे भी लग रहा था कि यदि वाकई औक्सीजन की कमी अचानक सामने आ गई तो क्या करेंगे। कोरोना की महामारी इतनी तेजी से फैल रही थी कि अस्पतालों में बैड खाली नहीं थे। मरीजों का औक्सीजन लेवल कम हो रहा था। सप्ताह भर में ही दर्जनों लोग अपनी जानें गवां बैठे थे। डर तो स्वाभाविक ही था। भैया ने भी बोल दिया था, ‘‘देखोतुम चले ही जाओ… हम कोई रिस्क नहीं लेंगे।’’

भैया हमारे लिए अभिभावक ही तो हैं…उन का स्नेह ही तो हमें संबल देता रहा है। भला उन की बात कैसे काट सकते थे। प्रतिभा ने नागेंद्र को फोन कर दिया था।

उन्होंने आननफानन में एक ऐंबुलैंस की व्यवस्था कर दी थी। ऐंबुलैंस ने रात में एक निजी अस्पताल में छोड़ दिया था। चैक करने के बाद मुझे

भर्ती कर लिया गया। प्रतिभा अस्पताल के परिसर में अकेली रह गई। मेरी केवल फोन पर ही बात हो सकी,”देखोकुछ खा लेना और वहीं परिसर में सो जाना…’’

 

‘‘हां…पर यहां तो वौशरूम तक की व्यवस्था नहीं है।’’‘‘अरे…आज की रात काट लो कल तुम वापस चली जाना। मैं नागेंद्र को बोल कर गाड़ी की व्यवस्था करा दूंगा…’’

 

‘‘आप को अकेला छोड़ कर…’’‘‘क्या कर सकते हैं….मुझे वार्ड से निकलने की इजाजत नहीं है और तुम परेशान होती रहोगी।’’‘‘रोली को बुला लेते हैं…हम दोनों रह आएंगे…’’‘‘अरे नहीं…इतनी महामारी फैली है…हम बच्चों के साथ रिस्क नहीं ले सकते।’’

 

प्रतिभा कुछ नहीं बोली। वह शायद मेरी बात से सहमत थी। मेरे हाथ में बौटल लगा दी गई थी। पलक झपकते ही मेरी आंखों में नींद ने जगह बना ली। दूसरे दिन सुबह आंख खुलते ही मुझे प्रतिभा की चिंता हुई । फोन पर ही बात कर सकती था, “कैसी हो…”

 

‘‘रातभर जागती रही…’’‘‘अरे ….सो जातीं…’’‘‘यहां तो कोई व्यवस्था है ही नहीं… और फिर आप की भी चिंता लगी थी…ये लोग मुझे वार्ड में घुसने ही नहीं दे रहे थे…’’ उस का स्वररोआंसा था।‘‘हांवार्ड में तो आने नहीं देते…अच्छा मैं गाड़ी मंगवा देता हूंतुम वापस घर चली जाओ…’’

 

वह कुछ नहीं बोली। जब गाड़ी में बैठने लगी तब ही उस ने फोन किया था, “गाड़ी आ गई है…पर मेरा मन नहीं जाने को….मैं रुक ही जाती हूं…’’

 

‘‘कैसे रुकोगी…यहां कोई व्यवस्था है नहीं….और फिर 1-2 दिन की बात हो तो भी ठीक हैपता नहीं मुझे कब तक अस्पताल में रहना पड़ेगा…’’

 

वैसेसच तो यह भी था कि प्रतिभा का जाना मुझे भी अखर रहा था। मैं अकेला कैसे अस्पताल में रहूंगा…पर क्या करताकोई विकल्प था ही नहीं।

 

‘‘मुझे बहुत घबराहट हो रही है…’’

 

‘‘घबराने की कोई बात नहीं है…यहां अच्छे से इलाज हो रहा है और कोई परेशानी होगी तो मैं रोली को बुला

लूंगा…तुम चली ही जाओ…’’प्रतिभा कुछ नहीं बोली। पर मैं समझ गया कि उस की आंखों से आंसू बहे ही होंगे। ऐसे आंसू तब भी बहे थे जब उस ने सुना था कि मैं कोरोना पौजिटिव हो गया हूं। उस के लिए घबराने की बात तो थी ही।

 

शहर में लगातार कोरोना के केस बढ़ रहे थे और दर्जनों लोगों की जानें जा चुकी थीं। उस के मन में समा गया था कि इस बीमारी से बच के निकल पाना आसान नहीं है। यही कारण था कि वह मुझे दूसरे शहर के अनजाने अस्पताल में अकेला छोड़ कर जाने से हिचक रही थी.

 

 

बिदके क्यों नीतीश कुमार

कहते हैं राजनीति में कब कौन किस का दोस्त और दुश्मन बन जाए कहा नहीं जा सकता. यहां साधे जाते हैं तो सिर्फ हित. इन्हीं हितों की उठापटक में राजनीतिक रिश्ते टूटतेबनते हैं. 9 अगस्त को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भारतीय जनता पार्टी के साथ एनडीए गठबंधन तोड़ा और अपने पद से इस्तीफा दिया और 10 अगस्त को विपक्षी पार्टियों के साथ महागठबंधन सरकार के मुखिया के तौर पर फिर से मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली. उन के साथ राजद के नेता तेजस्वी यादव ने उपमुख्यमंत्री पद की शपथ ली.

शपथ लेने के बाद अपने ही अंदाज में नीतीश कुमार ने राजभवन में आयोजित एक समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निशाना साधा. उन्होंने कहा, ‘‘वे 2014 में जीत गए, लेकिन अब 2024 को ले कर उन्हें चिंतित होना चाहिए.’’ उन्होंने आगे कहा, ‘‘जो 2014 में सत्ता में आए, क्या वे 2024 में भी जीतेंगे? मैं 2024 में सभी (विपक्षी दलों) को एकजुट देखना चाहूंगा. मैं ऐसे किसी पद (प्रधानमंत्री) की दौड़ में नहीं हूं.’’

नीतीश के उक्त आयोजन में दिए इस बयान से साफ है वे इस बार पूरी तैयारी के साथ आए हैं ताकि राज्य व देश में भाजपा की बढ़ती ताकत को रोका जा सके. इस बात से यह भी तय हो गया कि वे 2024 में लोकसभा में होने वाले चुनावों को ध्यान में रखते हुए बड़ी योजना में शामिल हैं और उन के रडार में आने वाले दिनों में सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी होने वाले हैं.

सीटों का गणित

नीतीश कुमार ने 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा और उस के सहयोगी दलों के साथ मिल कर चुनाव लड़ा था. बिहार में विधानसभा की कुल 243 सीटें हैं. सरकार बनाने के लिए 122 चाहिए. चुनाव में भाजपा को 74 सीटें मिलीं, राजद को 75 और जेडीयू को 43.

हाल ही में राजद की सीटों में बढ़ोतरी हुई थी, जिस में एआईएमआईएम से आए 4 विधायक समेत एक विधायक बोहचा से था जिस के बाद आरजेडी की सीटों की संख्या बढ़ कर 80 हो गई थी. ऐसे ही भाजपा की भी सीटों में बढ़ोतरी हुई, जिस में वीआईपी से 3 विधायक जुड़ कर कुल 77 हुए. वहीं जेडीयू में भी एक बीएसपी और एक एलजेपी का विधायक शामिल होने से उस की संख्या 45 पहुंची.

ऐसे में पक्ष और विपक्ष के बीच रस्साकशी चल रही थी. बिहार सरकार कब गिर जाए और नीतीश कब पाला बदल लें, इस तरह के कयास राजनीतिक जानकार काफी पहले से ही लगा रहे थे, क्योंकि नीतीश भले भाजपा के साथ सरकार बना लें पर दाल गलने वाली बात कम ही रहती है. ऐसे में नीतीश बिना आरजेडी के समर्थन के सरकार बना नहीं सकते थे.

पलटा-पलटी

गौरतलब है कि सियासत हर समय अपने रंगढंग बदलती रहती है. नीतीश कुमार इसी रंगढंग के मास्टर भी कहे जा सकते हैं, इस में कोई संदेह नहीं. नीतीश कुमार ने एक बार फिर अपने सियासी दोस्त बदले हैं. उन्होंने फिर एनडीए का साथ छोड़ दिया है और फिर महागठबंधन के साथ आ गए हैं. साल 2013 में भी उन्होंने एनडीए का साथ छोड़ा था और आरजेडी के साथ महागठबंधन में आ गए थे.

उस दौरान भी उन की तरफ से तर्क दिया गया कि वे सांप्रदायिकता के खिलाफ हैं और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री के चेहरे के तौर पर उन्हें पसंद नहीं हैं. हालांकि लोकसभा चुनाव में आरजेडी और जेडीयू अलगअलग लड़ीं पर कमाल कोई नहीं कर पाई. भाजपा ने सब से अधिक 22 सीटों पर जीत हासिल की.

पर 2 वर्षों बाद 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव में आरजेडी और जेडीयू के महागठबंधन ने कमाल कर दिया. इस जोड़ी के आगे मोदी की पौपुलैरिटी फीकी पड़ गई और सत्ता की आस लगाए भाजपा को 2017 तक नीतीश के पलटने तक इंतजार करना पड़ा. उस दौरान नीतीश पर भ्रष्टाचारी का साथ देने के आरोप लगे और उन्होंने महागठबंधन का साथ छोड़ भाजपा व सहयोगी पार्टियों के साथ फिर से सरकार बना ली.

2020 में नीतीश कुमार ने एनडीए के साथ मिल कर ही चुनाव लड़ने का फैसला किया पर उस चुनाव में उन्हें कम सीटें मिलीं, बावजूद इस के उन्हें मुख्यमंत्री बनाया गया. तब नीतीश कुमार के बारे में कटाक्ष कसा गया था कि जब प्रदेश में सांप्रदायिकता बढ़ती है तब वे आरजेडी के साथ चले जाते हैं, जब भ्रष्टाचार बढ़ता है तब वे भाजपा के साथ चले जाते हैं.

अब 2022 में फिर से नीतीश कुमार ने अपने पुराने संघर्ष के सहयोगी और दोस्त लालू प्रसाद यादव की पार्टी आरजेडी से गठबंधन कर लिया है.

टकराव पहले से

हालांकि बिहार की सियासत में भाजपा और जेडीयू के बीच तल्खी का सिलसिला काफी पहले से शुरू हो गया था. यह सिलसिला 2019 के आम चुनाव के बाद से ही शुरू हो गया जब जेडीयू को केंद्रीय मंत्रिमंडल में मांग के अनुरूप 3 सदस्यों के लिए जगह नहीं मिली. इस के बाद 2020 के विधानसभा चुनाव में स्वयं को नरेंद्र मोदी का हनुमान कहने वाले चिराग पासवान की भूमिका ने जख्म को गहरा करने में अहम भूमिका निभाई थी. यही कारण भी था कि जेडीयू भाजपा के फेर में फंस कर अपने कद और सीटों को काफी गंवा चुकी थी.

इस के बाद बोचहां विधानसभा क्षेत्र उपचुनाव के दौरान जिस तरह, दबी जबान से ही सही, केंद्रीय मंत्री नित्यानंद राय को मुख्यमंत्री बनाए जाने की चर्चा तेज हुई, वह जेडीयू को नागवार गुजरनी ही थी और अंत में आरसीपी सिंह प्रकरण से जेडीयू को फाइनल निर्णय लेना ही था.

सहयोगियों की दमघोंटू भाजपा

यह सहयोगी दलों के लिए इसलिए भी जरूरी हो गया है कि भाजपा अपने साथियों के साथ परिपक्व लोकतंत्र को पनपने नहीं देती है. वह समुद्र की बड़ी मछली की तरह अपने से छोटी मछलियों को लगातार निगलती रहती है और अपनी भूख शांत करती है. जब से भाजपा अस्तित्व में आई है उस ने अपने इर्दगिर्द अपने सहयोगियों के लिए दमघोंटू वातावरण तैयार किया है. ऐसा वातावरण जहां भाजपा तो सहयोगियों के कंधों पर चढ़ कर अपना विस्तार कर रही है पर उस के सहयोगी या तो कमजोर अवस्था में पहुंचा दिए गए या मरणासन्न अवस्था में.

बीते 2019 के लोकसभा चुनाव में एनडीए के बैनर तले 21 पार्टियां चुनाव मैदान में थीं. उन में से लगभग आधा दर्जन उस से दूर हो चुकी हैं. सब से मजबूत और बड़े माने जाने वाले दलों का बाहर जाना अहम है. इन में हालिया जदयू, किसान आंदोलन के समय शिरोमणि अकाली दल और 2019 में महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के बाद शिवसेना शामिल हैं.

यह हकीकत भी है कि क्षेत्रीय दलों को भाजपा का वर्चस्व भी नहीं भा रहा है, क्योंकि भाजपा उन के वर्चस्व वाले राज्यों में उन्हीं के कंधों पर चढ़ कर अपनी ताकत बढ़ा रही है. अधिकतर जगहों में भाजपा ने अपने सहयोगी घटकों के साथ तोड़फोड़ मचाई है. भाजपा की एक सहयोगी लोक जनशक्ति पार्टी भी विभाजित हो चुकी है जिस का एक घटक अभी एनडीए में है. ऐसे ही शिवसेना में भी तोड़फोड़ मची जिस का एक कथित घटक भाजपा के साथ सरकार में है. अन्नाद्रमुक भी बंट चुकी है. हालांकि वह भी एनडीए के साथ मानी जाती रही है. लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद असम का बोडो पीपुल्स फ्रंट, पश्चिम बंगाल का गोरखा जनमुक्ति मोरचा, तमिलनाडु की डीएमके और गोवा की गोवा फौरवर्ड पार्टी उस से दूर हुई हैं.

विपक्ष के लिए मौका

प्रसिद्ध पुस्तक ‘गोपालगंज टू रायसीना रोड’ के राइटर नलिन शर्मा, जिन्होंने अपनी किताब में जिक्र ही नीतीश कुमार और लालू यादव की राजनीतिक सफर को ले कर किया, कहते हैं, ‘‘लालू ने कभी बीजेपी के साथ सम झौता नहीं किया, लेकिन नीतीश कुमार को भी बीजेपी की सांप्रदायिक पिच कभी सही नहीं लगी.’’

यह देखा भी जा सकता है, पिछली सरकार में भले भाजपा बड़ी पार्टी रही हो और संख्या बल के हिसाब से उस का दबदबा रहा हो पर नीतीश ने अपने तौरतरीकों से ही सरकार चलाई. भाजपा के खिलाफ कोई बयान देने से वे चूके नहीं.

विपक्ष के लिए बिहार में सरकार का पलटना, खासकर नीतीश कुमार जैसी बेदाग छवि के नेता का भाजपा के खिलाफ खड़े हो कर पाला बदल लेना किसी बड़ी कामयाबी से कम नहीं. इस से सब से बड़ी बात यह है कि विपक्ष को मनोवैज्ञानिक लाभ मिला है.

बिहार में 2020 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 19 सीटें जीतीं. आरजेडी से मोलभाव कर कांग्रेस ने ज्यादा सीटें ले लीं. जिस का खमियाजा आरजेडी को उठाना पड़ा पर बावजूद इस के, पिछले

2 बार से विपक्ष में बैठते हुए राजद नेता तेजस्वी यादव की पौपुलैरिटी बढ़ी ही है. उन की स्वीकार्यता बिहार राजनीति में मुख्य नेताओं में आती है. तेजस्वी को बिहार में मं झे हुए नेता के तौर पर पहचान मिली है. उन की छवि मजबूत नेता की बनी है.

ऐसे में इस घटनाक्रम का फायदा लंबे अंतराल के बाद राजद को मिलने वाला है और ऐसा कर वे भाजपा को बिहार की राजनीति से दूर भी कर सकेंगे. हालांकि इस घटनाक्रम में कांग्रेस को भी लाभ हुआ है, एक, भाजपा के हाथ से एक राज्य निकला है, दूसरा, सत्ता के नजदीक होना उस के राजनीतिक अस्तित्व के संकट को बचाने का उपाय बनेगा.

बिहार में बदलाव के माने

कोई शक नहीं कि नीतीश के इस कदम से भाजपा को करारा  झटका लगा है और यदि यह गठबंधन बरकरार रहता है तो इस बात की संभावना बढ़ जाती है कि 2024 के लोकसभा चुनावों में इस का राष्ट्रीय पैमाने पर असर पड़ेगा.

बिहार के लिए अकसर माना जाता है कि यह वह भूमि है जो पूरे देश को राजनीतिक सीख देती है, यहीं से मजबूत से मजबूत सत्ता से टकराने का जज्बा पैदा होता है जो पूरे देश में फैलता है. 70 के बाद राष्ट्रीय राजनीति में हलचल यहीं से शुरू हुई. इंदिरा गांधी के निरंकुश शासन के खिलाफ बिहार से ही जयप्रकाश नारायण ने शक्तिशाली जनआंदोलन शुरू किया था. उसे जेपी आंदोलन नाम दिया गया. सैकड़ों लालू यादव, नीतीश कुमार, मुलायम सिंह यादव, शरद यादव, चंद्रशेखर जैसे युवा और छात्रनेता जेपी आंदोलन में शामिल हो गए थे. करीबकरीब सभी नेता आपातकाल के दौरान जेल में रहे. ये सभी नेता लोहिया, जेपी, कर्पूरी ठाकुर और जेपी की समाजवादी विचारधारा से प्रभावित थे. यह वह समय भी था जब भारत में पिछड़ी जाति की राजनीति ने सिर उठाया था.

2024 में अगर विपक्ष एकजुट होता है तो कमंडल की राजनीति और मंडल की ताकतों में फिर से सुगबुगाहट देखने को मिल सकती है. इस से राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी दलों में नई उम्मीद जगेगी.

भाजपा हमेशा चुनाव जीतने के कारणों में सब से बड़ा तर्क देती है कि मोदी नहीं तो कौन. वह ऐसा कर लोगों को भ्रमित करती है कि मोदी के सामने कोई बड़ा नेता नहीं है. सवाल बड़े नेता का योगदान कभी भारतीय राजनीति में नहीं रहा.

सवाल है एक नेतावादी राजनीति के खिलाफ विपक्ष कैसे खुद को समेटता है. बंटा हुआ विपक्ष और कमजोर होती कांग्रेस, ये दोनों बिंदु भाजपा के विस्तार के कारक हैं. जहां विपक्ष जीती भी या भाजपा को टक्कर देने की पोजीशन में आई वहां भाजपा ने ईडी, सीबीआई और अन्य केंद्रीय एजेंसियों का डर दिखा कर तथा धनबल से सरकार बना ली.

बिहार में बदला यह घटनाक्रम देश की सभी विपक्षी पार्टियों के लिए राष्ट्रीय संदेश की तरह है. साथ ही, यह भाजपा के लिए भी सीख है कि वह अपने सहयोगियों के साथ अब भी ठीक से संतुलन नहीं बनाएगी तो वह अकेली अलगथलग पड़ जाएगी, जो उस के लिए ठीक नहीं होगा.

आज जब लोकतंत्र और संविधान दोनों गंभीर खतरे में हैं और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का माहौल है, ऐसे में बिहार की भूमि फिर से वह जमीन तैयार कर रही है जहां से बदलाव की फसल पैदा होती है. इस से विपक्ष के मनोबल को भी बढ़ावा मिला है. बिहार फिर देश के सामने एक एजेंडा तय कर रहा है और विपक्ष को मौका दे रहा है कि वह फिर से अपनी राजनीतिक शक्तियों को एकजुट करे.

धर्म: आस्था या दिखावा

आस्था जब दिखावे की चीज बन जाती है तब न सिर्फ आप खुद इसे भोग रहे होते हैं बल्कि दूसरों को भी परेशानी   झेलनी पड़ती है. आस्था ऐसी चीज होती है जिस में दूसरा व्यक्ति मरपिट रहा होता है जबकि आस्थावान को कोई फर्क ही नहीं पड़ता.

सुजय आज बहुत खुश था. खुश हो भी क्यों न, बात ही खुश होने की

थी. माइनिंग इंजीनियरिंग से डिग्री लेने के बाद लगभग 2 साल तक इधरउधर टप्पे खाने के बाद उस ने छोटीमोटी नौकरी की और अलगअलग जगह बड़ी नौकरी के लिए आवेदन कर रहा था. उस की मेहनत रंग लाई और दोदो परीक्षाएं में सफल होने के बाद एक प्रसिद्ध सीमेंट फैक्ट्री में फाइनल इंटरव्यू के लिए बुलाया गया था.

यह सीमेंट फैक्ट्री देश की बड़ी फैक्ट्रियों में गिनी जाती थी. सब से बड़ी बात यह थी कि फैक्ट्री जिस इलाके में थी उसी इलाके में देवीजी का एक प्रसिद्ध मंदिर भी था. सुजय इस बात से भी खुश था कि चयन होने के बाद वह खाली समय में देवी दर्शन के लिए भी चला जाएगा.

इंटरव्यू का बुलावा भी उन्हीं 9 दिनों के बीच ही था जिन दिनों में देवीजी सब से ज्यादा पूजी जाती हैं और स्पष्टतया सुजय के लिए यह ‘माता ने बुलाया’ वाली स्थिति थी.

सुजय के गृहनगर से यह जगह लगभग 250 किलोमीटर दूर थी और वहां पहुंचने में लगभग 4 घंटे लगते हैं. सुजय को इंटरव्यू के लिए दोपहर एक बजे का समय दिया गया था. उस ने निश्चित किया कि वह सुबह 5 बजे चलने वाली ट्रेन से निकलेगा और 9 बजे तक वहां पहुंच जाएगा. नाश्ता वगैरह कर के 11 बजे तक फैक्ट्री पहुंच जाएगा.

निश्चित दिन निश्चित समय पर सुजय स्टेशन पहुंच गया. स्टेशन का दृश्य विस्मित करने वाला था. प्लेटफौर्म पर इतनी भीड़ थी कि पैर रखने की जगह भी न थी. ट्रेन लगभग 30 मिनट देरी से आई. सुजय पर्याप्त समय ले कर निकला था, इसलिए इस देरी से उसे खास प्रभाव नहीं पड़ा. जैसेतैसे इस भीड़ में वह एक कोच में घुसने में कामयाब हो गया. इतनी भीड़ थी कि उसे खड़े होने में भी असुविधा हो रही थी. ‘‘अरे बाप रे, इतनी भीड़,’’ सुजय डब्बे में घुसते ही बोला.

‘‘अरे भैया, यह भीड़ नहीं, यह तो आस्था है,’’ एक यात्री ने कहा.

‘‘यह कैसी आस्था जिस में आप खुद तो परेशान हो ही रहे हैं, दूसरों को भी परेशान कर रहे हैं.’’ सुजय बड़ी मुश्किल से अपने को एडजस्ट करता हुआ बोला.

‘‘या तो आप हिंदुस्तानी नहीं हैं या हिंदुस्तान में रहते नहीं हैं. यहां आस्था ऐसे ही दिखावे के माध्यम से प्रदर्शित की जाती है. यहां शादी की जाती है तो दिखावे के लिए बरात निकाली जाती है और उस बरात में भी जिस ने बुलाया है उस के प्रति आस्था प्रकट करने के लिए बीच सड़क पर कमर मटकाई जाती है. यहां तक कि अगर देशप्रेम प्रकट करना हो तो प्रभातफेरी निकाली जाती है, घर में तिरंगा फहराया जाता है.’’ पास खड़ा आदमी बोला.

‘‘सही है, अंकल,’’ सुजय बोला, ‘‘आप बिलकुल ठीक बोल रहे हैं. दिखावे का मतलब ही आस्था है. अगर ऐसा न होता तो हर गली में चंदा ले कर तीनचार जगह स्थापना क्यों की जाती? जगहजगह आरती, महाआरती, प्रदर्शनी, गरबा के नाम पर रास्ता क्यों रोका जाता? जरा सोचिए किसी गंभीर रूप से बीमार व्यक्ति को अस्पताल ले जाने में कितनी परेशानी होती होगी?’’

अब ट्रेन धीरेधीरे रेंगने लगी थी. अभी कुछ ही दूर चली थी कि किसी ने ट्रेन की जंजीर खींच दी. करीब 15 मिनट तक रुके रहने के बाद ट्रेन फिर चली.

सुजय और उस के पड़ोसी की बातें अभी भी आस्था पर ही चल रही थीं.

सुजय बोला, ‘‘ईश्वर में आस्था हो तो भी इसे सार्वजनिक स्तर पर दिखावे के रूप में प्रदर्शित नहीं किया जाना चाहिए.’’

‘‘मैं आप से सहमत हूं’’, सहयात्री बोला और तभी किसी ने फिर से जंजीर खींच कर ट्रेन रोक दी. फिर यह काम हर 5-10 किलोमीटर पर होने लगा. गंतव्य तक पहुंचतेपहुंचते ट्रेन ढाई घंटे लेट हो गई.

9 बजे पहुंचने वाली ट्रेन साढ़े 11 बजे पहुंची. भीड़ का एक बड़ा सा रेला ट्रेन में से निकला. सुजय भी किसी तरह धकियाता हुआ प्लेटफौर्म के बाहर निकला. बाहर आने पर ज्ञात हुआ कि संबंधित फैक्ट्री स्टेशन से लगभग 11 किलोमीटर दूर है तथा वहां तक जाने के लिए औटो के अलावा कोई और साधन नहीं है.

स्टेशन पर चारों तरफ जन सैलाब के अलावा कुछ और नजर नहीं आ रहा था. बड़ी मुश्किल से ढूंढ़ते हुए कुछ दूर एक औटो रिकशा खड़ा हुआ दिखाई पड़ा. उस के पास उस की ही उम्र के 2 लड़के उस रिकशा वाले से बात कर रहे थे. सुजय भी वहां पहुंच गया. वे दोनों भी उसी फैक्ट्री में इंटरव्यू के लिए आए थे तथा औटो वाले से वहां तक छोड़ने की गुजारिश कर रहे थे. किंतु औटो वाले ने यह कह कर मना कर दिया कि इतनी भीड़ को देखते हुए प्रशासन ने किसी भी तरह के वाहन को सुबह

9 बजे के बाद प्रतिबंधित कर दिया है. यदि उसे पकड़ लिया गया तो उस का लाइसैंस प्रतिबंधित कर दिया जाएगा.

‘‘कोई दूसरा विकल्प भी तो होगा न,’’ सुजय ने पूछा.

‘‘कम से कम 3 किलोमीटर तो इस भीड़ के साथ पैदल चलना ही होगा. दूसरे छोर पर शायद औटो मिल सकते हैं,’’ औटो वाला बोला, ‘‘3-4 साल पहले किसी वाहन चालक ने भीड़ पर गाड़ी चढ़ा दी थी, तभी से इन दिनों में सभी तरह के वाहन प्रतिबंधित रहते हैं सिवा एंबुलैंस के. अब आप तीनों में से कोई बीमार पड़ जाए तो एंबुलैंस से तुरंत निकल सकते हैं,’’ औटो वाला मजाक में बोला.

निराश हो कर तीनों दूसरा औटो ढूंढ़ने लगे. तभी उन्हें एक और औटो वाला दिखाई पड़ा. पहले तो उस ने स्पष्ट रूप से मना ही कर दिया किंतु मिन्नतों के बाद जब मुंहमांगी रकम देने की बात कही तो वह प्रतिव्यक्ति 400 रुपए के मान से चलने को तैयार हो गया. चूंकि साढ़े 12 बज चुके थे, सो तीनों यह रकम देने को मान गए.

अभी आधा किलोमीटर ही चले थे कि पीछे से पुलिस की जीप आ गई. इंस्पैक्टर ने तीनों की बात सुने बिना ही औटो से उतार दिया और औटो को नजदीक के पुलिस थाने ले जाने का हुक्म दे दिया. तीनों बेचारे इंस्पैक्टर से एक बार बात सुनने का अनुरोध करते रहे परंतु उस के पास इन की बातें सुनने का समय नहीं था.

अब तक डेढ़ बज चुका था, फिर भी तीनों का अनुमान था कि उन की समस्या सुनने के बाद मैनेजमैंट उन्हें इंटरव्यू में अपीयर होने देगा. सो तीनों ने निश्चित किया कि वे इस 4 किलोमीटर की दूरी को पैदल ही तय करेंगे और अगले छोर से औटो पकड़ कर फैक्ट्री जाएंगे. तीनों भूखेप्यासे पैदल चलने लगे. लगभग

2 घंटे बाद उस जगह पर पहुंचे जहां से उन्हें औटो मिल सकता था. जब तीनों फैक्ट्री गेट पर पहुंचे तब तक साढ़े 4 बज चुके थे और इंटरव्यू समाप्त हो चुका था. सो उन्हें अंदर ही नहीं जाने दिया गया. तीनों लुटेपिटे से वापस स्टेशन आ गए.

स्टेशन पर एक बच्चा अपने पिता से पूछ रहा था, ‘‘देवीजी को नारियल क्यों चढ़ाया जाता है?’’ और पिता उसे सम  झा रहा था, ‘‘नारियल वास्तव में एक प्रतीकात्मक बलि है जो कि देवीजी को दी जाती है.’’

‘‘परंतु आज तो देवीजी ने हमारे कैरियर की वास्तविक बलि ले ली है,’’ सुजय बाकी दोनों की तरफ देख कर बोला.

यह शहर का एक संभ्रांत इलाका है. इस इलाके में शहर के लगभग सभी धनपति रहते हैं. सभी इतने व्यस्त हैं कि एकदूसरे से मिलने का समय तक नहीं निकाल पाते हैं. इन घरों में काम करने वाले वर्कर्स ने सार्वजनिक नवरात्र मनाने का निर्णय लिया. चंदे की तो कोई बात ही नहीं थी. हजारों से ले कर लाखों रुपयों तक का चंदा देने वाले मौजूद थे और नवरात्र मनाने के पीछे मुख्य उद्देश्य भी यही था कि अधिक से अधिक वसूली की जाए. 9 दिनों तक रंगारंग कार्यक्रम किए गए. किसी दिन भजन संध्या, किसी दिन और्केस्ट्रा, किसी दिन गरबा आदि. अंतिम दिन जो कार्यक्रम था वह अत्यंत महत्त्वपूर्ण था, वह कार्यक्रम था कन्याभोज और भंडारे का.

भंडारा क्या था, व्यंजनों की प्रदर्शनी थी. चूंकि इन दिनों दूध का बना मावा अच्छा नहीं आ रहा था, इसलिए यह निश्चित हुआ कि सिर्फ मेवे की ही दोतीन मिठाइयां बनाई जाएं. खाने के तेल से कई लोगों को एलर्जी हो जाती है. सो नमकीन में भुने हुए काजू और बादाम रखे जाएंगे. 4-5 तरह की सब्जियां तो होनी ही चाहिए अन्यथा वैरायटी की कमी दिखेगी.

आयोजन बड़े पैमाने पर हो रहा था. काम पर कई मजदूर भी लगाए गए थे.

इस काम के लिए सब से ज्यादा चंदा दो लाख रुपए घनश्याम दासजी ने दिए थे. उन के आने के बाद ही कार्यक्रम प्रारंभ होना था. घनश्याम दासजी राजनीतिक व्यक्ति थे जिन की शहर में एक बड़ी फैक्ट्री भी थी. मतलब राजनीतिक उद्योगपति.

घनश्याम दासजी के आते ही कार्यकर्ताओं में एक जोश सा आ गया और सब अपने को दूसरे से अधिक कर्तव्यनिष्ठ दिखाने के चक्कर में जबरन भागदौड़ करने लगे और इसी चक्कर में सलाद काट रही महिला के पास सो रही उस की 9 माह की बच्ची पर किसी कार्यकर्ता का पैर पड़ गया. बच्ची दर्द से बिलख पड़ी. उसे चुप करवाने के लिए उसे मां का दूध पिलाना जरूरी था.

कार्यकर्ता किसी भी कीमत में भंडारे में देरी होने देना नहीं चाहते थे क्योंकि घनश्याम दासजी बहुत ही सीमित समय के लिए आए थे, साथ ही, जो बच्चे स्कूल गए थे वे भी लौटने वाले थे. बड़े घर के बच्चे खाने के लिए प्रतीक्षा करें, यह तो उचित नहीं होगा. लगभग 15 मिनट तक वह बच्ची रोती रही. अंत में साथ में काम कर रही महिला को दया आई और अपने हाथ का काम छोड़ कर आई और बच्ची की मां से बोली, ‘जा उस देवस्वरूप कन्या को कन्याभोज करवा दे जो शायद इन में से किसी को भी नहीं दिख रही है.’

यह महिला, दरअसल बरतन साफ करने का काम कर रही थी और अपने साथ अपनी 6 वर्ष की कन्या को भी ले कर आई थी जो सुबह से ही भूखी थी और काम में अपनी मां का हाथ बंटा रही थी. लगभग ढाई बजे यह बच्ची अचानक चक्कर खा कर गिर पड़ी. शायद भूख के कारण उस की यह हालत हो गई थी. शोर सुन कर कई लोग आ गए और कहने लगे, ‘‘शायद डिहाइड्रेशन हो गया है तुरंत नमकशक्कर का पानी पिलाओ और घर भेज दो. भंडारा तो अभी 2 घंटे और चलेगा, उस के बाद ही वर्कर्स को खाना दिया जाएगा.’’

आस्था की यह परिभाषा किसी को समझ में आए तो कृपया हमें भी सम  झाएं.

प्यार ने तोड़ी धर्म की दीवार : भाग 3

कहते हैं सच्चा प्यार न कभी झुका है और न झुकेगा. चाहे मोहब्बत करने वालों का जमाना ही दुश्मन बन बैठे. मोहब्बत न कालागोरा देखती है और न ही धर्मजाति. मोहब्बत तो मोहब्बत है. चाहे जमाना लाख कोशिश करे, लेकिन मोहब्बत की डोर कभी कमजोर नहीं पड़ती.वैसे प्यार ने किसी बंदिश के आगे हार नहीं मानी. लेकिन बेदर्द जमाना 2 प्यार करने वालों को जीने नहीं देता. वही अगर प्रेमी युगल अलग संप्रदाय से ताल्लुक रखते हों तो दोनों की जान पर बन आती है.

यही सूरज और मोमिन खातून की प्रेम कहानी में हुआ. दोनों के अलगअलग संप्रदाय के होने के कारण उन के प्यार के बीच धर्म की दीवार आ खड़ी हुई. दोनों को प्यार की मंजिल पाने के लिए 2 साल की लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी. तब कहीं जा कर 13 जुलाई, 2022 को प्रेमी जोड़े को सफलता मिली.हालांकि इस शादी को ले कर प्रेमी युगल के परिवार वालों को कोई आपत्ति नहीं थी. लेकिन जब बात आती है धर्म के ठेकेदारों की तो ऐसे मामले में वह धर्म की दीवार बन कर आ खड़े होते हैं.

मोमिन खातून की शादी से उस के घर वालों को कोई ऐतराज नहीं था. लेकिन इस शादी के होते ही मुसलिम समुदाय के कुछ संगठनों की आंखों में यह शादी किरकिरी बन गई थी.जहां एक तरफ इस प्रेमी युगल की सुरक्षा के लिए पुलिस प्रशासन ने पूरी तरह से कमर कस ली थी तो वहीं विश्व हिंदू परिषद के जिला महामंत्री गौरव सिंह ने भी इस प्रेमी युगल की सुरक्षा की जिम्मेदारी ले ली थी.इस प्रेम कहानी की शुरुआत कैसे हुई, यह भी एक विचित्र कहानी है. यह सत्य ही है कि इंसान जिस जाति में जन्म लेता है, वह उसी के रंग में रंग जाता है. फिर उसे समाज के अनुसार ही सारे संस्कार भी निभाने पड़ते हैं. यही मोमिन खातून के साथ भी हुआ था.

अपने समाज के संस्कार नहीं थे पसंद मोमिन ने भले ही जन्म मुसलिम परिवार में लिया था, लेकिन उस की सोच शुरू से ही अपने समाज से हट कर थी. होश संभालते ही उसे मुसलिम समाज से कोई विशेष लगाव नहीं था. हर इंसान को अपने धर्म और संस्कारों पर गर्व होता है. क्योंकि यह सब उस के खून में रचाबसा होता है. लेकिन मोमिन खातून को शुरू से ही अपने धर्म से कोई खास लगाव नहीं था. न तो वह ईद खुशी से मनाती थी और न ही उसे अपने समाज के संस्कारों से कोई खास लगाव था.

उस के होश संभालने से पहले भले ही उस के मातापिता ने उसे कुछ भी खिलाया हो, लेकिन समझदार होते ही उस ने मीट, मछली सब कुछ खाना छोड़ दिया था. जब बकरीद का त्यौहार आता तो वह कुरबानी के वक्त कमरे में ही छिप कर बैठ जाती थी. उस ने कभी भी जानवरों की कुरबानी होते नहीं देखी थी.

घर में बहुत लाड़प्यार करके पाले गए बकरों से उसे बहुत ही लगाव था. लेकिन उसी की गरदन पर छुरा चलते देखना उस की बरदाश्त से बाहर था. यही कारण था कि उसे अपने त्यौहारों से ज्यादा हिंदू त्यौहार पसंद आते थे. वह कई बार अपने अब्बू और अम्मी के सामने ही कहती कि मुझे तो हिंदू त्यौहार ही सब से अच्छे लगते हैं.जन्म से ही मोमिन का झुकाव हिंदू धर्म की ओर होने के कारण उस की अम्मी रजिया भी बहुत परेशान रहती थी. रजिया ने कई बार उसे समझाने की कोशिश की, ‘‘बेटी, सब धर्मों के अपनेअपने संस्कार होते हैं. फिर उन्हें समाज के अनुसार मनाना भी पड़ता है. हम मुसलमान हैं तो हमें अपने धर्म के अनुसार ही चलना चाहिए.’’

लेकिन रजिया की नसीहत उसे काट खाने को दौड़ती थी. मोमिन ने कई बार अपने अब्बू और अम्मी के सामने भी कहा, ‘‘अम्मी, हम लोग हिंदू धर्म स्वीकार नहीं कर सकते क्या?’’ ‘‘नहीं बेटा, हम मुसलमान हैं तो मुसलमान ही रहेंगे. हिंदू कैसे बन सकते हैं.’’ उसे हमेशा ही यही जबाव मिलता था. उत्तर प्रदेश के जिला आजमगढ़ अतरौलिया थाना क्षेत्र का एक छोटा सा गांव है हैदरपुर खास. मुसलिम बाहुल्य इसी गांव में शरीफ अहमद अपने परिवार के साथ रहते थे. उस के परिवार में पत्नी रजिया के अलावा एक बेटा और 3 बेटिया थीं. शरीफ अहमद के पास थोड़ी सी जुतासे की जमीन थी, जिस के सहारे ही उस का परिवार चलता था. एक बेटी की वह पहले ही शादी कर चुके थे. उस के बाद मोमिन खातून और उस से छोटा उस का भाई था.

पहली मुलाकात में ही हो गया प्यार शरीफ अहमद की छोटी बेटी मोमिन खातून बहुत ही खूबसूरत थी. उस के अब्बू का एक सामान्य परिवार था. मोमिन खातून को शुरू से ही बनठन कर रहने की आदत थी. जवानी की दहलीज पर कदम रखतेरखते उस का रंग और भी खिल उठा था. यही कारण था कि वह जब कभी भी घर से निकलती तो अधिकांश गांव के लड़कों की उस पर ही नजर टिकी रहती थी. उस के पड़ोस में अधिकांश मुसलिम परिवार ही रहते थे. लेकिन शुरू से ही मुसलिम लड़कों को वह पसंद नहीं करती थी.
अब से लगभग 2 साल पहले की बात है. मोमिन खातून को किसी काम से शहर जाना था. वह अपने घर के सामने ही किसी सवारी के इंतजार में खड़ी हुई थी. उसी समय वहां से बाइक से सूरज गुजर रहा था.

सूरज को देखते ही मोमिन खातून ने हाथ दे कर उसे रोक लिया. मोमिन खातून ने उस से बाइक पर लिफ्ट देने की बात कही. सूरज ने उसे बाइक पर बिठा लिया. उसी दौरान सूरज ने उस से बातचीत का सिलसिला शुरू किया. उसी यात्रा के दौरान दोनों के बीच परिचय हो गया था. सूरज जिला आजमगढ़ के अतरौलिया थाना क्षेत्र के खानपुर फतेह गांव के रहने वाले जोखू सिंह का बेटा था. खानपुर फतेह से हैदरपुर खास की दूरी महज 2 किलोमीटर थी. जोखू सिंह का खातापीता परिवार था. उस के परिवार में पत्नी के अलावा 3 बच्चे थे. सूरज अपनी बहनों में सब से छोटा था.

इसी छोटी सी मुलाकात में ही दोनों के बीच परिचय हुआ. उसी वक्त मोमिन खातून ने सूरज का मोबाइल नंबर भी ले लिया था. उसी पल सूरज ने मोमिन खातून के दिल में अपनी अलग ही छाप छोड़ी थी.समाज में भी फैल गई उन के प्यार की खुशबू उस पहली मुलाकात के बाद सूरज बारबार उस की यादों में आता रहा. उस ने कई बार उस के नंबर पर फोन मिलाने की कोशिश की, लेकिन वह हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी. उस ने जैसेतैसे कर तीसरे दिन सूरज के दिए गए नंबर पर फोन मिला कर बात की. फोन मिलाते ही मोमिन ने अपना परिचय दिया तो सूरज समझ गया.

मोमिन भले ही मुसलिम थी, लेकिन वह भी पहली ही मुलाकात में उस की खूबसूरती का दीवाना हो गया था. यही कारण था कि वह कई दिन से उस के फोन के आने का बेसब्री से इंतजार कर रहा था. उस का फोने आते ही उस का चेहरा खिल उठा. उस दिन पहली ही बार में दोनों के बीच काफी देर तक बातचीत हुई. उस के बाद जब भी उन्हें मौका मिलता तो बात करने से नहीं चूकते थे. धीरेधीरे दोनों के दिलों में एकदूसरे के प्रति प्यार के बीज अंकुरित हो चुके थे. कुछ दिनों की मुलाकात में ही सूरज ने उस के परिवार की बारे में सारी जानकारी हासिल कर ली थी.

मोमिन एक गरीब घर से ताल्लुक रखती थी. लेकिन जब दोनों के बीच प्यारमोहब्बत की लहर चलनी शुरू हुई तो उन के बीच गरीबी और अमीरी का मतभेद भी खत्म हो गया था. जब दो दिलों से प्यार की खूशबू निकल कर फिजा में फैलती है तो उस की महक परिवार वालों तक ही नहीं पहुंचती, बल्कि समाज में भी फैल जाती है. यही दोनों के साथ भी हुआ. सूरज और मोमिन के बीच फोन पर काफी लंबी बातें होने से उन दोनों के घर वालों को उन की मोहब्बत की बात पता चल गई थी.

मोमिन कई बार सूरज को अपने साथ अपने घर भी ले गई थी. सूरज एक खातेपीते घर से था. इसी कारण मोमिन की अम्मी रजिया ने कभी भी उस के घर आने पर ऐतराज नहीं किया था. उस के बाद मोमिन के घर वाले सूरज को भी मानसम्मान देने लगे थे. मोमिन की अम्मी रजिया ने अपनी बेटी की तारीफ करते हुए सूरज को बताया कि उसे हिंदू त्यौहारों से बहुत ही लगाव है. धर्म अलग होने के बावजूद भी दोनों का एकदूसरे के घर आनाजाना शुरू हो गया. साथ ही दोनों के बीच प्यार भी बढ़ता गया. दोनों एकदूसरे को दिलोजान से चाहने लगे थे.

उसी मिलनेजुलने के दौरान दोनों ने फैसला कर लिया कि दोनों शादी कर पूरी जिंदगी साथ रहेंगे. उन्होंने एक साथ जीनेमरने की कसमें खाईं और निकल पड़े जातिधर्म की दीवार से टकराने. मोमिन के घर वाले पड़े असमंजस में एक दिन मौका पाते ही मोमिन ने अपनी अम्मी रजिया से अपने दिल की बात कह दी, ‘‘अम्मी, आप तो जानती हो कि सूरज बहुत अच्छा लड़का है. वह भी मुझे बहुत चाहता है और मैं भी उसे बहुत प्यार करने लगी हूं.

अम्मी प्यार ही नहीं, मैं उस से शादी भी करना चाहती हूं.’’ बेटी की बात सुनते ही रजिया का गुस्सा फूट पड़ा, ‘‘मोमिन, तू पागल हो गई है क्या? तुझे पता नहीं कि सूरज हमारे मजहब का नहीं है. अगर गांव में इस बात का पता चला तो बवाल खड़ा हो जाएगा.’’ उसी समय शरीफ अहमद भी घर पहुंच चुका था. शरीफ अहमद के घर में घुसते ही दोनों सहम गईं. फिर थोड़ी देर बाद ही रजिया ने मोमिन की बात शौहर के सामने रखी तो वह भी बौखला उठा.

मोमिन की बात सुनते ही शरीफ अहमद ने बेटी को समझाने की कोशिश की, ‘‘बेटी, तू ये जो कदम उठाने जा रही है, उस से हमारा इस गांव में रहना दूभर हो जाएगा. हम सारी जिंदगी किसी के सामने सिर नहीं उठा सकेंगे. समाज वाले हमारा जीना दूभर कर देंगे.’’ मोमिन ने अपने अब्बू की बात एक कान से सुनी और दूसरे से निकाल दी. उस ने प्रण किया कि वह शादी करेगी तो सूरज के साथ ही अन्यथा वह सारी जिंदगी घर में ही कुंवारी बैठी रहेगी.

उस ने यह बात सूरज को भी नहीं बताई थी. उस के बाद भी वह उस से पहले की तरह मिलतीजुलती रही. मोमिन के परिवार वालों को विश्वास था कि सूरज कभी भी उस से शादी करने के लिए तैयार नहीं होगा. यही सोच कर उन्होंने दोनों के मिलने पर पाबंदी नही लगाई. उसी दौरान एक दिन सूरज अयोध्या घूमने गया तो मोमिन खातून भी उस के साथ चली गई. अयोध्या जाने के बाद उस की सनातन धर्म के प्रति आस्था और भी पक्की हो गई थी. सूरज के साथ ही उस ने अयोध्या में सभी मंदिरों के दर्शन भी किए.
अयोध्या में रामलला के दर्शन करने के दौरान ही उस ने प्रण किया कि आज के बाद वह मुसलिम धर्म को पूरी तरह से त्याग कर सनातन धर्म के संस्कारों को ही मानेगी. यही नहीं, उस ने रामलला के सामने ही अपनी मांग में अपने प्रेमी सूरज के नाम का सिंदूर भरते हुए अपना नाम भी मोमिन खातून से बदल कर मीना रख लिया था.

उस के बाद दोनों ने रामलला को साक्षी मान कर जिंदगी भर साथ जीनेमरने की कसमें भी खा लीं. अयोध्या से आने के बाद उस का रहनसहन भी पूरी तरह से बदल गया था. रामलला के मंदिर में शादी करने के बाद से ही मोमिन सूरज को अपना पति मानने लगी थी. लेकिन उस के घर वालों को इस की कानोकान खबर नहीं हुई थी.

मोमिन खातून के रहनसहन को देख कर उस के घर वालों को कुछ शक भी हुआ. लेकिन वे मोमिन से कुछ कह नहीं पाए. फिर एक दिन ऐसा भी आया कि उस के घर वालों को पता चल ही गया कि उन की बेटी ने सूरज के साथ मंदिर में शादी कर ली है.यह जानकारी मिलते ही घर वाले उस से खफा हो गए. पहले तो उन्होंने उसे काफी समझाया, लेकिन उस ने उन की एक न सुनी.

मोमिन की जिद को देखते हुए उस के अम्मीअब्बू ने सूरज के साथ शादी करने की एक शर्त रख दी. उन्होंने कहा कि उन्हें उस की शादी सूरज के साथ करने से कोई ऐतराज नहीं. लेकिन सूरज को शादी करने के लिए इसलाम धर्म अपनाना होगा.उन की यह शर्त मोमिन को ही मंजूर नहीं थी. फिर उस बात से सूरज कैसे सहमत हो सकता था. उस के बाद कोई रास्ता न निकलने पर सूरज और मोमिन ने घर से भाग कर शादी करने की योजना बनाई और दोनों घर से भागने का मौका तलाशने लगे.

पुलिसप्रशासन भी हो गया सतर्क

सूरज अपने परिवार का इकलौता बेटा था. जब इन दोनों की योजना का पता उस के घर वालों को हुआ तो वह उस की शादी मोमिन के साथ करने के लिए तैयार हो गए. घर वालों के मानने के बाद ही सूरज मोमिन को उस के घर से भगा लाया और फिर सब के सामने ही सम्मो देवी के मंदिर में शादी कर ली.
सूरज की शादी से उस के घर वाले खुश थे. लेकिन मोमिन की शादी से उस के घर वाले खुश नहीं थे. वहीं दूसरी ओर धर्म के कुछ ठेकेदारों को यह शादी अखरने लगी थी. हालांकि इन दोनों की शादी के बाद से पुलिसप्रशासन ने भी उन की सुरक्षा के पूरेपूरे बंदोबस्त कर दिए थे. साथ ही जिले की खुफिया विभाग एलआईयू भी उन की सुरक्षा को ले कर सक्रिय हो गई थी.

लेकिन फिर भी सूरज के घर वालों ने दोनों की सुरक्षा को देखते हुए उन की शादी कराने के बाद उन्हें गांव से बाहर अपने एक रिश्तेदार के घर भेज दिया था. प्यार के आगे धर्म की दीवार टूटने से यह शादी आजमगढ़ के साथसाथ पूरे उत्तर प्रदेश में चर्चा का विषय बन गई थी.

जेनेटिक कारण भी डिप्रैशन के लिए जिम्मेदार

आज के किशोर डिप्रैशन की गिरफ्त में तेजी से आ रहे हैं, जिस का कारण जहां किशोरों पर ओवरलोड पड़ना है वहीं आनुवंशिक कारण भी इस के लिए जिम्मेदार हैं. डिप्रैशन में नींद में कमी, बातबात पर उदास हो कर बैठ जाना, भूख में कमी, जल्दी थक जाना, किसी भी काम में मन न लगना आदि लक्षण देखने को मिलते हैं. जिन परिवारों में पेरैंट्स या फिर घर के किसी और सदस्य में डिप्रैशन की समस्या होती है उन के बच्चों में डिप्रैशन होने की आशंका ज्यादा बढ़ जाती है. इसलिए जरूरत है डेली व्यायाम करने की व परिवार के माहौल को सामान्य बनाने की ताकि अगर किशोर डिप्रैशन का शिकार हो भी तो उसे आसानी से इस स्थिति से बाहर निकाला जा सके.

इस के लिए आप नियमित रूप से ऐक्सरसाइज करें. भले ही आप पतले हों लेकिन फिर भी आप ऐक्सरसाइज को इग्नोर न करें, क्योंकि ऐक्सरसाइज करने से मन शांत होता है, साथ ही शरीर में सेरोटोनिन पैदा होता है. यह ऐसा रसायन है जो डिप्रैशन रोगियों में धीमी गति से बनता है. आप डेली दौड़ लगा सकते हैं, पैदल चल सकते हैं, पसंद के खेल खेल सकते हैं. इस से आप खुद को काफी फ्रैश महसूस करेंगे और आप धीरेधीरे तनाव की स्थिति से खुद बाहर निकलने लगेंगे. इसी के साथ आप को खानपान पर भी ध्यान देना होगा.

कुछ भी खा लेने से बात नहीं बनेगी. कहा भी जाता है कि अच्छा खाओगे तभी दिमाग सही ढंग से काम करेगा. अच्छा भोजन खाने से मूड और सोच दोनों में परिवर्तन होता है. अपनी डाइट में फलसब्जियां, मछली, साबुत अनाज, दही, दालें आदि शामिल करें. इस से शरीर को ऊर्जा मिलेगी. कार्बोहाइड्रेट से सेरोटोनिन के स्तर में बढ़ोतरी होती है. सेरोटोनिन रसायन भाव व एहसास को नियंत्रित करता है. इस तरह किशोर तनाव की स्थिति से जल्दी ही बाहर आ सकते हैं.

मैं पत्नी को नहीं पसंद करता हूं, क्या करूं?

सवाल

26 वर्षीय विवाहित युवक हूं. विवाह को 5 वर्ष हो चुके हैं. 3 वर्ष का बेटा और 8 महीने की बेटी है. मेरी पत्नी के घर वालों ने उस की शिक्षा को ले कर झूठ बोला था. हम से कहा गया था कि लड़की बीए पास है, जबकि वह सिर्फ 10वीं कक्षा पास है. वह न तो मुझे ठीक से प्यार करती है और न ही बच्चों की परवरिश ठीक से कर पाती है. जिस रिश्ते की बुनियाद ही झूठ पर रखी गई हो वह रिश्ता कितने दिन टिक सकता है? मैं पत्नी को नहीं चाहता. एक और लड़की है जो हर तरह से मेरे लिए उपयुक्त है. मैं उस से शादी करना चाहता हूं. बताएं कि यह कैसे संभव है?

जवाब

रिश्ता तय होने से पहले आप को लड़की के बारे में सारी तहकीकात करनी चाहिए थी पर आप ने ऐसा नहीं किया. अब शादी के 5 साल बीत जाने और 2 बच्चों का पिता बनने के बाद पत्नी की खामियां देख रहे हैं. आप मानते हैं कि आप की बीवी अपने बच्चों की सही परवरिश नहीं कर सकती. ऐसे में बच्चों के प्रति आप की जिम्मेदारी बढ़ गई है. मगर बजाय इस ओर ध्यान देने के आप किसी लड़की के प्रेम में पड़े हैं और उस से शादी के सपने देख रहे हैं. आप को समझना चाहिए कि एक पत्नी के होते हुए दूसरा विवाह गैरकानूनी होगा. अत: किसी मुगालते में न रहें. पत्नी से तालमेल बैठाने और घरपरिवार को संभालने का प्रयास करें.

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz

सब्जेक्ट में लिखें- सरिता व्यक्तिगत समस्याएं/ personal problem

अगर आप भी इस समस्या पर अपने सुझाव देना चाहते हैं, तो नीचे दिए गए कमेंट बॉक्स में जाकर कमेंट करें और अपनी राय हमारे पाठकों तक पहुंचाएं.

आंगन का बिरवा

और प्रतिभा नहीं रही- भाग 4 : प्रतिभा अस्पताल में अकेली क्यों थी

‘‘कुछ खाया तुम ने कि नहीं…’’‘‘नहीं…पर आप चिंता मत करोअभी अक्षत आता होगा। उसे मम्मी के पास बैठा कर मैं कुछ खा लूंगी,’’ उस ने फोन रख दिया था। तबियत में सुधार हैसुन कर अच्छा लगा।

दूसरे दिन मैं ने जबरदस्ती डिस्चार्ज ले लिया। मुझे डाक्टर और नर्स को डांटना पड़ा था, ‘‘मैं अपनी मरजी से डिस्चार्ज ले रहा हूं…आप मुझे डिस्चार्ज कर दें…अन्यथा मैं ऐसे ही वार्ड के बाहर चला जाऊंगा…’’ मेरी खिसियाहट का असर यह हुआ कि दोपहर तक मुझे डिस्चार्ज दे दिया

गया। अक्षत ने बाकी औपचारिकताएं पूरी कर लीं और मैं वार्ड के बाहर निकल आया.‘‘मुझे मम्मी के पास ले चलो…’’‘‘अभी आप कमरे पर चलो…नहा लो फिर चलना…’’ रोली ने एक लौज का रूम किराए पर ले लिया था। मैं सहमत भी हो गया था। प्रतिभा मुझे इस हालत में देखेगी तो उस की चिंता और बढ़ जाएगी.

शाम को मैं रोली के साथ आईसीयू में पहुंचा जहां प्रतिभा भर्ती थी। आईसीयू में बगैर पीपीई किट पहने प्रवेश नहीं करने दिया जा रहा था। मुझे भी पीपीई किट पहननी पड़ी। अच्छा थाइस के कारण प्रतिभा मेरी हालत को नहीं देख पाएगी. प्रतिभा के चेहरे पर मास्क लगा था। वह जोरजोर से सांसें ले रही थी। उस के चारों ओर मशीनें लगी थीं जो उस का औक्सीजन लेवलपल्स लेवल और बीपी बता रही थीं। इन मशीनों की भारीभरकम आवाज से पूरा कमरा गूंज रहा था। वार्ड में करीब 8 मरीज थे सभी की हालत ऐसी ही थी।

मैं लगभग भागता हुआ प्रतिभा के बैड के पास जा कर खड़ा हो गया था। उस की आंखें बंद थीं पर मेरे आने की आहट से उस ने धीरे से आंखें खोलीं और मुझे सामने देखते ही उस की आंखों से आंसू बह निकले। मैं ने उस के सिर पर हाथ फेरा,”कैसी हो?’’ वह एकटक मेरी ओर ही देख रही थी। आंसू लगातार बह रहे थे। मैं ने उस का हाथ अपने हाथों में ले लिया। उस ने मेरे हाथों को जोर से पकड़ लिया, “मैं अब ठीक हूं…देखो ठीक लग रहा हूं न…’’

मैं उसे समझा देना चाह रहा था कि मैं वाकई ठीक हो गया हूं ताकि उस की चिंता कम हो सके। उस के चेहरे पर संतोष के भाव दिखने लगे। उस दिन तो मैं ज्यादा देर तक वहां नहीं बैठा।रोली चाह रही थी कि मैं आराम करूं क्योंकि मेरी हालत अभी उतनी बेहतर नहीं थी। मैं लौज के कमरे में आ गया पर दूसरे दिन से मैं ने नियम बना लिया था कि दिन में मैं प्रतिभा के

पास रहूंगा और रात को दोनों बच्चे। दरअसलदोनों बच्चों को रैस्ट नहीं मिल पा रहा था। उन के लिए रैस्ट जरूरी था। मैं दिनभर प्रतिभा क पास बैठा रहता। उस से बातें करता। वह इशाारों से बात करती। मास्क लगा होने के कारण वह बोल नहीं पाती थी। अकसर वह हाथ के इशारसे पूछती, ‘‘घर कब चलेंगे?’’

‘‘बहुत जल्दी…तुम स्वस्थ तो हो जाओ…’’वह चेहरे पर लगे मास्क की ओर इशारा करती। मानो कह रही हो कि इसे निकलवा दो बहुत तकलीफ होती है। मैं उसे हौसला देता,”बहुत जल्दी निकल जाएगा…डाक्टर साहब कह रहे थे कि तुम स्वस्थ हो रही हो…वे मास्क भी निकाल देंगे और छुट्टी भी कर देंगे…’’ वह आश्वस्त हो जाती।

मैं दिन में कई बार उस के सिर पर हाथ फेरता। वह मेरा हाथ पकड़े लेटी रहती। अकसर उस की आंखों से आंसू बहते रहते। मैं मोबाइल में कम आवाज में पुराने गाने लगा देता। वह सुनती रहती।शाम को जब मैं लौटने लगता तब मैं उस को बोलता,”रोली और अक्षत हैं…तुम अपना ध्यान रखना…मैं सुबह आऊंगा…’’ वह सिर हिला देती.मैं दिनभर प्रतिभा के साथ रहता तो मुझे अस्पताल के कर्मचारियों की लापवाही का भी अंदाजा होने लगा था,”सिस्टरउस मरीज के हाथों में लगी बौटल कब की खत्म हो गई है…उसे निकालो…देखो खून बौटल में आने लगा है।’’

‘‘हांदेखती हूं अभी…तुम अपने मरीज को देखो…यहांवहां देखने की क्या जरूरत है,’’ वह शायद झुंझला गई थी। कई बार मैं स्वयं ही किस कराह रहे मरीज के पास चला जाता, ‘‘कुछ चाहिए…’’ वह हाथों के संकेत से बता देता कि उसे पानी पीना है। मैं नर्स को ले कर आता और उसे पानी देता। मास्क लगा होने के कारण मैं खुद ही पानी नहीं दे पाता था।

आईसीयू में भरती एक मरीज कोमा में था। उस के पिता आते और एक कोने में खड़े हो कर चुपचाप उसे देखते रहते। उन की आंखों से बहने वाले आंसू उन के दर्द को बयां करते। मैं उन से भी बात करता और उन्हें ढांढ़स बंधाता। वे 2-3 दिनों तक दिखाई नहीं दिए। चौथे दिन जब वे बदहवास की हालत में अपने बेटे के बैड के पास आए तो मुझ से रहा

नहीं गया,”कहां चले गए थे आप…’’‘‘डाक्टर ने बोला था कि बेटे का औपरेशन करना है पैसे ले कर आओ…तो पैसे लेने गांव चला गया था…’’‘‘कितने पैसे?”‘‘₹ 3 लाखएक मकान था उसे ही बेच आया…’’ अब उन की आंखों से आंसू बह निकले थे,”अरेबेटा बचा जाएगा तो मकान फिर ले लेंगे…’’ उन्होंने अपना चेहरा दूसरी ओर घुमा लिया था।‘‘तो कहां हैं पैसे?’’‘‘अस्पताल के कांउटर पर जमा करा दिए।”मैं कुछ नहीं बोला। इतने दिनों में मुझे उस के बेटे की हालत में कोई सुधार दिखाई नहीं दे रहा था। वैसे भी अस्पताल का खर्चा बहुत महंगा था।

उस पर दवा वगैरह का खर्चा भी ज्यादा। दवा वहीं की दवा दुकान से लेने को मजबूर किया जाता था। दुकान में दवाएं प्रिंट रेट से ज्यादा में दी जाती थीं पर मरीज के परिजन मजबूर थे। वार्ड में ड्यूटी करने वाले कर्मचारी अपने लिए पीपीई किट भी मरीज से मंगवाते थे। कई बार एक

दिन में 2 बार किट मंगा लेते। किट मंहगी होती थी। यदि मरीज के परिजन ले कर न आएं तो फिर उस मरीज को न तो दवा दी जाती और न

ही इंजैक्शन।मैं उसे बुजुर्ग के आंसुओं के मोल को समझ रहा था। दोपहर में डाक्टर जब रांउड पर आए तब भी वे वहीं थे। डाक्टर में उस के बेटे को देखा और निराशा में सिर हिला दिया, ‘‘अस्पताल के पैसे जमा कर दिए?” डाक्टर ने उन से पूछा।‘‘जी…’’ वह बुजुर्ग अपने हाथ जोड़े उन के सामने खड़े थे।‘‘सिस्टरमरीज का बीपी चैक करो। मुझे लगता है ही इज नो मोर…’’कहते हुए वे वार्ड से निकल गए।मैं समझ गया था कि उन के बेटे को अब मृत घोषित किया जाएगा मगर वह तो शायद पिछले कुछ दिनों पहले ही मर चुका था। वही हुआमैं उस बुजुर्ग की रूदन नहीं सुन पाया। वार्ड से बाहर निकल आया था।

 

वैंटिलेटर पर उसे 15 दिन हो चुके थे। उस के आसपास भर्ती ज्यादातर मरीजों की मौत हो चुकी थी। हम लोग उसे दिनभर बहलाते रहते। उस का आत्मविश्वास बढ़ाते रहते।

 

एक दिन रात को अचानक अक्षत ने फोन किया, ‘‘पापामम्मी की औक्सीजन लेवल कम हो रहा है। डाक्टर कह रहे हैं कि मुंह में ट्यूब डालना पड़ेगा।”

 

मैं ने घड़ी देखी, 2 बज रहे थे,”मैं आ रहा हूं…तुम चिंता मत करो…’’ लौज और अस्पताल की दूरी पर्याप्त थी। मुझे पहुंचने में समय लग गया। तब तक डाक्टर उस को ट्यूब डाल चुके थे। उसे नींद का इंजैक्शन दे दिया गया था ताकि उसे तकलीफ न हो।

मैं जब पहुंचा तब दोनों बच्चे उदास चेहरा लिए प्रतिभा के बैड के पास खड़े थे। मैं ने डाक्टर से बात की। उन्होंने बता दिया, ‘‘होपलैस कंडीशन…’’ पर इस के ट्यूब डालने के अलावा कोई विकल्प नहीं था।

 

औक्सीजन नाक से फेफड़ों तक नहीं जा रही थीअब वह सीधे फेफड़ों में पहुंच रही थी। प्रतिभा की बेहोशी कल तक ही दूर होगी फिर से उसे बेहोश कर दिया जाएगा। 2-3 दिन ऐसे ही रहने वाला है। अब वहां हमारे ठहरने का कोई मतलब था भी नहीं फिर भी हम ने अक्षत को वहीं रहने दिया और रोली को साथ ले कर हम लौज आ गए। प्रतिभा की बेहोशी तीसरे दिन दूर हुई। उस ने जब आंखें खोलीं तब हम उस के पास नहीं थे बल्कि वार्ड के बाहर ही बैठे थे। नर्स ने आ कर बताया कि वे बुला रही हैं। हम दौड़ते हुए उस के बैड के पास पहुंचे। उस की आंखों से लगातार आंसू बह रहे थे। वह बारबार अपने मुंह में लगे ट्यूब की ओर इशारा कर रही थी और यह बता रही थी कि उसे बहुत तकलीफ हो रही है।

 

मैं ने उस के सिर पर हाथ फेरा,‘‘यह जल्दी निकल जाएगा…तुम को सांस लेने में दिक्कत हो रही थी न इसलिए लगाया है…इस से तुम जल्दी ठीक हो जाओगी, ’’ इस बार वह मेरी बात से नहीं बहल पाई। उस ने मेरा हाथ जोर से पकड़ लिया और रोती रही। हम असहाय थे वरना उसे कभी रोने नहीं देते। हम सभी अब कमजोर पड़ते जा रहे थे। ट्यूब डलने के चौथे दिन हम ने डाक्टर से बात की। उन्होने आश्वस्त किया कि तेजी सी रिकवरी हो रही है और संभव है कि 2-3 दिनों में ट्यूब अलग कर दिया जाए। पर ऐसा नहीं हुआ। हालांकि उस रात को मैं बहुत देर तक वार्ड में ही रुका रहा।

 

अचानक उस वार्ड के सभी मरीजों को दूसरे वार्ड में कर दिया गया था,”अरेआप ऐसा कैसे कर सकते हैं… इन को औक्सीजन लगी है और आप बगैर औक्सीजन के ले जा रहे हैं…’’ मैं आगबबूला हो रहा था, “प्लीजआप मरीज के जीवन के साथ ऐसा खिलवाड़ न करें…’’

 

‘‘थोडी दूर ही ले जा रहे हैं…’’ कहते हुए उन्होने प्रतिभा को स्ट्रैचर में रख लिया था।

 

‘‘वह एक पल को बगैर औक्सीजन की नहीं रह सकतीं और आप कह रहे हैं कि थोड़ी दूर ही बगैर औक्सीजन के ले जा रहे हैं…’’ मैं झुंझला पड़ा था पर उन्हें इस की कोई परवाह नहीं थी. उन्होने बेदर्दी से उसे स्ट्रैचर पर डाला और दूसरे वार्ड में ले जा कर एक बैड पर लिटा दिया। ऐसा ही उन्होंने अन्य मरीजों के साथ भी किया।

 

बगैर औक्सीजन के कुछ देर रहने पर उस का औक्सीजन लेवल कम होने लगा। डाक्टर ने कोई एक इंजैक्शन लगाया जिस से मशीन में औक्सीजन लेवल बढ़ता हुआ दिखाई देने लगा। मैं उस दिन बहुत देर तक वहां रहा। प्रतिभा को शायद नींद आ गई थी। उस ने अपनी आंखें बंद कर लीं।

 

हम तीनों प्रतिभा के पास थे। कुछ देर तक प्रतिभा की स्थिति को समझने का प्रयास करता रहा। मैं झुंझला पड़ा था पर उन्हें इस की कोई परवाह नहीं थी। उन्होंने बेदर्दी से उसे स्ट्रैचर पर डाला और दूसरे वार्ड में ले जा कर एक बैड पर लिटा दिया। ऐसा ही उन्होंने अन्य मरीजों के साथ भी किया। बगैर औक्सीजन के कुछ देर रहने पर उस का औक्सीजन लेबल कम होने लगा। डाक्टर ने कोई एक इंजैक्शन लगाया जिस से मशीन में

औक्सीजन लेबल बढ़ता हुआ दिखाई देने लगा। मैं उस दिन बहुत देर तक वहां रह कर आया। प्रतिभा को शायद नींद आ गई थी। उस ने अपनी आंखें बंद कर लीं।

 

हम तीनों प्रतिभा के पास थे। कुछ देर तक प्रतिभा की स्थिति को समझने का प्रयास करता रहा फिर मैं दोनों बच्चों को वहां छोड़ कर लौज आ गया था। लगभग 1 बजा होगा जब अक्षत ने फोन किया, ‘‘पापा जल्दी आ जाओ…मम्मी की तबियत ज्यादा खराब हैउन्हें सांस लेने में दिक्कत हो रही है।”

 

मैं तुरंत ही तैयार हो कर निकल पड़ा। चल तो मैं तेज कदमों से ही रहा था पर अस्पताल पहुंचने में समय लग ही गया। मैं जब वार्ड में पहुंचा तब नर्स पंपिंग कर रही थी। दोनों बच्चे प्रतिभा के बैड के पास गुमसुम से खड़े थे। मुझे देखते ही डाक्टर ने इशारे से मुझे बता दिया था कि अनहोनी हो चुकी है। प्रतिभा अब इस दुनिया में नहीं रही। मुझे दोनों बच्चों को संभालना था इसलिए मैं अपने जज्बातों को अंदर ही दबा कर दोनों का हाथ पकड़ कर वार्ड के बाहर ले आया। बच्चे भी अब तक सारा कुछ समझ चुके थे। वे दोनों मेरे कंधे से लग कर फूटफूट कर रो रहे थे। मैं दोनों को शांत करने की कोशिश कर रहा था।

 

रात के 2 बज गए थे। प्रतिभा की डैड बौडी को पन्नी से बांध कर शवगृह में रख दिया गया था। अब सुबह ही बाकी सब होगा। हम लोग उदास कदमों से लौज की और चल दिए। मेरे कानों में प्रतिभा के बोल गूंज रहे थे,

‘‘देखोदोनों बच्चे बाहर चले गए अब हमारे बुढ़ापे में हम जानें क्या करेंगे…’’

प्रतिभा अकसर चिंता करती।

 

‘‘एक काम करनामैं मरूं इस के पहले तुम मर जाना नहीं तो तुम वाकई बहुत परेशान हो जाओगी… तुम ने तो आज तक घर के बाहर मेरे बिना कदम तक नहीं बढा़या है। ऐसे में बूढ़ी हो कर कैसे घर से निकलोगी…” हम अकसर अपने आने वाले बुढ़ापे को ले कर चर्चा करते। पर वह सच में मुझ से पहले चली जाएगी ऐसा तो सोचा भी नहीं था।

 

हम हताशनिराश और आंसू बहाते हुए लौज की और लौट रहे थे कि तभी रोली के मोबाइल की घंटी बजी।फोन अस्पताल से ही था,”अस्पताल का बिल जमा कर दो तब ही डैड बौडी मिलेगी…’’ किसी ने उस तरफ से बोला था।

 

‘‘अभी रात को…’’

 

‘‘हां…’’ रोली ने मेरी ओर देखा।

 

‘‘हम सुबह आएंगे। और हांआप के अस्पताल की 1-1 पाई जमा कर देगें…अभी आप डिस्टर्ब न करें,’’ गुस्से में उस ने फोन काट दिया था।

 

कितना अर्थ प्रधान हो गया है सब। अभी मौत हुई हैहम उस का शोक मना रहे हैं और अस्पताल को अपने पैसों की चिंता सताने लगी है। सुबह 8 बजे फिर से अस्पताल से फोन आ गया था। रोली ने बता दिया कि कुछ ही देर में हम वहां पहुंच रहे हैं। अस्पताल का पेमेंट करने के पहले दवा दुकान का पेमेंट करना जरूरी था। इसलिए पहले दवाओं का भुगतान किया, ‘‘अब तो मरीज नहीं है…बिल में कुछ कम कर पाएंगे?’’

 

‘‘नहीं…’’ उस ने पूरा बिल लिया और अस्पताल प्रबंधन ने भी। पैसे जमा हो जाने के बाद डैड बौडी हमें सौंपी गई। सौंपी नहीं गई नगर निगम की ऐंबुलैंस में रख दी गई। ऐंबुलैंस के ड्राइवर और कर्मचारी को नई पीपीई किट खरीद कर देना पड़ी। उस ऐंबुलैंस में एक डैड बौडी और थी और उन्होंने भी उन्हें पीपीई किट दी थी।

 

वहीं के एक घाट पर हम तीनों ने उस का दाह संस्कार किया। कोरोना मरीज होने के कारण घाट के कर्मचारियों ने भी हमें बहुत लूटा पर हमारे पास और कोई वकल्प था ही नहीं था इसलिए हम अनजान बन लुटते रहे। भैया ने कई बार हमें फोन कियाजिज्जी का भी फोन आया पर हम ने फोन नहीं उठाया। हम बात करने की स्थिति में नहीं थे। अक्षत ने भैया को फोन कर इतना ही बोला था, ‘‘दाजीहम घर आ रहे हैं।’’

 

भैया सारा कुछ समझ चुके थे। शाम को हम बगैर प्रतिभा के अपने घर लौट रहे थे।

और प्रतिभा नहीं रही- भाग 3 : प्रतिभा अस्पताल में अकेली क्यों थी

‘‘अरे इस हालत में मरीज को कहीं और कैसे ले जाया जा सकता है?’’ मैं झुंझला पड़ा था।‘‘वह हम नहीं जानते…पर मरीज का औक्सीजन लेवल निरंतर कम हो रहा है…उसे वैंटिलेटर की जरूरत है…’’

 

‘‘सरआप जानते हैं कि मैं स्वयं यहां ऐडमिट हूं…मैं कैसे कहीं और ले जा सकता हूं…’’‘‘अच्छा…मैं प्रसास करता हूं…कुछ ऐक्स्ट्रा कर पाओगे…’’ वह मरीज की फाइल देखते हुए बोल रहे थे.

 

‘‘फिलहाल तो हम इस स्थिति में हैं कि कुछ भी करना पड़े तो करेंगे…’’ मेरे स्वर में लाचारी थी.‘‘ठीक है…मैं व्यवस्था करवा देता हूं…’’दोपहर होतेहोते पता चला कि आईसीयू में भर्ती एक मरीज की अचानक मौत हो गई है और उस का बैड खाली हो गया है। अस्पताल के एक कर्मचारी ने खुद आ कर डाक्टर का संदेश मुझ तक पहुंचाया था। शाम को प्रतिभा को आईसीयू में शिफ्ट कर दिया गयागनीमत यह थी कि उस समय बिटिया रंगोली साथ में थी। मुझे उस के बारे में कोई खबर नहीं मिली। दूसरे दिन दोपहर को अक्षत मेरे सामने खड़ा था,”पापा…’’

‘‘अरे तुम कब आए…’’ उसे यहां देख कर मुझे आश्चर्य हो रहा था। वह तो सूरत में नौकरी कर रहा था। जब मैं अस्पताल में भर्ती हुआ था तब उस ने पूछा भी था, ‘‘पापामैं आ जाऊं?’’ मैं ने वैसे ही मना कर दिया था जैसे रंगोली को मना कर देता था। रंगोली तो फिर भी बहुत जिद कर रही थी, ‘‘मुझे आ जाने दो पापा…आप अकेले परेशान होंगे।’’

 

‘‘अरे नहीं…तुम यहां कहां आओगी… कोरोना मरीजों के बीच मेें…यदि तुम्हें कुछ हो गया तो…’’‘‘पर पापा…’’‘‘अभी नहीं…यहां रुकने की कोई व्यवस्था नहीं हैमम्मी को भी तो इसी कारण से वापस भेजना पड़ा है,”बहुत चाह कर भी वह मेरे मना करने के कारण तब नहीं आ पाई थी। पर जैसे ही प्रतिभा को भर्ती होना पड़ा वह बगैर पूछे आ गई थी। अक्षत भी वैसे ही आ गया थाउस ने भी नहीं पूछा था। यही कारण था कि उसे देख कर आश्चर्य हुआ।

 

‘‘मैं अभीअभी आया हूं…दीदी ने फोन किया था…मम्मी को आईसीयू में भर्ती करा दिया है वह अकेली है…मैं तत्काल चल दिया…’’ उस ने एक सांस में ही सारा कुछ बता दिया.

 

‘‘मम्मी को देख आए…कैसी हैं वह?’’

‘‘अभी नहीं…वहीं जा रहा हूं। पहले आप को देख लूं फिर जाता हूं…’’

 

‘‘तुम मम्मी के पास ही जाओ…मैं तो ठीक हूं…’’

 

उस ने कुछ फल वगैरह मुझे दिए और तेज कदमों से आईसीयू की ओर बढ़ गया. वह डाक्टर के कहने पर पीपीई किट लगाया हुआ था।

 

रोली शाम को आई मेरे पास। उस के माथे पर चिंता की लकीरें थीं. शाम को भैया का फोन आया तो मैं ज्यादा कुछ नहीं बोल पाया,”क्यों क्या हुआ… तुम उदास हो…मम्मी की तबियत कैसी है?’’ मैं प्रतिभा का हाल जानने के लिए बैचेन था.

 

‘‘ठीक है…औक्सीजन लगा दिया है…वे बारबार आप को याद कर रही हैं…’’ उस ने अपना चेहरा दूसरी ओर घुमा लिया था। शायद उस की आंखों में आंसू थे.

 

‘‘मुझे डिस्चार्ज करा दो…मैं भी उस से मिलना चाहता हूं…’’

 

‘‘आप…..स्वस्थ तो हो जाएं तब ही तो डाक्टर आप को डिस्चार्ज करेंगे…’’

 

‘‘अरे मैं ठीक हूं…तुम डाक्टर से बात तो करो…’’

 

‘‘मैं देखती हूं…आप ने कुछ खाया… सेब दे दूं…’’

 

‘‘नहीं तुम डाक्टर से बात करो और मुझे डिस्चार्ज कराओ…’’

 

मेरी  बैचेनी बढ़ती जा रही थी। मेरे सामने रोली का उदास चेहर घूम रहा था। क्या वाकई प्रतिभा की तबियत ज्यादा खराब है। वह अच्छीभली थी मगर अचानक उसे क्या हो गया। मेरी आंखों से आंसू बह निकले। रोली ने कुछ नहीं बोला। वह चुपचाप वार्ड से बाहर निकल गई.

 

इस के बाद दूसरे दिन तक न तो रोली मेरे पास आई और न ही अक्षत। मेरी बैचेनी बढ़ती जा रही थी। मैं ने खुद ही डाक्टर से बात की,”मैं स्वस्थ महसूस कर रहा हूं इसलिए आप मुझे डिस्चार्ज कर दें…’’

 

‘‘कल देखते हैं…’’ डाक्टर ने मेरी बात पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया था। मैं ने रोली और अक्षत दोनों को फोन लगा कर प्रतिभा के बारे में जानकारी ली,

‘‘मैं अभी इंजैक्शन के लिए आया हूं… लंबी लाइन लगी है…’’ अक्षत ने इतना कह कर फोन काट दिया।

 

रोली ने जरूर बात की और बताया कि वह कल से ही लगातार प्रतिभा के साथ ही है। उन की तबियत में अब सुधार हो रहा है।

 

‘‘थोड़ाबहुत आराम तुम भी कर लो। बेटाऐसे में तुम्हारी तबियत खराब न हो जाए…’’

 

‘‘अभी मम्मी के साथ रहने की जरूरत है पापायदि उन्हें हम में से कोई न दिखे तो वे घबरा जाती हैं…’’

 

‘‘इलाज तो ठीक से हो रहा है न…’’

 

‘‘नहीं सभी लापरवाह हैं…उन्हें केवल पैसे चाहिए…मैं दे भी रही हूं…नर्सों को अलग से और सफाई करने वालों को भी… अस्पताल का बिल तो अलग है ही…’’ उस के स्वर में नाराजगी और लाचारगी दोनों थी।

 

‘‘पैसे की चिंता मत करो बेटा…केवल मम्मी को ठीक करा लो…’’ मेरी बैचेनी अब और बढ़ गई थी।

 

‘‘सामने न रहो तो वे न तो समय पर दवा देते हैं और न ही बौटल बदलते हैं…खाली बौटल ही चढ़ी रहती है… इसलिए पूरे समय मम्मी के पास बैठे रहना पड़ता है…’’ उस की आवाज में निराशा थी।

 

‘‘अरे…’’ सच में मुझे भी अस्पताल की लापरवाही पर गुस्सा आ रहा था….पर मैं कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं था.

 

मुखरित मौन – भाग 2 : क्या अवनी अपने ससुराल की जिम्मेदारियां निभा पाई

सुजाता सिर्फ शारीरिक रूप से ही नहीं, मानसिक रूप से भी व्यस्त थीं. नौकरी की व्यस्तता के कारण उन का ध्यान दूसरी कई फालतू बातों की तरफ नहीं जाने पाता था. दूसरा, सोचने का आयाम बहुत बड़ा था. कई बातें उन की सोच में रुकती ही नहीं थीं. इधर से शुरू हो कर उधर गुजर जाती थीं.

2 बज गए थे. लंच का समय हो गया था. बच्चे अभी होटल से नहीं आए थे. सरस ने एकदो बार फोन करने की पेशकश की, पर सुजाता ने सख्ती से मना कर दिया कि उन्हें फोन कर के डिस्टर्ब करना गलत है.

‘‘तुम्हें भूख लग रही है, सरस, तो हम खाना खा लेते हैं.’’

‘‘बच्चों का इंतजार कर लेते हैं.’’

‘‘बच्चे तो अब यहीं रहेंगे. थोड़ी देर और देखते हैं, फिर खा लेते हैं. न उन्हें बांधो, न खुद बंधो. वे आएंगे तो उन के साथ कुछ मीठा खा लेंगे.’’

सुजाता के जोर देने पर थोड़ी देर

बाद सुजाता व सरस ने खाना खा लिया. बच्चे 4 बजे के करीब आए. वे सो कर ही 2 बजे उठे थे. अब कुछ फ्रैश लग रहे थे. उन के आने से घर में चहलपहल हो गई. सरस और सुजाता को लगा बिना मौसम बहार आ गई हो. सुजाता ने उन का कमरा व्यवस्थित कर दिया था. बच्चों का भी होटल जाने का कोई मूड नहीं था. परिमल भी अपने ही कमरे में रहना चाहता था. इसलिए वे अपनी अटैचियां साथ ले कर आ गए थे. थोड़ी देर घर में रौनक कर, खाना खा कर बच्चे फिर अपने कमरे में समा गए.

अवनी अपनी मम्मी को फोन करना फिर भूल गई. बेचैनी में मानसी का दिन नहीं कट रहा था. दोबारा फोन मिलाने पर अवनी की सुबह की डांट याद आ रही थी. इसलिए थकहार कर समधिन सुजाता को फोन मिला दिया. थकी हुई सुजाता भी लंच के बाद नींद के सागर में गोते लगा रही थीं. घंटी की आवाज से बमुश्किल आंखें खोल कर मोबाइल पर नजरें गड़ाईं. समधिन मानसी का नाम देख कर हड़बड़ा कर उठ कर बैठ गईं.

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