‘‘हैलो, क्या हाल है गौरव, मैं बोल रहा हूं, मोहित. क्या तैयारियां हैं इस बार…’’
‘‘तैयारियां पूरी हैं, इस बार विनोद के फार्म हाउस पर बैठेंगे, 20 की रात से.’’
‘‘और बाकी सब…’’
‘‘अरे टैंशन मत लो यार, सारे इंतजाम हो जाएंगे. विनोद को तो तुम जानते ही हो, खातिरदारी में कोई कसर नहीं छोड़ता. तुम तो बस बैंक से सौसौ के नोटों की दोचार गड्डियां निकाल लो. पिछले साल का हिसाब बराबर करना है. पक्की टौप राउंड ब्लाइंड में निकाल कर एक दांव में ही 6 हजार रुपए झटक ले गए थे.’’
‘‘अब यह तो समय की बात है यार, अब इस बार संभल कर खेलना और कलर पर इतनी लंबी चालें मत चलना, और हां, बाकियों को बोल दिया न?’’
‘‘हां, सब तैयार हैं. अब तो बस 20 का इंतजार है. 27 की दीवाली है. लेकिन अपनी फड़ 30 तक जमेगी. पीनेपिलाने के सामान का इंतजाम शुभम कर लेगा ऐक्साइज वाला जो ठहरा.’’
‘‘ओके, मिलते हैं फिर.’’
‘‘ओके.’’
न तो उक्त बातचीत काल्पनिक है और न ही ये पात्र जो बीते 4-5 सालों से भोपाल में हर दीवाली कुछ और न करें, जुआ जरूर खेलते हैं और पीने वाले शराब भी पीते हैं. दीवाली को ले कर इन के उत्साह की वजह पूजापाठ, यज्ञ, हवन, नए कपड़े या आतिशबाजी नहीं, बल्कि जुआ है जिसे ले कर ये महीनेभर पहले से ही बेचैन हो कर प्लान बनाने लगे थे कि इस बार फड़ कहां जमेगी.
दीवाली मनाने का तरीका अब तेजी से बदल रहा है जिसे देख कई बार तो ऐसा लगता है कि इस से जुड़े तमाम मिथक और पौराणिक किस्सेकहानियां वाकई झूठे हैं. सच और शाश्वत है तो जुआ और शराब जिन के शौकीनों की संख्या में हर साल इजाफा हो रहा है.
बात, दरअसल, सच भी इस लिहाज से है कि अधिकांश लोगों को समझ आ गया है कि लक्ष्मीपूजा तो मजबूरी है लेकिन असली लक्ष्मी, जो जुए के जरिए आती है (दरअसल जाती ज्यादा है), का रोमांच ही अलग है.
जुआ दीवाली का धार्मिक शगुन है जिस में अपनेअपने समय को आजमाने का लालच बिरले ही छोड़ पाते हैं और जो छोड़ देते हैं वे सभ्य और आधुनिक समाज की निगाह व विश्लेषण में पिछड़े और परंपरावादी होते हैं. पर यह शगुन कब अपशगुन और ऐब में बदल जाता है, इस का एहसास जब होता है तब तक सेहत, प्रतिष्ठा और पैसों का काफी नुकसान हो चुका होता है.
दीवाली के बदलते माने
दीवाली के त्योहार के माने कभी वाकई सामाजिक सौहार्द्र और उल्लास के हुआ करते थे जिस में नए कपड़े पहनना, आतिशबाजी चलाना, पकवान खानाखिलाना और एकदूसरे से रूबरू हो कर बधाइयां देना एक अनिवार्यता हुआ करती थी.
अब यह सब जरूरी नहीं रहा है, बल्कि लक्ष्मीपूजन भी लोग एक रिवाज सा निभाने के लिए करते हैं. यह ज्ञान प्राप्त हो जाना एक अच्छी बात है कि लक्ष्मी पूजापाठ से नहीं, बल्कि मेहनत से आती है लेकिन यह अज्ञान कि दीवाली पर जुआ खेलने से सालभर पैसे की स्थिति का अंदाजा लगेगा, बहुत खतरनाक और नुकसानदेह है, जिस से हर साल करोड़ों पेशेवर जुआरी पैदा होते हैं.
धार्मिक और पौराणिक आख्यानों का इस में बड़ा हाथ है जिन में विकट का विरोधाभास भी है. एक तरफ तो ये किस्सेकहानी ही बताते हैं कि जुआ बरबाद कर देता है. द्वापर में इसी जुए ने धर्मराज युधिष्ठिर की बुद्धि हरते उन्हें सड़क पर ला दिया था. धर्मराज तो कहनेभर की बात है, नहीं तो युधिष्ठिर को अधर्मराज कहा जाना चाहिए जिस ने राजपाट सहित भाइयों और पत्नी तक को दांव पर लगा दिया था.
तो क्या वाकई दीवाली के माने सिर्फ जुए और शराब तक सीमित हो कर रह गए हैं, इस सवाल का जवाब बेहद निराशाजनक तरीके से हां में ही निकलता है. जिस की अपनी वजहें भी हैं.
दीवाली का सामाजिक पहलू अब हाशिए पर है और चलन में है तो दांव लगाने का जनून व रोमांच जो एक हद तक मानवीय स्वभाव को देखते प्राकृतिक बात भी लगती है पर कोई त्योहार इस की वजह बने, तो बात चिंता की है. क्या वजह है कि लोग महीनेभर पहले से दीवाली की नहीं, बल्कि जुए की तैयारी की बात कर रहे हैं. इस की वजह है कि धर्म बताता है कि दीवाली पैसों का त्योहार है और पैसा मेहनत से नहीं, बल्कि किस्मत से आता है.
इसी किस्मत को आजमाने दीवाली एक पैमाना बना दिया गया है. धर्म से निकली जुए नाम की एक और बुराई की गिरफ्त में अब लगभग 50 फीसदी लोग आ चुके हैं. शगुन शौकिया हो या आदत हो, है तो नुकसानदेह, जिस से बचनेबचाने वाला कोई कभी नहीं रहा. उलटे, उकसाने वालों की तादाद हर साल बढ़ती जा रही है.
दीवाली पर होटलों के कमरे, फार्महाउस, किसी का भी घर, होस्टल और गांवों के खलिहान तक फड़ में तबदील हो जाते हैं. जहां 4-6 से ले कर 12-15 लोग तक इत्मीनान से बैठे तंबाकूखैनी मुंह में ठूंसे पिचपिच करते, बीड़ी, सिगरेट का धुआं उड़ाते नजर आते हैं. उन के मुंह से निकलने वाले शब्द होते हैं, ‘एक ब्लाइंड मेरी भी’, ‘यह मेरी चाल’, ‘यह ले सौ का काउंटर’, ‘मैं तो पैक हो गया’, ‘यह रही मेरी एक और चाल और अब शो कर दे.’
अफसोस तो इस बात का है कि यह सब सहज स्वीकार्य होता जा रहा है. जुए को सामाजिक बुराई कहना अब सरकारी स्लोगन सा होता जा रहा है. मुमकिन है लोग पूजापाठ से ऊब चले हों और उस से व दूसरे धार्मिक दबावों से वे छुटकारा पाने की हिम्मत न कर पा रहे हों लेकिन जो विकल्प उन्होंने दीवाली मनाने का जुए और शराब की शक्ल में चुना है वह हर लिहाज से नुकसानदेह है
शायद ही कोई बता पाए कि दीवाली के जुए से हासिल क्या होता है – चंद घंटों या दिनों का मनोरंजन, रोमांच, उत्सुकता और किस्मत आजमाने की जिज्ञासा या कुछ और. यकीन मानें, हासिल कुछ नहीं होता, होता इतनाभर है कि लोग एक अच्छाखासा त्योहार इन 2 ऐबों और लतों की बलि चढ़ा देते हैं.
साल का जो वक्त परिवारजनों और मित्रों के साथ गपों में, खानेपीने में, हंसीमजाक और मेलमिलाप में गुजरना चाहिए वह एक बेचैनी, उत्तेजना, नशे और दांवपेचों में जाया हो जाता है. कौन कितना हारा, कितना जीता जैसे हिसाबकिताब में सिमटी दीवाली के माने वाकई खत्म हो चले हैं जिस में अब युवा और महिलाएं भी शामिल हो गई हैं.
जुआ और शराब अब फैशन और स्टेटस सिंबल हो गए हैं. यह कतई तारीफ की या खुश होने की नहीं, बल्कि चिंतनीय बात है कि उत्साह के इस पर्व को खुद हम ने अवसाद का त्योहार बना दिया है.
कंगाल होते लोग
कोई भी वर्ग दीवाली के जुए और शराब की लत से अछूता नहीं है. फर्क सिर्फ दांव और पैसा लगाने की हैसियत का है. पिछले साल दीवाली पर लुधियाना के एक व्यापारी के एक रात में 2 करोड़ रुपए हार जाने की खबर सुर्खियों में रही थी. पर बाद में उस पर लीपापोती हो गई थी.
मेहनत की गाढ़ी कमाई फिर चाहे वह किसी व्यापारी की हो, अधिकारी की हो या मजदूर की हो, दीवाली के जुए में चंद मिनटों में हाथ से फिसलती है तो लोग देखते ही देखते कंगाल हो जाते हैं. यह कैसा त्योहार और शगुन है जो पैसा कमाने को प्रेरित नहीं करता, बल्कि गंवाने को एक मुहूर्त देता है.
बेईमानी, लालच और अंधविश्वास एक जुआरी की बुनियादी मानसिकता होते हैं. ये सब बारीकी से देखें तो धर्म से ही आए हैं. कौरवपांडवों का जुआ इस का बेहतर उदाहरण है जो माया शकुनि के छलकपट से भरा हुआ था. शिव और पार्वती भी दीवाली पर जुआ खेलते थे. यह मिसाल देना कौन सी शान की बात है कि आप के देवीदेवता ही इस व्यसन का शिकार थे. इसी तरह एक और पौराणिक पात्र राजा नल के अलावा कृष्ण का बड़ा भाई बलराम भी जुए की लत का शिकार था.
ये हमारे आदर्श हैं तो कोई क्या कर लेगा. लोग तो देवीदेवताओं का अनुसरणभर कर रहे हैं. बस, बदला इतनाभर है कि चौसर और पांसों की जगह ताश के पत्तों ने ले ली है. मानसिकता तो वही है जो सदियों पहले थी.
कोई दोपांचसौ हारे या हजारदसहजार या फिर लाखकरोड़, जुआ तो जुआ है जिस में वक्त और पैसों की बरबादी ही होती है और दीवाली पर लगने वाली यह लत कितनी अपशगुनी होती है, इस के जीतेजागते उदाहरण आसपास हर कहीं आसानी से मिल जाएंगे.
यह हास्यास्पद और तरस खाने वाली बात है कि लोग कोई सबक हार से नहीं लेते, बल्कि ‘अगले साल कवर कर लूंगा’ की मानसिकता से ग्रस्त हो जाते हैं. यह और बात है कि जुए में हारा पैसा कभी कवर नहीं होता. उलटे, दूसरी दीवाली पर और भी चला जाता है.
शराब का बढ़ता चलन
जुए के बाद दीवाली पर तेजी से सालदरसाल बढ़ता चलन शराब का है. गलत नहीं कहा जाता कि एक बुराई दूसरी को ले कर आती है.
जिन घरों में सालभर शराब का नाम लेना भी गुनाह समझा जाता है उन में भी दीवाली पर शराब तबीयत से छलकती है. यह भी जुए की तरह शान, प्रतिष्ठा और दिखावे की बात हो चली है. जुआरी तो शराब पीते ही पीते हैं लेकिन जो कुछ लोग जुआ नहीं खेलते, वे दीवाली पर गला तर करना नहीं भूलते. यह पैसों की बरबादी का दूसरा तरीका है.
जैसे बचाव में यह कहा जाता है कि जुआ तो दीवाली का शगुन है जो साल में एक बार ही आती है, वैसे ही यह कहा जाने लगा है कि अरे, क्या हुआ जो दीवाली पर पी ली. एक बार ही तो आती है. इस में कोई शक नहीं कि शराब की लत जुए के मुकाबले जल्द लगती है क्योंकि यह अकेले भी पी जा सकती है और आसानी से हर कहीं मिल जाती है. और एक बार इस के फेर में जो आ गया, उसे साथ देने वाले भी आसानी से आसपास ही मिल जाते हैं.
दीवाली पर शराब के बढ़ते चलन को आंकड़ों की शक्ल में देखें तो वे हैरान कर देने वाले हैं. देश की राजधानी दिल्ली में हर सप्ताह लोग 75 करोड़ रुपए की शराब गटकते हैं. लेकिन दीवाली के दिनों में यह आंकड़ा 125 करोड़ रुपए पार कर जाता है यानी 50 करोड़ रुपए की शराब अतिरिक्त बिकती है. यह सिलसिला फिर दिसंबर के आखिर तक चलता है और नए साल के जश्न में भी बेतहाशा शराब बिकती है. दीवाली की ही तरह लोग अब साल के आखिरी दिन भी जुआ खेलते किस्मत आजमाने लगे हैं.
बड़े और बी श्रेणी के शहरों में दीवाली से ही पार्टियों का भी सिलसिला शुरू हो जाता है, जिन में समारोहपूर्वक जुआ खेला जाता है और शराब पी जाती है. नई चिंता और हैरानी की बात कई महफिलों में कौलगर्ल्स को बुलाना भी हो चली है यानी एक तीसरी बुराई आकार ले रही है.
दीवाली पर शराब की बिक्री के लिहाज से देश के सब से बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ का हाल भी दिल्ली की तरह ही रहा था. साल 2018 की दीवाली के 5 दिनों में लखनऊ वालों ने 15 करोड़ रुपए की शराब गटक डाली थी, जोकि अपनेआप में रिकौर्ड है. दीवाली के दिन ही 1 करोड़ 40 लाख रुपए की तो अकेली बियर ही बिकी थी. मशहूर पर्यटन स्थल नैनीताल में पिछली दीवाली पर 5 करोड़ रुपए की शराब बिकी थी, जो औसत से 2 करोड़ रुपए ज्यादा थी. यानी पर्यटक भी दीवाली का जश्न जुए और शराब में डूब कर मनाते हैं. मध्य प्रदेश के हिल स्टेशन पचमढ़ी के एक नामी होटल के मैनेजर की मानें तो दीवाली पर पर्यटक जम कर जुआ खेलते हैं और छक कर शराब पीते हैं.
दरअसल, दीवाली पर शराब पीना भी एक कर्मकांड बनता जा रहा है. अब तो इसे बड़े पैमाने पर बतौर गिफ्ट दिया और लिया भी जाने लगा है. मिठाई के पैकेटों की जगह शराब के गिफ्ट पैकेट चलन में आ गए हैं जिन्हें पा कर हर कोई खुश हो उठता है. यह एक तरह की घूस ही है जो अफसरों और नेताओं को खुश करने को दी जाती है.
लखनऊ शराब एसोसिएशन के महामंत्री कन्हैयालाल की मानें तो शराब के गिफ्ट पैक अब आसानी से शराब की दुकानों में ही मिलने लगे हैं जिन की कीमत 5 से ले कर 15 हजार रुपए तक होती है. ये गिफ्ट पैक बड़े आकर्षक होते हैं जिन में आकर्षक गिलास, ताश की महंगी गड्डी और ब्रैंडेड सिगरेट के पैकेट्स, कीमती पैन व कीरिंग भी रखे होते हैं.
हर शहर का यही हाल है और गांवदेहात भी दीवाली पर शराब की बढ़ती बिक्री व चलन से अछूते नहीं हैं. भोपाल के नजदीक बैरसिया कसबे के एक शराबविक्रेता की मानें तो दीवाली पर वे लोग भी शराब पीने लगे हैं जो सालभर इस से परहेज करते हैं. ऐसा क्यों, इस सवाल का जवाब विक्रेता के पास नहीं है सिवा इस के कि दीवाली है और लोग इसे अपने तरीके से मनाना चाहते हैं. आसपास के गांवों के लोग साप्ताहिक बाजार यानी हाट से दीवाली के नए कपड़े, पूजापाठ की सामग्री और पटाखों के अलावा शराब की बोतलें भी खरीद कर ले जाने लगे हैं.
बरबादी नहीं तो क्या
कोई वजह नहीं कि दीवाली पर जुए और शराब के बढ़ते चलन पर चिंता न जताई जाए जिन के चलते हर वर्ग के लोग बरबाद हो रहे हैं. दीवाली मनाने के ये नए तरीके कल को कितने महंगे पड़ने वाले हैं, इस का अंदाजा किसी को नहीं, और जिन्हें है वे इन पर से आंखें बंद किए बैठे हैं.
ऐसा नहीं कि जुए और शराब की लत के नतीजे लोगों को नजर न आते हों. प्रकाश, उल्लास और दीपों के इस त्योहार पर अपराधों की संख्या तेजी से बढ़ रही है. जुए की फड़ों पर जम कर हिंसक वारदातें होती हैं और शराब के नशे में भी लोग अपराध करते हैं.
यानी दीवाली के माने वाकई अफसोसजनक और नुकसानदेह तरीकों से बदल रहे हैं. खुशी कहनेभर की बात रह गई है, नहीं तो वक्त और पैसा बरबाद करती यह दीवाली दुखी ज्यादा करती है.
और इन से बचाने के लिए कोई ऊपर से नहीं आएगा बल्कि लोगों को खुद गंभीरतापूर्वक इस पर विचार करना होगा कि त्योहार मनाने के ये कौन से तरीके हैं कि जुए की फड़ पर बैठे पैसा लुटा आएं और फिर नशे में झूमते कहीं भी लुढ़क जाएं. अगर यही दीवाली के अर्थ रह गए हैं तो फिर अनर्थ क्या होगा? द्य
अंधविश्वास भी कम नहीं
जुआ तो अपनेआप में एक बुराई है ही लेकिन तरस और हैरानी की एक और बात है जुए में पैसे जीतने, टोनोंटोटकों, तंत्रमंत्र और पूजापाठ का सहारा लेना. किसी भी शहर में देख लें ऐसे बाबा मिल ही जाएंगे जो जुए में जीत के लिए यजमान से तगड़ी दक्षिणा झटक उसे कोई ‘हीम कलीम फट’ टाइप का मंत्र थमा कर खासी कमाई बिना जुआ खेले ही कर लेते हैं.
भोपाल के अशोका गार्डन इलाके के एक बाबा या फकीर, कुछ भी कह लें, के पास दीवाली के दिनों में खासी भीड़ उमड़ती है, क्योंकि यह ठग एक सिद्ध अभिमंत्रित तावीज देता है जिसे पहन कर दीवाली का जुआ जीतने की गारंटी रहती है. यह और बात है कि यह गारंटी वैसी ही होती है जैसी यह कि मिनटों में कोई भी औरत आप की गुलाम हो जाएगी या क्रूर से क्रूर पति भी पत्नी के पांवों में लोट लगाने लगेगा. यह बाबा सवा सौ रुपए से ले कर 11 हजार रुपए तक के तावीज दे कर उन से, उन की पावर यानी यजमान की हैसियत के मुताबिक, खूब लक्ष्मी बटोरता है.
दीवाली पर सब से ज्यादा शामत बेचारे उल्लू नाम के शिकारी पक्षी की हो आती है जो लक्ष्मी का वाहन है. उल्लू से जुड़ा अंधविश्वास यह है कि दीवाली की रात इस की बलि देने से धन की कमी नहीं रहती. अब तो दीवाली के दिनों में उल्लू 50 हजार रुपए तक में बिकता है.
राजस्थान के कुछ शिकारियों ने तो उल्लू विक्रय को पूरी इंडस्ट्री ही बना रखा है. ये लोग ज्यादा उल्लुओं के लिए उन का प्रजनन भी करवाते हैं. यहां से देशभर में मांग के मुताबिक उल्लू सप्लाई किए जाते हैं. यजमान को मिले न मिले लेकिन तांत्रिक पूजा कराने वाले पंडित को जरूर मोटी लक्ष्मी दक्षिणा की शक्ल में मिल जाती है.
तंत्र साधना के लिए कुख्यात दीवाली की रात तो छोटेबड़े तात्रिकों की चांदी हो जाती है. इन के यजमान झुग्गीझोंपडि़यों से ले कर आलीशान इमारतों तक में हैं जो मनोकामना पूर्ति के लिए तरहतरह की तांत्रिक पूजा करवाते हैं. श्मशान साधना के लिए भी दीवाली की रात मुफीद मानी जाती है. इस रात इतने बेहूदे क्रियाकलाप होते हैं जिन्हें देख लगता नहीं कि हम किसी सभ्य या आधुनिक समाज में रहते हैं.
तरस तो लोगों पर उस वक्त भी आता है जब वे दीवाली की रात अपने स्वार्थ सिद्ध करने के लिए जाहिलों से भी गईगुजरी हरकतें करते हैं. दीवाली की रात किसी दूसरे के घर के जलते दीये से तेल चुरा लो तो चर्म रोग नहीं होते, दीवाली की रात छिपकली देखने से सालभर सब अच्छा होता है और दीवाली की रात काजल लगाने से आंखें कभी खराब नहीं होतीं जैसे अंधविश्वास के शिकार वे लोग भी हैं जो खुद को बुद्धिमान और तार्किक कहते हैं. लेकिन इन की हकीकत दीवाली की रात खूब उजागर होती है जब ये भी दीवाली के टोनोंटोटकों और अंधविश्वासी हरकतें करने से खुद को रोक नहीं पाते, फिर जुए में जीत के लिए मंत्र और तावीज के अंधविश्वासों की बिसात क्या.