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बगावत-भाग 2 : कैसे प्यार से भर गया उषा का आंचल

असहाय सी उषा मां का मुंह देखती रह गई. मां भी तो आखिर बेटों का ही पक्ष लेंगी न. जब कभी भी पिताजी ने उस का पक्ष लिया, बेटों को डांटाफटकारा तो मां को अच्छा नहीं लगा. उस समय तो वह कुछ नहीं कहतीं लेकिन मन के भाव तो चेहरे पर आ ही जाते हैं. बाद में मौका मिलने पर टोकतीं, ‘‘क्यों अपने बड़े भाइयों से उलझती रहती है?’’ उषा पूछती, ‘‘मां, मैं तो सदा उन का आदर करती हूं, उन के भले की कामना करती हूं लेकिन वे ही हमेशा मेरे पीछे पड़े रहते हैं. अगर मैं पढ़ाई में अच्छी हूं तो उन्हें ईर्ष्या क्यों होती है?’’

मां कहतीं, ‘‘चुप कर, ज्यादा नहीं बोलते बड़ों के सामने.’’

दोनों बड़े भाइयों का?स्नातक होने के बाद विवाह कर दिया गया. दोनों बहुओं ने भी घर के हालात देखे, समझे और अपना आधिपत्य जमा लिया. उषा तो भाइयों की ओर से पहले ही उपेक्षित थी. भाभियों के आने के बाद उन की ओर से भी वार होने लगे. इस बीच हृदय के जबरदस्त आघात से पिताजी चल बसे. घर का पूरा नियंत्रण बहुओं के हाथ में आ गया. मां तो पहले से ही बेटों की हमदर्द थीं, अब तो उन की गुलामी तक करने को तैयार थीं. पूरी तरह से बहूबेटों के अधीन हो गईं. उषा का डाक्टरी का अंतिम वर्ष था. घर के उबाऊ व तनावग्रस्त माहौल से जितनी देर वह दूर रहती, उसे राहत का एहसास होता. अत: अधिक से अधिक वक्त वह पुस्तकालय में, सहेली के घर या कैंटीन में गुजार देती. सच्चे प्रेम, विश्वास, उचित मार्गदर्शन पर ही तो जिंदगी की नींव टिकी है, चाहे वह मांबाप, भाईबहन, पतिपत्नी किसी से भी प्राप्त हो. लेकिन उषा को बीते जीवन में किसी से कुछ भी प्राप्त नहीं हो रहा था. प्रेम, स्नेह के लिए वह तरस उठती थी. पिताजी से जो स्नेह, प्यार मिल रहा था वह भी अब छिन चुका था.

मेडिकल कालिज की कैंटीन शहर भर में दहीबड़े के लिए प्रसिद्ध थी. अचानक जरूरत पड़ने पर या मेहमानों के लिए विशेषतौर पर लोग वहां से दहीबड़े खरीदने आते थे. बाहर के लोगों के लिए भी कैंटीन में आना मना नहीं था. स्वयंसेवा की व्यवस्था थी. लोगों को स्वयं अपना नाश्ता, चाय, कौफी वगैरह अंदर के काउंटर से उठा कर लाना होता था. कालिज के साथ ही सरकारी अस्पताल होता था. रोगियों के संबंधी भी अकसर कालिज की कैंटीन से चायनाश्ता खरीद कर ले जाते थे.

कैंटीन में अकेली बैठी उषा चाय पी रही थी. सामने की सीट खाली थी. अचानक एक नौजवान चाय का कप ले कर वहां आया, ‘‘मैं यहां बैठ सकता हूं?’’ उस की बातों व व्यवहार से शालीनता टपक रही थी. ‘‘हां, हां, क्यों नहीं,’’ कह कर उषा ने अपनी कुरसी थोड़ी पीछे खिसका ली.

‘‘मेरी मां अस्पताल में दाखिल हैं,’’ बातचीत शुरू करने के लहजे में वह नौजवान बोला. ‘‘अच्छा, क्या हुआ उन को? किस वार्ड में हैं?’’ सहज ही पूछ बैठी थी उषा.

‘‘5 नंबर में हैं. गुरदे में पथरी हो गई थी. आपरेशन हुआ है,’’ धीरे से युवक बोला. शाम को घर लौटने से पहले उषा अपनी सहेली के साथ वार्ड नंबर 5 में गई तो वहां वही युवक अपनी मां के सिरहाने बैठा हुआ था. उषा को देखते ही उठ खड़ा हुआ, ‘‘आइए, डाक्टर साहब.’’

‘‘अभी तो मुझे डाक्टर बनने में 6 महीने बाकी हैं,’’ कहते हुए उषा के चेहरे पर मुसकान तैर गई. उस युवक की मां ने पूछा, ‘‘शैलेंद्र, कौन है यह?’’

‘‘मेरा नाम उषा है. आज कैंटीन में इन से मुलाकात हुई तो आप की तबीयत पूछने आ गई. कैसी हैं आप?’’ शैलेंद्र को असमंजस में पड़ा देख कर उषा ने ही जवाब दे दिया. ‘‘अच्छी हूं, बेटी. तू तो डाक्टर है, सब जानती होगी. यह देखना जरा,’’ कहते हुए एक्सरे व अन्य रिपोर्टें शैलेंद्र की मां ने उषा के हाथ में दे दीं. शैलेंद्र हैरान सा मां को देखता रह गया. एक नितांत अनजान व्यक्ति पर इतना विश्वास?

बड़े ध्यान से उषा ने सारे कागजात, एक्सरे देखे और बोली, ‘‘अब आप बिलकुल ठीक हो जाएंगी. आप की सेहत का सुधार संतोषजनक रूप से हो रहा है.’’ मां के चेहरे पर तृप्ति के भाव आ गए. अगले सप्ताह उषा की शैलेंद्र के साथ अस्पताल में कई बार मुलाकात हुई. जब भी मां की तबीयत देखने वह गई, न जाने क्यों उन की बातों, व्यवहार से उसे एक सुकून सा मिलता था. शैलेंद्र के नम्र व्यवहार का भी अपना आकर्षण था.

शैलेंद्र टेलीफोन विभाग में आपरेटर था. मां की अस्पताल से छुट्टी होने के बाद भी वह अकसर कैंटीन आने लगा और उषा से मुलाकातें होती रहीं. दोनों ही एकदूसरे की ओर आकर्षित होते चले गए और आखिर यह आकर्षण प्रेम में बदल गया. अपने घर के सदस्यों द्वारा उपेक्षित, प्रेम, स्नेह को तरस रही, अपनेपन को लालायित उषा शैलेंद्र के प्रेम को किसी कीमत पर खोना नहीं चाहती थी. वह सोचती, मां और भाई तो इस रिश्ते के लिए कदापि तैयार नहीं होंगे…अब वह क्या करे?

आखिर बात भाइयों तक पहुंच ही गई. ‘‘डाक्टर हो कर उस टुटपुंजिए टेलीफोन आपरेटर से शादी करेगी? तेरा दिमाग तो नहीं फिर गया?’’ सभी भाइयों के साथसाथ मां ने भी लताड़ा था.

‘‘हां, मुझे उस में इनसानियत नजर आई है. केवल पैसा ही सबकुछ नहीं होता,’’ उषा ने हिम्मत कर के जवाब दिया. ‘‘देख लिया अपनी लाड़ली बहन को? तुम्हें ही इनसानियत सिखा रही है.’’ भाभियों ने भी तीर छोड़ने में कोई कसर नहीं रखी.

‘‘अगर तू ने उस के साथ शादी की तो तेरे साथ हमारा संबंध हमेशा के लिए खत्म हो जाएगा. अच्छी तरह सोच ले,’’ भाइयों ने चेतावनी दी. जिंदगी में पहली बार किसी का सच्चा प्रेम, विश्वास, सहानुभूति प्राप्त हुई थी, उषा उसे खोना नहीं चाहती थी. पूरी वस्तुस्थिति उस ने शैलेंद्र के सामने स्पष्ट कर दी.

‘‘उषा, यह ठीक है कि मैं संपन्न परिवार से नहीं हूं. मेरी नौकरी भी मामूली सी है, आय भी अधिक नहीं. तुम मेरे मुकाबले काफी ऊंची हो. पद में भी, संपन्नता में भी. लेकिन इतना विश्वास दिलाता हूं कि मेरा प्रेम, विश्वास बहुत ऊंचा है. इस में तुम्हें कभी कंजूसी, धोखा, फरेब नहीं मिलेगा. जो तुम्हारी मरजी हो, चुन लो. तुम पद, प्रतिष्ठा, धन को अधिक महत्त्व देती हो या इनसानियत, सच्चे प्रेम, स्नेह, विश्वास को. यह निर्णय लेने का तुम्हें अधिकार है,’’ शैलेंद्र बोला. ‘‘और फिर परीक्षाएं होने के बाद हम ने कचहरी में जा कर शादी कर ली. मेरी मां, भाई, भाभी कोई भी शादी में हाजिर नहीं हुए. हां, शैलेंद्र के घर से काफी सदस्य शामिल हुए. तुझ से सच कहूं?’’ मेरी आंखों में झांकते हुए उषा आगे बोली, ‘‘मुझे अपने निर्णय पर गर्व है. सच मानो, मुझे अपने पति से इतना प्रेम, स्नेह, विश्वास प्राप्त हुआ है, जिस की मैं ने कल्पना भी नहीं की थी. अपनी मां, भाई, भाभियों से स्नेह, प्यार के लिए तरस रही मुझ बदनसीब को पति व उस के परिवार से इतना प्रेम स्नेह मिला है कि मैं अपना अतीत भूल सी गई हूं.

‘‘अगर मैं किसी बड़े डाक्टर या बड़े व्यवसायी से शादी करती तो धनदौलत व अपार वैभव पाने के साथसाथ मुझे पति का इतना प्रेम, स्नेह मिल पाता, मुझे इस में संदेह है. धनदौलत का तो मांबाप के घर में भी अभाव नहीं था लेकिन प्रेम व स्नेह से मैं वंचित रह गई थी. ‘‘धनदौलत की तुलना में प्रेम का स्थान ऊंचा है. व्यक्ति रूखीसूखी खा कर संतोष से रह सकता है, बशर्ते उसे अपनों का स्नेह, विश्वास, आत्मीयता, प्राप्त हो. लेकिन अत्यधिक संपन्नता और वैभव के बीच अगर प्रेम, सहिष्णुता, आपसी विश्वास न हो तो जिंदगी बोझिल हो जाती है. मैं बहुत खुश हूं, मुझे जीवन की असली मंजिल मिल गई है.

‘‘अब मैं अपना दवाखाना खोल लूंगी. पति के साथ मेरी आय मिल जाने से हमें आर्थिक तंगी नहीं हो पाएगी.’’ ‘‘उषा, तू तो बड़ी साहसी निकली. हम तो यही समझते रहे कि 3-3 भाइयों की अकेली बहन कितनी लाड़ली व सुखी होगी, लेकिन तू ने तो अपनी व्यथा का भान ही नहीं होने दिया,’’ सारी कहानी सुन कर मैं ने कहा.

‘‘अपने दुखडे़ किसी के आगे रोने से क्या लाभ? फिर वैसे भी मेरा मेडिकल में दाखिला होने के बाद तुम से मुलाकातें भी तो कम हो गई थीं.’’ मुझे याद आया, उषा मेडिकल कालिज चली गई तो महीने में ही मुलाकात हो पाती थी. विज्ञान में स्नातक होने के पश्चात मेरी शादी हो गई और मैं यहां आ गई. कभीकभार उषा की चिट्ठी आ जाती थी, लेकिन उस ने कभी अपनी व्यथा के बारे में एक शब्द भी नहीं लिखा.

मायके जाने पर जब भी मैं उस से मिली, तब मैं यह अंदाज नहीं लगा सकती थी कि उषा अपने हृदय में तनावों, मानसिक पीड़ा का समंदर समेटे हुए है. दूसरे दिन आने का वादा कर के वह चली गई. मैं बड़ी बेसब्री से दूसरे दिन का इंतजार कर रही थी ताकि उस व्यक्ति से मिलने का अवसर मिले जिस ने अपने साधारण से पद के बावजूद अपनी शख्सियत, अपने व्यवहार, मृदुस्वभाव व इनसानियत के गुणों के चुंबकीय आकर्षण से एक डाक्टर को जीवन भर के लिए अपनी जिंदगी की गांठ से बांध लिया था.

Bigg Boss 16 : शालीन ने खोली टीना की पोल, कहा- मेरे साथ खेल रही थी

बिग बॉस 16 में इऩ दिनों कुछ न कुछ नया होते हुए नजर आ रहा है. वहीं इन दिनों नए पुराने रिश्ते बिगड़ते नजर आ रहे हैं. शो में इन दिनों सबकी नजर शालीन भनोट और टीना दत्ता पर टिकी हुई है. जहां कुछ दिनों पहले तक दोनों एक- दूसरे पर जान छिड़कते थें, वहीं अब दोनों एक-दूसरे के खिलाफ हो गए हैं.

शालीन और टीना का ये अंदाज फैंस को बिल्कुल भी पसंद नहीं आ रहा है. दरअसल, वीकेंड के वार में सलमान खान ने टीना दत्ता को लेकर कई सारे खुलासे किए थें, जिसमें उन्होंने टीना दत्ता की असली सच्चाई के बारे में बताया था.

 

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दरअसल, सलमान खान ने शालीन भनोट की आंखे खोलने की बात कही थी, सलमान का इशारा साफ था कि आप जिस पर आंख बंद करके भरोसा कर रहे हैं वह आपका सगा नहीं है. बीते एपिसोड में सलमा खान प्रियंका से बात कर रहे थें, जिसमें उन्होंने सारी बातें कह दी जिसके बाद से सबके होश उड़ गए.

प्रियंका ने जब शो में शाली से पूछा कि इतना परेशान क्यों हो रहे हो तो शालीन ने कहा कि जिस लड़की को मैंने इस शो से ज्यादा खास समझा वह मेरे साथ ही खेल रही है. इस दौरान प्रियंका शालीन को समझाती नजर आती हैं लेकिन वह समझता नहीं है.

तेजाब : किस्टोफर को खोने का क्या डर था-भाग 2

एक रात मुझे नींद नहीं आ रही थी. क्रिस्टोफर को ले कर मन में उथलपुथल था. घड़ी देखा रात 1 बज रहे थे. मैं आहिस्ता से उठा. दबे पांव क्रिस्टोफर के कमरे में आया. खिङकी से झांका. वह कुछ लिख रही थी. इतनी रात तक वह जग रही थी. यह देख कर मुझे काफी आश्चर्य हुआ. मेरे आने की उसे आहट तक नहीं हुई. मैं ने धीरे से कहा, ‘‘क्रिस्टोफर…’’ उस ने नजरें मेरी तरफ उठाईं. उस समय वह गाउन पहने हुर्ई थी. उस का गुलाबी बदन पुर्णिमा की चांद की तरह खिला हुआ था. जैसे ही उस ने दरवाजे की सिटकनी हटाई मैं तेजी से चल कर कमरे में घुसा. दरवाजा अंदर से बंद कर उसे अपनी बांहों में भर लिया. वह थोड़ी सी असहज हुई फिर सामान्य हो गई.

उस रात हमारे बीच कुछ भी वर्जित नहीं रहा. खुले विचारों की क्रिस्टोफर के लिए संबंध माने नहीं रखते. ऐसा मेरा अनुमान था. मगर मेरे लिए थे. जाहिर है, वह मेरे लिए पत्नी की दरजा रखने लगी थी. सिर्फ 7 फेरों की जरूरत थी या फिर अदालती मुहर. मैं उस पर इस कदर फिदा था कि उस के बगैर जीने की कल्पना भी नहीं कर सकता था.

एक रोज क्रिस्टोफर ने मुझ से नैनीताल चलने के लिए कहा. भला मुझे क्या ऐतराज हो सकता था. घर वाले मेरे तौरतरीकों को ले कर आपत्ति जता रहे थे मगर मैंं उन्हें यह समझाने में सफल हो गया कि पैरिस में कलाकारों की बड़ी कद्र है. उस की मदद से मैं एक ख्यातिलब्ध चित्रकार के रूप में स्थापित हो सकता हूं. उन्होंने हमारी दोस्ती को बेमन से मंजूरी दे दी. 2 दिन नैनीताल में रहने के बाद हम दोनों कौसानी घूमने आए. गांधी आश्रम के चबूतरे पर बैठे हम दोनों पहाड़ों की खूबसूरत वादियों को निहार रहे थे. क्रिस्टोफर को अपनी बांहों से भर कर मैं बेहद रोमांचित महसूस कर रहा था. उन्मुक्त वातावरण पा कर मानो मेरे प्रेम को पर लग गए. कब शाम ढल गई पता ही नहीं चला. हम वापस होटल आ गए. कौफी के चुसकियों के बीच क्रिस्टोफर का मोबाइल बजा. वह बाहर मोबाइल ले जा कर बातें करने लगी. तब तक कौफी ठंडी हो चुकी थी. मैं ने वेटर से दूसरी कौफी लाने को कहा.

‘‘किस का फोन था?’’ मैं ने पूछा.

‘‘मौम का.’’

‘‘क्रिस्टोफर, मैं ने आजतक तुम्हारे परिवार के बारे में कुछ नहीं पूछा. क्या तुम बताओगी कि तुम्हारे मांबाप क्या करते हैं?’’

‘‘फादर मोटर मैकेनिक हैं. मौम एक अस्पताल में नर्स हैं. 5 साल की थी जब मेरे फादर से मेरी मां का तलाक हो गया. यह मेरे सौतेले फादर हैं. मैं अपने फादर को बहुत चाहती थी,’’ कह कर वह उदास हो गई.

‘‘तलाक की वजह?’’

‘‘हमारे यहां जब तब प्यार की कशिश रहती है तभी तक रिश्ते निभाए जाते हैं. तुम लोगों की तरह नहीं कि हर हाल में साथ रहना ही है. पापा, मां से बोर हो गए मां, पापा से. उन का लगाव दूसरी औरत की तरफ हुआ वहीं मौम, फादर के ही एक दोस्त से शादी कर के अलग हो गई.’’

‘‘इसे तुम किस रूप में देखती हो? क्या तुम ने चाहा कि तुम्हारे मांबाप तुम से अलग हों?’’

कुछ सोच कर क्रिस्टोफर बोली, ‘‘शायद नहीं.’’

‘‘शायद क्यों?’’

‘‘शायद इसलिए कि एक बेटी के रूप मैं कभी नहीं चाहूंगी कि मुझे मेरे फादर के प्यार से वंचित रहना पड़े मगर?’’ कह कर वह चुप हो गई.

‘‘बोलो न, तुम चुप क्यों हो गईं?’’ मैं अधीर हो गया.

“प्यार नहीं तो साथ रहने का क्या तुक? आज मुझे अपने पिता की रत्तीभर याद नहीं आती. उम्र के इस पड़ाव पर मैं सोचती हूं कि मेरी जिंदगी है चाहे जैसे जीऊं. उन्होंने भी अपने समय यही सोचा होगा. पर तुम इतना सीरियस क्यों हो?”

‘‘क्रिस्टोफर, मैं तुम से शादी करना चाहता हूं. ताउम्र तुम्हारा साथ चाहिए मुझे,’’ मैं भावुक हो गया.

क्रिस्टोफर हंसने लगी,”मैं भाग कहां रही हूं. इंडिया आतीजाती रहूंगी. अभी तो मेरा प्रोजैक्ट अधूरा है.’’

‘‘यह मेरे सवाल का जवाब नहीं है. तुम्हारे बगैर जी नहीं सकूंगा.’’

‘‘तुम इंडियन शादी के लिए बहुत उतावले होते हो. शादी का मतलब भी जानते हो?’’ क्रिस्टोफर का यह सवाल मुझे बचकाना लगा. अब वह मुझे शादी का मतलब समझाएगी. मेरा मुंह बन गया. मेरा चेहरा देख कर क्रिस्टोफर मुसकरा दी. मैं और चिढ़ गया.

‘‘क्यों अपना मूड खराब करते हो? यहां हम लोग ऐंजौय करने आए हैं. शादी कर के बंधने से क्या मिलने वाला है.’’

‘‘तुम नहीं समझोगी. शादी जिंदगी को व्यवस्थित करती है.’’

‘‘ऐसा तुम सोचते हो मगर मैं नहीं. मेरी तरफ से तुम स्वतंत्र हो.’’

‘‘तुम अच्छी तरह समझती हो कि मैं सिर्फ तुम से शादी करना चाहता हूं.’’

‘‘तब तो तुम को इंतजार करना होगा. जब मुझे लगेगा कि तुम मेरे लिए अच्छे जीवनसाथी साबित होगे तो मैं तुम से शादी कर लूंगी. मैं किसी दबाव में आने वाली नहीं.’’

‘‘मैं तुम्हें खोना नहीं चाहता. क्या तुम मुझ से प्रेम नहीं करतीं?’’

‘‘प्रेम और शादी एक ही चीज है?’’ वह पूछी.

‘‘प्रेम की परिणति क्या है?’’ मैं ने पूछा.

‘‘क्या शादी…’’ कह कर वह हंस पड़ी. सुन कर मुझे अच्छा नहीं लगा. मानो वह मुझ पर व्यंग्य कर रही हो. वह आगे बोली, ‘‘मैं तुम्हें एक अच्छा दोस्त मानती हूं. एक बेहतर इंडियन दोस्त.’’

एनडीटीवी के बिकने के मायने

ट्विटर पर एनडीटीवी के बिक जाने और गुजरात के उद्योगपति गौतम अडानी द्वारा खरीद लिए जाने पर बहुत रोनाधोना चल रहा है. एनडीटीवी उन चैनलों से अलग रहा है जो नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी की पिछले

8 सालों से अंधभक्ति कर रहे हैं. टीवी चैनल कड़वा सच नहीं दिखा रहे, जबकि सफेद ?ाठ को सफेद कपड़े पहना कर परोस रहे हैं और हजार आलोचनाओं के बाद भी टस से मस नहीं हो रहे.

मीडिया पर नियंत्रण आज ही नहीं, हमेशा से धर्म और सत्ता के लिए जरूरी रहा है. कोई राजा अपनी पोल खोले जाने वाले किसी शब्द को बोलने या लिखने नहीं देता था, कोई धर्म अपनी गलतियों को उजागर करने की इजाजत नहीं देता था.

लेकिन जब जनता ने चाहा है उस ने हर तरह की कट्टर और क्रूर सत्ता का विरोध किया है. कई बार सत्ताधारियों ने इसे सम?ा लिया है और समाज को ढील दे दी, कई बार नहीं सम?ा पर अपने को सुधार लिया. ज्यादातर धर्म या राजसत्ता जिन के हाथों में थीं उन्होंने तख्ता पलटने तक कोई छूट नहीं दी और आखिरकार जनता ने ?ाठा सुनने, बारबार सुनने के बाद भी ?ाठ को नकार दिया.

भारत में जो आज हो रहा है वह पिछले कई दशकों तक नहीं हुआ क्योंकि अखबार, आमतौर पर, आजादी से खुल कर सरकार की आलोचना करते रहे थे. धर्म के मामले में जरूर अखबारों ने अंधविश्वासों और धार्मिक लूट को नजरअंदाज किया. पहले जब टीवी आया वह सरकारी ही था. रेडियो भी सरकार ही चलाती थी और दोनों वही कहते थे जो सरकार कहती थी. लोकतंत्र फिर भी फलाफूला. जमीन पर कोई किसी को बोलने से रोक न पाया.

वर्ष 1947 से पहले भी कम ही अखबारों को अंगरेजों के कोप का निशाना बनना पड़ा पर अखबार निकालना बहुत ही कठिन था, सरकार की दखल इतनी थी कि ज्यादा कुछ कहने को न था. वर्ष 1947 के बाद अखबार आजाद हो गए पर आमतौर पर सूचनाएं सरकार से ही मिलती थीं. जवाहरलाल नेहरू ने कभी अखबारों को दुश्मन नहीं सम?ा. इंदिरा गांधी बहुतों से चिढ़ती या डरती थीं और लाइसैंस कोटे का इस्तेमाल करने लगी थीं. अखबारों की पहुंच बहुत नहीं थी पर उन का प्रभाव था. वे आजाद थे पर उन्होंने सरकार के खिलाफ मोरचा खोला हो, ऐसा कभी नहीं लगा.

आज चैनलों और अखबारों की भक्ति का मतलब यह नहीं कि देश में विरोध की आवाज बंद हो गई है. सरकार को आज भी सांसद में, विधानसभाओं में, मंचों पर, सभाओं में विरोध ?ोलना पड़ रहा है, अपनी करतूतों का परदाफाश होते देखना पड़ रहा है. हां, ये बातें सब चैनलों पर नहीं दिखती हैं.

असल में यह जिम्मेदारी आम जनता की है कि वह अपनी जानने की स्वतंत्रता को बरकरार रखे. आमजन सरकार समर्थक टीवी चैनल ही देख रहे हैं. उन्होंने भक्तिभाव में बह कर अपनी जानने की स्वतंत्रता को गिरवी रख दिया और उन्हें एनडीटीवी के बिक जाने से कोई फर्क नहीं पड़ता. जिन्हें फर्क पड़ता है वे एक तो कम हैं और दूसरे वे भी टीवी के अतिरिक्त दूसरे स्रोतों से सच पता कर लेते हैं.

सवाल यह है कि उस जनता को क्या कहें जो सच और ?ाठ के बारे में भेद करना न जानती है न इच्छुक है. जो पैदा होते ही कट्टरपंथी रीतिरिवाजों, सोचविचार, मान्यताओं की फैलती दीवारों में खुद को कैद कर लेती है. स्वतंत्र और निर्भीक पत्रकारिता के विचार उस दीवार की खिड़कियों से जितना पहुंचते हैं वह भी आमजन को मंजूर नहीं. वे इन दीवारों के अंदर पनपती बदबू, बदइंतजामी को जीवनशैली मान लेते हैं. उन्हें फर्क नहीं पड़ता कि मीडिया आजाद है या किसी की गोद में बैठा है क्योंकि वे तो खुद में न आजाद हैं, न हिम्मत रखते हैं कि अपनी बनाई गोद से बाहर निकलें.

शादी के एक साल में ही हमारा रिश्ता खत्म होने को आ गया है, क्या करें?

सवाल 

हमारी लव मैरिज हुई थी लेकिन शादी हुए एक साल भी नहीं हुआ है कि हमारे बीच लड़ाई  शुरू हो गए हैं. समया नहीं पा रहा कि ऐसा क्या हो गया. कितना प्यार करते थे हम दोनों एकदूसरे से, फिर शादी के बाद पता नहीं क्यों रोज कोई न कोई वजह निकल आती है लड़ाई की. मैं अपनी शादी बचा कर रखना चाहता हूं. मैं अभी भी अपनी पत्नी से पहले जैसा ही प्यार करता हूं. आप ही बताइए हम से कहां गलती हो रही है? क्यों बिागड़े हो रहे हैं कि रिश्ता खत्म हो रहा है?

जवाब

बहुत ही अफसोस की बात है कि घरवालों से लड़ झगड़ कर आप दोनों ने लव मैरिज की और आज दोनों आपस में लड़?ागड़ कर उसी मैरिज को खत्म करने पर तुले हो.

माना कि आप अपनी शादी बचाना चाहते हैं लेकिन क्या आप की पत्नी भी ऐसा कुछ सोच रही है. क्या वह भी अपना रिश्ता बचाना चाहती है. आप दोनों ने लव मैरिज की है. एकदूसरे की रुचियों, अच्छाइयों से अच्छी तरह वाकिफ होंगे, तब भी सम?ादारी से काम नहीं ले रहे.

आप दोनों के बीच अंडरस्टैंडिंग कमजोर है. आप दोनों को चाहिए कि शांति से बैठ कर एकदूसरे की बात सम?ाने की कोशिश करें. ?ागड़ा होता भी हो तो भी एकदूसरे से बात करना बंद न करें. यह बहुत ही सामान्य गलती है जिसे अकसर कपल्स करते हैं. इस कंडीशन में रिश्ते में गलतफहमियां और बढ़ती हैं.

अपने पार्टनर को जताएं कि आप दुनिया में सब से ज्यादा उन पर भरोसा करते हैं, प्यार करते हैं, तभी तो सब से लड़?ागड़ कर आप से शादी की है.

कुछ बातों का बोलना जरूरी होता है. दोनों एकदूसरे के लिए वक्त निकालें, साथ बैठें, घूमें, बाते करें, पुराने हसीन पलों को याद करें. जब शादी नहीं हुई थी तब के सपनों को याद करें. अब तो आप दोनों साथ हैं, वे सपने पूरे करने का वक्त आ गया है. उसे लड़?ागड़ कर बरबाद मत कीजिए.

पुरानी बातें, पुराना ?ागड़ा दूर कर नई शुरुआत कीजिए. अपने प्यार का मजाक मत बनाइए बल्कि अच्छा उदाहरण प्रस्तुत कीजिए. लड़ाई?ागड़े में कुछ नहीं रखा. जिंदगी ने आप दोनों को एक किया है तो उस का शुक्रिया अदा कीजिए. खुशीखुशी जिंदगी बिताइए.

आप भी अपनी समस्या भेजें

पता : कंचन, सरिता ई-8, झंडेवाला एस्टेट, नई दिल्ली-55.

समस्या हमें एसएमएस या व्हाट्सऐप के जरिए मैसेज/औडियो भी कर सकते हैं. 08588843415

भारत भूमि युगे युगे: 24 कैरेट के गद्दार

24 कैरेट के गद्दार कांग्रेस के मीडिया प्रमुख बुजुर्ग जयराम रमेश राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के दौरान यों तो संयमित से रहे लेकिन मध्य प्रदेश आ कर ज्योतिरादित्य सिंधिया पर यह कहते फट पड़े कि वे 24 कैरेट के गद्दार हैं. वे शायद सोच रहे होंगे कि काश इस वक्त राज्य में कांग्रेस की सरकार होती तो अपने युवराज का और भव्य स्वागत होता.

भड़ास निकालना जयराम का भी हक है पर वे हड़बड़ाहट में यह भूल गए कि कैरेट कीमती धातुएं नापने की इकाई है. सिंधिया तो लोहा और एल्युमिनियम सरीखे सस्ते निकले, इन्हें नापने की इकाई अभी बनी ही नहीं है. जयराम जैसे तजरबेकारों को कहना तो अब यह चाहिए कि हम बचेखुचे कांग्रेसियों की वफादारी हमेशा 28 कैरेट की रहेगी. धार्मिक पूंजीवादी अरुण कमल, कुमार विश्वास जितने रईस और लोकप्रिय कवि नहीं हैं क्योंकि उन्होंने पैसों के लिए रामकथा बांचने जैसा पाखंड स्वीकार नहीं किया, उलटे, उन की राय में सच यह है कि आजकल जो जितना धार्मिक है वह उतना ही पूंजीवादी है.

पटना के एक आयोजन में कई छोटेबड़े बुद्धिजीवी साहित्यकार इकट्ठे हुए थे जिन की चिंता साहित्य कम खस्ताहाल होता देश ज्यादा दिखी. अरुण कमल कुछ गलत नहीं कह रहे लेकिन दिक्कत की बात उन जैसों को सुनने और पढ़ने वालों का टोटा है. साहित्य का भी सच यही रह गया है कि आप जितनी ज्यादा चाटुकारिता सत्ताधीशों की करेंगे उतनी ही लक्ष्मी आप पर मेहरबान होती जाएगी. इस के लिए आप में भक्ति नाम के तत्त्व का होना जरूरी है.

अगर यह नहीं है तो आप पटना, लखनऊ, जयपुर, भोपाल, अहमदाबाद कहीं भी इकट्ठा हो लें, कहलाएंगे तो वामपंथी ही. रही बात धर्म और पूंजी के रिश्ते की तो यह तो बहुत पुराना धंधा है जिस की बुनियाद में काल्पनिक डर और उन से बचने की कीमत ही है. कर्मचारियों की गैरत वैसे, देश में कहीं नहीं है लेकिन मध्य प्रदेश में सरकारी कर्मचारियों की इज्जत दौ कौड़ी की भी नहीं रह गई है क्योंकि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह हर कभी मंच से उन्हें सस्पैंड कर देते हैं. इस का हक उन्हें है या नहीं, अभी तक इस पर कोई कुछ नहीं बोला है. राजनीति की विकसित होती इस नई शैली से शिवराज जनता को मैसेज दे देते हैं कि असल लापरवाह और बेईमान यही हैं. इस टोटके का जनता पर असर अगले साल इन्हीं दिनों में दिखेगा जब विधानसभा चुनाव शबाब पर होंगे. कुछकुछ कर्मचारियों का कहना यह है कि जनता की नजर में अपनी इमेज चमकाने को हमें बेईमान ठहरा कर सस्पैंड कर देने का यह तरीका गलत है. इस से हमारी मानहानि भी होती है और दहशत भी फैलती है.

हम कर्मचारी हैं, गुलाम नहीं. निलंबन मुकम्मल जांच के बाद होना चाहिए. यह तो राजाओं और नवाबों जैसी बात हुई. अब कौन इन नादानों को सलाह दे कि भइया, कुछ गलत लगता है तो अदालत का रुख करो. तवायफ और पत्रकार एक तवायफ की वजह से पूरा कोठा ही खरीद लिया लेकिन वह तवायफ ही कमर मटकाते निकल गई. एनडीटीवी के पत्रकार रवीश कुमार ने बड़े दार्शनिक से अंदाज में इस्तीफा दिया तो सोशल मीडियावीरों ने उन की तुलना तवायफ से कर डाली जो एक लिहाज से गलत भी नहीं है क्योंकि पत्रकार पैसों के लिए बुद्धि बेचता है और जहां ज्यादा पैसा मिलता है वहां छमछम करने जा पहुंचता है.

कुछ महत्त्वाकांक्षी अपना छोटा कोठा खोल लेते हैं. यह खयाल भी गलतफहमी ही निकला कि अब दर्शक सड़कों पर आते गौतम अडानी हायहाय के नारे लगाएंगे कि हमें स्वस्थ और निष्पक्ष पत्रकारिता चाहिए. देश का पाठक और दर्शक कितना क्रूर या व्यावहारिक है, यह खुशवंत सिंह को याद करते सम झा जा सकता है जिन्हें अब कोई याद भी नहीं करता. रही बात मीडिया संस्थानों की तो वे धन्ना सेठों के ही हैं जिन्हें, बकौल हिंदूवादी, मौसी कहा जा सकता है.

कोई अपना -भाग 3: मधु ने शालीनी से मुंह क्यों मोड़ा

‘ओह, आप,’ मधु का स्वर ठंडा सा था, मानो उसे मुझ से मिलना अच्छा न लगा हो. जब भीतर आई तो उस की सखियों से मुलाकात हुई. उस ने उन से मेरा परिचय कराया, ‘इन से मिलो, ये हैं मेरी रेखा और निशी भाभी, और आप हैं शालिनी भाभी.’

थोड़ी देर बाद 15-20 वर्ष का लड़का मेरे सामने शीतल पेय रख गया. सोफे पर 4-5 सूट बिछाए, वह अपनी सखियों में ही व्यस्त रही. वे तीनों महंगे सूटों और गहनों के बारे में ही बातचीत करती रहीं. मैं एक तरफ अवांछित सी बैठी, चुपचाप अपनी अवहेलना और उन की गपशप सुनती व महसूस करती रही. शीतल पेय के घूंट गले में अटक रहे थे. कितने स्नेह से मैं उस से मिलने गई थी बेगाना सा व्यवहार, आखिर क्यों?

‘अच्छा, मैं चलूं,’ मैं उठ खड़ी हुई तो वहीं बैठेबैठे उस ने हाथ हिला दिया, ‘माफ करना शालिनी भाभी, मैं नीचे तक नहीं आ पाऊंगी.’

‘कोई बात नहीं,’ कहती हुई मैं चली आई थी. मैं मधु के व्यवहार पर हैरान रह गई थी कि कहां इतना अपनापन और कहां इतनी दूरी.

दिनभर बेहद उदास रही. रात को पति से बात की तो उन्होंने बताया, ‘उन्हें बैंक से 2 करोड़ रुपए का कर्ज मिल गया है. नई फैक्टरी का काम जोरों से चल रहा है. भई, मैं तो पहले ही जानता था, उन्हें अपना काम कराना था, इसलिए चापलूसी करते आगेपीछे घूम रहे थे. लेकिन तुम तो उन से भावनात्मक रिश्ता बांध बैठीं.’

‘लेकिन,’ अनायास मैं रो पड़ी, क्योंकि छली जो गई थी, किसी ने मेरे स्नेह को छला था.

‘कई लोग अधिकारी के घर तक में घुस जाते हैं, जबकि काम तो अपनी गति से अपने समय पर ही होता है. कुछ लोग सोचते हैं, अधिकारी से अच्छे संबंध हों तो काम जल्दी होता है और केशव उन्हीं लोगों में से एक है,’ पति ने निष्कर्ष निकाला था.

उस के बाद वे लोग हम से कभी नहीं मिले. मधु का वह दोगला व्यवहार मन में कांटे की तरह चुभता है. कोई ज्यादा झुक कर ‘भाभीजी, भाभीजी’ कहता है तो स्वार्थ की बू आने लगती है. इसी कारण मैं ने उस युवती को टाल दिया. फिर शीतल पेय उन के सामने रख, पंखा तेज कर दिया क्योंकि गरमी बहुत ज्यादा थी. वे दोनों बारबार पसीना पोंछ रहे थे.

चंद क्षणों के बाद उस युवक ने पूछा, ‘‘सुनीलजी कितने बजे तक आ जाते हैं?’’

‘‘कोई निश्चित समय नहीं है. वैसे अच्छा होगा, आप उन से कार्यालय में ही मिलें. ऐसा है कि वे घर पर किसी से मिलना पसंद नहीं करते.’’

‘‘जी, औफिस में उन के पास समय ही कहां होता है.’’

‘‘इस विषय में मैं आप की कोई भी मदद नहीं कर सकती. बेहतर होगा, आप उन से वहीं मिलें,’’ ढकेछिपे शब्दों में ही सही, मैं ने उन्हें फिर वह कहानी दोहराने से रोक दिया जिस की टीस अकसर मेरे मन में उठती रहती थी.

वे दोनों अपना सा मुंह ले कर चले गए. उन के इस तरह उदास हो कर जाने पर मुझे दुख हुआ, परंतु क्या करती? शाम को पति को सब सुनाया तो वे हंस पड़े, ‘‘ऐसा कहने की क्या जरूरत थी, उन की नईनई शादी हुई है. प्रेमविवाह किया है. दोनों के घर वालों ने कुछ नहीं दिया. सो, कर्ज ले कर कोई काम शुरू करना चाहता है. घर चला आया तो हमारा क्या ले गया. तुम प्यार से बात कर लेतीं, तो कौन सा नुकसान हो जाता?’’

‘‘लेकिन काम हो जाने के बाद तो ये मजे से अपना पल्ला झटक लेंगे.’’

‘‘झटक लें, हमारा क्या ले जाएंगे. देखो शालिनी, हम समाज से कट कर तो नहीं रह सकते. मैं बैंक अधिकारी हूं, मुझ से तो वही लोग मिलेंगे, जिन्हें मुझ से काम होगा. अब क्या हम किसी के साथ हंसेंबोलें भी नहीं? कोई आता है या बुलाता है तो इस में कोई खराबी नहीं है. बस, एक सीमारेखा खींचनी चाहिए कि इस के पार नहीं जाना. भावनात्मक नाता बनाने की कोई जरूरत नहीं है. यों मिलो, जैसे हजारों जानने वाले मिलते हैं. इतनी मीठी भी न बनो कि कोई चट कर जाए और इतनी कड़वी भी नहीं कि कोई थूक दे.’’

मेरे पति ने व्यावहारिकता का पाठ पढ़ा दिया, जो मेरी समझ में तो आ गया, मगर भावुकता से भरा मन उसे सहज स्वीकार कर पाया अथवा नहीं, समझ नहीं पाई.

एक शाम एक दंपती हमारे यहां  आए. बातचीत के दौरान पत्नी ने  कहा, ‘‘अब आप कार क्यों नहीं ले लेते.’’

‘‘कभी जरूरत ही महसूस नहीं हुई. जब लगेगा कार होनी चाहिए तब ले लेंगे,’’ मैं ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘फिर भी भाभीजी, भाईसाहब बैंक में उच्चाधिकारी हैं, स्कूटर पर आनाजाना अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘क्यों, हमें तो बुरा नहीं लगता. कृपया आप विषय दल लीजिए. हमारी जिंदगी में दखल न ही दें तो अच्छा है.’’

बच्चे बाहर पढ़ रहे थे, जिस वजह से कमरतोड़ खर्चा बड़ी मुश्किल से हम सह रहे थे. ईमानदार इंसान इन सारे खर्चों के बीच भला कहां कार और अन्य सुविधाओं के विषय में सोच सकता है. उस पर तुर्रा यह कि कोई आ कर यह जता जाए कि अब हमें स्कूटर शोभा नहीं देता, तो भला कैसे सुहा सकता है.

एक बार तो कमाल ही हो गया. हमें किसी के जन्मदिन की पार्टी में जाना पड़ा. मेजबान ने मुझे घर की मालकिन से मिलाया, ‘‘आप सुनीलजी की पत्नी हैं और ये हैं मेरी पत्नी सुलेखा.’’ कीमती जेवरों से लदी आधुनिका मुझे देख ज्यादा प्रसन्न नहीं हुईं. फीकी सी मुसकान से मेरा स्वागत कर अन्य मेहमानों में व्यस्त हो गईं. पति को तो 2-3 लोगों ने बैंक की बातों में उलझा लिया, लेकिन मैं अकेली रह गई. चुपचाप एक तरफ बैठी रही. अचानक हाथ में गिलास थामे एक आदमी ने कहा, ‘‘आप सुनीलजी की पत्नी हैं?’’

‘‘जी हां,’’ मैं ने उत्तर दिया.

‘‘भाभीजी, आप से एक बात करनी थी…जरा सुनीलजी को समझाइए न, पूरे 50 हजार रुपए देने को तैयार हूं. आप कहिए न, मेरा काम हो जाएगा. अरे, ईमानदारी से रोटी ही चलती है, बस? आखिर वे कितना कमा लेते होंगे, यही 14-15 हजार…कितनी बार कहा है, हम से हाथ मिला लें…’’

कुछ भी करा सकता है पैसा

कहते हैं न, पैसे के आगे कोई सगा नहीं. ठीक ऐसे ही आज का समाज बन चुका है. पैसे के लोभ में बच्चे अपने मांबाप को घर से निकालने से ले कर मार डालने तक से परहेज नहीं कर रहे. पत्थरों से ले कर पेड़ों, जानवरों तक पूजने वाले भारत में अपने बुजुर्गों का खयाल नहीं रखा जा रहा है. कभी मांबाप को भगवान मानने वाले भारत के बेटे अब उन्हें बो?ा मानने लगे हैं और उन पर अत्याचार के मामले लगातार बढ़ रहे हैं. आधुनिक होते भारत की बदलती जीवनशैली एक बार तो आंखों में चमक भर देती है किंतु जब हकीकत से सामना होता है तो स्थिति काफी भयावह नजर आती है.

परिवार और समाज में बेहद महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करने वाले बड़ेबुजुर्ग आज उपेक्षित ही नहीं, बल्कि उन की स्थिति काफी दयनीय और बेसहारा भी हो चली है. विकास की दौड़ में आगे निकल चुके बड़े शहरों की हालत वृद्धों के सम्मान और महत्त्व के मामले में काफी खराब है. सांस्कृतिक पतन कहें या महत्त्वाकांक्षा की अंधी दौड़ में मैट्रो शहरों की आबादी अपने बड़ेबुजुर्गों के सम्मान के मामले में नकारात्मक साबित हो रही है. कई लोगों का कहना है कि गांव में उन की स्थिति यहां से अच्छी है. परंतु आएदिन अखबारों में पढ़ने को मिल रहा है कि लड़का मोटरसाइकिल चाहता था, स्मार्ट मोबाइल चाहता था. जब परिवार के बड़ों ने मना किया तो उन पर कातिलाना हमला कर दिया और लड़का भाग गया. कई बार देखने में आया है कि बुजुर्गों के साथ नौकरों से भी बुरा बरताव किया जाता है.

उदारीकृत भारत के नवयुवक बुजुर्गों के साथ अपनी हिंसात्मक और उपेक्षात्मक व्यवहार के लिए जाने जाएंगे. क्या इसे कभी सोचा भी जा सकता था? परिवार के भीतर व्यक्तिगत जीवन और स्वतंत्रता की तलाश को प्रमुखता दी जाने लगी है, जिस के परिणामस्वरूप जिन बच्चों का लालनपोषण अभिभावक बड़े लाड़प्यार से करते हैं, बड़े हो जाने के बाद उन्हीं बच्चों को उन के साथ रहना तक पसंद नहीं आता. यही नहीं, उन्हें तो पसंद नहीं करते परंतु उन की संपत्ति उन्हें चाहिए. भौतिकवाद इस कदर लोगों की मानसिकता पर हावी हो गया है कि अब अपनों का बोध ही समाप्त हो गया है. आर्थिकतौर पर सक्षम होने और आत्मनिर्भर होने के बावजूद वे उन की प्रौपर्टी को हड़पना चाहते हैं क्योंकि बिना मेहनत के वैसे तो उन्हें मिल नहीं सकता. उसे पाने का यही तरीका है. अपनों ने ही लूटा ऐसे वृद्धों की भी कमी नहीं है जो अपने ही बच्चों की धोखाधड़ी का शिकार बने हैं. स्वार्थ और लालच का धंधा आधुनिक मानव अवैध रूप से अपने मातापिता की संपत्ति हथिया कर उन से किनारा करने और उन्हें अपने हाल में छोड़ने से भी नहीं हिचकिचाते. आजकल चाहे अमीर हो गरीब, सभी के साथ ऐसे ही हो रहा है.

जैसे 12 हजार करोड़ रुपए की रेमंड ग्रुप के मालिक विजयपत सिंघानिया पैदल को बेटे ने पैसेपैसे के लिए मुहताज कर दिया. करोड़ों रुपए की फ्लाइट्स की मालकिन आशा साहनी का मुंबई के उन के फ्लैट में ही कंकाल मिला. दोनों ही अपने बच्चों को पढ़ालिखा, योग्य बना कर अपने से ज्यादा कामयाबी की बुलंदी पर देखना चाहते थे. हर मांबाप की यही इच्छा होती है. उन की यह इच्छा पूरी होने के बाद बड़ा आदमी बन जाने के बाद या न बन सकने के कारण मांबाप के मेहनत के पैसे को हड़पने को लालायित रहते हैं क्योंकि वह बिना मेहनत किए ही एकदम से मिल जाता है. उस के लिए वे हिंसा करने में भी नहीं हिचकते? मुंबई में एक आदमी की मां बहुत बीमार हो गई थी. उस ने सोचा, मैं इस से छुटकारा कैसे पाऊं. उस ने आव देखा न ताव मां को छत पर से धक्का दे दिया. बीमार तो थी ही, ऊपर से गिरने पर क्या बचती. यहां बात रमाकांतजी के बारे में भी हो जाए. रमाकांतजी का एक बेटा था.

रमाकांतजी ने एक पौश कालोनी में एक मकान बनाया था. लड़के की शादी हो गई और वे रिटायर हो गए. बेटा एक दिन पापा से बोला, ‘‘पापा, मेरी नौकरी अच्छी नहीं है. मैं बिजनैस करना चाहता हूं.’’ पापा ने कहा, ‘‘कर ले बेटा.’’ ‘‘पापा, उस के लिए तो पैसे चाहिए.’’ ‘‘मेरे पास तो पैसे हैं नहीं. जो कुछ था मकान बना लिया, बच्चों को पढ़ालिखा कर शादीब्याह करने में खर्च हो गए. तुम लोन ले लो.’’ ‘‘लोन तो ले लूं पापा पर कुछ तो गिरवी रखना पड़ेगा. यदि मकान को गिरवी रखता हूं तो मैं रख नहीं सकता क्योंकि यह मेरे नाम से नहीं है. ऐसा करो पापा, यह मेरे नाम से ट्रांसफर करा दो. मैं फिर इस पर लोन ले लूंगा.’’ रमाकांतजी सोचने लगे. उन की पत्नी बोली, ‘‘क्या फर्क पड़ता है. एक ही तो बेटा है. उस को क्या नाराज करना चाहिए?’’ वह जिद करने लगी तो रमाकांतजी ने अपना मकान लड़के के नाम कर दिया. शुरू में कुछ दिन तो ठीक रहा, फिर लड़का कहने लगा, ‘‘बाबूजी, बच्चे बड़े हो रहे हैं, जगह कम पड़ती है. ऐसा करो, आप अपना कमरा खाली कर दो और आप गैरेज में मम्मी के साथ रह लेना.’’ रमाकांतजी को बुरा तो बहुत लगा परंतु मां के अंधपुत्रप्रेम के आगे वे नतमस्तक हो गए.

चलो, यह भी ठीक है परंतु आगे एक ही कमरे में मन न लगने की वजह से खाना खाने के बाद रात को सामने ही बगीचा था, वहां जा कर पतिपत्नी बैठ जाते थे. वहां और भी बुजुर्ग लोग आते थे तो कई बार बात करते समय रात के 10 से 10:30 बज जाते. जब वे वापस आए तो गेट पर ताला लगा मिला. खैर, उन्होंने फोन कर के ताला खुलवा लिया. बाद में लड़का बोला, ‘‘पापा, आप लोग 9:30 बजे तक आ जाओ वरना फिर ताला लग जाएगा.’’ अपना ही मकान, अपना ही घर, सबकुछ दे दिया. गैरेज में उन का रहना भी बेटे को नहीं सुहाया. रमाकांतजी बहुत दुखी हुए. अपने दोस्त से उन्होंने यह बात कही. उन के दोस्त ने सलाह दी कि उस के नाम से किया मकान वापस ले लो. लड़का तो राजी नहीं हुआ. अब बुढ़ापे में केस करना, कोर्ट के चक्कर काटना क्या आसान काम है? जैन परिवार में जैन साहब बिजनैसमैन थे. जब वे और उन की पत्नी छोटी जगह पर थे. जैन साहब की तबीयत खराब हुई तो जैन साहब अपने बेटे के पास जयपुर में दिखाने आए. बेटे ने उन्हें डाक्टर को दिखा दिया और बेटा अपनी पत्नी को साथ ले कर थोड़े दिनों के लिए कहीं बाहर चला गया.

युवाओं की जल्दी अमीर बनने की ख्वाहिश जब बेटा बाहर से आया तो उस ने पापा से पूछा, ‘‘अग्रवाल साहब आए थे तो आप ने दरवाजा क्यों नहीं खोला? वे वापस चले गए. ऐसे क्यों किया?’’ उन्होंने कहा, ‘‘मैं अंदर था, जाप कर रहा था और तुम्हारी मम्मी नहा रही थी. मैं धीरेधीरे चल कर बाहर गया तब तक वे जा चुके थे.’’ जैन साहब सीढि़यों पर खड़े थे. उन का बेटा सीढि़यों पर उन के पीछे था. उस ने बहुत जोर से अपने पापा को धक्का दिया. वे सीढि़यों पर लुढ़कते हुए नीचे गिर गए. उन्होंने जोरजोर से चिल्लाया, ‘‘मार डाला मार डाला.’’ अड़ोसीपड़ोसी भाग कर गए. तब घर पर उन की लड़की भी आई हुई थी. उस ने कहा, ‘‘कुछ नहीं हुआ. पापा को लग गई. मैं अस्पताल ले जा रही हूं.’’ जबकि, उन के घर में बाई काम कर रही थी, उस ने धक्का देते हुए देखा. खैर, वे वापस अपने गांव चले गए.

बेटे ने लोन वगैरह इतना लिया हुआ था कि उस को मकान बेचना पड़ा. कहीं किराए के मकान में रह रहा था. उन के पिताजी की एक तेल की मिल थी. उसे पहले ही किसी को बेच दिया था. अब इस ने अपनी पिता की मृत्यु के बाद कुछ गलत पेपर बनवा लिया और किसी आदमी को बेच दिया. आदमी ने खरीद तो लिया. बाद में पहले खरीदने वाले को पता चला तो उस ने केस कर दिया. अब महाशयजी जेल पहुंच गए. हाथ में पैसा नहीं, कोई जमानत लेने वाला नहीं. बहुत हाथपैर मारे तो जैन समुदाय के लोगों ने मिल कर सहायता की और उस की जमानत हुई. तुरंत करोड़पति बनने के लिए मेहनत न करना, यह ज्यादातर युवाओं की सोच है. इस के लिए उन्हें अपनापराया कोई भी हो, फर्क नहीं पड़ता. वृद्ध होते मातापिता का दर्द ममता के साथ तो बहुत ही बुरा हुआ. लड़का विदेश से आया जब पिता की मृत्यु हुई और मकान को बेच दिया. मां ने कहा ‘‘मैं कहां रहूंगी?’’ ‘‘क्या बात करती हो मम्मी, हमारे साथ. हम साथ ले कर जाएंगे.’’ ममता पढ़ीलिखी थी पर उस की बात पर विश्वास कर लिया. मकान बेच कर रुपयों को लड़के ने अपने नाम करा लिया. मुंबई से उन्हें फ्लाइट पकड़नी थी. मम्मी से बारबार कहता, अभी आप का वीजा बना नहीं है पर आप परेशान मत हो, बन जाएगा. अभी हम मुंबई चल कर दोतीन दिन घूम लेते हैं. तब तक आ जाएगा आप का वीजा. इसी ऊहापोह में ममता उन के साथ मुंबई चली गई? वहां वे लोग एक होटल में ठहरे. बेटा, बहू और बच्चे एक कमरे में थे. मां ममता को अलग कमरा ले कर दिया था. वह अपने कमरे में रह रही थी. खाना खाते समय बुला लेते और कभी कहते, हम बाहर जा रहे हैं शौपिंग के लिए. हम वहीं खा लेंगे. आप का खाना कमरे में ही आ जाएगा. ममता को बुरा भी नहीं लगा. 2 दिन ठीक निकल गए.

तीसरे दिन सुबह उठी तो बेटेबहू का कोई समाचार नहीं आया तो वह उन के कमरे में गई. कमरा बंद था. उन दिनों में मोबाइल भी नहीं होते थे. उस ने होटल के कर्मचारी से पूछा तो उस ने कहा, ‘‘साहब लोग तो चले गए, कमरा खाली कर गए. आप के कमरे के लिए भी 2 दिन का किराया वे दे कर गए हैं. आप 2 दिन रह सकती हैं. फिर जैसा आप चाहें.’’ ममता का सिर चकराने लगा. एक मिनट बाद ही वह बेहोश हो कर नीचे गिर गई. कर्मचारी ने ममता को संभाला. पुलिस को सूचना दी गई. पुलिस ने उसे अस्पताल में भरती कराया. जब थोड़ी ठीक हुई तो पुलिस ने पूछताछ की. ममता ठीक से कुछ भी बता नहीं सकी. उस ने सोचा, पता वगैरह मैं क्यों पूछूं. मैं तो साथ में जा रही हूं. उसे कैसे पता था उस का बेटा उस को धोखा दे रहा है. पुलिस ने पूछा, ‘‘अब आप को कहां जाना है, पता बता दीजिए.’’ ममता को लगा मैं वापस कहां जाऊं, किस के पास जाऊं. भले ही उस के बेटे ने उसे धोखा दिया हो परंतु उस को लगता है मेरे बेटे के बारे में जानने के बाद सभी को अपने बेटों पर से विश्वास उठ जाएगा. सो, कहीं भी, किसी रिश्तेदार के यहां जाना उस ने पसंद नहीं किया. वहीं पर एक अनाथाश्रम में रहने लगी.

उसे गानाबजाना बहुत अच्छी तरह से आता था. अनाथाश्रम के लोग भी बड़े खुश हुए उसे वहां सुपरवाइजर बना दिया. हैल्प एज इंडिया के मुख्य कार्यकारी अधिकारी मैथ्यू ने बताया, ‘‘सताने के मामले में बेटे भी ज्यादा पीछे नहीं, बहू तो है ही. 38 प्रतिशत मामलों में लड़के भी दोषी हैं. चौंकाने वाली बात यह है कि मांबाप को तंग करने में बेटियां भी पीछे नहीं.’’ हैल्प एज इंडिया की सोनाली शर्मा कहती हैं, ‘‘कुछ सचाई बहुत कड़वी है. परिस्थितियां इस कदर बदल रही हैं कि बुजुर्गों की दर्दभरी दास्तान सुन कर कानों को यकीन भी न हो. बुजुर्ग अपने घर के भीतर भी असुरक्षित हैं.’’ मैथ्यू कहते हैं, ‘‘बुजुर्गों के प्रति संवेदनहीनता देश के छोटेबड़े सभी शहरों में दिखाई देती है. यह प्रवृत्ति देश के उत्तरदक्षिण और पूरबपश्चिम हर जगह पाई जा रही है.’’ बुजुर्गों पर अत्याचार के लिहाज से देश के 24 शहरों में तमिलनाडु का मदुरई सब से ऊपर है, जबकि उत्तर प्रदेश का कानपुर का नंबर दूसरा है. बड़े महानगरों में हैदराबाद सूची में पहले स्थान पर है जहां 37.5 फीसदी बुजुर्गों को अपने बच्चों से शिकायत है. मैथ्यू का कहना है कि बड़े शहरों के बुजुर्ग अपना दर्द सार्वजनिक नहीं करना चाहते.

मुंह खोलने पर परेशानी और बढ़ने की आशंका के चलते वे चुप रहना पसंद करते हैं. दूसरे, बदनामी का डर भी बना रहता है. संपत्ति विवाद के चलते भी बुजुर्गों पर अत्याचार हो रहे हैं. युवा चाहते हैं इसी समय तुरंत सबकुछ उन को मिल जाए और वे शानोशौकत से रह सकें. बुजुर्गों को घर में कैद किए जाने या फिर घर से बेदखल किए जाने की खबरें आती रहती हैं. ऐसे ही एक मामले में जोधपुर की अदालत ने पिछले दिनों एक बुजुर्ग महिला को घरेलू हिंसा से बचाने के लिए घर में सीसीटीवी कैमरा लगाने के निर्देश दिए. अभी हाल में ही एक खबर आई थी कि जापान में बुजुर्ग छोटेमोटे अपराध के जरिए अपनी स्वेच्छा से जेलों को आशियाना बना रहे हैं क्योंकि जेल में उन्हें भोजन, कपड़े और चिकित्सा सुविधाएं आदि आसानी से मिलती हैं जो उन्हें घर पर नसीब नहीं होतीं. इसी वजह से अधिकतर बुजुर्ग अपराध कर खुद गिरफ्तार हो कर जेल जा रहे हैं. दरअसल यह सिर्फ जापानी समाज की समस्या नहीं है, बल्कि भारतीय समाज की भी मुख्य समस्या है. 2011 की जनगणना के मुताबिक, देश में इस समय कुल आबादी के 10 फीसदी बुजुर्ग हैं. बुजुर्गों के लिए कानूनी मदद भी दूर की कौड़ी है. अब सवाल यही है कि क्या इस समस्या का समाधान कानूनी तौर पर किया जा सकता है? सोचने की जरूरत हमारे भारतीय समाज में बुजुर्गों का मुद्दा पाश्चात्य देशों से थोड़ा भिन्न है. पाश्चात्य देशों में कानूनी संरक्षण दे कर उन के लिए ओल्ड एज होम्स खोल कर उन के लिए रोजगार मुहैया करा कर उन की तकलीफ को कम किया जाता है. मगर भारत में परिवार की अवधारणा अलग रही है. यहां पर रिश्ते भावनाओं से चलते हैं, सम?ाते से नहीं. इसीलिए बुजुर्गों की समस्या के समाधान का सब से बेहतर तरीका हमारी संवेदनशीलता और रिश्तों की सम?ा है. युवाओं में हिंसा की प्रवृत्ति इतनी ज्यादा बढ़ गई है कि टीचर ने कुछ कहा तो भी उसे मार दिया जाए.

अभी थोड़े दिनों पहले भी हम ने देखा था एक बच्चे को बड़ी क्लास के बच्चे ने मार डाला ताकि छुट्टी हो जाए, एग्जाम न देना पड़े. एक दूसरा किस्सा एक बहुत बड़े बिजनैसमैन का है जिन के घर में बड़ा पूजापाठ होता था. दानपुण्य भी बहुत करते थे. उन के 3 बच्चे थे, एक लड़का 2 लड़कियां. बड़े लाड़प्यार से पाला था. पैसे की कोई कमी तो थी नहीं. बच्चे अनापशनाप खर्च करते थे. तीनों बच्चे जिम जाते थे. वहां से आते समय काफी देर से आने लगे. सो, उन के पापा ने पूछा, क्यों देर से आते हो तो वे बोले उन को जिम मास्टर छोड़ता नहीं है. उन का जवाब सुन कर उन के पापा ने जिम जा कर कहा कि बच्चों को समय पर छोड़ दिया करो. एक दिन अचानक उन के यहां पर बड़ा शोरगुल हुआ तो पड़ोसी भाग गए. उन्होंने देखा, बच्चों ने मांबाप पर हमला कर दिया. कुल्हाड़ी से पापा के सिर में मारा और मम्मी के बालों को कैंची से काट दिया और कैंची से वार कर दिया? जब पड़ोसी गए तो लड़कियां कहने लगीं कि हमारी मां का संबंध घर के नौकर से है, इसीलिए हम ने मारा. जबकि पड़ोसी ने देखा कि अलमारी की चाबी लड़की मांग रही थी. मां उस को नहीं दे रही थी, छीना?ापटी हो रही थी. लोगों ने बताया, लड़कियां नशा करती हैं. शायद जिम वाले ने उन्हें पहले नशे से अवगत कराया था. जब वे यूज टू हो गईं तो उन्हें पैसों की जरूरत पड़ी.

मांबाप के मना करने पर उन्होंने मांबाप पर ही हमला कर दिया. फिर तीनों बच्चे मिल कर गाड़ी ले कर भाग गए परंतु पैसे वाले पहुंच वाले थे. सबकुछ पैसे खिला कर ठीकठाक कर लिया. हमारे समाज में युवाओं को क्या हो गया है? उन में सहनशीलता नाम की चीज नहीं है. युवाओं में और बच्चों में जो तुरंत पैसे वाले यानी अमीर बनने की लालसा और देखादेखी दूसरों की भी नकल करने की प्रवृत्ति है वह दूर होनी चाहिए. समाज को हम ही सुधार सकते हैं. इस के लिए हमें ही सोचना होगा. दूसरा आ कर करेगा, कोई कृष्ण जन्म लेगा, राम जन्म लेगा या सरकार करेगी, कानून करेगा, ऐसा बिल्कुल संभव नहीं. जो कुछ करना है हमें ही समाज को सुधारने के लिए करना पड़ेगा.

जीएम फसल और तकनीक

राष्ट्रीय पादप जैव प्रौद्योगिकी संस्थान, नई दिल्ली भा डीएनए क्या है? डीएनए एक जैव यौगिक है, जो किसी भी जीव में आनुवांशिक सूचना को समाहित रखता है. मातापिता से संतति में जाने वाले आनुवांशिक गुणों जैसे आकार, प्रकार, रंग इत्यादि से संबंधित सूचना का भी निर्धारण करता है. जैव प्रौद्योगिकी क्या है? जैव प्रौद्योगिकी एक तकनीक है, जिस में किसी भी जीव का उपयोग किसी विशेष उपयोग के लिए या उत्पाद को बनाने या विधि को रूपांतरित करने के लिए किया जाता है.

ट्रांसजेनिक तकनीक क्या है? ट्रांसजेनिक तकनीक आधुनिक जैव प्रौद्योगिकी का एक उदाहरण है, जिस के अंतर्गत किसी भी जीव के जीन को दूसरे किसी जीव में स्थानांतरित कर के किसी वांछित गुण को प्राप्त किया जाता है. जैसे किसी पौधे को किसी विनाशकारी कीट के प्रति प्रतिरोधी बनाने के लिए जीन का स्थानांतरण करना. जीएम फसल किसे कहते हैं? ट्रांसजेनिक फसल वह फसल है, जिन के जीनों के समूह में किसी दूसरी प्रजाति के जीन या जीनों को स्थानांतरित कर के सम्मलित किया जाता है. इस तकनीक के अंतर्गत जीन को किसी असंबंधित पौधे या पूर्ण रूप से भिन्न प्रजाति से भी लिया जा सकता है. किन हालात में जीएम फसल बनाए जाते हैं?

किसी भी फसल को अपने जीवनकाल में बहुत सारे जैव और अजैव तनाव (स्ट्रैस) से गुजरना पड़ता है, जिन से पूर्ण रूप से लड़ने के लिए इन फसलों या इन से संबंधित प्रजातियों में कभीकभी वांछित गुण नहीं पाए जाते हैं, जो कृषि पैदावार के दृष्टिकोण से काफी नुकसानदायक होते हैं. यदि यह जानकारी हो कि यह वांछित गुण किसी दूसरे जीव में पाए जाते हैं, तो ऐसी परिस्थिति में उस वांछित गुण से संबंधित जीन को उस पौधे में स्थानांतरित किया जाता है या किया जा सकता है. चूंकि फसलों में प्रजनन सिर्फ उसी प्रजाति में ही संभव है, ऐसे गुणों को सिर्फ इसी तकनीक से ही शामिल किया जा सकता है.

बीटी कपास इस का एक उदाहरण है. जीएम फसल की क्या जरूरत है? जैसा कि यह पहले साफ किया जा चुका है कि ट्रांसजेनिक तकनीक का उपयोग वैज्ञानिक फसलों के गुणों को और विकसित करने के लिए करते हैं. यह तकनीक परंपरागत तरीकों से गुणों का संततियों में स्थानांतरण की निर्भरता को दूर करता है. क्या होगा जब हम या हमारे पशु जीएम फसलों का उपयोग खाने में करेंगे? अभी तक हमारे बीच ऐसा कोई भी वैज्ञानिक तथ्य सामने नहीं आया है, जो यह प्रमाणित करता हो कि ट्रांसजेनिक फसलों के डीएनए से मनुष्यों/पशुओं के स्वास्थ्य पर कोई प्रतिकूल असर होता हो. वैसे भी डीएनए हमारे हर तरह के खाद्य पदार्थों (शाकाहारी और मांसाहारी) में मौजूद होता है, जिस का हम प्रतिदिन उपयोग करते हैं. ये डीएनए चाहे ट्रांसजेनिक फसलों या गैरट्रांसजेनिक फसलों से हमारे भोजन में आते हों,

पाचन के दौरान छोटेछोटे जैव यौगिकों में बदल जाते हैं या उत्सर्जित हो कर हमारे शरीर से बाहर चले जाते हैं. जीएम फसलों की खेती से मिट्टी या आसपास के वातावरण पर क्या असर पड़ेगा? ऐसी फसलों की खेती पूरे परीक्षण के बाद ही की जाती है. वैज्ञानिक परीक्षणों ने यह साबित किया है कि इस तकनीक के कारण वातावरण, मिट्टी और जैव विविधता पर इस का कोई बुरा असर नहीं पड़ता. भारत में किसानों द्वारा कौन सी जीएम फसलों की खेती की जा रही है? भारत में पड़े पैमाने पर ट्रांसजेनिक कपास (बीटी कपास) की खेती की जा रही है. यह बीटी कपास बौल्वर्म कीटों से प्रतिरोधित है. भारत में कपास की खेती में उपयोग होने वाले खेतों का 95 फीसदी हिस्सा बीटी कपास की खेती में प्रयोग हो रहा है. बीटी कपास क्या है? वैसे, बीटी कपास ट्रांसजेनिक फसल है (आनुवांशिक रूप से संशोधित कपास), जिस में एक विशेष गुण ट्रांसजेनिक तकनीक के द्वारा शामिल किया गया है.

इस के फलस्वरूप यह एक कीटनाशक प्रोटीन का उत्पादन करने लगता है. कीटनाशक प्रोटीन उत्पन्न करने वाला जीन, मिट्टी में पाए जाने वाले एक जीवाणु (बैसिलस थूरींजिएन्सिस) से प्राप्त किया गया है. बीटी जीन कैसे काम करता है? बीटी जीन क्राई नामक प्रोटीन का कोडन करता है, जो कीटपतंगों के लिए विषैला होता है. जब इस प्रोटीन को कीटपतंग खाते हैं, तब यह प्रोटीन उन के मध्य आंत में मौजूद क्षारीय माध्यम में सक्रिय विष प्रोटीन के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं. सक्रिय विष प्रोटीन में बदलने के बाद ही यह ब्रश बार्डर कोशिकाओं में उपस्थित ग्राही (रेसेप्टर) प्रोटीन से स्वीकृत किए जाते हैं. नतीजतन, ऐसी कोशिकाओं में छेद हो जाते हैं और जिन से हो कर जल और आयन प्रवेश करने लगते हैं. अंतत: कोशिकाएं एवं कीट मर जाते हैं. बीटी कपास की खेती से किसानों को क्या लाभ मिला है?

वर्ष 2002-2016 के बीच भारत में किसानों ने बीटी कपास की खेती कर के अपनी आय को तकरीबन 21.1 बिलियन अमेरिकी डालर तक पहुंचा दिया है, जिस से तकरीबन 7.5 मिलियन किसानों और उन के परिवारों को लाभ मिला है. बिक्री से पहले जीएम फसलों का कौनकौन सा परीक्षण किया जाता है? भारत में जीईएसी सर्वोच्य संस्था है, जो जीएम फसलों के व्यावसायिक उपयोग की अनुमति प्रदान करती है. यह अनुमति विभिन्न बायोसेफ्टी परीक्षण जैसे प्रयोगशाला, नैटहाउस, सीमित फील्ड वगैरह के बाद ही दी जाती है. एक बार जब यह वातावरण, मनुष्यों और जानवरों के उपयोग के लिए सुरक्षित पाया जाता है, तब ही खेती के लिए अनुमति दी जाती है.

भविष्य में जीएम फसलों से क्याक्या अपेक्षाएं हैं? ट्रांसजेनिक तकनीक में बहुत सी संभावनाएं हैं, जो उच्य पैदावार वाली, साथ ही साथ अत्यधिक पोषक तत्त्वों वाली किस्में विकसित कर सकती हैं. अनुसंधान ये बताते हैं कि इस तकनीक से हम लवण, सूखा, उष्मा प्रतिरोधी किस्में बना सकते हैं. इस के अतिरिक्त हम ऐसे पौधे विकसित कर सकते हैं, जो व्यावसायिक यौगिक जैसे औद्योगिक तेल, प्लास्टिक, दवा, रोग संबंधित टीका का उत्पादन कर सकते हैं. आधुनिक समय में पादप प्रजनन में कौनकौन सी नई पद्धतियों की खोज हुई है? अभी हाल के वर्षों में कुछ नई तकनीकों जैसे क्रिस्पर (क्लस्टर्ड रेगुलरली इंटरस्पेस्ड शार्ट पैलिंड्रोमिक रेपिट्स), टैलेंस (ट्रांसक्रिप्शन एक्टीवेटर लाइक इफैक्टर न्यूक्लेयज), मैगान्यूक्लेयज की खोज हुई है, जो अत्यधिक सटीक तकनीक है. इन तकनीकों का उपयोग फसलों के गुणों में बेहतर सुधार के लिए किया जा रहा है. संस्था की इस वैबसाइट 222.ठ्ठद्बश्चड्ढ.द्बष्ड्डह्म्.द्दश1.द्बठ्ठ पर भी जानकारी ली जा सकती है.

राशिफल का चक्कर : निर्मला चाची ने क्या तर्क प्रस्तुत किया

आशु तोषी और सुधीर से कह रही थी, ‘‘मैं ने पिछले सप्ताह अपने राशिफल में पढ़ा था कि किसी नजदीकी रिश्तेदार से अचानक भेंट होगी और उसी शाम को मामाजी आ गए.’’ तभी रोमा और अलका ने प्रवेश किया और वे भी उन की बातचीत में शामिल हो गईं. सुधीर बोला, ‘‘ऐसा एक बार मेरे साथ भी हुआ था. मेरे राशिफल में लिखा था कि कोई अच्छा समाचार मिलने की संभावना है और उसी दिन मेरे बड़े भैया की नौकरी का बुलावा आ गया. मुझे लगता है कि राशिफल में कुछ तो सचाई होती ही है.’’

अलका ने कहा, ‘‘आशु भैया, मामाजी को तो आना ही था. उन्होंने अपने पत्र में लिखा था कि वे अगले महीने आ रहे हैं. सुधीर, तुम्हारी बात भी तर्कयुक्त नहीं है. राशिफल तुम ने अपना देखा और नियुक्तिपत्र तुम्हारे बड़े भाई का आया.’’

रोमा, जो अभी तक सिर्फ सुन रही थी. बोली, ‘‘यह तो संयोगवश भी हो सकता है कि किसी दिन का राशिफल उस दिन की घटना से मेल खा जाए, तब हम उसे याद रख लेते हैं, लेकिन 10 में से 8 दिन की जो बातें गलत निकलती हैं, उन्हें हम भुला देते हैं.’’ तोषी ने आशु का पक्ष लेते हुए कहा, ‘‘मेरा तो राशिफल में बहुत विश्वास है. मैं तो हर दिन राशिफल अवश्य देखता हूं. यह कई बार सही भी निकलता है.’’

अभी उन की बातें चल ही रही थीं कि निर्मला चाची आ गईं. अलका ने उन से पूछा, ‘‘चाचीजी, राशिफल के बारे में आप की क्या राय है?’’ ‘‘मैं राशिफल नहीं देखती. एक दिन सभी अपनाअपना राशिफल देख रहे थे. मुझ से भी रमा ने मेरी राशि पूछी और मेरा राशिफल सुनाया कि आप को आज अचानक धन लाभ होने की संभावना है. कहीं से अच्छे समाचार भी मिल सकते हैं. स्वास्थ्य भी ठीक रहेगा,’’ निर्मला चाची ने कहा.

‘‘चाची, फिर क्या सभी बातें सही निकलीं?’’ रोमा ने पूछा.

निर्मला चाची हंसते हुए बोलीं, ‘‘मैं वही तो बता रही हूं. पूरी बात सुनने के बाद राशिफल का चक्कर समझ में आ जाएगा. तुम तो जानती ही हो कि तुम्हारे चाचाजी 10 बजे दफ्तर जाते हैं और 4 बजे लौटते हैं. मैं दोपहर 12 बजे स्कूल जाती हूं और 5 बजे तक लौटती हूं. उस दिन काम की अधिकता के कारण मैं बहुत व्यस्त रही और जल्दीजल्दी काम निबटा कर स्कूल चली गई.

‘‘स्कूल में भी राशिफल की बातें याद आईं तो मैं सोचने लगी कि धनलाभ कहां से हो सकता है? इस की तो कोई संभावना दिखाई नहीं दे रही थी. सोचा, हो सकता है कहीं से कोई अच्छा समाचार मिल जाए. हलकी सी ठंड थी. मैं जल्दी में शौल लाना भूल गई थी. करीब साढ़े 3 बजे बारिश होने लगी जो शाम साढ़े 5 बजे तक नहीं रुकी. ‘‘मैं हलकी बारिश में ही घर पहुंची. तुम्हारे चाचाजी के लौटने में भी किसी मीटिंग के कारण विलंब हो गया था. वह भी मेरे साथ ही ऊपर आए. मैं ने कमरा खोला. वहां बड़ा अजीब दृश्य था. मेरा माथा ठनका. कमरे में कई जगह गंदगी पड़ी थी और 1-2 जगह उलटी भी थी. अंदर वाले कमरे में दूध, दही और घी फैला हुआ था. कुछ फल और बिस्कुट भी बिखरे पड़े थे. फ्रिज का दरवाजा खुला पड़ा था.

‘‘चाचाजी कहने लगे कि मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि यह सब कैसे हुआ. कमरे का ताला तो बंद था.

‘‘मैं जल्दीजल्दी बालटी में पानी भरने लगी. इतने में एक बिल्ली अलमारी के नीचे से निकल कर भागी. अब हम दोनों पूरी बात समझ गए. मैं दोपहर में फ्रिज का दरवाजा ठीक से बंद करना भूल गई थी. बाहर ताला लगाते समय मुझे यह ध्यान ही नहीं रहा कि अंदर बिल्ली बंद हो गई है. नतीजा सामने था. उस ने जो कुछ भी खाया था, सब बाहर निकाल दिया. दूध, दही, घी आदि का जो नुकसान हुआ, उस की कीमत लगभग 200 रुपए थी. गंदगी साफ करने में मुझे काफी परेशानी हुई. ‘‘तभी मेरे मोबाइल की घंटी बजी मेरे देवर का फोन था वह बोला कि मंजू की तबीयत बहुत खराब हो गई है. आप शीघ्र जयपुर आ जाएं. मैं अकेला उसे संभालूं या बच्चों को? ‘‘यह खबर सुनते ही हम चिंतित हो गए. स्कूल से आते समय मैं कुछ भीग गई थी और ठंड के कारण मुझे बुखार भी हो गया था.

अगले दिन तबीयत ठीक न होते हुए भी मुझे जयपुर जाना पड़ा. अब तुम्हीं फैसला कर लो कि राशिफल कैसा रहा? अचानक धन प्राप्ति के स्थान पर मुझे लगभग 200 रुपए का नुकसान हुआ. अच्छा समाचार मिलने के बदले देवरानी की तबीयत खराब होने की खबर आई और स्वास्थ्य ठीक होने की जगह मुझे बुखार हो गया.’’

सभी लड़केलड़कियां समझ गए थे कि राशिफल का चक्कर बेकार होता है. इस के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए.

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