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पत्थर- भाग 3 : अंतरिक्षीय अध्ययन केंद्र में क्या देखा था भाग्यजननी ने

भाग्यजननी ने हकलाते हुए कहा, “वह… सर… लाल लकीर वाला केस दिख रहा है स्क्रीन पर …”

सतेंद्र थोड़ा सहमा, फिर पूछा, “आगे का उस का वक्र कैलकुलेट करो. शायद आगे चल कर धरती से मिस हो रहा हो.”

भाग्यजननी ने निराश हो कर कहा, “कर लिया सर. ‘अखअ’ के टकराव विश्लेषक सौफ्टवेयर को भी जौब सबमिट किया था. उस का भी नतीजा मेरे सामने है. मेरे हाथ से किए कैलकुलेशन भी पन्नों पर हैं. कोई शक की गुंजाइश नहीं है.”

अपने जीवन में पहली बार सतेंद्र को ये शब्द सुनने को मिले थे. उसे नहीं लगा था कि अपने जीवनकाल में तो क्या, आने वाले किसी भी केंद्र के डायरैक्टरों के जीवनकालों में किसी को भी ये शब्द सुनने को मिलेंगे.

सतेंद्र ने व्याकुल होते हुए कहा, “ऐसा कैसे हो सकता है? अगर ऐसा होता तो नासा वालों की ओर से कोई सूचना न आ चुकी होती?”

भाग्यजननी ने कहा, “सर, बस अभीअभी लाल होना शुरू हुआ है. जैसे ही शुरू हुआ, वैसे ही मेरी नजर उस पर पड़ गई. हो सकता है कि वे लोग भी बस अभीअभी ही इसे देख रहे हों और कैलकुलेशन डबल चैक कर रहे हों.”

सतेंद्र ने रुक कर कहा, “नासा के सौमंप अनुसंधान केंद्र से हमारी सीधी हौटलाइन है. उस पर इंतजार करो. मैं धरोहरी को मैसेज कर देता हूं कि हौटलाइन चैंबर की चाबी तुम को दे दे.”

सतेंद्र ने मैसेज तो कर दिया, पर उसे नींद नहीं आई. उस के दिमाग में भाग्यजननी के शब्द घूमते रहे. लेकिन अपनी अमेरिकी पार्टनरशिप पर उसे पूरा भरोसा था. ऐसे अहम केस में वे जरूर पूरी दुनिया के सौमंप अनुसंधान केंद्रों को इत्तला कर देंगे. अपने देश की सरकार को भी उन्हें इस बात की जानकारी देनी होगी, जहां से यह जानकारी भारत देश की सरकार को उपलब्ध हो जाएगी.

सतेंद्र दुविधा में पड़ा यह सोचता रहा कि क्या दिल्ली तक उसे यह सूचना भिजवा देनी चाहिए या फिर एक प्रैस रिलीज अपने केंद्र की ओर से जारी करवानी चाहिए?

बहरलाल, जब तक विक्रम लैब पहुंच कर अपनी आंखों से इस बात की पुष्टि नहीं कर ली जाए, तब तक कुछ नहीं करना चाहिए. यही सोचतेसोचते उस की आंख लग गई.

चिंताजनक है जजों की कमी

भारतीय न्याय रिपोर्ट के अनुसार तीसरी बार भीकर्नाटक, तमिलनाडु और तेलंगाना ने न्याय देने मेंटौप 3 रैंक हासिल की है. इसके अलावा गुजरात और आंध्र प्रदेश को क्रमशः चौथा और पांचवा स्थान दिया गया है. न्याय के मामले में सबसे बुरा प्रदर्शन करने वाले राज्यों में उत्तर प्रदेश टौप पर है. रिपोर्ट में यूपी को 18 बड़े और ज्यादा जनसंख्या वाले राज्यों में सबसे खराब प्रदर्शन वाला राज्य बताया गया है.

कम आबादी वाले राज्यों में सिक्किम न्याय प्रदान करने के मामले में सबसे ऊपर है. 1 करोड़ से कम आबादी वाले राज्यों में सिक्किम के बाद 2नौर्थ-ईस्ट राज्यों अरुणाचल प्रदेश और त्रिपुरा का नाम भी शामिल है. गोवा इस लिस्ट में सातवें नंबर पर है.

 पहल करना जरुरी

इस बारे में इंडिया जस्टिस रिपोर्ट के एडिटर माजा दारूवाला कहती है कि ये जस्टिस रिपोर्ट पिछले 3 साल से किया जा रहा है, इसमें मेरी टीम अलग – अलग राज्यों में जाती है और वहां के इंटेलेक्चुअल और ब्यूरोक्रेट्स से बात कर निरिक्षण करती है, जिसमे बातचीत से काफी बातें सामने आती है. कनार्टक के चीफ सेक्रेट्री ने बुलाकर बात की रिपोर्ट के आंकड़े देखे, तो उन्होंने मीटिंग बुलाई और लोगों की समस्याओं पर  चर्चा की और उसमें सुधार करने के बारें में सोचा है. फैले हुए आकड़ों को समेटने के बाद, इजी फोर्मेट में आने पर इसे समझना आसान हो जाता है और इसपर काम करने के अलावा एक बातचीत शुरू हो जाती है.

कर्नाटक में जस्टिस का आकड़ा सबसे अच्छा दिखने की वजह के बारे में पूछने पर माजा बताती है कि परफैक्ट वजह बताना संभव नहीं. एक वजह यह भी हो सकता है कि चुनाव आ रहे हैं, तो राज्य सरकार कुछ जल्दी सुधार कर लोगों का विश्वास पाना चाह रही हो, लेकिन ये सही है कि उन्होंने इस दिशा में काम करने का प्रयास किया है, जिसका परिणाम सामने दिख रहा है.

 चौकाने वाले आंकड़े

भारत में लंबित मामलों के चौंकाने वाले आंकड़े सामने आए हैं. इंडिया जस्टिस की रिपोर्ट में बताया गया है कि कैसे देश में तेजी से कैदियों की संख्या बढ़ती जा रही है. इसके साथ ही इंडिया जस्टिस ने भारत की न्यायपालिका को लेकर भी आंकड़े जारी किए हैं, जिनमें बताया गया है कि देश की तमाम अदालतों में जजों की भारी कमी है. रिपोर्ट में ये भी बताया गया है कि देश के किन राज्यों में जस्टिस सिस्टम ने सबसे बेहतरीन काम किया है और कहां न्याय मिलने या मामलों के फैसलों में देरी हो रही है.

रिपोर्ट में ये भी बताया गया है कि हर एक जज पर लंबित मामलों का कितना भार है. जजों की कमी के चलते ये भार काफी ज्यादा बढ़ गया है. दिसंबर 2022 तक, देश में 10 लाख लोगों पर 19 जज थे और करीब 4.8 करोड़ मामलों का बैकलौग था. जबकि ला कमीशन औफ इंडिया की तरफ से 1987 में ही सुझाव दिया गया था कि एक दशक में प्रत्येक 10 लाख लोगों के लिए 50 जज होने चाहिए. देश में कई राज्य ऐसे हैं जहां एक जज पर 15 हजार से ज्यादा मामले लंबित हैं.

अलगअलग राज्यों के हाईकोर्ट के आंकड़े देखने पर पता चलता है कि पिछले कई सालों के मामले अब तक लंबित पड़े हैं. इसमें यूपी सबसे ऊपर है. यहां औसतन 11.34 सालों के केस भी अब तक लंबित हैं. वहीं इसके बाद पश्चिम बंगाल का नंबर आता है, जहां 9.9 साल औसत पेंडिंग मामलेहैं. इस मामले में सबसे अच्छा प्रदर्शन त्रिपुरा का है, जहां औसत पेंडिंगमामले करीब एक साल है. इसके बाद सिक्किम (1.9 साल) और मेघालय (2.1 साल) लिस्ट में हैं.

11 राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों की जिला अदालतों में प्रत्येक 4 में से एक मामले 5 साल से अधिक समय से लंबित हैं. देश में ऐसे मामलों की सबसे ज्यादा हिस्सेदारी अंडमान और निकोबार द्वीप समूह (53 प्रतिशत)और सिक्किम में सबसे कम (0.8 प्रतिशत) है. बड़े और ज्यादा जनसंख्या वाले राज्यों में पश्चिम बंगाल में ऐसे मामले 48.4 प्रतिशत और बिहार में 47.7 प्रतिशत हैं.

 सरकारी क्षेत्रों में महिलाओं के भर्ती की कमी                                                        

प्रोजेक्ट लीड वलय सिंह कहते हैं,“जब मैंने साल 2019 में पहली रिपोर्ट शेयर की थी, तो कर्नाटक के हाई कोर्ट में 47 परसेंट बहुत वेकेंसियां थी,जिस में उन्होंने भर्तियांबढ़ाई है, हाई कोर्ट की वेकेंसियां आधी कर दी. जेल के बजट को भी कम किया गया. सेशंस में सीसी टीवी कैमरे लगाए गए. पिछले सालों की तुलना करेंतो सभी राज्यों में कुछ न कुछ सुधार अवश्य हुआ है, कोशिश सभी कर रहेहैंलेकिन बहुत धीमा काम होने पर जरुरत के हिसाब से कमीबढ़ती जाती है.

कारागारों की व्यवस्थाखराब होता जा रहा है, औरतों का आरक्षण बहुत धीरेधीरे सुधर रहा है. औरते हैं, काम नहीं तो बेरोजगारहैं. वे काम करने के लिए तैयार भी है. देखा जाए तो आईटी सैक्टर में महिलाएं सबसे अधिक काम करती हैं,जबकि सरकारी निचली अदालतों में महिलाओं का राष्ट्रीय औसत 35 प्रतिशत है, बाकी सब जगह ये 20, 15 और 10 के नीचे है.

लोअर ज्युडिशियरी में 33 प्रतिशत या 35 प्रतिशत या कई राज्यों में उससे भी अधिक महिलाएं जज बन रही हैं, लेकिन आईटी सैक्टर से तुलना करने पर पता चलता है कि महिलाएं और अधिक काम सरकारी क्षेत्र में कर सकती हैं. महिला पुलिस औफिसर का प्रतिशत 5 है.माजा दारूवाला कहती हैं,“पुलिस का 90 प्रतिशत काम किसी आतंकी या गैंग को पकड़ना नहीं होता. पुलिस का काम प्रसाशनिक, दिमाग और डेस्क वाला होता है. इसे कोई भी महिला कर सकती है.”

 100 फीसदी तक नहीं केस क्लीयरेंस रेट

राज्यों के केस क्लीयरेंस रेट की बात करेंतो हाईकोर्ट्स में 2018-19 से 2022 के बीच राष्ट्रीय औसत में 6 प्रतिशत (88.5 प्रति प्रतिशत से 94.6 प्रतिशत) की बढ़ोतरी हुई हैलेकिन निचली अदालतों में 3.6 (93 प्रतिशत से 89.4 प्रतिशत) की गिरावट आई है. 2018 से 2022 के बीच त्रिपुरा ही इकलौता राज्य है जहां जिला अदालतों में केस क्लीयरेंस रेट 100 प्रतिशत से ऊपर रहा. हालांकि 2020 में कोरोनाकाल के दौरान त्रिपुरा में भी केस क्लीयरेंस रेट 40 प्रतिशत तक पहुंच गया था.

 सही आंकड़ों का मिलना होता है मुश्किल

समस्या क्या होती है? मेरी टीम अच्छी है और मेरे पार्टनर ने सहयोग दिया है. ये समस्या आकड़ों की है, केवल सरकारी रिपोर्ट को देखते हैं. नेशनल, राज्य, पार्लियामेंट, बजट, असेम्बली को देखते हुए काम करते हैं,जो नहीं मिलता है. उसे राईट टू इनफौर्मेशन में एप्लीकेशन डालडालकर देता निकलना पड़ता है. डेटा कई बार मुश्किल से देते हैं या फिर उस मेंखामिया होती हैं, जब इसे रिपोर्ट बनाते हैं, लोग आलोचना करते हैं और कहते हैं कि ये गलत रिपोर्ट है, लेकिन ये एक आइना है, क्रिटिक नहीं. इसमें बाधा होने पर दिखेगा. इसके अलावा इसमें हार्ड वर्क और पैशन होना जरुरी होता है. इसे देश के लिए ही किया जा रहा है. माजा दारूवाला आगे कहती हैं,“भारत ने यह वादा किया है कि 2030 तक वह प्रत्येक व्यक्ति की न्याय तक पहुंच सुनिश्चित करेगा और सभी स्तरों पर प्रभावी, जवाबदेह और समावेशी संस्थानों का निर्माण करेगा, लेकिन इस साल आईजेआर के द्वारा प्रस्तुत आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि अभी भी हमें लंबा सफर तय करना है.

“मेरा फिर से आग्रह है कि हम सब के लिए किफायती, कुशल, और सुलभ न्याय सेवाओं को भोजन, शिक्षा या स्वास्थ्य की तरह ही आवश्यक माना जाए. इसके लिए इसमें और अधिक संसाधनों को लगाने की, बहुत अधिक कैपेसिटी बिल्डिंग की लंबे समय से चली आ रही खामियों को दूर करने पर अधिक ध्यान देने की जरूरत है.”

मीडिया को ध्यान देने की है जरुरत

मीडिया मेंविश्वसनीयता की कमी,कितना नुकसान दायक है? माजा कहती है,“ये सही है आज की मीडिया में लोगों को कुछ सही खबर देने की जो परमंपरा पहले थी, वह अब खत्म हो गई है. ऐसे में डेटा को लेकर कुछ लिखने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. यही वजह है कि लोग हमें रिपोर्ट के द्वारा ओपिनियन देने की बात कहते हैं. राय तो है,लेकिन उससे क्या बदलाव हो सकेगा.मैंने इन आंकड़ों पर रिपोर्ट तैयार की है. ये आंकड़े भी हमारी सरकार के हैं, इसका मुझसे कुछ लेनादेना नहीं है.

“मेरा सरकार के प्रति पक्षपाती होना भी नहीं है. सिर्फ सुधार जो हुआ है या कम हुआ है, उसकी प्रतिबिंब को दिखाना है. रिपोर्ट भी बनाने से पहले हमने डेटा को इकट्ठा किया और उसे ग्राउंड पर जाकर मिलान भी किया. रिपोर्ट एक छोटा पार्ट है, जिसमें काम करने के तरीके,लोग क्या सह रहे हैं, क्या नहीं, पारदर्शिता है या नहीं आदि कई बातों को सामने लाने की कोशिश की गई है.

  न्याय पालिका पर दबाव

  • सिक्किम हाई कोर्ट और चंडीगढ़ डिस्ट्रिक्ट हाई कोर्ट को छोड़कर देश के किसी भी कोर्ट में जजों की संख्या पूरी नहीं,
  • 18 बड़े और ज्यादा जनसंख्या वाले राज्यों में केस और क्लियरेंस रेट के मामले में सिर्फ केरल ने छुआ 100 फीसदी का आंकड़ा,
  • डिस्ट्रिक्ट कोर्ट लेवल पर किसी भी राज्य ने एससीएसटी और ओबीसी कोटा को पूरा नहीं किया,
  • न्याय के मामले में साउथ के राज्य सबसे आगे, जिस में कर्णाटक, तमिलनाडु, और तेलंगाना ही 3 सबसे ऊपरी पायदान पर,

 प्रति जज लंबित मामलों की औसत संख्या

  • राजस्थान –24000 हजार
  • मध्यप्रदेश –12000 से अधिक
  • उत्तरप्रदेश –करीब 12000
  • हिमाचल प्रदेश – करीब 9 हजार
  • आंध्रप्रदेश – करीब 9 हजार
  • हरियाणा – करीब 8 हजार

 

 

Yrkkh : अबीर लेगा अक्षरा और अभिनव से अलग होने का फैसला !

सीरियल ये रिश्ता क्या कहलाता है में काफी ज्यादा दिलचस्प मोड़ आया है, सीरियल में दिखाया जा रहा है कि अक्षरा और अभिमन्यु की लड़ाई को देखकर अबीर ने इन दोनों से अलग होने का फैसला लिया है. हालांकि अक्षरा अबीर को मनाने की कोशिश कर रही है.

इन दिनों अभि और अक्षरा के बीच में काफी गंभीर लड़ाई चल रही है ,दोनों अबीर को पाने के लिए कोर्ट के चक्कर लगा रहे हैं. इसी बीच दोनों के बीच लड़ाई होती नजर आई. बीते एपिसोड में आपने देखा था कि अभिनव पैसा कमाने के चक्कर में अबीर पर ध्यान नहीं दे पा रहा है.जिस वजह से अक्षरा काफी परेशान हो जाती है. दूसरी तरफ अभिममन्यु से रूही और आरोही भी परेशान हो जाते हैं. अभि एकदम से बीच ें फंसा हुआ है.

 

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अभि पहले जितना रूही और आरोही पर प्यार नहीं दे पा रहा है इसलिए वह दोनों अभि से नाराज है. आने वाले एपिसोड में नए ड्रामे देखने को मिलने वाले हैं. बीते एपिसोड में मंजरी और आरोही के बीच बहस दिखाई गई थी. जिस वजह से आरोही घर छोड़ने की बात कह रही थी. हालांकि ऐसा होगा नहीं.

अभि आरोही और रूही के पीछे आ जाएगा और उन दोनों को घर से बाहर नहीं जाने देगा, वह अपनी मां से भी कहेगा कि वह अबीर के लिए रूही को बिल्कुल भी नहीं खो सकता है.

कैपटाउन में दिखा ऐश्वर्या शर्मा का नया लुक पति नील ने किया ये कमेंट

रोहित शेट्टी का खतरनाक शो खतरों के खिलाड़ी 13 की शूटिंग शुरू हो चुकी है, जिसमें कई सारे जाने माने चेहरे नजर आ रहा है. वहीं गुम है किसी के प्यार में एक्ट्रेस ऐश्वर्या शर्मा भी खतरों की खिलाड़ी का हिस्सा बनी हैं.

ऐश्वर्या की काफी शानदार तस्वीरें सामने आई हैं जिसमें वह अपने हुस्न का जलवा बिखेर रही हैं, कछ दिनों पहले इस शो के सभी कंटेस्टेंट कैपटाउन पहंचे हैं, जहां पर इस शो की शूटिंग शुरू हो चुकी है. ऐश्वर्या की नए लुक की जमकर तारीफ कर रहे हैं फैंस.

 

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दरअसल, ऐश्वर्या शर्मा ने अपना लुक ऐसे शेयर किया है जिसमें फैंस उनकी जमकर तारीफ करते नजर आ रहे हैं. बता दें कि ऐश्वर्या ग्रीन कलर के आउटफिट में नजर आ रही हैं. फैंस को ऐश्वर्या का लुक खूब पसंद आ रहा है. साथ में गॉग्लस लगाया हुआ है.

ऐश्वर्या अपनी कुछ तस्वीरों पर प्यार लुटाती नजर आ रही है, एक्ट्रेस का यह अंदाज लोगों को खूब पसंद आ रहा है. ऐश्वर्या का यह अंदाज लोगों को पहली बार देखने को मिला है. तस्वीर में देखकर साफ पता चल रहा है कि ऐश्वर्या एनिमल लवर है.

जिसका फायदा ऐश्वर्या को स्टंट में देखने को मिलेगा, एक यूजर ने कमेंट करते हुए लिखा है हरा भरा कबाब, इसके अलावा पति नील भी पत्नी की तस्वीर पर शानदार कमेंट किए हैं. उन्होंने लिखा है कि जो मैंने आर्डर किया है वो कबाब साउथ अफ्रीका कैसे पहुंच गया.

फैंस ऐश्वर्या शर्मा की फोटो को काफी ज्यादा पसंद कर रहे हैं, इसके अलावा फैंस ने ऐश्वर्या शर्मा से सवाल किया था कि आपने गुम है किसी के प्यार में क्यों छोड़ा था. जिसका जवाब उन्होंने दिया था.

कुहरा छंट गया -भाग 3 : पल्लवी क्यों तलवार की धार पर क्यों चलना

अलका पल्लवी की कालेज की साथी थी और अकसर पल्लवी के साथ पढ़ने के लिए उस के घर आया करती थी. तब कैसे समीर के चक्कर पल्लवी के घर कुछ ज्यादा ही बढ़ गए थे,

यह सोच कर आज भी एक मुसकान पल्लवी के होंठों पर खेल गई.

समीर ने आखिरकार अलका के दिल में अपने लिए प्रेम जागृत करवा ही लिया लिया था पर अपने घरेलू हालात के कारण वह उस से खुल कर प्रेम का इजहार करने में असमर्थ थी. एक दिन समीर ने उस से खूब जोर दे कर सब जान ही लिया. अलका के पिता 3 बहनों में सब से बड़ी अलका को जल्द से जल्द शादी के बंधन में बांध कर अपने हिसाब से एक बोझ से मुक्त होना चाहते थे पर अलका और पढ़ना चाहती थी. अपने पैरों पर खड़ी हो कर अपने घर की आर्थिक स्थिति बदलना चाहती थी. यह जानने के बाद समीर शांत हुआ और अपने घर की विचारधारा को भी सोचने लगा. उस के पिता के लिए चाहे वह बोझ नहीं था लेकिन खूंटे से बंधे जानवर समान तो था, जिस की भावनाओं को समझना कम से कम समीर के पिता के बस की बात तो नहीं थी.

तब समीर और अलका ने साथ रहने का निर्णय किया था हालांकि अलका अपनी बहनों के भविष्य के लिए मार्गदर्शन देना चाहती थी, अपनी मां, जो सदा रसोई की दहलीज के अंदर ही रही, को नई दुनिया दिखाना चाहती थी परंतु उस के पिता ने तो इन सब संभावनाओं से परे उसे घर से निकलने का ही फरमान सुना दिया और साथ ही, घरवाले अब उस के लिए जिंदा नहीं रहे, मर चुके हैं उस के लिए. यह चेतावनी भी उसे दे डाली.

उधर, समीर के घर भी उस की शादी की बात उठ रही थी. समीर हर रिश्ते को सिरे से नकार रहा था क्योंकि वह अलका से प्रेम करता था. काफी कोशिशों के साथ उस ने यह बात अपने पिता को बताई भी थी पर, ‘हमारी बिरादरी में ऐसा नहीं होता है और यह क्या प्यारव्यार की रट लगा रखी है, दुकान संभालो और जो लड़की हम चुनें, उसी से शादी कर के घर बसाओ’ ऐसे महान विचार समीर के पिता पालते थे, जिस से समीर को अपना ही घर जेल के समान प्रतीत होता था. उस के दिमाग की नसें फटने को होती थीं उस घर में. जीवन में कुछ कर दिखाने की इच्छा उस के वजूद में ही दम तोड़ देती अगर उस ने घर न छोड़ा होता.

अलका के साथ ने उसे मजबूती दी. मन बेशक दोनों के थोड़े अस्थिर थे परंतु अब दोनों ही अपनीअपनी मंजिल को पाने के लिए एकसाथ एकराह पर कदम बढ़ा चुके थे.

वक्त ऐसा था कि कहीं इक छोटा सा मकान भी सिर छिपाने को मिलना मुश्किल हो गया था पर दोनों के ही पक्के इरादे उन के हौसलों को डगमगा न सके. दिनरात एक कर दिया था दोनों ने अपने जीवन को सही दिशा देने में. अब दोनों अच्छी जगह नौकरियों पर लग गए थे. फिर दोनों ने कोर्ट मैरिज कर ली थी. जिंदगी सुचारु रूप से चलने लगी. अलका खतों के जरिए पल्लवी के संपर्क में थी.

अलका ने मां से हुईं छिपी मुलाकातों के सहारे घर और बहनों की यथासंभव मदद की. उस के पिता से यह बात कब तक छिपी रहती…हर जिम्मेदारी में बेटी को बराबर का साथ देता देख कर उन का भी का दिल पसीज गया और उधर बेटे को जीवन की ऊंचाइयां छूते देख कर समीर के पिता भी बेचैन हो उठे और एक दिन उस के घर जा कर दोनों को अपने घर चलने के लिए कहा.

अब अलका समीर के घर में उस की पत्नी और सासससुर की यथायोग्य बहू का दरजा पा चुकी थी. जल्द ही समीर और अलका को पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई. समीर ने अब अपनी मेहनत के बल पर बच्चों के गारमैंट्स की फैक्टरी खोल ली थी.

अलका के जिस पत्र में समीर के जन्म की सूचना थी, उसी समय पल्लवी भी गर्भवती थी. उस का पति उदित एक मामूली सोच वाला आदमी था. पत्नी को दोयम दरजे का इंसान समझने की मंशा रखता था. पलक के जन्म के पश्चात तो उसे जैसे पल्लवी में अपने औफिस का कोई कर्मचारी नजर आता था जिस से वह केवल अपने स्वार्थ हेतु बात करना पसंद करता था क्योंकि उस की मां के हिसाब से तो आज भी बेटी के जन्म देना एक दोष था और इस की दोषी केवल स्त्री ही होती है और उदित इस सोच का पूरे दिल से अनुसरण करता था.

पलक को कभी दिल से नहीं अपनाया गया. पलक से पहले भी जब पल्लवी 3 बार गर्भवती हुई थी तो उदित और सासुमां ने गर्भ में लड़की का पता चलवा कर कभी झूठे प्यार से तो कभी जोरजबरदस्ती से उस का गर्भपात करवा दिया था. दो बार तो डाक्टर को उस के सीढ़ियों से फिसलने की झूठी कहानी सुनाई गई. अब की बार जब पलक के साथ पल्लवी गर्भवती हुई तो पल्लवी ने बहुत समझदारी से अपनी डाक्टर को विश्वास में ले लिया था.

बहाना तो पलक की बारी भी पल्लवी की कमज़ोरी का बनाया गया था ताकि गर्भ गिरवाया जा सके लेकिन डाक्टर ने न सिर्फ गर्भपात से इनकार कर दिया बल्कि धोखे से गर्भपात करवाने के कारण उदित और उस की मां को जेल की हवा भी खानी पड़ सकती है, यह चेतावनी भी कठोर तरीके से उन लोगों को दे डाली और साथ ही, यह भी अच्छी तरह समझा दिया कि पल्लवी का शरीर अब आगे और गर्भधारणयोग्य नहीं है. इस से पल्लवी की जान को खतरा हो सकता है.

इस घटना के बाद पति और सास को पल्लवी और पलक फूटी आंख नहीं सुहाते थे. उदित ने अपना तबादला दूसरे शहर करवा लिया था और अपनी जिंदगी शराब, जुए व ऐयाशी में व्यतीत करने लगा. इस बात के लिए भी सास पल्लवी को ही ही कोसती रही.

कहीं ट्यूशन तो कहीं सिलाईकढ़ाई का काम कर के पल्लवी पलक का लालनपोषण कर रही थी. मायके में तो कोई पूछ थी नहीं उस की और पलक को उस की ममता की ही सब से अधिक आवश्यकता थी, इसलिए उसी की परवरिश में उस ने खुद को खो दिया था और जिंदगी के इसी सफर में अलका और पल्लवी का संपर्कसूत्र भी खो गया था क्योंकि उदित के तबादले के बाद अलका को नया पता देने की सुध पल्लवी को न रही थी.

कालेज की पढ़ाई के बाद आगे की शिक्षा के लिए पलक ने दिल्ली में गर्ल्स होस्टल में दाखिला ले लिया था हालांकि उदित के मौसेरे भाई का घर था वहां लेकिन उस की पत्नी का अत्यंत रुखा स्वभाव भी पलक को होस्टल में रखने का एक बड़ा कारण बना. पर पल्लवी जब भी दिल्ली जाती तो उन लोगों से मिल कर ही जाती थी और पिछली बार भी वह उन लोगों की बेटी की सगाई में ही आई थी जब पलक ने आयुष के विषय में पल्लवी को बताने की कोशिश की थी पर तब न तो पल्लवी के पास वक्त था और न ही उस ने इस बात पर ध्यान दिया था.

वह तो उन लोगों के बीच उदित के बेहद व्यस्त और सास की बीमारी के बहाने ही बनाती रह गई क्योंकि उदित को तो कभी किसी रिश्ते की परवा ही नहीं थी परंतु कोई अनहोनी हो जाए तो पलक के पास कोई तो होगा, यही सोच कर वह यहां आने पर उन लोगों को बहुत पूछती थी.

तब आयुष पल्लवी के साथ फंक्शन हौल में उसे छोड़ने आया था. जाते समय पलक ने पल्लवी को इशारा भी किया था परंतु आयुष से मुलाकात आज ही हुई थी उस की.

क्या पलक का निर्णय केवल आज के समय की मांग था या पलक एक पुरुष में छिपे हुए पिता के प्रेम और संरक्षण को भी तलाश रही थी? क्या पलक को केवल आयुष के व्यक्तित्व ने ही नहीं, बल्कि उस के प्यार और देखभालभरे व्यवहार ने भी उस के नजदीक रहने का लोभ प्रदान नहीं किया था? जिस तरह की घरेलू परिस्थितियों में भी पलक के कदम कभी लड़खड़ाए न थे, कभी बहके न थे, क्या इस बात से वह प्रशंसा का पात्र नहीं बनती थी? क्या जिंदगी के इस मोड़ पर मैं पलक को अकेला छोड़ दूं? क्या आयुष में समीर और अलका के संस्कार नहीं थे जो उसे 2 बेहतरीन दोस्तों की परवरिश से मिले थे जिन्होंने जीवन को जीवन का सही रूप दिखाया था न कि समाज की दकियानूसी विचारधाराओं की बेड़ियों में जकड़ कर जिंदगी जीने के हर सपने को कुचल दिया?

बेशक, पलक का यह फैसला सही साबित हो सकता है. ऐसे में क्या उसे इस के लिए कुछ वक्त नहीं दिया जाना चाहिए जिस की वह हकदार है? सवालों के गहन अंधकार में अब पल्लवी को भविष्य के उजियारे की किरण नजर आ रही थी.

गाड़ी स्टेशन पर रुक चुकी थी. पल्लवी के कदम घर के रास्ते की ओर बढ़ चले थे. आज उसे एक बार फिर तलवार की धार पर चलना है. उसे पलक पर विश्वास करना होगा और बेटी के प्रति इसी विश्वास को उदित और उस की मां के सम्मुख रखना होगा, समझाना होगा जिस के लिए वह खुद को मानसिक रूप से तैयार कर रही थी और साथ ही, समीर व अलका से वर्षों बाद बात करने के खयाल मात्र ने ही उस में एक नई ऊर्जा का संचालन कर दिया था.

उस ने अलका का नंबर अपने मोबाइल से मिला दिया था. स्टेशन से बाहर आई तो ऐसा लगा जैसे हर वस्तु कुदरत की पहली बारिश से धुल कर उजली हो गई हो. कहीं कोई कुहरा न था. कुहरे के बादल छंट चुके थे.

तभी उधर से अलका की आवाज आई. पल्लवी का दिल जोरों से धड़क उठा, “हेलो, कौन…अलका, मैं पल्लवी. याद है?”

“पल्लवी…” दूसरी तरफ से अलका जैसे खुशी के मारे चिल्लाई हो. अलका के मुख से अपना नाम सुनते ही पल्लवी की आंखों में चमक और चेहरे पर संतुष्टि का तेज लहराने लगा था.

नीलकंठ – भाग 3 : अकेलेपन का दंश

गांव में भी नीलकंठ के लिए सबकुछ बदल गया था. उस के सभी दोस्त उस से एक क्लास आगे हो गए, फिर वे दोस्त अब उस के नहीं रहे… उन्हें अपने घर से हिदायत थी कि नीलकंठ की संगत से दूर रहें, उस पर लेबल लग चुका था, गुनाह का लेबल.

स्कूल में दाखिला तो मिला, मगर टीचर से ले कर हर बच्चे की आंखों में उसे अपने लिए परायापन महसूस हो रहा था. बहुत कष्टकारी दिन रहे वे नीलकंठ के लिए. एक बच्चा कब तक अकेला रहेगा? यहां तो उस के लिए घर ही मानो उस की दुनिया रह गई. वह बाहर निकलता तो बड़े, बच्चे कोई भी उस से स्नेह नहीं करते, बल्कि जेल (बाल सुधारगृह ) के किस्से सुनने में उन की रुचि रहती. इस का प्रभाव उस की मानसिकता पर पड़ने लगा. वह समझ गया कि सब ने उसे अपराधी (खूनी) मान लिया है. जीवन से मानो उस का जी भर गया हो, उस का मन पढ़ाई से उचटने लगा. वह कभी पेटदर्द तो कभी आंख या कभी कान में दर्द होने का बहाना बना कर स्कूल जाने से कतराने लगा. जबरदस्ती भेजने पर वह छोटीछोटी बातों पर गुस्सा हो जाता था या आक्रामक हो जाता था.

परिणामस्वरूप, स्कूल के प्रिंसिपल ने उसे मानसिक रूप से बीमार बता कर किसी अच्छे दिमागी डाक्टर को दिखाने की सलाह दी या अप्रत्यक्ष रूप से उसे स्कूल से हटाने की साजिश थी यह. परिणामत वह पढ़ाई में पिछड़ने लगा. उस के सपने कतराकतरा बिखरने लगे, सपनों संग जिंदगी भी.

काका ने उसे शहर के दिमागी डाक्टर को दिखाया, तो उन्होंने सलाह दी, “बच्चे को उस माहौल से दूर रखिए, जहां यह घटना घटी है.”

न चाहते हुए भी काका ने शहर के स्कूल में उस का दाखिला करा दिया और वहीं होस्टल में उस की रहने की व्यवस्था भी करवा दी. यों नीलकंठ घर से और दूर कर दिया गया. इन सब के बीच रानू के मन का महाभारत सदा उसे मथता रहा, ‘काश, उस दिन वह दरवाजा न खोलती… काश, उन 3 गोलियों में से एक उसे लग जाती तो यह सब न देखना पड़ता. जिस भाई को वह रक्षासूत्र बांधती है, उस ने तो अपना फर्ज निभा दिया… मगर, उस का फर्ज… भाई के उज्ज्वल भविष्य की कामना का तिलक जो वह लगाती रही… उस ने ही भाई के भविष्य को अंधेरी खाई में धकेल दिया. मन ही मन कितना टूटी है रानू, वही जानती है. इसीलिए उस ने खामोशी ओढ़ ली.

गांव में 10वीं तक स्कूल था. उस ने उस के बाद पढ़ाई छोड़ दी. बस घर की चारदीवारी में खुद को कैद कर भाई के वापस लौटने की मनौती करती रहती. मेरे सिवा उस ने गांव की सभी लड़कियों से खुद को काट रखा था. समय अनुकूल हो तो जल्दीजल्दी भागता सा लगता है और प्रतिकूल हो तो लंबा और विकराल… फिर भी कट तो रहा था. भले ही दिल पर घाव करता सा ही सही. एक तो युवा मन वह भी एकांतवास झेलता, मन में समाज के प्रति जहर तो बो ही चुका था मन में, शायद अपनों के भी प्रति, तभी तो जब भी काकाकाकी उस से मिलने जाते, उस के व्यवहार में उन के प्रति उदासीनता ही होती, टूट कर रह जाते वो मातापिता, किस से कहें वो अपनी पीड़ा… घर के हर सदस्य के भीतर जंग जारी थी, वे खुद से भी जूझ रहे थे और समाज से भी. समाज से एक बार लड़ना आसान है, मगर खुद से लड़ना इनसान को थका देता है, यह थकान उन के चेहरों पर साफ दिखाई दे रही थी.

यह सच है कि नीलकंठ ने बाल सुधारघर में यातनाओं का सामना किया है, जिस से उस के जीवन की दशा और दिशा दोनों ही बदल गई. जिसे कम से कम हर सहृदय व्यक्ति महसूस तो कर रहा है, किंतु रानू… उस के मन के महाभारत को शायद कोई नहीं देख पा रहा था. वह कलियुग की ऐसी द्रौपदी, जिसे जो कृष्ण बचाने भी आया तो इस नपुंसक सभा ने उसे भी दोषी करार दे दिया. वह बेचारी किस से फरियाद करे, खुद गुनाह के बोझ से भीतर ही भीतर गलती जा रही थी. इस उम्र में जो निखार लड़कियों के चेहरे पर होता है, वह रानू के चेहरे पर कहीं नजर नहीं आ रहा था. वह हमेशा बुझीबुझी, सहमी सी रहती.

उधर एक साल बाल सुधारगृह में रह कर नीलकंठ की पढ़ाई का हर्जाना तो हुआ ही साथ ही उस के भीतरबाहर एक जंग छिड़ गई थी, जिस से वह जूझ रहा था. इस संघर्ष ने उसे बहुत बदल दिया था. बहुत पूछने पर भी मुंह न खोलता. यह शायद उस माहौल का असर था, जिस में उस ने एक साल गुजारा है. होस्टल से भी उस की शिकायत आने लगी सो, उसे नानी के घर रख कर पढ़ाने की योजना बनाई.

 

छाती में गोली लगने पर क्या करें

आएदिन समाचार पत्रों व टैलीविजन पर छाती में गोली लगने की घटना आम बात हो गई है. अवैध रूप से निर्माण होने वाले देशी तमंचों व रिवौल्वर की भरमार हो गई है. पहले तो हर छोटे कसबे व नगर में गुंडे, मवाली व आपराधिक प्रवृत्ति के लोग अपनी करतूतों को अंजाम देने के लिए इन देशी तमंचों का खुलेआम इस्तेमाल करते थे पर यह रोग अब बड़े महानगरों में भी तेजी से फैल रहा है. थोड़ी सी गरमागरम बहस के बाद ही लोग अपने प्रतिद्वंद्वी को सबक सिखाने के लिए आननफानन लाइसैंसी रिवौल्वर निकाल लेते हैं.

सड़कों पर स्वचालित वाहनों की भरमार होने से आएदिन बहस और फिर आवेश में आ कर प्रतिरोधी पर तमंचे व रिवौल्वर से फायर कर देना मानो मर्दानगी व शूरवीरता की निशानी है. जमीनजायदाद व धनसंपत्ति को ले कर होने वाली गोलीकांड की घटनाएं तो बरसों से होती आ रही हैं, पर यह वाहनों की सड़क पर जरा सी आपस में टक्कर हो जाने पर गोलीकांड हो जाना, ऐसा लगता है कि यह नए जमाने का नया फैशन है जो आधुनिक सड़कों पर देखने को मिल रहा है. लोग आपसी मसलों को सुलझाने के लिए एकदूसरे के घर जा कर बातचीत करने जाते हैं पर समस्या का समाधान निकलना तो दूर की बात रही, बहस का समापन गोली चला कर करते हैं.

छाती में गोली कैसे लगती है

छाती में गोली 3 तरह से लग सकती है. पहले या तो बिलकुल पास से फायर किया जाए या फिर दूर से. कभीकभी चांदमारी क्षेत्र के आसपास रहने वाले लोगों की छाती में सेना के नौजवानों द्वारा अभ्यास परीक्षण के दौरान चलाई गई गोली दिशाहीन व छिटक कर घुस जाती है. लोगों के जेहन में यह खयाल अकसर आता है कि ऐसा क्यों होता है कि कुछ लोग छाती में गोली लगने के तुरंत बाद घटनास्थल पर ही दम तोड़ देते हैं और कुछ लोग छाती में गोली लगने के बाद जिंदा अस्पताल तक तो पहुंच जाते हैं पर वहां जा कर कुछ घंटों में ही मर जाते हैं.

कई लोगों का छाती का औपरेशन भी हो जाता है, उस के बावजूद कुछ दिनों के बाद उन की मौत हो जाती है. इन सब से हट कर कुछ ऐसे भी लोग होते हैं जिन की छाती में गोली लगने के बाद भी उन का बाल बांका नहीं होता और छोटे से औपरेशन के बाद सबकुछ ठीकठाक हो जाता है.

छाती में गोली खतरनाक क्यों होती है

छाती के अंदर जब गोली प्रवेश करती है तो यह छाती की दीवार के अलावा छाती के अंदर स्थित अंगों, जैसे फेफड़े या दिल, फेफड़े से निकलने वाली खून की मोटी नली, सांस की नली या फिर खाने की नली को जख्मी कर देती है. इस के अलावा छाती के आसपास स्थित महत्त्वपूर्ण अंग भी क्षतविक्षत हो सकते हैं.

अगर बंदूक या रिवौल्वर की नली की दिशा छाती की तरफ पर सीधी न हो कर, ऊपर की तरफ या नीचे की तरफ थोड़ी झुकी हुई है तो क्या हो?

अगर यह ऊपर की तरफ झुकी हो तो गोली छाती के अंदर से गरदन के अंदर स्थित अंगों को घायल कर देगी. अगर बंदूक की नली गोली चलाते वक्त नीचे की तरफ केंद्रित है तो पेट के अंदर स्थित महत्त्वपूर्ण अंग, जैसे जिगर, तिल्ली, छोटी आंत, खून की मोटी नलियां गंभीर रूप से घायल हो जाती हैं.

छाती में प्रवेश करने वाली गोली पर लगने वाली मौत की मोहर कुछ बातों पर निर्भर करती है, जैसे छाती के कौन से हिस्से में गोली प्रवेश करती है, कितनी जल्दी छाती में लगी गोली से घायल व्यक्ति सही अस्पताल में पहुंचता है. गोली चलाते वक्त, रिवौल्वर की नली की स्थिति क्या थी. अगर छाती के बीचोंबीच गोली लगी है तो दिल से निकलने वाली मोटी खून की नली जख्मी हो सकती है यानी घटनास्थल पर मौत.

छाती के बाईं तरफ लगने वाली गोली भी यमदूत की सवारी बन कर आ जाती है क्योंकि यहां दिल व फेफड़ों को जाने वाली खून की नलियां गंभीर रूप से जख्मी हो जाती हैं. छाती में गोली की घटना में समय का बड़ा महत्त्व है. अगर समय रहते उचित अस्पताल में गोली से घायल व्यक्ति को नहीं पहुंचाया जाता और भयंकर रक्तस्राव समय रहते नियंत्रित नहीं हो पाता तो घायल व्यक्ति की मौत हो जाती है. देखा गया है कि अगर केवल फेफड़े से होने वाले भयंकर रक्तप्रवाह को समय रहते रोक लिया जाए तो मरीज की जान बचने की संभावना बढ़ सकती है.

कौन से लोग छाती में गोली लगने के बावजूद बच जाते हैं

छाती में गोली लगने के बावजूद अकसर लोगों की जान बच जाती है. यह सब परिस्थितियों पर निर्भर करता है. अगर गोली ने फेफड़े व दिल की मोटी खून की नली या सांस की नली या फिर खाने की नली को जख्मी नहीं किया है और मरीज समय रहते अस्पताल में किसी अनुभवी थोरेंसिक सर्जन के पास पहुंच गया है तो घायल व्यक्ति की जान बचने की संभावना बढ़ जाती है. कभीकभी गोली दाहिनी छाती से प्रवेश कर फेफड़े को छीलती हुई छाती की दीवार में जा कर धंस जाती है. ऐसे मरीजों की जान बचने की संभावना समुचित इलाज के बाद बढ़ जाती है.

देखा यह जाता है कि दाहिनी छाती में लगी गोली, बाईं छाती में लगी गोली की तुलना में कम खतरनाक होती है. देशी तमंचे से किया गया वार तो काफी पेचीदा होता है. तमंचे से निकले छर्रे काफी मात्रा में छाती की दीवारों में धंस जाते हैं. देशी तमंचों का नुकसान यह होता है कि गोली के ऊपर का प्लास्टिक या रबर का खोल छाती के अंदर फेफड़े या दिल की बाहरी दीवारों पर जा कर फंस जाता है जिस की वजह से अगर मरीज बच भी गया तो भी समस्या यहां समाप्त नहीं होती. यह रबर के खोल इंफैक्शन का कारण बन जाते हैं और छाती की दीवारों के छेदों से मवाद आना शुरू हो जाता है. परिणामस्वरूप, छाती में बहुत सारे नासूर बन जाते हैं.

छाती में गोली लगने पर मौत क्यों होती है

छाती में गोली लगने पर मौत होने का सब से बड़ा कारण भयंकर रक्तस्राव है. छाती के अंदर खून का बहना 2 तरह से मौत का कारण बनता है. एक तो खून ज्यादा मात्रा में निकल जाने के कारण शरीर के अन्य महत्त्वपूर्ण अंग, जैसे दिमाग, लिवर व गुर्दे में रक्त की सप्लाई शून्य हो जाती है और शरीर के अंग काम करना बंद कर देते हैं. वहीं छाती में अत्यधिक खून के जमाव के कारण दिल और फेफड़े के ऊपर भयानक दबाव पड़ता है जिस से एक तरफ मरीज का ब्लडप्रैशर गिरता चला जाता है और अंत में दिल काम करना बंद कर देता है.

दूसरे, फेफड़े के घायल होने के बाद छाती के अंदर हवा व खून का अनावश्यक जमाव हो जाने के कारण फेफड़े पर अत्यधिक दबाव पड़ने पर औक्सीकरण की क्रिया फेल हो जाती है जिस से खून में औक्सीजन की मात्रा में भयंकर कमी आ जाती है. अगर समय रहते छाती में ट्यूब डाल कर हवा व खून को छाती से बाहर नहीं निकाला गया तो मरीज की मौत निश्चित है.

छाती में गोली लगने पर क्या करें

  1. पहली सब से महत्त्वपूर्ण बात यह है कि एकएक मिनट कीमती है. बहुमूल्य समय को नष्ट न करें. अकसर देखा गया है कि घायल व्यक्ति के नजदीकी रिश्तेदार मरीज को ले कर छोटेमोटे अस्पताल में ले जाते हैं, फिर वहां कुछ घंटे बिताने के बाद किसी बड़े अस्पताल में घायल व्यक्ति को ले जाया जाता है. ऐस में घायल व्यक्ति के सही इलाज में लगने वाला बहुमूल्य समय व्यर्थ में गंवा दिया जाता है और मरीज जानेअनजाने मौत की कगार पर पहुंच जाता है. मरीज के परिवार वालों को चाहिए कि छाती में गोली लगते ही किसी आधुनिक, बड़े व अच्छे अस्पताल में जाएं.
  2. छाती में गोली लगने से घायल व्यक्ति के इलाज के लिए उपयुक्त अस्पताल वे होते हैं जहां पर नियमित फेफड़े व दिल के औपरेशन होते हों और जहां अनुभवी थोरेसिक यानी चैस्ट सर्जन की चौबीस घंटे उपलब्धता हो. ये दोनों बातें अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं. तीसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उस अस्पताल में अत्यधुनिक व बड़ा ब्लडबैंक होना बहुत जरूरी है क्योंकि आवश्यकता पड़ने पर 30 या 40 बोतल खून का आननफानन इंतजाम हो सके.
  3. गोली लगने की दशा में अस्पताल का चुनाव करते वक्त यह तथ्य भी ध्यान में रखें कि वहां गुर्दे के इलाज का अत्यधुनिक प्रबंध है या नहीं. डायलिसिस यानी कृत्रिम गुर्दा शोधन वहां नियमित रूप से होता है या नहीं तथा गुर्दा विशेषज्ञों की अनुभवी टीम है या नहीं.
  4. छाती में गोली लगने के सफल इलाज में अत्यधुनिक आईसीयू का अत्यंत महत्त्वपूर्ण रोल है. आईसीयू में प्रति 2 शैय्याओं के बीच एक कृत्रिम श्वास यंत्र (वैंटिलेटर) की उपलब्धता होना एक औसतन दर्जे के आईसीयू के लिए आवश्यक है. उत्तम आईसीयू में हर बैड के लिए एक वैंटिलेटर की उपलब्धता होती है. होता यह है कि चमकदमक वाले तथाकथित नामीगरामी बड़े अस्पतालों में कहने को तो आईसीयू यूनिट है पर बैड के अनुपात में अपेक्षित वैंटिलेटर की संख्या नहीं होती है. इस का परिणाम यह होता है कि जरूरत के वक्त वैंटिलेटर की सुविधा न मिलने पर मरीज को असली फायदा तो नहीं हो पाता, केवल खानापूरी रह जाती है.
  5. अत्यधुनिक मशीनें जुटा लेना ही काफी नहीं होता, मशीनों को सही ढंग से इस्तेमाल करने वाले अनुभवी लोग भी होने चाहिए. छाती में गोली लगने के बाद अगर फेफड़े के औपरेशन की जरूरत पड़े तो थोरेसिक सर्जन के साथसाथ अनुभवी क्रिटिकल केयर स्पैशलिस्ट की टीम भी होनी चाहिए. औपरेशन के बाद क्रिटिकल केयर विशेषज्ञों द्वारा की गई देखभाल, गोली से घायल व्यक्ति के स्वास्थ्य लाभ में अत्यंत लाभकारी होती है.
  6. अस्पताल में प्रवेश करने के पहले यह जरूर पता कर लें कि वहां मल्टी स्लाइड सीटी एंजियो, एमआरआई इको कार्डियोग्राफी, डिजिटल सब्ट्रैक्शन एंजियोग्राफी एवं ब्रान्कोस्कोपी जैसी जांचों की सुविधाएं हैं या नहीं. छाती से गोली निकलवाने पर ज्यादा जोर न दें. छाती में गोली लगने पर सब से पहले सर्जन का उद्देश्य यह होता है कि रक्तस्राव को रोका जाए और रक्त की कमी हो जाने से दूसरे महत्त्वपूर्ण अंगों में पड़ने वाले जानलेवा प्रभाव को कैसे नियंत्रित किया जाए. यही 2 महत्त्वपूर्ण कदम होते हैं जिन्हें सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाती है.

घायल व्यक्ति के रिश्तेदार अज्ञानतावश छाती में फंसी गोली को निकलवाने में ज्यादा जोर देते हैं और वे ऐसा मानते हैं कि गोली निकल जाए तो सब ठीक हो जाएगा. पर ऐसा मानना उन का केवल एक भ्रम है. गोली से हुए क्षतविक्षत अंगों की देखभाल से ही मरीज की जान बच पाती है, न कि गोली के निकाल देने से. गोली छाती के अंदर अगर सुरक्षित जगह पड़ी भी है तो कोई नुकसान नहीं करती. द्वितीय विश्व महायुद्ध में घायल हुए सैकड़ों सिपाहियों के शरीर में अभी भी गोली के छर्रे पड़े हैं और ये सेनानीगण आराम से घूम रहे हैं.

इलाज की विधाएं

औपरेशन में कभीकभी फेफड़े के कुछ हिस्से या फेफड़े को निकालना पड़ जाता है. इन औपरेशन को ‘लोबेक्टमी’ या ‘न्यूमोनेक्टमी’ कहते हैं. कभीकभी जख्मी सांस की या खून की नली की मरम्मत करनी पड़ती है. गोली द्वारा खून की नली में बने छेद को भी बंद करना पड़ता है.

अगर गोली फेफड़े को आरपार चीरती हुई चली गई है तो ऐसी दशा में छाती खोल कर एक विशेष औपरेशन ‘पल्मोनरी ट्रैक्टोमी’ किया जाता है. इस में फेफड़े के अंदर जिस मार्ग से गोली गई है उस रास्ते को पूरा खोल कर रिसते हुए खून व हवा की नलियों को एकएक कर के बंद किया जाता है. कभीकभी गैरअनुभवी सर्जन जल्दबाजी में फेफड़े में गोली के प्रवेश व विकासद्वार को सिल कर बंद कर देते हैं जिस से ‘एयर एम्बोलिस्म’ जैसी जानलेवा स्थिति पैदा हो जाती है. इसलिए हमेशा ऐसे अस्पतालों में जाएं जहां एक अनुभवी थोरेसिक सर्जन की उपलब्धता हो.

लेखक-   डा. के के पांडेय

कुरकुरी कच्चे केले की टिक्की का स्वाद हमेशा रहेगा आपको याद

कई बार आपको घर पर बना हुआ स्वादिष्ट भोजन खाने को मन करता है ऐसे में आप चाहे तो घर पर कम समय में कच्चे केले की टिक्की बनाकर खा सकते हैं. तो आइए जानते हैं इसे बनाने की विधि.

 

सामग्री :

– सेंधा नमक स्वादानुसार
– तेल तलने के लिए
– बारीक कटी धनियापत्ती
– 6 कच्चे केले
– 2 चम्मच कुट्टू का आटा
– 4 हरी मिर्च (बारीक कटी हुई)
– 1 चम्मच लाल मिर्च पाउडर
– 1/2 चम्मच काली मिर्च
– 1 बड़ा चम्मच नींबू का रस
– 1/2 टीस्पून तिल
– 1/2 चम्मच हल्दी पाउडर
– 1/2 चम्मच धनिया पाउडर
– 1/2 चम्मच गरम मसाला

विधि : 

– सबसे पहले मीडियम आंच पर एक पैन में पानी डालकर गर्म करें.

– पानी के गर्म होते ही कच्चे केले को डालकर उबाल लें और मुलायम होने तक उबालें.

– जब उबल जाएं तो पानी से निकाल कर इसे ठंडा करें. इसका छिलका उतार लें और मैश कर लें.

– अब केले के साथ लाल मिर्च पाउडर, कौर्न फ्लोर, नींबू का रस, धनिया पाउडर और गरम मसाला डालकर अच्छे से मिलाएं.

– अब इस मिश्रण से छोटी लोई लेकर टिक्की का आकार दें व फिर मीडियम आंच पर एक कड़ाही में तेल गर्म करें.

– तेल के गर्म होते ही टिक्की को सुनहरा होने तक फ्राई कर लें. तैयार कच्चे केले की टिक्की को सौस या हरी चटनी के साथ सर्व करें.

अथ से इति तक : सिनेमाघर के सामने प्रांजली को देखकर मां रुक क्यों गई?

लौट जाओ अमला : ट्रेन में बैठी लड़की घबराई हुई क्यों थी

सुपर फास्ट नीलांचल ऐक्सप्रैस से मैं दिल्ली आ रहा था. लखनऊ एक सरकारी काम से आया था. वैसे तो मैं उत्तर प्रदेश सरकार का नौकर हूं लेकिन रहता दिल्ली में हूं. दिल्ली स्थित उत्तर प्रदेश राज्य अतिथिगृह में विशेष कार्याधिकारी के पद पर कार्यरत हूं.

इस यात्रा के दौरान मेरे साथ कुछ ऐसी घटनाएं घटित हुईं जिन्हें अप्रत्याशित कहा जा सकता है. मसलन, लखनऊ में मुझेजिन अधिकारी से मिलना था उन की पत्नी को जानलेवा दिल का दौरा पड़ गया. बेचारी पूरे 3 दिन तक जीवन और मृत्यु के बीच हिचकोले खाती हुई किसी तरह जीवित परिवार वालों के बीच लौट सकी थीं. वे अधिकारी भद्र पुरुष थे. पत्नी की बीमारी से फारिग होते ही उन्होंने पूरे 10 घंटे लगातार परिश्रम कर के मेरी उस योजना को अंतिम रूप प्रदान कर दिया जिस के लिए मैं लखनऊ आया था.

वापसी हेतु ऐन दशहरे के दिन ही मैं ट्रेन पकड़ सका. गाड़ी अपने निर्धारित समय पर लखनऊ से छूटी, लेकिन उन्नाव से पहले सोनिक स्टेशन पर वह अंगद के पांव की तरह अड़ गई. पता चला कि कंप्यूटर द्वारा संचालित सिग्नल व्यवस्था फेल हो गई है.

प्रथम श्रेणी के कूपे में मैं नितांत अकेला था. कानपुर पहुंचने से पहले ही मैं ने अपने थर्मस को नीबूपानी से भर दिया था. लगता था कि आज के दिन मुझेकोई सहयात्री नहीं मिलेगा. एक बार अच्छी तरह पढ़ी हुई पत्रिका को फिर पढ़ते हुए दिल्ली तक की यात्रा पूरी करनी पड़ेगी. वैसे मुझेपूरी उम्मीद थी कि मेरा बेटा कार ले कर मुझेलेने स्टेशन आएगा. मैं ने लखनऊ से ही उसे फोन कर दिया था कि मैं नीलांचल ऐक्सप्रैस से दिल्ली पहुंच रहा हूं.

खैर, सिग्नल पर हरी बत्ती जल चुकी थी और टे्रन ने बहुत हौले से रेंगना प्रारंभ किया ही था कि एक यात्री मेरे कूपे का दरवाजा खटखटाने लगा. मैं ने उठ कर शटर खोला. सामने एक छोटी सी अटैची थामे एक लड़की खड़ी हुई थी. गेहुआं रंग, लंबे, छरहरे बदन तथा सामान्य से कुछ अच्छे नैननक्श वाली इस लड़की को देख कर मुझेबड़ी निराशा हुई. सोचा, कोई आदमी होता तो उस के साथ बतियाते हुए दिल्ली तक का सफर आराम से कट सकता था.

लड़की ने सामने 2 नंबर की बर्थ पर अटैची रखते हुए मुझ से पूछा, ‘‘चाचाजी, अगर इजाजत हो तो मैं कूपे का दरवाजा बंद कर दूं?’’

अब चौंकने की बारी मेरी थी. टे्रन अब तक प्लेटफौर्म छोड़ कर काफी आगे निकल चुकी थी. मुझ में और इस लड़की की आयु में अच्छाखासा अंतर था. लगभग इसी आयु की मेरी बेटी संध्या का विवाह हो चुका था. फिर भी आदमी आदमी ही होता है और औरत औरत. उन के आदिम और मूल रिश्तों पर बिरलों का ही बस चलता है. इस रिश्ते के बाद के अन्य सभी रिश्ते आदमी ने बनाए हैं, लेकिन वह भी…

‘‘यदि आप असुरक्षा न महसूस करें तो कूपे का दरवाजा बंद कर सकती हैं,’’ मैं ने उत्तर दिया.

लड़की धीरे से बुदबुदाई, ‘सुरक्षा, असुरक्षा वगैरह मैं बहुत पीछे अपने घर छोड़ आई हूं,’ फिर उस ने कूपे का दरवाजा बंद कर दिया तथा अपनी सीट से लगी खिड़की के बाहर झंकने लगी. लड़की मुझेकुछ परेशान, घबराई हुई सी लग रही थी. इस मौसम में कोई पसीना आने जैसी बात न थी, फिर भी वह रूमाल से माथे पर बारबार उभर रही पसीने की बूंदों को पोंछ रही थी.

गोविंदपुरी और पनकी स्टेशन निकल गए. लड़की ने अपना मुख मेरी ओर घुमाया. अब तक उस का पसीना काफी कुछ सूख चुका था.

‘‘चाचाजी, क्या मैं आप के थर्मस से थोड़ा सा पानी ले सकती हूं?’’

मैं ने उत्तर दिया, ‘‘उस में पानी नहीं है.’’

‘‘प्यास के मारे मेरा गला सूख रहा है.’’

‘‘बेटी, इस में सिर्फ नीबूपानी है.’’

‘‘अच्छा, थोड़ा सा दे दीजिए.’’

वह नीबूपानी का एक गिलास गटागट पी गई. 10 मिनट के बाद उस ने फिर थर्मस की ओर देखा. मैं ने उसे 1 गिलास भर कर और दिया, जिसे वह धीरेधीरे पीती रही. अब वह अपेक्षाकृत सामान्य दिखाई देने लगी थी.

‘‘दिल्ली में किस जगह पर जाना है तुम्हें?’’ मैं ने बात करने की गरज से पूछा.

‘‘आप ने कैसे जाना कि मैं दिल्ली जा रही हूं?’’

‘‘बड़ी आसानी से,’’ मैं ने सहजता के साथ उत्तर दिया, ‘‘यह टे्रन कानपुर से चल कर दिल्ली ही रुकती है.’’

‘‘ओह…’’

‘‘लेकिन तुम ने मेरी बात का जवाब नहीं दिया, बेटी?’’

अब उस की ?िझक मिटने लगी थी. उस ने उत्तर दिया, ‘‘नहीं मालूम कि मुझेकहां, किस जगह जाना है.’’

‘‘और तुम अकेली सफर कर रही हो.’’

‘‘हां, दिल्ली मैं अपने जीवन में पहली बार जा रही हूं.’’

मुझेलगा कि कहीं कोई न कोई गड़बड़ जरूर है. यह लड़की शायद अपनेआप को किसी बड़े संकट में डालने जा रही है.

‘‘बेटी,’’ मैं ने स्पष्टवादिता से काम लेते हुए पूछा, ‘‘पहले बात को ठीक तरह से सम?ो, फिर जवाब दो. मैं कह रहा था कि यह टे्रन रात को करीब डेढ़ बजे दिल्ली पहुंचेगी और तुम्हें यह तक पता नहीं कि कहां जाओगी, किस के साथ रहोगी.’’

‘‘नई दिल्ली स्टेशन पर राकेश मुझेलेने आएगा.’’

‘‘कौन राकेश?’’

‘‘राकेश मेरा प्रेम, मेरी जिंदगी, मेरा सबकुछ है.’’

‘‘तो तुम अपने घर से भाग कर आ रही हो?’’

फिल्मी संवाद की शैली में उस ने उत्तर दिया, ‘‘आप जो भी, जैसा भी चाहें निष्कर्ष निकाल सकते हैं. लेकिन मैं भाग कर नहीं जा रही हूं. मैं एक नया घर बनाने, एक नई जिंदगी शुरू करने जा रही हूं.’’

‘‘दिल्ली में नया घर, नई जिंदगी?’’ कुछ रुक कर मैं ने अगला सवाल किया, ‘‘तुम्हारी उम्र क्या है?’’

‘‘18 वर्ष और कुछ दिन. हाईस्कूल का प्रमाणपत्र है मेरे पास.’’

‘‘इस का मतलब यह हुआ कि तुम कानूनी कीलकांटे से पूरी तरह से लैस हो कर अपने घर से निकली हो. फिलहाल इस बात को जाने दो. यह बताओ, तुम पढ़ी कहां तक हो?’’

‘‘इंटरमीडिएट, प्रथम श्रेणी, मु?ो

3 विषयों में विशेष योग्यता मिली है.’’

‘‘अरे, तुम्हारे सामने चिकनी सड़क जैसा उज्ज्वल भविष्य फैला हुआ है. फिर तुम यह सब क्या करने जा रही हो?’’

‘‘चाचाजी, मुझेकोई प्यार नहीं करता, न पिताजी और न ही मां. दोनों की अपनी अलग दुनिया है…किटी, पपलू, ब्रिज, क्लब, देर रात तक चलने वाली कौकटेल पार्टियां. मेरे अलावा दोनों को सबकुछ अच्छा लगता है. उन दोनों की एकएक बात मैं अच्छी तरह से जानतीसमझती हूं. लेकिन घटिया बातें अपने मुंह से आप के सामने कहना क्या आसान होगा.

‘‘चाचाजी, घर के नौकरों के साथ मैं ने अपना बचपन बिताया है. मेरे मातापिता या तो घर में होते ही नहीं हैं और यदि होते भी हैं तो अपनेअपने शयनकक्ष में सोए पड़े होते हैं. अब मैं कैसे कहूं कि मुझेबचपन में ही खराब, बहुत खराब हो जाना चाहिए था. यह करिश्मा ही है कि मैं आज तक ठीकठाक हूं.’’

अकस्मात मुझेलगा कि चारों तरफ फैलती जा रही शून्यता के बीच मेरी प्यारी बेटी संध्या मुझ से बातें कर रही है.

‘‘बेटी, तुम्हारा नाम जान सकता हूं?’’

‘‘अमला नाम है मेरा.’’

‘‘राकेश को कैसे जानती हो?’’

‘‘मेरे महल्ले का लड़का है. कालेज में मुझ से आगे था. एम ए कर चुका है.’’

‘‘वह करता क्या है?’’

‘‘कुछ नहीं.’’

‘‘तो फिर दिल्ली में तुम दोनों खाओगे क्या, रहोगे कहां? मैं तो समझ था कि राकेश दिल्ली में कोई नौकरी करता होगा. उस के पास रहने का अपना कोई ठिकाना होगा.’’

‘‘दिल्ली में हम सिलेसिलाए कपड़ों का व्यवसाय करेंगे. सुना है कि दिल्ली में यदि अच्छे संपर्कसूत्र बन जाएं तो विदेशों में तैयार वस्त्र निर्यात कर के लाखों के वारेन्यारे किए जा सकते हैं.’’

‘‘ठीक सुना है तुम ने बेटी,’’ मेरा मन भीग चला था, ‘‘जरूर लाखों के वारेन्यारे किए जा सकते हैं यदि संपर्कसूत्र अच्छा हो जाए तो. लेकिन संपर्कसूत्र का अर्थ जानती हो तुम?’’

‘‘हां, क्यों नहीं. संपर्कसूत्र बढ़ने का अर्थ है, लोगों से जानपहचान हो जाना.’’

‘‘नहीं,’’ मैं ने कठोरता से कहा, ‘‘कभीकभी इस शब्द के अर्थ बदल भी जाते हैं यानी शून्य अर्जित करने के लिए अपनेआप को अकारण मिटा डालना. एक ऐसी नदी बन जाना जिस का उद्गम तो होता है किंतु कोई सम्मानजनक अंत नहीं होता.’’

गाजियाबाद स्टेशन निकल चुका था. हम दिल्ली के निकट पहुंच रहे थे. मैं बहुत असमंजस की स्थिति में था. मैं अमला से कुछ कहना चाहता था, लेकिन क्या कहना चाहता था, क्यों कहना चाहता था, इस की कोई साफ तसवीर उभर कर मेरे मस्तिष्क में नहीं आ रही थी.

‘‘लेकिन बेटी, व्यापार के लिए धन चाहिए. कितना रुपया होगा तुम लोगों के पास?’’

‘‘राकेश के पास क्या है, एक तरह से कुछ भी नहीं,’’ अमला ने उत्तर दिया, ‘‘वह कह रहा था कि मैं अपनी मां के कुछ जेवर तथा पिताजी की सेफ से व्यापार लायक कुछ रुपए ले चलूं. आखिर बाद में वह सबकुछ मेरा और बड़े भैया का ही तो होगा. कल मिलने वाली चीज को आज ले लेने में क्या हर्ज है.’’

मुझेकुछ और पूछने का अवसर दिए बगैर वह कहती गई, ‘‘लेकिन मैं उन सब से घृणा करती हूं. उन का रुपया, पैसा, जेवर आदि मैं अपने भावी जीवन में कोई भी ऐसी चीज रखना नहीं चाहती जिस में मातापिता की स्मृति जुड़ती हो. मैं अपने साथ जेबखर्च से बचाए हुए 100 रुपयों के अलावा और कुछ ले कर नहीं आई. मैं ने राकेश से साफसाफ कह दिया था कि हम अपना आने वाला जीवन अपने हाथों अपने साधनों से बनाएंगे.’’

‘‘तुम्हारी यह बात क्या राकेश को अच्छी लगी थी?’’ मैं ने पूछा.

‘‘शायद नहीं,’’ उस ने कुछ सोचा, थोड़ा ?िझकी, फिर बोली, ‘‘बल्कि वह जेवर तथा रुपया न लाने की बात पर काफी नाराज भी हुआ था.’’

‘‘फिर?’’

‘‘फिर क्या, वह दोनों आंखें मूंदे सोचता रहा. फिर मुझ से बोला, ‘अमला, जब तुम साथ हो तो सब कुछ अपनेआप ठीक हो जाएगा.’’’

‘‘कैसे ठीक हो जाएगा, तुम ने उस से साफसाफ पूछा नहीं. कहानी, उपन्यास तथा फिल्मों में सबकुछ अपनेआप ठीक हो जाता है, लेकिन वास्तविक जीवन में आदमी को अपने विवेक व अपने श्रम से सबकुछ ठीक करना पड़ता है.’’

‘‘आप समझते क्यों नहीं,’’ फिर कुछ रुक कर वह बोली, ‘‘मुझेउस पर पूरा विश्वास है.’’

‘‘फिर भी बेटी, मैं ने आज तक अविश्वासघात होते नहीं देखा. जब भी घात हुआ विश्वास के साथ ही हुआ है. और मैं नहीं चाहता कि तुम्हारे साथ कुछ ऐसा हो.’’

टे्रन यमुना के पुल से गुजर रही थी. हमारे पास समय बहुत कम बचा था. रात के 1 बज कर 35 मिनट हो चुके थे.

मैं ने हिम्मत बटोर कर अमला से पूछा, ‘‘बेटी, मुझ पर भरोसा रख कर क्या मेरी एक बात मानोगी?’’

‘‘हांहां, कहिए?’’

‘‘आज रात तुम मेरे घर चलो. तुम्हारे राकेश को भी हम अपने साथ ले चलेंगे.’’

‘‘मगर?’’

‘‘अगरमगर मत करो, हां कह दो. आगे बढ़ कर हम लौट नहीं सकते परंतु तुम जहां हो, वहीं रुक जाओ. वहां तुम अपनी चाची के साथ सोना…’’

न जाने किस प्रेरणा से अमला मेरी बेटी संध्या की तरह मेरे प्रति आज्ञाकारिणी हो गई. बोली, ‘‘ठीक है, जब आप इतनी जिद कर रहे हैं तो आप की बात मान ही लेती हूं.’’

नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के निकासद्वार पर राकेश अपने दोस्तों के साथ खड़ा था. लंबेतगड़े, छोटीछोटी खसखसी दाढ़ी तथा बारीक तराशे बालों वाले राकेश के दोस्त मुझेअजीब लगे. राकेश ने मुझेअनदेखा करते हुए कहा, ‘‘अमला, चलो टैक्सी में बैठो. हम होटल चलते हैं. पहले ही काफी देर हो चुकी है.’’

राकेश को अपना परिचयपत्र थमाते हुए मैं ने कहा, ‘‘अमला मेरे साथ जा रही है. कल तुम मेरे घर आना. बाकी की बातें वहीं करेंगे.’’

तीनों दाढ़ी वाले सफेदपोश मेरा रास्ता रोक कर लाललाल आंखों से मुझेघूर रहे थे. इसी बीच मेरा बेटा आ पहुंचा था. उन तीनों में से एक मुझ से बोला, ‘‘यह लड़की लखनऊ से दिल्ली आप के मकान में सोने के लिए नहीं आई है.’’

उन तीनों को देख कर अमला के होश उड़ते दिखाई दे रहे थे. वह दृढ़तापूर्वक बोली, ‘‘राकेश, मैं चाचाजी के घर ही रहूंगी. तुम कल मुझ से इन के यहां ही मिलना.’’

मुझेलगा कि कुछ दंगाफसाद होने वाला है और मेरा बेटा इस सब के लिए अपनेआप को तैयार कर रहा है. इसी बीच भागते हुए 2 सिपाही हमारे पास आए. मुझेकुछ कहने का अवसर दिए बिना अमला ने उन सिपाहियों से कहा, ‘‘कृपया हमें हमारे घर पहुंचने में मदद कीजिए. मैं नहीं जानती कि ये लोग कौन हैं और क्यों मेरा रास्ता रोक रहे हैं.’’

मैं ने भी उन्हें अपना परिचय दिया. वे हमें हमारी कार तक पहुंचा गए. न जाने क्यों राकेश इस दौरान मौन रहा.

अगले दिन राकेश के दोस्तों के धमकीभरे फोन आने के बाद अमला को पूरी तरह एहसास हुआ कि वह अजगरों के मुंह में जाने से बालबाल बची है.

बाकी का काम मेरी पत्नी ने किया. उस ने अमला से कहा, ‘‘मेरी मुन्नी, आदमी का दुख दीपक की तरह होता है. वह खुद अपनेआप को पलपल जला कर दूसरों को प्रकाश देता रहता है. लौट जाओ अपने घर. स्वयं जल कर अपने घर को अपनी ज्योति से आलोकित कर दो.’’

‘‘लेकिन चाचीजी, मैं कैसे, किस मुंह से वापस जाऊं.’’

‘‘तुम्हारी वापसी, यानी कि पूरे मानसम्मान के साथ वापसी, हमारा काम है. जैसे भी हो, इसे हम करेंगे,’’ मेरी पत्नी उस की पीठ सहलाते हुए बोली, ‘‘जीना, जीते रहना जिंदगी की शर्त है. जब साथ चलने वाला कोई न मिले तो वीरानगी को अपना हमसफर बना लो. मेरी बेटी, तुम मंजिल तक जरूर पहुंच जाओगी.’’

अमला को मैं 4 दिनों बाद उस के घर वापस पहुंचा आया. उस के मातापिता को मैं ने टैलीफोन से पहले ही सबकुछ समझ दिया था.

पिछले 5 साल से उस के पत्र मेरे तथा मेरी पत्नी के नाम आते रहते हैं. अभी कल ही उस का पत्र मेरी पत्नी के पास आया है, ‘चाचीजी, मैं केंद्रीय सचिवालय की सेवाओं हेतु चुन ली गई हूं. जब तक कोई दूसरी व्यवस्था नहीं हो जाती, मैं आप लोगों के साथ ही रहूंगी.’

मेरी पत्नी मुसकरा कर मुझ से कहती है, ‘‘अब तक एक थी, अब हुक्म बजाने वाली एक और ?हो गई. चलूं, कमरा ठीक करूं. आखिर हुक्म तो हुक्म ही है.’’

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