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दो चेहरे वाले लोग : भाग 3

जीजी बोलीं, ‘आजकल लोग लड़कालड़की की परवरिश में फर्क नहीं करते. उन्हें भी अपनी अपेक्षाएं बताने का हक है.’

‘अरे भई, शिक्षादीक्षा, खानापीना, लाड़प्यार सभी में लड़कालड़की बराबर होंगे तब भी फर्क तो रहेगा न.’ जीजाजी बोले, ‘बहू इस घर में आएगी, अविनाश उस घर को नहीं जाने वाला.’ बातों से लगा कि जीजाजी अब चिढ़ गए हैं.
‘लेकिन जीजाजी, आजकल दोनों की कमाई में फर्क नहीं है. समान अधिकार हैं स्त्रीपुरुष के.’

‘देखो रश्मि, हम लोगों को बहू चाहिए, नौकरी नहीं. इस घर को एक कुशल गृहिणी की जरूरत है, अफसर की नहीं. अगर लड़की होशियार है, कोई काम कर रही है तो इस घर से उसे पूरा सहयोग मिलेगा, लेकिन अगर वह घर से ज्यादा महत्त्व अपने कैरियर को देना चाहती है तो उसे शादी नहीं करनी चाहिए.’

‘जीजाजी, आप ने मेरे सामने यह अभिप्राय बता दिया तो ठीक है, लेकिन किसी आधुनिक विचारों वाली लड़की के सामने मत बोलिएगा. झगड़ा हो जाएगा.’

‘होने दो, लेकिन अपने अनुभव की बातें बताने से मुझे कोई नहीं रोक पाएगा,’ जीजाजी की आवाज कुछ ऊंची उठ गई, ‘उस दिन एक महाशय पत्नी के साथ आए थे. कहने लगे कि उन की बेटी को विदेश जाने का मौका मिलने वाला है. तो क्या अविनाश उस के साथ अपने खर्च से जा पाएगा?’

‘फिर…’

‘मैं ने कह दिया कि महाशय, मेरे बेटे को विदेश जाने का मौका मिलता तो पत्नी का खर्चा वह खुद देता और उसे साथ ले जाता. उन की बेटी भी तो मेरे बेटे का टिकट खरीद सकती है. दोनों की कमाई मेंं फर्क नहीं. अधिकार समान है, फिर यह दोहरा मानदंड क्यों?’

मैं चुप्पी लगा गई. अगर कहती कि जीजाजी, दोहरा मानदंड वाले तो आप हैं. शिवानी की शादी के समय आप के विचार कुछ अलग थे और आज बेटे की शादी के समय में कुछ अलग हैं. शिवानी की बेटे जैसी परवरिश पर फख्र था जिन्हें आज वही दूसरों के उस तरह के विधानों को काटते नजर आ रहे थे.

जीजी ने कितना कुछ खो कर घरपरिवार को, संस्कृति के मूल्यों को बरकरार रखा था. जीजाजी समझदार होते तो जीजी अपने व्यक्तित्व को गरिमामय रख कर भी वह सबकुछ कर सकती थीं. कोई काम भी कर सकती थीं. जीजी को खरोंचने का काम अकेले जीजाजी करते थे. बेटी और बहू में फर्क करने वाली सास पर अनेक धारावाहिक देखने और दिखाने वाले समाज मे जीजाजी जैसे कई पुरुष भी हैं जो पत्नी और बेटी के सम्मान में जमीनआसमान का अंतर रखते हैं.

मैं जब सीधीसादी, पर समझदार नंदिनी का रिश्ता ले कर गई, तब मुझे जीजाजी की पसंद पर कोई खास भरोसा नहीं था. मेरे मन में जीजी के लिए एक अच्छी, प्यार और सम्मान देने वाली बहू लाने की इच्छा इतनी प्रबल न होती, तो मैं जीजाजी के सामने इतने सारे प्रस्ताव न रखती.

मुझे पता था कि अविनाश को नंदिनी पसंद आएगी, क्योंकि वह मां के संस्कारों के सांचे में ढला था. मैं यह भी जानती थी कि शिवानी की मुुंहफट बातों को स्मार्टनेस समझने वाले जीजाजी को कम बोलने वाली नंदिनी कैसे पसंद आएगी. घर संभाल कर अनुवाद और लेखन करने वाली लड़की किसी डाक्टर या इंजीनियर लड़की जितनी ‘बोल्ड’ कैसे हो सकती है. शिवानी बिजली है. उस के सामने नंदिनी एक दीपक की छोटी सी लौ की तरह मंद, आलोकहीन लगेगी.

लेकिन, मेरी सोच गलत साबित हुई. अपनी मधुरता से नंदिनी ने सब को मोह लिया. विवाह हो गया. बहुत खुश है अविनाश. जीजी को मेरी तरह एक शीतल छाया मिल गई है, पर…

जब मैं जीजाजी को बड़े शौक से खाना खाते और नंदिनी को कोई खास बनाई गई चीज परोसते हुए देखती हूं, तब मेरे मन में संदेह जागता है कि मैं ने नंदिनी के साथ अन्याय तो नहीं किया.

शायद जीजाजी को जीजी जैसी मार्दवभरी, स्नेहिल, घर को प्यार करने वाली ही बहू चाहिए थी, ताकि उन का, उन के बेटे का घर अक्षुण्ण रहे. उन के चैन और आराम बने रहें.
लेकिन, मेरा मन खुद से प्रश्न करता है, दो चेहरे वाले इनसानों की असलियत कौन जान सकता है. क्या पता अविनाश भी कुछ सालों बाद जीजाजी की तरह…

मैं राह देख रही हूं जीजी के पोतेपोतियों की. पोती आएगी तभी पता चलेगा कि जीजाजी का दूसरा चेहरा सचमुच उतर चुका है या मौका मिलते ही वह फिर उन के आजकल के चेहरे को ढंकने आ पहुंचेगा.
मेरा आशावादी मन… कल्पना में देख रहा है, उस उतरे हुए चेहरे की धज्जियां और अब चढ़े हुए चेहरे पर झलकती तंदुरुस्ती की गुलाबी चमक.

ये कैसी बेबसी : भाग 2

आंख खुली तो मैं एकबारगी ही घबरा कर उठ बैठी. अरे, यह मैं कहां और कैसे आ गई. अरुण कहां, किस हालत में है, मन में सैकड़ों सवाल कुलबुलाने लगे थे. विपत्ति के वक्त व्यक्ति ऐसी ही अनेक आशंकाओं से घिर जाता है.

ठीक पहाड़ की चोटी पर बसा कोई गांव था, जहां वे लोग हमें उठा लाए थे. सामने ही सूर्य के तीखे प्रकाश से एक भव्य चर्च का क्रौस चमक रहा था. मैं एक झोपड़ी में एक चारपाई पर पड़ी थी. मगर अरुण कहां है? गांव के अनेक लोग मुझे घेरे आओ भाषा में जाने क्या बातें कर रहे थे और जैसी की इधर आदत है, बीचबीच में उन के ठहाके भी गूंज जाते थे. अधिसंख्य बुजुर्ग नागा स्त्री-पुरुष ही थे. उन में से एक नागा बुजुर्ग आगे बढ़ कर टूटीफूटी हिंदी में बोला, ‘‘अब कैसा है, बेटी?’’

‘‘मेरे पति कहां हैं,’’ मैं चीखी. अचानक मुझे एहसास हुआ कि शायद ये हिंदी न समझे. सो, इंग्लिश में बोली, ‘‘व्हेयर इज माई हसबैंड?’’

‘‘हम थोड़ी हिंदी जानता है,’’ वही बुढ़ा स्नेहसिक्त आवाज में बोला, ‘‘तुम्हारा आदमी घर के अंदर है. उसे बहुत चोट लगा. बहुत खून बहा. तुम लोग कहां से आता था. कहां रहता है?’’

‘‘हम मोकोकचुंग में रहते हैं. मेरे पति चुचुइमलांग के अपने एक मित्र से मिलने के लिए निकले थे. मगर गाड़ी का ब्रेक खराब हो गया और ऐक्सिडैंट हो गया,’’ घबराए स्वर में मैं बोली, ‘‘अभी वे कहां हैं. मैं उन्हें देखना चाहती हूं.’’

बुजुर्ग ने अपनी आओ भाषा में बुढि़या से कुछ कहा. बुढ़ी महिला

मुझ से आओ भाषा में ही कुछ कहते हुए अंदर ले गई. काफी पुरानी और गंदी सी झांपड़ी थी यह. बांस की चटाई बुन कर इस झपंड़ी की दीवारें तैयार की गई थीं. ताड़ के पत्तों सरीखे बड़ेबड़े पत्तों से ऊपर छत का छप्पर डाला गया था. फर्श मजबूत लकडि़यों का था और यह झांपड़ी जमीन से लगभग हाथभर ऊपर मजबूत लकड़ी के खंभों पर टिकी थी. नागालैंड की ग्रामीण रिहाइश आमतौर पर ऐसी ही होती है.

कहने को यह झांपड़ी थी मगर थी बहुत बड़ी. बांस की चटाइयों का घेरा दे कर 2 कमरे बने हुए थे. उसी में से एक कमरे में एक चौकी पर अरुण लेटा था. उस का चेहरा एकदम निस्तेज हो गया था. सांस धौंकनी की तरह चल रही थी.

मैं उसे देख कर फूट कर रो पड़ी. हमारे पीछे कुछ और लोग चले आए थे. वे आगे बढ़ आए और मुझे हिंदी, इंग्लिश और आओ भाषा में कुछकुछ कह कर दिलासा देने लगे. बूढ़ी महिला ने फिर आओ भाषा में मुझे से कुछ कहा. छाती पर क्रौस का निशान बनाया और मुझे वापस बाहर ले आई.

‘‘यहां से चुचुइमलांग कितनी दूर है? न हो तो इन के मित्र हुमसेन आओ को बुला दें.’’ मैं सुबकते हुए बोली, ‘‘वे शायद कुछ मदद कर पाएं.’’

वे बोले, ‘‘तुम चिंता मत करो. चुचुइमलांग यहां से दसेक मील दूर है. तुम्हारे उस परिचित फ्रैंड को भी हम खबर कर देगा. तुम्हारा हसबैंड को बहुत चोट लगा. मगर डाक्टर ने बताया कि वह खतरे से बाहर है. वह अच्छा

हो जाएगा.’’

‘‘मगर यहां क्या व्यवस्था हो सकती है?’’ मैं बोली, ‘‘उन्हें अस्पताल पहुंचाना बहुत जरूरी है. अगर आप उस की व्यवस्था कर देते तो…’’

‘‘चर्च के पास ही तो एक हौस्पिटल है,’’ बुजुर्ग मेरी बात काटते हुए बोले, ‘‘वहीं तो हम सब से पहले तुम्हारे हसबैंड को ले गया था. डाक्टर ने चैक किया और दवाएं लिखीं. कंपाउंडर ने फर्स्ट एड दिया. लेकिन वह बोल रहा था कि हालत ठीक नहीं. बौडी से खून ज्यादा निकल गया है. खून चढ़ाना होगा. हम उसी की व्यवस्था में लगा है.’’

बूढ़े ने बुढि़या से कुछ कहा. वह अंदर चली गई थी. मैं अब कुछ

सहज होने लगी थी. फिर भी मन में कुछ आशंका थी. अपरिचित लोग, अनजान जगह. हालांकि बातव्यवहार से कहींकुछ अजीब नहीं लग रहा था. मगर ये अभावग्रस्त लोग हमारी क्या मदद कर पाएंगे, यही विचार मन में घुमड़ रहा था. यह भी कि ये लोग हमारे बारे में क्या सोच रहे होंगे. इतने में बुढि़या आई और जाने क्या कहा कि बूढ़ा उठते हुए बोला, ‘‘चलो बेटा, चाय पीते हैं.’’

मेरा मन बिलकुल नहीं था. मन तो अरुण में टंगा था. फिर भी अनिच्छापूर्वक उठना पड़ा. ?ांपड़ी के एक किनारे ही रसोई थी. एल्यूमिनियम, स्टील, तामचीनी और लकड़ी के भी ढेर सारे बरतन करीने से रखे हुए थे. एक तरफ 2 बड़े ड्रम थे, जिन में पीने का पानी था. सरकारी कृपा से नागालैंड के हर गांव में और कुछ पहुंचे, न पहुंचे, बिजली और पानी की सप्लाई ठीकठाक है. कुछ छोटे पीपों में कुचले हुए बांस के कोंपल भरे थे. उन के उपर करीने से बोतलें सजी थीं, जिन में बांस की कोंपलों का ही रस निकाल कर रखा हुआ था.

नागा समाज अपनी रसोई में तेलमसालों की जगह इन्हीं बांस के कोंपलों के खट्टे रसों का उपयोग करता है, यह बात अरुण ने एक दिन बताई थी. एक तरफ चूल्हे में आग जल रही थी, जिस पर बड़ी सी केतली में पानी खदक रहा था. बुढि़या ने एक अलग बरतन में कप से पानी नाप कर डाला और चूल्हे के दूसरी तरफ चढ़ा दिया. अब मैं ने ध्यान दिया. चूल्हे के ऊपर मचान बना कर लकडि़यां रखी थीं और इन दोनों के बीच लोहे के तारों में गूंथे गए मांस के टुकड़े रखे थे. मेरा मन अजीब सा होने लगा था.

बुढि़या सब को चाय देने लगी थी. वह एक प्लेट में बिस्कुट भी निकाल लाई थी और खाने के लिए बारबार आग्रह कर रही थी. उस का वात्सल्य देख मेरा मन भर आया और प्लेट पकड़ ली. बुजुर्ग अब खुद ही अपने बारे में बताने लगे थे, ‘‘मैं यहां का गांव का बूढ़ा (मुखिया) हूं. 3 बेटे और एक बेटी है. बेटी की शादी हो गई. एक बेटा गोहाटी में टीचर है और दूसरा दीमापुर में एक औफिस में क्लर्क है. तीसरा मोकोकचुंग के एक कालेज में पढ़ाई करता है. आज ही वह आया है. मगर अभी जंगल गया हुआ है. आता ही होगा अब. अच्छा, तुम्हारा आदमी क्या करता है?’’

‘‘वे मोकोकचुंग कालेज में प्रोफैसर हैं.’’

‘‘अच्छा, तो वह टीचर है,’’ बुढ़ा बुदबुदाया, ‘‘और तुम क्या करता है?’’

‘‘मैं,’’ मैं इस तनाव में भी हंस पड़ी, ‘‘मैं तो घर पर रहती हूं.’’

तब तक डाक्टर आ गया था. हम सभी उठ खड़े हुए. अरुण की जांच करने के बाद वह अरुण को एक इंजैक्शन लगाने की तैयारी करने लगा. इंजैक्शन लगते ही अरुण कुनमुनाया. चेहरे पर बेचैनी के कुछ लक्षण उभरे. फिर वह शांत दिखने लगा था. डाक्टर बंगाली था. फिर भी धाराप्रवाह एओ भाषा बोल रहा था. सारी बात उसी में हो रही थी. इसलिए मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ रहा था. बस, यही आभास हुआ कि अरुण की दशा देख सभी चिंतित हैं. अरुण को चारपाई समेत बाहर निकाल अस्पताल पहुंचा दिया गया.

अस्पताल क्या था, बस, एक साफसुथरी झांपड़ी थी, जिस में दवाएं रखी थीं. सफेद परदे का पार्टीशन दे कर चारेक चारपाइयां बिछी थीं. उसी में से एक पर अरुण को लिटा दिया गया. अरुण की बेहोशी पूरे ढाई घंटे बाद टूटी थी. बड़ी तकलीफ के साथ उस ने आंखें खोलीं. मैं उस पर झाक आई.

बाहर खुसरपुसर चल रही थी. अचानक बूढ़ा हिंदी में बोला, ‘‘डाक्टर, मेरा खून चढ़ा दो.’’

‘‘नहीं जी,’’ डाक्टर ने जवाब दिया, ‘‘बुढ़े का रक्त नहीं चढ़ाया जा सकता. इस के लिए तो किसी जवान का ही खून चाहिए होता है.’’

अब वह मुझ से अरुण का ब्लड ग्रुप पूछने लगा. मैं ने उसे बताया. उस ने अरुण का रक्त चैक करने के बाद कहा, ‘‘यू आर राइट, मैडम.’’

‘‘आप मेरा खून इन्हें चढ़ा दीजिए, सर,’’ मैं बोली, ‘‘शायद यह मैच कर जाए.’’

‘‘हम लोग के रहते तुम यह काम कैसे कर सकता है. बस्ती में इतना सारा लोग है. किसी न किसी का जरूर मैच कर जाएगा.’’

भीड़ में से कई युवक आगे बढ़ आए थे. डाक्टर एकएक कर उन का ब्लड चैक कर नकारता जा रहा था. मेरी बेचैनी बढ़ती जाती थी. अचानक वहां एक युवक प्रकट हुआ. बुजुर्ग दंपती से जाने क्या उस की बात हुई और अब उस ने अपना हाथ बढ़ा दिया था.

यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है : भाग 2

ओनीर फिर चिढ़ा, “मैं गलत बात को गलत कह रहा हूं. मैम से मेरी कोई पर्सनल प्रौब्लम थोड़े ही है.”

“आप को पता है कि आप मैम से गलत तरह से बात कर रहे थे, इस तरह की जातिगत बहस हमारी क्लासरूम तक न ही पहुंचे तो अच्छा रहेगा. मैम, अब आप बताएं कि अगले प्रोजैक्ट के लिए क्या करना है, काफी टाइम वेस्ट हो गया है.”

ओनीर ने सहर को देखा, वाइट कुरते, जीन्स में पतली, लंबी सी सुंदर सहर, हमेशा की तरह उस के दिल में उतर गई, फिर सोचा, काश…

सहर को बहुत सारे शेर, ग़ज़लें, गीत, याद रहते थे. वह बहुत अच्छा गाती भी थी. जब भी कोई शेर कहती, उस की जादुई आवाज़ में सामने वाले जैसे खुद को भूल जाते. वह अपनी इस शायरी के लिए पूरे कालेज में मशहूर थी. कोई भी फंक्शन होता, कुछ न कुछ ज़रूर गाती. इस समय भी उस ने चैताली को देख कर कहा, “मैम, यह आप के लिए- “ज़हर मीठा हो तो पीने में मजा आता है, बात सच कहिए मगर यूँ कि हकीकत न लगे.”

सब हंस पड़े. पढाई शुरू हुई. उस के बाद सहर के चेहरे से ओनीर नज़रें हटा न पाया.

चैताली ने आज क्लास को फिर गंभीर मुद्रा में ही नोट्स दिए. थोड़ी देर बाद सब अपनेअपने दोस्तों के साथ कौफीहाउस की तरफ चल दिए. वहां का स्टाफ सब को पहचानता ही था, सहर अपनी फ्रैंड्स नितारा और मिराया के साथ नींबू पानी का और्डर दे कर बैठ गई. बराबर में ही लड़के अपना और्डर दे कर बैठ गए. नितारा ने ओनीर को छेड़ दिया, “तुम आज कुछ कोल्डड्रिंक ले लो, दिमाग बहुत गरम है तुम्हारा.”

“बात ही ऐसी करती हैं मैम. आ जाएंगी अपनी दलित बस्ती को बीच में ले कर. कोईं खबर आई नहीं कि उन्हें दुख होना शुरू हो जाता है.”

सहर ने कहा, “तुम अपनी जाति को ले कर नहीं आते? कभी सोचा है कि इतनी बड़ी डिग्री लेने जाने वाला इंसान हिंदू राष्ट्र की बात करते हुए कैसा लगता होगा?” सहर के आगे तो ओनीर वैसे ही हारने लगता था, फिर भी बोला, “काफी दिनों से सोच रहा हूं कि तुम, सहर नौटियाल. यह सरनेम कम ही सुना है. मुंबई के तो नहीं हो तुम लोग?”

“तुम सचमुच जाति से बढ़ कर नहीं सोच सकते?”

“मुझे भविष्य में एक इतिहासकार बनना है, राजनीति में जाना है.”

“उस के लिए इतना पढ़ने की क्या ज़रूरत है?” सहर के इतना कहते ही सब हंस पड़े. सब के और्डर सर्व हो चुके थे, सब खानेपीने लगे. सब जानते थे कि ओनीर को सहर पसंद है पर सहर के पेरैंट्स में से कोई तो मुसलिम है, ओनीर इसलिए कुछ आगे नहीं बढ़ता है. बस, इतना ही पता था सब को. और यही सच भी था.

सहर ने नींबूपानी का एक घूंट भरते हुए कहा, “कोई हिन्दू, कोई मुसलिम,कोई ईसाई है, सब ने इंसान न बनने की कसम खाई है.” सहर की गंभीर आवाज़ पर कुछ सैकंड्स के लिए सन्नाटा हो गया.

ओनीर ने जलीकटी टोन में कहा, “बस, इसी से सब चुप हो जाते हैं, तुम्हें पता है.”

सहर ने कहा, “ओनीर, वैसे तो तुम्हारा अपना सोचने का ढंग है पर मेरे खयाल से एक दोस्त की हैसियत से यह ज़रूर कहना चाहूंगी कि हम आज जहां बैठे हैं, हमारे और उन नफरत फ़ैलाने वाले लोगों में कुछ फर्क तो होना ही चाहिए न? तुम वही भाषा बोलते हो जो एक समझदार इंसान को नहीं बोलनी चाहिए.”

“जो दिख रहा है, वही तो बोलता हूं.”

“नहीं, जो दिख रहा है, वह ज़्यादातर मनगढ़ंत है, सही नहीं है. दूसरे स्किल की तरह हमें अब फैक्ट चैकिंग की स्किल भी डैवलप करनी चाहिए. तलाशना होगा कि क्या सच है और क्या झूठ. मैं ने तो पढ़ा है कि फ़िनलैंड और कुछ देशों में तो स्कूली कोर्स में आजकल फैक्ट चीकिंग पढ़ाई जा रही है. हमारे यहां भी यह कोर्स शुरू होना चाहिए क्योंकि अब इनफौर्मेशन कई जगहों से आ रही है और उसे बीच में कोई चैक करने वाला नहीं है. पहले मीडिया हमारे लिए यह काम करता था, पर अब तो बीच में मीडिया भी नहीं है.”

“यह सब तुम मुझे क्यों सुना रही हो?”

‘लव औल’ : राजनीतिज्ञों पर कुठाराघाट के साथ खेल, भावना की बात करती शिक्षाप्रद फिल्म

रेटिंग- पांच में से साढ़े तीन स्टार

निर्माता, लेखक व निर्देशक- सुधांशु शर्मा

कलाकार- के के मेनन, स्वास्तिका मुखर्जी, श्रीस्वरा, सुमित अरोड़ा, दीप रांभिया, मजेल व्यास, अतुल श्रीवास्तव और 200 राष्ट्रीयअंतर्राष्ट्रीय बैडमिंटन खिलाड़ी

बाल कलाकार- आर्क जैन व कबीर वर्मा

अवधि- 2 घंटे 11 मिनट

प्रदर्शन- एक सितंबर से सिनेमाघरों में

खेल, खेल के मैदान, खेल व राजनीति को ले कर कई फिल्में बन चुकी हैं. कई खिलाड़ियों पर बायोपिक फिल्में भी बन रही हैं. मगर इन में से ज्यादातर फिल्में दर्शकों के बीच अपनी जगह बनाने में बुरी तरह से असफल रही हैं. अब लेखक, निर्देशक व निर्माता सुधांशु शर्मा बैडमिंटन खेल को केंद्र में रख कर खेलभावना की बात करने वाली यथार्थपरक फिल्म ‘औल लव’ ले कर आए हैं, जिस में बाल मनोविज्ञान की समझ के साथ दृश्यों को पिरोने के अलावा राजनीतिज्ञों पर कुठाराघाट किया है.

फिल्म ‘औल लव’ एक ऐसी शिक्षाप्रद फिल्म है जिसे हर बच्चे के साथ ही हर मातापिता को देखनी चाहिए. बैडमिंटन की पृष्ठभूमि में पितापुत्र की भावुक कहानी दर्शकों के लिए जश्न ही है. यह फिल्म एक सितंबर को हिंदी के साथ ही उड़िया, बांग्ला, तमिल, तेलुगू, कन्नड़ व मलयालम भाषाओं में प्रदर्शित हुई है.

कहानी

फिल्म ‘लव औल’ की कहानी के केंद्र में भोपाल निवासी सिद्धार्थ शर्मा (के के मेनन), उन का 13 वर्षीय बेटा आदित्य शर्मा (अर्क जैन) व बैडमिंटन का खेल है. एक छोटे शहर के स्कूल में पढ़ने वाले लड़के सिद्धार्थ शर्मा (दीप रंभिया) की कहानी उस के पिता की मृत्यु के बाद रेलवे की नौकरी से जुड़े कुछ लाभों में से एक के रूप में उस की मां को दिए गए रेलवे के एक जर्जर क्वार्टर से शुरू होती है. सिद्धार्थ के पास सामान्य साधनों की कमी है. पर उसे एक होनहार बैडमिंटन खिलाड़ी बनना रोमांचकारी लगता है. बैडमिंटन खेल में उस की महारत देख शहर के सभी खेलप्रेमी उसे भविष्य के चैंपियन के रूप में देखते हैं. सिद्धार्थ की स्कूल की दोस्त व प्रेमिका सोमा (मजेल व्यास) और जिगरी दोस्त विजू (आलम खान) उस का हौसला बढ़ाते रहते हैं. मगर नियति की योजनाएं अलग थीं. खेल जगत से जुड़ी एक राजनीतिक हस्ती के गुर्गे एक रात सोमा के ही सामने सिद्धार्थ को ऐसी चोट पहुंचाते हैं कि सिद्धार्थ खेल से बाहर हो जाता है, क्योंकि उस की चोट के लिए आवश्यक औपरेशन का बिल भरने में उस की मां सक्षम नहीं होती है. एक खिलाड़ी सिद्धार्थ आखिरकार खेल की राजनीति के आगे झुक जाता है और सामान्य जीवन जीने के लिए शहर से दूर जा कर रेलवे में एक छोटी सी नौकरी कर लेता है उस खेल से बहुत दूर, जिस से वह कभी अलग नहीं हुआ करता था.

एक दिन सिद्धार्थ शर्मा (के के मेनन) माहिर मैकेनिक बन जाता है. वह जया (श्रीस्वरा) से विवाह कर लेता है और आदित्य (अर्क जैन) का पिता बन जाता हैं. जब आदित्य 13 वर्ष का होता है तब सिद्धार्थ का तबादला भोपाल हो जाता है. पता चलता है कि सोमा (स्वास्तिका मुखर्जी) ने शादी कर ली है और स्कूल में शिक्षक है. सिद्धार्थ के दोस्त विजू (सुमित अरोड़ा) ने स्पोर्टस के सामान की बिकी की दुकान ‘चैंपियन स्पोर्टस शौप’ के नाम से खोली है, जिस पर सिद्धार्थ की ही तसवीर लगा रखी है.

सिद्धार्थ एक दिन फिर से खुद को उन्हीं लोगों व उसी बैडमिंटन खेल से जुड़ा पाता है जिन से वह दूर भाग रहा था. सिद्धार्थ के न चाहते हुए भी उस का बेटा आदित्य बैडमिंटन खिलाड़ी बनता है और फिर सोमा व वीजू की सलाह पर सिद्धार्थ अपने बेटे आदित्य को बैडमिंटन की ट्रेनिंग भी देता है.

आखिरकार, अब राष्ट्रीयय जूनियर बैडमिंटन चैंपियनशिप में आदित्य का मुकाबला उसी राजनेता के पोते शौर्य प्रताप (कबीर वर्मा) से होता है जिस की वजह से कभी सिद्धार्थ को खेल से बाहर होना पड़ा था. एक बार फिर राजनेता अपनी चाल चलता है. अब सवाल है कि जीत किस की होगी?

लेखन व निर्देशन

खेल व राजनीति का चोलीदामन का साथ है. कम से कम भारत देश में हर खेल राजनीतिज्ञों के हाथों में सिमटा हुआ है. हर खेल से जुड़े संगठनों पर सत्तापक्ष आसीन है. इसलिए भी खेल व राजनीति फिल्मकारों को अपनी तरफ आकर्षित करती रही है. मगर अब तक खेल पर बनी फ़िल्में यथार्थ यानी सच को दिखलाने में बुरी तरह से असफल रही हैं. हर फिल्म में नाटकीयता ही हावी रही है. मगर लेखक सुधांशु शर्मा ने एक बेहतरीन पटकथा वाली फिल्म बनाई है. फिल्म इमोशनल व शिक्षाप्रद होने के साथ ही राजनीतिज्ञों पर जबरदस्त तरीके से कुठाराघाट करती है. मगर इस के लिए लेखक व निर्देशक ने जबरन उत्तेजक संवाद या भाषणबाजी नहीं परोसी है.

राजनेता कभी भी आम जनता के सामने अपनी बांहें नहीं समेटता, वह तो राजनीतिक चाल चलते हुए अपने गुर्गो के माध्यम से खेल करवा कर अपनी इच्छा पूरी करता है. इसे एकदम सटीक अंदाज में सुधांशु शर्मा ने फिल्म ‘लव औल’ में चित्रित किया है.

इंटरवल से पहले फिल्म की गति धीमी है. मगर इंटरवल के बाद फिल्म तेज गति से खेल के रोमांच के साथ आगे बढ़ती है. फिल्म का क्लाइमैक्स अद्भुत है. अमूमन हर फिल्मकार अपनी फिल्मों में अपने किरदारों की बेबसी या राजनीतिज्ञों के कारनामों के सामने आम जनता को बेबस अथवा आंदोलन करते हुए चित्रित करते रहे हैं मगर इस फिल्मकार ने ऐसा कुछ भी नहीं दिखाया. फिल्म में कहीं कोई भाषणबाजी या लंबेलंबे संवाद नहीं हैं. मगर फिल्म बहुतकुछ कह जाती है.

हम लगभग हर फिल्म में देखते हैं कि जब एक पुरुष देखता है कि उस की पत्नी या बेटा अच्छा या बुरा किसी भी काम को उस की इच्छा के विपरीत कर रहा है तो वह अपना आपा खो कर गुस्सा प्रकट करता है. लोगों के सामने ही बेटे की पिटाई करता है. लेकिन इस फिल्मकार ने इस फिल्म में ऐसा कुछ नहीं दिखाया.

फिल्म में एक दृश्य है, जब सिद्धार्थ को पता चलता है कि उस का बेटा उस की इच्छा के विपरीत बैडमिंटन खेल रहा है तो वह अपने बेटे आदित्य को पकड़ कर वहां से चुपचाप ले आता है. घर पहुंचने पर वह पत्नी जया पर भी चिल्लाता नहीं है. लेकिन इस से आदित्य व जया के अंदर जो डर पैदा होता है वह दृश्य अपनेआप में बहुतकुछ कह जाता है. वह दृश्य बहुत बड़ी सीख बच्चे से ले कर बूढ़े तक को दे जाता है.

पूरी फिल्म देख कर एहसास होता है कि फिल्मकार को बाल मनोविज्ञान की बेहतरीन समझ है, तो वहीं उस ने बैडमिंटन के खेल को भी बड़ी शिद्दत से पेश किया है.

फिल्मकार सुधांशु शर्मा राजनेता के किरदार और खेल में राजनीतिक दखलंदाजी को पेश करते समय कंजूसी बरत गए.

फिल्म के कुछ संवाद काफी अच्छे बन पड़े हैं, मसलन ‘जिंदगी के रंग अब कपड़ों में ही रह गए हैं’; ‘खेल का मैदान बच्चों को बेहतरीन इंसान बनाता है’; ‘सब से बड़ा मैच होता है एक ऐसा युद्ध, जिसे खिलाड़ी को भी अपने ही विरुद्ध लड़ कर जीतना पड़ता है’; ‘किसी को घायल कर के जीतना, उस की खुशी मनाना असली खेल नहीं होता है’ आदि. इस के अलावा फिल्मकार ने बड़ी सूझबूझ के साथ सभी गीतों को पृष्ठभूमि में रखा है.

अभिनय

युवा सिद्धार्थ शर्मा और युवा सोमा के छोटे किरदारों में क्रमशः दीप रंभिया और मजेल व्यास अपनी छाप छोड़ जाते हैं. खेल को अपनी जिंदगी के दुखों के लिए सर्वाधिक दोषी मानते हुए भी अंत तक खेलभावना का समर्थन करने वाले सिद्धार्थ के किरदार में अभिनेता के के मेनन का अभिनय शानदार है. उन्होंने एक बार फिर साबित कर दिखाया कि वे हर किरदार में अपने अभिनय से जान फूंक सकते हैं. वहीं, आदित्य के किरदार में अर्क जैन ने एक कुशल व अनुभवी अभिनेता के साथ ही कुशल बैडमिंटन खिलाड़ी के रूप में खुद को पेश किया है. शौर्य प्रताप के छोटे किरदार में बाल कलाकार कबीर वर्मा ने साबित किया कि उस के अंदर बेहतरीन कलाकार बनने की संभावनाएं हैं. अतुल श्रीवास्तव, स्वास्तिका मुखर्जी, श्रीस्वरा दुबे के हिस्से में करने को कुछ खास आया नही. सिद्धार्थ के दोस्त विजू के किरदार में सुमित अरोड़ा ठीकठाक ही रहे.

R Madhavan को केंद्र सरकार ने सौंपी बड़ी जिम्मेदारी, बने FTII के नए अध्यक्ष

R Madhavan FTII President : बॉलीवुड से लेकर साउथ फिल्म इंडस्ट्री तक में अपनी एक्टिंग के दम पर अपनी पहचान बनाने वाले एक्टर आर माधवन (R Madhavan) के करोड़ों चाहने वाले हैं. उन्होंने अपनी मेहनत और काम के प्रति अपने समर्पण से लोगों के दिलों में जगह बनाई हैं. अब एक्टर आर माधवन के फैंस के लिए एक बड़ी खुशखबरी है.

दरअसल आर माधवन (R Madhavan FTII President) को केंद्र सरकार ने एक बड़ी जिम्मेदारी सौंपी है. इसकी जानकारी खुद केंद्रीय सूचना प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने ट्वीट कर दी है. उन्होंने ट्वीट कर बताया कि, ‘आर माधवन को भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान (एफटीआईआई) का अध्यक्ष और गवर्निंग काउंसिल का अध्यक्ष बनाया गया है.’ आपको बता दें कि एक्टर आर माधवन से पहले एफटीआईआई के अध्यक्ष पद पर शेखर कपूर कार्यरत थे.

अनुराग ठाकुर ने एक्टर को दी बधाई

आपको बता दें कि 1 सितंबर को अपने ट्विटर हैंडल पर केंद्रीय सूचना प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने ट्विट कर आर माधवन (R Madhavan FTII President) को बधाई दी. उन्होंने लिखा, ”आर माधवन को एफटीआईआई और गवर्निंग काउंसिल के अध्यक्ष मनोनीत होने पर हार्दिक बधाई. मुझे यकीन है कि आपका विशाल अनुभव और मजबूत नैतिकता इस संस्थान को समृद्ध करेगी, सकारात्मक बदलाव लाएगी और इसे उच्च स्तर पर लेकर जाएगी. मेरी शुभकामनाएं आपके साथ हैं.”

मंत्री अनुराग ठाकुर के इस ट्वीट के बाद लोगों ने आर माधवन को बधाई देने का सिलसिला शुरू कर दिया.

आर माधवन को लगातार मिल रही हैं खुशखबरी

आपको बताते चलें कि इससे पहले 14 जुलाई 2023 को अभिनेता आर माधवन फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रॉन द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सम्मान समारोह में आयोजित डिनर में भी शामिल हुए थे. वहीं बीते दिनों उनकी फिल्म ‘रॉकेट्रीः द नांबी इफेक्ट’ ने नेशनल फिल्म अवॉर्ड में बेस्ट फीचर फिल्म का पुरस्कार भी जीता था और अब उन्हें (R Madhavan FTII President) केंद्र सरकार ने एक बड़ी जिम्मेदारी सौंपी है. इस खबर से उनके फैंस बहुत खुश हैं.

कैप्टन नीरजा गुप्ता : भाग 2

उन्होंने मुझे देखा, तो तुरंत स्वागत के लिए उठे, ‘‘मैम, मैं कैप्टन रमनीक सिंह, यहां वर्कशौप अफसर हूं.’’ ‘‘मैं कैप्टन सूरज कुमार, आर्मी और डनैंसकोर, अफसर इंचार्ज टैक्निकल स्टोर सैक्शन.’’मैं ने अपना परिचय दिया, “कैप्टन नीरजा गुप्ता.” सभीने खुशी जाहिर की. बस, इतना ही परिचय हुआ. वे व्हिस्की पीने लगे और मैं ने अपने लिए वाइन मंगवाई.

‘‘कैप्टन नीरजा, बुरा न मानें, यहां वाइन नहींचलेगी. सर्दी बहुत है. व्हिस्की पिएं या रम,’’ कैप्टन रमनीक सिंह ने कहा. मैं ने वाइन का और्डर कैंसल कर के व्हिस्की लानेके लिए कहा. धीरेधीरे कर के मैं 2 पैग गटक गई. कैप्टन नसीर एहमद साहब थोड़ी देर से आए. वे नमाज पढ़ने गए थे. उन्होंने भी 2 पैग लिए. मुझ से केवल हाथ मिलाया और यह पूछा, “आप कल के इंटरव्यू के लिए तैयार हैं?”’ मैं ने कहा, ‘‘जी, सर.” डिनर मेरे लिए कमरे में आना था. मैं सभी को गुडनाइट कर के अपने कमरे में आ गई. पहले सोचा, घरमें बात कर लेती हूं. फिर विचार त्याग दिया. जबान लड़खड़ाएगी तो अच्छा नहीं लगेगा.

मैं ने कपड़ेबदले और बिस्तर पर लेट गई. सोचा, लेह में अपनी पुरानी यूनिट से बात करती हूं. फिर यह विचार भी छोड़ दिया.फौज की दोस्ती गेट तक होती है. यह किसी हद तक सब केलिए सत्य है. इस के कारणों का पता नहीं है. थोड़ी देरमें डिनर आया और मैं खा कर सो गई. रात को काफी देर बाद नींद आई. सुबह 6 बजे नांबियर चाय ले कर हाजिर हुआ.“जय हिंद मैम. उठिए गरमगरम चाय पिएं.”मैं उठी, मैं ने उस से पानी देने के लिए कहा.मैं ने 2 गिलास पानी पिया. फिर आराम से चाय पीने लगी. नांबियर ने गीजर औन कर दिया और चला गया. मैं फ्रैश हो कर, नहा कर बाहर आई. 8 बजे मेरे लिए नाश्ता आ गया था. डाइनिंग इन से पहले मैं मैस में बैठ कर नाश्तानहीं कर सकती थी.

नाश्ता कर के मैं यूनिफौर्म पहन कर तैयार हो गर्ह. 10 बजे बटालियन कमांडर से इंटरव्यू का समय था. मुझे 9 बजे कैप्टन नसीर साहब को रिपोर्ट करनी थी. कैप्टन नसीर साहब को ही बटालियन कमांडर साहब के पास मुझे लेकर जाना था. समय पर जीप आई और हम दोनों बटालियन के लिएचल दिए. ड्राइवर पिछली सीट पर बैठा. कैप्टन नसीर साहब मुझे गहरी नजरों से देख रहे थे. मैं ने सोचा, वेमेरी यूनिफौर्म चैक कर रहे हैं कि वह इंटरव्यू के लिए ठीक है या नहीं. फिर मुझे एहसास हुआ कि वे और कुछ देखने में लीन हैं. मेरी छठी इंद्रिय ने मुझे बता दिया था. मैं ने कहा, “कैप्टन नसीर, चलें.”उन्होंने कहा कुछ नहीं लेकिन गाड़ीस्टा र्ट की और तेजी से बटालियन की तरफ चल दिए. हमें वहां पहुंचने में आधा घंटा लग गया.

मेजर राम किशन साहब वहां के एडयूटैंट थे. उन्होंने इंटरव्यू रजिस्टर में एंट्ररी की और तुरंत बटालियन कमांडर ब्रिगेडियर चोपड़ा साहब के पास चले गए. मुझे कमरे के बाहर खड़े कर गए, कहा, “जब मैं अंदर आने के लिए कहूं, तब अंदर मार्च करना. वैसे कमांडर साहब बहुत कमबात करते हैं.” ‘‘सर.’’ मैं चुपचाप खड़ी हो गई. थोड़ीदेर में बुलावा आया. मैं तुरंत अंदर गई. स्मार्ट सैल्यूट किया. वे अपनी कुरसी से उठ कर आए, हाथ मिलाया, कहा, “हेलो, यंग लेडी. आप का इस बटालियन में स्वागत है. यहां के टेनोयर के लिए शुभकामनाएं. मेजर राम किशन साहब मार्च करें.” मैं सैल्यूट कर के बाहर आ गई. कैप्टन नसीर मेरे साथ चलने लगा. मेजर राम किशन ने कहा, “नसीर, आप गाड़ी में बैठें. मुझे नीरजा को कुछ इंस्ट्रक्शन देन है.”

मेजर साहब ने मुझे बैठाया और कहा, ‘‘पतानहीं, आप को इस गधे नसीर के साथ क्यों भेजा गया है.यह बहुत बदनाम और ऐयाश आदमी है. मैं अभी इस को आप के साथ नहीं भेजूंगा. वैसे, यह 2 दिन में पोस्टिंग चला जाएगा. आप का इंतजार हो रहा था.’’उन्होंने कैप्टन नसीर को बुलाया, कहा, “नसीर, आपयूनिट में चले जाएं, कैप्टन नीरजा दोपहर लंच के बाद आएंगी. हम गाड़ी में भेज देंगे.”‘‘ठीक है, सर.’’कैप्टन नसीर गया, तो मैं ने कहा, “मैं सुबह जबआ रही थी, मुझे लगा था कि नसीर मुझे सही नजरों से नहीं देख रहा है. मेरी छठी इंद्रिय ऐक्टिव हो गई थी. मन ने सोच लिया था कि अगर कुछ कहा तो मैं थप्पड़ मारने से पीछे नहीं हटूंगी.‘‘बिलकुल यही करना है. 2 दिनों से ज्यादा यहां नहीं रहेगा. मैं ने आप के कमांडर साहब से कह दिया है और साथ में डांटा कि नसीर के साथ नीरजा को क्यों भेजा. 2 दिन में कैप्टन नीरजा के पास यह आदमी नहीं जाना चाहिए. इस ने कमांडर साहब की वाइफ को छेड़ दिया था. अभी कमांडर साहब ने आप के साथ देखा, तो मुझे आप को लंच के बाद भेजने का इंस्ट्रक्शन दिया.’’“थैंक्स, सर,” मैं ने कहा.‘‘नो नीड टू थैंक्स. इट्स अवर डयूटी.

मैं आप को अफसर मैस में छुडवा देता हूं. आप वहां केगेस्टरूम में रैस्ट करें. मैं मैस हवलदार कोइंस्ट्रक्शन दे दूंगा.’’ उन्होंने बाहर खड़े संतरी से कह कर अपनी गाड़ी मंगवाई और अफसर मैस भेज दिया. वहां के मै सहवलदार ने गेस्टरूम खोल दिया, पूछा, “क्या पीना पसंद करेंगी, मैडम?”’‘‘मुझे अच्छी चाय चाहिए. मैं तेज गरम पीतीहूं.’’“मैं अभी भिजवाता हूं.”थोड़ी देर बाद शानदार चाय आई. मन खुशहो गया. हृदय में यह विचार प्रखर था. अगर एक बरबाद करने वाला है तो 10 बचाने वाले भी हैं. नसीर जिस जाति से है, उस की वृत्ति ही ऐजासी की है. एक नहीं, 3-3 बीवियों से भी प्यास नहीं मिटती. मैं समझती हूं, यह केवल नसीर एहमद की वृत्ति नहीं है बल्कि हर पुरुष की यहीवृत्त है कि वह नारी को एक बार अजमाने की ट्राई जरूर करता है. उस की फितरत है कि वह नारी के समक्ष एकदम नंगा होजाता है, केवल उस की आंख का इशारा चाहिए होता है. परनारी को करप्ट करना आसान नहीं होता.

इस सत्य से पग पग परउसे सामना करना पडेगा, यह मैं जानती हूं. मैं जाने कब सो गई थी. लंच के समय मैस हवल दार ने जगाया. लंच किया और मेजर राम किशन साहब ने मुझे अपनी गाड़ी दे कर कर यूनिट में छुड़वा दिया. मुझे बताया गया कि यूनिट कमांडर का कल इंटरव्यू है. आजउन्हें काम से बाहर जाना पड़ रहा है. मेरे लिए अब कोई काम नहीं था. मैं ने यूनिफौर्म उतारी और पलंग परलेट गई.

कल से घर में बात नहीं की थी. मैं ने घर में फोन लगाया. सब से बात की, बताया कि अपनी नई यूनिट में श्रीनगर पहुंच गई हूं. सब ने बधाई और शुभकामनाएं दीं. मैं ने मम्मीपापा के लिए सेना अस्पताल से इलाज करवाने के लिए अथौरिटी लैटर भिजवा दिया था. जो दवाइयां हजारों रुपया लगा कर बाजार से खरीदनी पड़ती थीं, वे फ्री मिलने लगीं. वे दोनों आशीर्वाद देते थकते नहीं थे.

कल कमांडिंग अफसर कर्नल देवव्रत का इंटरव्यू हुआ. वे जैंटल और अच्छे थे. उन्होंने न केवल अपने बारे में बताया बल्कि सब अफसरों के बारे में बताया. कैप्टन नसीर एहमद के बारे में भी बताया कि वे आप को अब कभी नहीं मिलेंगे. आप उन की जगह कंपनी कमांडर का चार्ज लेंगी. आप के पास नसीर का हैंडिंग टेकिंग ओवर सर्टिफिकेट आ जाएगा. आप को चुपचाप साइन कर देना है.

कल से आप कंपनी औफिस में बैठेंगी. मैं ने थैंकस कहा और सैल्यूट कर के बाहर आगई. शाम को डाइनिंग इन पार्टी थी. सिविल के 3 पीसड्रैस पहनना था.

छत : भाग 2

‘‘यह खोली मैं ने 8 हजार रुपए पगड़ी पर ली थी और 100 रुपए महीना किराया देता हूं. फिलहाल कोई भी मुझे इस के 10 से 15 हजार रुपए दे सकता है, परंतु यदि तुम्हें जरूरत हो तो मैं केवल 8 हजार रुपए ही लूंगा. यदि लेना हो तो मुझे 10-12 दिन में उत्तर दे देना.’’

‘8 हजार रुपए’ मित्र की बात सुन कर शकील सोच में पड़ गया था, ‘मेरे पास इतने रुपए कहां से आएंगे… फिलहाल तो मुश्किल से 2 हजार रुपए होंगे मेरे पास. यदि कमरा लेना तय भी किया तो बाकी 6 हजार रुपए का प्रबंध कहां से होगा.’

उस के बाद 2 दिन की छुट्टी ले कर वह घर गया तो दीबा ने उस से पहला प्रश्न यही किया था, ‘‘क्या कमरे का कोई प्रबंध किया?’’

‘‘देखा तो है, परंतु पगड़ी 8 हजार रुपए है. 10-12 दिन में 6 हजार रुपए का प्रबंध संभव भी नहीं है.’’

उस की बात सुन कर दीबा का चेहरा उतर गया था.

बहुत देर सोचने के बाद दीबा ने उस से कहा था, ‘‘क्यों जी, मुझे जो विवाह में अपने मायके से सोने के बुंदे मिले थे, यदि हम उन्हें बेच दें तो 6 हजार रुपए तो आ ही जाएंगे और इस तरह हमारे लिए कमरे का प्रबंध हो जाएगा.’’

‘‘तुम पागल तो नहीं हो गई हो. कमरा लेने के लिए मैं तुम्हारे बुंदे बेचूं… यह मुझ से नहीं हो सकता. फिर तुम्हारे घर वाले मुझ से या तुम से पूछेंगे कि बुंदों का क्या हुआ तो क्या जवाब दोगी?’’

‘‘वह मुझ पर छोड़ दीजिए, मैं उन्हें समझा दूंगी. यदि उन के कारण हमारी कोई समस्या हल हो सकती है तो हमारे लिए इस से बढ़ कर और क्या बात हो सकती है. देखिए, जो परिस्थितियां हैं, उन को देखते हुए हम कभी मुंबई में अपने लिए किराए के एक कमरे का भी प्रबंध नहीं कर पाएंगे. तो क्या आप सारा जीवन अपने मित्रों के साथ एक कमरे में सामूहिक रूप से रह कर गुजार देंगे? जीवन भर होटलों का बदमजा खाना खा कर जीएंगे? जीवन भर आप अकेले मुंबई में रहेंगे? हमारे जीवन में महीने दो महीने में एकदो दिन के लिए मिलना ही लिखा रहेगा?’’ दीबा ने डबडबाई आंखों से पति की ओर देखा.

दीबा की किसी भी बात का वह उत्तर नहीं दे पाया था. सचमुच जो परिस्थितियां थीं, उन से तो ऐसा लगता था कि उन का जीवन इसी तरह से चलता रहेगा. कभीकभी उसे अम्मी और घर वालों पर बहुत क्रोध आता था.

‘‘मैं बारबार कहता था कि जब तक मुबंई में एक कमरे का प्रबंध न कर लूं, विवाह के बारे में सोच भी नहीं सकता, परंतु उन्हें तो मेरे विवाह का बड़ा अरमान था. इस विवाह से उन्हें क्या मिला? उन का केवल एक अरमान पूरा हुआ, परंतु मेरे लिए तो जीवन भर का रोग बन गया.’’

वह डिगरी ले कर मुबंई आया था. उस समय भी मुबंई में नौकरी मिलना इतना आसान नहीं था. परंतु उसे अपने ही शहर के कुछ मित्र मिल गए, उन्हीं ने उस के लिए प्रयत्न और मार्गदर्शन किया, कुछ उस की योग्यताएं भी काम आईं. उसे एक निजी कंपनी में नौकरी मिल गई. वेतन कम था, परंतु आगे बढ़ने की आशा थी और काम उस की रुचि का था.

उस के बाद उस का जीवन उसी तरह गुजरने लगा, जिस तरह मुबंई का हर व्यक्ति जीता है. उस के मित्रों ने कुर्ला में एक छोटा सा कमरा ले रखा था. उस छोटे से कमरे में वे 5 मित्र मिल कर रहते थे. वह छठा उन में शामिल हुआ था.

कमरा थोड़ी देर आराम करने और सोने के ही काम आता था क्योंकि सभी सवेरे से ही अपनेअपने काम पर निकल जाते थे और रात को ही वापस आते थे.

सभी होटल के खाने पर दिन गुजारते थे. कभीकभी मन में आ गया तो छुट्टी के किसी दिन हाथ से खाना पका कर उस का आनंद ले लिया. बहुत कंजूसी करने के बाद वह घर केवल 200 या 300 रुपए भेज पाता था.

जब भी वह घर जाता, घर वाले उस पर विवाह के लिए दबाव डालते. उन के इस दबाव से वह झल्ला उठता था, ‘‘यह सच है कि मेरे विवाह की उम्र हो गई है और आप लोगों को मेरे विवाह का भी बहुत अरमान है. मैं नौकरी भी करने लग गया हूं, परंतु मैं विवाह कर के क्या करूंगा. अभी मुबंई में मेरे पास सिर छिपाने का ठिकाना नहीं है. विवाह के बाद पत्नी को कहां रखूंगा? फिर मुबंई में इतनी आसानी से मकान नहीं मिलता है, उस पर मुबंई के खर्चे इतने अधिक हैं कि विवाह के बाद मुझे जो वेतन मिलता है, उस में मेरा और मेरी पत्नी का गुजारा मुश्किल से होगा. मैं आप लोगों को एक पैसा भी नहीं भेज पाऊंगा.’’

चीतों की तड़ातड़ मौतें

पिछले साल 17 सितंबर को टीवी चैनलों, अखबारों, फेसबुक, ट्विटर पर सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की खबर सुर्खियों में थी. उस दिन उन का जन्मदिन भी था, मगर उस से बड़ी खबर यह थी कि उस दिन मध्य प्रदेश स्थित कूना अभयारण्य में उन्होंने एक मचान पर खड़े हो कर नामीबिया से लाए गए चीते स्वयं पिंजड़े से बाड़े में छोड़े थे और उस के बाद प्रोफैशनल कैमरे से उन चीतों के फोटोग्राफ्स खींचे थे.

6 चीते नामीबिया से भारत हवाई मार्ग द्वारा लाए गए थे. 9 हजार किलोमीटर के सफर के दौरान चीते करीब 10 घंटे तक पिंजड़े में रहे. इस से पहले वे 30 दिनों तक नामीबिया में क्वारंटीन रहे और भारत आने के बाद उन्हें 50 दिनों तक क्वारंटीन में रखा गया. करीब 80 दिन कैद में रहने के बाद इन 6 चीतों में से 2 को प्रधानमंत्री मोदी के हाथों अभयारण्य में छुड़वाया गया.

गौरतलब है कि मोदी सरकार की महत्त्वाकांक्षी चीता परियोजना के तहत इस से पहले भी कई बार कूनो अभयारण्य में चीते ला कर छोड़े गए हैं, इस बात की जांचपरख किए बगैर कि भारत की आबोहवा चीतों को रास आएगी या नहीं या यहां उन के रहने की ठीक व्यवस्था है या नहीं. नतीजा जितना बड़ा इवैंट उतना बड़ा फैल्योर. कूनो में अब तक 9 चीतों की मौतें हो चुकी हैं. एक के बाद एक चीते अकाल मौत के मुंह में समाते जा रहे हैं और विशेषज्ञ इन की मौत की वजहें तक नहीं पता कर पा रहे हैं.

सितंबर 2022 के बाद ‘प्रोजैक्ट चीता’ के तहत फरवरी 2023 में फिर दक्षिण अफ्रीका के हिंडनबर्ग पार्क से 7 नर और 5 मादा चीतों को वायुसेना के विमान से लाया गया. इस के बाद कूनों में मादा चीते ने 4 शावकों को भी जन्म दिया. जिन में से 3 की अब मौत हो चुकी है.

17 सितंबर को ही जब चीतों को प्रधानमंत्री मोदी के हाथों कूनो अभयारण्य में छोड़ा गया था तब दोनों चीते इतने डरेसहमे थे कि पिंजड़े से निकाल कर बड़े बाड़े में छोड़े जाने के बावजूद उन में कोई उत्साह नजर नहीं आ रहा था. करीब एक घंटे तक दुम दबाए वे इधर से उधर छिपने की कोशिश करते रहे. छोड़े जाने के 3 घंटे बाद जा कर उन्होंने थोड़ा सा पानी पिया और कुछ खाया. हालांकि अपने हाथों पिंजड़े का ढक्कन खोल कर चीतों को अभयारण्य में मुक्त करने के बाद प्रधानमंत्री मोदी काफी खुश थे. चीते छोड़े जाने का वीडियो शेयर करते हुए प्रधानमंत्री ने ट्वीट किया था- ‘ग्रेट न्यूज. अनिवार्य क्वारंटीन के बाद 2 चीतों को अनुकूलन के लिए कूनो अभयारण्य के बड़े बाड़े में छोड़ दिया गया है. अन्य को भी जल्द ही छोड़ा जाएगा. मु   झे यह जान कर भी खुशी हुई कि सभी चीते स्वस्थ, सक्रिय और अच्छी तरह से समायोजित हो रहे हैं.’

कितना बड़ा    झूठ! चीतों की तड़ातड़ हो रही मौतों ने प्रधानमंत्री के वक्तव्य की धज्जियां उड़ा दी हैं. चीतों के मरने से पशुप्रेमियों में गहरी नाराजगी है तो वहीं नामीबिया के पशु चिकित्सक इस बात से हैरान हैं कि भारतीय वनाधिकारी और डाक्टर न तो उन से सहयोग कर रहे हैं और न ही उन्हें चीतों के बारे में ठीक जानकारियां उपलब्ध करा रहे हैं.

देखरेख में लापरवाही

क्या भारत का वातावरण चीतों के अनुकूल है? क्या यहां के तापमान को वे सहन कर पा रहे हैं? क्या यहां उन की ठीक से देखभाल और निगरानी हो रही है? क्या उन को इन अभयारण्यों में भोजनपानी मिल रहा है? क्या बीमार होने पर उन का इलाज हो रहा है? क्या वे स्वयं शिकार कर पा रहे हैं? क्या अपने क्षेत्र से उजाड़ कर नए क्षेत्र में बसाए गए ये जीव यहां सचमुच खुश हैं? क्या हमारे पशु डाक्टर और वनाधिकारी इतने योग्य और सक्षम हैं कि वे इन जानवरों को हो रही समस्याओं को सम   झ सकें और उन का समाधान कर सकें? 9 चीतों की मौत के बाद ये सवाल अब हर तरफ से उठ रहे हैं. पूछा जा रहा है कि इन मौतों का जिम्मेदार कौन है?

जिस तरह से चीते अकाल मौत का शिकार हो रहे हैं, उस से तो साफ है कि वन अधिकारियों और यहां के डाक्टरों को चीतों के प्राकृतिक व्यवहार का कतई ज्ञान नहीं है. यही वजह है कि एकएक कर 6 वयस्क चीते और उन के 3 शावक महज 5 महीने के भीतर ही मर गए और जिम्मेदार उन की मौतों का वास्तविक कारण तक नहीं बता पा रहे हैं.

कुछ रहस्य जो कूनो से छनछन कर बाहर आ रहे हैं, उन के मुताबिक, चीतों को जो कौलर आईडी पहनाए गए हैं उन से उन में संक्रमण फैल रहा है. वहीं केंद्रीय वनमंत्री भूपेंद्र यादव कहते हैं कि चीतों की मौत का मुख्य कारण कोई बीमारी नहीं, बल्कि जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाला संक्रमण है. चूंकि नामीबिया और श्योपुर की जलवायु अलगअलग है और पहला वर्ष होने के कारण उन्हें वहां के वातावरण में ढलने में कठिनाई आ रही है.

मंत्रीजी से यह पूछा जाना चाहिए कि जब उन्हें पता था कि नामीबिया और श्योपुर की जलवायु अलग है और चीते यहां के वातावरण में एडजस्ट नहीं हो पाएंगे तो उन्हें यहां लाया ही क्यों गया? क्या उन को मारने के लिए?

एक अधिकारी का कहना है कि मादा चीता के बच्चों की देखरेख में घोर लापरवाही बरती गई. जब शावकों का वजन घट कर मात्र 40 प्रतिशत रह गया और वे बुरी तरह कमजोर व शिथिल हो गए तब जा कर वन अधिकारियों और डाक्टरों को उन का इलाज करने का खयाल आया. मगर तब तक 3 नन्हे शावक मौत के मुंह में समा गए और बचे हुए एक शावक की हालत भी कोई खास अच्छी नहीं है.

दरअसल चीता ऐसा जीव है जिस के शावकों को पर्याप्त भोजन और अनुकूल वातावरण की जरूरत होती है. मगर कूनो में उन को ठीक भोजनपानी नहीं मिला, जो उन की मौत का कारण बना.

कूनो में मादा चीता दक्षा ने भी दम तोड़ दिया है. वजह यह कि जोड़ा बनाने और प्रजनन कराने के लिए उसे 2 नर चीताओं के साथ छोड़ दिया गया. आपसी संघर्ष में दक्षा की मौत हो गई. एक मादा के पीछे दोदो नर चीता छोड़ने वाले वन अधिकारियों को तो नौकरी से बर्खास्त कर दिया जाना चाहिए. पशुपक्षी से ले कर मानव जाति तक में एक मादा के पीछे अगर 2 नर हैं तो आपसी संघर्ष निश्चित है जिस में कोई न कोई मारा जाएगा. क्या यह साधारण सी बात भारतीय वन अधिकारियों को नहीं मालूम? मूक जानवर अपने साथ हो रही इस हिंसा और अन्याय की गवाही नहीं दे सकते, इसलिए उन की मौत के जिम्मेदार आराम से नौकरी कर रहे हैं.

अय्याश राजाओं के शौक

इन सब स्पष्ट कारणों के चलते ही नामीबिया से आए विशेषज्ञ चिकित्सक तक सचाई न पहुंच जाए, इसलिए उन के साथ भारतीय वन अधिकारी असहयोग का रवैया इख्तियार किए हुए हैं. यही नहीं, बल्कि अब तो वे चीतों की मौत पर उलटे नामीबिया सरकार पर ही दोषारोपण कर रहे हैं कि नामीबियाई चीते भारत आने से पहले से ही बीमार थे और नामीबिया ने भारत को उन की बीमारी को ले कर कोई जानकारी नहीं दी. अब कूनो में 14 चीते बचे हैं, जिन में 7 नर, 6 मादा और एक शावक हैं.

उल्लेखनीय है कि जब तक भारत में वन क्षेत्र अधिक रहा, यहां चीतों, तेंदुओं और शेरों की पर्याप्त संख्या बनी रही. इन्हें घूमने और अपना शिकार ढूंढ़ने में परेशानी नहीं हुई. लेकिन वन क्षेत्रों के बहुत तेजी से कम होते जाने का असर इन पर पड़ा और शिकार की कमी व अन्य कारणों से ये खत्म होते गए या जंगल से बाहरी बस्तियों में आने पर मनुष्य द्वारा मार दिए गए.

भारत के विभिन्न कोनों में कभी चीते की एक मजबूत आबादी थी. मगर राजामहाराजाओं के वक्त चलने वाले बेरोकटोक शिकार ने चीतों को विलुप्ति की कगार पर पहुंचा दिया. चीतों को मार कर उन की खाल में भूसा भरवा कर अपने ड्राइंगरूम की शोभा बढ़ाने के शौक ने प्रकृति के इस खूबसूरत प्राणी का लगभग अंत कर दिया. देश में आखिरी बचे 3 चीतों को छत्तीसगढ़ स्थित कोरिया के महाराज रामानुज प्रताप सिंह देव ने वर्ष 1947 में शिकार कर खत्म कर दिया. इस के बाद देश से चीतों का नामोनिशान मिट गया. 1952 में भारत सरकार ने आधिकारिक तौर पर चीतों को विलुप्त प्रजाति घोषित कर दिया.

समस्या बदलते वातावरण की

आज दुनियाभर में चीतों की संख्या महज 7,000 ही बची है, जिस में से आधे से ज्यादा चीते दक्षिण अफ्रीका, नामीबिया और बोत्सवाना में हैं. ईरान में भी एशियाई चीते हैं, लेकिन वहां उन की संख्या 100 के आसपास ही है.

विदेशों से चीतों को भारत लाए जाने का आइडिया सब से पहले वर्ष 1972 में मध्य प्रदेश के आईएएस अफसर एम के रंजीत ने दिया था. रंजीत 1961 बैच के आईएएस थे. उन्होंने ही इस महत्त्वाकांक्षी चीता प्रोजैक्ट का पहला ड्राफ्ट भी तैयार किया था और उन के समय में ईरान से चीतों को लाने का एक एग्रीमैंट इस शर्त पर साइन हुआ था कि उस के बदले में भारत ईरान को शेर देगा. मगर फिर 1975 में आपातकाल लग गया और यह प्रोजैक्ट ठंडे बस्ते में चला गया.

इस के बाद कई प्रयास हुए मगर सफल नहीं रहे. फिर 2009 में ‘भारत में अफ्रीकी चीता परिचय परियोजना’ का जन्म हुआ. लेकिन इस परियोजना पर भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने रोक लगा दी. सरकार की लगातार कोशिशों के चलते आखिरकार 2021 में उच्चतम न्यायालय ने नामीबिया से चीतों को लाए जाने की अनुमति दी. चीता पुनर्वास परियोजना के लिए ‘प्रोजैक्ट टाइगर’ के अंतर्गत वर्ष 2021- 22 से 2025-26 तक के लिए भारत सरकार द्वारा 38 करोड़ 70 लाख रुपए की राशि आवंटित की गई है और कूनो-पालपुर वन्यजीव अभयारण्य को भारत का पहला चीता अभयारण्य नामित किया गया.

मोदी सरकार देश में चीतों को बसाने की कोशिशों के तहत अब तक दक्षिण अफ्रीका और नामीबिया से कुल 20 चीते मंगवा चुकी है और अगले 10 सालों में 100 चीते भारत लाए जाने की योजना है. लेकिन भारत के अभयारण्य में जिस तरह इन विदेशी अतिथियों की मौत हो रही है, यह बहुत चिंताजनक है.

अतीत में जाएं तो पता चलता है कि विदेशी चीतों को भारत की धरती कभी रास नहीं आई. भारत में चीतों को बसाने के प्रयास पहले भी फेल हुए हैं. दक्षिण अफ्रीका के जंगलों से 1993 में दिल्ली के चिडि़याघर में 4 चीते लाए गए थे, लेकिन 6 माह के भीतर ही वे चारों मर गए.

भारत का पर्यावरण दक्षिण अफ्रीका और नामीबिया से अलग है. 75 साल पहले भारत में पाए जाने वाले चीते एशियाई थे, जबकि वर्तमान में भारत में दक्षिण अफ्रीका और नामीबिया से चीतों को ला कर बसाने की जबरिया कोशिश हो रही है. लाए जाने से पहले उन्हें कई महीने तक कैद में रखा जाता है और लाने के बाद भी वे कई महीने कैद में बिताते हैं. तब तक वे पिंजड़ों में रहते हैं और उन्हें बकरियों और भैंस का मांस खिलाया जाता है. फिर अचानक एक दिन उन्हें बड़े बाड़े में छोड़ देते हैं और उम्मीद करते हैं कि अब वे खुद शिकार करेंगे. जानवर इस अचानक हुए परिवर्तन को सम   झ नहीं पाते और कई दिनों तक भूखेप्यासे रहते हैं. उन की खानपान की आदत बदलना, जगह का बदल जाना, वातावरण का बदलना उन के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालता है.

आजाद पसंद जानवर

कुछ एक्सपर्ट का यह भी मानना है कि कूनो अभयारण्य में चीतों को ट्रैक करने के लिए उन के गले में जो रेडियो कौलर लगाया गया है, उस से उन को संक्रमण हो रहा है. पिछले दिनों जिन 2 चीतों की मौत हुई है, उन की गरदन पर संक्रमण के निशान मिले हैं. जानकारों का कहना है कि चीते खुले में रहते हैं. रेडियो कौलर में पानी या अन्य चीजों की वजह से गीलापन बना रहता है. इस से उन्हें संक्रमण हो जाता है.

चीतों के अलावा भी कई विदेशी पशुओं को भारत लाया गया और वे यहां आ कर मर गए. वन अधिकारियों का लापरवाह रवैया, जीवों के अनुकूलन के संबंध में पूरा ज्ञान न होना, उन की उचित देखभाल का अभाव और भ्रष्टाचार इस की मुख्य वजहें हैं. लखनऊ के चिडि़याघर में 2 साल पहले इजराईल से 6 जेब्रा लाए गए थे. अधिकारी बताते हैं कि वे अब तक यहां के वातावरण को अडौप्ट नहीं कर पाए हैं. 6 में से 2 की मौत हो चुकी है. इन जेब्रा को जबजब थोड़ा खुले स्थान पर छोड़ा गया, वे डर के मारे बदहवास से इधरउधर ऐसे भागते हैं जैसे किसी जेल से आजाद हुए हों. यही वजह है कि 2 जेब्रा की मौत के बाद बचे हुए 4 जेब्रा को अब बिलकुल बंद बाड़ों में कैद कर के रखा गया है जहां वे जी नहीं रहे हैं, सिर्फ घुट रहे हैं. ऐसी कैद में वे क्या जोड़ी बनाएंगे और क्या प्रजनन कर के वंश बढ़ाएंगे?

गिर के जंगलों का हाल

हाल के कुछ महीनों में गुजरात के गिर अभयारण्य में कम से कम 23 एशियाई शेरों की मौत हो चुकी है. वजह है उन के सिमटते वन क्षेत्र, शहरी प्रदूषण का जंगलों में प्रवेश कर जाना, जंगल के किनारे रेलपटरियों का जाल जिन पर आने वाले जानवर अकसर ट्रेनों से टकरा कर मौत के मुंह में समा जाते हैं. गुजरात में शेरों की मौतें कैनाइन डिस्टैंपर वायरस के कारण भी हो रही हैं. गुजरात राज्य वन एवं पशुपालन विभाग ने कुत्तों के टीकाकरण का एक कार्यक्रम शुरू किया है. संभवतया इन से ही यह बीमारी शेरों में फैल रही है, मगर वन अधिकारी एवं पशुचिकित्सक अभी तक यह अनुमान नहीं लगा पाए हैं कि गिर के शेर कितने खतरे में हैं.

वन्य पशुओं को इंसानों से बहुत खतरा है. गिर में शेरों को देखने के इरादे से प्रतिवर्ष लाखों पर्यटक आते हैं. जंगल किनारे बसने वाले ग्रामीणों ने अपने राज्य का गौरव पर्यटकों को दिखा कर पैसा कमाने का नया तरीका ढूंढ़ लिया है. यहां बड़ी संख्या में अवैध ‘शेर शो’ शुरू हो गए हैं. जंगल के किनारे जिंदा मुरगा या बकरी बांध कर शेरों को जंगल से बाहर निकालने और पर्यटकों को इन की नुमाइश दिखाने की कोशिश में कई बार ये शेर बस्तियों में घुस जाते हैं और फिर ग्रामीणों द्वारा घेर कर घायल कर दिए जाते हैं अथवा मार दिए जाते हैं. गुजरात के गिर इलाके में खुले कुओं की संख्या भी बहुत ज्यादा है. कई बार शेर या उन के शावक इन कुओं में भी गिर कर दम तोड़ते पाए गए हैं.

वहीं गिर के जंगली इलाकों से हो कर प्रतिदिन करीब 20 मालगाडि़यां गुजरती हैं, इन का शोर और धुआं तो जंगली जीवों के लिए बुरा है ही, इन गाडि़यों से टकरा कर अकसर शेरों की मौत हो जाती है. पिछले वर्ष दिसंबर में अमरैली जिले के बोराना गांव में 3 शेर उस वक्त मारे गए जब वे रेलपटरियां पार करने की कोशिश कर रहे थे.

2017 में गिर के आसपास हुए विद्युतीकरण के कारण शेरों की मौत की 6 घटनाएं दर्ज की गई थीं, जिन में से एक मादा शेरनी गर्भवती भी थी. गौरतलब है कि देश में अब सिर्फ 674 शेर ही बचे हैं. शेर, चीते, तेंदुए जैसे हिंसक पशु समस्त मानवजाति के लिए प्रकृति द्वारा नियुक्त एक प्रहरी हैं. यदि ये समाप्त हो गए तो अन्य जीवजंतुओं की संख्या इतनी बढ़ जाएगी कि उन को कंट्रोल कर पाना मुश्किल होगा. इस के लिए वन क्षेत्रों को बढ़ाना और वन्य जीव संरक्षण सब से बड़ी जरूरत है, जिस की तरफ सरकार द्वारा कोई गंभीर कदम नहीं उठाए जा रहे.

इकलौती संतान : शादी के बाद

इकलौते बच्चे मांबाप के समस्त प्यार और आशाओं का केंद्र होते हैं. उन्हें लाड़चाव और अटैंशन कुछ ज्यादा ही मिलता है. इस फेर में कई इकलौते बच्चे अपनेआप को स्पैशल समझानेमानने लगते हैं. वे चाहते हैं कि ऐसा ट्रीटमैंट उन्हें औरों से भी मिले. इसी लाड़चाव के वे इतने आदी हो जाते हैं कि बहुत बार वे दूसरों की इच्छाओं, प्रायोरिटी और पसंद का खयाल ही नहीं रखते.

आस्था अकसर परेशान रहती है. कारण, जिस चीज को जहां रखती है वह वहां मिलती ही नहीं है. चीज को ढूंढ़ना उसे समय खोना लगता है. दरअसल, आस्था बहुत ही व्यवस्थित है. उस का ज्यादातर समय घर को व्यवस्थित करने में ही बीत जाता है. मांबाप का इकलौता लड़का अमन जब से आस्था का पति बना है तब से आस्था उस की बेतरतीबी का शिकार है. शादी से पहले अमन की मां अमन का सारा सामान व्यवस्थित करती थी, अब वह यही उम्मीद अपनी पत्नी से करता है. उसे लगता है कि पत्नी उस का ध्यान नहीं रखती. उसे उस से प्यार नहीं है.

उधर आस्था कहती है कि पति का इतना ध्यान रखने पर भी उसे पति की जलीकटी सुननी पड़ती है. कोई दूसरा कब तक किसी का ध्यान रख सकता है. यह काम तो आदत का हिस्सा होना चाहिए. ये हर चीज को पूछते हैं कि कहां रखी है? क्या दूसरों के पास और कोई काम नहीं है? ऐसा काम ही क्यों करें, जिस से दूसरों का समय बरबाद हो. नई डिश बनाने, नए सिरे से घर सजाने आदि क्रिएटिव कामों में समय देने में मजा भी आता है.

अमन मातापिता को कोसता है कि उन्होंने उस के लिए बेकार की लड़की ढूंढ़ी है. वह सारा दिन बोलतीबतियाती रहती है. किसी गंभीर काम में उस की रुचि नहीं. न उसे कंप्यूटर चलाना आता है और न ही सैलफोन. यह नहीं कि मेरा दिमाग खराब करने के बजाय इन चीजों को चलाना सीखे. दरअसल, अमन मातापिता का इकलौता है. उसे ज्यादा समय चुपचाप काम करते हुए गुजारने की आदत है. वह हर चीज को सीखता है और यही उम्मीद औरों से भी करता है. ‘वर्क ह्वाइल वर्क प्ले ह्वाइल प्ले’ वाली अपनी थ्योरी की औरों में कमी पा कर वह बिफर उठता है. उस का कहना है कि अगर कोई कुछ करना या सीखना न चाहे तो न सही, पर कम से कम उसे तो डिस्टर्ब न करे.

मिलता है खूब लाड़प्यार

बहुत बार? इकलौते बच्चों को मांबाप इतना नरिश कर देते हैं कि वे कठिन परिस्थितियों को संभालने की क्षमता खो देते हैं. वे पूरी तरह हर चीज का समाधान किसी पर निर्भर हो कर खोजते हैं. बहुत बार शादी के बाद ऐसे लोग बस यही चाहते हैं कि सभी उन्हें पसंद करें. उन की ही पूछ हो पर ऐसा जरूरी नहीं.

एक पत्नी का कहना है, ‘‘वे अपने मांबाप के इकलौते हैं, पर ससुराल में 3 जमाई हैं. वहां सब को बराबर लेनदेन और प्यार मिलता है. यह इन्हें पसंद नहीं आता. ये ध्यानाकर्षण के लिए अलगअलग तरीके अपनाते हैं. फिर भी जब इन की अपेक्षा पूर्ण नहीं होती तो मेरे पीहर वालों को स्वार्थी और न जाने क्याक्या कह कर मु?ो परेशान करते रहते हैं.’’

मांबाप इकलौते बच्चे को जरूरत से ज्यादा प्यारदुलार दे कर बिगाड़ देते हैं. उन्हें यह भी सोचना चाहिए कि हर जगह वे उस का साथ नहीं दे सकते. ऐसे ही एक लाड़ले को होस्टल से रेस्टिकेट कर दिया गया. वह जूनियरों से शार्गिदों के स्टाइल में काम लेता था. उसे अपने हाथों से कुछ भी करने की आदत नहीं थी. उस के इस आचरण को रैगिंग मान कर कार्यवाही की गई.

यह लाड़प्यार नकारात्मक के बजाय सकारात्मक भी तो बनाया जा सकता है. इकलौते बच्चे भी जिम्मेदारी अच्छी निभाते हैं. सौरभ इकलौता है. वह मांबाप के सारे जरूरी काम निबटा कर टूर पर जाता है. वहां से भी सुध लेता रहता है. वह इसे अपनी प्रमुख जिम्मेदारी मानता है. शादी के बाद उस का यह जिम्मेदारी भरा व्यवहार उस की पत्नी ने भी अपनाया.

इकलौते बच्चों के साथ सब से बड़ी समस्या उन के बिगड़ने की आती है. अकसर इकलौते बच्चे बिगड़ैल और जिद्दी भी होते हैं. अगर बड़े हो कर ये गलत संगत जैसे जुआ, नशे के चंगुल में फंस गए तो अपनी शादीशुदा जिंदगी को भी तहसनहस कर देते हैं.

शादी की तैयारी जरूरी

यों तो शादी की तैयारी हर व्यक्ति के लिए आवश्यक है पर इकलौते के लिए कुछ ज्यादा ही जरूरी है. उसे शेयर करने की आदत डालनी पड़ सकती है. शादी के बाद मांबाप से ले कर कमरा आदि सब शेयर करना पड़ सकता है, सजीवनिर्जीव सभी चीजें. समय देने की आदत विकसित करना भी आवश्यक है. कुछ को यह पार्टनर का हस्तक्षेप तथा दखलंदाजी लगती है. इस से वे चिड़चिड़े रहते हैं. जीवनसाथी से आदतों के बारे में चर्चा कर ली जाए तो तालमेल बैठाने में सुविधा रहती है.

एक इकलौता युवक कहता है, ‘‘मैं ने शादी से पूर्व पूरी टे्रनिंग ली. सुनाने के बजाय सुनने की आदत डाली. मेरे एक मित्र ने सलाह दी थी कि यार तेरे मांबाप तेरी बातें सुनते हैं, खुश होते हैं, अब तेरी आदत सिर्फ सुनाने की है कोई और कुछ बोले तो तू इधरउधर ?ांकता है. दोस्तों ने तो तुझेल लिया पर बीवी बख्शने वाली नहीं है. तब मैं ने अपना काम करने की आदत डाली ताकि बीवी का मन जीत सकूं.’’

एक युवती कहती है, ‘‘मैं ने मांबाप को सम?ाया कि वे मेरे बिना रहने की आदत डालें वरना गृहस्थी चौपट हो जाएगी. लड़का घरजमाई बन कर रहने से इनकार कर चुका है.’’

घर वालों का सहयोग

एक अन्य युवती ने विद्रोह किया. उस के मांबाप उस के इकलौते होने का हवाला दे कर अपनी पसंद की जगह शादी का दबाव डाल रहे थे. तब उस ने कोर्ट मैरिज कर ली. वह इसे मांबाप का इमोशनल ब्लैकमेल करना कहती है.

पहले छोटीछोटी इच्छाओं का ध्यान रख कर अब इतनी बड़ी इच्छा की कुरबानी आखिर मातापिता क्यों चाहते हैं?

लाड़प्यार का मतलब किसी को अपनी इच्छा के आगे झाकाना नहीं है और न ही इच्छा की कुरबानी को प्यार की परीक्षा मानना चाहिए.

एक इकलौता युवक मांबाप को पे्रम विवाह हेतु मना नहीं पाया. दोनों पक्ष अपनेअपने हठ पर अड़े रहे. अब युवक की उम्र काफी हो चुकी है. मांबाप माने नहीं. अब उन्हें वंश आगे न बढ़ने का मलाल है.

शादी की तैयारी में घर वालों का सहयोग भी मिल जाए तो अच्छा है. एक दंपती ने भारीभरकम जेवर ज्यों के त्यों बहू को देने चाहे. लेकिन डिजाइन बहू को पसंद न आए. सास उन जेवरों को तुड़वाना नहीं चाहती थी. तब पति ने पत्नी की पसंद के नए जेवर बनवाए और पत्नी व मां दोनों का मन रख लिया.

एक इकलौती बहू कहती है, ‘‘मेरी सास शुरूशुरू में जब यह कहती थीं कि यह खा लो वह खा लो, तो मु?ो यह बहुत अखरता था. पर अब लगता है यह सब तो उन का बरसों से संजोया अरमान है. मेरे बच्चों पर भी वे अपनी जान लुटाती हैं. अब मैं सास की बहुत बातों को सही मानती हूं जैसे ‘मेरे बेटे का हम जैसा ध्यान कोई नहीं रख सकता’, ‘इतना तो उस की बीवी भी उसे नहीं जानती’, ‘उस के पापा को उस के मूड का पता है आदि’.

इकलौते शादी से पूर्व सब कुछ मांबाप

या फिर दोस्तों से शेयर करते हैं, लेकिन शादी के बाद जीवनसाथी को बाधक न सम?ों. थोड़ा ध्यान दे कर जीवन जीने पर लगता है कि जीवन की किसी बड़ी कमी को पूरा कर लिया गया है.

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