रजनी घंटों तक लोटपोट कर हंसती रही। फिर उस ने कहा,”मीनाक्षी दी, आप के पास दिल नहीं है।”
“हां, मेरे पास तो नहीं है मगर तुम्हारे पास 3-4 जरूर हैं,” मैं चिढ़ कर बोली, तो रजनी फिर से हंसने लगी। मैं ने फिर कहा,”रजनी, अभी भी समय है, सत्य की तरफ लौट आओ।”
“सत्य क्या और झूठ क्या, दोनों तो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, एकदूसरे के बिना दोनों अधूरे हैं और एक के बिना दूसरे का कोई अस्तित्व नहीं है,” रजनी ने कहा।
“जिस दिन इस झूठ के कारण गहरी खाई में गिरोगी उस दिन इस का अस्तित्व क्या है, मालूम पड़ेगा?” मैं ने कहा। फिर मेरी रजनी से बात करने की इच्छा नहीं हुई और मैं उठ कर चल दी।
रजनी और मनोज की बातें चारों तरफ फैल चुकी थीं। स्कूल में वह चर्चा का विषय बन चुकी थी। मगर इन सब से बेखबर रजनी को मनोज के सिवा कोई और दिखाई नहीं पड़ता था। न ही किसी की बातों पर ध्यान देती थी वह। मगर मुझे मनोज के रंगढंग सही नहीं लगते थे। एक तरफ मनोज की नियत में खोट दिखाई पड़ती, तो दूसरी तरफ रजनी के उल्लास को देख कर भविष्य की आशंकाओं से मैं विचलित हो जाती। फिर भी मैं अपने को समझा लेती कि मुझे क्या, उस का जीवन है चाहे जैसे जिए।
“आज पूर्णिमा है मीनाक्षी दी,” रजनी ने आ कर धीरे से मेरे कान में कहा तो मैं चिल्ला कर बोली,”कभी अपने पूर्णिमा के चांद को ध्यान से देखा है?”
रजनी बोली,”हां, देखा है आगे बोलो…”
“मैं ने बेमन से कहा,”क्या देखा है?”
“यही कि यह एक मृत ग्रह है और जहां जीवन नहीं है,” रजनी फिर हंस पड़ी।
“कोई चीज आप को खूबसूरत क्यों नहीं दिखाई पड़ती?” रजनी ने कहा।
“क्योंकि हर चीज में मैं सत्य को तलाश करती हूं और सत्य कभी खूबसूरत नहीं होता,” मैं ने गंभीरता से कहा। मैं फिर बोली,”रजनी, तुम्हारे में यही कमी है। तुम हमेशा तसवीर का एक ही रुख देखती हो। तसवीर के दोनों तरफ देखो तभी यथार्थ को परख पाओगी।”
“यदि एक ही रूप से सबकुछ मिल जाए तो दोनों तरफ देखने की क्या जरूरत है,” रजनी ने कहा। मैं चुप हो गई। रजनी फिर बोली,”मीनाक्षी दी, आप ऐसी क्यों हैं? इतनी सुंदर हैं आप, आप को मन नहीं होता कि कोई आप की तरफ आकर्षित हो, कोई आप से प्यार करे?”
“मुझ से या मेरी सुंदरता से और फिर सिर्फ आकर्षण या प्रेम?” मैं ने सवाल किया।
“दोनों से… और रही बात प्रेम या आकर्षण की तो हम आकर्षित होते हैं तभी तो प्रेम करते हैं,” रजनी ने कहा।
“तब तुम ने प्रेम को समझा ही नहीं। प्रेम में आकर्षण नहीं, समर्पण होता है और यह सफल तभी होता है जब दोनों तरफ से हो तभी मंजिल मिलती है वरना यह प्रेम सिर्फ सफर बन कर रह जाता है,” मैं ने कहा।
अचानक रजनी उठ कर खड़ी हो गई और कहा,”मगर मंजिल तो तभी मिलती है जब सफर समाप्त हो जाता है और सफर ही तो प्रेम है। सफर समाप्त तो प्रेम भी समाप्त। मैं यह नहीं चाहती मीनाक्षी दी,” और वह सीढ़ियों से नीचे उतर गई।
समय बीतता रहा। रजनी सफर का आनंद लेती रही और मैं मंजिल की तलाश में थी। एक दिन मैं ने उस शहर को छोड़ दिया और रजनी मुझ से दूर हो गई। जाने क्यों न चाहते हुए भी मैं उस से जुड़ गई थी। जीवन में पहली बार मुझे किसी की कमी का एहसास हुआ था और संयोगवश जब दोबारा उसी शहर में आई तो उस कमी को पूरा करने का लोभ मैं छोड़ नहीं पाई। मगर आज तो वह रजनी थी ही नहीं, जिसे मैं ढूंढ़ने आई थी। रजनी का यह रूप देख कर मैं दंग रह गई थी।
रजनी आज भी मेरे पास बैठती थी, मगर कभी गुनगुनाती नहीं थी। न कभी हंसती, न बहुत बोलती। चुप सी रजनी हमेशा अपने काम में व्यस्त रहती थी।
आने के बाद पता चला था कि मनोज यह स्कूल छोड़ कर चला गया था। मैं रजनी से सबकुछ जानना चाहती थी मगर उस की चुप्पी को देख कर कभी हिम्मत नहीं हुई। रजनी की जिन आदतों से मुझे चिढ़ थी आज उन्हीं को देखने को मैं तड़प उठी थी। उस का यह परिवर्तित रूप मैं स्वीकार कर ही नहीं पा रही थी। जी चाहता था कि फिर से उसी रजनी को देखूं। उल्लास, उमंग और स्फूर्ति से परिपूर्ण। वही आंखें देखना चाहती थी जिस में जीवन के रंगों के सिवा कुछ नहीं था। बहुत पीड़ा होती मुझे। कभी अपनेआप पर हंसती कि रजनी के साथ मैं क्यों बदल गई। कभी अपनेआप पर आश्चर्य होता है कि रजनी को कुछ भी कहने में मुझे कभी कोई संकोच नहीं होता था मगर आज हिम्मत ही नहीं होती कुछ कहने की।
मगर एक दिन मैं ने पूछ ही लिया,”रजनी, मनोज कहां है?”
“जहां उसे होना चाहिए,” उस ने सीधा सा जवाब दिया।
“क्या मतलब…” मैं ने चौंक कर पूछा।
“उसे मंजिल की तलाश थी, उसे मिल गई,” रजनी ने कहा।
“और तुम? तुम्हारी मंजिल कहां है?” मैं ने पूछा।
“मीनाक्षी दी, इतने थोड़े दिनों में आप मुझे भूल कैसे गईं? मैं ने तो कभी मंजिल चाहा ही नहीं था, सिर्फ सफर चाहा था,” रजनी ने कहा।
“जब तुम्हें मंजिल की तलाश नहीं थी तो फिर इतनी उदास, इतनी निराश क्यों रहती हो? क्यों बदल गईं तुम?” “मैं ने पूछा।
“क्योंकि सफर हमेशा सुखद नहीं होता, इस में कष्ट भी होता है,” कहते हुए रजनी चुप हो गई। वह मेरी बातों का जवाब देना नहीं चाहती थी इसलिए मैं भी चुप हो गई।
गरमी के दिन थे। छत पर लेटी मैं रजनी के बारे में ही सोच रही थी…’रजनी के इसी रूप को तो मैं देखना चाहती थी, फिर इस रूप को देख कर मैं विचलित क्यों हूं?” मैं ने अपनेआप से सवाल किया।
उस की जिन आदतों से मुझे चिढ़ थी, आज उसी से इतना प्रेम कैसे हो गया? रजनी के साथ कहीं मैं भी तो नहीं बदल गई? या फिर मुझे वही पुरानी रजनी देखने की आदत सी पड़ गई थी?” तरहतरह के सवालों से जूझते हुए मैं ने कई रातें बिता दीं। मन में बहुत तरह के सवाल थे, पीड़ा थी, बेचैनी थी, छटपटाहट थी मगर मेरे होंठ कभी नहीं खुलते। ऊपर से जितनी खामोश थी मैं भीतर उतना ही तूफान था और एक दिन यह तूफान आ ही गया।
बगल में रजनी बैठी थी। मैं फट पड़ी,”रजनी, यह क्या हाल बना लिया तुम ने?” रजनी ने मुझे देखा मगर बोली कुछ भी नहीं।
“रजनी कुछ कहती क्यों नहीं?” मैं चिल्ला पड़ी।
“क्या कहूं? आप तो इसी रूप को हमेशा देखना चाहती थीं, मैं ने आप की बात मान ली,” कहते हुए वह हंस पड़ी।
उस की उस नपीतुली हंसी देख कर मैं और विचलित हो गई,”नहीं रजनी, तुम्हारा वह पुराना रूप, तुम्हारे व्यक्तित्व का हिस्सा था। उस में तुम्हारा अस्तित्व था मगर आज तो जैसे सबकुछ खत्म हुआ दिखाई पड़ता है। रजनी, मैं कहती थी न कि मनोज को तुम पहचानो, वह भरोसा करने लायक नहीं है, फिर भी तुम ने मेरा कहा नहीं माना, जिस का नतीजा आज तुम भुगत रही हो। वह तुम्हें छोड़ कर क्यों चला गया?” मैं ने सवाल किया।
“उस ने मुझे पकड़ा कब था जो छोड़ कर चला गया,” रजनी ने गंभीरता से कहा।
“क्या मतलब?” मैं चौंक गई।
“मीनाक्षी दी, मैं कहा करती थी न कि झूठ से मुझे लगाव है और सत्य से नफरत क्योंकि झूठ जितना खूबसूरत होता है, सत्य उतना ही बदसूरत। मैं बदली नहीं हूं, वही हूं, बदला तो सिर्फ यही है कि आज मुझे सत्य से प्रेम है झूठ से नहीं।”
“तो क्या जो मैं ने अपनी आंखों से देखा था वह झूठ था? धोखा था?” मैं चिल्ला पड़ी।
“हां, मीनाक्षी दी।” रजनी ने शांति से जवाब दिया।”
तो क्या मनोज से तुम्हारा प्रेम कुछ नहीं था?” मैं ने पूछा।
“नहीं,” रजनी ने दृढ़ता से जवाब दिया।
“मैं नहीं मानती, मनोज का मैं नहीं जानती, मगर तुम्हें उस से प्रेम था और इस का सुबूत तुम्हारी यह आज की हालत है,” मैं ने कहा। मैं ने रजनी को झकझोरते हुए कहा,”रजनी, मुझे जवाब दो?”
“मैं किसी दिन अपने बारे में आप को बताऊंगी,” रजनी ने लंबी सांस खींच कर कहा।
“किसी दिन नहीं आज बताओ, मेरे भीतर की पीड़ा को तुम क्यों नहीं समझ पा रही हो रजनी?” मैं ने उत्तेजित हो कर कहा।
रजनी ने अपनी आंखें बंद कर लीं मानो अतीत में जाने का प्रयास कर रही थी,”मीनाक्षी दी, आप मेरे लिए जिस समय सत्य बन कर आई थीं, उस समय मैं झूठ के पीछे भाग रही थी। एक खूबसूरत झूठ…एक खूबसूरत धोखा…” और उस के बाद रजनी ने जो मुझे सुनाया सुन कर मैं स्तब्ध रह गई थी।
रजनी की कहानी बहुत लंबी नहीं थी। छोटी सी, मगर गहरी खाई जैसी थी। बचपन में ही मातापिता के देहांत के बाद चाचाचाची के घर में पलीबङी हुई रजनी सामान्य चेहरे के होते हुए भी हीनभावना की शिकार नहीं थी। चाचाचाची के खूबसूरत बच्चों के बीच में रह कर भी उसे अपनी बदसूरती का गुमान नहीं था। मगर धीरेधीरे उसे हीनता के आवरण से बांध दिया गया। शुरुआत हुई उस के परिवार से, फिर समाज से। विवाह के उस के कई रिश्ते टूट गए और घर के लोगों के तानों और सवालों का जवाब देतदेते वह थक सी गई और तब हार कर उस ने विवाह करने से मना कर दिया था।
उस के इस निर्णय ने उसे घर छोड़ने पर मजबूर कर दिया और इस बड़ी दुनिया में अकेली रजनी ने किस प्रकार अपने वजूद को कायम रखने के लिए संघर्ष किया होगा, इस की पीड़ा तो वही जानती होगी। उस की उतारचढ़ाव भरी जिंदगी, एक समतल मार्ग पर तब चल पड़ी जब उसे एक स्कूल में नौकरी मिल गई और उस की जिंदगी में वह पल आया जब उस ने अपने पूरे जीवन का छोटा सा हिस्सा जीना चाहा था और जो भी उस ने जीया उसे भरपूर जीया। हीनता के आवरण में लिपटी रजनी को खूबसूरती का एहसास तब हुआ जब मनोज उस की जिंदगी में आया। एक झटके में इस आवरण को तोड़ रजनी बाहर निकल गई। मनोज के झूठे इजहारों को प्रेम समझ बैठी मगर बहुत जल्दी उसे पता चल गया कि मनोज की जिंदगी में वह नहीं कोई और थी।
रजनी फिर से बदसूरती के उस आवरण में लौटना नहीं चाहती थी। जिंदगी उस के इतने करीब थी, फिर वह उसे दूर कैसे जाने देती। मन को दृढ़ किया उस ने कि कोई बात नहीं एकतरफा प्रेम ही सही। उस ने मनोज को यह जानने ही नहीं दिया कि वह उस के बारे में सबकुछ जानती है। उस के सामने बिलकुल अनजान बनी रही वह। झूठ का सहारा लिया और अपनी भावनाओं से खेलने के लिए मनोज को मजबूर कर दिया। मनोज उस की भावनाओं से खेलता रहा और वह जानबूझ कर इस खूबसूरत झूठ का आनंद लेती रही।
अपने कोरे कागज सी जिंदगी में उस ने जबरदस्ती रंग भर लिया था और जिस दिन मैं उसे मिली उस दिन उसे एहसास हुआ कि उस ने अपने जीवन में इतना अधिक रंग भर लिया था कि वह अब बदसूरत दिखने लगा था। फिर भी सत्य को झुठलाती रही और इस रंगीन सफर का आनंद लेती रही क्योंकि वह जानती थी कि इस सफर की कोई मंजिल ही नहीं थी।