Download App

इस सफर की कोई मंजिल नहीं- भाग 4

रजनी घंटों तक लोटपोट कर हंसती रही। फिर उस ने कहा,”मीनाक्षी दी, आप के पास दिल नहीं है।”

“हां, मेरे पास तो नहीं है मगर तुम्हारे पास 3-4 जरूर हैं,” मैं चिढ़ कर बोली, तो रजनी फिर से हंसने लगी। मैं ने फिर कहा,”रजनी, अभी भी समय है, सत्य की तरफ लौट आओ।”

“सत्य क्या और झूठ क्या, दोनों तो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, एकदूसरे के बिना दोनों अधूरे हैं और एक के बिना दूसरे का कोई अस्तित्व नहीं है,” रजनी ने कहा।

“जिस दिन इस झूठ के कारण गहरी खाई में गिरोगी उस दिन इस का अस्तित्व क्या है, मालूम पड़ेगा?” मैं ने कहा। फिर मेरी रजनी से बात करने की इच्छा नहीं हुई और मैं उठ कर चल दी।

रजनी और मनोज की बातें चारों तरफ फैल चुकी थीं। स्कूल में वह चर्चा का विषय बन चुकी थी। मगर इन सब से बेखबर रजनी को मनोज के सिवा कोई और दिखाई नहीं पड़ता था। न ही किसी की बातों पर ध्यान देती थी वह। मगर मुझे मनोज के रंगढंग सही नहीं लगते थे। एक तरफ मनोज की नियत में खोट दिखाई पड़ती, तो दूसरी तरफ रजनी के उल्लास को देख कर भविष्य की आशंकाओं से मैं विचलित हो जाती। फिर भी मैं अपने को समझा लेती कि मुझे क्या, उस का जीवन है चाहे जैसे जिए।

“आज पूर्णिमा है मीनाक्षी दी,” रजनी ने आ कर धीरे से मेरे कान में कहा तो मैं चिल्ला कर बोली,”कभी अपने पूर्णिमा के चांद को ध्यान से देखा है?”

रजनी बोली,”हां, देखा है आगे बोलो…”

“मैं ने बेमन से कहा,”क्या देखा है?”

“यही कि यह एक मृत ग्रह है और जहां जीवन नहीं है,” रजनी फिर हंस पड़ी।

“कोई चीज आप को खूबसूरत क्यों नहीं दिखाई पड़ती?” रजनी ने कहा।

“क्योंकि हर चीज में मैं सत्य को तलाश करती हूं और सत्य कभी खूबसूरत नहीं होता,” मैं ने गंभीरता से कहा। मैं फिर बोली,”रजनी, तुम्हारे में यही कमी है। तुम हमेशा तसवीर का एक ही रुख देखती हो। तसवीर के दोनों तरफ देखो तभी यथार्थ को परख पाओगी।”

“यदि एक ही रूप से सबकुछ मिल जाए तो दोनों तरफ देखने की क्या जरूरत है,” रजनी ने कहा। मैं चुप हो गई। रजनी फिर बोली,”मीनाक्षी दी, आप ऐसी क्यों हैं? इतनी सुंदर हैं आप, आप को मन नहीं होता कि कोई आप की तरफ आकर्षित हो, कोई आप से प्यार करे?”

“मुझ से या मेरी सुंदरता से और फिर सिर्फ आकर्षण या प्रेम?” मैं ने सवाल किया।

“दोनों से… और रही बात प्रेम या आकर्षण की तो हम आकर्षित होते हैं तभी तो प्रेम करते हैं,” रजनी ने कहा।

“तब तुम ने प्रेम को समझा ही नहीं। प्रेम में आकर्षण नहीं, समर्पण होता है और यह सफल तभी होता है जब दोनों तरफ से हो तभी मंजिल मिलती है वरना यह प्रेम सिर्फ सफर बन कर रह जाता है,” मैं ने कहा।

अचानक रजनी उठ कर खड़ी हो गई और कहा,”मगर मंजिल तो तभी मिलती है जब सफर समाप्त हो जाता है और सफर ही तो प्रेम है। सफर समाप्त तो प्रेम भी समाप्त। मैं यह नहीं चाहती मीनाक्षी दी,” और वह सीढ़ियों से नीचे उतर गई।

समय बीतता रहा। रजनी सफर का आनंद लेती रही और मैं मंजिल की तलाश में थी। एक दिन मैं ने उस शहर  को छोड़ दिया और रजनी मुझ से दूर हो गई। जाने क्यों न चाहते हुए भी मैं उस से जुड़ गई थी। जीवन में पहली बार मुझे किसी की कमी का एहसास हुआ था और संयोगवश जब दोबारा उसी शहर में आई तो उस कमी को पूरा करने का लोभ मैं छोड़ नहीं पाई।  मगर आज तो वह रजनी थी ही नहीं, जिसे मैं ढूंढ़ने आई थी। रजनी का यह रूप देख कर मैं दंग रह गई थी।

रजनी आज भी मेरे पास बैठती थी, मगर कभी गुनगुनाती नहीं थी। न कभी हंसती, न बहुत बोलती। चुप सी रजनी हमेशा अपने काम में व्यस्त रहती थी।

आने के बाद पता चला था कि मनोज यह स्कूल छोड़ कर चला गया था। मैं रजनी से सबकुछ जानना चाहती थी  मगर उस की चुप्पी को देख कर कभी हिम्मत नहीं हुई। रजनी की जिन आदतों से मुझे चिढ़ थी आज उन्हीं को देखने को मैं तड़प उठी थी। उस का यह परिवर्तित रूप मैं स्वीकार कर ही नहीं पा रही थी। जी चाहता था कि फिर से उसी रजनी को देखूं। उल्लास, उमंग और स्फूर्ति से परिपूर्ण। वही आंखें देखना चाहती थी जिस में जीवन के रंगों के सिवा कुछ नहीं था। बहुत पीड़ा होती मुझे। कभी अपनेआप पर हंसती कि रजनी के साथ मैं क्यों बदल गई। कभी अपनेआप पर आश्चर्य होता है कि रजनी को कुछ भी कहने में मुझे कभी कोई संकोच नहीं होता था मगर आज हिम्मत ही नहीं होती कुछ कहने की।

मगर एक दिन मैं ने पूछ ही लिया,”रजनी, मनोज कहां है?”

“जहां उसे होना चाहिए,” उस ने सीधा सा जवाब दिया।

“क्या मतलब…” मैं ने चौंक कर पूछा।

“उसे मंजिल की तलाश थी, उसे मिल गई,” रजनी ने कहा।

“और तुम? तुम्हारी मंजिल कहां है?” मैं ने पूछा।

“मीनाक्षी दी, इतने थोड़े दिनों में आप मुझे भूल कैसे गईं? मैं ने तो कभी मंजिल चाहा ही नहीं था, सिर्फ सफर चाहा था,” रजनी ने कहा।

“जब तुम्हें मंजिल की तलाश नहीं थी तो फिर इतनी उदास, इतनी निराश क्यों रहती हो? क्यों बदल गईं तुम?” “मैं ने पूछा।

“क्योंकि सफर हमेशा सुखद नहीं होता, इस में कष्ट भी होता है,” कहते हुए रजनी चुप हो गई। वह मेरी बातों का जवाब देना नहीं चाहती थी इसलिए मैं भी चुप हो गई।

गरमी के दिन थे। छत पर लेटी मैं रजनी के बारे में ही सोच रही थी…’रजनी के इसी रूप को तो मैं देखना चाहती थी, फिर इस रूप को देख कर मैं विचलित क्यों हूं?” मैं ने अपनेआप से सवाल किया।

उस की जिन आदतों से मुझे चिढ़ थी, आज उसी से इतना प्रेम कैसे हो गया? रजनी के साथ कहीं मैं भी तो नहीं बदल गई? या फिर मुझे वही पुरानी रजनी देखने की आदत सी पड़ गई थी?” तरहतरह के सवालों से जूझते हुए मैं ने कई रातें बिता दीं। मन में बहुत तरह के सवाल थे, पीड़ा थी,  बेचैनी थी, छटपटाहट थी मगर मेरे होंठ कभी नहीं खुलते। ऊपर से जितनी खामोश थी मैं भीतर उतना ही तूफान था और एक दिन यह तूफान आ ही गया।

बगल में रजनी बैठी थी। मैं फट पड़ी,”रजनी, यह क्या हाल बना लिया तुम ने?” रजनी ने मुझे देखा मगर बोली कुछ भी नहीं।

“रजनी कुछ कहती क्यों नहीं?” मैं चिल्ला पड़ी।

“क्या कहूं? आप तो इसी रूप को हमेशा देखना चाहती थीं, मैं ने आप की बात मान ली,” कहते हुए वह हंस पड़ी।

उस की उस नपीतुली हंसी देख कर मैं और विचलित हो गई,”नहीं रजनी, तुम्हारा वह पुराना रूप, तुम्हारे व्यक्तित्व का हिस्सा था। उस में तुम्हारा अस्तित्व था मगर आज तो जैसे सबकुछ खत्म हुआ दिखाई पड़ता है। रजनी, मैं कहती थी न कि मनोज को तुम पहचानो, वह भरोसा करने लायक नहीं है, फिर भी तुम ने मेरा कहा नहीं माना, जिस का नतीजा आज तुम भुगत रही हो। वह तुम्हें छोड़ कर क्यों चला गया?” मैं ने सवाल किया।

“उस ने मुझे पकड़ा कब था जो छोड़ कर चला गया,” रजनी ने गंभीरता से कहा।

“क्या मतलब?” मैं चौंक गई।

“मीनाक्षी दी, मैं कहा करती थी न कि झूठ से मुझे लगाव है और सत्य से नफरत क्योंकि झूठ जितना खूबसूरत होता है, सत्य उतना ही बदसूरत। मैं बदली नहीं हूं, वही हूं, बदला तो सिर्फ यही है कि आज मुझे सत्य से प्रेम है झूठ से नहीं।”

“तो क्या जो मैं ने अपनी आंखों से देखा था वह झूठ था? धोखा था?” मैं चिल्ला पड़ी।

“हां, मीनाक्षी दी।” रजनी ने शांति से जवाब दिया।”

तो क्या मनोज से तुम्हारा प्रेम कुछ नहीं था?” मैं ने पूछा।

“नहीं,” रजनी ने दृढ़ता से जवाब दिया।

“मैं नहीं मानती, मनोज का मैं नहीं जानती, मगर तुम्हें उस से प्रेम था और इस का सुबूत तुम्हारी यह आज की हालत है,” मैं ने कहा। मैं ने रजनी को झकझोरते हुए कहा,”रजनी, मुझे जवाब दो?”

“मैं किसी दिन अपने बारे में आप को बताऊंगी,” रजनी ने लंबी सांस खींच कर कहा।

“किसी दिन नहीं आज बताओ, मेरे भीतर की पीड़ा को तुम क्यों नहीं समझ पा रही हो रजनी?” मैं ने उत्तेजित हो कर कहा।

रजनी ने अपनी आंखें बंद कर लीं मानो अतीत में जाने का प्रयास कर रही थी,”मीनाक्षी दी, आप मेरे लिए जिस समय सत्य बन कर आई थीं, उस समय मैं झूठ के पीछे भाग रही थी। एक खूबसूरत झूठ…एक खूबसूरत धोखा…” और उस के बाद रजनी ने जो मुझे सुनाया सुन कर मैं स्तब्ध रह गई थी।

रजनी की कहानी बहुत लंबी नहीं थी। छोटी सी, मगर गहरी खाई जैसी थी। बचपन में ही मातापिता के देहांत के बाद चाचाचाची के घर में पलीबङी हुई रजनी सामान्य चेहरे के होते हुए भी हीनभावना की शिकार नहीं थी। चाचाचाची के खूबसूरत बच्चों के बीच में रह कर भी उसे अपनी बदसूरती का गुमान नहीं था। मगर धीरेधीरे उसे हीनता के आवरण से बांध दिया गया। शुरुआत हुई उस के परिवार से, फिर समाज से। विवाह के उस के कई  रिश्ते टूट गए और घर के लोगों के तानों और सवालों का जवाब देतदेते  वह थक सी गई और तब हार कर उस ने विवाह करने से मना कर दिया था।

उस के इस निर्णय ने उसे घर छोड़ने पर मजबूर कर दिया और इस बड़ी दुनिया में अकेली रजनी ने किस प्रकार अपने वजूद को कायम रखने के लिए संघर्ष किया होगा, इस की पीड़ा तो वही जानती होगी। उस की उतारचढ़ाव भरी जिंदगी, एक समतल मार्ग पर तब चल पड़ी जब उसे एक स्कूल में नौकरी मिल गई और उस की जिंदगी में वह पल आया जब उस ने अपने पूरे जीवन का छोटा सा हिस्सा जीना चाहा था और जो भी उस ने जीया उसे भरपूर जीया। हीनता के आवरण में लिपटी रजनी को खूबसूरती का एहसास तब हुआ जब मनोज उस की जिंदगी में आया। एक झटके में इस आवरण को तोड़ रजनी बाहर निकल गई। मनोज के झूठे इजहारों को प्रेम समझ बैठी मगर बहुत जल्दी उसे पता चल गया कि मनोज की जिंदगी में वह नहीं कोई और थी।

रजनी फिर से बदसूरती के उस आवरण में लौटना नहीं चाहती थी। जिंदगी उस के इतने करीब थी, फिर वह उसे दूर कैसे जाने देती। मन को दृढ़ किया उस ने कि कोई बात नहीं एकतरफा प्रेम ही सही। उस ने मनोज  को यह जानने ही नहीं दिया कि वह उस के बारे में सबकुछ जानती है। उस के सामने बिलकुल अनजान बनी रही वह। झूठ का सहारा लिया और अपनी भावनाओं से खेलने के लिए मनोज को मजबूर कर दिया। मनोज उस की भावनाओं से खेलता रहा और वह जानबूझ कर इस खूबसूरत झूठ का आनंद लेती रही।

अपने कोरे कागज सी जिंदगी में उस ने जबरदस्ती रंग भर लिया था और जिस दिन मैं उसे मिली उस दिन उसे एहसास हुआ कि उस ने अपने जीवन में इतना अधिक रंग भर लिया था कि वह अब बदसूरत दिखने लगा था। फिर भी सत्य को झुठलाती रही और इस रंगीन सफर का आनंद लेती रही क्योंकि वह जानती थी कि इस सफर की कोई मंजिल ही नहीं थी।

दो चेहरे वाले लोग: मुकुंद क्या सोचकर हैदराबाद गया था?

रश्मि जीजाजी का दोगलापन देख हैरान रह गई थी. बेटों जैसी पलीबढ़ी बेटी पर तो उन्हें फख्र था परंतु बहू को आजादी देने के पक्ष में वे न थे. दो चेहरों वाले इस इंसान का कौन सा चेहरा असली था, कौन सा नकली, क्या कोई जान सका? वैसे, जीजी मेरी सगी बहन तो नहीं, लेकिन अम्मा और आपा ने उन्हें हमेशा अपनी बेटी के समान ही माना. इसलिए जब मेरे पति ने मुंबई की नौकरी छोड़ कर हैदराबाद में काम करने का निश्चय किया,

तब आपा ने नागपुर से चिट्ठी में लिखा, ‘अच्छा है, हमारे कुछ पास आओगे तुम लोग. और हां, जीजी के हैदराबाद में होते हुए फिर हमें चिंता कैसी.’ जीजी बड़ी सीधीसादी, मीठे स्वभाव की हैं. दूसरों के बारे में सोचतेसोचते अपने बारे में सबकुछ भूल जाने वाले लोगों में वे सब से आगे गिनी जा सकती हैं. अपने मातापिता, भाईबहन, कोई न होने पर भी केवल निस्वार्थ प्रेम के बल पर उन्होंने सैकड़ों अपने जोड़े हैं. ‘लेकिन, तुम्हारे जीजाजी को वे जीत नहीं पाई हैं,’ मुकुंद मेरे पति ने 2-3 बार टिप्पणी की थी. ‘जीजाजी कितना प्यार करते हैं जीजी से,’ मैं ने विरोध करते हुए कहा था, ‘घर उन के नाम पर, गाड़ी उन के लिए, साडि़यां, गहने…

सबकुछ.’ मुकुंद ने हर बार मेरी तरफ ऐसे देखा था जैसे कह रहे हों, ‘बच्ची हो, तुम क्या सम?ागी.’ हैदराबाद आने के बाद मेरा जीजाजी के घर आनाजाना शुरू हुआ. घरों में फासला था पर मैं या जीजी समय निकाल कर सप्ताह में एक बार तो मिल ही लेतीं. अब तक मैं ने जीजी को मायके में ही देखा था. अब ससुराल में जिम्मदारियों के बो?ा से दबी, लोगों की अकारण उठती उंगलियों से अपने भावनाशील मन को बचाने की कोशिश करती जीजी मु?ो दिखाई दीं, कुछ असुरक्षित सी, कुछ घबराई सी और मैं केवल उन्हें देख ही सकती थी. जीजी की बेटी शिवानी कंप्यूटर इंजीनियर थी. वह मैनेजमैंट का कोर्स करने के बाद अब एक प्रतिष्ठित फर्म में अच्छे पद पर काम कर रही थी. जीजाजी उस के लिए योग्य वर की तलाश में थे. मैं ने कुछ अच्छे रिश्ते सु?ाए भी पर जीजाजी ने मुंह बनाते हुए कहा, ‘‘क्या तुम भी रश्मि, शिवानी की योग्यता का कोई लड़का बताओ तो जानें.’’

‘‘लेकिन जीजाजी, उमेश बहुत अच्छा लड़का है. होशियार, सुदर्शन, स्वस्थ, अच्छा कमाता है. कोई बुरी आदत नहीं है.’’ ‘‘पर, उस पर अपनी 2 छोटी बहनों के विवाह की जिम्मेदारी है और उस का अपना कोई मकान भी नहीं,’’ जीजाजी ने एकएक उंगली मोड़ कर गिनाना चाहा. ‘‘यह तो दोनों मिल कर आराम से कर सकते हैं. शिवानी भी तो कमाती है,’’ मैं ने उन की बातों को काटते हुए कहा. ‘‘देखो रश्मि, मैं ने अपनी बेटी को बेटे की तरह पाला है. उसे उस की काबिलीयत का पैसा मिल रहा है. इतने सालों की उस की कड़ी मेहनत, मेरा मार्गदर्शन अब जा कर रंग लाया है. वह सब किसी दूसरे के लिए क्यों फूजूल में फेंक दिया जाए?’’ मैं स्तब्ध रह गई, जीजी की कितनी ही चीजें जीजाजी की बहनें मांग कर ले जाती थीं. हम लोगों की तरफ से दिए गए उपहार ‘उफ’ तक मुंह से न निकालते हुए जीजी ने अपने देवरों को उन के मांगने पर दे दिए थे. मां कभी पूछतीं, ‘‘आरती,

वह पेन कहां गया जो तुम्हें पिछली दीवाली में भैया ने दिया था.’’ जीजी बेहद विनम्रता के साथ कहतीं, ‘‘रमन भैया ने परीक्षा के लिए लिया था, पसंद आ गया तो पूछा कि मैं रख लूं, भाभी. मैं मना कैसे करती, मां.’’ एक बार भैया दीदी के लिए भैयादूज पर एक बढि़या धानी साड़ी लाए थे. तब जीजी की सहेली अरुणा दीदी भी उन से मिलने के लिए आई थीं. उन्होंने छूटते ही कहा, ‘‘मत दो इस पगली को कुछ भी. साड़ी भी ननद ने मांग ली तो दे देगी.’’ तब जीजी ने अपनी मुसकान बिखेरते हुए कहा था, ‘‘वे भी तो मेरे अपने हैं. जैसे मेरे भैया, मेरी रश्मि, मेरी अरुणा.’’ अब उसी जीजी की बेटी को पिता से क्या सीख मिल रही थी. मैं ने जीजा की ओर देखा. वह काम में मगन थे.

जैसे उन्होंने सुना ही न हो. मुकुंद कहते हैं, ‘‘मैं कुछ ज्यादा ही आशावादी हूं, दीवार से सिर टकराने के बाद भी दरवाजे की टोह लेती रहती हूं.’’ जीजी के बारे में मैं कुछ ज्यादा भावुक भी तो हूं. शिवानी, हालांकि कुछ नकचढ़ी है, फिर भी बचपन से उसे देखने के कारण उस से लगाव भी तो हो गया है. इसलिए बारबार प्रस्ताव ले कर आती हूं. ‘‘क्या रश्मि, तुम ने बताया था न पता. वहां चिट्ठी भेजी थी,’’ एक दिन जीजाजी बोले, ‘‘कौन, वह बेंगलुरु वाला.’’ मैं कुछ उत्साहित हो गई. ‘‘हां, वही महाशय, उन की यह लंबीचौड़ी चिट्ठी आईर् है. मैं इसे पढ़ कर तुम्हें सुना देता पर ऐसी मूर्खताभरी बातों का मैं फिर से उच्चारण नहीं करना चाहता.’’ ‘‘इस में उन की क्या गलती है,’’ जीजी ने पहली बार चर्चा में भाग लिया, ‘‘वे लोग चाहते हैं कि उन की बहू को गाना आना चाहिए. वे सब गाते हैं.’’

‘‘तुम चुप रहो, आरती,’’ जीजाजी की आवाज में कड़वाहट थी, ‘‘शिवानी को गाना ही सीखना होता तो कंप्यूटर इंजीनियर क्यों बनती. अरे, घंटेभर के गाने के लिए 1,000-1,200 रुपए दे कर वह जब चाहे 10-12 गाने वालों का गाना सुनवा सकती है. तुम भी आरती…’’ ‘‘लेकिन जीजाजी, उन्होंने तो अपनी अपेक्षाएं आप को बता दी हैं. वह भी आप ने संपर्क किया तब,’’ मैं ने कहा. ‘‘तुम दोनों बहनें पूरी गंवार मनोवृत्ति वाली बन रही हो,’’ शिवानी ने कहा, ‘‘लड़की है, इसलिए उसे रंगोली बनाना, गाना गाना, खाना बनाना आदि आना ही चाहिए. यह सब विचार कितने दकियानूसी भरे हैं. अब हम लड़कियां बैंक, औफिस आदि हर जगह मर्दों की तरह कुशलता से सबकुछ संभालती हैं तो सिलाईबुनाई अब मर्द क्यों नहीं सीखते.’’ ‘‘शिवानी, अगर तुम्हें कोई लड़का पसंद नहीं है तो मना कर दो पर किसी की अपेक्षाओं की खिल्ली उड़ाना कहां तक उचित है,’’ जीजी का स्वर जरा ऊंचा था. ‘‘तुम मेरी बेटी पर किसी तरह का दबाव नहीं डालोगी,’’ जीजाजी ने एकएक शब्द अलग करते हुए सख्त आवाज में कहा, ‘‘मैं ने देखा है, रश्मि साथ होती है तब तुम्हें कुछ ज्यादा ही शब्द सू?ाते हैं.’’ मैं दंग रह गई और जीजी चुप.

हम क्या शिवानी की या जीजी के ससुराल वालों की दुश्मन थीं, जो दोनों साथ मिल कर शब्दयुद्ध छेड़तीं. मुकुंद को मैं ने यह सब बताया ही नहीं. शायद वह जीजी के घर से संबंध कम करने के लिए कहते. जीजी की दुनिया में मैं शीतल छाया बन कर रहना चाहती थी. कितना कुछ ?ोला होगा जीजी ने आज तक. जीजाजी के सभ्य, सुसंस्कृत चेहरे के पीछे इतना जिद्दी, इतना स्वकेंद्रित व्यक्ति होगा, यह किसे पता था. मेरी जीजी से सारे परिवार के लिए स्वेटर बुनवाने वाले जीजाजी अपनी बेटी के बारे में इतना अलग दृष्टिकोण क्यों अपनाते होंगे. आएदिन अपने दोस्तों के लिए मेहमाननवाजी के बहाने जीजी को रसोई में व्यस्त रखते थे, जीजाजी. क्या खाना बनाना सुशिक्षित लड़कियों के लिए ‘बिलो डिग्निटी’ है. जीजी भी तो पढ़ीलिखी हैं. पढ़ाने की क्षमता रखती हैं.

अपने बच्चों की पढ़ाई में कई सालों तक सहायता करती रहती हैं. बाहर की दुनिया में कदम रखते ही अगर औरत ही घर को भुला देगी तो घर सिर्फ ईंटों का, लोहे का, सीमेंट का एक ढांचा ही तो रहेगा. उस का घरपन कैसे टिक पाएगा? करीब 2 साल के बाद शिवानी का विवाह हो गया. ससुराल के लोग बड़े अच्छे हैं. दामाद तो हीरा है पर अमेरिका में नौकरी कर रहा है, जहां शिवानी को खाना भी बनाना पड़ता है. ?ाड़ू, बरतन, कपड़े सबकुछ करती है वह. उस से अधिक पढ़ेलिखे, अधिक कमाने वाले जमाई राजा भी उस का हाथ बंटाते हैं. सुखी दांपत्य के लिए पतिपत्नी को एकदूसरे के कामों में हाथ तो बंटाना ही पड़ता है. जीजाजी जा कर सबकुछ देख आए हैं. मैं ने एक दिन नौकरों के बारे में पूछ ही लिया. ‘‘क्या पागलों जैसे सवाल करती हो रश्मि,’’ उन्होंने डांटा, ‘‘वहां नौकर नहीं मिलते.

हर व्यक्ति को अपना काम स्वयं करना पड़ता है. भई, अपना काम खुद करने में वहां के लोग संकोच नहीं करते. उन का मानना है कि व्यक्ति को आत्मनिर्भर होना चाहिए. फिर मेरे दामाद मदद भी तो करते हैं, अमेरिका में महिलाओं की बड़ी इज्जत है.’’ मैं ने चुप रहना ही उचित सम?ा. अमेरिका में महिलाओं की इज्जत किस प्रकार होती है, इस बारे में कौन क्या कह सकता है. काम में हाथ बंटा कर, वक्त आने पर पत्नियों को मारने वाले, पत्नी को छोड़ कर दूसरी स्त्री के साथ जाने वाले या छोटे से कारण से तलाक देने वाले अमेरिकी पतियों की संख्या के बारे में कौन नहीं जानता है. फिर उन की संस्कृति की प्रशंसा करने वाले जीजाजी अपने घर में एक गिलास पानी भी खुद हाथों से ले कर नहीं पीते, यह क्या मैं ने देखा नहीं. खैर, दो चेहरे वाले लोगों के ?ां?ाट में कौन सिर खपाए.

‘‘अविनाश के लिए अब ढेरों रिश्ते आ रहे हैं,’’ चाय पीते हुए जीजाजी बोले, ‘‘लड़की वालों को पता है कि ऐसा अच्छा घरवर और कहीं तो बड़ी मुश्किल से मिलेगा.’’ उन्होंने गर्व से जीजी की तरफ देखा. जीजी प्लेट में बिस्कुट सजाने में मगन थीं. ‘‘आप की बात सौ फीसदी सच है, जीजाजी,’’ मैं ने कहा, ‘‘रूप, गुण, शिक्षा, वैभव क्या कुछ नहीं है हमारे अविनाश के पास और जीजी जैसी ममतामयी सास,’’ इतना कह कर मैं ने प्यार से जीजी के गले में अपनी बांहें डाल दीं. ‘‘क्या चाहिए, रश्मि,’’ जीजा ने पूछा, ‘‘इतना मस्का क्यों लगा रही हो जीजी को.’’ ‘‘अविनाश की तसवीर और बायोडाटा दे दो. तुम्हारे लिए 2-4 अच्छी बहुएं लाऊंगी, जिन में से शायद एक तुम्हें पसंद भी आ जाए.’’ ‘‘जरा देखपरख के लाना रिश्ते,’’ जीजाजी ने चेतावनी देते हुए कहा, ‘‘आजकल की लड़कियां बहुत तेजतर्रार हो गई हैं.’’ ‘‘मतलब…’’ ‘‘अरे, 4 दिनों पहले एक लड़की के मातापिता मिलने आए थे.

वैसे तो वे हैदराबाद किसी की शादी में आए थे, लेकिन जब अविनाश के बारे में उन्हें पता चला तो अपनी बेटी के लिए रिश्ता ले कर मिलने आ गए.’’ ‘‘अच्छी थी लड़की?’’ मैं ने उत्सुकता से पूछा. ‘‘फोटो लाए नहीं, पर हां, जानकारी तो प्रभावित करने वाली थी,’’ जीजाजी ने बताया, ‘‘उन की बेटी ने एमबीए किया है और पिछ?ले 6 सालों से पुणे में नौकरी कर रही है. अगर अविनाश पुणे में कोई नौकरी कर ले तो काम हो सकता है.’’ ‘‘अच्छा, और अविनाश का यहां का काम.’’ ‘‘वही तो मैं कह रहा हूं. आजकल तो लड़की वालों के बातविचार ही सम?ा में नहीं आते. उन की लड़की एक एमबीए डिगरी को छोड़ कर और किसी चीज में निपुण नहीं है और 8 साल से यहां काम जमा कर बैठा हुआ मेरा बेटा शहर छोड़ कर वहां जाए.’’ ‘‘मना कर देते आप,’’ जीजी ने धीरे से कहा. ‘‘वही तो किया. लेकिन आरती, इन इंजीनियर, डाक्टर लड़कियों के मातापिता सोचते हैं कि उन्होंने जैसे आकाश छू लिया है.

अगर लड़की उन्नीस है तो लड़का भी तो बीस या इक्कीस वाला ही ढूंढ़ेंगे न? फिर इतनी शर्तें, इतना घमंड क्यों.’’ जीजी बोलीं, ‘‘आजकल लोग लड़कालड़की की परवरिश में फर्क नहीं करते. उन्हें भी अपनी अपेक्षाएं बताने का हक है.’’ ‘‘अरे भई, शिक्षादीक्षा, खानापीना, लाड़प्यार सभी में लड़केलड़की बराबर होंगे तब भी फर्क तो रहेगा न,’’ जीजाजी बोले, ‘‘बहू इस घर में आएगी, अविनाश उस घर को नहीं जाने वाला.’’ बातों से लगा कि जीजाजी अब चिढ़ गए हैं. ‘‘लेकिन जीजाजी, आजकल दोनों की कमाई में फर्क नहीं है. समान अधिकार हैं स्त्रीपुरुष के.’’ ‘‘देखो रश्मि, हम लोगों को बहू चाहिए, नौकरी नहीं. इस घर को एक कुशल गृहिणी की जरूरत है, अफसर की नहीं. अगर लड़की होशियार है, कोई काम कर रही है तो इस घर से उसे पूरा सहयोग मिलेगा, लेकिन अगर वह घर से ज्यादा महत्त्व अपने कैरियर को देना चाहती है तो उसे शादी नहीं करनी चाहिए.’’ ‘‘जीजाजी, आप ने मेरे सामने यह अभिप्राय बता दिया तो ठीक है, लेकिन किसी आधुनिक विचारों वाली लड़की के सामने मत बोलिएगा.

?ागड़ा हो जाएगा.’’ ‘‘होने दो, लेकिन अपने अनुभव की बातें बताने से मु?ो कोई नहीं रोक पाएगा,’’ जीजाजी की आवाज कुछ ऊंची उठ गई, ‘‘उस दिन एक महाशय पत्नी के साथ आए थे. कहने लगे कि उन की बेटी को विदेश जाने का मौका मिलने वाला है तो क्या अविनाश उस के साथ अपने खर्च से जा पाएगा?’’ ‘‘फिर…’’ ‘‘मैं ने कह दिया कि महाशय, मेरे बेटे को विदेश जाने का मौका मिलता तो पत्नी का खर्चा वह खुद देता और उसे साथ ले जाता. उन की बेटी भी तो मेरे बेटे का टिकट खरीद सकती है. दोनों की कमाई में फर्क नहीं. अधिकार समान है, फिर यह दोहरा मानदंड क्यों?’’ मैं चुप्पी लगा गई. अगर कहती कि जीजाजी, दोहरे मानदंड वाले तो आप हैं. शिवानी की शादी के समय आप के विचार कुछ अलग थे और आज बेटे की शादी के समय में कुछ अलग हैं. जीजी ने कितनाकुछ खो कर घरपरिवार को, संस्कृति के मूल्यों को बरकरार रखा था. जीजाजी सम?ादार होते तो जीजी अपने व्यक्तित्व को गरिमामय रख कर भी वह सबकुछ कर सकती थीं. कोई काम भी कर सकती थीं.

जीजी को खरोंचने का काम अकेले जीजाजी करते थे. बेटी और बहू में फर्क करने वाली सास पर अनेक धारावाहिक देखने और दिखाने वाले समाज में जीजाजी जैसे कई पुरुष भी हैं जो पत्नी और बेटी के सम्मान में जमीनआसमान का अंतर रखते हैं. मैं जब सीधीसादी पर सम?ादार नंदिनी का रिश्ता ले कर गई, तब मु?ो जीजाजी की पसंद पर कोई खास भरोसा नहीं था. मेरे मन में जीजी के लिए एक अच्छी, प्यार और सम्मान देने वाली बहू लाने की इच्छा इतनी प्रबल न होती तो मैं जीजाजी के सामने इतने सारे प्रस्ताव न रखती. मु?ो पता था कि अविनाश को नंदिनी पसंद आएगी, क्योंकि वह मां के संस्कारों के सांचे में ढला था. मैं यह भी जानती थी कि शिवानी की मुंहफट बातों को स्मार्टनैस सम?ाने वाले जीजाजी को कम बोलने वाली नंदिनी कैसे पसंद आएगी.

घर संभाल कर अनुवाद और लेखन करने वाली लड़की किसी डाक्टर या इंजीनियर लड़की जितनी बोल्ड कैसे हो सकती है. शिवानी बिजली है. उस के सामने नंदिनी एक दीपक की छोटी सी लौ की तरह मंद, आलोकहीन लगेगी. लेकिन मेरी सोच गलत साबित हुई. अपनी मधुरता से नंदिनी ने सब को मोह लिया. विवाह हो गया. बहुत खुश है अविनाश. जीजी को मेरी तरह एक शीतल छाया मिल गई है. जब मैं जीजाजी को बड़े शौक से खाना खाते और नंदिनी को कोई खास बनाई गई चीज परोसते हुए देखती हूं, तब मेरे मन में संदेह जागता है कि मैं ने नंदिनी के साथ अन्याय तो नहीं किया. शायद जीजाजी को जीजी जैसी स्नेहिल, घर को प्यार करने वाली ही बहू चाहिए थी ताकि उन का,

उन के बेटे का घर अक्षुण्ण रहे. उन के चैन और आराम बने रहें. लेकिन मेरा मन खुद से प्रश्न करता है, दो चेहरे वाले इंसानों की असलियत कौन जान सकता है. क्या पता अविनाश भी कुछ सालों बाद जीजाजी की तरह… मैं राह देख रही हूं जीजी के पोतेपोतियों की. पोती आएगी, तभी पता चलेगा कि जीजाजी का दूसरा चेहरा सचमुच उतर चुका है या मौका मिलते ही वह फिर उन के आजकल के चेहरे को ढ?कने आ पहुंचेगा. मेरा आशावादी मन कल्पना में देख रहा है, उस उतरे हुए चेहरे की धज्जियां और अब चढ़े हुए चेहरे पर ?ालकती तंदुरुस्ती की गुलाबी चमक. द्य इन्हें आजमाइए ? अपने घर के लिए कुछ खरीदें तो स्पेसिफिक जगह को दिमाग में रखें. ड्राइंगरूम का कारपेट रूम के साइज के अनुसार होना चाहिए. अगर अपने बैडरूम में कपल फोटो लगाना है तो वौल का साइज चेंज कर के ही फ्रेम का साइज चुनें क्योंकि चीजें स्पेस के अनुसार जंचती हैं. ? प्रैग्नैंसी के दौरान आप का उठना,

बैठना और सोना ये तीनों चीजें आप के पेट में पल रहे शिशु पर असर डाल सकती हैं. इसलिए अपने शरीर की पोजीशन का हमेशा ध्यान रखें. सही तरीके से उठें, बैठें और सोएं ताकि शिशु पर किसी तरह का कोई प्रभाव न पड़े. ? वजन कम करने के चक्कर में बाहर के पैकेट प्रौडक्ट्स का सेवन ज्यादा करने लगते हैं जो सेहत के लिए काफी हानिकारक होता है. वजन को कम करने के लिए घर का बना खाना खाएं, जो हैल्दी और प्रिजर्वेटिव फ्री होता है. ? महिलाएं इसे नजरअंदाज करती हैं, लेकिन सही ब्रैस्ट शेप के लिए सही ब्रा बहुत जरूरी है. अगर आप अपनी ब्रा को ले कर श्योर नहीं हैं तो एक बार एक्स्पर्ट से बात जरूर कर लें. ? यदि आप जिम से वर्कआउट करने के बाद प्रोटीन पाउडर लेते हैं तो यह आप को एनर्जी देने वाला तथा आप की मसल्स में ग्रोथ करने वाला साबित होगा.

अविवाहित ननद यानि डेढ़ सास

इसमें कोई शक नहीं कि बेटी का रिश्ता तय करते वक्त मां बाप इस बात पर ज्यादा गौर करते हैं कि कहीं लड़के की बड़ी बहन अविवाहित तो नहीं. इसकी वजह भी बेहद साफ है कि घर में चलती उसी की है. सास अब पहले की तरह ललिता पवार जैसी क्रूर नहीं रह गई है, लेकिन बड़ी अविवाहित ननद बिन्दु, अरुणा ईरानी और जयश्री टी जैसी हैं, जिसके हाथ में घर की न केवल चाबियां बल्कि सत्ता भी रहती है, इसीलिए उसे डेढ़ सास के खिताब से नवाजा जाता है. छोटे भाई को वह बेटा भी कहती है और दोस्त भी मानती है. ऐसे में बेटी शादी के बाद उससे तालमेल बैठा पाएगी इसमें हर मां बाप को शक रहता है.

बेटी भले ही रानी बनकर राज न करे चिंता की बात नहीं, लेकिन ससुराल जाकर ननद के इशारों पर नाचने मजबूर हो यह कोई नहीं चाहता क्योंकि भाई का स्वभाविक झुकाव कुंवारी बड़ी बहन की तरफ रहता ही है. हालांकि इसके पीछे उसकी मंशा यह रहती है कि दीदी को एक अच्छी सहेली और छोटी बहन मिल जाएगी, लेकिन अधिकतर मामलों में ऐसा होता नहीं है क्योंकि पत्नी और बहन दोनों उस पर बराबरी से हक जमाते कुछ दिनों बाद बिल्लियों की तरह लड़ती नजर आती हैं.

भोपाल के 32 वर्षीय बैंक अधिकारी विवेक की बड़ी बहन 36 वर्षीय प्रेरणा की शादी किन्हीं वजहों के चलते नहीं हो पाई थी. मां की इच्छा और असशक्ता के चलते तीनों ने फैसला यह लिया लिया कि विवेक ही शादी कर ले. पिता थे नहीं, इसलिए विवेक की तरफ से शादी के सारे फैसले प्रेरणा ने लिए. शुचि के मां बाप ने भी मन में खटका लिए ही सही शादी कर दी. शुरू में प्रेरणा का रवैया बेहद गंभीर और परिपक्व था उसने पूरे उत्साह और जिम्मेदारी से शादी सम्पन्न कराई और शुचि को भाभी के बजाय छोटी बहन ही कहा.

दो चार महीने ठीक ठाक गुजरे.  शुचि भी बैंक कर्मी थी लिहाजा हनीमून से लौटने के बाद वह अपनी नौकरी में लग गई. एक बात उसने न चाहते हुये भी नोटिस की कि पूरे हनीमून के दौरान विवेक दीदी की बातें ज्यादा करता रहा था कि पापा के असामयिक निधन के बाद मम्मी बिलकुल टूट गईं थी और बिस्तर से लग गईं थीं तो उनकी देखभाल के लिए दीदी ने शादी नहीं की क्योंकि उस वक्त वह पढ़ रहा था.

विवेक की नजर में दीदी का यह त्याग अतुलनीय था. शुचि उसकी भावनाओं को समझ रही थी लेकिन यह बात उसे खटक रही थी कि नैनीताल वे दीदी के त्याग का पुराण बांचने आए हैं या फिर रोमांस करते एक दूसरे को समझने आए हैं.

भोपाल लौटते ही बात आई गई हो गई और चारों अपनी दिनचर्या में बांध गए. बहू बेटा और बेटी साथ खाने बैठते थे तो मां खुश हो जातीं थीं और बार बार हर कभी शुचि की तारीफों में कसीदे गढ़तीं रहतीं थीं कि उसके आने से घर में रौनक आ गई है, उलट इसके विवेक का पूरा ध्यान प्रेरणा पर रहता था कि ऐसी कोई बात न हो जो दीदी को बुरी लगे. हर बात में दीदी उसकी प्राथमिकता में रहती थीं. वह जो भी शुचि के लिए खरीदता था वही प्रेरणा के लिए भी खरीदता था ताकि उसे बुरा न लगे.

शुचि को इस पर कोई एतराज नहीं था हालांकि कभी कभी उसे यह सब बुरा लगता था लेकिन मम्मी की दी यह सीख उसे याद थी कि ऐसा शुरू शुरू में हो सकता है इसलिए उसे इन बातों को गंभीरता से नहीं लेना चाहिए, बल्कि पति का सहयोग करना चाहिए फिर धीरे धीरे सब ठीक हो जाएगा और मुमकिन है अब प्रेरणा की भी शादी हो जाये.

लेकिन ऐसा हुआ नहीं उल्टे दिक्कत उस वक्त शुरू हो गई जब दिन भर घर में खाली बैठी रहने वाली प्रेरणा शुचि के कामों में मीनमेख निकालने लगी और विवेक दीदी के लिहाज में चुप रहा. यहां तक भी शुचि कुछ नहीं बोली लेकिन ननद का व्यवहार और घर में एकछत्र दबदबा उसे अखरने लगा था. घर में क्या आना है, रिश्तेदारी कैसे निभाना है जैसी बातें प्रेरणा ही तय करती थी. और तो और आज सब्जी कौनसी बनेगी यह फैसला भी वही लेती थी.

शुरू में जब शुचि बैंक से आती थी तो प्रेरणा उसे चाय बनाकर दे देती थी, इस परिहास के साथ कि मेरी भाभी कम बहन ज्यादा थक गई होगी लेकिन वक्त के साथ घर में पैदा हुआ यह सौहाद्र छू हो रहा था. थकी हारी शुचि या तो खुद चाय बनाकर पी लेती थी या फिर बिना पिये ही रह जाती थी. इस और ऐसे कई बदलावों पर प्रेरणा पहले तो खामोश रही पर जल्द ही उसने शुचि को महारानी के खिताब से नवाजते एक दिन विवेक को कह दिया कि बेहतर होगा कि वह अलग रहने लगे.

इस धमाके से सभी भौंचक्क रह गए खासतौर से विवेक जिसने कभी ऐसी स्थिति की उम्मीद ही नहीं की थी. अब घर में स्थायी रूप से कलह पसर गई है और शुचि का मुंह भी खुल गया गया है.

यह सच्चा वाकिया हर उस घर का है जहां डेढ़ सास है. रिश्तों को समझने और निभाने में कहां किससे कितनी चूक हुई है, इसे हर किरदार के लिहाज से देखा जाना जरूरी है जिससे यह समझ आए कि इस अप्रिय और अप्रत्याशित स्थिति की वजह क्या है.

विवेक – विवेक की गलती यह है कि उसने पत्नी के मुकाबले बहन को ज्यादा तरजीह दी, जबकि उसे शुचि की भावनाओं का भी खयाल बराबरी से रखते दोनों के बीच तालमेल बैठाना चाहिए था. शादी के बाद उसे बहन पर निर्भरता कम करनी चाहिए थी और शुचि को भी हर छोटे बड़े फैसले में महत्व देना चाहिए था. दीदी अकेली है, बड़ी है और अब हमें ही उसका ध्यान रखना है जैसी बातों से साफ है कि वह शुचि को प्रेरणा का प्रतिस्पर्धी मानने की गलती कर रहा था. उसकी मंशा गलत नहीं थी लेकिन हालातों को ओपरेट करने का तरीका गलत था.

शुचि – ससुराल आते ही शुचि के मन में यह बात बैठ गई थी कि घर में उसकी भूमिका एक सदस्य की नहीं बल्कि मेहमान की की है लिहाजा उसने अपने अधिकार न तो हासिल किए और न ही इस्तेमाल किए. उसने यह भी मान लिया कि जब सब कुछ प्रेरणा ने ही करना है तो वह क्यों खामखा किसी मामले में टांग अड़ाये. एक तरह से विवादों और जिम्मेदारियों से बचने वह डिफेंस में रही, लेकिन प्रेरणा के ताने सुन आपा खो बैठी और विवेक से दीदी के लगाव के चलते हर ज्यादती बर्दाश्त करती रही.

प्रेरणा – शुरू में प्रेरणा की भूमिका अभिभावक की थी लेकिन असुरक्षा के चलते वह खुद की तुलना शुचि से करने की गलती कर बैठी. खासी पढ़ी लिखी प्रेरणा यह नहीं समझ पाई कि विवेक और शुचि को एक दूसरे को समझने नजदीकियां और एकांत चाहिए और इसमें उसे आड़े नहीं आना चाहिए. उसे यह काल्पनिक चिंता सताने लगी थी कि शुचि घर की बहू है इस नाते वह उसके अधिकार छीन लेगी इस गलतफहमी के चलते वह लगातार आक्रामक होती गई. अलावा इसके खुद के अकेलेपन का दंश भी उसे सालने लगा था जो निरधार था. उसने शुचि को न भाभी समझा और न ही बहिन मान पाई.

मां –  मां की तटस्थ भूमिका का खामियाजा सभी भुगत रहे हैं जिन्होंने हालातों को भांपने के बाद भी दखल नहीं दिया जो जरूरी था. बेटी की परेशानी के सामने उन्हें बहू की परेशानी समझ नहीं आई और आई भी तो वे चुप रहीं. जरूरी तो यह था कि वे तीनों को अलग अलग और इकट्ठा बैठाकर भी समझातीं, खासतौर से विवेक को कि उसे कैसे बहन और पत्नी के बीच में संतुलन बैठालना है.

अब शुचि प्रेगनेंट है और मायके में रह रही है, उसके मम्मी पापा को भी समझ नहीं आ रहा है कि ऐसी हालत में क्या किया जाये. अगर विवेक को ज्यादा  समझाएंगे तो वह भड़क भी सकता है, हालांकि वह हर सप्ताह शुचि से मिलने आता है और उसे समझाता है कि कुछ दिनों में सब ठीक हो जाएगा. दीदी ने तो गुस्से में अलग होने की बात कह दी है.

लेकिन शुचि को लगता है कि अब कुछ ठीक नहीं होगा और होगा तो तभी जब डेढ़ सास की शादी हो जाये.

हार्ट अटैक और कार्डियक अरेस्ट में पहचाने फर्क

53 साल के मशहूर सिंगर केके यानी कृष्ण कुमार कुन्नथ अब हमारे बीच नहीं हैं. कोलकाता कौन्सर्ट के दौरान वे थोड़ा असहज महसूस कर रहे थे. इस के बावजूद उन्होंने करीब घंटेभर के अपने शो को पूरा किया और कौन्सर्ट से होटल जाते हुए उन की तबीयत बिगड़ी और वे गिर पड़े.

अस्पताल ले जाए जाने पर डाक्टरों द्वारा उन्हें मृत घोषित कर दिया गया. पुलिस को इंतजाम में किसी गड़बड़ी का शक था तो किसी ने इसे हार्ट अटैक की संभावना बताई, जबकि पोस्टमार्टम और औटोप्सी के अनुसार गायक की मौत के कारण के रूप में ‘मायोकार्डियल इंफार्कशन’ बताया गया.

ऐसी ही एक घटना मुंबई की पौश एरिया में 38 साल के एक व्यक्ति के साथ हुई. औफिस से घर लौटने पर उस की पत्नी और बेटी ने उस की घबराहट को देखा. उसे नीचे बैठा कर पानी दिया. पानी पीने से पहले उस का गिलास हाथ से गिर गया और वह बेहोश हो गया. तुरंत डाक्टर को बुलाया गया लेकिन तब तक उस की मौत हो चुकी थी. इस व्यक्ति के पीछे घरेलू हाउसवाइफ और 2 छोटीछोटी बेटियां बिना किसी सहारे के रह गईं.

मायोकार्डियल इंफार्कशन (एमआई) को आमतौर पर हार्ट अटैक कहा जाता है. जब हार्ट में ब्लड फ्लो कम होने लगता है या हार्ट की कोरोनरी आर्टरी बंद हो जाती है तब ऐसी अवस्था होती है. इस रोग में हृदय की धमनियों के भीतर एक प्लेक सा पदार्थ जमने लगता है जिस की वजह से ये धमनियां सिकुड़ने लगती हैं और हृदय तक खून का पहुंचना बंद हो जाता है.

क्या है अंतर

बहुत से लोग अकसर हार्ट अटैक और कार्डियक अरेस्ट को समानार्थी सम झ लेते हैं लेकिन इन दोनों स्थितियों में काफी अंतर होता है. कुछ लोग कार्डियक अरेस्ट का मतलब दिल का दौरा सम झ लेते हैं पर दिल का दौरा पड़ने का मतलब होता है हार्ट अटैक आना. दिल का दौरा तब होता है जब हृदय में रक्त का प्रवाह अवरुद्ध हो जाता है और कार्डियक अरेस्ट तब होता है जब मनुष्य का हृदय अचानक कार्य करना बंद कर देता है जिस से दिल का धड़कना भी अचानक बंद हो जाता है.

कार्डियक अरेस्ट हार्ट अटैक की तुलना में अधिक घातक होता है क्योंकि कार्डियक अरेस्ट में व्यक्ति को बचाने का समय बहुत कम मिल पाता है.

बनें जागरूक

इस बारे में मुंबई के कोकिलाबेन धीरूभाई अंबानी हौस्पिटल के कार्डियोलौजिस्ट डा. प्रवीण कहाले कहते हैं, ‘‘दिल का दौरा (हार्ट अटैक) तब होता है जब हृदय की धमनियों यानी रक्त वाहिकाओं, जो हृदय की मांसपेशियों को पंप करने के लिए औक्सीजन युक्त रक्त की आपूर्ति करती है, में से एक ब्लौक हो जाती है. हृदय मांसपेशी को उस का कार्य सुचारु रूप से कर पाने के लिए सब से जरूरी होता है रक्त, लेकिन धमनी के ब्लौक हो जाने पर वह नहीं मिल पाता है और अगर इस का इलाज समय पर नहीं किया गया तो पर्याप्त मात्रा में औक्सीजन न मिल पाने की वजह से हृदय मांसपेशी का कार्य बंद पड़ने लगता है. जब किसी व्यक्ति का हृदय रक्त पंप करना बंद कर देता है तब हृदय की गति रुक जाती है जिसे कार्डियक अरेस्ट कहते हैं.

‘‘यह व्यक्ति सामान्य रूप से सांस नहीं ले पाता है. वयस्कों में कार्डियक अरेस्ट बहुत बार दिल के दौरे की वजह से होता है. जब दिल का दौरा पड़ता है तब हृदय की धड़कन में खतरनाक अनियमितता आ जाती है जिस से कार्डियक अरेस्ट हो सकता है. कमजोर हृदय वाले लोगों को यह तकलीफ होती है यानी उन के हृदय की पंपिंग क्षमता (इजैक्शन फ्रैक्शन) बड़े पैमाने पर कम हो जाती है (35त्न से कम). इसे अचानक होने वाली ‘कार्डियक डैथ’ भी कहा जाता है.

दिल के दौरे के लक्षण

चैस्ट में बेचैनी : दिल के दौरों के ज्यादातर केसेस में चैस्ट के बीचोंबीच बेचैनी महसूस होती है जो कई मिनटों तक रहती है, फिर दूर होती है और फिर से होने लगती है. बेचैन कर देने वाला दबाव, छाती को निचोड़ा जा रहा हो ऐसा दर्द, छाती भरीभरी सी महसूस होना या छाती में दर्द होना आदि में से कुछ भी हो सकता है.

शरीर के दूसरे हिस्सों में बेचैनी : दोनों या किसी एक हाथ में, पीठ, गरदन, जबड़े या पेट में दर्द या बेचैनी होना.

सांस लेने में तकलीफ : छाती में बेचैनी के साथसाथ सांस लेने में तकलीफ होना दिल के दौरे का एक लक्षण हो सकता है. कई दूसरे लक्षण जिन्हें अधिकतर व्यक्ति सम झ नहीं पाते, इन में बहुत सारा पसीना निकलना, मतली या चक्कर आना शामिल हैं.

पुरुषों और महिलाओं में लक्षण कई बार अलगअलग हो सकते हैं, इसलिए यह भी जान लेना जरूरी है.

पुरुषों की तरह महिलाओं में भी दिल के दौरे का सब से प्रमुख लक्षण छाती में दर्द या बेचैनी होना है लेकिन इस के दूसरे लक्षण पुरुषों से अधिक महिलाओं में दिखाई पड़ते हैं जिन में, खासकर, सांस लेने में तकलीफ, मतली, उलटी होना, पीठ और जबड़े में दर्द आदि शामिल हैं.

कार्डियक अरेस्ट में अचानक दिल का काम करना बंद हो जाता है. कार्डियक अरेस्ट किसी लंबी या पुरानी बीमारी का हिस्सा नहीं है, इसलिए कार्डियक अरेस्ट को दिल से जुड़ी बीमारियों में सब से खतरनाक माना जाता है. लोग अकसर इसे दिल का दौरा पड़ना सम झते हैं. इस बारे में डा. प्रवीण कहते हैं कि इस के लक्षण को जानना बहुत जरूरी है.

कार्डियक अरेस्ट के लक्षण

व्यक्ति का अचानक होश खो देना और उसे हिलाने पर भी उस का कोई प्रतिक्रिया न देना.

सामान्य रूप से सांस न ले पाना.

अगर कार्डियक अरेस्ट के व्यक्ति का सिर उठा कर कम से कम 5 सैकंड्स तक देखते हैं तो पता चलेगा कि वह सामान्य तरीके से सांस नहीं ले पा रहा है.

क्या करें अचानक उपाय

कार्डियक अरेस्ट होते ही उस व्यक्ति को सुरक्षित स्थिति में रखें, उस की प्रतिक्रिया की जांच करें.

अगर उस की प्रतिक्रिया महसूस नहीं कर पा रहे हैं तो तुरंत मदद के लिए चिल्लाएं, अपने आसपास के

किसी व्यक्ति को अपने इमरजैंसी नंबर पर कौल करने के लिए कहें. इस के अलावा उस व्यक्ति को एईडी (औटोमेटेड एक्सटर्नल डिफाइब्रिलेटर) ले कर आने को कहें. उन्हें जल्दी करने के लिए कहें क्योंकि इस में समय बहुत महत्त्वपूर्ण होता है. यदि आप किसी ऐसे वयस्क के साथ अकेले हैं जिस में कार्डियक अरेस्ट के लक्षण दिखाई दे रहे हैं तो इमरजैंसी नंबर पर कौल करना सब से जरूरी होता है.

उस व्यक्ति को सांस लेने में तकलीफ, सिर्फ हांफ रहा है, सांस नहीं ले पा रहा है, तो कंप्रैशन के साथ सीपीआर देना शुरू करें.

हाई क्वालिटी सीपीआर देना शुरू करें, अपने हाथों को मिला कर छाती को बीचोंबीच रखें और छाती कम से कम दो इंच भीतर जाए, इस प्रकार दबाएं. एक मिनट में 100 से 120 बार दबाया जाना चाहिए. हर बार दबाए जाने के बाद छाती को उस की सामान्य स्थिति में आने दें.

एईडी का इस्तेमाल करें, जैसे ही एईडी आता है उसे शुरू करें और संकेतों का पालन करें.

सीपीआर देना जारी रखें. जब तक वह व्यक्ति सांस लेना या हिलना शुरू न कर दे या ईएमएस टीम सदस्य जैसा अधिक उन्नत प्रशिक्षण लिया हुआ कोई व्यक्ति जब तक वहां न पहुंचे, तब तक सीपीआर को जारी रखना पड़ता है.

मैं सीरियस टाइप का हूं, फनी बातें कैसे करूं?

सवाल

मेरी उम्र 30 साल की है लेकिन देखने में 25 साल का लगता हूं. मेरे इसी गुड लुक्स की वजह से 24 साल की एक लड़की को मुझसे प्यार हो गया और उस की मस्तमस्त अदाओं पर मैं भी फिदा हो गया. दिक्कत यह आ रही है कि उसे हंसीमजाक पसंद है, जबकि मैं जरा सीरियस टाइप का हूं. चैटिंग करने का उसे बहुत शौक है, जबकि मुझे समझ नहीं आता कि उस से फनी बातें कैसे करूं? मुझे फनी बातें करना बिलकुल पसंद नहीं है. आप ही मेरी इस समस्या का हल बताएं.

जवाब

आप को कुछ चालाकी दिखाने की जरूरत है क्योंकि आप दोनों डिफरैंट नेचर के लग रहे हो. अभी तो लड़की आप के लुक्स की दीवानी हो गई है लेकिन कहीं आप की सीरियसनैस की वजह से वह आप से बोर न होने लगे. इसलिए अपनी बातों को थोड़ा फनी, फनी न भी बना सको, दिलचस्प बनाने की कोशिश तो करनी ही पड़ेगी.

आप चैट करते हुए लड़की से कई फनी बातें पूछ सकते हो जैसे कि तुम ने अपनी हंसी को कहीं जबरदस्ती रोकने की कोशिश की है? क्या कभी कोई अजीब चीज खाई है? अगर एक दिन के लिए गायब हो जाओ तो क्या करना चाहोगी, एक दिन के लिए लड़का बनो तो क्या करोगी, ऐसी कोई चीज जो फिर नहीं करना चाहोगी वगैरावगैरा.

ये कुछ ऐसे फनी सवाल हैं जिन पर बात करतेकरते कितनी ही और मजेदार बातें निकल कर सामने आएंगी और आप की बातें और भी ज्यादा दिलचस्प बन जाएंगी. धीरेधीरे ही सही पर आप को तो उस के नेचर के हिसाब से ढलना ही होगा, तभी बात करने में मजा आएगा.

आप को अपने अनुभव भी याद आएंगे और इस तरह आप दोनों के बीच की बौंडिंग भी स्ट्रौंग बनेगी. कोशिश शुरू कर दीजिए, नतीजा अच्छा ही निकलेगा. होप फौर द बैस्ट.

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz

सब्जेक्ट में लिखें- सरिता व्यक्तिगत समस्याएं/ personal problem

समर स्पेशल : ब्रेकफास्ट में बनाएं मूंग दाल चीला

मूंग दाल चीला ब्रेकफास्ट में सर्व होने वाली हेल्दी और टेस्टी रेसिपी है. यह बनाने में जितनी आसान है खाने में उतनी ही स्वादिष्ट और पौष्टिक. तो आइए झट से बताते हैं इसकी रेसिपी.

 सामग्री

1 1/2 भिगोकर, पानी निकाली हुई मूंग दाल

3/4 टेबल स्पून जीरा पाउडर

1/2 टेबल स्पून हरी मिर्च का पेस्ट

1/2 टेबल स्पून अदरक का पेस्ट

2 चुटकी नमक

2 टेबल स्पून वर्जिन औलिव औयल

बनाने की वि​धि

हरी मूंग की दाल को 5 घंटे के लिए पानी में भिगो दें. जब यह अच्छी तरह फूल जाए, इसका पानी निकाल लें और मिक्सर में पीस लें.

अब पिसी दाल में बाकी सारी सामग्री मिला लें और अच्छी तरह मिक्स करें.

अब एक चपटे नौन-स्टिक पैन में तेल डालकर गरम करें. एक चम्मच दाल का पेस्ट पैन पर डालकर चम्मच के पीछे की साइड से अच्छी तरह फैला लें.

हल्का सा पकने पर चीले को पलट लें और दोनों तरफ से हल्का भूरा होने तक अच्छी तरह सेक लें. तैयार चीले को हरी चटनी या टमैटो सौस के साथ सर्व करें.

मैं कहां आ गई- भाग 5

नरगिस बोली, “तुम लोगों ने यह क्या लिबास पहना है? क्या इसी तरह बाहर जाओगी?”

“क्यों…? इस लिबास में क्या है?” इमराना ने तैश में आ कर कहा.

“यह लिबास शरीफ लड़कियों पर अच्छा नहीं लगता.”

“क्या हम शरीफ लड़कियां नहीं हैं? आप इसलिए आई हैं हमारे घर कि हमारी ही बेइज्जती करें?”

“यह बेइज्जती नहीं, लड़कियों पर दुपट्टा सजता है.”

“बसबस, अपनी नसीहत अपने पास रखें. डैडी, मैं यह बेइज्जती बरदाश्त नहीं कर सकती. मैं नहीं जाती, आप लोगों के साथ.”

“मैं भी नहीं जाऊंगी.” फरहाना ने बहन का साथ दिया.

“तुम लोग क्यों इतनी जज्बाती होती हो? नजमा इस तरह के लिबास की आदी नहीं. कुछ दिन यहां रहेगी तो सीख जाएगी.

खुद भी यही लिबास पहना करेगी.”

नरगिस का मुंह लटक गया. वह समझ रही थी कि भाई उस की तारीफ करेंगे और बेटियों को डांटेंगे कि कैसा लिबास पहन

कर आ गईं, मगर वह तो उलटे उन की हिमायत कर रहे थे. भाभी अलग मुंह बनाए खड़ी थीं. अब नरगिस के बिगडऩे का

सबब ही नहीं था. उस ने माफी मांग ली, “मुझे माफ कर दो इमराना. भाईजान ठीक कहते हैं. मैं इस लिबास की आदी नहीं हूं

न, इसलिए यह बात कह दी. आओ, घूमने चलें.”

बुझे मन से दोनों बहनें उस के साथ चल दीं.

अगले दिन नरगिस ने सुना कि मास्टर साहब आए हैं तो उस के तालीम के शौक ने सिर उभारा, “भाईजान, मैं भी मास्टर

साहब के पास जा कर बैठ जाऊं?”

“हांहां, क्यों नहीं. मैं इंटरकौम पर कहता हूं, इमराना दरवाजा खोल देगी, तुम जाओ.” रशीद बोला.

“मगर वह है किस कमरे में?”

“बालरूम में, और कहां.”

“जी अच्छा, मैं जाती हूं.”

नरगिस ने सोचा, मास्टर साहब से वह खुद बात करेगी. मास्टर साहब तैयार हो गए तो भाई से कह कर कल से खुद भी

पढऩा शुरू कर देगी. नरगिस ने दरवाजे को धक्का दिया. दरवाजा खुला हुआ था. रोम, अतोम, ततोम, तना, तरा, री… अंदर

से आवाजें आ रही थीं. नरगिस उन आवाजों से अवगत थी. यह किस किस्म की पढ़ाई है. वह डरतेडरते अंदर गई. जिन्हें वह

मास्टर साहब कह रही थी, वह उस्तादजी थे. उन से इमराना और फरहाना संगीत की तालीम हासिल कर रही थीं. नरगिस

के लिए उस घर में यह एक और नई बात थी. उस्तादजी ने नरगिस की तरफ देखा और गाना बंद कर दिया.

“यह लडक़ी कौन है?”

“डैडी की बहन हैं.”

“आज से पहले तो नजर नहीं आईं?”

“अभी तो आई हैं मुलतान से.”

“अच्छा चलो, तुम सबक दोहराओ.”

नरगिस एक तरफ सिमट कर बैठ गई. सबक फिर शुरू हो गया.

थोड़ी देर बाद मास्टर साहब रुखसत हो गए और दूसरे उस्तादजी के आने का वक्त हो गया. अब नाच की महफिल जम गई.

नरगिस को बारबार महसूस हो रहा था, जैसे वह दिलशाद बेगम के कोठे पर बैठी है. उसी रात 11 बजे की बात है. इमराना

ने नरगिस से कहा, “आओ, तुम्हें अपने दोस्तों से मिलाऊं.”

नरगिस खुशीखुशी उस के साथ चली गई. बालरूम में महफिल जमी हुई थी. नरगिस का खयाल था, इमराना की सहेलियां

होंगी, लेकिन यहां तो मामला ही दूसरा था, 4 लडक़े बैठे थे.

डेक बज रहा था, फरहाना नाच रही थी. चारों लडक़े सोफे पर बैठे दाद दे रहे थे. नरगिस ने सोचा, तमाशबीनों की कसर थी

इस घर में, अब यह भी पूरी हो गई. सिर्फ नोट नहीं बरसाए जा रहे हैं. बाकी सब वही है, जिस से बच कर वह यहां आई थी.

उसे यों लगा, जैसे सब कुछ वही है, सिर्फ कोठा बदल गया है. अब यह उस के बर्दाश्त से बाहर था. वह गुस्से से उठी और सीधे

भाई के पास कमरे में पहुंच गई.

“भाईजान, यह क्या माहौल बनाया है आप ने?”

“क्या हो गया?” रशीद अहमद घबरा कर खड़ा हो गया.

“मैं अभी बालरूम से आ रही हूं,” नरगिस ने बताया, “फरहाना डांस कर रही है और वह भी लडक़ों के सामने.”

“ओह,” रशीद अहमद बुरी तरह हंसने लगा, “बस इतनी सी बात है? उन लोगों ने एक म्युजिकल ग्रुप बनाया है. प्रोग्राम करते

हैं. किसी प्रोग्राम की रिहर्सल कर रहे होंगे.”

“भाईजान, आप की नजर में यह कोई बात ही नहीं है. लोग मुजरा देखने घरों से दूर जाते हैं, मगर यहां तो घर ही में मुजरा

हो रहा है.”

“नजमा,” रशीद जोर से चीखा, “खबरदार, मेरी बच्चियों के शौक को मुजरा कहती हो? मैं ने तो सुन लिया, लेकिन सोचो,

इमराना या फरहाना ने सुन लिया होता तो उन के दिलों पर क्या गुजरती. तुम्हारी भाभी पार्टी में गई हैं. अगर वह होतीं तो

कितना बिगड़तीं तुम पर.”

“लेकिन भाईजान, क्या मैं सच नहीं कर रही हूं?”

“बिलकुल नहीं. म्यूजिक एक आर्ट है और मेरी बच्चियां आॢटस्ट हैं. यह आर्ट उन्हें शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचाएगा.”

“नाम बदलने से मुजरा आर्ट बन सकता है, लेकिन रहेगा तो मुजरा ही.”

“क्या बेवकूफी की रट लगा रखी है. बड़े घरानों में इसे बुरा नहीं समझा जाता. अब तुम बड़े घर में आ गई हो. एडजस्ट होने

की कोशिश करो.”

“बहुत अच्छा, भाईजान.”

नरगिस सोच रही थी, क्या दिलशाद बेगम का कोठा भी बड़ा घर था? क्या वह घर छोड़ कर उस ने गलती की है? क्या वह

एडजस्ट नहीं हो सकी थी? क्या वहां से आना उस की गलती थी?

बहुत दिनों बाद उस रात नरगिस फिर रोई. ये आंसू खुशी के नहीं, पछतावे के थे. नरगिस से नजमा बनने का पछतावा. अब

उस ने तय किया कि वह इस घर के मामलों में दखल नहीं देगी.

दूसरे दिन शाम को घर में भूचाल आ गया. नौकरचाकर भागेभागे फिर रहे थे. शायद कोई अहम मेहमान आने वाले थे.

मुमकिन है, इमराना या फरहाना में से किसी का रिश्ता आया हो. भाभी की जुबानी मालूम हुआ कि टीवी के प्रोड्यूसर

फरहाना से मुलाकात के लिए आए हैं. कोई ड्रामा तैयार हो रहा है. वह फरहाना को उस में शामिल करना चाहते हैं.

नरगिस तो वहां जा कर नहीं बैठी, लेकिन जब वे चले गए तो भाभी ने उसे बताया, “शुक्र है, फरहाना की मेहनत वसूल हो

गई. प्रोड्यूसर ने बताया कि वह एक ड्रामा तैयार कर रहे हैं, जिस में 2-3 मुजरे पेश किए जाएंगे. फरहाना उस ड्रामे में

तवायफ बन कर मुजरा करेगी. अब देखना, कैसी शोहरत होती है उस की.”

नरगिस जहर का घूंट पी कर रह गई.

प्रोड्यूसर और अदाकारों का आनाजाना बढऩे लगा. फरहाना के दिमाग भी अर्श को छू रहे थे. सीधे मुंह बात ही नहीं करती

थी. उठतेबैठते प्रोड्यूसर की तारीफें, अदाकारों के किस्से. फिर उस ड्रामे की शूङ्क्षटग शुरू हो गई. फरहाना रात गए वापस

आती. सुबह होते ही फिर चली जाती.

उसी बीच जापान से नरगिस का दूसरा भाई हमीद आ गया था. नरगिस भाई की मोहब्बत में गुम हो गई. नरगिस ने उस से

भी दबेदबे लफ्जों में फरहाना की शिकायत की, लेकिन उस का कहना भी यही था कि इस में कोई हर्ज नहीं है, यह मौडर्न

जमाना है. और उस को नापसंद करने वाले दकियानूसी हैं. हमीद कुछ दिन रहने के बाद वापस चला गया. नरगिस फिर जैसे

होश में आ गई. उसे होश आया तो मालूम हुआ, ड्रामा मुकम्मल हो गया है.

“आज फरहाना का मुजरा प्रसारित होगा.” भाभी ने नरगिस को बताया.

पूरा घर टीवी के सामने मौजूद था. रशीद अहमद बारबार घड़ी की तरफ देख रहे थे. वक्त हुआ और ड्रामा शुरू हो गया. फिर

वह सीन आया, जिस में मुजरा पेश किया जाना था. प्रोड्यूसर ने हकीकत का रंग भरने के लिए असली वेश्या बाजार में

शूङ्क्षटग की थी. फरहाना बता रही थी, “यह सेट नहीं है, असली कोठा है.”

चंद उच्छृंखल किस्म के जवान तकियों से टेक लगाए बैठे थे. बूढ़ी नायिका पानदान खोले बैठी थी. इतनी देर में फरहाना कैमरे

के सामने आई. दाग की एक गजल पर उस ने नाचना शुरू किया. एक नौजवान बारबार उठता था और फरहाना शरमा कर

कलाई छुड़ा लेती थी और फिर नाच शुरू हो जाता था.

“वेलडन फरहाना.” डांस खत्म होने के बाद रशीद अहमद ने बेटी को मुबारकबाद दी.

“खुदा करे, यह सीन मशहूर हो जाए.” भाभी ने बेटी को मुबारकबाद दी.

इमराना तो खुशी से फरहाना के गले लग गई.

नरगिस इस धूमधाम से बेपरवाह सोच रही थी. यह कैसा इंकलाब है. मैं कोठे पर सिखलाई जाने के बावजूद वहां नाच नहीं

सकी, भाग आई. एक शरीफ घर की लडक़ी वहां पहुंच कर नाच आई. वही लोग, जो तवायफ को गाली समझते हैं, तवायफ

की तरह नाचने पर अपनी बेटी को मुबारकबाद दे रहे हैं.

उस दिन तो फरहाना को होश ही नहीं था, लेकिन दूसरे दिन उस ने नरगिस से पूछा, “नजमा फूफी, कैसा था मेरा डांस?”

“डांस तो बाद की बात है, पहले यह बताओ कि उस वक्त तुम में और किसी तवायफ में कोई फर्क था?” नरगिस ने पूछा.

“फर्क नहीं रहने दिया, यही तो मेरा कमाल था.” फरहाना ने जवाब दिया.

“तुम करो तो कमाल. यही कमाल तवायफ करें तो समाज गाली देता है.”

“इसलिए कि तवायफ आॢटस्ट नहीं होती.” फरहाना ने दलील दी.

“बहुत खूब. मगर यह क्यों भूलती हो कि वे तुम से बड़ी आॢटस्ट होती हैं. तुम से बेहतर नाच सकती हैं.”

“गलत. तवायफ तमाशबीनों को खुश करने की अदाएं जानती हैं, नाच क्या जानें?”

“तमाशबीनों को तो तुम ने भी खुश किया. देखा नहीं, तुम्हारे डैडी और तुम्हारी मम्मी कैसे खुश हो रहे थे. हालांकि उन्हें

फिक्रमंद होना चाहिए था.”

“यह महज अदाकारी थी.”

“तवायफ भी तो अदाकारी करती है.”

“आप कहना क्या चाहती हैं?”

“यही कि उस वक्त तुम में और किसी तवायफ में कोई फर्क नहीं था, सिवाय इस के कि तुम अदाकारा भी थीं.”

“ऐसी घटिया सोच पर मैं इस के अलावा आप से क्या कह सकती हूं कि आप अनपढ़, जाहिल और गंवार हैं. आप इस फन की

एबीसी भी नहीं जानतीं और चली हैं आलोचना करने.”

“जहां तक जानकारी की बात है फरहाना, तो मैं बता सकती हूं कि तुम ने कहांकहां गलती की है.”

“जिन उस्तादों से मैं ने सीखा है, उन की आप को हवा भी नहीं लगी है. पांव उठा कर चलना आता नहीं, चली हैं मेरी

गलतियां निकालने.”

“मैं तुम्हारी गलतफहमी दूर कर दूं?”

“क्या करेंगी आप?”

“उस गजल की रिकौॄडग है तुम्हारे पास, जिस पर तुम नाची थीं?”

“है.”

“बालरूम में चलो और उसे बजाओ.”

फरहाना की समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि क्या होने वाला है. उस ने कैसेट को प्लेयर में रख दिया और देखने लगी कि

क्या होता है.

नरगिस का बदन हरकत में आया और उस के अंगों ने शायरी शुरू कर दी. वह नाच रही थी और फरहाना उसे हैरानी से देख

रही थी. जिसे वह जाहिल, गंवार कह रही थी, वह उस वक्त माहिर नर्तकी नजर आ रही थी. फरहाना ने कई बार अपनी

आंखों को मसला, लेकिन यह हकीकत थी, ख्वाब नहीं था.

“फरहाना, इसे कहते हैं नाच.”

“नजमा फूफी, आप ने यह डांस कहां सीखा?”

“इसे छोड़ो कि यह डांस कहां सीखा, यह पूछो कि मैं ने इस वक्त डांस क्यों किया? तुम न भी पूछो तो मैं तुम्हें बताऊंगी. मैं ने

यह अदना सा नमूना इसलिए पेश किया कि तुम यह जान लो कि नाच सिर्फ तवायफ पर सजता है. तुम घर की जन्नत छोड़

कर दोजख तक जाओगी, लेकिन नाच फिर भी नहीं आएगा. यह नाच मैं ने यह बताने के लिए किया है कि मैं नाच सकती हूं,

लेकिन मैं इस पर फख्र नहीं करती. फख्र करती हूं शराफत के उस आंचल पर, जो इस वक्त भी मेरे सिर पर है. आर्ट के नाम पर

खुद को धोखा मत दो. तुम्हारा आर्ट हमारी शराफत और पाकीजगी है, जो तुम कहीं रख कर भूल गई हो. तुम्हें नाच इसलिए

नहीं आ सकता, क्योंकि तुम तवायफ बनने की अदाकारी तो कर सकती हो, पर वह जख्म कैसे खाओगी, जो तवायफ के दिल

पर रोज लगते हैं. अब भी वक्त है, लौट आओ. इसलिए कि तवायफ जब बगावत करती है तो किसी शरीफ घराने में पनाह

लेती है. तुम बगावत करोगी तो कहां जाओगी? कुछ सोचा? सोच लो तो मुझे बता देना.”

फरहाना सोचती तो क्या, उस ने तो पूरे घर में ऐलान कर दिया कि उस ने एक आॢटस्ट खोज लिया है. यह खबर रशीद अहमद

तक कैसे नहीं पहुंचती. रशीद ने पूछा, “सुना है, तुम डांस बहुत अच्छा करती हो?”

“मजबूरियां जब हद से बढ़ जाएं तो नाच बन जाती हैं.” नरगिस बोली.

“तुम्हें यह फन भी आता है, मुझे मालूम ही नहीं था.”

“मालूम होता भी कैसे, मेरे कदम तो भाई की चारदीवारी में हैं.”

“फन और खुशबू को छिपे नहीं रहना चाहिए. तुम कहो तो मैं कोशिश करूं. एमडी से ले कर चेयरमैन तक सब से परिचय है.”

“अब मुझ में भागने की हिम्मत नहीं है.”

“यह तुम किस किस्म की बातें कर रही हो? सोचो तो, तुम्हारी तसवीरें अखबारों की जीनत बनेंगी. मशहूर हो जाओगी.

तुम्हारे साथ मेरी शोहरत भी होगी.”

नरगिस को लगा, जैसे उस का भाई नहीं, गुलजार खां सामने खड़ा है, जो फिर एक शरीफ घर की लडक़ी को उठाने आ गया

है. वह गौर से उन्हें देख रही थी.

“मगर तुम ने यह फन सीखा कहां से?” रशीद ने पूछा.

“सुन सकेंगे?”

“अरे भई, यकीनन किसी अच्छे उस्ताद का नाम आएगा, सुनेंगे क्यों नहीं.”

“मेरी उस्ताद थीं दिलशाद बेगम और मैं ने यह फन लाहौर की हीरा मंडी (वेश्या बाजार) में 15 साल की लगातार मेहनत से

सीखा है.”

“क्या… तो तुम…?”

“हां, भाईजान, मैं तवायफ थी और शराफत की तलाश में अपने वारिसों के साए में पनाह लेने आई थी.”

“आहिस्ता बोलो. किसी ने सुन लिया तो क्या कहेगा. मेरी इज्जत खाक में मिल जाएगी.”

“कह दीजिएगा, फरहाना की तरह अदाकारी कर रही है.”

“खामोश, मेरी बेटी का नाम अपने साथ न लो. अगर तुम पहले यह सब कुछ बता देतीं तो मैं अपने घर के दरवाजे बंद कर

लेता. वैसे भी तुम हमारे लिए मर चुकी थीं.”

“तो बंद कर लीजिए. यों भी मुझे जिस घर की तलाश थी, यह वह घर नहीं है.”

“दरवाजे अब बंद करूंगा तो दुनिया से क्या कहंूगा?”

“कह दीजिएगा कि तवायफ थी, निकाल दिया.”

“बहुत खूब, मैं अपने मुंह पर खुद कालिख मल दूं.”

“मैं अगर आप के मशविरे पर अमल कर के आर्ट के नाम पर नाचने का प्रदर्शन करूं, तो आप का मुंह सलामत रहेगा?”

“वह और बात होगी.”

“मगर इस तरह मेरे मुंह पर कालिख मल जाएगी. दिलशाद बेगम कहेगी, शाबाश, नरगिस बेगम, शाबाश. तू ने कोठा छोड़

दिया, पेशा नहीं छोड़ा. जो काम मैं तुम से नहीं ले सकी, तेरे सगे भाई ने ले लिया.”

रशीद सिर झुका कर अपने कमरे में चला गया और नरगिस अपने कमरे में आ गई.

दोपहर का वक्त था. सब अपनेअपने कमरों में थे. नरगिस खामोशी से उठी. ड्राइंगरूम में रखी हुई रशीद अहमद की तसवीर

अपनी चादर में छिपाई और खामोशी से बाहर आ गई.

“बीबीजी आप…” दरबान ने पूछा.

“हां, मैं जरा पड़ोस में जा रही हूं. कोई पूछे तो बता देना.”

नरगिस सडक़ पर आई और एक टैक्सी को हाथ दे कर रोका, “स्टेशन चलो.”

स्टेशन पहुंच कर नरगिस ने एक कुली से बुङ्क्षकग औफिस का पता पूछा. चंद औरतें खिडक़ी के सामने खड़ी थीं. वह भी खड़ी

हो गई.

“कहां की टिकट दूं?”

“मुलतान.”

टिकट ले कर गाड़ी का वक्त पूछा और प्लेटफार्म पर आ गई. आज वह फिर एक गुलजार खां से, एक दिलशाद बेगम से बच कर

भाग रही थी. हरम गेट, मुलतान- अपनी मांजी के पास.

छिताई का कन्यादान- भाग 5

तब उस ने छिताई को अपने विश्वस्त राघव के महल में भेज दिया. अलाउद्दीन ने उस की सुरक्षा की इस आशय से अलग व्यवस्था की कि भविष्य में समय बदलने पर उस का मन भी बदल जाए. साथ लाई उस की वीणा भी मन बहलाने के लिए भेज दी.

उधर जब सौंरसी तैयारी के साथ देवगिरि वापस पहुंचा तो उसे छिताई के अपहरण की सूचना मिली. यह आघात वह सहन न कर सका. उस ने दुर्ग, सेना, महल, राजपाट सब त्याग दिया. उस की दशा एक बार तो विक्षिप्त की भांति हो गई. वह जंगल में चला गया और उस ने वैरागी रूप धर लिया. जो मिला, खा लिया और इधरउधर घूमने लगा. वह छिताई की हर ओर खोज करने लगा. अपने असह्यï वियोग की करुणा को उस ने वीणा में झंकृत करना आरंभ किया.

संगीत अन्य कलाओं की भांति साधना है जो भावातिरेक में स्वरों को चमत्कार के रूप में प्रकट करता है. भावों की गहनता कला को साधना के सोपानों से सिद्धि के शिखर का स्पर्श करा देती है. जब छिताई की अतृप्त स्मृति को सौंरसी वीणा के विराट सुरों से तृप्त करने का प्रयास करता तो प्रतीत होता जैसे अदृश्य से दृश्य हो रहा हो. एकांत में सौंरसी के वीणा वादन पर पशुपक्षी स्तब्ध हो कर मुग्ध हो जाते. पुष्प झूमने लगते. प्रकृति थिरकने लगती. वैरागी सौंरसी रुकता नहीं था, टोह लेतेलेते मंजिल की ओर बढ़ा जाता था.

वियोगी हृदयों की भी कोई अनजानी आहट होती होगी. भावी प्रेरणावश सौंरसी दिल्ली पहुंच गया. उस ने एक उपवन में डेरा डाला. प्रात: संध्या अथवा जब उस को भावोद्वेग होता, वह वीणा के तार छेड़ देता. तब बटोही थम जाते. पखेरू चित्रलिखित बन जाते और जल का निर्झर संगत करने लगता था.

उधर अलाउद्दीन ने छिताई के पास इस लालसा से वीणा भेज दी थी कि वह जब प्रकृतिस्थ होगी तो मन बहलाएगी. राघव चेतन के महल में वह कुछ संयमित तो हुई, परंतु स्वाभाविक न बन सकी. राघव चेतन की बातों तथा प्रेरक आशावादिता से वह शरीर संरक्षण हेतु कुछ खानेपीने लगी, मगर वीणा को उस ने हाथ नहीं लगाया. यह वही वीणा थी, जिस पर सौंरसी ने उसे वीणा बजाना सिखाया था. वह वीणा को छेड़ती तो न थी, परंतु उसे छोड़ती भी नहीं थी. वह वीणा उसे प्रियतम की सुधि दिलाती रहती थी.

सुलतान छिताई की वीणा सुनना चाहता था. मगर अन्यमनस्का छिताई उन तारों पर अंगुली नहीं रखती थी. अंत में बादशाह की आज्ञा से दिल्ली के प्रसिद्ध वीणावादक गोपाल नायक छिताई को वीणा झंकार की शिक्षा देने हेतु भेजे गए.

सुलतान ने वादा किया कि जिस दिन छिताई वीणावादन करेगी, गोपाल नायक को मुंहमांगा ईनाम मिलेगा. गोपाल नायक ने बारंबार चेष्टा की. गायन और वादन से छिताई में छिपे कलाकार को जगाने की चेष्टा की परंतु सफल न हुए.

अलबत्ता दोनों कलाकारों ने एकदूसरे में अंतर्निहित कला को पहचान लिया. परस्पर सहानुभूति भी हुई. गोपाल नायक छिताई की यातना को समझते थे. छिताई कम से कम एक बार वीणा बजा कर उन की प्रतिष्ठा सुलतान की निगाह में बढ़ाना चाहती थी, मगर कर न सकी.

अंत में उस ने वह वीणा स्वयं गोपाल नायक को दे दी. उस ने कहा, ‘‘गुरुजी, इसे रख लीजिए. शायद कभी वे आएंगे तो देख कर पहचान तो लेंगे अपनी वीणा को. फिर वे इसे बजाएंगे अवश्य. जब उन के हाथ से वीणा बजेगी तो कितना ही शोर हो, मैं सो भी रही होऊं तो इस वीणा के सुरों को पहचान कर जान लूंगी.’’

दिल्ली में सौंरसी के वीणा वादन की अलौकिकता की ख्याति बढ़ रही थी. उस ने भी संगीतज्ञ एवं वीणावादक गोपाल की पारंगतता के विषय में सुना. सौंरसी गोपाल नायक के घर गया. गोपाल नायक ने सम्मानपूर्वक अपने कक्ष में बैठाया. वार्ता करते हुए सौंरसी ने वहां छिताई द्वारा प्रदत्त अपनी वीणा देखी तो उसे बजाने की अभिलाषा व्यक्त की. जैसे ही सौंरसी ने उस वीणा के सुर झनझनाए तो वे चिरपरिचित स्वर छिताई के कानों में गूंज उठे.

उसे प्रियतम के आगमन का आभास हो गया. वह भावातिरेक में विह्वल हो उठी. सुलतान की पाबंदियों के चलते वह अपने स्वामी से मिल नहीं सकती थी. गोपाल नायक इस कौशल से वीणा बजाने और सौंरसी के उत्साह से जान गए कि यह युवक छिताई की प्रियतम है. उन्होंने उसे राघव चेतन की मार्फत सुलतान से मिलने की सलाह दी, परंतु छिताई के विषय में कुछ नहीं बताया.

योगी वेश में सौंरसी राघव चेतन से मिला और उन से सुलतान से मिलाने की प्रार्थना की. राघव योगी की वीणा वादन कला तथा व्यक्तित्व से प्रभावित हुआ. उस ने योगी की भेंट दरबार में सुलतान से कराई. योगी ने बताया कि वह दक्षिण में सिंहल से आया है और उस का सब कुछ दिल्ली के बाहर के उद्यान में छिन गया है. सुलतान को आश्चर्य हुआ, क्योंकि उद्यान में कोई आताजाता न था. फिर योगी के पास ऐसी क्या संपत्ति होगी जो कोई छीनेगा.

योगी की बातें रहस्यमय लगीं तो भी अलाउद्दीन ने उसे परखने की दृष्टि से वीणा बजाने को कहा. योगी ने सिर झुका कर अनुरोध किया कि सुलतान यदि एक बार उद्यान में दरबार लगाएं तो उसे उस का खोया सब कुछ मिल जाएगा. वहीं वह वीणा भी बजाएगा. सुलतान मुसकराया.

उद्यान के सुरम्य वातावरण में दरबार का आयोजन किया गया. सुलतान ने अनुभव किया कि योगी का वीणा वादन शुरू होते ही दिल गुलाब के फूल की तरह खिल उठा. फिजा खुशगवार होने लगी. लगा, जैसे कुदरत ने नींद से जाग कर अंगड़ाई ली हो. पशुपक्षी एकत्रित होने लगे. जब तक वीणा बजती रही, पूरा दरबार, पशुपक्षी, पेड़पौधे सब चुपचाप सुनते रहे. वीणा वादन खत्म होने पर सुलतान बोल उठा, ‘‘मरहबा! क्या खूब!’’

उसे छिताई से अपना वादा याद आया. इस वीणा पर भी यदि छिताई ने वीणा नहीं बजाई तो वह बहरी हो चुकी होगी. उस ने राघव चेतन से छिताई को वीणा सहित बुला लाने का आदेश दिया. जब तक छिताई आ नहीं जाती, उस ने योगी को वीणा बजाने का आदेश दिया. सुलतान ने कहा, ‘‘अगर तुम्हारी वीणा से छिताई की तकलीफ दूर हो जाए तो तुम जो मांगोगे, तुम्हें ईनाम दिया जाएगा.’’

सौंरसी तन्मय हो कर बजाने लगा. दूर से आती हुई छिताई ने जब वीणा की वह चिरपरिचित स्वरलहरी सुनी तो उस का दिल उछलने लगा. छिताई के पांव स्वचालित से उठने लगे. जब उस ने सौंरसी को देखा, तो दाढ़ीमूंछ, केश तथा जोगिया भेष के बावजूद पहचान गई. फिर तो प्रच्छन्न आह्लाद का ज्वार उमड़ आया. मुखमंडल प्रफुल्लता की आभा से दीप्त हो उठा. सारी सभा उस की इस असाधारण मन:स्थिति से प्रमुदित हो उठी.

राघव चेतन ने वीणा निकाली. गोपाल नायक ने उसे ला कर बीच सभा में छिताई के सामने वादन की स्थिति में प्रस्तुत कर दिया. आनंद की उदात्त लहरियां सौंरसी तथा छिताई के मानस में गूंज रही थीं. आंखों के मिलते ही वे एकदूसरे को पहचान ही नहीं गए, बल्कि उन में वियोग का संताप, उलाहना, यातना, सब आनंद में परिवर्तित हो गए. उस आनंद में संगीत सुख की वर्षा बन निर्झर सा फूट पड़ा.

अनजाने में छिताई ने सौंरसी की दी हुई वीणा को उठा लिया. लगा कि वह सुहाग के दिनों की पारंगतता को पुन: प्राप्त कर चुकी है. न जाने कब तक दोनों एकदूसरे की ओर अपलक निहारते हुए वीणा बजाते रहे. पशुपक्षी एकटक उन्हें देख रहे थे.

संगीत के ताल पर मोर नाचने लगे. मृग थिरकने लगे. लगता था, जैसे वीणा की स्वर लहरियों से सब अलौकिक हो उठा हो.

धीरेधीरे सौंरसी ने वीणा की गति धीमी की. छिताई ने भी साथ दिया. जब उन्होंने वीणा वादन रोका तो पूरी सभा सन्नाटे से करतल ध्वनि में बदल गई. सुलतान ने छिताई को इतनी उत्फुल्ल कभी नहीं देखा था. छिताई ने वीणा ही नहीं बजाई, उस ने अपनी कला और उल्लास से पूरी सभा को आह्लादित कर दिया था. सुलतान को अपना वादा याद आया. उस ने सौंरसी से पूछा, ‘‘तुम्हारा ईनाम पक्का. बताओ, तुम्हें क्या चाहिए. आज हमें पता चला कि मौसीकी भी एक तरह की इबादत है. और छिताई, हम ने तुम्हारी बारीकियों को भी परखा. गजब का हुनर है तुम दोनों में.’’

सौंरसी बुत बना बैठा रहा. वीणा वैसे ही पकड़े रहा. एकटक सुलतान को देखता रहा. सुलतान ने फिर शाबाशी देते हुए कहा, ‘‘जोगी, बताओ तुम क्या चाहते हो? तुम जो मांगोगे, वह तुम्हें मिलेगा.’’

जोगी ने अदब से सिर झुकाया, मुसकराया. फिर फरमाया, ‘‘मान्यवर, आप मुझे वचन देते हैं?’’

अलाउद्दीन की पारखी नजरों ने परख लिया था कि वे दोनों एकदूसरे के निकट रहे हैं. तुरंत उसे शक हो गया कि यही सौंरसी है. परंतु सभा के सम्मुख वह दो बार पूर्व ही वचन दे चुका था. उस ने बेसाख्ता कह दिया, ‘‘बेशक, हम अपनी बात पर कायम रहेंगे. अपना ईनाम मांगो.’’

जोगी ने हाथ जोड़ कर कहा, ‘‘श्रीमान, मुझे छिताई को ही दान में दे दीजिए.’’

सुलतान कुछ बोले, इस के पहले ही छिताई आर्तस्वर में, जिस में संयोग का आवेग और विरह की विवशता निहित थी, सिसकती हुई अपने पति के चरणों में गिर पड़ी. सुलतान ने एक बार सभा को देखा, फिर राघव चेतन को निहारते हुए बोला, ‘‘पंडित, वो क्या कहते हैं, तुम्हारे मजहब में? हां, कन्यादान. जोगी, तुम चाहे जो भी हो, मैं छिताई को तुम्हें कन्यादान करता हूं.’’

सौंरसी ने उठ कर 3 बार बंदगी की. पूरी सभा में वाहवाह, बाखूब, वल्लाह, आमीन की आवाजें गूंज उठीं. सुलतान ने हंसते हुए फरमाया, ‘‘मगर मैं ने बेटी को तो कुछ दिया ही नहीं. छिताई, बताओ, तुम क्या चाहती हो?’’

कुछ लोग कठोर अलाउद्दीन की इस दरियादिली पर चकित थे. चित्तौड़ और रणथंभौर के किलों को पत्थर के खंडहरों में तब्दील करने वाले अलाउद्दीन ने सब के सामने छिताई को अपनी बेटी पुकारा था. सौंरसी तथा छिताई की तपस्या ने पत्थर को भी पिघला दिया था. संगीत का जादू सिर चढ़ कर बोल रहा था. छिताई ने सिसकते हुए, हाथ जोड़ कर भूमि पर सिर रखा. बोली, ‘‘हे सम्राट, हे पिता, मुझे आप का बस आशीर्वाद चाहिए. आप ने मुझे सब कुछ दे दिया.’’

सौंरसी ने विनयपूर्वक अपना वास्तविक परिचय तथा छिताई को अपनी परिणीता बताया. पूरी सभा इस अद्भुत जोड़ी पर स्नेह की वर्षा करने लगी. अलाउद्दीन ने शाही ढंग से छिताई और सौंरसी की विदाई की. देवगिरि पहुंचने पर दोनों का भव्य स्वागत हुआ. छिताई ने अपने धैर्य से विजय प्राप्त की थी. कुछ दिन वहां रह कर दोनों द्वारसमुद्र चले गए. कोई 5 सौ वर्ष पूर्व कवि नारायण दास ने ‘छिताई वार्ता’ प्रेम काव्य की रचना की थी, जिस का विवरण डाक्टर राजमल वोरा ने अपनी पुस्तक ‘देवगिरि के यादव राजा’ में उल्लिखित किया है.

स्वारा भास्कर ने शेयर किया बेबी बंप की फोटो तो यूजर्स नेे किया ये कमेंट

बॉलीवुड एक्ट्रेस स्वारा भार्कर ने 3 महीने पहले समाजवादी नेता फहद अहमद से शादी रचाई है, इस शादी के बाद से स्वारा काफी ज्यादा चर्चा में आ गई थी, लेकिन स्वारा के फैंस को तब झटका लगा जब उन्होंने अपनी प्रेग्नेंसी की खबर सोशल मीडिया पर दी. इस खबर के सामने आते ही सोशल मीडिया पर बवाल मच गया था.

बता दें कि हाल ही में स्वारा भास्कर ने एक तस्वीर शेयर की है जिसके सामने आते ही फैंस और यूजर्स कमेंट करना शुरू कर दिए हैं,  स्वारा की तस्वीर सोशल मीडिया पर कुछ लोग ट्रोल कर रहे हैं तो वहीं कुछ लोग स्वारा को बधाई दे रहे हैं.

हाल ही में एक्ट्रेस ने अपना इंस्टाग्राम अकाउंट अपडेट किया है, जिसमें उन्होंने बेबी बंप फ्लॉट करते हुए तस्वीर शेयर की है, एक तस्वीर में स्वारा के पति भी उसके साथ नजर आ रहे हैं. जिसे देखकर स्वारा के चाहने वाले उन्हें बधाई दे रहे हैं.  बता दें कि जब स्वारा की प्रेग्नेंसी की खबर आई तो लोगों ने इस खबर को फर्जी बताया था. लेकिन जैसे ही स्वारा भास्कर ने सोशल मीडिया पर पोस्ट किया सब साफ हो गया कि यह खबर सच है. कुछ यूजर्स का कहना है कि स्वारा भास्कर शादी से पहले से प्रेग्ननेंट हैं.

फादर्स डे स्पेशल: त्याग की गाथा- पापा को अनोखा सबक

डाक्टर शर्मा नौकरी के चक्कर में परिवार को छोड़ कर दिल्ली गए और लोगों को लगा कि वह एक लड़की की मजबूरियों से खुल कर खेलने लगे, लेकिन एक दिन उन के बेटे राजेश ने ऐसा पासा फेंका कि उन की जिंदगी बदल गई.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें