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ये कैसी बेबसी : भाग 3

उस का ब्लड ग्रुप अरुण के ब्लड ग्रुप से मैच कर गया था.

बूढ़ा मुझ से मुखातिब हो कर बोला, ‘‘यह मेरा बेटा कुमजुक आओ है. यह तुम्हारे हसबैंड के कालेज में ही पढ़ता है और इन्हें जानता है. अच्छी बात, उस का खून उस से मिल गया है. अब वह उसे खून देगा. तुम बेकार डरता था.’’

मैं उन लोगों के प्रति कृतज्ञता से भर उठी.

आधेक घंटे में कुमजुक आओ के शरीर से खून निकल कर अरुण के शरीर में पहुंच चुका था. अरुण का चेहरा अब तनावरहित और स्थिर था. ब्लड देने के बाद भी कुमजुक आओ के चेहरे पर एक दिव्य चमक सी थी. मैं उस सुदर्शन युवक को देखती रह गई.

हृष्टपुष्ट खिलाडि़यों का सा बदन, जिस पर कहीं अतिरिक्त चरबी का

नाम नहीं था. हिंदी फिल्मों के हीरो समान करीने से कटे, संवारे केश. हंसता हुआ चेहरा, जिस में दुग्धधवल दंतपंक्तियां मोती सी आभा बिखेर रही थीं. उस की अधखुली, स्वप्निल सी आंखों में न जाने कैसा तेज और निश्छलता थी कि वह कांतिमय हो रहे थे.

बैड से उठते ही उस ने हाथपैर फेंके और सीधा खड़ा हो गया. डाक्टर ने उसे कुछ दवाएं और हिदायतें दीं, जिन्हें हंसते हुए स्वीकार कर लिया. फिर अपने पिता को दवाएं देते हुए मु?ा से बोला, ‘‘अब सर बिलकुल ठीक हो जाएंगे. सर बहुत अच्छे हैं. एकदम ह्यूमरस नेचर. पढ़ाते भी बहुत अच्छा हैं. दोस्तों की तरह मिलते हैं हम से. आप चिंता न करें. आप यहां आईं तो इस हालत में. खैर, कोई बात नहीं. चलिए, मैं आप को अपना गांव घुमा दूं.’’

शाम ढलने तक मैं उस के साथ सारा गांव घूम चुकी थी. मु?ो जरा भी यह एहसास तक नहीं हुआ कि मु?ो भी चोट लगी है. उलटे, अब मैं प्रफुल्लित सी महसूस कर रही थी. कुमजुक बातबात में ठहाके लगता, हंसता. उस के पास बातों का पिटारा था. एओ जाति की सभ्यतासंस्कृति के संबंध में अनेक बातें बताईं. विज्ञान का विद्यार्थी होने के बावजूद उस में इतिहास-भूगोल-समाज विज्ञान की गहरी सम?ा थी. उस ने गांव के कई युवकयुवतियों से मु?ो मिलवाया. फिर कुछ घरों में भी ले गया. घर में रखे प्राचीन सामान के बारे में विस्तार से जानकारी भी दी. यही नहीं, वह दुभाषिए समान बातों की व्याख्या भी करता. एक घर के बाहर कोई आधेक दर्जन खोपडि़यां टंगी थीं. उन्हें देख मैं सिहर उठी.

पूर्वोत्तर प्रदेशों में रात जल्द ढलती है.

सो, रात होते ही हम वापस लौट

चले थे. अरुण अस्पताल से वापस कुमजुक के घर शिफ्ट कर दिया गया था और अभी भी सो रहा था. चाय पीने के बाद भी कुमजुक देर तक मेरे साथ बात करता रहा. दाव-भाला से ले कर लकड़ी-बेंत आदि से बने टोकरी-बास्केट और बरतनों के बारे में बताता रहा. उस की वर्णनात्मक पटुता को देख मैं विस्मित थी. जैसे कोई दादीनानी अपने नातीपोतों को कोई प्राचीन लोककथाएं सुना रहा हो.

अचानक उस की मां आ कर बोली कि अरुण की नींद टूट गई है और मु?ो याद कर रहा है. अरुण अब स्वस्थ दिख रहा था. हमें देखते ही वह बोला, ‘‘अरे कुमजुक, तुम यहां कैसे?’’

‘‘यह तो मेरा ही घर है, सर,’’ वह हंस कर बोला, ‘‘समय का बात कि आप हमारे घर पर हैं. गांव वालों ने आप की जीप को ऐक्सिडैंट करते देख लिया था. मेरे फादर आप को घर ले आए.’’

‘‘इन का शुक्रिया अदा करो, अरुण,’’ मैं बोल पड़ी, ‘‘इन्होंने ही तुम्हें अपना खून दिया है. अब तुम्हारी धमनियों में इन्हीं का खून दौड़ रहा है.’’

‘‘शुक्रिया कैसा. यह तो अपना ड्यूटी था. अपने गेस्ट को सेफ्टी देना अपना काम है.’’

हम सभी हंस पड़े. वातावरण काफी सहज और सुखद हो गया था. तभी कुमजुक की मां खाने के लिए पूछने आ गई थी. कुमजुक बोला, ‘‘माफ करेंगे मैडम, हम नागा लोग शाम को ही खाना खा लेते हैं. वैसे, आप लोगों के लिए तो अलग से ही व्यवस्था करनी होगी.’’

‘‘नहींनहीं, रहने दो,’’ मैं बोल उठी, ‘‘परेशान होने की जरूरत नहीं. आप लोगों के अनुसार ही हमें भी चलना है.’’

आधेक घंटे बाद कुमजुक वापस आया तो उस के हाथ में 2 थालियां थीं. उन में चावल, सब्जी और उबले अंडे थे. थालियों को टेबल पर रखते हुए वह बोला, ‘‘मैं ने इन्हें अलग से स्टोव पर खास आप लोगों के लिए पकाया है. आराम से खाना खाओ.’’

अरुण तो अपनी अशक्तता के कारण नहीं के बराबर ही कुछ खा पाया. बमुश्किल मैं ने उसे अंडे खिलाए. अनिच्छा होने के बावजूद मैं ने भोजन किया. फिर अरुण की बगल में पड़ी चारपाई पर सो गई. मगर आंखों में नींद कहां थी. पूरा गांव सन्नाटे और अंधेरे में डूबा था. कुमजुक आओ से इतना सबकुछ जानसम?ा लेने के बावजूद कुछ अजीब सा लग रहा था. एक बार फिर मन न जाने कहांकहां भटकने लगा था.

इन्हीं भटकावों के बीच कब आंख लग गई, पता नहीं. अचानक शोरगुल सुन कर नींद खुल गई. मन में भांतिभांति की आशंकाएंकुशंकाएं घुमड़ने लगीं. खिड़की में लगे शीशे से बाहर ?ांक कर देखा. कुछ लोग दौड़तेभागते नजर आए. अनेक टौर्च की रोशनियां जलबु?ा रही थीं. एक ?ांड वरदीधारियों का भी दिखा. ये कौन हो सकते हैं. अभी सोच ही रही थी कि दरवाजे पर दस्तक पड़ने लगी. दरवाजा खुलते ही आधेक दर्जन वरदीधारी अंदर घुस आए थे. अंदर घुसते ही वे यहांवहां बिखर कर कुछ खोजने लगे थे. एक कड़कती आवाज गूंजी, ‘‘घर में कौनकौन है?’’

‘‘मैं हूं और मेरी वाइफ और छोटा बेटा है. 2 गेस्ट भी हैं,’’ बुजुर्ग सर्द आवाज में बोल रहे थे, ‘‘रास्ते में उन का ऐक्सिडैंट हो गया था. हम उन्हें यहां उठा लाए थे.’’

‘‘मुझे इस घर की तलाशी लेनी है,’’ वही स्वर उभरा, ‘‘पक्की सूचना मिली है कि…’’

‘‘तो ले लो न.’’

धड़ाधड़ सामान इधरउधर किए जाने लगे. एक तरह से फेंके जाने लगे. नागा समाज इतना सहज, सरल है कि उस के पास छिपाने को कुछ नहीं. बेहयाई के साथ सामान बिखेर दिए गए थे. अब वह सैन्य अफसर मेरे सामने खड़ा था, ‘‘आप यहां कैसे? कौन हैं आप?’’

‘‘मैं दिव्या हूं. ये मेरे पति अरुण हैं और मोकोकचुंग कालेज में प्रोफैसर हैं. हमारी जीप ऐक्सिडैंट कर गई थी.’’

‘‘क्या सुबूत है?’’

मैं ने अरुण के वौयलेट से उस का परिचयपत्र निकाल कर दिखाया.

‘‘जीप का क्या नंबर था?’’

अरुण ने कराहते हुए जीप का नंबर बताया. तभी एक जवान आ कर बोला, ‘‘ठीक कहता है. इसी नंबर की एक जीप रास्ते में दुर्घटनाग्रस्त मिली थी.’’ तभी दूसरी तरफ से एक अन्य जवान कुमजुक आओ को पकड़ लाया था. आते ही बोला, ‘‘यह देखिए सर, हम ने उसे पकड़ लिया, जिस की हमें तलाश थी.’’

कुमजुक के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं. वह चिल्ला रहा था, ‘‘छोड़ो, छोड़ो मु?ो. मैं ने क्या किया है?’’

‘‘क्या किया है,’’ अफसर उसे घुड़क रहा था, ‘‘पकड़े गए तो चालाकी दिखाते हो. कहां रहे 22 दिनों तक?’’

‘‘सर, यह आप क्या कह रहे हैं,’’ अरुण आवेश में आ कर बोला, ‘‘यह मेरे मोकोकचुंग कालेज का स्टूडैंट है. मैं इसे अच्छी तरह से जानता हूं. यह कोई गलत काम कर ही नहीं सकता. बड़ी बात यह कि पिछले डेढ़ माह से यह नियमित कालेज आता रहा है. संभव है, इस की मिलतीजुलती शक्लसूरत वाले किसी अन्य की तलाश हो आप को. सभी तो एकजैसे ही दिखते हैं. वह कोई और होगा.’’

‘‘देखिए, आप मुझे मत सिखाइए. यह भाषणबाजी कालेज में ही चले तो बेहतर. हमें आदमी पहचानने की ट्रेनिंग मिली है. हम गलती कर ही नहीं सकते. आखिर आर्मी वाले हैं हम. कोई सिविलियन नहीं, सम?ो जनाब,’’ अफसर रंज स्वरों में कह रहा था, ‘‘इस को बचाने के चक्कर में आप भी फंस जाएंगे तो होश ठिकाने आ जाएगा.’’

‘‘इस ने कल शाम ही इन्हें रक्तदान किया है,’’ मैं बोल पड़ी, ‘‘अभी अशक्त है. थोड़ी इंसानियत भी दिखाइए. ऐसी हालत में आप इसे नहीं ले जा सकते.’’

‘‘आप होती कौन हैं हमें अपने काम से रोकने वाली,’’ अफसर ने मु?ो घुड़का तो मैं सहम गई. कुमजुक आओ को बेड़ी पहनाते वक्त मैं ने फिर मिन्नत की. अफसर बोला, ‘‘देखिए, हम कुछ नहीं जानते. अब आर्मी कैंप में ही सच?ाठ का पता चलेगा. मैं आप से बहस नहीं करना चाहता. मैं भी देश का ही काम कर रहा हूं.’’

‘‘ऐसे आप देश का करते रहे काम तो हो चुका देश का कल्याण,’’ अरुण व्यंग्य से बोला, ‘‘अपराधी पकड़ पाएंगे या नहीं, पता नहीं. मगर दस अपराधी जरूर तैयार कर जाएंगे.’’

‘‘देखिए मिस्टर प्रोफैसर,’’ अफसर एकदम से अरुण के सिरहाने आ खड़ा हुआ, ‘‘मु?ो बकवास एकदम पसंद नहीं है. चुपचाप पड़े रहिए.’’

बुजुर्ग दंपती पत्थर के बुत जैसे बन

कर रह गए थे. गांव में विचित्र

सी शांति छा गई थी और मैं आर्मी वालों के साथ बंदी बनाए गए कुमजुक आओ को जाते हुए देख रही थी.

‘‘मु?ो मोकोकचुंग कालेज जाना ही होगा’’ अरुण उठते हुए बोला, ‘‘कल ही कुमजुक की अटेंडैंस शीट की प्रति जमा कर उसे छुड़ाना है.’’

मगर वह अपनी अशक्तता की वजह से निढाल हो बिछावन पर गिर पड़ा. हम सभी उसे संभालने में लग लिए.

यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है : भाग 3

“तुम्हें ही तो इतिहासकार बनना है न,” सहर मुसकरा दी, आगे कहा, “इतिहास लिखोगे तो सारे तथ्य लिखना. सच सब से ज़्यादा ज़रूरी होता है, याद रखना. इतिहासकार को सच ही लिखना चाहिए. उस से फ़ायदा होगा या नुकसान, यह देखना इतिहासकार का काम नहीं होता है.”

“पर यह सब मुझे सुनाने से क्या होगा, क्या मैं बेवकूफ हूं?”

सहर हंस पड़ी, बोली, “अच्छा सुनने की सलाहियत से अच्छा कहने का शऊर आता है.”

“एक तो तुम पता नहीं कैसी हिंदी बोलती हो, कभी उर्दू. मुझे तो तुम्हारी आधी बातें समझ ही नहीं आतीं. ठीक से इंग्लिश में ही बात क्यों नहीं कर लेतीं?”

“फिर कहोगे, हिंदू राष्ट्र में सब को हिंदी ही बोलनी है. अंगरेजों ने गुलाम बनाया था न, इसलिए उन की भाषा नहीं बोल रही.” उस की इस बात पर सब ज़ोर से हंसे, ओनीर झेंप गया. सिर्फ सहर ही उसे चुप करवा सकती थी. नएनए प्रेम में पड़े इंसान के लिए सबकुछ इतना भी आसान नहीं होता. और ओनीर तो सहर के प्रेम में बुरी तरह डूबा था.

“बहुत दिनों से पूछना चाह रहा था, तुम लोग उत्तराखंड से हो न? नौटियाल सरनेम वहीं से है न?”

“वाह, मुझ पर भी रिसर्च हो रही है.”

सब हंसने लगे, ओनीर चिढ़ा, “कुछ ठीक से बताओगी अपने बारे में? अब तो कालेज भी ख़त्म होने को आए.”

“हम नौटियाल लोग करीब 700 साल पहले टिहरी से आ कर तली चांदपुर में नौटी गांव में आ कर बस गए थे. नौटियाल चांदपुर गढ़ी के राजा कनकपाल के साथ संवत 945 में मालवा से आ कर यहां बसे, इन के बसने के स्थान का नाम गोदी था जो बाद में नौटी के नाम में बदल गया और नौटियाल जाति मशहूर हुई. यह सब मेरे पापा ने मेरी मम्मी को बताया था और मुझे मम्मी ने. और कुछ पूछना है?”

सहर के बोलने के ढंग में कुछ ऐसी बात थी कि जब वह बोलती, कोई उसे बीच में न टोकता. वह चुप हुई तो ओनीर, जो उसे अपलक देख रहा था, बोला, “फिलहाल इतना ही. बस, एक बात और, बुरा मत मानना. तुम्हारे पेरैंट्स में से कौन मुसलिम है?”

“मम्मी.”

“वे कहां की हैं?”

“यहीं मुंबई की.”

“तो पापा उत्तराखंड से आए थे?”

“हां,” कहते हुए सहर का चेहरा कुछ उदास सा हुआ. सब ने यह नोट किया तो युवान ने बात बदली, “चलो, अब सब क्लास में.”

सहर और ओनीर दोनों ही जानते थे कि समय के साथ उन के दिल में एकदूसरे के लिए वैसे भाव नहीं हैं जैसे साथ में रहने वाले और दोस्तों के लिए हैं. कई बार ऐसा भी तो होता है न, कि प्यार करने वाले अपने मुंह से कुछ भी नहीं कह रहे हैं पर आसपास के लोग दोनों की निगाहों में बहुतकुछ पढ़ लेते हैं. आंखों का काम सिर्फ देखना ही थोड़े ही होता है. आंखें बहुतकुछ कहतीसुनती भी तो हैं. इस तरह आंखें कभीकभी तो जबां और कानों का भी काम कर रही होती हैं.

कुछ महीने और बीते, पीएचडी हो गई. दीक्षांत समारोह के दिन ओनीर ने सहर से पूछा, “थोड़ी देर जुहू चलोगी?”

पूरे दिन के सैलिब्रेशन के बाद ओनीर और सहर समुद्र के किनारे टहल रहे थे. अचानक ओनीर ने कहा, “सहर, मैं तुम्हें प्यार करने लगा हूं. क्या तुम भी मेरे लिए कुछ ऐसा सोचती हो?”

ऐसे पल जीवन में इतने आम नहीं होते जितने लगते हैं. ये पल हमेशा के लिए स्मृतियों में अपनी पैठ बना लेते हैं. सहर को दिल ही दिल में ऐसे पलों की उम्मीद थी, यह कुछ बड़ा सरप्राइज नहीं था पर फिर भी ठंडी सी एक फुहार उस के अंदर तक उतर गई. उस ने बस ‘हां’ में सिर हिला दिया, फिर कुछ रुक कर कहा, “पर तुम जिस तरह से सोचते हो, हमारा रास्ता कभी एक हो नहीं सकता. थोड़ा प्रैक्टिकल हो कर कहूं, तो तुम कास्ट को ज़्यादा महत्त्व देते हो, इसलिए तुम्हारा दिमाग दिल पर हावी ही रहेगा, हम साथ चल नहीं पाएंगे.”

ओनीर चुप रहा तो सहर को इस बात का दुख हुआ कि ओनीर ने यह नहीं कहा कि नहीं, मेरे लिए प्रेम ज़्यादा ज़रूरी है. दोनों थोड़ी देर बाद एक जगह रेत पर बैठ गए. अंधेरा हो गया था. इतने में सहर का फोन बजा, “हां, मम्मी, आती हूं, ओनीर के साथ हूं. आप की मीटिंग कैसी रही? आती हूं, मम्मी. हां, अब सैलिब्रेट करेंगे.”

ओनीर ने अंदाजा लगाया कि सहर और उस की मम्मी की बौन्डिंग बहुत अच्छी है. वह जानता था कि कुछ साल पहले सहर के पिता नहीं रहे थे. उस की मम्मी वर्किंग थीं. सहर एक गहरी सांस ले कर चांद को देखने लगी. इस समय बीच पर बहुत ही खुशनुमा सा, कुछ रहस्यमयी सा माहौल होता है. छोटे बच्चे इधरउधर दौड़ते रहते हैं. इस समय जवान जोड़ों की बड़ी भीड़ होती है. अंधेरे में दूर तक लड़केलड़कियां एकदूसरे से लिपटे, अपने प्रेम में खोए दुनिया को जैसे नकारने पर तुले होते हैं. ऐसा लगता है फेनिल लहरें हम से छिपमछिपाई खेल रही हैं, पास आती हैं, फिर अचानक चकमा दे कर दूर हो जाती हैं. ओनीर ने कहा, “क्या सोचने लगी?”

“सितारों की गलियों में फिरता है तन्हा चाँद भी,

किसी इश्क का मारा लगता है!”

अब ओनीर से रुका न गया. उस ने सहर की हथेली अपने गीले से हाथ में पकड़ी और उस पर अपना प्यार रख दिया. सहर बस मुसकरा दी, शरमाई भी. कुछ पल यों ही गुज़र गए. कोई कितना भी हाज़िरजवाब हो, कुछ पल कभीकभी सब को चुप करवा देते हैं. सहर को भी कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या कहे, बस, बोल पड़ी, “कभी घर आओ, मम्मी से मिलवाती हूं.”

“आऊंगा. आओ, कुछ खाते हैं, फिर घर चलते हैं. तुम्हें देर हो रही होगी.”

कुछ दिन और बीते, दोनों फोन पर टच में थे. अब जौब ढूंढ़ी जा रही थी. बहुत सारे औप्शंस दिख भी रहे थे. चैताली की मदद से सहर उसी कालेज में प्रोफैसर बन गई. चैताली और भी स्टूडैंट्स को गाइड कर रही थीं कि उन्हें क्या करना चाहिए.

एक दिन ओनीर सहर से मिला. सहर ने अपने जाऊब की ख़ुशी में दोस्तों को पार्टी के लिए बुलाया था. सहर ने ओनीर को छेड़ा, “हम लोग तो नौकरी ही ढूंढ़ रहे थे, तुम्हारा क्या हुआ, कौन से इतिहास के पन्ने पलट कर दोबारा क्रांति लाओगे?”

नितारा भी उस के पीछे पड़ गई, “बताओ न, कौन सी पार्टी जौइन कर रहे हो?” ओनीर और सहर प्रेम की राह पर साथ बढ़ चुके हैं, यह अब सब को पता था. ओनीर ने झेंपते हुए कहा, “मैं ने भी प्रोफैसर पद के लिए ही अप्लाई किया है, वेट कर रहा हूं.”

सब उस का मुंह देखने लगे. सहर की आंखों में एक संतोष उभरा.

ओनीर को अच्छा लगा कि सहर को उस के कैरियर की इस चौइस से ख़ुशी हुई है. दोस्त हंसने लगे. ‘एक ही कालेज में प्रोफैसर बन जाओ दोनों, मजा आएगा.’ यों ही हंसीमज़ाक होता रहा. फिर सब चले गए. ओनीर रुका रहा. कुछ इधरउधर की बात करने के बाद सहर ने कहा, ‘आओ, किसी दिन आ कर मम्मी से मिल लो.’

“ठीक है, कल आता हूं.”

“मम्मी की कल छुट्टी है, लंच पर आ जाओ.”

“ठीक है.’’

निकहत ने सहर से पूरी बात सुनी. वह बहुत खुश हुई. शानदार लंच मांबेटी ने मिल कर बनाया. उधर ओनीर अपनी उलझनों में बुरी तरह बेचैन था. उसे सहर से प्यार था. वह उस से शादी करना चाहता था. उस ने जब अपने मम्मीपापा से इस बारे में बात की तो उस के घर में एक तूफ़ान आ गया. उस के पिता विकास एक न्यूज़ चैनल में काम करते थे. मम्मी हाउसवाइफ थीं. किटी पार्टी, भजन, सत्संग वाली महिला थीं वे. दोनों ने सहर के बारे में सुन कर ओनीर को बुरी तरह दुत्कारा, छोटी बहन की शादी का वास्ता दिया. ओनीर को सहर के साथ आगे बढ़ना मुश्किल लगा. इस घर में तो सहर कभी खुश नहीं रह सकती थी, क्या करे. अब सहर को छोड़ नहीं सकता था. पर मातापिता के प्रति भी फ़र्ज़ था. वही सदियों पुराना सवाल उस के सामने मुंहफाड़े खड़ा था कि फ़र्ज़ या प्रेम.

सहर के घर की डोरबैल बजाते हुए ओनीर ने नेमप्लेट पर लिखे नाम पढ़े, मानव नौटियाल, निकहत रिज़वी, सहर रिज़वी नौटियाल. उसे हंसी आ गई. अजीब ही परिवार था. सब की एक अलग ही अपनी पहचान थी. कैसी होंगी सहर की मम्मी! दरवाजा निकहत ने ही खोला. उन की एक स्माइल से ही ओनीर के सारे भ्रम, दुविधा दूर हो गए. वह सहज हो गया. निकहत ने उस से बहुत स्नेह, अपनेपन से बातें कीं. सहर ने भी उस का खूब वैलकम किया. खानापीना बहुत अच्छे, स्नेहिल माहौल में हुआ. घर की साजसज्जा बहुत सलीके से, सुरुचिपूर्ण हुई थी. जब तक खाना खा कर सब फ्री हुए, तीनों के हंसीमज़ाक ऐसे हो रहे थे जैसे तीनों कब से एकदूसरे को जानते हैं. निकहत बहुत जौली नेचर की महिला थीं. हर फील्ड की उन्हें खूब जानकारी थी. औस्कर में दीपिका के ब्लैक गाउन से ले कर ‘नाटूनाटू…’ तक बात करते हुए वे खूब उत्साहित थीं. वहीं, महाराष्ट्र की पलपल बदलती राजनीति पर उन की खूब पकड़ थी. ओनीर को बहुत अच्छा लग रहा था. उस ने पूछ लिया, “आंटी, आप मुंबई की, अंकल उत्तराखंड के? आप लोग कहां मिले? आप लोगों की शादी आराम से हो गई?”

निकहत का स्वर धीमा हो गया. चेहरा अचानक कुछ उदास हुआ. एक गहरी सांस ले कर बोलीं,

“हमारे समाज में ऐसी शादियां आसानी से कहां हो सकती हैं. पढ़ेलिखे, आधुनिक बनते लोग जाति पर अटके रहते हैं.”

यह सुनकर ओनीर मन ही मन कुछ शर्मिंदा सा हुआ. पर परवरिश ने ज़ोर मारा. मातापिता को याद किया. खुद को समझा लिया कि जाति का भी महत्त्व है. संस्कार चहक उठे. प्रेम कहीं दुबक गया.

निकहत आगे बताने लगीं, “जब बाबरी मस्जिद के समय दंगों का माहौल था. मुझे अंदाजा नहीं था कि क्या होने वाला है. क्या हो सकता है. मैं किसी काम से घर से निकली हुई थी कि पता चला, मैं जिस जगह थी, वहां कर्फ्यू लगा दिया गया है. हम 2 बहनें ही थीं. मैं बड़ी थी. मैं एक जगह डरी खड़ी थी. मैं ने स्कार्फ़ पहना हुआ था. अपने सिर को ढक रखा था. तभी एक बाइक मेरे पास आ कर रुकी. मानव थे. मानव ने अंदाजा लगा किया कि मैं मुसलिम हूं. वे बोले, “यहां मत रुको. मेरे सामने वाले फ्लैट में एक मुसलिम फैमिली रहती है, आप मुझ पर तो यकीन नहीं करेंगी, अगर चाहो तो वहां रुक जाओ. सब ठीक हो तो अपने घर चली जाना. सामने वाली फैमिली बहुत अच्छी है, बुजुर्ग पतिपत्नी हैं.” उन के इतना कहते ही कहीं शोर की आवाज़ हुई तो मैं घबरा गई.

उस समय कुछ और औप्शन ही नहीं था. और दिल मानव पर विश्वास करने के लिए तैयार था. बगैर उन्हें जाने, उन का बात करने का ढंग और उन की आंखें जैसे एक सच्चे इंसान की तसवीर पेश कर रही थीं.

मैं यहीं आई थी सामने वाले फ्लैट में. तब मुझे पता नहीं था कि जिंदगी मुझे सामने वाले फ्लैट के रास्ते मानव के दिल और घर और फिर उस के जीवन तक ले आई है. बहुत दहशतभरा माहौल था. मैं 3 दिनों बाद बड़ी मुश्किल से अपने घर जा पाई थी. खूब आगजनी हुई थी. वे 3 दिन मैं लगातार मानव के फोन से ही अपने घरवालों के टच में थी. मेरे घर तक के रास्ते में बड़ी तोड़फोड़ हुई थी. कुछ लोग बड़े ज़िद्दी होते हैं, दिल के किसी कोने में रह ही जाते हैं. मानव ने मेरे दिल में उन दंगों के दौरान ऐसी जगह बनाई कि फिर मैं उस की मोहब्बत में सब भूल गई. सामने फोन खराब था, वह अपने फोन से मेरे घरवालों से मेरी बात करवाता रहा. मेरे पास उस समय फोन नहीं था. सामने वाले अंकलआंटी अब तो नहीं रहे पर जब तक वे रहे, मेरे सिर पर उन का हाथ हमेशा रहा. वो मेरे घर तक जा कर मुझे छोड़ कर आया. पर मेरा एक ज़रूरी हिस्सा अपने साथ ले आया. मेरा दिल.”

“आप दोनों के घरवाले मान गए थे?”

“नहीं, कोई न माना. हम ने इंतज़ार किया कि वे हमें अपना आशीर्वाद दें. पर कोई न माना. मानव का घर तो क्या, उत्तराखंड ही छूट गया. वे वहां फिर कभी नहीं गए. मेरे परिवार वालों ने भी हमें नहीं अपनाया. पर हम क्या करते, न चाहते हुए भी उन के बिना जी ही लिए. कई बार प्रेम में बहुतकुछ छूटता है, बहुतकुछ मिलता भी है. हम ने बहुत प्यारमोहब्बत से अपना घरसंसार बसाया था. पर मानव के जाने के बाद, बस, अब सहर और मैं हैं. हमारा छोटा सा परिवार है जहां कम ही लोगों की आवाजाही है. अमजद इसलाम ने कहा है न-

“कहां आके रुकने थे रास्ते,

कहां मोड़ था उसे भूल जा.

वो जो मिल गया उसे याद रख,

जो नहीं मिला उसे भूल जा.”

अब अचानक ओनीर को हंसी आ गई, बोला. “ओह्ह, अब समझा. सहर ने यह शेरोशायरी कहां से सीखी.”

निकहत और सहर भी इस बात पर हंस पड़ीं. तीनों और भी बहुत सी बातें करते रहे. फिर ओनीर उन से विदा ले अपने घर चला गया. उस के दिलोदिमाग की हालत अजीब थी. एक तरफ मातापिता और दूसरी तरफ सहर. क्या होगा! सोचने में कुछ दिन और बीत गए. इतने में ही उसे भी मुंबई के ही एक कालेज में जौब मिल गया. सहर की ख़ुशी का ठिकाना न था. ओनीर के घरवाले भी बहुत खुश हुए. ओनीर ने अब फिर उन से सहर से शादी के बारे में बात की. तो, घर का माहौल फिर बिगड़ गया. वह जा कर अपने बैडरूम में थका सा लेट गया. इतने में सहर का मैसेज आया. अब वह अकसर किसी भी गीत, शेर का कोई हिस्सा उसे भेजती रहती थी. उस का कहना था कि जब भी उसे ओनीर की याद आती है, वह ऐसा करती है. सहर ने लिखा था- “ये दुनिया जहां आदमी कुछ नहीं है, वफ़ा कुछ नहीं, दोस्ती कुछ नहीं है, जहां प्यार की कदर ही कुछ नहीं है, ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!”

सहर ने आगे लिखा था- ‘इश्क न हुआ कोहरा हो जैसे, तुम्हारे सिवा कुछ दिखता ही नहीं.’

ओनीर फोन अपने सीने पर रख कर ऐसे लेट गया जैसे यह फोन नहीं, सहर का हाथ हो. कई महीनों से उस के दिमाग में जो उधेड़बुन चल रही थी, अचानक जैसे उस ने विराम पाया. उसे लगा, हां, सहर का प्यार अगर उस से दूर हो जाए, सहर को खो कर उसे सबकुछ मिल भी जाए तो उस के लिए कितना बेमानी होगा. क्या करना है उसे इस दुनिया का. फिर उस के लिए जीवन कितना बेरंग होगा. उस ने एक ठंडी सांस ली. घरवाले ख़ुशीख़ुशी मान गए तो ठीक, वरना वह प्रेम पर बढ़े अपने क़दमों को किसी हाल में वापस नहीं रखेगा. उसे सहर के साथ बहुत दूर तक चलना है, चाहे कुछ भी हो जाए. फैसला हो चुका था. अब संस्कार दुबके थे. प्रेम मुसकरा रहा था.

कैप्टन नीरजा गुप्ता : भाग 3

नांबियर ने सब तैयार कर दिया था. मैं ने महसूस किया कि जब मैं दूसरी तरफ देख रही होती हूं तो वह कनखियों से मुझे देखता है. पर उस की नजरों में ऐसा कुछ नहीं था जैसे कैप्टन नसीर की नजरों में था. मैं इस कुदरती आकर्षण को जानती हूं, इस में मुझे कोई एतराज नहीं था.

डाइनिंग इन पार्टी के लिए मैं समय पर तैयार हो गई. कैप्टन रमनीक मुझे एस्कोर्ट करने आए. अफसर मैस में सभी मेरा इंतजार कर रहे थे. सभी ने उठ कर मेरा स्वागत किया. औरों की तरह मैं ने भी व्हिस्की पी. सभी यह जानने को इच्छुक थे कि लेह में मेरा क्या पोर्टफोलियो था. मैं ने बताया, “मैं वर्कशौप अफसरथी. पार्टी बड़े हलके मूड में चल रही थी. कोई इनफौर्मल नहीं था कि मैं अनकंफरटेबल महसूस करती. 9 बजे डिनर किया और अपने कमरे में आ गई. सुबह 6 बजे नांबियर चाय ले कर आया.

पानी दिया, फिर चाय डालकर दी. गीजर औॅन किया, मेरी ड्रैस तैयार की. बूट,बेल्ट पोलिश कर के चला गया.मैं समय पर नाश्ता कर के कंपनी औफिस पहुंची.बाहर खड़े संतरी ने मुझे सैल्यूट किया. मैं ने उस कानाम पूछा, “सिपाही हवा सिंह, मैम.”मैं अपनी कुरसी पर आ कर बैठी.‘‘मैम, मैं भीतर आ सकता हूं.’’“आइए.”“मैं सूबेदार करतार सिंह, यहां का हैड कर्लक हूं. आप के अंडर मुझे काम करने का मौका मिल रहा है. आप का स्वागत है, मैम.’’“थैंक्स साहब, आप बैठें. आप कहां के रहने वाले हैं?”‘‘मैं पंजाब के जिला गुरदासपुर के कलानौर कसबेका रहने वाला हूं.’’ “चलो, अच्छा लगा. मैं भी गुरु की नगरी अमृतसर से हूं. आप मेरे आदेशों को ठीक से समझ पाएंगे.”‘‘जी, मैम.’’“सारा स्टाफ आ गया होगा.

मैं उन का परिचय प्राप्त करना चाहती हूं.”‘‘चलिए मैम.’’ मैं ने औॅफिस में आ कर सबसे परिचय प्राप्त करने के बाद वापस अपनी कुरसी पर आ कर बैठ गई. कंपनी कमांडर का मतलब प्रशासनिक अधिकारी. एक जबरदस्त जिम्मेदार अफसर. जवानों के वैलफेयर से ले कर उन के अनुशासन का ध्यान रखना. यूनिट लाइन के रख रखाव और साफ सफाई की जिम्मेदारी. यूनिट की कोई ऐसी जगह नहीं होती जिस के लिए कंपनी कमांडर जिम्मेदार न हो. इसी को मन के भीतर रख कर मैं ने सिपाही हवासिंह को भेज कर सीनियर जेसीओ, यानी नेक्स्ट टू माई प्रशासनिक अधिकारी को बुलवाया. वे आए, मुझे सैल्यूटकिया और कहा, “मैम, मैं आपसे मिलने आ ही रहा थाकि आप का बुलावा आ गया. मैं सूबेदार मेजर साधू सिंहहूं, यहां का सीनियर जेसीओ.”‘‘कोई बात नहीं. आप बैठें. मैं यूनिटमें नई हूं. कंपनी कमांड़र होने के नाते मैंयूनिट की हर चीज देखना चाहती हूं. कब इंस्पेक्शन करवाना चाहेंगे?’’ “मैम, आज सोमवार है, अगले सोमवार आप इंस्पेक्शन कर लें.”‘‘ठीक है. अगले सोमवार डन. और कुछ कहना चाहते हैं, तो बताएं.’’ “केवल यही कि आप हर तरह से निश्चिंत रहें. आप को किसी तरह की शिकायत नहीं मिलेगी.”‘‘थैंक्स, मुझे आप से यही उम्मीद थी.’’यूनिट के इंस्पेक्शन में मैं हर जगह गर्ह.जहांजहां मुझे खराब लगा, उसे ठीक करने के लिए बोलदिया. धीरेधीरे सारा काम संभाल लिया.

लेह की तरह मैंहर विभाग में जाने लगी. जवानों, जूनियर अफसरों कोजो मुझे देखने की होड़ लगी रहती थी, वह कमहोने लगी. जुलाई का महीना आ गया. बरसात शुरू हो गई. इस बार इतनी बरसात हुई कि श्रीनगर में बाढ़ आ गई. लोगों को बचाने के लिए जब जम्मूकश्मीर की पुलिस और सीआरपीएफ के जवान फेल होने लगे तो सेना को भील गाया गया. ये तीनों फोर्स आतंकियों का भी सफाया करने में उलझी हुई थीं. ऐसी ही बरसात की रात में मेरे मोबाइल की घंटी बजी. मैं ने लाइट जलाई, देखा रात को 1 बजाथा. इस समय कौन हो सकता है? मैं ने मन से ही सवालकिया.“हैलो.” ‘‘कैप्टन नीरजा, कर्नल देवव्रत्त दिस साइड.’’“जय हिंद, सर. हुकम, सर.”‘‘आप बरसात का हाल देख ही रही हैं. हमारेसैनिक दूसरी जगह एंगेज हैं. अमूमन सविर्सस, सेना की वहयूनिट जो ऐसे टास्क के लिए ट्रेंड नहीं होती, को ऐसे टास्क नहीं दिए जाते हैं. चूंकि हम टारगेट के बिलकुल नजदीक हैं, इसलिए हमें यह टास्क दिया गया है.अन फौरचूनेटली कैप्टन रमनीक को तेज बुखार है.

कैप्टनसूरज कुमार छुट्टी पर हैं. केवल आप बचती हैं. आप को यह टास्क पूरा करना पड़ेगा. मेरे पास और कोई चारा नहीं है.’’“आप हुकम करें, सर, टास्क पूरा हो जाएगा.”‘‘मेरी गाड़ी आप को लेने आ रही है. वहआप को हैलिपैड तक छोड़ देगी. पायलट हैंविग कमांडर राजलक्ष्मी. शायद उन के साथ एक आदमी औरहो. 3 जिंदगियों को बचाना है. 1 औरत है 2 बच्चियां हैं. अपने घर की छत पर खड़ी मदद की गुहार लगा रहीहैं. उन्हें है लिकौप्टर से उतार कर बचा कर लाना है. टास्ककाफी मुश्किल है. लोकेशन है लिकौप्टर वालों को पता है. आप एनसीसी कैडेट रही हैं और पैरा जंप भी किया है.

इसलिए, आप को भेज रहा हूं.’’“सर, काम हो जाएगा. आप चिंता न करें.”कर्नल साहब की गाड़ी ने मुझे हैलिपैड परछोड़ दिया. है लिकौप्टर में बैठी और वह तेजी से गंतव्य स्थान की ओर चल पड़ा. रास्ते में मुझे नीचे उतर कररे स्कयू औपरेशन कैसे करना है, समझा दिया गया था. उस के अनुसार तैयार भी कर दिया था.बारिश हो रही थी लेकिन तेज हवा नहीं चलरही थी. यह अच्छा संकेत था. हवा चलने से थोड़ारेस्क्यू औपरेशन मुश्किल होता. महिला पायलट अपने काममें बड़ी निपुण थी.

उस ने हैलिकौप्टर को रेस्कयू स्थल के ऊपर और नजदीक जा कर स्थिर किया. पायलट के इशारे परमैं नीचे उतरने के लिए तैयार थी. और मैंआराम से नीचेउतर गई. जैसे बताया गया था, एकएक कर तीनों को ऊपरले आई. हम लोग जल्दी से हैलिपैड की ओर बढ़े. उतरे, बारिश तब भी हो रही थी. पायलट राजलक्ष्मी जी ने हाथ मिलाया. मैं ने उन को सैल्यूट किया. मुझे बधाई दी.“मैम, मैं इन को कैंप में छोड़ दूंगी.”कर्नल देवव्रत साहब को फोन किया. ‘‘सर, टास्क कंप्लीटेड. सर, मैं इन को कैंप में छोड़ने जा रहीहूं. इन के घरवालों से बात हो गई है.’’मुझे लगा वे अकसर कुरसी से उछल पड़े हैं.बधाई दी और फोन बंद कर दिया. कैंप में पहुंच कर वे घर वालों से मिल कररोने लगी. विदा लेने से पहले मैं ने सब को ध्यान सेदेखा, खासकर तीनों को, जिन का मैं ने रेस्कयू कियाथा.तीनों में कश्मीर की जबरदस्त सुंदरता थी.

वे इतनी सुंदर थीं कि उन्हें देखते ही मुझे क्रश हो गया था. विशेषकरदोनों जवान लड़कियों से. उन का एकएक अंग किसी हीरे से कम न था. काश, मैं लड़का होती. तब भीमैं उन को अपना नहीं बना सकती थी. जाति, धर्म आड़े आता. पर मैं इस मन का क्या करूं. उन की सुंदरता से ध्यान हटता ही नहीं था. शरीर की ऐसी सुंदरता मैं ने आज तकनहीं देखी थी. किसी भी क्रश के लिए यह शरीर ही आधार है, मैं मान गई थी. किसी भ्रद व्यक्ति ने मुझे समझाने की कोशिश की थी लेकिन मैं मान ही नहीं रही थी.वे प्रकृति का शुक्र कर रही थीं कि उन्हें एकमहिला ने बचाया. वे किसी मर्द का हाथ नहीं लगवानापसंद करती थीं. इस से उन के शानदार चरित्र का पता चलता था. सभी ने हाथ जोड़ कर मेरा धन्यवाद किया. मैं जब अपने कमरे में पहुंची तो सुबह के 4 बज चुके थे. चाय पीने का मन हुआ. मैं ने मैस में फोन किया तो हमारे मैस के स्पैशल कुक ने फोनउठाया. मैं ने कहा, ‘‘आप मुझे तेज गरम चाय भिजवा सकते हैं.’’“जी हां, मैडम. मैं अभी भिजवाता हूं.”बारिश में वह खुद चाय देने आया. शायदऔर जवान उपलब्ध न होगा.

मैं ने उस का धन्यवाद किया. चाय पी कर मैं लेट गई. 6 बजे नांबियर चायले कर आया. मुझे जगाया. पानी दिया, फिर चाय दी. मैं फ्रैशहो कर ब्रेकफास्ट करने गई. अभी ब्रेकफास्ट कर ही रहीथी कि कर्नल साहब खुद आए. मेरे उठने से पहले उन्होंने कहा, “यू डिड अफैंटास्टिक जौब. सब जगह आप की भूरि भूरि प्रशंसा हो रही है. आज के अखबार में भी पायलट राजलक्ष्मी भीआप की तारीफ कर रही हैं.

मैं बहुत खुश हूं, कैप्टननीरजा. आप ने बिना किसी ट्रेनिंग के मिशन को अंजामदिया. आप ने न केवल हमारी यूनिट का, बल्कि पूरी बटालियनका नाम रोशन किया. आप नाश्ता कर लें. बटालियन कमांडर साहब ने मुझे और आप को बुलाया है.”‘‘सर, मैं नाश्ता कर के आप के पास हाजिर होती हूं.”हम दोनों जीप में बटालियन हैडक्वाटरपहुंचे. बटालियन कमांडर ब्रिगेडियर चोपड़ा साहब नेआगे बढ़ कर स्वागत किया, “ओ, यंग लेडी, तुम नारी शक्ति का अभिमान हो. तुम ने मेरी बटालियन का सिर ऊंचाकर दिया.

तुम मेरा अभिमान हो. तुम मेरा गर्व हो. आज रात 8 बजे आप के सम्मान में बड़ा खाना किया जाएगा. कर्नल, आप अपनी यूनिट में इस का आयोजन करें. बटालियन के सारे अफसर आएंगे. जवान और जेसीओ केवलआप की यूनिट के रहेंगे. मैं खुद इस यंग लेडी का सम्मान करूंगा. हो जाएगा कर्नल.”‘‘हो जाएगा, सर.’’कमांडर साहब ने मुझ से हाथ मिलाया और शाबासी दी. हम अपनी यूनिट में लौट आए. शाम कोभव्य बड़े खाने का प्रबंध किया गया. मुझे 51 हजाररुपए का कैश प्राइज और मोमेंटम दिया. मेरे लिए यह पुरस्कार किसी परमवीर चक्र से कम न था.

छत : भाग 3

‘‘हमें तुम एक पैसा भी न भेजो तो चलेगा, परंतु तुम विवाह कर लो. दीबा बहुत अच्छी लड़की है. अगर वह हाथ से निकल गई तो फिर ऐसी लड़की मुश्किल से मिलेगी. तुम विवाह तो कर लो…जब तक तुम किसी कमरे का प्रबंध नहीं कर लेते दीबा हमारे पास रहेगी. तुम महीने में एकदो दिन के लिए आ कर उस से मिल जाया करना. जैसे ही कमरे का प्रबंध हो जाए उसे अपने साथ ले जाना.’’

घर वालों के बहुत जोर देने पर भी वह केवल इसलिए विवाह के लिए राजी हुआ था कि दीबा सचमुच बहुत अच्छी लड़की थी और वह उसे पसंद थी. जिस तरह की जीवन संगिनी की वह कल्पना करता था, वह बिलकुल वैसी ही थी.

विवाह के बाद वह कुछ दिनों तक दीबा के साथ रहा, फिर मुबंई चला आया. मुबंई में वही बंधीटिकी दिनचर्या के सहारे जिंदगी गुजरने लगी, लेकिन उस में एक नयापन शामिल हो गया था और वह था, दीबा की यादें और उस के सहयोग का एहसास.

वह जब भी घर जाता, दीबा को अपने समीप पा कर स्वयं को अत्यंत सुखी अनुभव करता. दीबा भी खुशी से फूली नहीं समाती. घर का प्रत्येक सदस्य दीबा की प्रशंसा करता.

कुछ दिन हंसीखुशी से गुजरते, लेकिन फिर वही वियोग, फिर वही उदासी दोनों के जीवन में आ जाती.

दोनों की मनोदशा घर वाले भी समझते थे. इसलिए वे भी दबे स्वर में उस से कहते रहते थे, ‘‘कोई कमरा तलाश करो और दीबा को ले जाओ. तुम कब तक वहां अकेले रहोगे?’’

वह मुबंई आने के बाद पूरे उत्साह से कमरा तलाश करने भी लगता, परंतु जब 20-25 हजार पगड़ी सुनता तो उस का सारा उत्साह ठंडा पड़ जाता. वह सोचता, कमरा किराए पर लेने के लिए वह इतनी रकम कहां से लाएगा? मुश्किल से वह महीने में 300-400 रुपए बचा पाता था. इस बीच जितने पैसे जमा किए थे, सब शादी में खर्च हो गए बल्कि अच्छाखासा कर्ज भी हो गया था. वह और घर वाले मिल कर उस कर्ज को अदा कर रहे थे.

परंतु दीबा के अनुरोध और फिर जिद के सामने उसे हथियार डालने ही पड़े. बुंदे बेचने के बाद जो पैसे आए और उन के पास जो पैसे जमा थे, उन से उन्होंने वह कमरा किराए पर ले लिया.

पहलेपहल कुछ दिन हंसीखुशी से गुजरे. उन्हें इस बात का एहसास भी नहीं हुआ कि वे धारावी की झोंपड़पट्टी के एक कमरे में रहते हैं. उन्हें तो ऐसा अनुभव होता था, जैसे वे किसी होटल के कमरे में रहते हैं.

परंतु धीरेधीरे वास्तविकता प्रकट होने लगी. आसपास का वातावरण, अच्छेबुरे लोग, चारों ओर फैला शराब, अफीम, जुए, तस्करी और वेश्याओं का कारोबार, गुंडे, उन के आपसी झगड़े, बातबात पर चाकूछुरी और लाठियों का निकलना, गोलियों का चलना, खून बहना, पुलिस के छापे, दंगेफसाद, पकड़धकड़ आदि देख कर वे दोनों अत्यंत भयभीत हो गए थे. तब उन्हें महसूस हुआ कि वे एक दलदल पर खड़े हैं और कभी भी, किसी भी क्षण उस में धंस सकते हैं. वह जब भी दफ्तर से आता, दीबा उसे एक नई कहानी सुनाती, जिसे सुन कर वह आतंकित हो उठता था.

कभी मन में आता था कि वह दीबा से कह दे कि वह वापस घर चली जाए क्योंकि उस का यहां रहना खतरे से खाली नहीं है. परंतु दीबा के बिना न उस का मन लगता था और न ही उस के बिना दीबा का.

उस रात वह एक क्षण भी चैन से सो नहीं सका. बारबार उस के मस्तिष्क में एक ही विचार आता था कि उसे यह जगह छोड़ देनी चाहिए तथा कहीं और कमरा लेना चाहिए.

परंतु उसे कमरा कहां मिलेगा? कमरे के लिए पगड़ी के रूप में पैसा कहां से आएगा? क्या दूसरी जगह इस से अच्छा वातावरण होगा?

उस दिन दफ्तर में भी उस का मन नहीं लग रहा था. उसे खोयाखोया देख कर उस का मित्र आदिल पूछ ही बैठा, ‘‘क्या बात है शकील, बहुत परेशान हो?’’

‘‘कोई खास बात नहीं है.’’

‘‘कुछ तो है, जिस की परदादारी है,’’ उसे छेड़ते हुए जब आदिल ने उस पर जोर दिया तो उस ने उसे सारी कहानी कह सुनाई.

उस की कहानी सुन कर आदिल ने एक ठंडी सांस ली और बोला, ‘‘यह सच है कि मुबंई में छत का साया मिलना बहुत मुश्किल है. यहां लोगों को रोजीरोटी तो मिल जाती है, परंतु सिर छिपाने के लिए छत नहीं मिल पाती. फिर तुम ने छत ढूंढ़ी भी तो धारावी जैसी खतरनाक जगह पर, जहां कोई शरीफ आदमी रह ही नहीं सकता.

‘‘इस से तो अच्छा था, तुम मुबंई से 60-70 किलोमीटर दूर कमरा लेते. वहां तुम्हें आसानी से कमरा भी मिल जाता और इन बातों का सामना भी नहीं करना पड़ता. हां, आनेजाने की तकलीफ अवश्य होती.’’

‘‘मैं हर तरह की तकलीफ सहने को तैयार हूं. परंतु मुझे उस वातावरण से मुक्ति चाहिए और सिर छिपाने के लिए छत भी.’’

‘‘यदि तुम आनेजाने की हर तरह की तकलीफ सहन करने को तैयार हो तो मैं तुम्हें परामर्श दूंगा कि तुम मुंब्रा में कमरा ले लो. मेरे एक मित्र का एक कमरा खाली है. मैं समझता हूं, धारावी का कमरा बेचने से जितने पैसे आएंगे, उन में थोड़े से और पैसे डालने के बाद तुम वह कमरा आसानी से किराए पर ले सकोगे. कष्ट यही रहेगा कि तुम्हें दफ्तर जाने के लिए 2 घंटा पहले घर से निकलना पड़ेगा और 2 घंटा बाद घर पहुंच सकोगे,’’ आदिल ने समझाते हुए कहा.

‘‘मुझे यह स्वीकार है. मैं एक ऐसी छत चाहता हूं जिस के नीचे मैं और मेरी पत्नी सुरक्षित रह सकें. ऐसी छत से क्या लाभ जो आदमी को सुरक्षा भी नहीं दे सके. यदि थोड़े से कष्ट के बदले में सुरक्षा मिल सकती है तो मैं वह कष्ट झेलने को तैयार हूं.’’

‘‘ठीक है,’’ आदिल बोला, ‘‘मैं अपने मित्र से बात करता हूं. तुम अपना धारावी वाला कमरा छोड़ने की तैयारी करो.’’

शकील का पड़ोसी उस कमरे को 12 हजार में लेने को तैयार था. उन्होंने वह कमरा उसे दे दिया. आदिल के दोस्त ने अपने कमरे की कीमत 15 हजार लगाई थी. कमरा अच्छा था.

2 हजार रुपया 2 मास बाद अदा करने की बात पर भी वह राजी हो गया था.

जब वे मुंब्रा के अपने नए घर में पहुंचे तो उन्हें अनुभव हुआ कि अब वे इस घर की छत के नीचे सुरक्षित हैं.

वह नई जगह थी. आसपास क्या हो रहा है, एकदो दिन तक तो पता ही नहीं चल सका. दिन भर दीबा घर का सामान ठीक तरह से लगाने और साफसफाई में लगी रहती.

वह भी दफ्तर से आ कर उस का हाथ बंटाता. इसलिए आसपास के लोगों और वहां के वातावरण को जानने का अवसर ही नहीं मिल सका. वैसे भी मुबंई में बरसों पड़ोस में रहने के बाद भी लोग एकदूसरे को नहीं जान पाते.

एक दिन वह दफ्तर से आया तो अपने कमरे से कुछ दूरी पर पुलिस की भीड़ देख कर चौंक पड़ा.

उस ने जल्दी से कमरे में कदम रखा तो दीबा को अपनी राह देखता पाया. वह भयभीत स्वर में बोली, ‘‘सुनते हो जी, हम फिर बुरी तरह फंस गए हैं. पुलिस ने इस जगह छापा मारा है. इस चाल के एक कमरे में वेश्याओं का अड्डा था और एक कमरे में जुआखाना.

‘‘सिपाही हमारे घर भी आए थे. मुझे धमका रहे थे कि हमारा भी संबंध इन लोगों से है. बड़ी मुश्किल से मैं ने उन्हें विश्वास दिलाया कि हम इस बारे में कुछ नहीं जानते क्योंकि नएनए यहां आए हैं. इस पर वे कहने लगे कि हम ने इस बदनाम जगह कमरा क्यों लिया?’’

‘‘क्या?’’ यह सुनते ही उस के मस्तिष्क को झटका लगा. आंखों के सामने तारे से नाचने लगे और वह अपना सिर पकड़ कर बैठ गया.

मां की बनारसी साड़ी : भाग 3

“आलोक, सुनो न, मम्मापापा की 25वीं एनिवर्सरी पर हम उन्हें क्या गिफ्ट देंगे?” आलोक का ध्यान अपनी तरह करती हुई अलीमा बोली.

“क्या देंगे, शहर के सब से बड़े होटल में उन के लिए सरप्राइज़ पार्टी रखते हैं?” आलोक बोला.

“वह तो ठीक है लेकिन कुछ और सोचो न,” अलीमा बोली.

“तो हम उन्हें एक बढ़िया मौडल की गाड़ी गिफ्ट करते हैं,” आलोक ने दिमाग चलाया.

“नहीं, कुछ ऐसा जिसे देखते ही मम्मा का चेहरा खिल उठे,” अलीमा बोली.

“तो फिर तुम्हीं सोचो, क्या देना है क्योंकि तुम में ही ज्यादा दिमाग है,” खीझते हुए आलोक बोला.

“सो तो है,” बोल कर जब अलीमा खिलखिला पड़ी तो आलोक ने उसे गुर्रा कर देखा. “जस्ट जोकिंग,’ बोल कर अलीमा ने सौरी तो बोल दिया लेकिन सवाल अब भी वही था कि ऐसा क्या गिफ्ट दिया जाए जिस से पूर्णिमा का चेहरा खिल उठे? अपनी सोच में डूबी अलीमा यों ही मोबाइल स्क्रौल कर ही रही थी कि एक जगह उस का हाथ रुक गया. सोच लिया उस ने कि 25वीं एनिवर्सरी पर वह पूर्णिमा को क्या गिफ्ट देगी.

“मम्मा, यह लहंगा कितना सुंदर है न,” सुबह की चाय पीते हुए अलीमा बोली तो अपने चश्मे को ठीक करते हुए पूर्णिमा कहने लगी कि हां, सच में, बड़ा ही खूबसूरत लहंगा है यह तो.

“मम्मा, आप पर यह लहंगा बहुत खूबसूरत लगेगा सच में.” उस की इस बात पर पूर्णिमा को हंसी आ गई कि अब इस उम्र में वह लहंगा पहनेगी?

“क्यों, क्यों नहीं पहन सकतीं आप लहंगा? अपनी 25वां एनिवर्सरी पर आप लहंगा ही पहनेंगी, बस,” एक बच्ची की तरह जिद करती हुई अलीमा बोली, तो पूर्णिमा को कहना पड़ा कि ठीक है भाई, पहन लेगी वह लहंगा अपनी एनिवर्सरी पर. लेकिन फिर उसे भी लहंगा पहनना पड़ेगा. “ओके डन” बोल कर अलीमा बच्ची की तरह पूर्णिमा के गले से लिपट गई.

‘चलो, लहंगा पहनने के लिए तो मैं ने मम्मा को राजी कर लिया लेकिन अब आगे के प्लान के लिए मुझे बुद्धू आलोक, सौरीसौरी, पतिदेव की मदद लेनी होगी’ अपने मन में सोच अलीमा ने और एक गहरी सांस ली, फिर आलोक को सारी बातों से अवगत कराते हुए कहा कि उसे उस की मदद करनी पड़ेगी. वह मान तो गया लेकिन अलीमा को छेड़ते हुए बोला कि इस के लिए उसे घूस देनी पड़ेगी.

“घूस, क्या घूस देनी होगी? क्या घूस चाहिए तुम्हें, सुनें तो जरा?” अलीमा की बात पर आलोक ने आंख मारते हुए कहा कि रोज उसे आलोक को ढेर सारी पप्पी देनी पड़ेगी.

“ओहो, तो जनाब, मौके का फायदा उठाना चाहते हैं,” बोल कर एक ज़ोर की पप्पी आलोक के गाल पर जड़ते हुए अलीमा ने उसे ‘थैंक यू’ कहा और अपने काम में लग गई.

पूर्णिमा को कोई शंका न हो, इसलिए कहसुन कर उस ने उसे रजत के साथ फिल्म देखने जाने के लिए राजी कर लिया. इस बीच, वह अपने काम को अंजाम देने में लग गई. रजत और पूर्णिमा की 25वीं शादी की सालगिरह की पार्टी घर पर ही रखी गई थी जहां रजत, आलोक, अलीमा के दोस्तों के अलावा और भी कई मेहमानों को बुलाया गया था. अमेरिका से रजत की बहन और बेंगलुरु से मीठी भी आ चुकी थी. घर में खूब रौनक थी. पूर्णिमा को तैयार करने के लिए अलीमा ने पार्लर वाली को घर पर ही बुला लिया था.

“मम्मा, मैं आप के लिए कुछ लाई हूँ,” एक प्यारा सा गिफ्ट का पैकेट पूर्णिमा की तरफ बढ़ाते हुए अलीमा बोली, तो पूर्णिमा कहने लगी कि इस की क्या जरूरत थी.

“जरूरत थी, मम्मा. लेकिन पहले आप यह पैकेट खोलो तो सही. देखो तो यह गिफ्ट कैसा लगा,” अलीमा का कलेजा ज़ोरज़ोर से धड़क रहा था कि पता नहीं पूर्णिमा इस गिफ्ट को देख कर कैसे रिएक्ट करेगी? कहीं गुस्सा न हो जाए. आलोक भी सांस रोके खड़ा था. लेकिन जैसे ही पूर्णिमा ने वह पैकेट खोला, आवाक उसे देखती रह गई.

“ये, ये क्या है, बेटा? ये तो…मेरी मां की साड़ी जैसी दिख रही है. लेकिन यह तो लहंगा….”

“मम्मा, मैं ने आप की मां की बनारसी साड़ी, जो दीपावली के फटाके से जल गई थी, उसे लहंगे का रूप दे दिया. कैसा लगा, बताओ मम्मा? पसंद आया आप को यह लहंगा?”

उसे तो विश्वास ही नहीं हो रहा था कि उस के हाथ में उस की मां की साड़ी का बना लहंगा है वह भी इतना खूबसूरत. लेकिन उस के पास बोलने के लिए शब्द नहीं थे कि वह क्या बोले. बस, उस की आंखों से झरझर कर आंसू बहने लगे यह सोच कर कि क्या वह अपनी शादी की 25वीं सालगिरह पर मां की बनारसी साड़ी पहन सकती है. हां, भले ही साड़ी का रूप बदला है, पर है तो उस की मां की बनारसी साड़ी ही न. साड़ी से बने लहंगा को अपने सीने से लगा कर पूर्णिमा फफक पड़ी. जब उस ने वह लहंगा पहना तो लगा, उस की मां उसे आशीर्वाद दे रही है. और यह सब हुआ था सिर्फ और सिर्फ उस की बहू अलीमा की वजह से.

अपनी बहू को अपने सीने लगा कर पूर्णिमा ने जाने कितनी पर उसे चूमा और प्यार करते हुए बोली, “कितनी किस्मत वाली हूं मैं, जो मुझे तुम जैसी बहू मिली.“

“और बेटा कुछ नहीं?” आलोक ने मुंह बनाया तो पूर्णिमा उसे भी प्यार करने लगी. “वैसे मम्मा, अलीमा का मतलब ही होता है, समझदार, बुद्धिमान, संस्कारी और शक्तिशाली. इसलिए तो मैं ने इसे चुना अपने लिए” आलोक की बात पर जहां सब हंस रहे थे वहीं पूर्णिमा मां की बनारसी साड़ी से बने लहंगे को प्यार से सहला रही थी.

उम्र भर का रिश्ता : भाग 3

मैं भी सोचता कि वह नहीं होती तो मैं खुद को कैसे संभालता. इस बीच मेरा कोरोना टेस्ट हुआ और रिपोर्ट नेगेटिव आई.

सब की जान में जान आ गई. सपना की मेहनत रंग लाई और दोचार दिनों में मैं ठीक भी हो गया.

एकं दिन वह दोपहर तक नहीं आई. उस दिन मेरे लिए समय बिताना कठिन होने लगा. उस की बातें रहरह कर याद आ रही थीं. मुझे उस की आदत सी हो गई थी. शाम को वह आई मगर काफी बुझीबुझी सी थी.

“क्या हुआ सपना ? सब ठीक तो है ? मैं ने पूछा तो वह रोने लगी.

“जी मैं घर में अकेली हूं न. कल शाम दो गुंडे घर के आसपास घूम रहे थे. मुझे छेड़ने भी लगे. बड़ी मुश्किल से जान छुड़ा कर घर में घुस कर दरवाजा बंद कर लिया. सुबह में भी वह आसपास ही घूमते नजर आए. तभी मैं घर से नहीं निकली.”

“यह तो बहुत गलत है. तुम ने आसपास वालों को नहीं बताया ?”

“जी हमारे घर दूरदूर बने हुए हैं. बगल वाले घर में काका रहते हैं पर अभी बीमार हैं. इसलिए मैं ने जानबूझ कर नहीं बताया. मुझे तो अब घर जाने में भी डर लग रहा है. वैसे भी गुंडों से कौन दुश्मनी मोल ले.”

“तुम घबराओ नहीं. अगर आज रात भी वे गुंडे तुम्हें परेशान करें तो कल सुबह अपने जरूरी सामान ले कर यहीं चली आना. अभी कोई है भी नहीं रिसॉर्ट में. तुम यहीं रह जाना. रिसॉर्ट के मालिक ने कुछ कहा तो मैं बात कर लूंगा उस से.”

“जी आप बहुत अच्छे हैं. उस की आंखों में खुशी के आंसू आ गए थे. अगले दिन सुबह ही वह कुछ सामानों के साथ रिसॉर्ट आ गई. वह काफी डरी हुई थी. आंखों से आंसू बह रहे थे.

“जी अब मैं घर में अकेली नहीं रहूंगी. कल भी गुंडे आ कर मुझे परेशान कर रहे थे. मैं सामान ले आई हूं.”

“यह तुम ने ठीक किया सपना. तुम यहीं रहो. यहां सुरक्षित रहोगी तुम.” मैं ने भरोसा दिलाते हुए अपना हाथ उस के हाथों पर रखा.

उस के हाथों के स्पर्श से मेरे अंदर एक सिहरन सी हुई. मैं ने जल्दी से हाथ हटा लिया. मेरी नजरों में शायद उस ने सब कुछ भांप लिया. उस के चेहरे पर शर्म की हल्की सी लाली बिखर गई.

उस दिन उस ने रिसॉर्ट के किचन में ही खाना बनाया.

मेरे लिए थाली सजा कर वह अलग खड़ी हो गई तो मैं ने सहज ही उस से कहा, “तुम भी खाओ न मेरे साथ.”

“जी अच्छा.”उस ने अपनी थाली भी लगा ली.

खाने के बाद भी बहुत देर तक हम बातें करते रहे. उस की सुलझी हुई और सरल बातें मेरे दिल को छू रही थीं. उस के अंदर कोई बनावटीपन नहीं था. मैं उसे बहुत पसंद करने लगा था.

मेरे जज्बात शायद उसे भी समझ आने लगे थे. एक दिन रात में बड़ी सहजता से उस ने मेरे आगे समर्पण कर दिया. मैं भी खुद को रोक नहीं सका. पल भर में वह मेरी जिंदगी का सब से जरूरी हिस्सा बन गई. धीरेधीरे सारी ऊंचनीच और भेदभाव की सीमा से परे हम दोनों दो जिस्म एक जान बन गए थे. लॉक डाउन के उन दिनों ने अनायास ही मुझे मेरे जीवनसाथी से मिला दिया था और अब मुझे यह स्वीकार करने में कोई परेशानी नहीं थी.

यह बात मैं ने अपने पैरंट्स के आगे रखी तो उन्होंने भी सहर्ष स्वीकार कर लिया.

मम्मी ने बड़ी सहजता से कहा,” जब सोच लिया है तो शादी भी कर लो बेटा. पता नहीं लौकडाउन कब खुले. जब यहां आओगे तो तुम्हारा रिसेप्शन धूमधाम से करेंगे. मगर देखो शादी ऑनलाइन रह कर ही करना.”

सपना यह सब बातें सुन कर बहुत शरमा गई. अगले दिन ही हम ने शादी करने का फैसला कर लिया. सपना ने कहा कि वह अपने परिचित काका को ले कर आएगी जो गांव में शादियां कराते हैं. साथ ही अपने मुंहबोले भाई को भी लाएगी जो कुछ दूर रहता है. हम ने सारी प्लानिंग कर ली थी. वह अपनी मां की शादी के समय के गहने और कपड़े पहन कर आने वाली थी. मैं ने भी अपना सफारी सूट निकाल लिया. अगले दिन हमारी शादी थी. हम ने रिसॉर्ट में रखे सामानों का उपयोग शादी की सजावट के लिए कर लिया. रिजोर्ट का एक बड़ा हिस्सा सपना और मैं ने मिल कर सजा दिया था.

अगले दिन सपना अपने घर से सजसंवर कर काका और भाई साथ आई. वह जानबूझ कर घूंघट लगा कर खड़ी हो गई. मैं ने घूंघट हटाया तो देखता ही रह गया. सुंदर कपड़ों और गहनों में वह इतनी खूबसूरत लग रही थी जैसे कोई परी उतर आई हो.

हम ने मेरे मम्मीपापा और परिवार वालों की मौजूदगी में ऑनलाइन शादी कर ली. अब बारी आई शादी की तस्वीरें लेने की. सपना के भाई ने रिसॉर्ट के खास हिस्सों में बड़ी खूबसूरती से तस्वीरें ली. अलगअलग एंगल से ली गई इन तस्वीरों को देख कर एक शानदार शादी का अहसास हो रहा था. रिसॉर्ट किसी फाइव स्टार होटल का फील दे रहा था.

हम ने तस्वीरें घरवालों और रिश्तेदारों को फॉरवर्ड कीं तो सब पूछने लगे कि कौन से होटल में इतनी शानदार शादी रचाई और वह भी लौकडाउन में.

हमारी शादी को 3 महीने बीत चुके हैं. आज हमारा रिसेप्शन हो रहा है. सारे रिश्तेदार इकट्ठे हैं. रिसेप्शन पूरे धूमधाम के साथ संपन्न हो रहा है. खानेपीने का शानदार इंतजाम है. इस भीड़ और तामझाम के बीच मुझे अपनी शादी का दिन बहुत याद आ रहा है कि कैसे केवल 2 लोगों की उपस्थिति में हम ने उम्रभर का रिश्ता जोड़ लिया था.

हिंडोला : भाग 3

अनुभा भी भारत वापस आना चाहती थी. सो आ गई. बस तब से वह मुंबई में काम कर रही थी. उस पर नवीन की योग्यताओं की प्रमाणपट्टी का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था. जो व्यक्ति अनेक डिगरियां हासिल कर ले, जो करोड़ों रुपयों का ढेर लगाता हो, परंतु जिस का कोई नैतिक चरित्र न हो, जो धड़ल्ले से बातबात पर झूठ बोलता हो, जो अपनी पत्नी का फोन देख कर काट देता हो, जो मीटिंग व क्लायंट का भूत अपनी घरगृहस्थी पर लादे रहता हो, जो पति, पिता व पुरुष की मर्यादा न पहचानता हो, उसे अनुभा न तो आदर दे सकती थी न अपनी मित्रता. अनुभा के पिता अकसर अंगरेजी की एक कहावत कहा करते थे, जिस का सारांश था, ‘मैं कालेज तो गया, परंतु शिक्षित नहीं हुआ.’

बस यों समझ लीजिए कि नवीन खन्ना उस कहावत का साक्षात प्रमाण था.

एक बार एक बेहद खूबसूरत किंतु 55 वर्षीय महिला क्लायंट ने अनुभा से कहा था, ‘तेरा बौस तो मुझ जैसी बुढि़या पर भी लाइन मार रहा था.’

अनुभा कर भी क्या सकती थी. चारों तरफ यही सब तो बिखरा पड़ा था. आज के जमाने में दो ही तो पूजे जा रहे हैं, लाभ और पैसा.

कभी वह सोचती थी, क्या इन पुरुषों की पत्नियों को इन के चक्करों का पता नहीं चलता? क्या औफिस में काम कर रही विवाहित स्त्रियों के पतियों को पता नहीं चलता या फिर पता होते हुए भी वे खुली आंखों सोते रहते हैं या फिर पैसे की हायहाय ने प्यार व वफा का कोई मतलब नहीं रहने दिया है?

जो भी हो जीजीशा की नियुक्ति के बाद जीजीशा और नवीन को अकसर  औफिस के बाद इकट्ठे बाहर निकलते देखा जाता था. जीजीशा अभी तक स्वतंत्र थी और उसी तरह स्वच्छंद भी. पता नहीं आलोक को और आलोक की तरह कितनों को कब और कहां छोड़ आई थी?

अनुभा का रिश्ता शुद्ध कामकाज से था. रात को सोते समय कभीकभी पापा की सुनाई हुई लाइनें ‘किसकिस को याद कीजिए, किसकिस को रोइए, आराम बड़ी चीज है, मुंह ढक के सोइए’ मजे के लिए दोहराती थी.

परंतु वह आराम की नींद कब सो पाई थी. अभी जीजीशा को आए 4-5 महीने ही हुए थे कि वह अचानक एक हफ्ते तक औफिस नहीं आई और जब आई तो बेहद दुबली लग रही थी. मेकअप के भीतर भी उस के गालों का पीलापन छिप नहीं पा रहा था. एक भयावह डर उस की आंखों में तैर रहा था. पता चला कि जीजीशा बीमार है, बहुत बीमार.

‘क्या हुआ है उसे?’ सब की जबान पर यही प्रश्न था.

15 दिन औफिस आने के बाद वह फिर गैरहाजिर हो गई थी. वह अस्पताल में भरती थी. उस के रोग का निदान नहीं हो पा रहा था. अनुभा फूलों का गुलदस्ता ले कर उस से मिलने गई थी और ‘शीघ्र स्वस्थ हो जाओ’ भी कह आई थी.

फिर एक दिन औफिस में उस खबर का बर्फीला तूफान आया. जीजीशा के रोग की पहचान की खबर. जिस रोग के लक्षण उसे क्षीण कर रहे थे उस ने उस के अंतरंग मित्रों के होश उड़ा दिए थे. नवीन खन्ना का औफिस व घर मानो 8 फुट मोटी बर्फ से ढक गया था. सब के दिमाग में अफरातफरी मची थी. जिस बीमारी का नाम लेने की हिम्मत न होती हो, उस एचआईवी के लक्षण जीजीशा की रक्त धमनियों में बह रहे थे. कितने ही लोग अपनेअपने रक्त का निरीक्षण करा रहे थे. अनुभा भयभीत हो उठी. आज पहली बार अनुभा इतनी बेचैन हुई. वह उस कड़ी को देख कर कातर हो रही थी जो यामिनी दीदी, आन्या और आलोक को जोड़ रही थी. आलोक और जीजीशा के रिश्ते की कड़ी. घबरा कर उस ने पहली फ्लाइट पकड़ी और मुंबई से अपने घर इलाहाबाद आ गई.

‘अनुभा मैडम को क्या हुआ?’ उस के औफिस में एक प्रश्नवाचक मूक जिज्ञासा तैर गई. इलाहाबाद पहुंच कर बगैर किसी से कुछ कहेसुने, उस ने यामिनी दीदी और आन्या के तमाम टैस्ट करवाए और जब दोनों के निरीक्षण से डाक्टर संतुष्ट हो गए, तब जा कर वह इत्मीनान से पैर पसार कर लेट गई. मां ने उस का सिर अपनी गोद में ले लिया और स्नेहपूर्वक उस के माथे का पसीना पोंछने लगीं, ‘‘एसी चल रहा है और तू है कि पसीने में तरबतर, जैसे किसी रेस में दौड़ कर आई हो.’’

‘‘रेस में ही नहीं मम्मा, मैं तो महारेस में दौड़ कर आई हूं. ट्राईथालौन समझती हो, बस उसी में दौड़ कर लौटी हूं.’’

हक्कीबक्की मां उस का मुंह ताकती रह गईं. मन ही मन अनुभा मां से जाने क्याक्या कहे जा रही थी. एक ही जीवन में कई तरह की दौड़ हो गई. सब से पहले मालरोड पर साइकिल चलाई, फिर पढ़ाई कैरियर और यामिनी दीदी की बिखरी हुई जिंदगी के दलदल में फंसी और दौड़ का अंतिम चरण? वह तो मुंबई से इलाहाबाद, इलाहाबाद से अस्पताल, अस्पताल के गलियारों की दौड़. उफ, यह अंतिम दौर उस का कठिनतम दौर था. उसे लगा जैसे दीदी और आन्या किसी सुनामी से बच कर किनारे पर सुरक्षित पड़ी हों.

निश्ंिचतता और मां की गोद उसे धीरेधीरे नींद की दुनिया में ले जाने लगी, वह सपनों के हिंडोले में झूलने लगी. अचानक उसे लगा कि अगर आलोक उसे मिल गए होते तो…तो…हिंडोला टूट गया. यह क्या? फिर भी वह हंस रही है. खुशी की हंसी, राहत की हंसी. अच्छा हुआ, आलोक की वह नहीं हुई.

फैसला हमारा है : भाग 3

‘‘मेरी मां से आप की कब बात हुई, सर?’’ प्रिया ने चौंक कर प्रश्न किया.

‘‘तुम्हारे घर से निकलने के बाद उन्होंने मु झे फोन किया था.’’

‘‘आई एम सौरी, सर. मैं ने उन्हें आप को कभी भी फोन करने से मना कर रखा है, फिर भी क्या कहा उन्होंने…?’’ प्रिया अपने गुस्से को मुश्किल से नियंत्रण में रख पा रही थी.

‘‘तुम्हारे जीजा का दोस्त रवि 10 दिनों बाद मुंबई से आ रहा है. अब रेलें चलने लगी हैं न. वे चाहती हैं कि इस बार तुम दोनों के बीच शादी की बात आगे बढ़े. कम से कम रोका हो जाए, ऐसी उन की इच्छा है.’’

‘‘और क्या कहा उन्होंने?’’

‘‘मैं तुम से दूर हो जाऊं, ऐसी प्रार्थना करते हुए बद्दुआएं भी दे रही थीं. प्रिया, क्या मैं ने तुम्हें अपनी दौलत, अपनी अमीरी, अपने रुतबे और ओहदे के बल पर अपने साथ जोड़ रखा है? क्या मैं तुम्हारे साथ खिलवाड़ कर रहा हूं?’’ ये सवाल पूछते हुए मल्होत्रा साहब की आवाज में पीड़ा के भाव पैदा हुए.

‘‘ऐसे आरोप मां ने लगाए आप पर?’’

‘‘हां. उन के मन की चिंता मु झे गलत भी नहीं लगी, प्रिया. हमारा रिश्ता रवि के साथ तुम्हारी शादी होने की राह में बिलकुल रुकावट बन सकता है.’’

‘‘मेरी और रवि की शादी होगी, ऐसा फैसला अभी किसी ने नहीं किया है, सर. फिलहाल उस की बात जीजा ने चलाई है. मां ने आप से अपने मन का डर बताया है.’’

‘‘लेकिन, कल को तुम दोनों शादी करने का फैसला कर सकते हो, प्रिया. और तब हमारे बीच का संबंध तुम दोनों के बीच मनमुटाव व अलगाव पैदा करने का कारण बन सकता है. मैं यह कभी नहीं चाहूंगा कि वह मु झ से कभी आ कर  झगड़ा करे.’’

‘‘सर, आप पहले मेरी बात सुनिए,’’ प्रिया ने टोक कर अपने मन की बात कहनी शुरू कर दी, ‘‘जिस दिन रवि और मैं शादी करने का फैसला करेंगे, उस दिन से या उस से पहले ही हमारे बीच सैक्स संबंध समाप्त हो जाएंगे, क्योंकि तब न आप का और न मेरा दिल और बदन ऐसा करने की इजाजत हमें देंगे.’’

‘‘यह सच है कि पापा की कोविड में मौत के बाद हमें माली संकट से उबारने में आप ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है. अब फ्लैट की किस्तें मु झे नहीं देनी पड़तीं. कार की किस्त अटके या किसी अन्य खर्च के अचानक सिर पर आ पड़ने की स्थिति में आप मेरी हैल्प करते हो. हम साथ घूमते हैं तो भी आप का बहुत खर्चा होता है. हमारे लोगों में यह सुख भी थोड़ों को ही मिला है.

‘‘लेकिन, मेरे देखे यह सब खर्चा तो आप खुशीखुशी करते आए हैं. मु झे कहने की जरूरत नहीं पड़ती और आप पहले से ही मेरी जरूरत सम झ जाते हैं. आप की दौलत नहीं, बल्कि प्रेम ने मु झे आप के साथ जोड़ा हुआ है. मेरी सोच किसी वेश्या की सोच नहीं है.’’

‘‘बेकार की ऐसी बातें सोच कर परेशान मत हो, प्रिया,’’ उसे यों सम झाते हुए मल्होत्रा साहब खुद परेशान नजर आ रहे थे.

‘‘सर, मेरी कोशिश तो आज हम दोनों को बेकार के अपराधबोध की पकड़ से मुक्त करने की है,’’ खुद को शांत करते हुए प्रिया ने आगे बोलना जारी रखा, ‘‘आप अपनी दौलत के मालिक हैं और मैं अपने शरीर की. इन का हम क्यों अपनी मनमरजी से उपयोग नहीं कर सकते?’’

‘‘प्रिया, समाज कुछ रिश्तों को गलत मानता है.’’

‘‘सर, किसी पंडितपुजारी ने फेरे नहीं कराए हैं तो क्या हमारे बीच सैक्स संबंध नाजायज और अनैतिक बन जाएगा? क्या वारिस पैदा करने के लिए ही स्त्रीपुरुष के बीच सैक्स संबंध बने? सारे पांडव भी अपने बाप की औलादें नहीं थीं.’’

मल्होत्रा साहब की सम झ में नहीं आया कि वे प्रिया को क्या जवाब दें तो उस ने अपना तर्क आगे बढ़ाया, ‘‘आज की तारीख में आप की पत्नी नहीं, बल्कि मैं आप की सुखदुख की साथिन हूं. आप अगर मेरा ध्यान रखते हैं और  झुक कर अपनी कमाई खर्च करते हैं तो इस में क्या बुराई है, क्या गलत है?

‘‘रही बात हमारे बीच उम्र के बड़े अंतर की तो प्रेम संबंध की मजबूती आपसी सम झ, तालमेल व चाहत के भावों पर निर्भर करती है, न कि प्रेमियों की उम्र पर. हर उम्र के इंसान का दिल प्रेम देना और पाना चाहता है और इस के लिए उचित प्रेम पात्र का मिलना सब से महत्त्वपूर्ण है. पंडित, पुजारी और समाज में नैतिकता को ले कर शोर मचाने वाले ठेकेदार 2 इंसानों के बीच मजबूत प्रेम संबंध पैदा कराने की गारंटी कभी नहीं दे सकते. हमारे गांव का पंडित ऊंचीनीची जाति की हर लड़की पर हाथ मारने की कोशिश करता रहता है. कभी बात बनती है, कभी नहीं.’’

‘‘हम दोनों एकदूसरे के साथ बहुत खुश और सुखी हैं. मैं जानती हूं कि वक्त के साथ हमारा यह रिश्ता भी रूप बदलेगा और मैं उस के लिए तैयार हूं.

‘‘अब सवाल यह है कि क्या लोगों की बातों पर ध्यान दे कर आप मु झे व अपनेआप को व्यर्थ के तनाव, उल झन और अपराधबोध का शिकार बना कर अभी इस रिश्ते को समाप्त करना चाहोगे?’’

मल्होत्रा साहब ने बेहिचक गंभीर लहजे में जवाब दिया, ‘‘प्रिया, तुम अगर आज मेरी जिंदगी से चली जाओ तो मेरी जिंदगी बेहद नीरस हो जाएगी. बु झेबु झे अंदाज में अकेले जीवन बड़ा बो िझल साबित होगा.’’

‘‘तब व्यर्थ की बातें सोचना और कहनासुनना बंद कर दीजिए,’’ प्रिया उन की छाती से लग गई, ‘‘एकदूसरे का सुखदुख बांटते हुए हम खुश हैं और यही बात सिद्ध करती है कि हम जीने के व्यावहारिक तल पर सही और सफल हैं.’’

‘‘तुम उम्र में छोटी होते हुए भी मुझ से ज्यादा समझदार हो, कहीं ज्यादा प्रैक्टिकल हो,’’ मल्होत्रा साहब पहली बार सहज ढंग से मुसकरा उठे थे.

‘‘थैंक यू सर,’’ प्रिया ने उन के गाल पर प्यारभरा चुंबन अंकित कर दिया.

‘‘तुम्हें भूख नहीं लग रही है क्या?’’

‘‘बहुत जोर से लग रही है.’’

‘‘बोलो, कहां चलें?’’

‘‘वहां,’’ प्रिया ने मल्होत्रा साहब का हाथ थामा और शरारती अंदाज में हंसतीमुसकराती बैडरूम की तरफ

भाग चली. उस के साथ भागते हुए मल्होत्रा साहब अपनी सारी परेशानी व अपराधबोध को भुला कर, स्वयं को जोश व ताजगी से भरे नौजवान सा फिट महसूस कर रहे थे.

डर : भाग 3

रात को उस का फोन आया, ‘‘फूफाजी, सब ठीक हो गया है. एक अलग से मैडिकल प्रमाणपत्र दिया है जो सेना मुख्यालय के अनुसार है. पूरा दिन लग गया. शाम को 6 बजे तक सारा चैकअप पूरा हुआ. फिर कहीं जा कर उन्होंने प्रमाणपत्र दिया. मैं ने सब की फोटोकौपी ले कर फाइल बना ली है. केवल बीकौम के प्रमाणपत्र अटैस्ट होने बाकी हैं. पर फूफाजी, एक दिक्कत आ रही है. सारे प्रमाणपत्र सर्विंग मिलिटरी अफसर से अटैस्ट होने हैं. मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि यह कैसे होगा?’’

मैं ने कुछ देर सोचा, फिर कहा, ‘‘तुम्हारे कालेज में एनसीसी है?’’

‘‘है, फूफाजी.’’

‘‘फिर क्या दिक्कत है. अपने कालेज जाओ. एनसीसी के प्रोफैसर को पकड़ो, साथ लो और एनसीसी मुख्यालय पहुंच जाओ. वहां सारे सेना के सर्विंग अफसर मिल जाएंगे. अपने साथ सारी फाइल ले जाना. तुम्हारा काम एक मिनट में हो जाएगा.’’

‘‘यह सही कहा आप ने, एनसीसी के प्रोफैसर रमाकांतजी मेरे अच्छे जानकार भी हैं.’’

‘‘ठीक है फिर, शुभकामनाएं.’’

सुरेश ने फोन बंद कर दिया. 2 दिन बाद फोन आया, ‘‘फूफाजी, सारे प्रमाणपत्र अटैस्ट हो गए हैं. अब सेना मुख्यालय में डौक्युमैंट्स भेजने हैं.’’

‘‘सारे इंस्ट्रक्शन ध्यान से पढ़ना. जिस प्रकार उन्होंने कहा है या लिखा है, उसी के अनुसार भेजना. कोई डौक्युमैंट छूटना नहीं चाहिए और सब की फोटोकौपी लेना न भूलना. वहां स्पीडपोस्ट या कूरियर से आप डौक्युमैंट्स नहीं भेज सकते हैं. आप को रजिस्टर्ड डाक से ही भेजने होंगे और एक कौपी ईमेल से. आप सेना मुख्यालय के इंस्ट्रक्शन फौलो करना.’’

‘‘जी, फूफाजी.’’

एक महीने बाद सुरेश का फोन आया, ‘‘मुझे ट्रेनिंग के लिए आईएमए देहरादून में 5 मार्च को रिपोर्ट करनी है. लिफाफे में मेरा मूवमैंट और्डर और द्वितीय श्रेणी का रेलवे वारंट है और साथ में सामान की लिस्ट है जो साथ ले कर जाना है.’’

‘‘मुबारक हो. तुम्हारी जिंदगी बन गई. सेना में अफसर बनना गर्व की बात है.’’ थोड़ा रुक कर मैं ने कहा, ‘‘रेलवे वारंट और मूवमैंट और्डर के साथ रेलवे स्टेशन पर एमसीओ, मिलिटरी मूवमैंट कंट्रोल औफिस चले जाना. एक नंबर प्लेटफौर्म पर यह औफिस है, वह मिलिटरी कोटे से तुम्हारे रिजर्वेशन का प्रबंध करेगा. बाकी रही तुम्हारी सामान साथ ले जाने वाली बात, अमृतसर कैंट में मस्कटरी की दुकानें हैं. वहां तुम्हें सारा सामान मिल जाएगा. अगर कुछ रह भी जाता है तो वह आईएमए से मिल जाएगा.’’

‘‘जी, फूफाजी. लेकिन देहरादून पहुंच कर आईएमए तक कैसे पहुंचा जाएगा?’’

‘‘सेना का कोई काम पैंडिंग नहीं होता. उन को पहले ही इस की सूचना होगी. वे सुबह शनिवार से रेलवे स्टेशन पर एमसीओ के बाहर टेबलकुरसी ले कर बैठे होंगे और साथ में लिखा होगा कि इस कोर्स के कैंडिडेट यहां रिपोर्ट करें. और यह सिलसिला रविवार शाम तक चलता रहेगा.

‘‘गाडि़यां बाहर खड़ी रहेंगी जिन में बैठा कर वह सब को आईएमए पहुंचाती रहेगी. वहां सिर्फ तुम्हारा कोर्स ही नहीं चल रहा होगा, सभी के लिए अलगअलग टेबल लगी होंगी. तुम्हें अपने मूवमैंट और्डर लिखे कोर्स नंबर की टेबल पर रिपोर्ट करनी है. फिर उन का काम है कि कैसे करना है. तुम्हें उन के अनुसार करते रहना है.’’

4 मार्च की शाम को सुरेश का फोन आया. ‘‘आज रात मैं ट्रेन से आईएमए देहरादून जा रहा हूं. एमसीओ अमृतसर ने इस का रिजर्वेशन किया था. सुबह 10 बजे तक मैं वहां पहुंच जाऊंगा. शाम को 6 बजे तक वहां रिपोर्ट करनी है. मैं तो वहां 10 बजे ही पहुंच जाऊंगा.’’

‘‘कोई बात नहीं. वहां आप को सैटल होने का समय मिल जाएगा. जिस में हेयरकट से ले कर वरदी लेने तक और सोमवार को शुरू होने वाली टे्रनिंग की तैयारी में सुविधा रहेगी. ट्रेनिंग काफी सख्त रहेगी.

‘‘आईएमए विश्व का सर्वश्रेष्ठ ट्रेनिंग संस्थान है. अन्य देशों से भी अफसर यहां टे्रनिंग लेने आते हैं. सबकुछ व्यवस्थित ढंग से चलेगा. जब तुम वहां से पासआउट हो कर निकलोगे तो तुम भारतीय सशस्त्र सेना के अफसर होगे.

‘‘प्रथम श्रेणी के अफसर, जैसे आईएएस, आईपीएस अफसर होते हैं. तुम्हें लगेगा कि तुम औरों से बिलकुल अलग हो. तुम्हारे शरीर पर सेना की सुंदर वरदी होगी. दोनों कंधों पर 2-2 चमकते स्टार होंगे. हवाईजहाज या ट्रेन में प्रथम श्रेणी में सफर करोगे. तुम्हारे नाम के साथ लैफ्टिनैंट जुड़ जाएगा. तुम अपना परिचय लैफ्टिनैंट सुरेश कुमार के रूप में दोगे. उस समय जो तुम्हें गर्व महसूस होगा वह अनुभव जीवन का सर्वश्रेष्ठ अनुभव होगा. मेरी शुभकामनाएं हैं तुम्हें.’’

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