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Raksha Bandhan : काश मेरी बेटी होती – भाग 3

बेटे के विवाह के बाद उस का काम बहुत बढ़ गया था. आई तो एक बहू ही थी पर उस के साथ एक नया रिश्ता आया था, रिश्तेदार आए थे, जिन को सहेजने में उस की ऐसी की तैसी हो जाती थी. बेटेबहू के अनियमित व अचानक बने प्रोग्रामों की वजह से उस की खुद की दिनचर्या अनियमित हो रही थी. अच्छी मां व सास बनने के चक्कर में वह पिस रही थी. बच्चों को हमेशा बेसिरपैर की दिनचर्या देख कर उस ने बच्चों को घर की एक चाबी ही पकड़ा दी कि वे जब भी कहीं जाएं तो चाबी साथ ले कर जाएं. क्योंकि उन की वजह से वे दोनों कहीं नहीं जा पाते. रसोई में मदद के लिए एक कामवाली का इंतजाम किया. तब जा कर थोड़ी समस्या सुलझी. फिर बहू को भी नौकरी मिल गई. वह भी बेटे के साथ घर से निकल जाती और उस से थोड़ी देर पहले ही घर आती व सीधे अपने कमरे में घुस कर आराम करती.

रक्षा सोचती कि मजे हैं आजकल की लड़कियों के. शादी से पहले भी अपनी मरजी की जिंदगी जीती हैं और बाद में भी. एक उस की पीढ़ी थी. पहले मां बाप का डर, बाद में सासससुर और पति का डर और अब बेटेबहू का डर. ‘आखिर अपनी जिंदगी कब जी हमारी पीढ़ी ने?’ रक्षा की सोच भी जयंति की तरह नईपुरानी पीढ़ियों के बीच झूलती रहती. कभी अपनी पीढ़ी सही लगती, कभी आज की.

उन की खुद की पीढ़ी ने तो विवाह से पहले मातापिता की भी मौका पङने पर जरूरत पूरी की. संस्कारी बहू रही तो ससुराल में सासससुर के अलावा बाकी परिवार की भी साजसंभाल की और अब बहू व बेटों के लिए भी कर रहे हैं. कल इन के बच्चे भी पालने पड़ेंगे.

शिक्षित रक्षा सोचती कि आखिर महिला सशक्तिकरण का युग इसी पीढ़ी के हिस्से आया है. पर उन की पीढ़ी कब इस सशक्तिकरण का हिस्सा बनेगी? जिन पर पति के नाम के जीव ने भी पूरा शासन किया, रुपए भी गिन कर दिए. जबकि खुद अच्छाखासा कमा लाने लायक शिक्षा अर्जित की थी.

‘‘कैसा महिला सशक्तिकरण?’’ वह आश्चर्य से कहती और जयंति व शोभा के आगे बड़बड़ा कर अपनी भड़ास निकालती. उस की यह विचारधारा उन दोनों शिक्षित महिलाओं को भी प्रभावित करती, पर बाहरी तौर पर. क्योंकि वे सीधी तौर पर तीसरी पीढ़ी से अभी प्रभावित नहीं हो रही थीं. पर शोभा उन दोनों के अनुभव सुनसुन कर बहू के बारे में तरहतरह के पुर्वाग्रहों से ग्रस्त हो बैठी थी. पहले तो बेटा ही इतना नखरेबाज था ऊपर से बहू न जाने कैसी हो. बहू की मनभावन काल्पनिक तसवीर उस ने अपने मस्तिष्क के कैनवास से पूरी तरह मिटा दी थी. रक्षा ठीक कहती है कि आजकल की ऐसी बिगड़ैल बेटियां ही तो बहुएं बन रही हैं। आखिर ऊपर से थोड़े ही न उतरेंगी. उस का सालों का मासूम सा सपना भी दिल ही दिल में दम तोड़ चुका था. जब वह सोचा करती थी कि काश, उस की भी बेटी होती. बेटी तो नहीं हुई पर बड़े होते बेटे को देख कर वह नन्हा सा ख्वाब पालने लगी थी कि उस की प्यारी सी बहू आएगी और उस का सालों का बेटी का सपना पूरा हो जाएगा. पर रक्षा की बातों से उस ने यह उम्मीद भी छोड़ दी थी.

अब वह मन ही मन हर आने वाले संकट के लिए तैयार हो गई थी. वह उम्र में उन दोनों से थोड़ी छोटी थी. पति की अच्छी आय के चलते उस का घर भी उन दोनों से बड़ा था. उस ने सोच लिया था कि बहू के साथ ज्यादा मुश्किल हुई तो बेटेबहू को ऊपर से पोर्शन में शिफ्ट कर देगी. रक्षा सही कहती है कि हमारे लिए महिला सशक्तिकरण के माने कब आकार लेगा?

बेटे ने 31वें साल में कदम रख दिया था. अब वह भी चाह रही थी कि बेटे का विवाह कर वह भी अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाए. शोभा के पति सुकेश भी सोचते थे कि उन के रिटायरमैंट से पहले बेटे का विवाह निबट जाए तो अच्छा है पर जैसे ही बेटे से विवाह की बात छेड़ते, बेटा बहाने बना कर उठ खड़ा होता. जब भी किसी रिश्ते के बारे में बात करती, बेटा हवा में उड़ा देता. जब भी किसी लङकी की तसवीर दिखाती तो परे खिसका देता. ये देखतेदेखते एक दिन वह उखड़ ही गई,”ऐसा कब तक चलेगा ॠषभ…कब तक शादी नहीं करेगा तू?’’

मां का आंचल अब नहीं : क्या अंकुर सुधर गया ?

कितना छोटा सा ही था अंकुर तब, पर उस की शिकायतें आनी शुरू हो गई थीं. उस की मां सुभाषिनी उसे कभी कुछ न कहती. बच्चा है, बड़े हो कर समझ आ जाएगी, हमेशा यही लगता रहा. टीचर, दोस्त, रिश्तेदार, महल्ले वालों की शिकायतों को हमेशा अपनी ममता की चादर तले ढंकती रही वह.

बमुश्किल अंकुर ने बड़े महंगे अमीर लोगों के स्कूल से पढ़ाई पूरी की. इतनी खानदानी प्रौपर्टी है, भला उसे डिग्रियों की बैसाखियों की क्या जरूरत. पर आएदिन उस के पास पैसों की कमी रहती. कभी पिता से मांगता, कभी मां से. जवान होते जरूरतें भी तो पूरी बड़ी हो गईं. कई लड़कियां दोस्त बन गईं. आएदिन ड्रिंक पार्टी होने लगी.

अंकुर शायद 14 वर्ष का रहा होगा जब एक लडक़ी और उस की मां ने घर पर आ कर सुभाषिनी से अंकुर की शिकायत की थी.

‘‘अपने बेटे को कृपया मना कर दें उस ने इस का स्कूल जाना दूभर कर दिया है. अपने दोस्तों संग गंदेगंदे कमैंट्स करता रहता है.’’

उस की मां का मन पहली दफा अंकुर के लिए आक्रोशित हुआ था. पर उसी दिन वह अपने नई बाइक से गिर ऐसा चोटिल हुआ कि वह कह ही नहीं पाई उसे कुछ. अंकुर के पिता अपने बिजनैस में कुछ ज्यादा ही व्यस्त रहते थे. उस दिन बिना लाइसैंस बाइक चला रहे अवयस्क बेटे के चलते थाना का चक्कर लग गया था, सो, एक शर्मिंदगीभरी क्रोधाग्नि भडक़ी थी.

‘‘खबरदार जो अब मोटरसाइकिल को हाथ लगाया, गलती की मैं ने जो तुम्हारी जिद के आगे झुक गया.’’ पिता ने यह कहा पर अंकुर ने अनसुना कर दिया. वे 8-10 लडक़े थे जो उसी आयु के थे और सडक़ों पर बाइकों से करतब दिखाने व ट्रैफिक को खराब करते.

शायद और डांटें पड़तीं पर उस की मां डेटौल-पट्टी इत्यादि ला उसे लगाने लगी. उस दिन के बाद से मां हमेशा अंकुर और बाप के बीच खड़ी रहती एक दीवार बन और उसी दीवार की आड़ में कब अंकुर की शरारतें अपराध की श्रेणी में आ गईं, सुभाषिनी जान ही न पाई. अजीबअजीब से उस के दोस्त बन गए थे और अंकुर को लगता, वे ही उस के सही हमदर्द हैं.

अंकुर की शैतानियां अब बचपना छोड़ चुकी थीं. पर बाप को अंकुर की करतूतें मालूम नहीं थीं. एक न एक दिन तो कलई खुलनी ही थी. एक दिन अंकुर ने मांग की कि वह गोवा 8 दिनों के लिए दोस्तों के साथ जाना चाहता है. उसे 2 लाख रुपए चाहिए. उसी दिन पिता के पास अटैची में 5 लाख रुपए थे. अंकुर अटैची खोलने लगा.

‘‘नहीं, मैं इतने पैसे नहीं दे सकता. क्या जरूरत है तुम्हें गोवा जाने की. अटैची छोड़ दे, किसी को भुगतान करना है, वही पैसे इस में हैं,’’ अंकुर के पिता सीढिय़ों से उतरने लगे और बोल रहे थे. अंकुर उतरता हुआ लगातार उन के हाथ से ब्रीफकेस छीनने का प्रयास करने लगा था. इस छीनाझपटी में भला 22-23 बरस के युवक से अधेड़ होता बाप कैसे जीतता.

रुपयों से भरे उस अटैची को छीन कर भागते वक्त अंकुर ने पलट कर भी नहीं देखा कि उस के पिता इस के बाद सीढिय़ों से लुढक़ते चले गए. पिता तो सिर्फ सीढ़ी से लुढक़े पर वह अब मां के आंखों से टपटप आंसुओं संग भी लुढक़ गया. पिता की न सिर्फ हड्डियां टूटीं बल्कि मन भी टूट गया. बचपन में अंकुर पर अंकुश न लगाने का ही यह नतीजा था.

अंकुर को अपने इकलौते होने का बड़ा गरूर था. पर थोड़ा ठीक होते ही उस के पिता ने एक पुराने वकील को बुलवा कर कानूनी तौर से उस के साथ संबंध विच्छेद कर लिया.

मां ने कुछ न कह अपनी सहमति ही जताई और शायद कोई राह शेष नहीं थी. अब आएदिन अंकुर की कुख्याति से अखबार पटने लगे क्योंकि घर से कुछ न मिलने पर वह राहजनी, लूट, रंगदारी करने लगा.

‘अंकुर ने एक लडक़ी को अगवा किया’

‘अंकुर पर बलात्कार का आरोप’

‘ड्रग रखने का आरोपी अंकुर’

आएदिन घर पर पुलिस व पत्रकारों के चक्कर लगते रहते. हालांकि, वह घर में आता ही नहीं था. वह कभी एक ठिकाना ढूंढ़ता, कभी दूसरा.

एक दिन उस के पिता की सहनशीलता की सीमा समाप्त हो गई और अपनी लाइसैंसी बंदूक से अपनी इहलीला समाप्त कर ली. अब मां अकेली थी जीवन प्रांगण में. खुद को जिम्मेदार मान लोहा लेती रही. कुपुत्र की कुख्याति से जाने कितने बरस गुजर गए, अंकुर का नाम अब खबरों से बाहर निकल गया था.

वह क्या सुधर गया था. मां के मन का एक कोना आशान्वित होता पर अगले ही क्षण दूसरे कोने जोरशोर से इसे नकारने लगते. मां पति की बचीखुची जमापूंजी को सहेज कर काम चलाती मनो बेटे के कुकर्मों का प्रायश्चित्त कर रही हो.

उधर, अंकुर ने अपनी तरफ से मांबाप दोनों को मरा मान लिया था. उस ने पता किया कि मां अकेली रह रही है तो एक योजना बनाई. और फिर एक रात अचानक वह मां के दरवाजे पर खड़ा था एक लडक़ी के साथ. सुभाषिनी ने मिचमिचाती आंखों से अधेड़ हो चले बेटे को देखा, मानो करंट लग गया उसे. विश्वास और अविश्वास की चौखट पर कुछ पल झूलती रही सुभाषिनी कि पुत्र को पार करने दे या नहीं.

आखिरकार ममता सब पर भारी पड़ी और विवेक हार गया.

‘‘मां, इस से मेरी शादी करा दे.’’

शुरूशुरू में वह सुभाषिनी की गोद में जब सिर रख कहता तो सुभाषिनी की आंखों में रसधार फूट पड़ते मानो पुराने दिन लौट आए हों. कुछ दिनों के लिए सुभाषिनी यह भूल गर्ई कि गया वक्त कभी नहीं लौटता. फिर धीरेधीरे अंकुर की हरकतें संदिग्ध लगने लगीं, वह कहीं आताजाता नहीं, अलबत्ता, वह लडक़ी बेबाक बाहर आतीजाती. कुछ ही दिनों में वह समझ गई कि अंकुर के रहते बच्चियां सुरक्षित नहीं हैं, बंदर ने गुलाटी मारना नहीं छोड़ा है.

सुभाषिनी परेशान रहने लगी. वह साए की तरह उन के साथसाथ रहती. फिर भी अंकुर की कुचेष्टाएं फन काढ़े उस का जीना हराम किए रहतीं.

रात को महरी और नौकर चले जाते तो सुभाषिनी ऊपर के कमरे में सोती. उस रात उस को खांसी का दौर ऐसा शुरू हुआ कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था. सो, वह दवाई लेने सीढिय़ों से उतर रही थी कि अंकुर के साथ आई लडक़ी की आवाज उसे सुनाई दी.

‘‘उफ. और कितने दिनों तक यहां छिपे रहोगे. तुम ने तो कहा था, तुम करोड़ों के वारिस हो. अब मैं और नहीं रह सकती यहां. उस ड्रग डीलर के फोन से भी मैं परेशान हो चुकी हूं.’’

‘‘अरे यार, आज ही मैं बुढिय़ा को टपकाता हूं और प्रौपर्टी के सारे कागजात व जेवर समेट अब यहां से निकला जाए.’’

अंकुर को एहसास नहीं था कि मां यह सब सुन रही है. सुभाषिनी जड़ हो गई उस की बातों को सुन. अंकुर बोला, “तुम रोजरोज मेरे पीछे न पड़ो. मैं देखता हूं कि कैसे वे करोड़ों मिलते हैं. मां ने कहीं गाड़ कर रखे हैं.

“यह पुलिस भी तो कुत्ते की तरह मेरे पीछे पड़ी है. दुनिया में अभी यहां से सुरक्षित कोई जगह नहीं है. पर मम्मीजी ने अब तक इतना माल दबाए रखा है कि छोड़ते नहीं भी नहीं बन रहा. इस घर के अलावा और भी कितने घरजमीन की यह मालकिन है, सब मेरा ही तो है. अब जो यहां से निकले तो देश वापस नहीं आना है. बस, किसी तरह निकल जाऊं उस ड्रग डीलर के मुंह पर पैसे मार कर.”

अंकुर ने ऐसा कहा तो उस लडक़ी ने कहा, ‘‘जो करना है, जल्दी करो, वरना पुलिस तो बाद में आएगी. वह ड्रग डीलर सूघंते यहां पहुंच गया तो न प्रौपर्टी बचेगी, न तुम्हारी मम्मी और न ही ये जेवर.’’

मां को अंदर कमरे की यह बातचीत और हलचल बेचैन करने लगी, जी किया कि उसी मनहूस रिवौल्वर से खुद को वह भी गोली मार ले पर इस से तो अंकुर को आसानी ही हो जाएगी. ऊपर कमरे से आ रही खांसी की आवाज ने उस की तंद्रा को भंग किया. वर्षों पहले पिता को सीढिय़ों से गिराने वाला बेटा आज मां को भी तर्पण दे कर ही जाएगा. खांसी की आवाज लगातार अपनी उपस्थिति जता रही थी.

सुभाषिनी चेयर पर झूल रही थी. अंकुर को नहीं मालूम था कि विचारों की अंधड़ मन में चल रही थी, थपेड़ों से उन का शरीर कांप रहा था. आंखों से क्रोधाग्नि से तप्त अश्क, गंगाजमना बन कलेजे पर बरछियां चला रहे थे. अंकुर का बचपन बारबार मानस पर चलचित्र की भांति चल रहा था.

शादी के बरसों बाद अंकुर गोद में आया था. काफी इलाज के बाद शारीरिक कमियों को हराते हुए उसे पाया था. शायद संकेत था कि निपूती रहना ही श्रेस्कर होगा. इतने वर्षों बाद गोद हरी हुई तो अंकुर की कोई गलती कभी महसूस ही नहीं हुई. कैसा कुलतारण कपूत निकला जैसे कोई वैर निकालने ही पैदा हुआ.

तभी दरवाजे पर किसी ने खटखटाया. अंकुर ने खिडक़ी से झांका और घबराते हुए दौड़ कर हौल में आया. सुभाषिनी को बैठा देख वह झट से उस की गोदी में सिर घुसा शुतुरमुर्ग बन कहने लगा, ‘‘मां, दरवाजा मत खोलना, पुलिस आई है तेरे बेटे को पकड़ कर ले जाएगी.’’

बेटे से यह नजदीकी और प्यारभरे बोल मां का मन फिर भरमाते कि सुभाषिनी जोर से बोल पड़ी, ‘‘दरवाजा खुला है, अंदर चले आएं. फोन मैं ने ही किया था.’’ गला भर्रा चुका था, कंठ अवरुद्ध हो चुका था.

दीवारें बोल उठीं

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ज्योति से ज्योति जले- भाग 3: उन दोनों की पहचान कैसे हुई?

रश्मि ने यश की मम्मी की पूरी बात धैर्य से सुनी फिर बिना मेरी ओर देखे ही उन को वचन दे दिया कि वह यथाशक्ति उन की मदद करेगी. रश्मि जानती थी कि अगर वह मेरी ओर देखती तो शांतिजी को मदद करने का वचन नहीं दे पाती क्योंकि मैं उसे ऐसा करने से जरूर रोकती.

मुझे विश्वास था कि उसे कुछ भी कहना व्यर्थ था. फिर सोचा, एक आखिरी कोशिश कर लूं, शायद सफलता मिल जाए.

तब प्रत्युत्तर में उस ने जो कुछ कहा, वह मेरे लिए अप्रत्याशित था.

‘‘वर्षा दीदी, मैं अपना दर्द सीने में दबा कर सिर्फ खुशियां बांटने में विश्वास करती हूं. इसीलिए अपने गमों से न तो कभी आप का परिचय करवाया, न ही किसी और का, पर आज ऐसा करना मेरे लिए जरूरी हो गया है.

‘‘दीदी, मैं ने बचपन और जवानी के चंद वर्षों का हर पल अभावों में गुजारा है. कभीकभी तो हमारे घर खाने को भी कुछ नहीं होता था. मैं भूखी रहती, पर कभी भी अपने ही पड़ोस में रहने वाले अपने सगे चाचा के घर जा कर रोटी का एक निवाला तक पाने की कोशिश नहीं की. धन के अभाव में मैं ने अपनी मां को तिलतिल मरते देखा है. मेरा इकलौता छोटा भाई इलाज के अभाव में मर गया. उस के हृदय में सुराख था.

‘‘ऐसी बात नहीं थी कि हम गरीब थे. पापामम्मी दोनों अध्यापक थे लेकिन पापा अपने वेतन का अधिकतर हिस्सा जरूरतमंदों की मदद में खर्च करते तब मां के सामने घर खर्च चलाने में कितनी दिक्कतें आती होंगी.’’

मैं सांस रोके उस की आपबीती सुनती रही.

‘‘मम्मी खुद भी अपने कर्तव्य एवं अपने विद्यार्थियों के प्रति पूर्णतया समर्पित एक आदर्श शिक्षिका थीं. वह हमेशा कहतीं, ‘बेटी, एक शिक्षिका के तौर पर मेरी यह दृढ़ मान्यता है कि किसी भी विद्यार्थी की असफलता के पीछे शिक्षक की नाकामयाबी छिपी होती है. इसलिए मैं हमेशा इसी प्रयास में रहती हूं कि विद्यार्थियों को मैं अपनी तरफ से बेहतरीन शिक्षा दूं.’ मम्मी का जीवन मंत्र था, ‘प्यार, विद्या और खुशियां बांटने से बढ़ते हैं.’ उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी इस मंत्र को आत्मसात करने में गुजार दी.

‘‘वर्षा दीदी, अब आप ही बताइए कि ऐसे आदर्श मातापिता की बेटी हो कर अगर मैं उन की राह न चलूं तो क्या यह उन के प्रति अन्याय नहीं होगा? मेरा हर कार्य मम्मी के प्रति मेरी श्रद्धांजलि है.’’

मैं रश्मि की जिंदगी का यह पन्ना आज ही पढ़ सकी. जब मातापिता इतने उदार और आदर्श शिक्षक थे तब बेटी का भी ऐसा होना स्वाभाविक ही था. शायद यही राज है उस की कुशाग्र बुद्धि व प्रतिभा का. वह भी एक तेजस्वी और निष्ठावान शिक्षिका है. जब भी वह किसी विद्यार्थी के लिए किसी प्रसंग, किसी विषय पर भाषण या फिर वादविवाद के लिए निबंध तैयार करती तो उस विद्यार्थी का पहला पुरस्कार निश्चित होता.

उस की बातें सुनने के बाद मैं ने अपनेआप को वचन दिया कि मैं कभी भी उसे दूसरों की मदद करने की बात को ले कर टोकूंगी नहीं.

यश की मम्मी शांति को उस ने बाद में भी 15 हजार रुपए दिए थे क्योंकि उस के पापा की बीमारी ने उन्हें घर बेच कर एक गंदी बस्ती में रहने पर मजबूर किया था. वहां उस की जवानी में कदम रख रही बहन सुरक्षित नहीं थी. यह बात जब शांति ने रश्मि को बताई तो उस ने खुद का फिक्स्ड डिपाजिट तुड़वा कर उन्हें पैसे दे कर अच्छी सी बस्ती में किराए पर कमरा दिलवाया था.

Raksha Bandhan : अल्पना, भाग 3

‘‘अरे, मेरी शादी के वक्त से ही शशि बाबा को पसंद नहीं था. उस की नौकरी, तनख्वाह कुछ भी उन्हें मेरे लायक नहीं लगा था. लेकिन शशि देखने में इतना हैंडसम था कि मैं देखते ही उस के प्यार में पागल हो गई थी. और मांबाप के लाख समझाने पर भी मैं शशि से ही शादी करने की जिद कर बैठी थी. आखिर मेरी जिद की वजह से मेरी शशि से शादी हो गई. शादी के बाद हम दोनों जब भी मांबाबा के घर जाते शशि को हमेशा ही लगता कि उस की नौकरी और कम तनख्वाह के कारण बाबा उसे नीची नजरों से देखते हैं.

‘‘मैं ने जब शशि की शिकायत बाबा से करी तो बाबा ने गुस्से में भर कर उसे सुना दिया कि तुम मेरी बेटी के लायक कभी थे ही नहीं और कभी हो भी नहीं सकते.

‘‘यह सब सुनने के बाद मेरा मायका छूट गया. शशि के स्वभाव ने और भयंकर रूप धारण कर लिया था… यही है मेरी गृहस्थी का असली रूप. मां बाबा और सुरेश अब अमेरिका में ही रहने लगे हैं… न वे कभी मेरे से मिलने आए और न मैं कभी उन के पास गई… जीवन में मुझे एक ही सुख मिला है और वह है मेरी बेटी प्रिया. उसे देख कर ही मैं जी रही हूं.’’

‘‘बेटी से कैसा सलूक है तुम्हारे पति का?’’

‘‘बेटी को तो वह बहुत प्यार करता है. लेकिन उस के स्वभाव के कारण प्रिया उस से डरी डरी सी रहती है… हम दोनों के झगड़े में पिसती जा रही है… हर समय सहमी सहमी सी रहती है.’’

‘‘तुम्हें कुछ दिन सुरेश के साथ मां बाबा के साथ जा कर रहना चाहिए.’’

‘‘मां बाबा सुरेश के साथ काफी सैटल हो गए हैं. उन्होंने वहां की सिटीजनशिप भी ले ली है. सुरेश और उस की पत्नी उन की बहुत सेवा करते हैं… ऐसे में मुझे अपना यह दुख उन के सिर पर डालना ठीक नहीं लगता. अच्छा यह सब रहने दो… तुम्हें और एक बात बतानी थी. मैं कल 4 बजे तक तुम्हारे घर आऊंगी… कुछ काम है… मां बाबा के कुछ पेपर्स देने हैं. तुम जब अमेरिका जाओ तो पेपर्स सुरेश को मेल कर देना.’’

‘‘हांहां, जरूर… जरूर आना कल. मैं और मृणाल वेट करेंगे… अपनी बेटी को भी लाना… उस से भी मुलाकात हो जाएगी,’’ कह कर मैं ने फोन बंद कर दिया.

मगर दूसरे दिन दोपहर 4 बजे तक का इंतजार हमें करना ही नहीं पड़ा. सुबहसुबह

7 बजे ही प्रिया का यानी अल्पना की बेटी का फोन आ गया. बहुत ही डरी आवाज में उस ने कहा, ‘‘अंकल, आप प्लीज अभी हमारे घर आ जाएं. कल पापा ने मम्मी को बहुत मारा है… मम्मी ने ही आप को फोन करने को कहा था.’’

मैं ने बिना कुछ सोचेसमझे अपनी गाड़ी निकाली. मृणाल को भी साथ ले लिया. फिर अपने एक पुलिस वाले दोस्त इंस्पैक्टर राणा को पुलिस की वरदी में अपने साथ ले लिया.

अल्पना के घर पहुंच गए. अल्पना की हालत बहुत खराब थी. उस की एक आंख सूजी हुई थी. दोनों गालों पर भी चोट के निशान दिखाई दे रहे थे. एक हाथ भी जख्मी था. वह बहुत घबराई हुई थी और कराह रही थी. प्रिया उस की बगल में बैठी थी. शशिकांत पलंग की दूसरी ओर सिर पकड़े बैठा था.

मुझे और मेरे साथ आए पुलिस इंस्पैक्टर को देख कर शशिकांत घबरा गया. फिर दूसरे  ही पल अपने तमाम पुरुष अहंकार को समेटते हुए अल्पना की तरफ देखते हुए बोला, ‘‘क्या तुम ने बुलाया है इन्हें यहां?’’

‘‘मैं इंस्पैक्टर राणा… आप की बेटी के फोन के आधार पर यहां इन्वैस्टिगेशन करने आया हूं.’’

शशिकांत इंसपैक्टर राणा की बात सुन कर हक्काबक्का रह गया.

मैं और मृणाल भी चुपचाप खड़े थे. पहले तो इंस्पैक्टर राणा ने शशिकांत को अपने कब्जे में किया. फिर मृणाल प्रिया के साथ घर पर रुकी रही और मैं और अल्पना पुलिस स्टेशन चले गए. अल्पना ने थाने में शशिकांत के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई.

इस के बाद अल्पना और प्रिया को ले कर हम दोनों अपने घर आ गए. घर आते ही मृणाल ने पहले सब के लिए चाय बनाई. अल्पना को पानी दे कर थोड़ा शांत  होने दिया और फिर थोड़ी देर बाद बहुत ही शांत संयत भाव से मैं ने अल्पना से पूछा, ‘‘क्या है यह सब अंजू? पत्नी पर इस तरह हाथ उठाना गुनाह है, यह क्या तुम्हारा पति जानता नहीं? क्या पहले भी कभी उस ने इस तरह मारा था?’’

‘‘ऐसा दूसरी बार हुआ है… 2-3 साल पहले मुझे औफिस में अचानक चक्कर आ गया था… मेरी तबीयत बहुत बिगड़ गई थी. तब मेरा एक कलीग मुझे घर छोड़ने आया था… तब भी शशि ने मुझे रात को इसी तरह मारा था… वह मेरे लिए बहुत पजैसिव है… मेरे साथ किसी और पुरुष को वह देख ही नहीं सकता.’’

‘‘वह देख नहीं सकता, लेकिन तुम यह सब सह कैसे लेती हो? पति को तुम्हारा नौकरी कर के पैसे कमाना मंजूर है, लेकिन तुम्हारे साथ किसी को देखना मंजूर नहीं? यह क्या बात हुई?’’

‘‘मैं ने भी यह सब हजार बार सोचा है अरुण… सिर्फ अपनी बेटी की सोच सब सहती रही हूं.’’

‘‘लेकिन सहन करने की कोई सीमा होती है, अंजू… मैं मानता हूं कि तुम मांबाबा, सुरेश और सब के बारे में सोच कर अपना दर्द आज तक छिपाती रही हो, लेकिन सहनशीलता की भी कोई सीमा होनी चाहिए… इतनी मार सहने की तुम्हें कोई जरूरत नहीं है. कभी न कभी सहनशीलता का भी अंत होना ही चाहिए.’’

‘‘वह आज हो गया अरुण… इतने दिनों तक मैं अपनी इस स्वीट बेटी के लिए चुप रही थी, लेकिन अब नहीं… अब वह सब समझ चुकी है… अब मुझे शशि से अलग होने से कोई नहीं रोक सकता.’’

‘‘वैरी गुड… हम सब तुम्हारे साथ हैं.’’

2-3 महीने तक प्रिया और अल्पना हमारे साथ ही रही. फिर अल्पना ने कोर्ट में तलाक का नोटिस दे दिया.

शशि काफी दिनों तक हमारे घर आ कर अल्पना को मनाने का नाटक करता रहा,

लेकिन अल्पना नहीं मानी. तलाक के लिए 6 महीने का सैपरेशन का समय जब शुरू हुआ तभी हमारा अमेरिका वापस जाने का समय भी आ गया. अल्पना और प्रिया के पास भी पासपोर्ट थे ही… जब हम दोनों अमेरिका वापस जा रहे थे तब अल्पना और प्रिया भी हमारे साथ अमेरिका जा रही थीं. उन दोनों को सुरेश तक पहुंचाने का जिम्मा मैं ने ही लिया था.

धुंध, भाग 3

रंगरूप में सानविका से अधिक श्रेष्ठ होने के भाव ने साधना को इतना अहंकारी बना दिया था, श्रेष्ठता का यह भाव उस के मन पर इस कदर हावी हो गया था कि सानविका की बुद्धि में श्रेष्ठ होने की बात साधना से बरदाश्त नहीं हो पा रही थी. अब वह हर बात पर सानविका को अपमानित करने लगी थी, और फिर धीरेधीरे यह उस की आदत भी बन गई.

धीरेधीरे साधना के दिलोंदिमाग पर उस के रंगरूप का घमंड इस तरह छा गया कि जिस के दंभ में उसे कुछ भी ना तो अब नजर आता था और न ही समझ में आता था.

साधना की बुद्धि पर अपने रंगरूप के अहंकार की ऐसी परतें जम गईं कि जिस की धुंध में वह अब कुछ भी देखसुन पाने में असक्षम थी, वह सानविका को अपमानित करने का कोई भी मौका अपने हाथ से जाने नहीं देती.

जहां सानविका पढ़ाई में एक के बाद एक सफलता प्राप्त करती जा रही थी, वहीं साधना का मन अब पढ़ाई से ही जी चुराने लगा था. वह अपनी सारी ऊर्जा, सारी शक्ति सिर्फ और सिर्फ सानविका को नीचा दिखाने में खर्च करने लगी थी. जैसे कि अब उस के जीवन का एकमात्र यही उद्देश्य रह गया हो…

सानविका ने जहां पीएचडी की डिगरी हासिल कर ली, वहीं साधना ग्रेजुएशन से आगे पढ़ ही नहीं सकी और फिर जल्द ही उस की शादी किसी बिजनैसमैन से कर दी गई. इधर सानविका ने भी अपने पसंद से समीर नाम के लड़के से शादी कर ली. लेकिन अपने घरगृहस्थी में जमने के बाद भी साधना के मन से सानविका के प्रति ईष्या एवं घृणा का भाव खत्म नहीं हुआ. सानविका को नीचा दिखाने का सिलसिला जारी ही रहा.

आएदिन साधना किसी न किसी बहाने सानविका को अपने घर पर बुला कर उसे अपमानित करती रहती. कई बार तो वह अपने घर के फंक्शन में मेहमानों के सामने ही उस का अपमान करने से नहीं चुकती. अकसर उस के रंगरूप का मजाक उड़ाया करती और दूसरी तरफ सानविका यह सभी कुछ चुपचाप मुसकरा कर सहन कर जाती.

साधना हर वह कोशिश करती, जिस में सानविका को छोटा या नीचा दिखा सके, लेकिन सानविका पर उस के इन बेकार की बातों का कुछ भी असर नहीं पड़ता.

सानविका पर असर न पड़ता देख साधना मन ही मन और भी चिढ़ जाती थी. और तब एक दिन साधना ने अपनी सारी हदें पार कर दी. उस दिन साधना ने बड़े प्यार से अपनी बहन सानविका को अपने घर बुलाया. उस के यहां बच्चे के जन्म की खुशी में पार्टी रखी गई थी, जिस में बहुत से मेहमान आमंत्रित थे. सभी बहुत खुश थे. डायमंड ज्वेलरी में सजीधजी साधना सब के आकर्षण का केंद्र बनी हुई थी. वह एकएक कर सभी मेहमानों से मिलती और सब का बड़े प्यार से स्वागत करती.

सानविका और समीर भी वहीं खड़े थे. लेकिन साधना ने उन की ओर देखा तक नहीं. समीर को साधना का यह व्यवहार अच्छा नहीं लग रहा था. इतने में साधना का पति अरूल वहां आया और उन दोनों का अन्य मेहमानों के साथ उस ने परिचय कराना चाहा, तभी साधना भी वहां पहुंच गई और सानविका की ओर देख कर बोली, ”अरे, तुम दोनों बाहर क्यों खड़े हो…? सानविका तू अंदर चल,” और फिर वह सानविका का हाथ पकड़े हुए अंदर कमरे की ओर बढ़ गई और अंदर जा कर साधना वापस दूसरे मेहमानों में व्यस्त हो गई. सानविका बच्चे को गोद में उठा कर उस के साथ खेलने लगी. उस दिन देर रात तक पार्टी चलती रही. रात 11 बजे के करीब सानविका और समीर अपने घर लौट आए, परंतु दूसरे दिन जब समीर औफिस के लिए और सानविका कालेज के लिए निकलने ही वाले थे कि उन के घर की डोर बेल बज उठी. समीर ने दरवाजा खोला तो देखा कि बाहर पुलिस खड़ी है. पुलिस को सामने खड़ी देख समीर ने आश्चर्यपूर्वक पूछा, “जी कहिए?”

”आप के घर की तलाशी लेनी है… आप के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई गई है…”

” किस बात की शिकायत?”

”डायमंड रिंग के चोरी होने की शिकायत, जिस की कीमत तकरीबन 5 लाख मिसेज अरूल ने बताई है.”

“आप को किसी प्रकार की गलतफहमी हुई है.”

”सारी गलतफहमियां अभी दूर हो जाएंगी… अरे, आप हटिए जरा… सामने से… पहले हमें घर की तलाशी लेने दीजिए…” और फिर दनदनाते हुए पुलिस अंदर घुस गई, और फिर सारे घर की तलाशी शुरू कर दी गई.

यह सब देखसुन कर समीर और सानविका को अपने आंखों पर जैसे भरोसा ही नहीं हुआ. वे बिलकुल स्तब्ध से खड़े रह कर पुलिस द्वारा की जा रही अपने घर की तलाशी को देखते रहे, उन के घर के हर एक समान की तलाशी ली गई और फिर बाद में सानविका के पर्स से डायमंड रिंग उन्होंने ढूंढ़ निकाली…

”क्या यह पर्स आप का है?” पर्स सानविका को दिखाते हुए पुलिस ने सवाल किया.

”हां, लेकिन यह रिंग इस में कैसे आई…? मुझे नहीं मालूम.”

”वह सब हमें नहीं पता… आप को हमारे साथ थाने चलना होगा,” और फिर सानविका को अपने साथ ले कर पुलिस वहां से चल देती है.

इधर घबराया हुआ सा समीर अरूल को फोन कर देता है. अरूल थाने पहुंच कर सानविका को छुड़ा लाता है और उन दोनों से माफी मांगते हुए कहता है, ”जो हुआ उस का मुझे बहुत अफसोस है. मेरा यकीन मानो, अगर मैं होता तो यह सबकुछ बिलकुल नहीं होने देता, कल रात बीच पार्टी में ही किसी जरूरी काम से बाहर जाना पड़ा. सुबह लौटा ही था कि समीर का फोन आया और मैं सीधा यहां पर आ गया. सच कहूं, तो मैं बेहद शर्मिंदा हूं… मुझे यकीन नहीं आता कि साधना इस हद तक गिर जाएगी…”

साधना द्वारा सानविका का यह अपमान समीर से बरदाश्त नहीं हुआ और उस ने तभी से उन दोनों बहनों के बीच एक लंबी रेखा खींच दी.

समीर ने सानविका को सख्त हिदायत दी कि अब से वह अपने बहन के बुलावे पर कभी भी उस के घर ना जाए, और तब से ले कर आज तक…, 20 वर्ष का एक लंबा अरसा गुजर गया. उन दोनों बहनों ने एकदूसरे का चेहरा देखना तो क्या आवाज तक नहीं सुनी थी.

सानविका उस रात ठीक से सो नहीं सकी. वह सारी रात यही सोचती रही कि आखिर वो ऐसी कौन सी बात है, जिस के कारण साधना दी उस से मिलना चाहती हैं.

नजमा : भाग 3

हम कर भी क्या सकते हैं. कभीकभी इनसान इतना मजबूर हो जाता है कि चाह कर भी किसी की मदद नहीं कर सकता. परिस्थितियां ऐसी बन जाती हैं, तब अपने इस मजबूरी पर बहुत गुस्सा आता है.

नजमा के बारे में जो बताया, उसे सुन कर बहुत दुख हुआ.

“देखिए न, कल उस का बेटा होस्टल से मामा के घर भाग गया है. 3 दिन की छुट्टी ले कर बेटे को होस्टल पहुंचाने गई है,” मैं ने कहा.

“क्या करें, सब का अपनाअपना नसीब है,” रिया की मम्मी बोली.

घर वापस आई तो देखा मनन आ चुके थे. उनके लिए चाय बनाई और नजमा के बारे में चर्चा करने लगी.

3 दिन बाद वह काम पर वापस आई, तो मैं ने बेटे के बारे में पूछा, तो बोली, “दीदी, उस को होस्टल पहुंचा दिया.”

मुझे भी सुन कर तसल्ली हुई.

नजमा काम कर के चली गई. तभी फोन की घंटी बजी, मां का फोन था. मां हमेशा बुलाती, लेकिन घरगृहस्थी के चक्कर में मैं जा नहीं पाती थी, तो इस बार मैं ने मांपापा को यहीं बुला लिया था. 2–4 दिन में वे लोग आने वाले थे. मां मुझ से मेरे सामान की लिस्ट बनवा रही थी. जी हां… जब भी मां आती तो वो मेरी पसंदीदा चीजें अचार, पापड़, सत्तू, वड़ी और भी बहुत सारे सामान ले आती. कोई चीज भूल न जाए, इसलिए मम्मी मुझ से लिस्ट बनवा लेती.

घर सैट हो चुका था. थ्री रूम होने के कारण रहने में कोई समस्या भी नहीं थी. पिछला फ्लैट 2 कमरे वाला था.

मैं बेसब्री से मम्मी के आने का इंतजार करने लगी. बच्चे भी नानीनाना के आने की खबर सुन कर खुश थे.

मम्मी के आने में 2 दिन रह गए थे. नजमा काम खत्म कर मेरे पास आ कर बोली, “दीदी, 3 दिन की छुट्टी चाहिए.”

छुट्टी की बात सुन कर मुझे गुस्सा आ गया. मम्मीपापा आने वाले थे और इस को इसी समय छुट्टी चाहिए थी.

मैं ने कड़क आवाज में बोला, “अभी कुछ दिन पहले तुम ने छुट्टी ली थी और अब फिर छुट्टी…?”

ये हम औरतों का सब से बड़ा सच है कि जब घर में कोई मेहमान आने वाला होता है, तो जाने कामवालियों को इस बात की भनक कैसे लग जाती है, ये मुझे आज तक समझ नहीं आया? कभी संकट के समय में ये काम नहीं आती.

“दीदी, मेरा पति बीमार है. गांव जा कर उस का इलाज कराना है,” नजमा ने कहा.

“गांव जा कर इलाज? लोग बीमार होते हैं, तो शहर जा कर इलाज कराते हैं और तुम शहर में रह कर गांव जा कर इलाज करवाओगी?”

मैं समझ गई थी कि ये झूठ बोल रही है, इसलिए मैं ने उसे सवाल कर दिया.

“हां दीदी, उस का इलाज वहीं चलता है,”.वह धीरे से बोली.

अब ठीक है कहने के अलावा, मेरे पास कोई चारा न था. मैं ने उसे डांटते हुए कहा, “3 से 4 दिन नहीं होना चाहिए. मेरे मम्मीपापा आने वाले हैं.”

“नहीं होगा दीदी,” इतना कह कर वह चली गई.

मेरा मन खिन्न हो गया था. अब 3 दिन तक घर का सारा काम मुझे करना था. जब शाम को पार्क में गई, तो नजमा की सहेली अल्पना पार्क में बच्चे को खिला रही थी. वह रत्ना के घर नैनी का काम करती थी. एक बार नजमा एक सप्ताह की छुट्टी ले कर गई थी, तो इसे काम करने के लिए बोल गई थी.

अल्पना ऐसे तो बड़ी बातूनी, लेकिन काम साफसुथरा करती थी. मुझे देखते ही उस ने नमस्ते किया.

“नमस्तेनमस्ते,” कह कर मैं ने उत्तर दिया.

“कैसी हैं दीदी?” उस ने पूछा.

“तुम्हारी सहेली के छुट्टी लेने से परेशान हूं. “

इतना सुनते ही वह खिलखिला कर हंस पड़ी. फिर थोड़ी गंभीर हो कर वह बोली, “दीदी, बड़ी अभागिन है बेचारी, उस की बेटी ने नस काट ली है. उसी को लाने वह उस की ससुराल चली गई.”

“क्या…? लेकिन, मुझे तो…” कहतेकहते मैं रुक गई.

“उस की बेटी ने नस क्यों काटी? ठीक तो है न? नजमा ने मुझे तो कुछ नहीं बताया,” मैं ने सवालों की झड़ी लगा दी.

“बेटी को ससुराल वाले अस्पताल ले गए हैं, अब वह ठीक है दीदी,” अल्पना ने बताया.

“14 साल की बच्ची है बेचारी, क्या करें, पति के साथ कैसे रहना चाहिए, नहीं मालूम उसे.”

“क्या…? नजमा ने तो कहा था कि उस की बेटी 18 साल की है. तभी मैं कहूं, उस की फोटो देख कर वह 13-14 साल की लग रही थी,” मैं अचंभित हो कर बोली.

“शादी करने के लिए उस का नकली आधारकार्ड का सर्टिफिकेट बनवाया गया था,” अल्पना ने कहा.

मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा. शादी करने की ऐसी भी क्या जल्दी थी कि खेलनेकूदने की उम्र में, उस के गले में शादी नाम की फांसी बांध दी गई और लड़का उस से दुगुनी उम्र का पूर्णतः परिपक्व. उफ, क्या जाने उस के साथ जबरदस्ती भी करता हो? यह सोच कर मेरा मन गुस्से से भर गया.

“बताओ तो बच्ची के खेलनेकूदने की उम्र में अधेड़ के साथ बांध दिया. सारे घर की जिम्मेदारी ऊपर से पति को संभालना, बेचारी नन्ही सी बच्ची कैसे करेगी? उस की शादी की इतनी भी जल्दी क्या मची थी नजमा को?” मैं ने फिक्र और गुस्से से कहा.

“दीदी, हम लोग जिस महल्ले में रहते हैं, वहां का माहौल ठीक नहीं है. नजमा का पति शराबी है. दारू पी कर कभी नाले में पड़ा रहता है, तो कभी सड़क पर, क्या करती बिचारी? अच्छा घर देख कर शादी कर देना ही उचित समझा,” अल्पना ने कहा.

ऐसा लगा जैसे अल्पना ने बस्ती में रहने वाले शायद हर गरीब की मजबूरी बता दी. ना जाने कितने आंधीतूफान इन औरतों को सहने पड़ते हैं.

“दीदी, मैं जाती हूं, बेबी इधरउधर भागने लगी.”

हमारी बातों में उलझे रहने के कारण बच्ची खेलतेखेलते थोड़ी आगे निकल गई थी. मैं वापस घर आ गई.

रातभर नजमा और उस के जैसे हजारों नजमा के बारे में सोचती रही. ठीक से नींद नहीं आई. सुबह मैं और मनन चाय पी रहे थे. मैं ने नजमा के बारे में उन्हें बताया और कहा, “मुझ से झूठ बोल के गई है कि पति बीमार है.”

“हां तो क्या कहती तुम से कि बेटी ने नस काट ली है, इसलिए जा रही हूं? तुम भी ना कभीकभी बेसिरपैर की बातें करती हो.”

बात तो सही कह रहे थे मनन. मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ, तो मैं झेंप गई. दूसरे दिन तय समय पर मम्मीपापा पहुंच गए. मनन उन्हें रेलवे स्टेशन लेने गए थे. बच्चे नानीनाना को देख कर बहुत खुश हुए.  दोनों बच्चों ने अपना कमरा नानीनाना को दिखाया. मैं ने जल्दी से चायनाश्ता बनाया, फिर हम सब ने साथ खाया. बच्चों के पास ढ़ेर सारी बातें थीं, उन की बात खत्म होने का नाम नहीं ले रही थी. मैं ने उन से कहा कि नानीनाना को आराम करने दो, वे लंबी जर्नी के बाद थक गए होंगे. तब कहीं जा कर बच्चों ने उन का पीछा छोड़ा.

3 दिन तक मैं ने मैनेज किया. चौथे दिन नजमा काम पर आई. मैं ने उस के पति की तबीयत के बारे में पूछा, तो उस ने बताया कि अब वह ठीक है.

कुछ दिन हमारे साथ रहने के बाद मम्मीपापा वापस चले गए.

कुछ महीने बाद नजमा ने बताया कि उस की बेटी मां बनने वाली हैं. वह उस के खानेपीने के लिए काफी चीजें बना कर उस के ससुराल ले जाती थी.  जन्नत की सास इस दुनिया में नहीं थी. इसलिए सारा दारोमदार नजमा के ऊपर आ गया था. उस के 8वें महीने में उसे अपने पास ही ले आई. उम्र कम होने के कारण उस की प्रेगनेंसी नौर्मल नहीं थी. जन्नत को 8वें महीने में ही अस्पताल में भरती करवाना पड़ा. वह मुझ से छुट्टी मांग कर गई.

मैं भी खुशखबरी सुनने को बहुत उत्सुक थी. 2 बार उसे मैसेज कर चुकी थी, लेकिन कोई उत्तर नहीं आया. जब मुझ से रहा नहीं गया, तो दूसरे दिन मैं ने नजमा को फोन किया, लेकिन उस ने फोन नहीं उठाया. पता नहीं, क्यों मन आशंकित होने लगा. उस के फोन नहीं उठाने से मन में तरहतरह के खयाल आने लगे.

मैं ने अल्पना को फोन किया और नजमा के फोन नहीं उठाने के बारे में डरतेडरते पूछा.

“दीदी, जन्नत को बेटी हुई है, लेकिन जन्नत अब इस दुनिया में नहीं रही.”

अल्पना ने जो कहा, उसे सुन कर मैं सन्न रह गई. मेरे सामने उस फूल सी बच्ची का चेहरा घूमने लगा. कम उम्र में मां बनने की उसे भारी कीमत चुकानी पड़ गई. नजमा के ऊपर एक और जिम्मेदारी आ गई. फिर एक और जन्नत और न जाने कितनी ही… ऐसी लड़कियां परिस्थितियों और समाज के खोखले मापदंडों की बलि चढ़ेंगी.

साथी साथ निभाना : भाग 3

संजीव को उन के कहे पर विश्वास नहीं हुआ. उस ने रूखे लहजे में उन से इतना ही कहा, ‘‘जरा सी समस्या का सामना करने पर जिस लड़की के हाथपैर फूल जाएं और जो मुकाबला करने के बजाय भाग खड़ा होना बेहतर समझे, मेरे खयाल से उस की शादी ही उस के मातापिता को नहीं करनी चाहिए.’’

राजेंद्रजी कुछ तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करना जरूर चाहते थे, पर उन्हें शब्द नहीं मिले. वे कुछ और कह पाते, उस से पहले ही संजीव ने फोन काट दिया.

उस दिन के बाद से संजीव और नेहा के संबंधों में दरार पड़ गई. फोन पर भी दोनों अजनबियों की तरह ही बातें करते.

संजीव ने फिर कई दिनों तक जब नेहा से लौट आने का जिक्र ही नहीं छेड़ा, तो वह और उस के मातापिता बेचैन हो गए. हार कर नेहा ने ही इस विषय पर एक रात फोन पर चर्चा छेड़ी.

‘‘नेहा, अभी भैयाभाभी की समस्या हल नहीं हुई है. तुम्हारे लौटने के अनुरूप माहौल अभी यहां तैयार नहीं है,’’ ऐसा रूखा सा जवाब दे कर संजीव ने फोन काट दिया.

विवाहित बेटी का घर में बैठना किसी भी मातापिता के लिए चिंता का विषय बन ही जाता है. बीतते वक्त के साथ नीरजा और राजेंद्रजी की परेशानियां बढ़ने लगीं. उन्हें इस बात की जानकारी देने वाला भी कोई नहीं था कि वास्तव में नेहा की ससुराल में माहौल किस तरह का चल रहा है.

समय के साथ परिस्थितियां बदलती ही हैं. सपना और राजीव की समस्या का भी अंत हो ही गया. इस में संजीव ने सब से ज्यादा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई.

अपने एक दोस्त और उस की पत्नी के साथ जा कर वह सविता से मिला, फिर उस के पति से टैलीफोन पर बात कर के उसे भी सविता के प्रति भड़का दिया.

संजीव की धमकियों व पति के आक्रोश से डर कर सविता ने नौकरी ही छोड़ दी. प्रेम का भूत उस के सिर से ऐसा उतरा कि उसे राजीव की शक्ल देखना भी गवारा न रहा.

कुछ दिनों तक राजीव घर में मुंह फुलाए रहा, पर बाद में उस के स्वभाव में परिवर्तन आ ही गया. अपनी पत्नी के साथ रह कर ही उसे सुखशांति मिलेगी, यह बात उसे समझ में अंतत: आ ही गई.

सपना ने अपने देवर को दिल से धन्यवाद कहा. नेहा से चल रही अनबन की उसे जानकारी थी. उन दोनों को वापस जोड़ने की जिम्मेदारी उस ने अपने कंधों पर ले ली.

सपना के जोर देने पर राजीव शादी की सालगिरह मनाने के लिए राजी हो गया.

सपना अपने पति के साथ जा कर नेहा व उस के मातापिता को भी पार्टी में आने का निमंत्रण दे आई.

‘‘उस दिन काम बहुत होगा. मुझे तैयार करने की जिम्मेदारी भी तुम्हारी होगी, नेहा. तुम जितनी जल्दी घर आ जाओगी, उतना ही अच्छा रहेगा,’’ भावुक लहजे में अपनी बात कह कर सपना ने नेहा को गले लगा लिया.

नेहा ने अपनी जेठानी को आश्वासन दिया कि वह जल्दी ही ससुराल पहुंच जाएगी. उसी शाम उस ने फोन कर के संजीव को वापस लौटने की अपनी इच्छा जताई.

‘‘मैं नहीं आऊंगा तुम्हें लेने. जो तुम्हें ले कर गए थे, उन्हीं के साथ वापस आ जाओ,’’ संजीव का यह रूखा सा जवाब सुन कर नेहा के आंसू बहने लगे.

राजेंद्रजी, नीरजा व नेहा के साथ पार्टी के दिन संजीव के यहां पहुंचे. उन के बुरे व्यवहार के कारण संजीव व उस के मातापिता ने उन का स्वागत बड़े रूखे से अंदाज में किया.

ससुराल के जानेपहचाने घर में नेहा ने खुद को दूर के मेहमान जैसा अनुभव किया. मुख्य मेजबानों में से एक होने के बजाय उस ने अपनेआप को सब से कटाकटा सा महसूस किया.

सपना ने नेहा को गले लगा कर जब कुछ समय जल्दी न आने की शिकायत की, तो नेहा की आंखों में आंसू भर आए.

‘‘मुझे माफ कर दो, भाभी,’’ सपना के गले लग कर नेहा ने रुंधे स्वर में कहा, ‘‘मेरी मजबूरी को आप के अलावा कोई दूसरा शायद नहीं समझे. मातापिता की शह पर अपने पति के परिवार से मुसीबत के समय दूर भाग जाना मेरी बड़ी भूल थी. मुझ कायर के लिए आज किसी की नजरों में इज्जत और प्यार नहीं है. अपने मातापिता पर मुझे गुस्सा है और अपने डरपोक व बचकाने व्यवहार के लिए बड़ी शर्मिंदगी महसूस हो रही है.’’

‘‘तुम रोना बंद करो, नेहा,’’ सपना ने प्यार से उस की पीठ थपथपाई, ‘‘देखो, पहले के संयुक्त परिवार में पली लड़कियों का जीवन की विभिन्न समस्याओं से अकसर परिचय हो जाता था. आजकल के मातापिता वैसी कठिन समस्याओं से अपने बच्चों को बचा कर रखते हैं. तुम अपनी अनुभवहीनता व डर के लिए न अपने मातापिता को दोष दो, न खुद को. मैं तुम्हें सब का प्यार व इज्जत दिलाऊंगी, यह मेरा वादा है. अब मुसकरा दो, प्लीज.’’

सपना के अपनेपन को महसूस कर रोती हुई नेहा राहत भरे भाव से मुसकरा उठी. तब सपना ने इशारा कर संजीव को अपने पास बुलाया.

उस ने नेहा का हाथ संजीव को पकड़ा कर भावुक लहजे में कहा, ‘‘देवरजी, मेरी देवरानी नेहा अपने मातापिता से मिले सुरक्षाकवच को तोड़ कर आज सच्चे अर्थों में अपने पति के घरपरिवार से जुड़ने को तैयार है. आज के दिन अपनी भाभी को उपहार के रूप में यह पक्का वादा नहीं दे सकते कि तुम दोनों आजीवन हर हाल में एकदूसरे का साथ निभाओगे?’’

नेहा की आंखों से बह रहे आंसुओं को देख संजीव का सारा गुस्सा छूमंतर हो गया.

‘‘मैं पक्का वादा करता हूं, भाभी,’’ उस ने झुक कर जब नेहा का हाथ चूमा तो वह पहले नई दुलहन की तरह शरमाई और फिर उस का चेहरा गुलाब के फूल सा खिल उठा.

रिश्तों का दर्द- भाग 3 : नीलू के मन में मां को लेकर क्या चल रहा था?

अब वह लंदन नहीं आएगी. अपनी ओर से रोमी पूरी कोशिश करती परिवार में घुलनेमिलने की. कुंवर प्रताप के बेटे को भी परी बहुत भाती. दोनों बच्चों के अबोध प्यार को देख रोमी को सुकून था. यह रिश्ता यों ही बना रहे, आखिर यही तो चाहती है वह. नीलू भी उस का बहुत मान करती. हर बात में जीजी ऐसा, जीजी वैसा. सवा महीना होते ही रोमी के मायके से दहलीज छुड़ाने की रस्म पूरी कराने उस के पिताजी आ पहुंचे. रोमी 8 दिन मायके में रह कर फिर ससुराल लौट आई. विदेश में रह कर भी वह नहीं भूली थी कि अब ससुराल ही उस का घर है, उस की निष्ठा अब उस घर के प्रति है.

आखिर यही संस्कार तो पाए थे उस ने कि ससुराल ही लड़की का अपना घर होता है. देहरी छुड़ा कर लौटी रोमी ने महसूस किया कि घर के माहौल में कुछ परिवर्तन हुआ है. जाने क्यों अब उसे आसपास की हवा उतनी साफ नजर नहीं आ रही थी. कहीं कुछ घुटाघुटा सा लगता था. हवाओं में उल?ो जाल नजर आते, कभी लगता वह जाल उसे ही उल?ाने के लिए तैयार किया गया है तो वहीं दीवारों में कहीं कुछ दरार सी लगती, लगता कहीं कुछ है जो उस के खिलाफ पक रहा है. ठाकुर साहब अब अकसर उस के सामने आने से कतराते. उन की बातों में अब वह अपनेपन का एहसास न होता. और कुंवर प्रताप… उस से तो उस की बातें वैसे भी कम ही हो पाती थीं. एक तो शादी के 15 दिन बाद ही लंदन के लिए रवाना हो गई थी.

दूसरे, रणवीर के मुंह से सुन चुकी थी कि कुंवर प्रताप पर ठाकुरों वाला पूरा असर है. खैर, वक्त से वफादारी की उम्मीद तो वैसे भी नहीं थी. फिर भी मन को सम?ा रही थी कि वक्त के साथ सब ठीक हो जाएगा. एक शाम अचानक ठाकुर साहब बोले, ‘‘बेटा नीलू, मु?ो तेरे मायके में कुछ काम है, कल तक लौट आऊंगा. चाह रहा था तू भी चल देती अपने मांबापू से मिल लेती.’’ नीलू, आखिर भोली, ठाकुरों की चाल भला क्या सम?ाती. मांबाप के स्नेह की डोर वैसे भी बड़ी रेशमी होती है. नीलू मायके का लोभ संवरण न कर सकी. ?ाट रोमी से बोली, ‘‘जीजी, सालभर हो गया मांपापा से मिले, आप कहें तो मैं हो आऊं?’’ ‘‘हांहां, क्यों नहीं. एक दिन की ही तो बात है, मैं मैनेज कर लूंगी.’’

हमारे पुरुषप्रधान समाज ने यों ही नारी को छली कह बदनाम कर रखा है, जबकि एक पहलू यह भी है पुरुषों की कुटिलता की थाह के लिए पानी भी उतना ही दुर्लभ है. रात रसोई के काम से निबट कर रोमी सासुमां के कमरे में परी के साथ लेटी थी कि कुंवर प्रताप के कराहने की आवाज सुनाई दी, ‘‘ओह, मर गया… मां लगता है अब नहीं बचूंगा…मेरा सिर जोरों से दर्द कर रहा है, कुछ मिल जाता लगाने को.’’ रोमी ?ाट उठ कर बाम की शीशी ले आई. ‘‘लाइए मैं लगा दूं.’’ और रोमी कुंवर प्रताप के सिर पर बाम लगा रही थी. वह कभी उस के हाथ को पकड़ कर कहता, ‘जरा जोर से… हां, हां… यहां… और जोर से. अपनत्व में पगी रोमी बेचारी कुंवर प्रताप के मन में बसे भावों को सम?ा नहीं पाई. वह तो जब कुंवर प्रताप का हाथ उस के हाथों को पार करता उस के कंधे और फिर नीचे को आने लगा तो उसे कुछ संदेह हुआ. रोमी संभलती, तब तक कुंवर प्रताप उसे अपनी गिरफ्त में ले चुका था.

रोमी बहुत चीखीचिल्लाई, कितनी गुहार लगाई, ‘मांजी बचाइए, छोड़ दो प्रताप भैया, मैं तुम्हारे भाई की अमानत हूं.’ रिश्तों की दुहाई दी, मगर उस की सारी कोशिश नाकामयाब रही. कुंवर प्रताप पर हवस का नशा चढ़ चुका था. रोमी की चीखपुकार रात के अंधेरे में कोठी की दीवारों से ही थपेड़े खा कर गुम होती जा रही थी. मांजी सुन रही थी मगर बेबस थी. आखिर ठाकुर की ऐयाशी के छींटों ने उस के दामन को दागदार कर ही दिया. रोमी ने बहुत बचने की कोशिश की. मगर कहां वह हट्टाकट्टा ठाकुर, कहां वह नाजुक सी रोमी. मुकाबला करती भी तो कैसे, कब तक? रोमी जैसेतैसे खुद को समेटे सासुमां के सीने पर जा गिरी. ‘‘मांजी, देखिए न क्या हुआ मेरे साथ. मैं यह सब सोच कर तो नहीं आई थी यहां. बताइए न मांजी, मैं कहां गलत थी? मां बोलिए न.’’ ठकुराइन आंखों से अपनी वेदना जताने के और कर भी क्या सकती थी. मन ही मन सोच रही थी कि आज तो वह बेबस है मगर तब…? जब वह बोल और चलफिर सकती थी… उस की आंखों के सामने ठाकुर ने जाने कितनी अबलाओं को अपने बिस्तर की सलवटों में रौंदा.

क्या कर पाई थी वह, कुछ भी तो नहीं. हम ठकुराइनों की हुकूमत तो बस अपने नौकरोंचाकरों तक ही रहती है. पति के आगे तो हमारा अपना कुछ भी निजत्व नहीं. आज शायद उसी खामोशी की सजा पा रही है वह. चाह कर भी अपनी बहू की अस्मत न बचा सकी. उस की पीड़ा देखिए कि वह प्यार से उस के सिर पर हाथ भी न रख सकी. रोमी कहे जा रही थी, ‘‘मां, मैं तो जमाने की बुरी नजरों से बचने के लिए आप की शरण में आई थी. मुझे क्या पता था यहां उलटे मु?ो… यह सब… क्या हो गया मां?’’ ठकुराइन जो खुद ही एक जिंदा लाश की तरह मात्र थी, भला क्या मदद कर सकती थी उस की. रोमी रातभर रोती रही. उसे रणवीर बहुत याद आ रहा था. कहां वह नारी के प्रति सुल?ा दृष्टि रखने वाला, कहां कुंवर प्रताप… आश्चर्य, यह उसी का भाई है? सच कहा था रणवीर ने कि कुंवर प्रताप में ठाकुरों वाली बुद्धि है. मगर मु?ो ही शिकार होना था… रोमी बेसब्री से सुबह होने का इंतजार कर रही थी कि ठाकुर साहब के आते ही उन से फरियाद करेगी. वे ही दुरुस्त करेंगे इस की अक्ल. अपने स्वर्गीय बेटे की धरोहर के साथ ऐसा अनाचार. वे जरूर सजा देंगे उसे. ठाकुर के आते ही रोमी ने रोरो कर सारी व्यथा बयान कर दी.

ठाकुर ने सुनते ही कुंवर प्रताप पर दहाड़ना शुरू कर दिया. क्याक्या न कहा, सिर्फ हाथ उठाना भर रह गया था. रोमी तो डर गई थी कहीं बात खतरनाक मोड़ न अख्तियार कर ले. वे रोमी को देख बोले जा रहे थे, ‘‘बेटी, क्या करूं इस नामुराद का. अब तू ही कह, इस बुढ़ापे में एक यही तो आसरा है हमारा, घर से निकाल भी नहीं सकता उसे.’’ नारी मन भावुक होता है. फिर, बाप जैसे रिश्ते पर तो संशय का प्रश्न ही नहीं उठता. आखिर उस से पावन रिश्ता और कौन सा है. रोमी का निच्श्छल मन सोच भी नहीं पाया कि ये सब ठाकुर साहब के घडि़याली आंसू हैं. उसे कहीं से कुछ अप्रत्याशित न लगा. बल्कि वह तो डर गई कि कहीं ऐसा न हो ठाकुर साहब गुस्से में कोई कठोर कदम उठा बैठें और लोग कहें ऐसी बहू आई कि एक बेटे को खा गई चैन न आया तो दूसरे बेटे को भी छीन लिया. वह बेचारी तो उलटे खुद को नीलू का गुनहगार सम?ा रही थी. नीलू के मन में अपने लिए कोई मैल पैदा न हो, सो उस से भी अपनी सफाई पेश की. तब नीलू ने आंखों में आंसू भर इतना ही कहा, ‘‘मैं जानती हूं जीजी, आप निर्दोष हैं.’’

रोमी अवाक नीलू को देखती रही. इस घटना को तकदीर का लेखा मान भीतर ही भीतर घुल रही थी रोमी. एक ही छत के नीचे अपनी अस्मत के लुटेरे के साथ रहना कितना त्रासद था उस के लिए. वह निर्णय नहीं ले पा रही थी कि क्या करे. यहां रहना उचित होगा या नहीं. असमंजस में थी. मन तो किया था उसी पल यह घर छोड़ दें मगर रणवीर के मातापिता क्या सोचेंगे. बेटा तो गया बहू भी उन्हें छोड़ गई… जो हुआ उस में भला उन का क्या दोष? अनचाही दिशा में ही सही, वक्त का दरिया अपनी गति से बह रहा था. सप्ताह भी न बीता था कि एक दिन रात में सासुमां की तबीयत ज्यादा खराब होने पर रोमी ने सोचा ठाकुर साहब को बुला लाऊं. जैसे ही वह उन के कमरे के करीब पहुंची, उसे कुछ खुसुरफुसुर की आवाजें सुनाई दीं. उस ने घड़ी देखी, रात के सवा दो बज रहे हैं.

हरिनूर: शबीना अपने घर नीरज को लेकर क्यों नहीं गई ?

‘‘अरे, इस बैड नंबर8 का मरीज कहां गया? मैं तो इस लड़के से तंग आ गई हूं. जब भी मैं ड्यूटी पर आती हूं, कभी बैड पर नहीं मिलता,’’ नर्स जूली काफी गुस्से में बोलीं.

‘आंटी, मैं अभी ढूंढ़ कर लाती हूं,’’ एक प्यारी सी आवाज ने नर्स जूली का सारा गुस्सा ठंडा कर दिया. जब उन्होंने पीछे की तरफ मुड़ कर देखा, तो बैड नंबर 10 के मरीज की बेटी शबीना खड़ी थी.

शबीना ने बाहर आ कर देखा, फिर पूरा अस्पताल छान मारा, पर उसे वह कहीं दिखाई नहीं दिया और थकहार कर वापस जा ही रही थी कि उस की नजर बगल की कैंटीन पर गई, तो देखा कि वे जनाब तो वहां आराम फरमा रहे थे और गरमागरम समोसे खा रहे थे.

शबीना उस के पास गई और धीरे से बोली, ‘‘आप को नर्स बुला रही हैं.’’

उस ने पीछे घूम कर देखा. सफेद कुरतासलवार, नीला दुपट्टा लिए सांवली, मगर तीखे नैननक्श वाली लड़की खड़ी हुई थी. उस ने अपने बालों की लंबी चोटी बनाई हुई थी. माथे पर बिंदी, आंखों में भरापूरा काजल, हाथों में रंगबिरंगी चूडि़यों की खनखन.

वह बड़े ही शायराना अंदाज में बोला, ‘‘अरे छोडि़ए ये नर्सवर्स की बातें. आप को देख कर तो मेरे जेहन में बस यही खयाल आया है… माशाअल्लाह…’’

‘‘आप भी न…’’ कहते हुए शबीना वहां से शरमा कर भाग आई और सीधे बाथरूम में जा कर आईने के सामने दोनों हाथों से अपना चेहरा ढक लिया. फिर हाथों को मलते हुए अपने चेहरे को साफ किया और बालों को करीने से संवारते हुए बाहर आ गई.

तब तक वह मरीज, जिस का नाम नीरज था, भी वापस आ चुका था. शबीना घबरा कर दूसरी तरफ मुंह कर के बैठ गई.

नीरज ने देखा कि शबीना किसी भी तरह की बात करने को तैयार नहीं है, तो उस ने सोचा कि क्यों न पहले उस की मम्मी से बात की जाए.

शबीना की मां को टायफायड हुआ था, जिस से उन्हें अस्पताल में भरती होना पड़ा था. नीरज को बुखार था, पर काफी दिनों से न उतरने के चलते उस की मां ने उसे दाखिल करा दिया था.

नीरज की शबीना की अम्मी से काफी पटती थी. परसों ही दोनों को अस्पताल से छुट्टी मिलनी थी, पर तब तक नीरज और शबीना अच्छे दोस्त बन चुके थे.

शबीना 10वीं जमात की छात्रा थी और नीरज 11वीं जमात में पढ़ता था. दोनों के स्कूल भी आमनेसामने थे. वैसे भी फतेहपुर एक छोटी सी जगह है, जहां कोई भी आसानी से एकदूसरे के बारे में पता लगा सकता है. सो, नीरज ने शबीना का पता लगा ही लिया.

एक दिन स्कूल से बाहर आते समय दोनों की मुलाकात हो गई. दोनों ही एकदूसरे को देख कर खुश हुए. उन की दोस्ती और गहरी होती गई.

इसी बीच शबीना कभीकभार नीरज के घर भी जाने लगी, पर वह नीरज को अपने घर कभी नहीं ले गई.

ऐसे ही 2 साल कब बीत गए, पता ही नहीं चला. अब यह दोस्ती इश्क में बदल कर रफ्तारफ्ता परवान चढ़ने लगी.

एक दिन जब शबीना कालेज से घर में दाखिल हुई, तो उसे देखते ही अम्मी चिल्लाते हुए बोलीं, ‘‘तुम्हें बताया था न कि तुम्हें देखने के लिए कुछ लोग आ रहे हैं, पर तुम ने वही किया जो 2 साल से कर रही हो. तुम्हारी जोया आपा ठीक ही कह रही थीं कि तुम एक लड़के के साथ मुंह उठाए घूमती रहती हो.’’

‘‘अम्मी, आप मेरी बात तो सुनो… वह लड़का बहुत अच्छा है. मुझ से बहुत प्यार करता है. एक बार मिल कर तो देखो. वैसे, तुम उस से मिल भी चुकी हो,’’ शबीना एक ही सांस में सबकुछ कह गई.

‘‘वैसे अम्मी, अब्बू कौन होते हैं हमारी निजी जिंदगी का फैसला करने वाले? कभी दुखतकलीफ में तुम्हारी खैर पूछने आए, जो आज इस पर उंगली उठाएंगे? हम मरें या जीएं, उन्हें कोई फर्क पड़ता है क्या?

‘‘शायद आप भूल गई हो, पर मेरे जेहन में वह सबकुछ आज भी है, जब अब्बू नई अम्मी ले कर आए थे. तब नई अम्मी ने अब्बू के सामने ही कैसे हमें जलील किया था.

‘‘इतना ही नहीं, हम सभी को घर से बेदखल भी कर दिया था.’’

तभी जोया आपा घर में आईं.

‘‘अरे जोया, तुम ही इस को समझाओ. मैं तुम दोनों के लिए जल्दी से चाय बना कर लाती हूं,’’ ऐसा कहते हुए अम्मी रसोईघर में चली गईं.

रसोईघर क्या था… एक बड़े से कमरे को बीच से टाट का परदा लगा कर एक तरफ बना लिया गया था, तो दूसरी तरफ एक पुराना सा डबल बैड, टूटी अलमारी और अम्मी की शादी का एक पुराना बक्सा रखा था, जिस में अम्मी के कपड़े कम, यादें ज्यादा बंद थीं. मगर सबकुछ रखा बड़े करीने से था.

तभी अम्मी चाय और बिसकुट ले कर आईं और सब चाय का मजालेने लगे.

शबीना यादों की गहराइयों में खो गई… वह मुश्किल से 6-7 साल की थी, जब अब्बू नई अम्मी ले कर आए थे. वह अपनी बड़ी सी हवेली के बगीचे में खेल रही थी. तभी नई अम्मी घर में दाखिल हुईं. उसे समझ नहीं आ रहा था कि यह सब क्या हो रहा है. उस की अम्मी हर वक्त रोती क्यों रहती हैं?

जब नई अम्मी को बेटा हुआ, तो जोया आपा और अम्मी को बेदखल कर उसी हवेली में नौकरों के रहने वाली जगह पर एक कोना दे दिया गया.

अम्मी दिनभर सिलाईकढ़ाई करतीं और जोया आपा भी दूसरों के घर का काम करतीं तो भी दो वक्त की रोटी मुहैया नहीं हो पाती थी.

अम्मी 30 साल की उम्र में 50 साल की दिखने लगी थीं. ऐसा नहीं था कि अम्मी खूबसूरत नहीं थीं. वे हमेशा अब्बू की दीवानगी के किस्से बयां करती रहती थीं.

सभी ने अम्मी को दूसरा निकाह करने को कहा, पर अम्मी तैयार नहीं हुईं. पर इधर कुछ दिनों से वे काफी परेशान थीं. शायद जोया आपा के सीने पर बढ़ता मांस परेशानी का सबब था. मेरे लिए वह अचरज, पर अम्मी के लिए जिम्मेदारी.

‘‘शबीना… ओ शबीना…’’ जोया आपा की आवाज ने शबीना को यादों से वर्तमान की ओर खींच दिया.

‘‘ठीक है, उस लड़के को ले कर आना, फिर देखते हैं कि क्या करना है.’’

लड़के का फोटो देख शबीना खुशी से उछल गई और चीख पड़ी. भविष्य के सपने संजोते हुए वह सोने चली गई.

अकसर उन दोनों की मुलाकात शहर के बाहर एक गार्डन में होती थी. आज जब वह नीरज से मिली, तो उस ने कल की सारी घटना का जिक्र किया, ‘‘जनाब, आप मेरे घर चल रहे हैं. अम्मी आप से मुलाकात करना चाह रही हैं.’’

‘‘सच…’’ कहते हुए नीरज ने शबीना को अपनी बांहों में भर लिया. शबीना शरमा कर बड़े प्यार से नीरज को देखने लगी, फिर नीरज की गाड़ी से ही घर पहुंची.

नीरज तो हैरान रह गया कि इतनी बड़ी हवेली, सफेद संगमरमर सी नक्काशीदार दीवारें और एक मुगलिया संस्कृति बयां करता हरी घास का

लान, जरूर यह बड़ी हैसियत वालों की हवेली है.

नीरज काफी सकुचाते हुए अंदर गया, तभी शबीना बोली, ‘‘नीरज, उधर नहीं, यह अब्बू की हवेली है. मेरा घर उधर कोने में है.’’

हैरानी से शबीना को देखते हुए नीरज उस के पीछेपीछे चल दिया. सामने पुराने से सर्वैंट क्वार्टर में शबीना दरवाजे पर टंगी पुरानी सी चटाई हटा कर अंदर नीरज के साथ दाखिल हुई.

नीरज ने देखा कि वहां 2 औरतें बैठी थीं. उन का परिचय शबीना ने अम्मी और जोया आपा कह कर कराया.

अम्मी ने नीरज को देखा. वह उन्हें बड़ा भला लड़का लगा और बड़े प्यार से उसे बैठने के लिए कहा.

अम्मी ने कहा, ‘‘मैं तुम दोनों के लिए चाय बना कर लाती हूं. तब तक अब्बू और भाईजान भी आते होंगे.’’

‘‘अब्बू, अरे… आप ने उन्हें क्यों बुलाया? मैं ने आप से पहले ही मना किया था,’’ गुस्से से चिल्लाते हुए शबीना अम्मी पर बरस पड़ी.

अम्मी भी गुस्से में बोलीं, ‘‘चुपचाप बैठो… अब्बू का फैसला ही आखिरी फैसला होगा.’’

शबीना कातर निगाहों से नीरज को देखने लगी. नीरज की आंखों में उठे हर सवाल का जवाब वह अपनी आंखों से देने की कोशिश करती.

थोड़ी देर तक वहां सन्नाटा पसरा रहा, तभी सामने की चटाई हिली और भरीभरकम शरीर का आदमी दाखिल हुआ. वे सफेद अचकन और चूड़ीदार पाजामा पहने हुए थे. साथ ही, उन के साथ 17-18 साल का एक लड़का भी अंदर आया.

आते ही उस आदमी ने नीरज का कौलर पकड़ कर उठाया और दोनों लोग नीरज को काफी बुराभला कहने लगे.

नीरज एकदम अचकचा गया. उस ने संभलने की कोशिश की, तभी उस में से एक आदमी ने पीछे से वार कर दिया और वह फिर वहीं गिर गया.

शबीना कुछ समझ पाती, इस से पहले ही उस के अब्बू चिल्ला कर बोले, ‘‘खबरदार, जो इस लड़के से मिली. तुझे शर्म नहीं आती… वह एक हिंदू लड़का है और तू मुसलमान…’’ नीरज की तरफ मुखातिब हो कर बोले, ‘‘आज के बाद शबीना की तरफ आंख उठा कर मत देखना, वरना तुम्हारा और तुम्हारे परिवार का वह हाल करेंगे कि प्यार का सारा भूत उतर जाएगा.’’

नीरज ने समय की नजाकत को समझते हुए चुपचाप चले जाना ही उचित समझा.

अब्बू ने शबीना का हाथ झटकते हुए अम्मी की तरफ धक्का दिया और गरजते हुए बोले, ‘‘नफीसा, शबीना का ध्यान रखो और देखो अब यह लड़का कभी शबीना से न मिले. इस किस्से को यहीं खत्म करो,’’ और यह कहते हुए वे उलटे पैर वापस चले गए.

अब्बू के जाते ही जो शबीना अभी तक तकरीबन बेहोश सी पड़ी थी, तेजी से खड़ी हो गई और अम्मी से बोली, ‘‘अम्मी, यह सब क्या है? आप ने इन लोगों को क्यों बुलाया? अरे, मुझे तो समझ में नहीं आ रहा है कि ये इतने सालों में कभी तो हमारा हाल पूछने नहीं आए. हम मर रहे हैं या जी रहे हैं, पेटभर खाना खाया है कि नहीं, कैसे हम जिंदगी गुजार रहे हैं. दोदो पैसे कमाने के लिए हम ने क्याक्या काम नहीं किया.

‘‘बोलो न अम्मी, तब ये कहां थे? जब हमारी जिंदगी में चंद खुशियां आईं, तो आ गए बाप का हक जताने. मेरा बस चले, तो आज मैं उन का सिर फोड़ देती.’’

‘‘शबीना…’’ कहते हुए अम्मी ने एक जोरदार चांटा शबीना को रसीद कर दिया और बोलीं, ‘‘बहुत हुआ… अपनी हद भूल रही है तू. भूल गई कि उन से मेरा निकाह ही नहीं हुआ है, दिल का रिश्ता है. मैं उन के बारे में एक भी गलत लफ्ज सुनना पसंद नहीं करूंगी. कल से तुम्हारा और नीरज का रास्ता अलगअलग है.’’

शबीना सारी रात रोती रही. उस की आंखें सूज कर लाल हो गईं. सुबह जब अम्मी ने शबीना को इस हाल में देखा, तो उन्हें बहुत दुख हुआ. वे उस के बिखरे बालों को समेटने लगीं. मगर शबीना ने उन का हाथ झटक दिया.

बहरहाल, इसी तरह दिनहफ्ते, महीने बीतने लगे. शबीना और नीरज की कोई बातचीत तक नहीं हुई. न ही नीरज ने मिलने की कोशिश की और न ही शबीना ने.

इसी तरह एक साल बीत गया. अब तक अम्मी ने मान लिया था कि शबीना अब नीरज को भूल चुकी है.

उसी दौरान शबीना ने अपनी फैशन डिजाइन के काम में काफी तरक्की कर ली थी और घर में अब तक सब नौर्मल हो गया था. सब ने सोचा कि अब तूफान शांत हो चुका है.

वह दिन शबीना की जिंदगी का बहुत खास दिन था. आज उस के कपड़ों की प्रदर्शनी थी. वह तेजतेज कदमों से लिफ्ट की तरफ बढ़ रही थी, तभी लिफ्ट का दरवाजा खुला, तो सामने खड़े शख्स को देख कर उस के पैर ठिठक गए.

‘‘कैसी हो शबीना?’’ उस ने बोला, तो शबीना की आंखों से आंसू आ गए. बिना कुछ बोले भाग कर वह उस के गले लग गई.

‘‘तुम कैसे हो नीरज? उस दिन तुम्हारी इतनी बेइज्जती हुई कि मेरी हिम्मत ही नहीं हुई कि तुम से कैसे बात करूं, पर सच में मैं तुम्हें कभी भी नहीं भूली…’’

नीरज ने उस के मुंह पर हाथ रख दिया, ‘‘वह सब छोड़ो, यह बताओ कि तुम यहां कैसे?

‘‘आज मेरे सिले कपड़ों की प्रदर्शनी लगी है, पर तुम…’’

‘‘मैं यहां का मैनेजर हूं.’’

शबीना ने मुसकराते हुए प्यारभरी निगाहों से नीरज को देखा. नीरज को लगा कि उस ने सारे जहां की खुशियां पा ली हैं.

‘‘अच्छा सुनो, मैं यहां का सारा काम खत्म कर के रात में 8 बजे तुम से यहीं मिलूंगी.’’

आज शबीना का मन अपने काम में नहीं लग रहा था. उसे लग रहा था कि जल्दी से नीरज के पास पहुंच जाए.

शबीना को देखते ही नीरज बोला, ‘‘कुछ इस कदर हो गई मुहब्बत तनहाई से अपनी कि कभीकभी इन सांसों के शोर को भी थामने की कोशिश कर बैठते हैं जनाब…’’

शबीना मुसकराते हुए बोली, ‘‘शिकवा तो बहुत है मगर शिकायत कर नहीं सकते… क्योंकि हमारे होंठों को इजाजत नहीं है तुम्हारे खिलाफ बोलने की,’’ और वे दोनों खिलखिला कर हंस पड़े.

‘‘नीरज, तुम्हें पता नहीं है कि आज मैं मुद्दतों बाद इतनी खुल कर हंसी हूं.’’

‘‘शायद मैं भी…’’ नीरज ने कहा. रात को दोनों ने एकसाथ डिनर किया और दोनों चाहते थे कि इतने दिनों की जुदाई की बातें एक ही घंटे में खत्म कर दें, जो कि मुमकिन नहीं था. फिर वे दोनों दिनभर के काम के बाद उसी पुराने गार्डन या कैफे में मिलने लगे.

लोग अकसर उन्हें साथ देखते थे. शबीना के घर वालों को भी पता चल गया था, पर उन्हें लगता था कि वे शादी नहीं करेंगे. वे इस बारे में शबीना को समयसमय पर हिदायत भी देते रहते थे.

इसी तरह साल दर साल बीतने लगे. एक दिन रात के अंधेरे में उन दोनों ने अपना शहर छोड़ एक बड़े से महानगर में अपनी दुनिया बसा ली, जहां उस भीड़ में उन्हें कोई पहचानता तक नहीं था. वहीं पर दोनों एक एनजीओ में नौकरी करने लगे.

उन दोनों का घर छोड़ कर अचानक जाना किसी को अचरज भरा नहीं लगा, क्योंकि सालों से लोगों को उन्हें एकसाथ देखने की आदत सी पड़ गई थी. पर अम्मी को शबीना का इस तरह जाना बहुत खला. वे काफी बीमार रहने लगीं. जोया आपा का भी निकाह हो गया था.

इधर शबीना अपनी दुनिया में बहुत खुश थी. समय पंख लगा कर उड़ने लगा था. एक दिन पता चला कि उस की अम्मी को कैंसर हो गया और सब लोगों ने यह कह कर इलाज टाल दिया था कि इस उम्र में इतना पैसा इलाज में क्यों बरबाद करें.

शबीना को जब इस बात का पता चला, तो उस ने नीरज से बात की.

नीरज ने कहा, ‘‘तुम अम्मी को अपने पास ही बुला लो. हम मिल कर उन का इलाज कराएंगे.’’

शबीना अम्मी को इलाज कराने अपने घर ले आई. अम्मी जब उन के घर आईं, तो उन का प्यारा सा संसार देख कर बहुत खुश हुईं.

नीरज ने बड़ी मेहनत कर पैसा जुटाया और उन का इलाज कराया और वे धीरेधीरे ठीक होने लगीं. अब तो उन की बीमारी भी धीरेधीरे खत्म हो गई. मगर अम्मी को बड़ी शर्मिंदगी महसूस होती. नीरज उन की परेशानी को समझ गया.

एक दिन शाम को अम्मी शबीना के साथ बैठी थीं, तभी नीरज भी पास आ कर बैठ गया और बोला, ‘‘अम्मी, जिंदगी में ज्यादा रिश्ते होना जरूरी नहीं है, पर रिश्तों में ज्यादा जिंदगी होना जरूरी है. अम्मी, जब बनाने वाले ने कोई फर्क नहीं रखा, तो हम कौन होते हैं फर्क रखने वाले.

‘‘अम्मी, मेरी तो मां भी नहीं हैं, मगर आप से मिल कर वह कमी भी पूरी हो गई.’’

अम्मी ने प्यार से नीरज को गले लगा लिया, तभी नीरज बोला, ‘‘आज एक और खुशखबरी है, आप जल्दी ही नानी बनने वाली हैं.’’

अब अम्मी बहुत खुश थीं. वे अकसर शबीना के घर आती रहतीं. समय के साथ ही शबीना ने प्यारे से बेटे को जन्म दिया, जिस का नाम शबीना ने हरिनूर रखा. शबीना ने यह नाम दे कर उसे हिंदूमुसलमान के झंझावातों से बरी कर दिया था.

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