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Raksha Bandhan : मुंहबोली बहनें- भाग 3

मैं ने भाभी को आश्वस्त करते हुए कहा कि आप चिंता न करें मैं भैया से बात करती हूं. मैं जब रोहन भैया से इस बारे में बात करने गई तो बात शुरू करने से पहले ही उन्होंने मेरा मुंह यह कह कर बंद कर दिया, ‘‘सोनाली, अगर तुम मुझे कुछ समझाने आई हो तो बेहतर होगा कि वापस चली जाओ.’’ रोहन भैया के रूखे व्यवहार के आगे तो मेरी बात शुरू करने की हिम्मत ही नहीं हुई. बातबात पर उन से झगड़ने और बहस कर बैठने वाली मुझ सोनाली की बोलती ही बंद हो गई. पर बात चूंकि उन के वैवाहिक रिश्ते को बचाने की थी इसलिए हिम्मत कर के मैं उन के पास बैठ गई.

‘‘रोहन भैया, बात इतनी बड़ी नहीं है कि आप ने अपना और भाभी का रिश्ता दावं पर लगा दिया है. भाभी कह रही हैं कि उन का मुंहबोला भाई है तो उन की बात का आप यकीन क्यों नहीं करते? आखिर कालेज में आप की भी तो कई मुंहबोली बहनें थीं फिर…’’ मैं आगे कुछ और बोलूं उस से पहले ही रोहन भैया वहां से उठ खड़े हुए, ‘‘हां, सोनाली, मेरी कई मुंहबोली बहनें थीं और मैं कइयों का मुंहबोला भाई था इसीलिए इस रिश्ते की हकीकत मुझ से ज्यादा कोई नहीं जानता. कह दो अपनी भाभी से या तो मैं या वह मुंहबोला भाई, जिसे चुनना है चुन ले.’’

मैं अवाक सी भैया का मुंह देखती रह गई. कालेज वाले भैया तो वे थे ही नहीं जिन से मैं कुछ बहस कर सकती. ‘रोहन भैया, रोहन भैया’ कहने वाली कालेज की बहनों का उन्हें देख कर आहें भरना मैं भी कहां भूल पाई थी कि किसी तरह का तर्क दे कर उन की सोच को झुठलाने की कोशिश करने की हिम्मत जुटा पाती.

मेरे पास भाभी को समझाने के अलावा और कोई रास्ता शेष नहीं बचा था. रोहन भैया का शक उन के अपने अनुभव पर आधारित था. न जाने मुंहबोले भाईबहन के रिश्तों को उन्होंने किस तरह जिया था. दुनिया को तो वे अपने ही अनुभव के आधार पर देखेंगे.

‘‘रिश्ता बचाना है तो आप के सामने रोहन भैया की शर्त मानने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है भाभी, क्योंकि उन का शक उन के अनुभव पर आधारित है और अपने ही अनुभव को भला वे कैसे नकार सकते हैं. रिश्ता बचाने के लिए त्याग आप को ही करना पड़ेगा,’’ भारी मन से भाभी से यह सब कह कर मैं चुपचाप अपने घर की ओर चल दी.

रिश्तों मे प्यार बढ़ाने के लिए अपनाएं ये 10 उपाय

रिश्तों को बेहतर बनाने के कुछ ऐसे उपाय आजमाएं जो आप के पारिवारिक और सामाजिक रिश्तों में मिठास भर कर उन्हें और भी सुखद बना दें.

पारिवारिक रिश्ते

सब से पहले बात करते हैं पारिवारिक रिश्तों की जो हमें विरासत में मिलते हैं और किसी पूंजी से कम नहीं होते. चलिए हम आप को बताते हैं वे 5 तरीके जिन से आप बना सकते हैं अपने पारिवारिक रिश्तों को मजबूत:

  • प्रपंच छोड़ें: प्रपंच बड़ा चटपटा शब्द है. लोग इसे चटखारे ले ले कर इस्तेमाल करते हैं. मसलन, बहू के भाई ने इंटरकास्ट मैरिज कर ली. बस फिर तो बहू का ससुराल के लोगों से नजरें मिलाना मुश्किल हो गया. सासूमां अपने दिए संस्कारों की मिसाल देदे कर बहू के मायके के लोगों की धज्जियां उड़ाने में मशगूल हो गईं.

क्यों, भई इसे प्रपंच का मुद्दा बनाने की क्या जरूरत है? इंटरकास्ट मैरिज कोई गुनाह तो नहीं है. हां, यह बात अलग है कि आप के समाज वाले इसे पचा नहीं सकते. लेकिन बहू तो आप के ही घर की है. उस के सुखदुख में शरीक होना आप का कर्तव्य है, जिस को आप प्रपंच में उड़ा रही हैं. आप को क्या लगता है, प्रपंच करने से आप खुद को दूसरों की नजर में महान बना लेते हैं और सामने वाले को दूसरों की नजरों से गिरा देते हैं. नहीं इस से आप की ही साख पर असर पड़ता है. आप के ही परिवार का मजाक बनता है, जिस में आप खुद भी शामिल होते हैं.

इसलिए नए वर्ष में तय करिए कि इस रोग से खुद को मुक्त करेंगे और दूसरों को भी सलाह देंगे.

  • अपना उत्तरदायित्व समझें: उत्तरदायित्व का मतलब सिर्फ मातापिता की सेवा करना ही नहीं, बल्कि अपने बच्चों के प्रति भी आप के कुछ उत्तरदायित्व होते हैं. आजकल के मातापिता आधुनिकता की चादर में लिपटे हुए हैं. बच्चों को पैदा करने और उन्हें सुखसुविधा देने को ही वे अपनी जिम्मेदारी मानते हैं. लेकिन इस से ज्यादा वे अपनी पर्सनल लाइफ को ही महत्त्व देते हैं. इस स्थिति में यही कहा जाएगा कि आप एक आदर्श मातापिता नहीं हैं. लेकिन इस नए वर्ष में आप भी आदर्श होने का तमगा पा सकते हैं यदि आप अपने उत्तरदायित्वों को पूरी शिद्दत से निभाएं.
  • झूठ का न लें सहारा: अकसर देखा गया है कि अपनी जिम्मेदारियों से बचने, अपनी साख बढ़ाने या फिर अपनी गलती छिपाने के लिए लोग झूठ का सहारा लेते हैं. संयुक्त परिवार में झूठ की दरारें ज्यादा देखने को मिलती हैं, क्योंकि एकदूसरे से खुद को बेहतर साबित करने की प्रतिस्पर्धा में लोगों से गलतियां भी होती हैं. लेकिन इन्हें नकारात्मक रूप से लेने की जगह सकारात्मक रूप से लेना चाहिए. जब आप ऐसी सोच रखेंगे तो झूठ बोलने का सवाल ही नहीं उठता. इस वर्ष सोच में सकारात्मकता ले कर आएं. इस से पारिवारिक रिश्तों के साथ आप का व्यक्तित्व भी सुधर जाएगा.
  • आर्थिक मनमुटाव से बचें: आधुनिकता के जमाने में लोगों ने रिश्तों को भी पैसों से तराजू में तोलना शुरू कर दिया है. रिश्तेदारियों में अकसर समारोह के नाम पर धन लूटने का रिवाज है. शादी जैसे समारोह को ही ले लीजिए. यहां शगुन के रूप में लिफाफे देने और लेने का रिवाज है. इन लिफाफों में पैसे रख कर रिश्तेदारों को दिए जाते हैं. जो जितने पैसे देता है उसे भी उतने ही पैसे लौटा कर व्यवहार पूरा किया जाता है. लेकिन ऐसे रिश्तों का कोई फायदा नहीं जो पैसों के आधार पर बनतेबिगड़ते हैं. इस वर्ष तय कीजिए कि रिश्तों में आर्थिक मनमुटाव की स्थिति से बचेंगे, रिश्तों को भावनाओं से मजबूत बनाएंगे.
  • अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता: अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लेख हमारे देश के संविधान में भी किया गया है, लेकिन परिवार के संविधान में यह हक कुछ लोगों को ही हासिल होता है, जो बेहद गलत है. अपनी बात कहने का हक हर किसी को देना चाहिए. कई बार हम सामने वाले की बात नहीं सुनते या उसे दबाने की कोशिश करते हैं अपने सीधेपन के कारण वह दब भी जाता है, लेकिन नुकसान किस का होता है? आप का, वह ऐसे कि यदि वह आप को सही सलाह भी दे रहा होता है, तो आप उस की नहीं सुनते और अपना ही राग अलापते रहते हैं. ऐसे में सही और गलत का अंतर आप कभी नहीं समझ सकते. इसलिए इस वर्ष से तय करें कि घर में पुरुष हो या महिला, छोटा हो या बड़ा हर किसी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी जाएगी.

सामाजिक रिश्ते

संतुलित और सुखद जिंदगी जीने के लिए पारिवारिक रिश्तों के साथसाथ सामाजिक रिश्तों को भी  मजबूत बनाना जरूरी है. आइए हम आप को बताते हैं सामाजिक रिश्तों को बेहतर बनाने के 5 तरीके:

  • ईगो का करें त्याग: ईगो बेहद छोटा लेकिन बेहद खतरनाक शब्द है. ईगो मनुष्य पर तब हावी होता है जब वह अपने आगे सामने वाले को कुछ भी नहीं समझना चाहता. उसे दुख पहुंचाना चाहता हो या फिर उस का आत्मविश्वास कम करने की इच्छा रखता हो. अकसर दफ्तरों में साथ काम करने वाले साथियों के बीच ईगो की दीवार तनी रहती है. इस चक्कर में कई बार वे ऐसे कदम उठा लेते हैं, जो उन के व्यक्तित्व पर दाग लगा देते हैं या कई बार वे सामने वाले को काफी हद तक नुकसान पहुंचाने में कामयाब हो जाते हैं.

लेकिन क्या ईगो आप को किसी भी स्तर पर ऊंचा उठा सकता है? शायद नहीं यह हमेशा आप से गलत काम ही करवाता है. आप को खराब मनुष्य की श्रेणी में लाता है, तो फिर ऐसे ईगो का क्या लाभ जो आप को फायदे से ज्यादा नुकसान पहुंचाता हो? इस वर्ष ठान लीजिए की ईगो का नामोनिशान अपने व्यक्तित्व पर से मिटा देंगे और दूसरों का बुरा करने की जगह अपने व्यक्तित्व को निखारने में समय खर्च करेंगे.

  • मददगार बनें: मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और हमेशा से समूह में रहता चला आया है. इस समूह में कई लोग उस के जानकार होते हैं तो कई अनजान भी. लेकिन मदद एक ऐसी प्रक्रिया है जो मनुष्य को मनुष्य से जोड़ती है. किसी की तकलीफ में उस का साथ देना या उस की हर संभव मदद करना एक मनुष्य होने के नाते आप का कर्तव्य है.
  • पुण्य नहीं कर्तव्य समझें: धार्मिक ग्रंथों में पुण्य कमाने का बड़ा व्याख्यान है. लोग किसी की मदद सिर्फ इस लालच में करते हैं कि उन्हें इस के बदले में पुण्य कमाने का मौका मिलेगा. लेकिन जहां उन्हें पुण्य कमाने का जरीया नजर नहीं आता वहां वे घास भी नहीं डालते. कहते हैं भूखे और प्यासे आदमी को खाना खिलाने से पुण्य की प्राप्ति होती है. इसे कमाने के लिए लाखों रुपए उड़ा कर लोग भंडारों का आयोजन करते हैं.

लेकिन दूसरी तरफ ऐसे ही लोग राह में मिलने वाले गरीब भूखे बच्चे को 2 रोटी देने की जगह दुतकार देते हैं. जबकि किसी भूखेप्यासे को खिलाना पुण्य नहीं बल्कि आप का कर्तव्य है. इस तरह धर्म के नाम पर या उस का सहारा ले कर किसी विशेष दिन का इंतजार कर के कोई कार्य करने की जगह जरूरतमंदों को देखते ही उन्हें सहारा दें और इसे अपना कर्तव्य समझें. तो इस वर्ष प्रतिज्ञा लें कि काम को पुण्य नहीं, बल्कि कर्तव्य समझ कर करेंगे.

  • खुल कर सोचें बड़ा सोचें: इस वर्ष अपनी सोच का विस्तार करें. ऐसा करने पर आप पाएंगे कि आप से ज्यादा संतुष्ट और चिंतामुक्त मनुष्य और कोई नहीं है. ऐसे कई लोग आप को अपने आसपास मिल जाएंगे जो अपना वक्त सिर्फ दूसरों के बारे में सोचने में जाया कर देते हैं. उन्हें हर वक्त यही लगता है कि उन के लिए कोई गलत कर रहा है या कह रहा है. लेकिन जरा सोचें, क्या इस भागतीदौड़ती दुनिया में किसी के पास दूसरे के लिए सोचनेसमझने का समय है? नहीं है. इसलिए आप भी अपने बारे में सोचें और किसी का नुकसान न करते हुए अपने फायदे का काम करें.
  • सम्मान करें और सम्मान पाएं: कई लोग जब किसी बड़े स्तर पर पहुंच जाते हैं तो वे हमेशा अपने से छोटे स्तर पर खड़े लोगों को हिकारत की नजर से देखने लगते हैं. अकसर दफ्तरों में ऐसा होता है कि खुद को सीनियर कहलवाने की जिद में लोग अपने से नीचे ओहदे वालों का शोषण और अपमान करना शुरू कर देते हैं. लेकिन आप ने यह कहावत तो सुनी ही होगी कि कीचड़ पर पत्थर फेंको तो खुद पर भी कीचड़ उछल कर आता है. उसी तरह अपमान करने वाले को भी अपमान ही मिलता है. इसलिए इस वर्ष तय कर लीजिए कि हर स्थिति व परिस्थिति में आप सभी से सम्मानपूर्वक ही पेश आएंगे.

मैंने अपने बौयफ्रैंड के साथ कई बार सैक्स किया है, क्या ये बात शादी के बाद मेरे पति को पता चल जाएगी?

सवाल

मैं 20 वर्षीय युवती हूं. मेरे बौयफ्रैंड ने मेरे साथ कई बार सैक्स किया है. अब मेरा विवाह होने वाला है. मैं यह जानना चाहती हूं कि क्या विवाह के बाद मेरे पति को मेरे विवाहपूर्व सैक्स संबंधों के बारे में पता चल जाएगा, मैं क्या करूं? सलाह दें.

जवाब

जिस उम्र में आप को अपना ध्यान कैरियर में लगाना चाहिए था उस उम्र में आप ने शारीरिक संबंध बना कर गलती की है. वैसे भी आप ने बौयफ्रैंड के साथ सैक्स संबंध रजामंदी से बनाए थे तो अब क्यों डर रही हैं? विवाह पूर्व सैक्स संबंधों के बारे में पति को तब तक पता नहीं चलेगा जब तक आप खुद नहीं बताएंगी. लोगों के बीच यह आम धारणा है कि जब भी कोई युवती सैक्स संबंध बनाती है तो उसे ब्लीडिंग होती है और यही उस के वर्जिन यानी कुंआरे होने का मापदंड होता है जबकि यह धारणा गलत है क्योंकि जहां कई महिलाओं में कौमार्य झिल्ली होती ही नहीं, वहीं कुछ में यह इतनी मुलायम और लचीली होती है कि बचपन में खेलतेकूदते समय ही फट जाती है. अगर आप के पति आप की वर्जिनिटी पर सवाल उठाएं तो उन्हें यही समझाएं.

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Crime Story : मौत की साजिश

19 नवंबर की सुबह 10 बजे राजू थाना लहरापुर पहुंचा और थानाप्रभारी धर्मपाल सिंह को बताया कि बीती रात किसी ने उस के भाई वीरेंद्र की गोली मार कर हत्या कर दी है. उस की लाश गांव के बाहर नलकूप वाले कमरे में पड़ी है.

हत्या की खबर पा कर धर्मपाल सिंह ने राजू से कुछ सवाल पूछे और पुलिस टीम के साथ घटनास्थल के लिए रवाना हो गए. रवानगी से पहले उन्होंने सीओ राकेश सिंह को भी घटना से अवगत करा दिया था.

राजू लहरापुर थाने के गांव अनेसों का रहने वाला था, जो थाने से 7 किलोमीटर दूर उत्तरपश्चिम दिशा में था. पुलिस को वहां पहुंचने में आधे घंटे का समय लगा. घटनास्थल पर भीड़ जुटी हुई थी. थानाप्रभारी धर्मपाल सिंह भीड़ को हटा कर उस कमरे के अंदर पहुंचे, जहां वीरेंद्र की लाश पड़ी थी.

लाश के पास मृतक की पत्नी शांति दहाड़ें मार कर रो रही थी. कमरे में पड़ी चारपाई पर वीरेंद्र की रक्तरंजित लाश पड़ी थी. बिस्तर खून से तरबतर था. दीवारों पर भी खून के छींटें पड़े थे. वीरेंद्र के सीने में गोली मारी गई थी, जिस से उस की मौत हो गई थी. मृतक की उम्र 35 साल के आसपास रही होगी.

थानाप्रभारी धर्मपाल सिंह अभी जांचपड़ताल कर ही रहे थे कि सीओ राकेश सिंह भी आ गए. उन्होंने फोरेंसिक टीम को भी घटनास्थल पर बुला लिया था. टीम ने कमरे से साक्ष्य एकत्र कर लिए. राकेश सिंह ने भी घटनास्थल का बारीकी से निरीक्षण किया, मृतक की पत्नी भाई तथा गांव के मुखिया से पूछताछ की.

पूछताछ में मृतक के भाई राजू ने बताया कि उस का बड़ा भाई वीरेंद्र नलकूप की रखवाली के लिए रात को नलकूप के कमरे में सोता था. कभीकभी वह खुद भी वहां सो जाता था. बीती रात 8 बजे खाना खा कर वह नलकूप पर सोने आ गए थे.

सुबह 8 बजे वह उन के लिए नाश्ता ले कर आया तो देखा कि किसी ने गोली मार कर उन की हत्या कर दी थी. उस ने हत्या की जानकारी पहले भाभी शांति को दी, उस के बाद गांव के अन्य लोगों को. इस के बाद हत्या की सूचना देने थाना लहरापुर चला गया.

“तुम्हारे भाई की गांव में किसी से रंजिश तो नहीं है?” राकेश सिंह ने पूछा.

“नहीं साहब, हमारी गांव में किसी से कोई रंजिश नहीं है.”

“कोई लेनदेन का विवाद?”

“नहीं, भैया किसी से कोई लेनदेन नहीं करते थे. हम अपनी हैसियत के मुताबिक ही रहते थे. कर्ज लेना भैया को बिलकुल पसंद नहीं था. हां, वह शराब के शौकीन जरूर थे, लेकिन खानेपीने में अपना ही पैसा खर्च करते थे.”

राकेश सिंह ने मृतक की पत्नी शांति से पूछताछ की तो वह फफकफफक कर रो पड़ी. चंद मिनट बाद उस के आंसुओं का सैलाब रुका तो बोली, “साहब, मेरे पति अच्छेभले थे. कोई तनाव या परेशानी नहीं थी. रात 8 बजे खाना खा कर वह नलकूप पर सोने आए थे. पता नहीं रात में किस ने मेरा सुहाग उजाड़ दिया. सुबह देवरजी उन्हें नाश्ता देने आए तो हमें उन की हत्या की जानकारी मिली.”

“तुम्हें किसी पर शक है?” धर्मपाल सिंह ने पूछा.

“साहब, मुझे चोरों पर शक है. लगता है, रात में चोर नलकूप की मोटर चुराने आए थे, वह जाग गए होंगे और चोरों को ललकारा होगा, तब उन्होंने गोली मार दी होगी.”

गांव के मुखिया भगवत ने सीओ राकेश सिंह को चौंकाने वाली जानकारी दी. उन्होंने बताया कि वीरेंद्र की हत्या का राज घर में ही छिपा है. वीरेंद्र की पत्नी शांति का चालचलन ठीक नहीं है. उस के अपने देवर राजू से नाजायज रिश्ते हैं.

वीरेंद्र उन अवैध रिश्तों का विरोध करता था, साथ ही शांति से मारपीट भी. शक है कि शांति और राजू ने मिल कर वीरेंद्र को मार डाला है.

यह जानकारी मिलते ही राकेश सिंह ने राजू को हिरासत में ले लिया और मृतक वीरेंद्र के शव को पोस्टमार्टम के लिए औरैया जिला अस्पताल भिजवा दिया. इस के बाद वह राजू को ले कर थाना लहरापुर आ गए.

थाने पर राकेश सिंह तथा धर्मपाल सिंह ने राजू से पूछताछ शुरू की तो वह घडिय़ाली आंसू बहाने लगा. उस की आंखों से बहते आंसू देख कर एक बार तो ऐसा लगा कि वह निर्दोष है. लेकिन जब धर्मपाल सिंह ने राजू से कड़ाई से पूछताछ की तो वह टूट गया और भाई की हत्या का जुर्म कबूल कर लिया.

अगले दिन पुलिस ने राजू की निशानदेही पर हत्या में प्रयुक्त तमंचा भी बरामद कर लिया, जिसे उस ने अपने खेत के पास झाडिय़ों में छिपा दिया था.

राजू गिरफ्तार हुआ तो शांति घबरा गई. वह अपना सामान समेट कर भागने की तैयारी कर रही थी कि पुलिस ने उसे भी पकड़ लिया. थाने पर जब उस का सामना अपने देवर राजू से हुआ तो उस ने भी सच बताना ठीक समझा. उस ने बड़ी आसानी से अपना जुर्म कबूल कर लिया.

चूंकि राजू और उस की भाभी शांति ने वीरेंद्र की हत्या का जुर्म कबूल कर लिया था, इसलिए धर्मपाल सिंह ने मृतक के चचेरे भाई ध्रुवपाल को वादी बना कर राजू व शांति के खिलाफ वीरेंद्र की हत्या का मुकदमा दर्ज कर लिया. इस के साथ ही दोनों को गिरफ्तार कर लिया गया. दोनों से की गई पूछताछ में अवैध रिश्तों की सनसनीखेज कहानी प्रकाश में आई.

औरैया जनपद में तिरवाबिंदियापुर रोड पर  एक कस्बा है सहार. इसी कस्बे में रहने वाले राजकुमार की बेटी थी शांति. राजकुमार ने शांति का विवाह औरैया जिला के थाना लहरापुर के अंतर्गत आने वाले अनेसों गांव निवासी वीरेंद्र के साथ किया था.

वीरेंद्र के मातापिता की मौत हो चुकी थी. वह अपने छोटे भाई राजू के साथ रहता था. उस के पास 10 बीघा जमीन थी, जिस में अच्छी उपज होती थी. कुल मिला कर उन का जीवन खुशहाल था.

देखतेदेखते 5 साल बीत गए, पर शांति की गोद सूनी ही रही. गोद सूनी रहने का दोष शांति अपने पति पर देती थी,  जिस से दोनों में झगड़ा होता रहता था. इस झगड़े से वीरेंद्र इतना परेशान हो जाता था कि वह शराब के ठेके पर पहुंच जाता और फिर लडख़ड़ाते कदमों से ही घर लौटता.

धीरेधीरे 3 साल और बीत गए. लेकिन शांति को मातृत्व सुख नहीं मिला. शांति समझ गई कि वह अक्षम पति से मातृत्व सुख कभी प्राप्त नहीं कर सकती. इसलिए वह पति से घृणा करने लगी.

शराब पीने को ले कर दोनों में झगड़ा इतना बढ़ता कि वीरेंद्र शांति को जानवरों की तरह पीट देता. समय के साथ मनमुटाव इतना बढ़ा कि वीरेंद्र घर के बजाय खेत पर बनी नलकूप की कोठरी में सोने लगा.

शांति स्वभाव से मिलनसार थी. राजू भाभी के प्रति सम्मोहित था. जब दोनों साथ चाय पीने बैठते, तब शांति उस से खुल कर हंसीमजाक करती. शांति का यह व्यवहार धीरेधीरे राजू को ऐसा बांधने लगा कि उस के मन में शांति का सौंदर्यरस पीने की कामना जागने लगी.

एक दिन राजू खाना खाने बैठा तो शांति थाली ले कर आई और जानबूझ कर गिराए गए आंचल को ढंकते हुए बोली, “लो देवरजी खाना खा लो, आज मैं ने तुम्हारी पसंद का खाना बनाया है.”

राजू को भाभी की यह अदा बहुत अच्छी लगी. वह उस का हाथ पकड़ कर बोला, “भाभी, तुम भी अपनी थाली परोस लो, साथ खाने में मजा आएगा.”

खाना खाते वक्त दोनों के बीच बातों का सिलसिला जुड़ा तो राजू बोला, “भाभी, तुम सुंदर और सरल स्वभाव की हो, लेकिन भैया ने तुम्हारी कद्र नहीं की. मुझे पता है कि अभी तक तुम्हारी गोद सूनी क्यों है? वह अपनी कमजोरी की खीझ तुम पर उतारते हैं. लेकिन मैं तुम्हें प्यार करता हूं.”

यह कह कर राजू ने शांति की दुखती रग पर हाथ रख दिया था. सच में शांति पति से संतुष्टï नहीं थी. उसे न तो मातृत्व का सुख प्राप्त हुआ था और न ही शारीरिक सुख, जिस से उस का मन विद्रोह कर उठा. उस का मन बेर्ईमान हो चुका था. आखिरकार उस ने फैसला कर लिया कि अब वह असंतुष्टï नहीं रहेगी. इस के लिए उसे रिश्तों को तारतार क्यों न करना पड़े.

औरत जब जानबूझ कर बरबादी के रास्ते पर कदम रखती है तो उसे रोक पाना मुश्किल होता है. यही शांति के साथ हुआ. शांति जवान भी थी और पति से असंतुष्टï भी. वह मातृत्व सुख भी चाहती थी. अत: उस ने देवर राजू के साथ नाजायज रिश्ता बनाने का निश्चय कर लिया. राजू वैसे भी शांति का दीवाना था.

एक शाम शांति बनसंवर कर चारपाई पर लेटी थी. तभी राजू आ गया. वह उस की खूबसूरती को निहारने लगा. शांति को राजू की आंखों की भाषा पढऩे में देर नहीं लगी. शांति ने उसे करीब बैठा लिया और उस का हाथ सहलाने लगी. राजू के शरीर में हलचल मचने लगी.

थोड़ी देर की चुप्पी के बाद होश दुरुस्त हुए तो शांति ने राजू की ओर देख कर कहा, “देवरजी, तुम मुझे बहुत अच्छे लगते हो. लेकिन हमारे बीच रिश्ते की दीवार है. अब मैं इस दीवार को तोडऩा चाहती हूं. तुम मुझे बस यह बताओ कि हमारे इस नए रिश्ते का अंजाम क्या होगा?”

“भाभी, मैं तुम्हें कभी धोखा नहीं दूंगा. तुम अपना बनाओगी तो तुम्हारा ही बन कर रहूंगा.” कह कर राजू ने शांति को बाहों में भर लिया.

ऐसे ही कसमोंवादों के बीच कब संकोच की सारी दीवारें टूट गईं, दोनों को पता ही नहीं चला. उस दिन के बाद राजू और शांति बिस्तर पर जम कर सामाजिक रिश्तों और मानमर्यादाओं की धज्जियां उड़ाने लगे. वासना की आग ने उन के इन रिश्तों को जला कर खाक कर दिया.

राजू अपनी भाभी के प्यार में इतना अंधा हो गया कि उसे दिन या रात में जब भी मौका मिलता, वह शांति से मिलन कर लेता. शांति भी देवर के पौरुष की दीवानी थी. उन के मिलन की किसी को कानोकान खबर नहीं थी.

कहते हैं कि वासना का खेल कितनी भी सावधानी से खेला जाए, एक न एक दिन भांडा फूट ही जाता है. ऐसा ही शांति और राजू के साथ भी हुआ. एक रात पड़ोस में रहने वाली चचेरी जेठानी रूपा ने चांदनी रात में आंगन में रंगरलियां मना रहे राजू और शांति को देख लिया. इस के बाद तो इन की पापलीला की चर्चा पूरे गांव में होने लगी.

वीरेंद्र को जब देवरभाभी के नाजायज रिश्तों की जानकारी हुई तो उस का माथा ठनका. उस ने इस बाबत शांति से बात की तो उस ने नाजायज रिश्तों की बात सिरे से खारिज कर दी. उस ने कहा, “राजू सगा देवर है. उस से हंसबोल लेती हूं. पड़ोसी इस का मतलब गलत निकालते हैं. उन्होंने ही तुम्हारे कान भरे हैं.”

वीरेंद्र ने उस समय तो पत्नी की बात मान ली, लेकिन मन में शक पैदा हो गया, इसलिए वह चुपकेचुपके पत्नी पर नजर रखने लगा. परिणामस्वरूप एक रात वीरेंद्र ने शांति और राजू को रंगरलियां मनाते रंगेहाथों पकड़ लिया. वीरेंद्र ने दोनों की पिटाई की और संबंध तोडऩे की चेतावनी दी.

लेकिन इस चेतावनी का असर न तो शांति पर पड़ा और न ही राजू पर. हां, इतना जरूर हुआ कि अब वे सतर्कता बरतने लगे. जिस दिन वीरेंद्र, शांति को राजू से हंसतेबतियाते देख लेता, उस दिन शराब पी कर शांति को पीटता और राजू को भी भलाबुरा कहता. उस ने गांव के मुखिया से भी भाई की शिकायत की, साथ ही राजू को समझाने के लिए भी कहा कि वह घर न तोड़े.

शांति शराबी पति की मारपीट से तंग आ चुकी थी. इसलिए उस ने एक दिन शारीरिक मिलन के दौरान राजू से पूछा, “देवरजी, हम कब तक इस तरह चोरीछिपे मिलते रहेंगे? आखिर कब तक उस शराबी की मार खाते रहेंगे? कहीं किसी दिन उस ने शराब के नशे में मेरा गला घोंट दिया तो..?”

“ऐसा नहीं होगा भाभी. तुम साथ दोगी तो मैं भाई को ही ठिकाने लगा दूंगा.”

“मेरी मांग का सिंदूर मिटा कर क्या मुझे विधवा बना दोगे?”

“नहीं, मैं तुम्हारी मांग में सिंदूर भर कर तुम्हें अपना बना लूंगा.”

“तो ठीक है, मैं तुम्हारा साथ दूंगी.”

इस के बाद शांति और राजू ने वीरेंद्र की हत्या की योजना बना डाली. योजना के तहत राजू ने किसी अपराधी से 2 हजार रुपए में तमंचा व 2 कारतूस खरीदे और उन्हें घर में छिपा कर रख दिया. इस के बाद दोनों उचित समय का इंतजार करने लगे.

हत्या की योजना बनने के बाद वीरेंद्र के प्रति शांति का व्यवहार नरम पड़ गया. वह दिखावटी रूप से उस के प्रति प्यार जताने लगी. कभीकभी वह शारीरिक मिलन के लिए नलकूप वाली कोठरी पर भी चली जाती. पत्नी के इस व्यवहार से वीरेंद्र को लगा कि उस ने भाई से संबंध खत्म कर लिए हैं.

18 नवंबर, 2015 की रात 8 बजे वीरेंद्र घर आया. शांति ने उसे बड़े प्यार से खाना खिलाया. इस के बाद वह खेतों पर नलकूप वाली कोठरी पर सोने चला गया. उस के जाते ही राजू और शांति ने बात कर के अपनी योजना को अंजाम तक पहुंचाने का निश्चय कर लिया.

गांव के ज्यादातर लोग जब गहरी नींद सो गए तो राजू ने कमर में तमंचा खोंसा और शांति के साथ खेतों पर जा पहुंचा. शांति ने कोठरी के दरवाजे की कुंडी खटखटाई. इस पर वीरेंद्र ने पूछा, “कौन?”

“मैं हूं शांति. दरवाजा खोलो.”

वीरेंद्र ने सोचा, शांति शारीरिक मिलन के लिए आई है. इसलिए उस ने सहज ही दरवाजा खोल दिया. दरवाजा खुलते ही राजू ने कमर में खोसा तमंचा निकाला और वीरेंद्र के सीने पर 2 फायर झोंक दिए. गोली लगते ही वीरेंद्र खून से तरबतर हो कर चारपाई पर गिर पड़ा. चंद मिनट तड़पने के बाद उस ने दम तोड़ दिया. भाई की हत्या करने के बाद राजू ने तमंचा झाडिय़ों में छिपा दिया और शांति के साथ घर आ गया.

सुबह 8 बजे दिखावे के तौर पर राजू नाश्ता ले कर नलकूप पर गया और वहां से बदहवास भागता हुआ गांव आया. गांव वालों को उस ने भाई की हत्या हो जाने की जानकारी दी.

कुछ देर बाद वह थाना लहरापुर पहुंचा और थानाप्रभारी धर्मपाल सिंह को हत्या की सूचना दी. सूचना पाते ही धर्मपाल सिंह घटनास्थल पर पहुंचे और शव को कब्जे में ले कर जांचपड़ताल शुरू कर दी. जांच में देवरभाभी के नाजायज रिश्तों के चलते वीरेंद्र की हत्या का रहस्य उजागर हो गया.

21 नवंबर, 2015 को थाना लहरापुर पुलिस ने अभियुक्त राजू और शांति को औरैया कोर्ट में रिमांड मजिस्टे्रट के समक्ष पेश किया, जहां से उन्हें जिला जेल भेज दिया गया. कथा लिखे जाने तक उन की जमानत नहीं हुई थी.

वही परंपराएं, भाग 2 : 50 साल बाद जवान की जिंदगी में क्या आया बदलाव ?

‘‘जी, हां, मैं उन का बेटा हूं. वे आजकल घर पर ही रहते हैं.’’

‘‘वैसे वे ठीक तो हैं?’’

‘‘जी, नहीं, कुछ ठीक नहीं रहते.’’

‘‘कैसी बीमारी है?’’

‘‘जी, वही बुढ़ापे की बीमारियां, ब्लडप्रैशर, शुगर वगैरा.’’

‘‘पर तुस्सी कौन?’’ इतनी देर बातें करने के बाद उस ने मेरे बारे में पूछा था कि मैं कौन हूं.

‘‘मेरी गुरनाम से पुरानी दोस्ती है, 50 वर्षों पहले की.’’

कुछ देर देख कर वह हक्काबक्का रह गया, फिर अपने काम में व्यस्त हो गया. मैं ने गुरनाम के बेटे को आगे प्रश्न करने का मौका नहीं दिया. मेरा ध्यान राजिंद्रा अस्पताल के पीछे बने क्वार्टरों की ओर चला जाता है. यहां की एक लड़की शकुन, यहीं इन्हीं क्वार्टरों में कहीं रहती थी.

कालेज से आते समय हमें रात के साढ़े नौ, पौने दस बज जाते थे. वह केवल अपनी सुरक्षा के कारण मेरे साथ अपनी साइकिल पर चल रही होती थी. वह सैनिकों को पसंद नहीं करती थी. वह सैनिक यूनिफौर्म से ही नफरत करती थी. कारण, उस के अपने थे. उस की सखी ने मुझे बताया था. मेरी इस पर कभी कोई बात नहीं हुई थी. जबकि यूनिफौर्म हम सैनिकों की आन, बान और शान थी. हम थे, तो देश था. हम नहीं थे तो देश भी नहीं था.

हमें अपनेआप पर अभिमान था और हमेशा रहेगा. मेरा ध्यान अपनी पढ़ाई पर चला गया था. मन के भीतर यह बात दृढ़ हो गईर् थी कि कुछ भी हो, मुझे उस से अधिक नंबर हासिल करने हैं. और हुआ भी वही. जब परिणाम आया तो मेरे हर विषय में उस से अधिक नंबर थे. मैं ने प्रैप, फर्स्ट ईयर, दोनों में उसे आगे नहीं बढ़ने दिया. फिर मेरी पोस्ंिटग लद्दाख में हो गई और वह कहां चली गई, मुझे कभी पता नहीं चला. इतने वर्षों बाद यहां आया तो उस की याद आई.

अस्पताल से निकलते ही बायीं ओर सड़क मुड़ती है. वहां से शुरू होती हैं अंगरेजों के समय की बनी पुरानी फौजी बैरकें. मैं उस ओर मुड़ा तो वहां बैरियर लगा मिला और

2 संतरी खड़े थे. कार को देख कर उन में से एक संतरी मेरी ओर बढ़ा. मैं ने उस को अपना परिचय दिया, कहा, ‘‘मैं पुरानी बैरकें देखना चाहता हूं.’’

संतरी ने कहा, ‘‘सर, अब यहां पुरानी बैरकें नहीं हैं. उन को तोड़ कर फैमिली क्वार्टर बना दिए गए हैं. उन का कहीं नामोनिशान नहीं है.’’

मैं ने कुछ देर सोचा, फिर कहा, ‘‘मैं अंदर जा कर देखना चाहता हूं. कुछ न कुछ जरूर मिलेगा. मैं ने अपनी पढ़ाई यहीं से शुरू की थी. उस ने दूसरे संतरी से बात की. उन्होंने मुझ से आईकार्ड मांगा. मुझे खुशी हुई. किसी मिलीटरी संस्थान में घुसना आसान नहीं है. अपनी ड्यूटी के प्रति उन के समर्पण को देख कर मन गदगद हुआ.

मैं ने उन को अपना आईकार्ड दिखाया और मेरा रैंक देख कर उन्होंने मुझे सैनिक सम्मान दिया. एक संतरी कार में ड्राइवर के साथ बैठ गया. दूसरे संतरी ने बैरियर खोल दिया. कार अंदर की ओर मुड़ गई. बायीं ओर जवानों के लिए सुंदर और भव्य क्वार्टर और दूसरी ओर एक लाइन में बने लैंप पोस्ट थे. उस के साथ कोई 6 फुट ऊंची दीवार चल रही थी. क्वार्टरों को इस प्रकार सुरक्षित किया गया था कि बैरियर के अतिरिक्त और कहीं से कोई घुस न पाए.

कार बहुत धीरेधीरे चल रही थी. ‘‘रुक रुक’’, एक लैंप पोस्ट के पास मैं ने कार रुकवाई. मैं कार से नीचे उतरा. संतरी भी मेरे साथ उतरा. लैंप पोस्ट के पास एक बड़े पत्थर को देख कर मेरी आंखें नम हो गईं. मैं इस पत्थर पर बैठ कर पढ़ा करता था.

मैं इतना भावुक हो गया कि बढ़ कर मैं ने संतरी को गले लगा लिया. उस के कारण मैं यहां तक पहुंचा था. मेरे रैंक का आदमी इस प्रकार का व्यवहार नहीं करता है. तुम्हारे कारण आज मैं यहां हूं. 1966 में यह पत्थर मेरे लिए कुरसी का कार्य करता था. 50 साल बीत गए, यह आज भी यहां डटा हुआ है. सामने एक यूनिट थी जिस के संतरी मुझे चाय पिलाया करते थे.

मुझे आज भी सर्दी की भयानक रात याद है. जनवरी का महीना था. परीक्षा समीप थी. दूसरी यूनिट की सिक्योरिटी लाइट में पढ़ना मेरी मजबूरी थी. हालांकि कमांडिंग अफसर मेजर मेनन ने रातभर लाइट जलाने की इजाजत दी हुई थी, परंतु कोई हमारे ब्लौक का फ्यूज निकाल कर ले जाता था. मैं ने बाहर की सिक्योरिटी लाइट में पढ़ना शुरू किया तो किसी ने पत्थर मार कर बल्ब तोड़ दिए थे. फिर मैं यहां पत्थर पर बैठ कर पढ़ने लगा.

शाम को ही धुंध पड़नी शुरू हो जाती थी. मैं रात में 10 बजे के बाद गरम कपड़े पहन कर, कैप पहन कर यहां आ जाता था. उस रोज भी धुंध बहुत थी.

मैं कौपी के अक्षरों को पढ़ने का प्रयत्न कर रहा था कि एक जानीपहचानी आवाज ने मुझे आकर्षित किया. यह आवाज मेजर मेनन की थी, मेरे औफिसर कमांडिंग. मेमसाहब के साथ, बच्चे को प्रैम में डाले, कहीं से आ रहे थे.

‘तुम यहां क्यों पढ़ रहे हो? मैं ने तो तुम्हें सारी रात लाइट जलाने की इजाजत दी हुई है.’ मैं जल्दी से जवाब नहीं दे पाया था. जवाब देने का मतलब था, सब से बैर मोल लेना. जब दोबारा पूछा तो मुझे सब बताना पड़ा. मेजर साहब तो कुछ नहीं बोले परंतु मेमसाहब एकदम भड़क उठीं, ‘कैसे तुम यूनिट कमांड करते हो, एक बच्चा पढ़ना चाहता है, उसे पढ़ने नहीं दिया जा रहा है?’

15 अगस्त स्पेशल : औपरेशन, भाग 2

डाक्टर सारांश ने मेजर बलदेव का चैकअप किया और फौरन मैडिकल डाइरैक्टर के रूम की ओर भागे, ‘‘सर, मेजर साहब बुरी तरह जख्मी हैं, फौरन उन का औपरेशन करना पड़ेगा.’’ मैडिकल डाइरैक्टर मानो इस सवाल के लिए तैयार थे, ‘‘इन्हें फौरन अनंतनाग या उधमपुर भिजवाने का इंतजाम कराओ, वहीं इन का मुकम्मल इलाज हो पाएगा.’’

‘‘मगर सर, इतना वक्त नहीं है हमारे पास. जहर जिस्म में फैलता जा रहा है. अगर फौरन औपरेशन नहीं किया तो टांग काटनी पड़ जाएगी. फौज का एक तंदुरुस्त जवान अपाहिज हो जाएगा. अगर ज्यादा देर हुई तो उन की जान भी जा सकती है.’’

‘‘डाक्टर सारांश, आप से जो कहा जाए वही कीजिए, फैसला लेने का हक मेरा है, न कि आप का.’’

‘‘सुना है आप ने औपरेशन थिएटर और आसपास के कमरे मंत्रीजी को दिए हुए हैं ताकि वे इस सर्द और बरसाती रात में आराम फरमा सकें.’’ मेजर की टोली के एक जवान ने कहा तो एक बार के लिए मैडिकल डाइरैक्टर की पेशानी पर पसीने की बूंदें उभर आईं, लेकिन अगले ही पल उन्होंने बेशर्मी से कहा, ‘‘आप समय बरबाद कर रहे हैं अपना भी, मेरा भी और सब से ज्यादा घायल मेजर का. जल्दी ही इन्हें ले जाने का इंतजाम कीजिए. जरूरत पड़े तो एयरलिफ्ट करवाइए.’’

‘‘आप जानते हैं सर, इस बरसाती रात में एयरलिफ्ट करवाना मुमकिन नहीं है,’’ डा. सारांश ने आखिरी दावं खेला.

‘‘फिर तो आप को फौरन रवाना होना चाहिए. एकएक पल कीमती है आप के लिए,’’ मैडिकल डाइरैक्टर अड़े रहे.

डाक्टर सारांश पसोपेश में पड़ गए. वे घायल सिपाही, अपना फर्ज और लाल फीताशाही के बीच फंसे बेबस से खड़े किसी भी नतीजे पर पहुंच नहीं पा रहे थे.

डाक्टर सारांश ने कुछ ही पलों में मानो फैसला कर लिया. उन्होंने अस्पताल के कुछ कर्मचारियों को बुलाया और उन से रायमशवरा करने के बाद मेजर को टीले के उस ओर ले गए जहां पर बरसात का प्रकोप कम था. वहीं उन्होंने 2 पेड़ों के बीच रस्सी बांध कर मचान बनाया और अस्पताल से लाए औजारों की मदद से गोली निकालने का काम शुरू कर दिया. फौज की जीप की हैडलाइट्स की रोशनी में उन्होंने गोली निकाली और औपरेशन को अंजाम दिया. औपरेशन कामयाब रहा और पौ फटतेफटते मेजर को होश आ गया. फिर थोड़ी ही देर में हैलिकौप्टर मेजर को ले कर उधमपुर की ओर उड़ गया.

डाक्टर सारांश के इस औपरेशन की खबर पूरे जिले में फैल गई और जैसा कि डाक्टर सारांश को अंदेशा था, दफ्तर से आए एक कर्मचारी ने उन्हें सस्पैंशन और्डर थमा दिया. पत्र में उन पर कई तरह के इलजाम लगाए गए थे और उन की शिकायत मैडिकल काउंसिल में कर दी गई थी जिस में सिफारिश की गई थी कि डाक्टर सारांश का मैडिकल लाइसैंस रद्द कर दिया जाए.

डाक्टर सारांश के औपरेशन की खबर कुछ यों फैली कि शाम होतेहोते कई रोगी उन तक पहुंच गए और उन के परिजन हाथ जोड़जोड़ कर उन से रोगियों के औपरेशन की गुहार करने लगे. डाक्टर सारांश के समझानेबुझाने का उन पर कोई असर नहीं हुआ. आखिरकार डाक्टर सारांश ने दूसरी रात भी 4 औपरेशन उसी हालात में कर डाले, जो कामयाब भी हुए. फिर तो यह रोज का सिलसिला हो गया और डाक्टर सारांश की ख्याति दूरदूर तक फैल गई. भारी तादाद में रोगी उन तक पहुंचने लगे.

मैडिकल डाइरैक्टर ने बौखलाहट में डाक्टर सारांश के खिलाफ एफआईआर दर्ज करवा दी जिस में उन पर गैरकानूनी ढंग से औपरेशन करने और अस्पताल के सामान की चोरी का इलजाम भी शामिल था.

डाक्टर सारांश ने जमानत लेने के बजाय जेल जाना पसंद किया और उन पर कई धाराएं लगा कर उन्हें फौजी जेल में डाल दिया गया. मामले की सुनवाई जिला अदालत में शुरू हो गई.

चंद ही दिन बीते थे कि एक ऐसी घटना हुई जिस की डाक्टर सारांश को भी उम्मीद न थी. कूरियर से एक लिफाफा उन के नाम आया जिस में उन के नाम का एक प्रशस्तिपत्र और सिंगापुर आनेजाने का टिकट था. डाक्टर सारांश हैरान थे कि यह कैसे हुआ. उन की समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था. अगले ही दिन उन्हें अदालत के आदेश से छोड़ दिया गया और दिल्ली होते हुए वे सिंगापुर के जहाज में बैठ गए.

सिंगापुर पहुंचते ही उन का तहेदिल से स्वागत हुआ और एक समारोह में उन की उपलब्धियां गिनाई गईं, वे उपलब्धियां जो भारत में गुनाह समझी गई थीं और उन्हें जेल में डाल दिया गया था. उन्हें मानवता का रखवाला और कई जानें बचाने वाला महामानव बताया गया था. चर्चा हुई और उन से सवालजवाब हुए कि उन्होंने किस तरह संसाधन न होते हुए भी इतने औपरेशन किए जोकि कामयाब रहे. मानवता के नाम पर उठाया गया उन का एक कदम इतनी लंबी छलांग लगा देगा, इस का उन को गुमान न था.

भारतीय मैडिकल काउंसिल जहां उन पर अनुशासनहीनता की कार्यवाही कर रही थी, अदालत उन को मुजरिम की तरह कठघरे में खड़ी कर रही थी, मंत्रालय उन पर सख्त से सख्त कार्यवाही करने का मन बना रहा था, वहीं परदेस में डाक्टर सारांश को डाक्टरों के काम का सर्वोच्च आदर और मान मिल रहा था.

डाक्टर सारांश मंच पर खड़े लोगों के सवालों का जवाब दे रहे थे. तभी कोने से एक व्यक्ति ने वही प्रश्न किया जो उन के दिमाग पर दस्तक दिए जा रहा था. ‘‘क्या आप मानते हैं कि आज भी भारत में सारी व्यवस्था राजनीतिज्ञों के इर्दगिर्द घूमती है और पढ़ालिखा डाक्टर सारांश भी उसी व्यवस्था की भेंट चढ़ जाता है जब उसे एक भारतीय फौजी मेजर बलदेव राज की जान बचाने के लिए अपने कैरियर को जोखिम में डालना पड़ता है और बदले में उसे जिल्लत का सामना करना पड़ता है?’’

डाक्टर सारांश की आंख उस ओर मुड़ गई, उन्हें पहचानने में देर नहीं लगी कि प्रश्न मेजर बलदेव राज का था. ‘‘बात कुछ हद तक  सही भी है मगर मैं सकारात्मक सोच रखता हूं और मुझे यकीन है कि सबकुछ बदल रहा है, हर बदलाव में समय तो लगता ही है. जहां तक मेरा प्रश्न है, मुझे अनगिनत लोगों से प्यार मिला है और उस प्यार के सामने उस जिल्लत की मेरे लिए कई अहमियत नहीं है जो चंद सरकारी लोगों ने मुझे दी. मुझे इस के आगे कुछ नहीं कहना है.’’

समारोह के खत्म होने के बाद डाक्टर सारांश अपने होटल की ओर जा रहे थे. सामने से मेजर बलदेव आते नजर आए, ‘‘आप ने मेरी जान तो बचा ली लेकिन दुश्मन की गोली अपना काम कर चुकी थी. फौज के नियमों के तहत घायल सैनिक को दफ्तर की पोस्ंिटग दी जाती है. भला मुझ जैसा दौड़नेभागने वाला अफसर दफ्तर की चारदीवारी में क्या करेगा, लेकिन चाह कर भी फौज छोड़ न पाया. सेना से तो जीवनमृत्यु का गठबंधन है. कैसे तोड़ पाता यह संबंध. यहां मैं भारतीय दूतावास में हूं. यह दोस्त मुल्क है, इसलिए यहां कुछ ज्यादा करने को नहीं, मगर यहां से दुश्मन मुल्कों को देखना आसान है.’’

‘‘अगर मैं गलत नहीं सोच रहा तो, मुझे यहां तक लाने में आप का ही हाथ है,’’ डाक्टर सारांश ने कहा.

‘‘हां, डाक्टर साहब, मैं आप को फौलो कर रहा था. यहां काउंसिल में मैं ने आप के बारे में जानकारी दी. इन्होंने भारत सरकार की मदद ली और आप को यहां तक ले आए. मैं जानता हूं आप ने कितनी तकलीफ झेली. आप चाहते तो अपने उसूलों से हट सकते थे. मुझे उधमपुर या जम्मू भेजना आप के लिए बहुत आसान था, लेकिन यह भी तय था कि मैं वहां तक नहीं पहुंच पाता. हां, तिरंगे में लपेटा हुआ एक सैनिक जरूर पहुंचता, जिस पर कुछ दिन सियासत होती, फिर भुला दिया जाता. आप के उपकार के एवज में मैं ने जो भी कुछ किया वह कुछ नहीं था.’’

डाक्टर सारांश ने एक ठंडी सांस ली और मेजर को धन्यवाद दिया. इस बीच, मेजर साहब ने डाक्टर सारांश के हाथ में एक लिफाफा पकड़ा दिया.

‘‘यह क्या है?’’ डा. सारांश ने पूछा.

‘‘यहां के सब से बड़े अस्पताल का आप के नाम प्रशस्तिपत्र.’’ डाक्टर सारांश ने लिफाफा अपने ब्रीफकेस में डाल दिया.

‘‘बेहतर होता कि आप इस पर एक नजर डाल लेते,’’ मेजर साहब ने कहा तो डाक्टर सारांश ने लिफाफा खोल कर पत्र पढ़ना शुरू किया. एक ही सांस में पत्र पढ़ कर उन्होंने फिर से उसे अपने ब्रीफकेस में डाल दिया और होटल की ओर चल पड़े.

‘‘आप ने डाक्टर सारांश को हमारा पत्र दे दिया?’’ यह सिंगापुर के अस्पताल के डाइरैक्टर एक भारतीय डाक्टर निकुंज का फोन था.

‘‘हां, दे दिया, उन्होंने इनकार नहीं किया, बल्कि कुछ कहा भी नहीं.’’ ‘‘सबकुछ कहा नहीं जाता मेजर, कुछ चीजें समझी जाती हैं. आप कह रहे थे डाक्टर सारांश पत्र पढ़ कर उसे रद्दी की टोकरी के हवाले कर देंगे, मगर मैं जानता था कि इतना अच्छा औफर कोई पागल ही ठुकरा सकता है.’’ डा. निकुंज ने कहा तो मेजर ने फौरन कहा, ‘‘डाक्टर सारांश पागल ही हैं सर.’’

दूसरे दिन हवाईअड्डे पर डाक्टर सारांश को छोड़ने आए वीआईपी लोगों में सिंगापुर अस्पताल के निदेशक और मेजर बलदेव मौजूद थे.

‘‘मुझे आप का प्रस्ताव मंजूर है,’’ डाक्टर सारांश ने कोट की जेब से एक लिफाफा पकड़ाते हुए कहा, ‘‘इस में कुछ शर्ते हैं जिन के बारे में आप को सोचना है.’’

‘‘हमें आप की सारी शर्तें मंजूर हैं, बस, आप की हां चाहिए. मैं आज ही काउंसिल की मीटिंग में इन पर विचार कर के आप को जवाब भेज दूंगा.’’

मेजर बलदेव को डाक्टर सारांश से शायद कुछ और ही उम्मीद थी. उन के चेहरे पर निराशा के भाव थे. डाक्टर सारांश का हवाई जहाज उड़ चुका था. मेजर बलदेव अनमने से हवाई अड्डे पर ही खड़ेखड़े कौफी की चुस्कियों के साथ कुछ सोच रहे थे, ‘इंसानी जरूरतें, भारत में डाक्टर सारांश के साथ हुई बेइंसाफी, ऐसे में अगर उन्होंने सिंगापुर का औफर स्वीकार कर लिया तो क्या बुरा किया. उन की जगह कोई भी होता तो यही करता जो उन्होंने किया.’

पूजा घई के बेटे राज रावल को मिला डिजिटल का सहारा

बौलीवुड में प्रवेश करना हर नवोदित कलाकार के लिए लोहे के चने चबाना जैसा हो गया है. फिल्मी माहौल में पलेबङे 21 वर्षीय राज रावल को भी बौलीवुड में कदम रखने के लिए काफी पापड़ बेलने पङे.

‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ फेम मशहूर अदाकारा पूजा घई के बेटे राज रावल ने कभी अंडर 17 विश्व कप फुटबाल में भारत का प्रतिनिधित्व किया था. पर उन के अंदर बौलीवुड में हीरो बनने की तमन्ना थी। उन्हें पता था कि बौलीवुड में ब्रेक मिलना इतना आसान नहीं है. पर राज रावल ने सोच लिया था कि मुझे हार नहीं माननी.

करीब से देखा फिल्मी माहौल

वे कहते हैं,‘‘मेरी परवरिश फिल्मी माहौल में हुई है. मैं ने अपनी मां को भी यहां संघर्ष करते हुए देखा है. इसलिए मुझे संघर्ष से डर नहीं लगता. मैं कठिन से कठिन मेहनत करना चाहता हूं.’’

21वर्षीय महत्त्वाकांक्षी अभिनेता राज रावल लास एजैंल्स, अमेरिका के ली स्ट्रैसबर्ग में 12 सप्ताह और जेफ गोल्डबर्ग स्टूडियो में 9 माह का ऐक्टिंग कोर्स करने के बाद भारत आए. फिर उन्होंने गणेश आचार्य डांस ऐकेडमी में डांस सीख कर अपने कौशल का विस्तार किया. इस के अलावा राज अपने शारीरिक फिटनैस पर खास ध्यान देते रहे. फिर बौलीवुड में आने की कोशिश करने लगे.

जब उन्हें यह आसान महसूस नहीं हुआ तब उन्होंने फिल्म माध्यम को करीब से समझने के लिए डीजे द्वारा निर्मित वैब सीरीज ‘हम तुम ऐंड देम’ की प्रोडक्शन टीम के साथ मिल कर काम किया. इस के बाद अक्षय कुमार और कियारा आडवाणी अभिनीत फिल्म ‘लक्ष्मी’ और सिद्धार्थ मल्होत्रा व रश्मिका मंदाना अभिनीत फिल्म ‘मिशन मजनूं’ में बतौर सहायक निर्देशक काम किया.

दर्शकों का दिल जीत लिया

इस के बाद राज रावल ने अभिनय के मैदान में कूदने के लिए डिजिटल मीडियम का सहारा लिया. राज रावल ने निर्देशक विक्रम घई की शौर्ट फिल्म ‘द अनस्पोकन’ में अभिनय किया और इस फिल्म में अभिनय कर अपने असाधारण अभिनय कौशल से राज ने दर्शकों का दिल जीत लिया है.

अपनी मां के नक्शेकदम पर चलते हुए राज ने एक उल्लेखनीय यात्रा शुरू की है.

शौर्ट फिल्म ‘द अनस्पोकन’ दर्शकों को भावनात्मक सफर पर ले जाती है, जिस में राज रावल अपने किरदार में जान फूंकने में सफल रहे हैं.

यह फिल्म न सिर्फ उन की अविश्वसनीय अभिनय क्षमता को उजागर करती है, बल्कि काम के प्रति उन के समर्पण को भी दिखाती है. इस शौर्ट फिल्म में राज रावल के संग नाजनीन पटेल, न्यासा बिजलानी की भी अहम भूमिकाएं हैं.

हालांकि फुटबौल आज भी राज रावल का जनून है. इस के अलावा उन्हें दुनियाभर में यात्रा करना, सोल फूड खाना और जीवन का अनुभव करना भी बहुत पसंद है.

YRKKH Promo : अभिनव की मौत के बाद अक्षरा को लगा सदमा, अभिमन्यु पर लगे इल्जाम

YRKKH Promo : प्रणाली राठौड़ (Pranali Rathod) और हर्शद चोपड़ा (Harshad Chopda) स्टारर टीवी सीरियल ‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’ में इस वक्त सस्पेंस बना हुआ है. बीते दिन सीरियल का नया प्रोमो (YRKKH Promo) जारी किया गया, जिसमें दिखाया गया है कि अभिनव की मौत हो जाती है. वहीं अक्षरा, अभिनव की मौत के लिए अभिमन्यु को जिम्मेदार समझती है. इसी के साथ शो में नया ट्विस्ट आना पक्का है.

अक्षरा को लगा सदमा 

शो के नए प्रोमो (YRKKH Promo) की शुरुआत में दिखाया जाता है कि अभिमन्यु, अभिनव की जान बचाने के लिए उसका हाथ पकड़ने की कोशिश करता है, लेकिन पकड़ नहीं पाता है और अभिनव सीधे खाई में गिर जाता है. इसके बाद दिखाया जाता है कि अभीर, अक्षरा से पूछता है, ‘मम्मा, पापा कहां गए हैं? पर अक्षरा कोई जवाब नहीं देती. तभी अभिमन्यु की एंट्री होती है.

अक्षरा ने अभिमन्यु से पूछे सवाल

अक्षरा, अभिमन्यु को देख भड़क जाती है और उससे कहती, ‘अब यहां पर क्या लेने आए हो तुम? बड़े पापा ने खुद देखा था तुम्हें अभिनव को धक्का देते हुए. मुझे प्यार करना तुमने सिखाया, लेकिन प्यार निभाना मुझे अभिनव ने सिखाया था और तुमने क्या किया…’ यहीं नहीं अक्षरा आगे कहती है, ‘पहले तुमने अभीर को मुझसे छीना और अब अभिनव को. अब कल को अगर अभीर तुमसे पूछेगा कि उसके पापा कहां हैं? तो तुम क्या जवाब दोगे?.’

शो के नए प्रोमो (YRKKH Promo) को देखने के बाद दर्शकों के दिल में कई सवाल खड़े हो गए हैं कि क्या अभिनव की सही में मौत हो गई? क्या अभिमन्यु ने अभिनव का मारा है? आदि-आदि. लेकिन इन सभी सवालों के जवाब तो आज के एपिसोड में ही मिलेंगे.

Kangana Ranaut संग अपने रिश्ते पर फिर बोले Adhyayan Suman, लगाए कई गंभीर आरोप

Adhyayan Suman Interview :  बॉलीवुड की पंगा गर्ल यानी कंगना रनौत जितना अपने बेबाक बयानों के चलते सुर्खियों में रहती हैं. उतना ही वह अपने रिलेशनशिप को लेकर लाइमलाइट बटोरती है. साल 2008 में कंगना एक्टर अध्ययन सुमन को डेट कर रही थी. उस समय आए दिन ये कपल किसी न किसी खबर के चलते चर्चा में बने ही रहते थे, लेकिन ये रिश्ता ज्यादा समय तक नहीं चला और एक दिन दोनों के रास्ते हमेशा-हमेशा के लिए अलग हो गए.

हालांकि अब, ब्रेकअप के सालों बाद एक्टर अध्ययन सुमन ने कंगना (Kangana Ranaut) संग अपने रिश्ते पर चुप्पी तोड़ी है. एक इंटरव्यू में अध्ययन ने कई ऐसी बात बोली, जिन्हें सुनने के बाद लोग दंग रह गए.

अध्ययन- पब्लिसीटी स्टंट के लिए कभी कुछ नहीं किया

आपको बता दें कि कंगना रनौत (Kangana Ranaut) संग अपने ब्रेकअप के बाद अध्ययन सुमन (Adhyayan Suman Interview) ने एक्ट्रेस पर कई गंभीर आरोप लगाए थे, जिसपर बाद में काफी विवाद हुआ था. हालांकि अब एक बार फिर अध्ययन ने कंगना के साथ उनके रिश्ते पर खुलकर बात की है.

मीडिया को दिए एक इंटरव्यू में अध्ययन सुमन (Adhyayan Suman Interview) ने कहा, ‘इस रिश्ते के बारे में मैंने वैसे ही बात की थी जैसा कि कोई आम व्यक्ति करता है. मैंने उस समय इस बात का जिक्र किया था जब लोग मेरे पक्ष के बारे में नहीं जानते थे. मुझे बस एक बार इस बारे में बात करनी थी, लेकिन मैंने कोई प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं रखी और न ही कभी कोई हंगामा मचाया कि मेरे साथ क्या हुआ?’ आगे उन्होंने कहा कि, उन्होंने पब्लिसीटी स्टंट के लिए कभी कुछ नहीं किया था. वो बस ये चाहते थे कि लोग उनके पक्ष के बारे में भी जाने.

अध्ययन को किया गया था ट्रोल

आगे अध्ययन सुमन (Adhyayan Suman Interview) ने कहा, ‘इससे मेरे करियर पर क्या फर्क पड़ता है? क्योंकि आपको काम आपके अफेयर के कारण नहीं, बल्कि आपकी प्रतिभा की वजह से मिलता है. बावजूद इसके तब लोगों ने मुझे सोशल मीडिया पर जमकर ट्रोल किया था लेकिन जब मैंने उन्हें अपने पक्ष के बारे में बताया तो सभी ने मुझ से माफी मांगी.’

आपको बता दे कि एक्टर अध्ययन सुमन ने कई बड़ी फिल्मों में काम किया है. जैसे कि हाल-ए-दिल और राज आदि.

कमीशन- भाग 2

उस के बाद मम्मी फिर किसी आकाशवाणी या दूरदर्शन केंद्र पर नहीं गईं. मैं उन दिनों यही कोई 10-11 साल की थी. उस वक्त तो ज्यादा कुछ समझ नहीं पाई थी लेकिन जैसेजैसे बड़ी होती गई, बात समझ में आती गई. मम्मी के लिए मेरे मन में बहुत दुख था. मम्मी कितनी अच्छी वक्ता थीं कि बता नहीं सकती. एक तो कुछ उन की जल्दबाजी और दूसरे वहां के ऐसे माहौल के कारण एक प्रतिभा अंदर ही अंदर दब कर रह गई.

कहते हैं न कि एक कलाकार की कला को यदि बाहर निकलने का मौका न मिले तो वह दिल ही दिल में जिस तरह दम तोड़ती है, उस का अवसाद, उस की कुंठा कलाकार को कहीं का नहीं छोड़ती. मम्मी ने भी उस घटना को दिल से लगा लिया था. कुछ दिन तो वह काफी बीमार रहीं फिर पापा के अपनत्व और स्नेह से किसी तरह जिंदगी में लौट पाईं और पुन: लेखन में लग गईं. मम्मी के ये गुण मुझ में भी आ गए थे. मेरा भी लेखन वगैरह के प्रति झुकाव समय के साथ बढ़ता ही चला गया. साथ ही एक अच्छे वक्ता के गुणों से भी स्कूल के दिनों से ही मालामाल थी. वादविवाद प्रतियोगिता हो, ग्रुप डिस्कशंस हों या कुछ और, सदा जीत कर ही आती थी. मगर इस से पहले कि मैं इस फील्ड में अपना कैरियर तलाशती, ग्रेजुएशन के साथ ही पापा के ही एक खास मित्र के लड़के, जोकि मर्चेंट नेवी में था, ने एक पार्टी में मुझे पसंद कर लिया और बस चट मंगनी, पट ब्याह हो कर बात दिल की दिल में ही रह गई.

इस के बाद अभिमन्यु के साथ 4-5 साल मैं शिप पर ही रहती रही. वहीं मेरी बेटी हीरामणि का भी जन्म हुआ. यों तो डिलीवरी के लिए मैं मम्मीपापा के पास मुंबई आ गई थी, मगर हीरामणि के कुछ बड़ा होने के बाद पुन: अभिमन्यु के पास शिप पर ही चली गई थी.

अब तक तो सब ठीकठाक चलता रहा, लेकिन अब बेटी के स्कूल आदि शुरू होने को थे, सो शिप पर इधरउधर रहना मुमकिन नहीं था. इस बार यह घर अभिमन्यु ने हमारे लिए खरीद दिया था ताकि मम्मीपापा का भी साथ मिलता रहे. वे लोग भी यहीं मुंबई में थे. हीरामणि की पढ़ाई बेरोकटोक चलती रहे, ऐसा प्रयास था. अब अभिमन्यु तो सिर्फ छुट्टियों में ही घर आ सकते थे न. अब की जब 9 महीने का शिपिंग कंपनी का अपना कांट्रेक्ट पूरा कर के हम लोग आए तो 3 महीने की पूरी छुट्टियां घर तलाशने और उसे सेट करने में ही निकल गई थीं.

घर वाकई बहुत खूबसूरत मिल गया था. मकान मालिक की पत्नी का देहांत कुछ समय पहले हो गया था. उन के एक बेटा था, जो अमेरिका में ही शादी कर के बस गया था. उन्हें अब इतने बड़े घर की जरूरत ही नहीं थी सो इसे हमें सेल कर दिया. अपने लिए सिर्फ एक कमरा रखा, जिस में अटैच्ड बाथरूम वगैरह था. इस से ज्यादा उन्हें चाहिए ही नहीं था. थोड़े ही दिनों में वे हम से खुल गए थे. हम भी उन्हें घर के एक बुजुर्ग सा ही मान देने लगे थे. हीरामणि का दाखिला भी अच्छे स्कूल में हो गया था. अभिमन्यु सब तरह से संतुष्ट हो कर अपनी ड्यूटी पर चले गए. उन के जाने के बाद तो अंकल और अपने लगने लगे थे. वे मुझे और हीरामणि को अपना बच्चा ही समझते थे. हीरामणि तो उन्हें दादाजी भी कहने लगी थी. बच्चे तो वैसे भी कोमल मन और कोमल भावनाओं वाले होते हैं, जहां प्यार और स्नेह देखा, बस वहीं के हो कर रह गए.

पहले अंकल ने टिफिन भेजने वाली लेडी से कांट्रेक्ट कर रखा था. दोनों समय का खानापीना वह ही पैक कर के भेज देती थी. नाश्ते में अंकल सिर्फ फल और टोस्ट लेते थे. उन की बेरंग सी जिंदगी देख कर कभीकभी बुढ़ापे से डर लगने लगता था. कितना भयानक होता है न बुढ़ापे का यह अकेलापन.

थोड़े दिनों में जब दिल से दिल जुड़े और अपनत्व की एक डोर बंधी तो मैं ने उन का बाहर से वह टिफिन बंद करवा कर अपने साथ ही उन का भी खाना बनाने लगी. अब हम एकदूसरे के पूरक से हो गए थे. बिना अभिमन्यु के हमें भी उन से एक बड़े के साथ होने की फीलिंग होती थी और उन्हें भी हम से एक परिवार का बोध होता.

इसी बीच बातोंबातों में एक दिन पता चला कि अंकल कभी आकाशवाणी केंद्र में एक अच्छे ओहदे पर हुआ करते थे. पता नहीं क्यों उन्होंने समय से पहले ही वहां से रिटायरमेंट ले लिया था. शायद उन्हें नौकरी करने की कोई जरूरत नहीं थी या फिर वहां के काम से बोर हो गए थे. खैर, जो भी हो, मैं तो बस तब से ही उन के पीछे पड़ गई थी कि मेरा भी कभीकभी कुछ आकाशवाणी में प्रोग्राम वगैरह करवा दें. उन की तो काफी लोगों से जानपहचान होगी. तब उन्होंने बताया कि वह यू.पी. के एक छोटे से आकाशवाणी केंद्र में थे. अब तो छोड़े हुए भी उन्हें काफी समय हो गया, कोई जानपहचान वाला मिलेगा भी या नहीं, लेकिन मैं थी कि बस लगी ही रही उन के पीछे.

उन्होंने मुझे बहुत समझाया कि इन जगहों पर असली टैलेंट की कोई कद्र नहीं होती. बस, सब अपनेअपने सगेसंबंधियों और जानपहचान वालों को मौका देते रहते हैं और कमीशन के नाम पर उन्हें भी नहीं बख्शते. वे अपनी कहते रहे तो मैं भी बस उन से यही कहती रही, ‘‘अंकल, आज के समय में यह कोई बड़ी बात थोड़े ही है और कमीशन बताइए अंकल कि कहां नहीं है. मकान खरीदो तो प्रोपर्टी डीलर कमीशन लेता है, सरकारी आफिस में कोई टेंडर निकलवाना हो तो अफसरों को कमीशन देना पड़ता है, यहां तक कि पोस्टआफिस में भी किसी एजेंट के द्वारा कोई पालिसी खरीदो तो जहां उसे सरकार कमीशन देती है, तो उस से कुछ कमीशन पालिसीधारक को भी मिलता है. और भी क्याक्या गिनाऊं, हर जगह यही हाल है अंकल, जिस को जहां जरा सा भी मौका मिलता है वह उसे हर हाल में कैश करता ही है, तो अगर यहां भी यही हाल है तो उस में बुरा ही क्या है.

‘‘ठीक है, वह आप को, आप के टैलेंट को, आप के हुनर को बाहर निकलने का मौका दे कर बदले में अगर कुछ ले रहे हैं तो ठीक है न, फिर इस में इतना हाईपर होने की क्या बात है. उन का हक बनता है भई. गिव एंड टेक का जमाना है सीधा- सीधा. इस हाथ दो तो उस हाथ लो. इन सब से बड़ी बात तो यह है अंकल कि आप की आवाज इतने लोग सुन रहे हैं, इस से बड़ी बात और क्या हो सकती है.’’

मेरी बात सुन कर अंकल हैरत से मुझे देखते हुए बोले, ‘‘काफी प्रैक्टिकल और सुलझी हुई हो बेटी तुम. काश, उस वक्त भी तुम्हारे जैसी सोच वाले लोग होते…’’ इतना कह कर अंकल उदास हो गए तो मैं ने पूछ ही लिया, ‘‘अंकल, बुरा न मानें तो मुझे बताइए कि आप ने आकाशवाणी की इतनी मजेदार नौकरी क्यों छोड़ दी?’’

इस से ज्यादा न उन्होंने कुछ बताया और न ही मैं ने पूछा. पता नहीं क्यों दिल में ऐसा आभास हो रहा था कि कहीं मम्मी और अंकल एक ही इश्यू से जुड़े तो नहीं हैं.

मम्मी भी न…बस, अरे, उस डायरेक्टर के मुंह पर चेक फेंकने का क्या फायदा हुआ आखिर. उन का ही तो नुकसान हुआ न. इस घटना के बाद उन की रचनात्मक प्रवृत्तियां खत्म सी हो गई थीं. उन का मन ही नहीं करता था कुछ. उन की अपनी एक खास पहचान बन गई थी. सब खत्म कर दिया अपनी ऐंठ और नासमझी में. मैं तो इसे नासमझी ही कहूंगी.

कांट्रेक्ट लेटर हाथ में आते ही कल जब उन्हें फोन पर बताया तो सब से पहले वे बिगड़ने लगीं कि दीया, तुम ने मेरी बात नहीं मानी आखिर. कहा था न कि इन सब झंझटों से दूर रहना, मगर…खैर, अब जा ही रही हो तो ध्यान रखना, कोई तुम्हें जरा सा भी बेवकूफ बनाने की कोशिश करे तुम उलटे पैर लौट आना. मैं ने तो सुना था कि मुझे परेशान करने वाले उस डायरेक्टर ने तो नौकरी ही छोड़ दी थी.’’

अब मुझे बिलकुल भी शक नहीं था कि अंकल ही वह शख्स थे जिन्होंने मम्मी की वजह से नौकरी छोड़ दी थी.

खैर, अब उन से भी क्या कहती. मम्मी थीं वह मेरी. यही कहा बस, ‘‘मम्मी, मैं आप की बात का ध्यान रखूंगी. आप परेशान मत होइए.’’

मगर मन ही मन मैं ने सोच लिया था कि किसी की भी नहीं सुनूंगी. समय की जो डिमांड होगी वही करूंगी और फिर मैं कोई पैसा कमाने या कोई इश्यू खड़ा करने नहीं जा रही हूं वहां. पैसा तो अभिमन्यु ही मर्चेंट नेवी में खूब कमा लेते हैं. मुझे तो उन के पीछे बस अपना थोड़ा सा समय रचनात्मक कार्यों में लगाना है. हीरामणि के साथ मैं कहीं नौकरी कर नहीं सकती, अभिमन्यु के पीछे वह मेरी जिम्मेदारी है. बस, कभीकभी आकाश- वाणी पर कार्यक्रम मिलते रहें, लेखन चलता रहे…और इस से ज्यादा चाहिए भी क्या. समय इधरउधर क्लब, किट्टी पार्टी में गंवाने से क्या हासिल.

आकाशवाणी पहुंची तो सब से पहले उन महोदय से मिली जिन से अंकल ने मुलाकात करवाई थी. उन्होंने खुद चल कर मेरी वार्ता की रिकार्डिंग करवाई और मेरे अच्छा बोलने पर मुझे बहुत सराहा भी. मुझे तो वे बड़े अच्छे लगे. उम्र यही कोई 40 के आसपास होगी. रिकार्डिंग के बाद वे मुझे अपने केबिन में ले गए. मेरे लिए चाय भी मंगवाई, शायद इसलिए कि अंकल को जानते थे. अंकल ने मेरे सामने ही उन से कहा था कि मेरी बेटी जैसी ही है. इस का ध्यान रखना.

ऐसे नहीं चलता काम- भाग 2

अचानक मुझे होश हुआ, तो जीप की तरफ देखा. वह एक तरफ पलटी पड़ी थी. वहीं स्टेयरिंग के सहारे अरुण बेहोश पड़ा था. मुंह और माथे से खून बह रहा था. उसे तुरंत सीधा किया और चोट की जगह को कस कर अपनी हथेली से दबा दी.

शोर सुन कर कुछ स्थानीय लोग जमा हो गए थे. सूखी लकड़ियां, फलसब्जी, बांस की कोंपलें आदि लाने, खेती का काम और शिकार करने स्थानीय लोग प्रतिदिन जंगल का रुख करते ही हैं. रास्ते में उन्होंने जो जीप को दुर्घटनाग्रस्त होते देखा, तो अपनी बास्केट-थैले और भाला-दाव एवं दूसरे सामान आदि फेंकफांक कर इधर ही दौड़े चले आए थे. अपनी स्थानीय आओ भाषा में जाने क्याकुछ कह रहे थे, जो मेरी समझ के बाहर था. इतना अवश्य था कि वे हमारी सहायता करने और अस्पताल पहुंचाने की बात कर रहे थे. मुझे भी चोटें आई थीं और मैं मूर्च्छित सी हो रही थी कि एक नागा युवती ने मुझे सहारा दिया. एक नागा युवक ने अरुण के माथे की चोट पर अपना रंगीन नागा शौल बांध दी.

अचानक मैं अचेत हो गई. फिर तो कुछ याद न रहा. बस, इतना स्मरण भर रहा कि एक बुजुर्ग नागा किसी पौधे की पत्तियां तोड़ लाया था और उसे अपनी हथेलियों पर मसल कर उस की बूंदें अरुण के मुंह में टपका रहा था. एक दूसरी युवती उस के चेहरे पर पानी की छींटे मार रही थी.

आंख खुली तो मैं एकबारगी ही घबरा कर उठ बैठी. अरे, यह मैं कहां और कैसे आ गई. अरुण कहां, किस हालत में है, मन में सैकड़ों सवाल कुलबुलाने लगे थे. विपत्ति के वक्त व्यक्ति ऐसी ही अनेक आशंकाओं से घिर जाता है.

ठीक पहाड़ की चोटी पर बसा कोई गांव था, जहां वे लोग हमें उठा लाए थे. सामने ही सूर्य के तीखे प्रकाश से एक भव्य चर्च का क्रौस चमक रहा था. मैं एक झोंपड़ी में एक चारपाई पर पड़ी थी. मगर अरुण कहां है? गांव के अनेक लोग मुझे घेरे आओ भाषा में जाने क्या बातें कर रहे थे. और जैसी की इधर आदत है, बीचबीच में उन के ठहाके भी गूंज जाते थे. अधिसंख्य बुजुर्ग नागा स्त्री-पुरुष ही थे. उन में से एक नागा बुजुर्ग आगे बढ़ कर टूटीफूटी हिंदी में बोला- “अब कैसा है, बेटी?”

“मेरे पति कहां हैं,” मैं चीखी. अचानक मुझे एहसास हुआ कि शायद ये हिंदी न समझें. सो, इंग्लिश में बोली, “व्हेयर इज माई हसबैंड?”

“हम थोड़ी हिंदी जानता है,” वही बुढ़ा स्नेहसिक्त आवाज में बोला, “तुम्हारा आदमी घर के अंदर है. उसे बहुत चोट लगा. बहुत खून बहा. तुम लोग कहां से आता था. कहां रहता है?”

“हम मोकोकचुंग में रहते हैं. मेरे पति चुचुइमलांग के अपने एक मित्र से मिलने के लिए निकले थे. मगर गाड़ी का ब्रेक खराब हो गया और ऐक्सिडैंट हो गया,” घबराए स्वर में मैं बोली, “अभी वे कहां हैं. मैं उन्हें देखना चाहती हूं.”

बुजुर्ग ने अपनी आओ भाषा में बुढ़िया से कुछ कहा. बुढ़ी महिला मुझ से आओ भाषा में ही कुछ कहते हुए अंदर ले गई. काफी पुरानी और गंदी सी झोंपड़ी थी यह. बांस की चटाई बुन कर इस झोंपड़ी की दीवारें तैयार की गई थीं. ताड़ के पत्तों सरीखे बड़ेबड़े पत्तों से ऊपर छत का छप्पर छाया गया था. फर्श मजबूत लकड़ियों का था. और यह झोंपड़ी जमीन से लगभग हाथभर ऊपर मजबूत लकड़ी के खंभों पर टिकी थी. नागालैंड की ग्रामीण रिहाइश आमतौर पर ऐसी ही होती है.

कहने को यह झोंपड़ी थी मगर थी बहुत बड़ी. बांस की चटाइयों का घेरा दे कर 2 कमरे बने हुए थे. उसी में से एक कमरे में एक चौकी पर अरुण लेटा था. उस का चेहरा एकदम निस्तेज हो गया था. सांस धौंकनी की तरह चल रही थी.

मैं उसे देख कर फूट कर रो पड़ी. हमारे पीछे कुछ और लोग चले आए थे. वे आगे बढ़ आए और मुझे हिंदी, इंग्लिश और आओ भाषा में कुछकुछ कह कर दिलासा देने लगे. बूढ़ी महिला ने फिर आओ भाषा में मुझ से कुछ कहा. छाती पर क्रौस का निशान बनाया और मुझे वापस बाहर ले आई.

“यहां से चुचुइमलांग कितनी दूर है? न हो, तो इन के मित्र हमसेन आओ को बुला दें.” मैं सुबकते हुए बोली, “वे शायद कुछ मदद कर पाएं.”

वे बोले, “तुम चिंता मत करो. चुचुइमलांग यहां से दसेक मील दूर है. तुम्हारे उस परिचित फ्रैंड को भी हम खबर कर देगा. तुम्हारा हसबैंड को बहुत चोट लगा. मगर डाक्टर ने बताया कि वह खतरे से बाहर है. वह अच्छा हो जाएगा.”

“मगर यहां क्या व्यवस्था हो सकती है?” मैं बोली, “उन्हें अस्पताल पहुंचाना बहुत जरूरी है. अगर आप उस की व्यवस्था कर देते तो…”

“चर्च के पास ही तो एक हौस्पिटल है,” बुजुर्ग मेरी बात काटते हुए बोले, “वहीं तो हम सब से पहले तुम्हारे हसबैंड को ले गया था. डाक्टर ने चैक किया और दवाएं लिखीं. कंपाउंडर ने फर्स्ट एड दिया. लेकिन वह बोल रहा था कि हालत ठीक नहीं. बौडी से खून ज्यादा निकल गया है. खून चढ़ाना होगा. हम उसी की व्यवस्था में लगा है.”

बुढ़े ने बुढ़िया से कुछ कहा. वह अंदर चली गई थी. मैं अब कुछ सहज होने लगी थी. फिर भी मन में कुछ आशंका थी. अपरिचित लोग, अनजान जगह. हालांकि बातव्यवहार से कहींकुछ अजीब नहीं लग रहा था. मगर ये अभावग्रस्त लोग हमारी क्या मदद कर पाएंगे, यही विचार मन में घुमड़ रहा था. यह भी कि ये लोग हमारे बारे में क्या सोच रहे होंगे. इतने में बुढ़िया आई और जाने क्या कहा कि बूढ़ा उठते हुए बोला, “चलो बेटा, चाय पीते हैं.”

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