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क्यों सताते हो तुम…

रात को सफेद बिस्तर पर

बेफिक्र बंद करती हूं अपनी आंखें

खोती हूं सुखद सपनों में

जिस में गांठ होती नहीं उलझने की

कोई शिकवा नहीं, गिला नहीं

गोते लगाती हूं मैं सपनों में

मिलते हैं कुछ मीठे एहसास

 

तभी तुम झकझोर देते हो मुझे

खींच कर अपनी ओर

एहसास दिलाते हो पौरुषता का

छिन्नभिन्न कर मेरे सपनों को

वास्तविकता का आभास कराते हो तुम

वर्षों से क्यों सताते हो तुम.

– सुनिता सिंह

फरियाद

दिल में फरियाद ले कर

आया हूं मैं

भूली हुई यादों को फिर से

जगाने आया हूं मैं

जीने को तो जी रहा हूं

मर भी तो नहीं सकता

मेरे जीने की वजह तुम हो

ये बताने आया हूं मैं

जिगर पर पत्थर रख कर

और गिलेशिकवे भुला कर

आज फिर तुम से मिलने आया हूं मैं

 

और मैं भुला नहीं पाया हूं

एक पल भी तुम्हें

उन बीते हुए पलों को

भुलाने आया हूं मैं

और तुम्हारे साथ रह कर

कुछ पलों को ही सही

जीने आया हूं मैं.

– शिव कुमार

जख्म

वक्त की आंधी ने

सुनामी को धीमा कर दिया

बचपन, लड़कपन

तेज रफ्तार सा गुजर गया

आज वक्त थमता हुआ

नजर आ रहा है

बाग के कोने में रोती

लड़की का जख्म चीख रहा है

अपनों के हाथों मरती

ममता का गला घुट रहा है

खुशी इस तरह धूमिल हुई कि

रेत पर पड़े पत्थर चुभने लगे

 

रेगिस्तान में खड़ा

कीकर का पेड़ भी दम तोड़ने लगा

जमीं बंजर हुई गरम लू से

जल कर राख सी खड़ी

खाकी वर्दी वाले नाकाम नजर आए

अब खौलता नहीं खून उन का

आंधी को रोकने के लिए?

उन का खून सूख चुका है

इस रेगिस्तान की तरह

बंजर जमीं पर खड़े

कंकाल के ढांचे की तरह

कौन जन्म लेगा इन कत्लों की रफ्तार को

कम करने के लिए

गाड़ने से इन कातिलों को

आए ऐसा समुद्रीसुनामी तूफान

जो बिखेरे फूल बगीचों में

दूर तक नजरें डालो तो इंसानियत दिखे

उस लड़की के चेहरे पर

अनबुझी मुस्कराहट खिले

तो मिलेगी पनाह उस जलाई गई जान को

जो भटक रही अपनी मां का आंचल छोड़ बहुत दर्द होता है

आंखों को स्याह होते देख कर

 

बहुत दर्द होता है, उस मां की आंख से

खून टपकते हुए देख कर

क्या वक्त करवट लेगा,

नारी के दम पर थरथराएंगे वहशी दरिंदे

नारी का रौद्र रूप देख कर

समय पलटेगा, हाथ बांध कर तो देखो

नामोनिशान मिटा दो दरिंदों का

जख्म पर मरहम भी लगाएगी

और इंतजार भी करेगी नारी

जख्म के सूखने का…

– नीलम

 

किसिंग सीन से परहेज है -बिपाशा बसु

बौलीवुड की हौट, ग्लैमरस, सैक्सी कही जाने वाली अदाकारा बिपाशा बसु एक के बाद एक फिल्मों में आ रही हैं. अभिनय कैरियर को संवारते हुए अपनी निजी जिंदगी को सही जीवनसाथी से खूबसूरत बनाने की बिपाशा कितनी चाह रखती हैं, बता रहे हैं शांतिस्वरूप त्रिपाठी.

बिपाशा बसु सही माने में एक बोल्ड ऐक्ट्रैस हैं. जौन अब्राहम के साथ 10 साल पुराना ‘लिव इन रिलेशनशिप’ का रिश्ता खत्म होने के बावजूद बौलीवुड की हौट व ग्लैमरस अदाकारा बिपाशा बसु के चेहरे पर कभी कोई शिकन नजर नहीं आई. एक तरफ वे अपने अभिनय कैरियर को संवारने में लगी हुई हैं, तो दूसरी तरफ जौन अब्राहम से अलग होने का दावा कर रही हैं कि उन्हें प्रेम की तलाश है. इतना ही नहीं वे शादी करने के लिए एक अच्छे लड़के की तलाश कर रही हैं. कैरियर को संवारने के लिए निजी जिंदगी में डरपोक होते हुए भी उन्होंने ‘राज’, ‘राज 3’ के बाद अब सुपर्ण वर्मा के निर्देशन में हौरर फिल्म ‘आत्मा’ में अभिनय किया है.

आप खुद को बहुत डरपोक बताती हैं पर आप तो एक के बाद एक हौरर फिल्मों में नजर आती हैं?

जब कुछ अलग करने का मौका मिल रहा हो, कलाकार की भूख पूरी करने का अवसर मिल रहा हो, तो डर की कौन परवा करता है? फिर हौरर फिल्म हो या कुछ अन्य, काम करना ही करना है. वैसे तो मैं ‘राज 3’ के दौरान भी बहुत डरी थी. ‘आत्मा’ की शूटिंग के समय भी मैं बहुत डरी थी. पर मेरे इस डर का कोई इलाज नहीं है. सच कहूं तो मुझे बचपन से ही हौरर फिल्मों से काफी डर लगता रहा है. फिल्म ‘आत्मा’ में अभिनय करने की मूल वजह इस की पटकथा और बेहतरीन स्क्रिप्ट है. यह फिल्म इमोशनल कहानी है और एक कलाकार की मेरी जो भूख है, उस भूख के चलते भी मैं ने यह फिल्म की है. मैं हमेशा उन्हीं फिल्मों में अभिनय करना पसंद करती हूं जिन में मनोरंजन के साथसाथ, अभिनेत्री के रूप में कुछ करने का मौका मिल रहा हो. जैसा कि इस फिल्म में मुझे मिला.

लोग कहते हैं कि बिपाशा बसु तो हौरर फिल्मों का चेहरा बन गई हैं?

मुझे भी लगता है कि मैं डरावनी फिल्मों का चेहरा बन चुकी हूं. ‘राज’ व ‘राज 3’ के बाद ‘आत्मा’ में मैं ने ज्यादा स्ट्रौंग किरदार निभाया है. मुझे हर फिल्म में हमेशा चुनौतीपूर्ण किरदार निभाने का मौका मिला. इसलिए मुझे ‘फेस औफ फियर’ कहे जाने पर बुरा नहीं लगता.

आप को और किन चीजों से डर लगता है?

मुझे छिपकली से बहुत डर लगता है. मिठाई खाने से डरती हूं कि कहीं मोटी न हो जाऊं.

आप को फिल्मों में बिकनी पहनने से कभी परहेज नहीं रहा. पर किसिंग सीन से हमेशा परहेज रहा. ऐसा क्यों?

किसिंग सीन और बिकनी पहनना दोनों में जमीनआसमान का अंतर है. इतना ही नहीं प्रेमपूर्ण दृश्यों को निभाना और किसिंग करना दोनों अलगअलग बातें हैं. प्रेमपूर्ण दृश्यों को निभाते समय हम चीटिंग करते हैं. पर किसिंग सीन में ऐसा संभव नहीं है. फिल्म ‘बचना ए हसीनो’ में मैं ने रणबीर कपूर के साथ किसिंग सीन किया था. उस के बाद पूरे 1 माह तक मैं सो नहीं पाई. तो ऐसा काम क्यों किया जाए. जबकि मैं ने इस फिल्म की शूटिंग के दौरान आदित्य चोपड़ा से कहा था कि वे किसिंग सीन को हटा दें पर वे माने नहीं.

पर आप को सैक्सी कहलाने में कभी कोई एतराज नहीं हुआ?

मुझे सैक्सी कहलाने से कभी कोई समस्या नहीं हुई. जब से मैं ने बौलीवुड में कदम रखा है तब से लोग मुझे ‘हौट’ या ‘सैक्सी’ ही कहते आए हैं. एक औरत होने की वजह से मैं किसी भी तरह के नामों से परहेज नहीं करती.

आप खुद को कितना बेहतरीन कलाकार मानती हैं?

मैं ने बहुत कम उम्र में कैरियर की शुरुआत की थी. तब से ले कर अब तक मैं फिल्मों व अभिनय के बारे में काफी कुछ समझ चुकी हूं. अब मैं एक बेहतरीन अभिनेत्री बन चुकी हूं.

लोग कहते हैं कि आप बहुत ही ज्यादा प्रोफैशनल हैं?

मैं चाहती हूं कि लोग अपना काम पूरी ईमानदारी के साथ और बेहतरीन तरीके से करें. मैं खुद प्रोफैशनल कलाकार हूं पर  हिटलर नहीं हूं.

अपने स्वभाव को ले कर आप क्या कहेंगी?

सच कहूं तो मैं बहुत खुले विचारों वाली औरत हूं. अतीत की कुछ चीजों से हम अपने वर्तमान को समृद्ध करने की कोशिश करते हैं. कई बार हम भटक भी जाते हैं. पर फिर हम सही रास्ते पर आ जाते हैं.

कहा जाता है कि आप सैट पर निर्देशक को तमाम सलाह देती रहती हैं?

मेरा मानना है कि कलाकार व निर्देशक के बीच अच्छा तालमेल होना चाहिए. ऐसा तालमेल जिस से कलाकार और निर्देशक आपस में अपनेअपने विचारों का आदानप्रदान कर सकें. इस से फिल्म बेहतर बनती है.

आप की नजर में प्यार के माने?

मेरे लिए प्यार ही सबकुछ है. आज की तारीख में मेरी पहली प्राथमिकता प्यार है. मुझे सिर्फ एक अच्छे जीवनसाथी की ही तलाश नहीं है बल्कि मुझे अपने परिवार के हर सदस्य और हर सह कलाकार से प्यार की चाहत है. फिलहाल मैं अकेली हूं. हर किसी के आकर्षण का केंद्र बन कर अच्छा लग रहा है.

इन दिनों आप किस के साथ अपने रिश्तों को आगे बढ़ाने के लिए सोच रही हैं?

सच यह है कि मैं अपने रिश्तों की बातें सुनसुन कर थक चुकी हूं. लोगों ने अब तक तमाम कलाकारों के साथ मेरे रिश्ते जोड़े हैं. जबकि सभी को पता है कि मैं ने कभी भी अपने किसी रिश्ते को छिपाया नहीं है. किसी से प्यार करना तो जिंदगी का एक हिस्सा है पर हर किसी के लिए एक सही इंसान की तलाश बहुत जरूरी है. कई बार हमें सही इंसान मिल जाता है, पर चीजें आगे चल कर बिगड़ जाती हैं.

आप का जीवनसाथी कैसा हो?

खूबसूरत, चुस्तदुरुस्त, एक अच्छी जीवन शैली, कपड़े पहनने का अच्छा सलीका हो और व्यवहारकुशल हो.

लगता है कि जौन अब्राहम के साथ रिश्ते खत्म होने के बाद आप ज्यादा खुश हैं?

मैं ने पहले ही कहा कि मैं किसी रिश्ते के लिए इंतजार करने की बजाय आगे बढ़ने में यकीन करती हूं. मैं बहुत आगे निकल चुकी हूं. मैं अपने निजी जीवन में बहुत खुश हूं.

धार्मिक संकीर्णता से सिकुड़ती कौम

देश में सब से समृद्ध, साक्षर, आधुनिक मिजाज और आर्थिक रुतबे के बावजूद पारसी समुदाय आबादी के लिहाज से सिमटता जा रहा है. देश के शीर्ष उद्योगपतियों में शुमार इस समुदाय के लोगों ने किस तरह से धार्मिक संकीर्णता, धर्मशीलता और दकियानूसी सोच के चलते खुद के अस्तित्व को संकट में डाल दिया है, बता रही हैं मीरा राय.

आमतौर पर किसी समुदाय पर उस के विलुप्त हो जाने का संकट तब खड़ा होता है जब या तो उस के प्राकृतिक वास यानी हैबिटैट पर किसी तरह का संकट मंडरा रहा हो या वह किसी भयानक कबीलाई युद्ध में उलझ गया हो और अपने दुश्मन से बहुत कमजोर पड़ रहा हो या फिर किसी समुदाय की आर्थिक स्थिति इतनी ज्यादा बदहाल हो गई हो कि अपने सामाजिक वजूद को बचाए रखने के लिए वह अपनी जातीय पहचान तक छोड़ने के लिए तैयार हो.

पारसियों के साथ ऐसा कुछ भी नहीं है. वह देश का सब से समृद्ध जातीय समुदाय है. सब से ज्यादा साक्षरता दर इसी समुदाय की है. इस समुदाय का आर्थिक रुतबा भी देश में सब से ज्यादा मजबूत है. बावजूद इस के, अगर पारसी समुदाय अपने अस्तित्व को खोने की ओर लगातार बढ़ रहा है तो इस की वजह है, इस की धार्मिक संकीर्णता. समृद्ध पारसी समुदाय धार्मिक विचारों और सामाजिक सोच के लिहाज से बेहद पोंगापंथी है. जिस नस्लीय श्रेष्ठता को यूरोप ने दूसरे विश्वयुद्ध में छोड़ दिया था और जिस नस्लीय विद्वेष के चलते खुद पारसियों को 10 शताब्दी पहले अपनी मातृभूमि छोड़नी पड़ी थी वही पारसी समुदाय आज इस संबंध में कट्टरपंथी शीर्षासन कर रहा है.

देश के शीर्ष उद्योगपतियों में शामिल टाटा और गोदरेज समूह में क्या समानता है? यही कि इन दोनों उद्योग समूहों के मालिक पारसी हैं. देश की जनसंख्या के अनुपात में अल्प से अल्पतम समूह में शामिल पारसी अपने रुतबे के लिहाज से लगभग सभी कौमों पर भारी पड़ते हैं. लेकिन आखिर क्या बात है कि पारसी तमाम आर्थिक, सामाजिक सुखसुविधाओं से संपन्न होने के बावजूद लगातार कम होते जा रहे हैं?

ऐसा नहीं है कि ये जनसंख्या नियंत्रण अभियान में सब से आगे रहते हों. इस की वजह अगर कुछ है तो वह है इन की धार्मिक संकीर्णता. देश में पारसी एकमात्र ऐसा धर्म है जिस में किसी का धर्मांतरण नहीं हो सकता है. यानी आप पारसी नहीं बन सकते. आप जन्म से ही पारसी हो सकते हैं. हालांकि जन्म से ही हिंदू भी होते हैं, लेकिन हिंदू धर्म में कोई भी आ सकता है. जबकि पारसी न सिर्फ किसी दूसरे को पारसी धर्म में प्रवेश की इजाजत देता है बल्कि किसी पारसी के एक बार अपने धर्म से बाहर चले जाने यानी शादी कर लेने के बाद उसे फिर से पारसी धर्म में शामिल भी नहीं करता.

पारसियों में यह धार्मिक और शुद्ध नस्ल की अंधविश्वासी जिद इतनी कट्टर है कि हजारों की तादाद में पारसी बिना शादी के हैं. पारसियों में यह कट्टर प्रतिबद्धता है कि आपस में ही यानी पारसियों में ही शादी तय करनी होगी. ऐसा न करने वालों को अपने जाति समूह से वंचित हो जाना पड़ता है.

मैडिकल साइंस कहती है कि नस्ल की उन्नति के लिए अंतर्जातीय शादियां अनुकूल होती हैं. इस लिहाज से देखें तो अंतर्धार्मिक शादियां नस्ल की और ज्यादा श्रेष्ठता के लिए बेहतर होती हैं. लेकिन पारसियों में यह विश्वास बैठा है कि अगर कोई गैर पारसी उन के समूह में प्रवेश कर जाएगा तो शुद्ध रक्त और नस्ल की उन की अवधारणा चूर हो जाएगी. आज के इस भूमंडलीय दौर में यह सोच बेहद दकियानूसी है. ऐसे में आर्थिक उन्नति करने वाली पारसी कौम इस तरह अंधविश्वास का शिकार रहेगी तो निरंतर सिकुड़ेगी ही.

10 शताब्दी पहले पारसी ईरान से भारत आए थे. ये जोरैष्ट्रियन धर्म को मानते हैं. इसलिए इन्हें जोरैष्ट्रियन समुदाय भी कहते हैं. कभी ईरान से भारत आने वाले पारसियों ने हिंदुस्तान के निर्माण में दिलोजान लगाया है. भारत का सब से छोटा समुदाय होने के बावजूद पारसियों का योगदान इस देश के निर्माण में सब से ज्यादा है. आजादी की लड़ाई में जहां दादाभाई नौरोजी से ले कर भीकाजी कामा तक ने अपना सर्वस्व न्यौछावर किया वहीं आजादी के बाद

भारत के आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, वैज्ञानिक  व अन्य क्षेत्रों में पारसियों ने अप्रतिम योगदान दिया है. देश की पहली महिला प्रधानमंत्री के पति फिरोज गांधी भी पारसी थे. उद्योग की दुनिया में हिंदुस्तान का नाम शिखर तक ले जाने वाले जेआरडी टाटा भी पारसी थे. आज भी भारत का सब से धनी समुदाय पारसी ही है. टाटा परिवार दुनिया के सब से संपन्न परिवारों में गिना जाता है. ‘टाटा’ आज भारत की आर्थिक ताकत का ही नहीं भारतीयता के गौरव का भी पर्याय समझा जाता है. दुनिया के तमाम देशों में टाटा की मौजूदगी का मतलब है, भारत की मौजूदगी.

जब ऐसे संपन्न समुदाय की जनसंख्या घटती है तो सवाल उठता है कि इस के पीछे आखिर कारण क्या है? 2011 की जनगणना के जो प्रारंभिक आंकड़े आए हैं वे भी पारसियों के संबंध में उम्मीद की किरण नहीं दिखाते. पारसी समुदाय में जनसंख्या बढ़ने के बजाय घटने का सिलसिला लगातार जारी है. यह प्रति दशक औसतन 9 फीसदी है.

जनगणना की परंपरा शुरू होने के बाद से आज तक पारसियों की संख्या सब से ज्यादा वर्ष 1940-41 में थी, जब पारसी 1,14,890 थे. इस संख्या में उस क्राउन कालोनी की जनसंख्या भी शामिल थी जिस का एक बड़ा हिस्सा आज की तारीख में पाकिस्तान में है. आजादी के बाद भारत में तुरंत हुई जनगणना में सब से ज्यादा पारसियों की संख्या वर्ष 1951 में 1,11,791 दर्ज हुई.

राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के मुताबिक किसी भी समुदाय की संख्या में घटोतरी के तमाम कारण होते हैं. लेकिन सब से बड़ा कारण है संतानहीनता और दूसरे देशों में पलायन. अगर अब तक पारसियों की आबादी में हुई निरंतर घटोतरी के आंकड़ों के आधार पर भविष्य के नतीजों का अनुमान लगाएं तो ये बड़े भयावह हैं क्योंकि इस प्रक्रिया में वर्ष 2020 तक पारसियों की आबादी घट कर 23 हजार के आसपास रह जाएगी, जो भारत की 2011 की आबादी का 0.00016 प्रतिशत होगी.

ऐसी स्थिति में पारसियों को जनजातियों में यानी ट्राइब्स में शामिल कर दिया जाएगा. पारसियों की आबादी में अप्रत्याशित ढंग से होने वाली इस घटोतरी पर तमाम अध्ययन हुए हैं और सभी अध्ययनों में कई महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष निकल कर सामने आए हैं. एक निष्कर्ष यह भी है कि पारसियों की आबादी में कमी के लिए उन का 20 फीसदी तक विदेश में जा कर बस जाना भी जिम्मेदार है.

सिखों और पंजाबियों से भी पहले इस देश में विदेश जाने का चस्का पारसियों को ही लगा. 70 के दशक तक विदेश में जा कर बसने वाले समुदायों में पारसी पहली कतार में शामिल थे. पारसियों की आबादी में निरंतर कमी का एक बड़ा कारण उन की जन्मदर का धीमा होना भी है. 2001 की जनगणना के मुताबिक 31 फीसदी पारसी 60 साल की उम्र से ज्यादा के थे और 2011 में अनुमान है कि इन की तादाद 38 फीसदी के आसपास पहुंच जाएगी. जाहिर है, 60 साल से ज्यादा की उम्र वालों का जमावड़ा इस समुदाय में हिंदुस्तान के दूसरे समुदायों के मुकाबले सब से ज्यादा है. इसलिए भी पारसियों की आबादी में तेजी से बढ़ोतरी नहीं हो रही है क्योंकि 60 साल के बाद बच्चे पैदा करने की दर व क्षमता लगभग नगण्य रह जाती है.

जिस एक वजह पर पारसी नहीं चाहते कि फोकस किया जाए वह है इन की धार्मिक कट्टरता, जैसा कि   बताया जा चुका है. एक तरफ दुनिया बदल रही है और इस बदलती हुई दुनिया को अगर भारत के संदर्भ में देखें तो खुद पारसियों का इस बदलाव में काफी बड़ा योगदान है, क्योंकि अर्थव्यवस्था की महत्त्वपूर्ण लगाम तो इसी समुदाय के हाथ में है. हैरानी की बात यह है कि जो समुदाय आर्थिक नजरिए से बेहद प्रगतिशील और भूमंडलीय सोच का है, नस्ल और धर्म के मामले में वह उतना ही कट्टरपंथी है. यह अजब विरोधाभास है.

ऐसा नहीं हो सकता कि आप विकास के तमाम आर्थिक फायदे लें और खुद विकास को अपने घर न घुसने दें. हालांकि तमाम बंदिशों, पाबंदियों और कठोरताओं के बावजूद पारसी समुदाय के युवा न सिर्फ दूसरी जातियों में शादी कर रहे हैं बल्कि इस के लिए अपने कट्टरपंथी समाज से बिना झिझक लोहा लेने के लिए भी तैयार हैं. यही कारण है कि तमाम जनसंख्या वृद्धि के चलाए जा रहे अभियानों के बाद भी पारसी समुदाय में जनसंख्या बढ़ने के बजाय घट रही है.

देश के दूसरे समुदायों में जहां 1 हजार पुरुषों के पीछे 927 महिलाएं हैं वहीं पारसियों में पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की संख्या ज्यादा है. यहां 1 हजार पुरुषों के पीछे औसतन 1,050 महिलाएं हैं. लेकिन अगर इस आंकड़े को पारसियों की जनसंख्या के नजरिए से देखें तो खतरनाक भी है क्योंकि पारसियों में बच्चे कम पैदा होने की एक वजह कम पुरुषों का होना भी है. शायद इस वजह से क्योंकि 60 साल या इस से ज्यादा उम्र की महिलाओं की संख्या दूसरे समुदायों के मुकाबले पारसियों में सब से ज्यादा है.

पारसियों में शादी न करने का चलन भी काफी ज्यादा है. मुंबई में जहां पारसियों की पूरी दुनिया में सब से ज्यादा आबादी है, वहां 20 फीसदी पारसी पुरुष शादी नहीं करते और 10 फीसदी पारसी महिलाएं ताउम्र कुंआरी रहती हैं. पारसी समुदाय जानबूझ कर इस बात की पड़ताल नहीं करता कि आखिर उस के यहां शादी से इस कदर मोह क्यों भंग हो रहा है?

दरअसल, शादी से हो रहे मोहभंग का एक कारण समुदाय की कट्टरपंथी सोच है, जो तमाम युवा अपने ऊपर थोपा जाना स्वीकार नहीं करते. वे इतने साहसी भी नहीं होते कि बगावत करें. नतीजतन, वे कुंआरे रह जाते हैं. वनस्पति विज्ञान का नियम भी कहता है कि अगर किसी क्षेत्र में एक ही फसल सालों तक उगाई जाए तो न सिर्फ उस फसल की पैदावार कम हो जाएगी बल्कि धीरेधीरे उस की गुणवत्ता भी छीजने लगेगी और अंत में यह खत्म भी हो सकती है.

2001 में जब देश की औसत साक्षरता दर 64 फीसदी थी तभी पारसियों में साक्षरता दर लगभग 97 फीसदी थी, जो कि अब बढ़ कर 100 फीसदी तक पहुंच गई है. इसलिए यह भी नहीं कहा जा सकता कि इस समुदाय में पढ़ेलिखे लोगों की कमी है. लेकिन इन सब के बावजूद अगर पारसी जनसंख्या की दृष्टि से निरंतर सिकुड़ते जा रहे हैं और विलुप्त होने के कगार पर आ खड़े हुए हैं तो इस में सब से बड़ी वजह इन की धार्मिक संकीर्णता है.

विकास में सब से आगे यह समुदाय जीवन में तमाम जगहों पर काफी दकियानूसी और धर्मभीरुता का परिचय देता है. टाटा जैसे आधुनिक उद्योग घराने ने भी अपने तमाम उद्योग साम्राज्य की एक बड़ी हिस्सेदारी पारसियों के धार्मिक संस्थानों को दे रखी है, जिस से पता यही चलता है कि आधुनिक पूंजी प्रबंधन में भी किस तरह धर्म को घुसेड़ दिया गया है.

अखिलेश की धूमिल होती छवि

उत्तर प्रदेश में जिस जोरशोर और चमकदमक के साथ मुख्यमंत्री की कुरसी पर अखिलेश यादव की ताजपोशी हुई?थी वह चमक 1 साल भी बरकरार नहीं रह पाई. अधूरे वादों और प्रदेश की लचर कानून व्यवस्था किस तरह उन की सियासी राह में रोड़े अटका सकती है, बता रहे हैं शैलेंद्र सिंह.

एक साल पहले उत्तर प्रदेश की जिस  जनता ने समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव को युवा हृदय सम्राट के रूप में जगह दी थी, आज वही अपने को ठगा महसूस कर रही है. एक तरफ सपा की अखिलेश सरकार अपने पूरे होते वादों का प्रचारप्रसार करने में करोड़ों रुपए खर्च कर रही है तो दूसरी ओर हकीकत जनता को मुंह चिढ़ा रही है. शर्तों के साथ पूरे किए जाने के वादे ही हैं जो मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की चमक को फीका कर रहे हैं.

राजनीतिक समीक्षक हनुमान सिंह ‘सुधाकर’ कहते हैं, ‘‘विधानसभा चुनाव के समय जीत हासिल करने की जल्दी में सपा ने ऐसे वादे कर लिए जिन को पूरा करना संभव नहीं था. सरकार की बागडोर संभालने के बाद अखिलेश यादव ने किसी चतुर कारोबारी की तरह वादों को पूरा करने के लिए ऐसीऐसी छिपी शर्तें रख दीं कि जिन से वादे पूरे होते दिखें. जनता अखिलेश सरकार की चतुर चाल को भांप गई और वह खुद को ठगा महसूस कर रही है.’’

अखिलेश यादव की खासीयत थी कि वे युवा सोच के हिमायती थे. वे आधुनिक इंजीनियरिंग की पढ़ाई पढ़ कर आए थे, युवाओं को भरोसा था कि वे प्रदेश को जाति, धर्म और वोटबैंक के चश्मे से दूर विकास के चश्मे से देखेंगे. आस्ट्रेलिया की सिडनी यूनिवर्सिटी से एनवायरमैंटल इंजीनियरिंग करने वाले अखिलेश यादव इंजीनियरिंग छात्रों की जरूरतों को ही नहीं समझ पाए. सरकार के 1 साल पूरे होने के पहले मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने जब साल 2012 में 12वीं पास करने वाले छात्रों को लैपटौप बांटने की योजना की शुरुआत की तो बहुत चतुराई से उन बच्चों को इस योजना का लाभ लेने से वंचित कर दिया जो 12वीं पास करने के बाद इंजीनियरिंग और डाक्टरी की पढ़ाई करने के लिए कंपीटिशन की तैयारी कर रहे थे. जिन छात्रों को प्रवेश प्रदेश के बाहर के संस्थानों में मिला उन को भी ये लैपटौप नहीं दिए गए.

शर्तों के साथ पूरे किए वादे

इंजीनियरिंग कर रहे छात्र दिवाकर प्रताप कहते हैं, ‘‘सपा ने अपने घोषणापत्र में वादा किया था कि साल 2012 में 12वीं पास करने वाले सभी छात्रों को वह लैपटौप देगी और हाईस्कूल पास करने वालों को कंप्यूटर टैबलेट देगी. इस से उत्साहित हो कर युवा ने बड़ी तादाद में सपा को वोट दिया था. मुख्यमंत्री बनने के बाद अखिलेश यादव ने अभी तक हाईस्कूल पास करने वाले बच्चों को टैबलेट नहीं दिए, लैपटौप वितरण में भी भेदभाव किया, जिस से बड़ी तादाद में जरूरतमंद छात्र लैपटौप वितरण का लाभ पाने से वंचित रह गए.’’

दरअसल, यह पहली योजना नहीं है जिसे पूरा करने के लिए सरकार ने लोगों को लाभ की रेखा से दूर रखा. इस के पहले बेरोजगारी भत्ता योजना और कन्या विद्याधन योजना के वितरण में भी वह ऐसी ही छिपी हुई शर्तों का सहारा ले चुकी है. सपा ने विधानसभा चुनाव के समय 3 सब से बड़ी योजनाओं की घोषणा की थी. ये योजनाएं बेरोजगारी भत्ता, लैपटौप व टैबलेट वितरण और हर गरीब परिवार को साड़ी व कंबल देना थीं. बेरोजगारी भत्ते की घोषणा होते ही रोजगार कार्यालयों पर रजिस्ट्रेशन कराने वालों की लंबीलंबी लाइनें लग गईं.  इन योजनाओं ने सपा की बहुमत से सरकार बनाने में काफी अहम भूमिका अदा की.

लेकिन जब वादा निभाने का वक्त आया तो अखिलेश सरकार ने बहुत चतुराई से एक बड़े तबके को योजना का लाभ लेने से वंचित कर दिया. बेरोजगारी भत्ता लेने के लिए जो शर्तें लगाई गईं उन से बड़ी तादाद में लोगों को इस योजना का लाभ नहीं मिल सका. शर्तों में कई बार बदलाव किए गए. उस के बाद भी इस योजना का लाभ सभी जरूरतमंदों तक नहीं पहुंच सका. उलटे, साढ़े 8 करोड़ रुपए बेरोजगारी भत्ता देने के इंतजाम में साढ़े 12 करोड़ रुपए खर्च हो गए. यही हाल कन्या विद्याधन योजना में हुआ. इस योजना का लाभ मात्र उन लोगों को मिला जिन की सालाना कमाई 35 हजार रुपए से कम है.

राजनीतिक लेखक अरविंद जयतिलक कहते हैं, ‘‘सोचने वाली बात यह है कि शहरों में रहने वाला 3 लोगों का परिवार क्या 35 हजार रुपए की सालाना कमाई में किसी बच्चे को पढ़ा सकता है? इस योजना का लाभ लेने के लिए घपला करने वालों ने बड़ी तादाद में फर्जी आय प्रमाणपत्र बनवाए. ऐसे में एक बड़ा वर्ग, जो घपला नहीं कर सका, सरकार से नाराज है. इस से अखिलेश यादव की छवि धूमिल हुई है.’’

साड़ी और कंबल बांटने की योजना में भी शर्तें हैं. इस का केवल उन लोगों को लाभ मिलेगा जिन का नाम बीपीएल सूची में दर्ज है. गांव की बीपीएल सूची बड़ी संख्या में फर्जी रूप से बनती है जिस के कारण गरीबों को सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिल पाता.

दलित चिंतक रामचंद्र कटियार कहते हैं, ‘‘सरकारी योजनाओं का लाभ उठाने के लिए फर्जी प्रमाणपत्र दाखिल करने वाले लोग खुश भले न हों पर जिन लोगों का हक मारा जाता है वे नाराज जरूर हो जाते हैं. ऐसे में वे सरकार की छवि को नुकसान पहुंचा सकते हैं. साड़ीकंबल वितरण योजना में जिस तरह से देरी हो रही है उस से लोग नाखुश हैं. यह पार्टी का बड़ा वोटबैंक है. इन की नाराजगी का प्रभाव लोकसभा चुनाव में दिखेगा जो समाजवादी पार्टी की उम्मीदों पर पानी फेरने का काम कर सकता है.’’

चरमराती कानून व्यवस्था

कालेज के दिनों में फुटबाल खेलने के शौकीन रहे मुख्यमंत्री अखिलेश यादव सरकार में आने के बाद खुद फुटबाल की तरह हालात का सामना करने में लगे रहे. अपनी छवि बदलने के लिए अखिलेश यादव ने अफसरों के साथ क्रिकेट मैच में उन के छक्के छुड़ा कर मैच तो जीत लिया पर सरकार चलाने में बेहतर कैप्टन नहीं बन पाए. सब से कम उम्र के मुख्यमंत्री होने के चलते उन का मंत्रिमंडल उन को ‘टीपू’ समझता रहा. उन के मंत्रिमंडल के कई मंत्री सार्वजनिक रूप से अखिलेश यादव को ‘टीपू’ के बचपन वाले नाम से ही पुकारते रहे, जिस का कई बार मुख्यमंत्री ने विरोध भी किया.

कुंडा, प्रतापगढ़ में सीओ जियाउल हक की हत्या के बाद जब अखिलेश मंत्रिमंडल के कैबिनेट मंत्री रघुराज प्रताप सिंह पर आरोप लगा तो पूरे मंत्रिमंडल के एकजुट होने के बजाय एकदूसरे से उलझने का काम हुआ. नतीजतन, पूरे मामले का धार्मिक ध्रुवीकरण हो गया. इस से निबटने में खुद मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को घुटनों के बल हो जाना पड़ा.

अखिलेश सरकार के 1 साल के समय में प्रदेश में 12 जगहो पर सांप्रदायिक दंगे हुए. एक बड़ा वर्ग अपनी उपेक्षा को ले कर सरकार से नाराज हो चला है. प्रदेश की गिरती कानून व्यवस्था से आम जनता परेशान है.

विरोधी ही नहीं, खुद सपा के प्रमुख मुलायम सिंह यादव कई बार सार्वजनिक रूप से अखिलेश सरकार की आलोचना कर चुके हैं. ऐसे में विरोधी दलों को तो पूरा मौका मिल जाता है. पूरे साल अखिलेश यादव अपनी मुसकराहट से लोगों को लुभाते जरूर रहे हैं पर लोग मुसकराते तभी अच्छे लगते हैं जब दिल से खुशी महसूस कर रहे हों. जनता को लगता है कि केवल अच्छी मुसकान से काम नहीं चलने वाला. 1 साल का समय कम नहीं होता. अखिलेश सरकार का पूरे प्रदेश में कहीं भी हनक, धमक और इकबाल नहीं दिखता है. जनता के पैसे खर्च कर सरकार की छवि चमकाने के पहले समाजवादी सरकार को एनडीए की ‘इंडिया शाइनिंग मुहिम’ से सबक सीखना चाहिए. समाजवादी पार्टी के लिए ‘लक्ष्य 2014’ सामने है. ऐसे में शर्तों के साथ वादे पूरे करने की गलती अखिलेश सरकार को नहीं करनी चाहिए.

अब ममता की ईमानदारी पर सवालिया निशान

 

पश्चिम बंगाल की राजनीति में ममता बनर्जी की ईमानदारी को ले कर कभी कोई शक नहीं किया गया. लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य  ने ममता की ईमानदारी पर सवालिया निशान लगा दिया.  इसे ले कर आरोपप्रत्यारोप का नया दौर शुरू  हो गया है. पढि़ए साधना का लेख.

पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने ममता की ईमानदारी पर उंगली उठाई है. उन्होंने ममता के करीबी परिजनों की संपत्ति की जांच की मांग भी की है. वे कहते हैं, ‘ममता ईमानदार हैं, यह मैं मान नहीं पा रहा हूं. उन की पारिवारिक आर्थिक स्थिति पहले कैसी थी और अब कैसी है, इस की जांच कर के देख लें.’

दिलचस्प बात यह है कि तमाम विरोधों के बावजूद इस से पहले किसी भी माकपा या वामनेता ने ममता की ईमानदारी को ले कर कभी शक जाहिर नहीं किया. जाहिर है इस से ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस में हड़कंप मच गया. तृणमूल कांग्रेस के कुछ नेता बुद्धदेव भट्टाचार्य के बयान को चुनाव में हार के बाद खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे के रूप में देख रहे हैं.

बहरहाल, लंबी चुप्पी के बाद अचानक बुद्धदेव भट्टाचार्य ने मुंह खोला और सीधे ममता पर निशाना साधा.

दो मुख्यमंत्रियों के बीच समानता

यह महज इत्तफाक ही है कि 2 भिन्न पृष्ठभूमि से आने वाले राज्य के इन दोनों मुख्यमंत्रियों के बीच काफी समानताएं हैं. तमाम विरोधों के बावजूद भावनात्मक रूप से दोनों एक से हैं. लाख कोशिश करने के बाद भी ये दोनों अपने भीतर कुलबुलाती भावना को कतई छिपा नहीं पाते हैं. खुशी हो या गम, नाराजगी हो या आत्मसुकून, मन की भावना इन के चेहरे के हावभाव में साफ नजर आ ही जाती है.

नदारद है मुख्यमंत्री आवास

अजीब बात है कि राज्य के प्रशासनिक प्रधान का कोई आधिकारिक आवास का अस्तित्व ही नदारद है. देश में ऐसा राज्य संभवतया अकेला बंगाल ही है. मुख्यमंत्री बनने के बाद भी बुद्धदेव भट्टाचार्य ने अपने निजी आवास से ही राजकाज चलाया. दक्षिण कोलकाता में पाम एवेन्यू के अपने 2 कमरों का फ्लैट बुद्धदेव ने नहीं छोड़ा. सुरक्षा का लाख हवाला देने के बावजूद बुद्धदेव भट्टाचार्य औपचारिक रूप से किसी मुख्यमंत्री आवास के निर्माण को तैयार नहीं हुए. वैसे भी बंगाल के मुख्यमंत्री के लिए कोई सरकारी आवास नहीं रहा है. हालांकि ज्योति बसु का आवास इंदिरा भवन था. कांग्रेस शासित बंगाल में सिद्धार्थ शंकर राय के जमाने में पार्टी सम्मेलन के लिए इस का निर्माण करवाया गया था. लेकिन ज्योति बसु के मुख्यमंत्री बनने के बाद इंदिरा भवन आधिकारिक रूप से उन का आवास बन गया, जो आजीवन उन्हीं का आवास बना रहा. उन की मृत्यु के बाद वाममोरचा ने इसे ज्योति बसु का संग्रहालय बनाने की योजना बनाई, जो चुनाव हार जाने के बाद अधर में ही लटक गई.

वेतनभत्ता लेने से गुरेज

बहरहाल, अब भी राज्य की प्रशासनिक प्रधान ममता बनर्जी का आवास दक्षिण कोलकाता में भवानीपुर के हरीश मुखर्जी रोड स्थित उन का निजी घर ही है. यही नहीं, ‘मां, माटी, मानुष’ की राजनीति करने वाली ममता बनर्जी ने और भी मिसालें कायम की हैं. वे सरकारी तौर पर मुख्यमंत्री के लिए मंजूर किया गया वेतनभत्ता तक नहीं लेतीं.

मुख्यमंत्री बनने के बाद ममता बनर्जी ने मंत्रियों के वेतन में इजाफा नहीं किया. हालांकि ममता ने दैनिक भत्ता बढ़ा कर अपने मंत्रियों को थोड़ा खुश जरूर किया है. आइए देखें, राज्य के मंत्रियों को अब कितना वेतन मिलता है :

मंत्रिमंडल के मंत्री का वेतन 8 हजार रुपए और राज्यमंत्री का 7 हजार रुपए है. इस पर भी 90 रुपए किसी कर के बाबत कट जाते हैं. इस के अलावा दैनिक भत्ता 1 हजार रुपए के साथ चिकित्सा भत्ता भी है, जिस की कोई अधिकतम सीमा नहीं है.

आज भी बंगाल की मुख्यमंत्री की तनख्वाह महज साढ़े 8 हजार रुपए है. इस के अलावा दैनिक भत्ता 1 हजार रुपए है, जो प्रतिमाह 30 हजार रुपए होता है. मुख्यमंत्री के चिकित्सा संबंधी खर्च की कोई अधिकतम सीमा नहीं है. दार्जिलिंग, कर्सियांग और कलिंपोंग जाने पर प्रतिदिन 260 रुपए, कोलकाता और प्रशासनिक मुख्यालय से 20 किलोमीटर आगे का दौरा करने पर प्रतिदिन 135 रुपए भत्ते का प्रावधान है. पर ममता ने आज तक न तो अपनी तनख्वाह भत्ता लिया है और न ही वे सरकारी गाड़ी का इस्तेमाल करती हैं. वे अपने किसी ‘शुभाकांक्षी’ की गाड़ी से सचिवालय पहुंचती हैं.

यही नहीं, मुख्यमंत्री बनने के बाद नैतिकता का हवाला देते हुए सांसद के रूप में उन्होंने कभी लोकसभा से कोई पगार या भत्ता नहीं लिया. ममता का वेतन और भत्ता सरकारी कोषागार में जमा हो रहा है. बताया जाता है कि अब तक साढ़े 5 लाख रुपए से अधिक राशि जमा हो चुकी है. जहां तक सरकारी नियम का सवाल है तो मुख्यमंत्री का वेतनभत्ता जमा होता रहेगा. जरूरत पर निकाला जा सकता है. मुख्यमंत्री न रहने पर उन का उत्तराधिकारी इस पर दावा कर सकता है.

हालांकि इस से पहले बंगाल के राज्यपाल रहते हुए वीरेन जे शाह ने भी कभी कोई वेतन नहीं लिया. चूंकि नियमानुसार पगार दिए बगैर सरकार किसी से काम नहीं ले सकती, इसी कारण वीरेन जे शाह सरकारी कोषागार से हर महीने मात्र 1 रुपया वेतन लेते थे. वैसे राज्यपाल के रूप में वेतन के अलावा उन्होंने संवैधानिक प्रधान से जुड़ी अन्य तमाम सरकारी सुविधाओं को लेने से मना नहीं किया था.

पार्टी फंड और पेंटिंग्स

बहरहाल, बुद्धदेव भट्टाचार्य के एक अन्य सहयोगी गौतम देव ने ममता की पेंटिंग्स की बिक्री को ले कर भी सवाल उठाया है. उन का कहना है कि अगर ममता वेतनभत्ता नहीं लेतीं तो वे अपना और पार्टी का खर्च कैसे चलाती हैं? वामपंथी पार्टियां आमलोगों से चंदा लेती हैं. ममता किस तरह पैसे उगाहती हैं?

गौरतलब है कि घोषित रूप से पार्टी फंड के लिए ममता अपनी पेंटिंग्स की बिक्री करती हैं. समयसमय पर चित्रों की प्रदर्शनी भी लगती है, जिन की कीमत 1 लाख से 3 लाख रुपए तक होती है. राज्यसभा में तृणमूल के सांसद डेरेक ओ ब्रायन का कहना है कि उन की पहली पेंटिंग्स प्रदर्शनी में हुई बिक्री से साढ़े 3 लाख रुपए जमा हुए थे. यह राशि स्पैस्टिक सोसाइटी को दी गई. 2007 में आयोजित की गई पेंटिंग प्रदर्शनी में बिक्री से इकट्ठा हुए 11 लाख रुपए की राशि नंदीग्राम आंदोलन में शहीद हुए लोगों के परिवारों को वितरित कर दी गई. और अब पंचायत चुनाव के खर्च के लिए फंड जुटाने के लिए एक बार फिर से चित्र प्रदर्शनी की घोषणा की जा चुकी है. उल्लेखनीय है कि तमाम व्यस्तता के बावजूद ममता बनर्जी अब तक लगभग

5 हजार पेंटिंग्स तैयार कर चुकी हैं. लेकिन पेंटिंग्स बिक्री करने को भी गौतम देव ने उगाही से ही जोड़ कर रखा है. उन का कहना है कि मुख्यमंत्री की खुशामद करने के लिए ही उद्योगपति उन की पेंटिंग्स खरीदते हैं.

ईमानदारी की मिसाल

ममता की ईमानदारी की मिसाल यह है कि कई बार ममता बनर्जी ने खुलेआम जनसभाओं में कहा है कि तृणमूल कांग्रेस के नाम पर अगर कोई चंदा मांगे तो न दें. यहां तक कि वे नहीं चाहतीं कि उन का परिवार उन के नाम का बेजा इस्तेमाल कर कोई फायदा उठाए. इस बाबत उन्होंने अपने परिवार और भाइयों को भी नहीं बख्शा. इसी मुद्दे पर पहले 2007 और फिर 2010 में ममता बनर्जी का अपने भाइयों स्वप्न, कार्तिक और अमित के साथ झगड़ा हो चुका है. झगड़े के बाद ममता बनर्जी ने अपनी मां गायत्री देवी के साथ घर छोड़ दिया था और तृणमूल के पार्टी दफ्तर में जा कर डेरा जमा लिया था. झगड़े का सबब यह है कि ममता के नाम पर उन के भाई स्वप्न ने एक रक्तदान शिविर का आयोजन किया और ममता के नाम पर पैसों की उगाही की थी.

तृणमूल के निशाने पर सुचेतना

बुद्धदेव भट्टाचार्य के आरोपों का सवाल है तो ऐसा भी माना जा रहा है कि यह उन का ‘राजनीतिक फर्ज’ है. आखिर राजनीति में यह सब तो करना ही पड़ता है. बिना आरोपप्रत्यारोप के राजनीति में कुछ खास करने को रह नहीं गया है. लेकिन पार्टी सुप्रीमो पर लगे आरोप पर तृणमूल भला कैसे चुप बैठती. ममता की पार्टी से पार्थ चट्टोपाध्याय (उद्योग मंत्री) ने बुद्धदेव भट्टाचार्य की बेटी सुचेतना के एनजीओ ‘अरण्य’ के बहाने उन की ईमानदारी पर सवाल उठा कर ‘प्रत्यारोप’ का ‘फर्ज’ पूरा कर दिया. पार्थ चट्टोपाध्याय ने सीधे बुद्धदेव भट्टाचार्य से सवाल किया है. उन का कहना है कि ‘बुद्धदेव साहब, मुख्यमंत्री रहते आप की बेटी ने एक एनजीओ का गठन किया था. बहुत ही कम समय में वह एनजीओ इतना फलफूल कैसे गया? इस पर जरा प्रकाश डालिए.’

एकदूसरे पर भड़ास

अब बुद्धदेव भट्टाचार्य और तृणमूल के बीच आरोपप्रत्यारोप का सिलसिला चल रहा है तो कांग्रेस भला कैसे पीछे रहती. लगेहाथ कांग्रेसी दीपा दासमुंशी ने भी अपनी भड़ास को हवा दे दी. दीपा दासमुंशी और अधीर चौधुरी ने ममता की ईमानदारी के प्रचार को निशाना बनाते हुए कहा है कि इस देश के अब तक के किसी मुख्यमंत्री को अपनी तसवीर के नीचे ‘ईमानदारी का प्रतीक’ लिखने की जरूरत नहीं पड़ी है पर ममता बनर्जी को अपनी ईमानदारी की डुगडुगी पीटनी पड़ रही है. ऐसे में उन्हें इस का प्रमाण देना चाहिए.

बहरहाल, माना जा सकता है कि बंगाल का विकास नहीं हुआ, राज्य के उद्योग नष्ट हो रहे हैं, एक के बाद एक कलकारखाने बंद हो रहे हैं और फिलहाल कोई औद्योगिक संभावना भी नजर नहीं आ रही है. अगर राज्य की राजनीति और राजनीतिक पार्टियों की बात को दरकिनार कर दें तो यह जरूर कहा जा सकता है कि यह बंगाल ही है जिसे लगातार 1 नहीं 2 बेदाग मुख्यमंत्री मिले. खासकर तब जब देश में भ्रष्टाचार के नित नए आयाम देखने को मिल रहे हैं.

मृत्युदंड : सजायाफ्ताओं पर शाही खर्च

16 दिसंबर, 2012  को दिल्ली में हुए गैंगरेप के मुख्य आरोपी राम सिंह ने 11 मार्च, 2013 को देश की सब से सुरक्षित मानी जाने वाली तिहाड़ जेल में फंदे से झूल कर आत्महत्या कर ली. उसे फांसी पर लटकना ही था क्योंकि उस ने अपराध ही ऐसा किया था. अगर यह घटना न हुई होती तो कानूनी प्रक्रिया के हिसाब से उसे फांसी होने में न जाने और कितने साल लग जाते. उस के आनेजाने, खानेपीने और सुरक्षा के नाम पर लाखोंकरोड़ों रुपए खर्च करने पड़ते. राम सिंह की मौत से कुछ समय पहले मुंबई हमले में दोषी मोहम्मद अजमल आमिर कसाब और संसद पर आतंकवादी हमले से जुड़े अफजल गुरू को फांसी दी गई. आतंकवाद पीडि़तों को देर से मिले इस न्याय ने खुशी व बड़ी राहत तो दी पर मानवाधिकारों की दुहाई देने वालों ने इस पर रोष जताया.

दरअसल, मृत्युदंड आज फिर विवाद का विषय बन गया है. एक तरफ दुनिया के ज्यादातर मुल्कों को सजा के तौर पर मृत्युदंड नामंजूर है, वहीं यह भी सच है कि विश्व की 60 प्रतिशत जनसंख्या उन देशों में रहती है जहां के कानून इस दंड को स्वीकारते हैं. लेकिन इन देशों में भी कानूनन मान्य होने के बावजूद मृत्युदंड सदैव ही एक ज्वलंत प्रश्न रहा है.

हर देश में मृत्युदंड का विरोध और समर्थन समय के साथ बढ़ताघटता रहता है और इस मुद्दे में जनता अपनी प्रतिक्रिया अकसर भावुक हो कर व्यक्त करती है. युद्ध हो, आतंकवाद का दौर हो, आर्थिक मुश्किलों का वक्त हो या देश में कोई बड़ा मुद्दा खड़ा हो गया हो, घृणित घटना के घटित होने पर अकसर देखने में आता है कि जनता का, बड़ा न सही, छोटा हिस्सा कानून अपने हाथों में लेने को व्याकुल हो जाता है. स्वयं आतंकवादियों को मारने के मकसद से सरकार से बंदूकों की मांग करता है, या फिर बलात्कार करने वालों को खुद वहीं चौराहे पर सूली पर चढ़ाने या उन के सिर फोड़ने को उतारू हो जाता है.

क्रोधित नागरिक जो सतर्कता का सहारा लेना फिर भी नापसंद करते हैं, घिनौने अपराधों के लिए कानून द्वारा प्रबंधित सजाएमौत को अपना समर्थन देते हैं. कानून में इस प्रकार की सजा का प्रबंध चरम दरजे के अपराधों का निवारण करने के लिए ही किया गया है. अपराधी को यदि मालूम हो कि फलां अपराध करने से उस की जान जाती रहेगी तो वह वैसा काम करेगा ही क्यों?

फिर भी किसी भी कानूनपरस्त देश में कानून के पहिए धीमे चलते हैं. कानूनी कार्यवाहियों की लंबी प्रक्रियाओं के पीछे यही सिद्धांत है कि चाहे एक अपराधी दंड से बच जाए मगर कानून किसी निर्दोष को गलत सजा न दे. आज दुनिया की विभिन्न जेलों में 18,750 कैदी अपनी सजाएमौत का इंतजार कर रहे हैं. कैलिफोर्निया की किसी जेल में बैठे ऐसे किसी कैदी का इंतजार 2 दशकों तक खिंच सकता है, जापान में एक दशक तक. हां, चीन में, जहां दुनिया भर में सब से ज्यादा मृत्युदंड की सजा दी जाती है, वहां ऐसे मामले अकसर 3-4 महीनों के भीतर निबटा दिए जाते हैं.

रही बात भारत की, कानूनी प्रबंध होने के बावजूद, इस दंड का कभीकभार ही पालन किया जाता है. यहां आजादी से 1991 तक 52 व्यक्ति सूली पर चढ़ाए गए हैं, और 1995 से अब तक 4. इन 4 में से आखिरी 2 आतंकवादी अजमल आमिर कसाब और अफजल गुरू थे. कसाब की अपने अपराध के दिन से फांसी तक की यात्रा 4 साल थी, अफजल गुरू का इंतजार 11 साल का रहा.

ताजा आंकड़ों की बात करें तो फरवरी 2013 में एक गैर सरकारी संगठन ने राष्ट्रीय अपराध रिकौर्ड ब्यूरो यानी एनसीआरबी के आंकड़ों का हवाला देते हुए ‘भारत में मृत्युदंड 2013’ के नाम से एक रिपोर्ट पेश की है जिस के मुताबिक 2001-2011 के दौरान तकरीबन 1455 कैदियों को मौत की सजा सुनाई गई. यानी पिछले 10 वर्षों के दौरान देश के विभिन्न न्यायालयों में हर तीसरे दिन एक अपराधी को सजाएमौत का फरमान सुनाया गया है.

विरोध और समर्थन

सहज रूप से यदि देखें तो मृत्युदंड के विरोधियों के तर्क मानवीय आधार रखते हैं. समर्थक यह कहते हैं कि यह दंड घिनौने या चरम दरजे के अपराधों का अच्छा निवारण है. जबकि कुछ न्यायाधीश मृत्युदंड की सजा को उचित नहीं मानते. ऐसा ही एक नाम है उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश ए के गांगुली का. गांगुली मृत्युदंड को बर्बरतापूर्ण, जीवनविरोधी, अलोकतांत्रिक और गैरजिम्मेदाराना मानते हैं.

पिछले साल जून 2012 में जब ईरान में बलात्कार के दोषी पाए गए 4 लोगों को सरेआम फांसी पर लटकाया गया था तब कई लोगों ने इस का यह कह कर विरोध किया था कि सार्वजनिक तौर पर फांसी देने से समाज में हिंसा को बढ़ावा मिलेगा और इस तरह के वीभत्स दृश्य बच्चों और युवाओं पर गलत असर पैदा करेंगे.

विरोध की वजहें कई प्रकार की हैं :

– न्याय प्रणाली अकसर गलत निर्णय भी देती है. अमेरिका के 25 राज्यों में 1973 से 2005 के बीच नए प्रमाण सामने आने पर 123 मृत्युपंक्तिबद्ध अपराधी फांसी से बच गए. मृत्युदंड के विरोधियों के अनुसार, यह संख्या कहीं कम मानी जानी चाहिए क्योंकि जो अपराधी अन्यायपूर्वक मृत्युदंड से मृत्यु पा चुके हैं उन के केसों के अकसर दोबारा परीक्षण ही नहीं होते.

– अपराधी को मृत्युदंड देने के तरीके को ले कर भी काफी विवाद है. कहीं तलवार से सिर काट कर यह दंड दिया जाता है तो कहीं पत्थर मारमार कर. फायरिंग स्क्वायड, गैसचैंबर और बिजली की कुरसी पर बिठा कर मारने के तरीकों को भी मानवीय माना गया है.

– भारत में रस्से से लटका कर यह दंड दिया जाता है. एक तरफ मृत्युदंड के समर्थक यह मानते हैं कि दंड में पीड़ा का अनुपात अपराध तय करता है. फिर भी काफी समय से पूरी दुनिया में यह प्रवृत्ति रही है कि मृत्युदंड का तरीका जितना कम पीड़ादायक और जितना ज्यादा मानवीय हो सके, हो. उदाहरणार्थ, अमेरिका व कुछ अन्य देशोें में यह दंड प्राणघातक इंजैक्शन द्वारा दिया जाता है. इस में 3 इंजैक्शनों के सही अनुक्रम से ही अपराधी को मृत्युदंड दिया जाता है. अकसर क्रम में गड़बड़ी से अपराधी भीषण मौत मरता है, इस वजह से 2006 में यूएस के एक जिला न्यायाधीश के आदेश ने लैथल इंजैक्शन देने के लिए सही प्रशिक्षित पेशेवर चिकित्सक का मौजूद होना अनिवार्य कर दिया है. इस निर्णय की वजह से आज अमेरिका के अनेक राज्यों में फांसी लगभग रुकी हुई है.

– एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया में तकरीबन 58 देश मौत की सजा फांसी के रूप में देते हैं, वहीं 73 मुल्क ऐसे भी हैं जो मृत्युदंड पाए दोषियों को गोली मार देते हैं. अगर हम फांसी देने वाले मुल्कों की बात करें तो इस में भारत समेत तंजानिया, दक्षिण कोरिया, जिंबाब्वे, बोत्सवाना, बारबाडोस, मलयेशिया आदि प्रमुख हैं. वहीं अफगानिस्तान और सूडान में फायरिंग, फांसी व पथराव के जरिए मौत की सजा दी जाती है. इसी तरह बंगलादेश, केमरून, सीरिया, युगांडा, कुवैत, ईरान और मिस्र में फायरिंग व फांसी का तरीका अपनाया जाता है.

– अमेरिका में इलैक्ट्रोक्यूशन, गैस, फांसी व फायरिंग का और चीन में इंजैक्शन व फायरिंग का तरीका अपनाया जाता है. इस के अलावा यमन, टोगो, तुर्कमेनिस्तान, थाईलैंड, बहरीन, चिली, इंडोनेशिया, घाना व अर्मिनिया में फायरिंग के जरिए सजाएमौत का प्रावधान है.

– इन सब बातों के अलावा मृत्युदंड के विरोधियों के अनुसार, देश की न्याय प्रणाली में दोषों की कमी नहीं है. उन का कहना है कि मृत्युदंड की सजा खासतौर पर अल्पसंख्यकों, गरीबों और उन सब को फांसने की सामर्थ्य रखती है जो सुयोग्य कानूनी सहायता यानी वकीलों के खर्च का जुगाड़ नहीं कर पाते हैं.

सरकार पर आर्थिक बोझ

मृत्युदंड के विरोध में सब से ठोस और सतत तर्क इन केसों की कार्यवाही में सरकारी खर्च से संबंध रखता है. उदाहरणार्थ, अमेरिकी राज्य टैक्सास, जहां पूरे यूएस के सब से अधिक अपराधी मृत्युपंक्ति में हैं. फिलहाल 290 और 1976 से अब तक 492 अपराधी मृत्युदंड पा चुके हैं. एक आकलन के मुताबिक मृत्युदंड के हर केस पर करदाता लाखोंकरोड़ों रुपए खर्च करते हैं. इस की तुलना में आजीवन कारावास के केसों में राज्य का खर्चा करोड़ों रुपए बैठता है. देश के अन्य राज्यों के आंकड़े भी इस प्रकार हैं. ऐसे केसों में सरकार को अकसर अभियोग और प्रतिवादी, दोनों पक्षों के कानूनी खर्च भी उठाने पड़ते हैं. इसी पर यदि कैदी को अपील के लंबे अरसे तक अलग बंदी बना कर रखने का खर्च जोड़ा जाए तो एक अनुमान के अनुसार खर्चा (आजीवन कारावास की तुलना में) इक्कीसगुना बढ़ जाता है. यह बात स्पष्ट है कि मृत्युदंड पाने वाले कैदी सभी उपलब्ध अपीलें तो इस्तेमाल करेंगे ही.

इस बात का प्रदर्शन भारत में भी हम हाल में देख चुके हैं. नवंबर 2008 से अक्तूबर 2012 की अवधि में अजमल आमिर कसाब की कानूनी कार्यवाही और देखरेख में केंद्र और महाराष्ट्र सरकार ने 29.5 करोड़ रुपए खर्च किए और राज्य के 2 करोड़ रुपए कसाब के बुलेटप्रूफ बंदीगृह तैयार करने में अलग व्यय हुए.

26/11 मुंबई हमले के अभियुक्त अजमल आमिर कसाब को 21 नवंबर, 2012 को फांसी दे दी गई. ऐसा 4 साल बाद हुआ. कसाब की सुरक्षा में भारत-तिब्बत सीमा पुलिस के 250 गार्ड जेल में तैनात रहे. इन पर 26 करोड़ रुपए खर्च किए गए वहीं महाराष्ट्र सरकार ने 3.47 करोड़ रुपए खर्च किए. इन की सुरक्षा पर 1 करोड़ 46 लाख, दवाओं पर 39,829, खाने पर 42,313, कपड़ों पर 1,878 रुपए और अन्य 81,794 रुपए खर्च हुए. इस के अलावा कसाब को रखने के लिए बुलेट और बमप्रूफ जेल बनाने में महाराष्ट्र सरकार ने 2 करोड़ रुपए अलग से खर्च किए.

इतने रुपए खर्च करने के बाद यह गर्व का समय आया. ऐसा नहीं है कि यह बहुत जल्दी हो गया और इसलिए भी नहीं कि हमारी न्याय प्रक्रिया लंबी है. ऐसा इसलिए भी है कि यहां सब अपनेअपने मत वाले हैं. सरकार की मंशा कुछ और है तो कानून के रखवालों का मन कुछ और ही है. सवाल उठता है कि आखिर जब सब सुबूत हमारे पक्ष में हैं, सारी दुनिया जान रही है कि कसाब ही दोषी है, ऊपर से सुप्रीम कोर्ट ने फांसी पर मुहर लगा दी थी तो आखिर इतनी देर क्यों की गई. क्यों करोड़ों रुपए यों ही बरबाद किए गए?

फांसी के ज्यादातर मामलों में दोषियों के लिए अपील की प्रक्रिया स्थानीय अदालतों से गुजरती हुई राष्ट्रपति तक पहुंचती है. हालांकि कई मामलों में यह अपील संबंधित राज्य के राज्यपाल के पास भी पहुंचती है. बहरहाल, अंतिम फैसला इन्हीं प्रक्रियाओं और फाइलों में रेंगतेरेंगते दशकों तक लटका रहता है.

दरअसल, लचर व जटिल कानूनी प्रक्रिया के चलते फांसी की सजा सुनाने के बाद भी कई मामले अभी तक लंबित हैं. जैसे, राजीव गांधी, पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के हत्यारे अभी भी जिंदा हैं. आखिर क्यों दी जाए फांसी, क्योंकि इस में राजनीतिक फायदा है. मृत्युदंड के मुद्दे पर राजनीति करने वाले हमारे सत्तासीन नेता तुष्टीकरण की नीति अपनाते हुए मृत्युदंड की सजा पाए कैदियों की सजा को टालते रहते हैं.

आज यूएसए में मृत्युदंड 50 में से 17 राज्यों में वर्जित है और 7 अन्य राज्यों में इसे समाप्त करने पर विवाद चल रहे हैं. ये विवाद देश की आर्थिक परेशानियों पर आधारित हैं. निसंदेह, ऐसी विचारधारा रखने वाले कम नहीं हैं जिन के अनुसार मृत्युदंड अपराध के निवारण के लिए असफल रहा है. मृत्युदंड की लंबी कार्यवाहियों और दंड पर अमल करने में सरकारी आनाकानी को देख किस भावी अपराधी को यह दंड अपराध निवारक लगेगा.

कानून का इस प्रकार अदृढ़ता से संचालन करना समाज की सुव्यवस्था के प्रतिकूल बन सकता है. दूसरी तरफ, यदि मृत्युदंड का कार्यान्वयन बड़ी संख्या में, जैसा कि चीन में देखा जाता है, किया जाए तो ऐसी व्यवस्था में सामाजिक और राजनीतिक अनियमितताओं के बढ़ने की संभावनाएं रहेंगी. यदि यूएस की भांति मृत्युदंड के मामले में कार्यवाही की जाए तो अपराधियों की संख्या और कानूनी कार्यवाही की लंबाई देश की अर्थव्यवस्था को भारी पड़ेगी. मृत्युदंड तो शायद उस हाल में ही प्रभावशाली हो सकता है जब इस का उपयोग केवल असामान्य से असामान्य, कुछ ही छंटे हुए अपराधों के लिए किया जाए, साथ ही, इस के कार्यान्वयन में ज्यादा विलंब न हो.

निजी जेलों का नया प्रचलन

एक अन्य समस्या, जो अमेरिकी दंड व न्याय प्रणाली को ग्रस्त कर रही है वह है अत्यधिक कैदियों से भरी जेलों की समस्या. मृत्युदंड के विवाद में निश्चित ही इस का भी कुछ प्रभाव मानना चाहिए. 1971 में तत्कालीन राष्ट्रपति निक्सन ने ड्रग्स पर जो जंग जारी की उस से जेलों में अपराधियों की संख्या इतनी तेजी से बढ़ी कि स्थानीय, राज्यस्तरीय और केंद्रीय सरकारों के सामने जेलों के बढ़ते खर्चों की नई समस्या खड़ी हो गई.

अकसर, अनोखी समस्या का हल भी अनोखा ही निकलता है. ठसाठस भरी जेलों का समाधान निकालने के लिए 1980 के दशक में कुछ श्रेणियों के कैदियों को निजी जेलों में स्थानांतरित करने का नया दौर शुरू हो गया. सरकार पहले ही कई निजी फर्मों को स्वास्थ्य सेवा, कैदियों का खाना, व्यावसायिक प्रशिक्षण, वाहन इत्यादि सेवाओं का ठेका सौंपती थी. अब निजी जेल कंपनियों को कैदी सिपुर्द कर उन का वहीं पूरा इंतजाम करने का ठेका भी सौंपना शुरू कर दिया. कैदियों से काम करवा कर ये कंपनियां विभिन्न प्रकार के व्यवसायों से मुनाफा कमाती हैं. आज यूएसए में 250 से अधिक ऐसी निजी जेल हैं.

जब समाजवादी दौर था, तब कैदी शायद यह समझता था कि जेल तो एक महफूज आशियाना है जहां मुफ्त में खानेपीने का पूरा इंतजाम रहता है. मगर आज के पूंजीवादी दौर में नागरिक बडे़ ध्यान से यह देखता है कि उस के चुकाए हुए कर का इस्तेमाल किस प्रकार हो रहा है. ऐसे दौर में क्या निजी जेल मृत्युदंड के विकल्प नहीं बन सकते? भावी अपराधी को यदि यह मालूम हो कि घोर अपराध उसे किसी निजी मुनाफाखोर जेल में पहुंचा सकता है, जहां उस के साथ जेल कंपनी क्या बरताव करेगी तो इस बात का भय उसे शायद गैरकानूनी जनविरोधी कदम बढ़ाने से रोक सके.

भारत में फांसी हमेशा से विवादास्पद मुद्दा रही है. कोई इसे जरूरी और नैतिक कदम बताता है तो कोई गैर मानवीय. महात्मा गांधी के हत्यारों को जब फांसी की सजा सुनाई गई थी तो गांधी के दोनों बेटों और जवाहर लाल नेहरू ने इस दलील के साथ इस फैसले का विरोध किया था कि एक पूरा जीवन अहिंसक जीवन जीने वाले की हत्या के लिए क्या फांसी जैसी हिंसक कार्यवाही सही होगी.

दरअसल, भारत में मृत्युदंड तो है पर मौत की सजा आम नहीं है. सुप्रीम कोर्ट ने 1983 के एक फैसले में सिर्फ दुर्लभों में दुर्लभ यानी रेयरैस्ट औफ रेयर मामलों में फांसी की बात कही थी. लेकिन रेयरैस्ट औफ रेयर की परिभाषा आज भी अस्पष्ट है. शायद यही वजह है कि भारत सहित 39 देशों ने मौत की सजा में प्रतिबंध को ले कर संयुक्त राष्ट्र महासभा में पेश किए गए उस प्रस्ताव के मसौदे का विरोध यह कह कर किया कि प्रत्येक देश को अपनी कानून व्यवस्था तय करने का अधिकार है.

सामाजिक कार्यकर्ता और अफजल गुरू की वकील रह चुकी नंदिता हकसर के मुताबिक, मृत्युदंड मध्यकाल की सब से खराब विरासत में से एक है. कुछ ऐसी ही विचारधारा लगभग हर मामलों में मानवाधिकार आयोग की देखनेसुनने को मिलती है. हालांकि मानवाधिकार आयोग उन लोगों के प्रति अधिकतर मामलों में उदासीन रहा है जो अपराधियों और आतंकवादियों की निर्दयता के शिकार हुए हैं. अब इन अपराधियों के साथ सरकार, पुलिस सख्त कदम उठाती है तो मानवाधिकार के अंदर न जाने कहां से मानवीय संवेदनाएं जाग जाती हैं.

कुल मिला कर फांसी को ले कर हमारे सामने 2 ही विकल्प हैं. पहला, कि हम अपराधियों और आतंकवादियों को मृत्युदंड के फैसले के बाद भी उन की सेवापानी में देश का करोड़ों रुपया पानी की तरह बहाते रहें या फिर दूसरा, न्यायप्रणाली को सक्रिय, त्वरित और दुरुस्त कर इस तरह के मामलों को लंबित न रहने दें बल्कि बहुत जल्द निबटा दें. कसाब, अफजल जैसे आतंकवादी हों या फिर राम सिंह जैसे शैतानी फितरत वाले अपराधी, फांसी की सजा के नाम पर इन्हें कई साल जेल में रख कर पैसा जाया करने से अलग हमें कोई न कोई रास्ता निकालना ही होगा.

भोपाल के बहुचर्चित काजल हत्याकांड में अदालत ने दोषी नंद किशोर नाम के शख्स को फांसी का फरमान दे दिया. सुखद यह है कि कोर्ट ने यह फैसला महज 9 दिन की सुनवाई के तुरंत बाद दे दिया. ऐसे ही कई फैसले हैं जहां अदालत ने क्विक ऐक्शन लेते हुए फैसला सुनाया है पर दुखद यह भी है कि फैसले के होने के बावजूद इन्हें फांसी पता नहीं कब होगी? सवाल है कि इन अपराधियों पर शाही खर्च करने के लिए आम जनता के खूनपसीने की गाढ़ी कमाई बरबाद क्यों हो?

काले धन को सफेद करते सरकारी संस्थान

काले धन को सफेद करने का ग्रहण अब सरकारी संस्थान पर भी लग गया है. काले कारोबार से जुड़े निजी बैंकों से संबंधित खबर मार्च में सार्वजनिक हुई थी और इन बैंकों ने तत्काल अपने अधिकारियों के खिलाफ कार्यवाही कर दी थी. निजी बैंकों को पोल खोलने वाली खोजी नैट सेवा कोबरा पोस्ट डौट कौम ने हाल ही में जारी वीडियो में सनसनीखेज खुलासा किया है जिस में कहा गया है कि सरकारी और निजी क्षेत्र के 23 वित्तीय संस्थान काले धन को सफेद बनाने के अवैध कारोबार में लिप्त हैं.

वित्तीय संस्थान ‘अपने ग्राहक को जानें’ यानी केवाईसी के मानदंडों को पालन किए बगैर और काले धन को बीमा उत्पादों में लगा कर सफेद करने के कारोबार में लिप्त हैं. कोबरा पोस्ट ने जिन बैंकों के नाम दिए हैं उन में सार्वजनिक क्षेत्र के प्रमुख भारतीय स्टेट बैंक, पंजाब नैशनल बैंक, बैंक औफ बड़ौदा और केनरा बैंक के साथ ही सरकारी बीमा कंपनी भारतीय जीवन बीमा निगम के नाम भी शामिल हैं.

वित्त मंत्रालय ने जिम्मेदार अधिकारियों व कर्मचारियों के विरुद्ध तत्काल कार्यवाही करने के निर्देश दिए हैं. कई सरकारी बैंकों ने कार्यवाही शुरू भी कर दी है. कई अधिकारी व कर्मचारी निलंबित किए जा चुके हैं. इन में बीमा क्षेत्र का एक अधिकारी भी शामिल है. इस के अलावा बैंकों ने 10 अधिकारियों को काम से हटा दिया है और 6 को छुट्टी पर?भेज दिया है व मामले की जांचपड़ताल कर रहे हैं.

सरकार ने तत्परता तो दिखाई है लेकिन यह घटना आम आदमी के लिए बड़ा धोखा बन गई है. आम आदमी की धारणा है कि सरकारी बैंक और जीवन बीमा निगम यानी एलआईसी धोखा नहीं करते हैं. निजी बैंकों की तुलना में आम आदमी सरकारी बैंकों से ऋण लेना ज्यादा पसंद करता है. उसे विश्वास है कि इन बैंकों में गड़बड़ी नहीं होती है.

हर आदमी सरकारी दूरसंचार सेवा या आम आदमी से जुड़ी अन्य सुविधाओं का लाभ हासिल करना चाहता है लेकिन उन की सर्विस अच्छी नहीं है इसलिए लोग उन से बचना चाहते हैं लेकिन आर्थिक स्तर पर उन्हें भरोसा है कि  सरकारी कंपनियां नियम से काम करती हैं. यही वजह है कि आम आदमी अपना निवेश भी सरकारी संस्थानों में करना पसंद करता है. लेकिन इन संस्थानों में किस तरह का धोखा है, कोबरा पोस्ट के खुलासे के बाद सब की आंखें खुल गई हैं.

लोग कहने लगे हैं कि देश के सरकारी बैंक अब स्विस बैंक की तर्ज पर काम करने लगे हैं. सरकार अपने इन अधिकारियों के खिलाफ कुछ भी कार्यवाही करे लेकिन यह दाग आसानी से धुलने वाला नहीं है. उसे जनता का विश्वास बनाए रखने के लिए काले धन को सफेद करने के कारणों को बताना होगा और कितनी रकम को काले से सफेद किया गया है, इस का खुलासा करना पड़ेगा. बैंकों का यह कहना हास्यास्पद है कि सरकार की तरफ से जमा लक्ष्य को बढ़ाने का उपाय था इसलिए यह कदम उठाया गया है.

आर्थिक जोखिम वाले 10 देशों में भारत भी

वर्ष 2013 भारत के लिए आर्थिक परिदृश्य के हिसाब से उपयुक्त नहीं है. इस साल देश की अर्थव्यवस्था को संतुलित बनाए रखने का जोखिम है. भारत 2013 में दुनिया की 10 सब से जोखिम वाली अर्थव्यवस्था वाले देशों में 9वें स्थान पर है. आर्थिक मामलों पर नजर रखने वाले वैश्विक यूरेशिया समूह के एक अध्ययन में यह खुलासा हुआ है.

अध्ययन में कहा गया है कि भारत में अगले वर्ष आम चुनाव है और उस से पहले कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं जिन्हें देखते हुए सरकार अवसरवादी निर्णय ले सकती है और यदि ऐसा हुआ तो यह निर्णय अर्थव्यवस्था की मजबूती के लिए जोखिम भरा हो सकता है. क्षेत्रीय दल भी अपने यहां कठोर कदम नहीं उठाएंगे. ऐसे में कमजोर आर्थिक नीतियां प्रभावी होंगी जो अर्थव्यवस्था के लिए जोखिम भरी हो सकती हैं.

इस क्रम में चीन दूसरे स्थान पर है. उस के बारे में कहा गया है कि वह सूचना के प्रवाह के विरुद्ध संघर्ष कर रहा है. इस क्रम में जापान, इसराईल और इंगलैंड 5वें स्थान पर हैं जबकि ईरान 8वें स्थान पर है. ईरान का परमाणु कार्यक्रम उस के लिए जोखिम भरा बताया गया है.

भारत के बाद और सब से कम जोखिम वाले इन देशों की सूची में दक्षिण अफ्रीका आखिरी स्थान पर है. सूची में उत्तरी अमेरिका तथा लैटिन देशों का जिक्र नहीं किया गया है. अध्ययन में तो उन्हें शामिल ही नहीं किया गया. उन की अर्थव्यवस्था जोखिम के दायरे में नहीं है.

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