लोकतंत्र में नक्सली आंदोलन की कोई जगह नहीं है और जिस तरह से नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ की झीरम घाटी में परिवर्तन यात्रा पर जा रहे कांग्रेसी नेताओं को चुनचुन कर मारा उस की तो कोई भी वजह सही नहीं हो सकती. पश्चिम बंगाल से ले कर आंध्र प्रदेश तक की पहाडि़यों में फैले नक्सलियों की शिकायतें जो?भी हों, वे राजनीति में बंदूक नीति को थोप नहीं सकते.

नक्सली चाहे अब खुश हो लें कि उन्होंने नक्सल विरोधी सलवा जुडूम के संचालक महेंद्र कर्मा को मार डाला है और अपने हजारों साथियों की मौत का बदला लिया है. पर सच यह है कि यह हमला उन पर भारी पड़ेगा क्योंकि जो सहानुभूति उन्हें अब तक मीडिया, विचारकों व अदालतों से मिलती भी थी, वह अब गायब हो जाएगी और नक्सलवाद का हाल अलकायदा का सा हो जाएगा.

इस में संदेह नहीं कि पिछले 50-60 सालों में पहाड़ी क्षेत्रों के आदिवासियों को शहरियों ने जम कर लूटा है. उन्हें अछूत तो माना ही गया, उन की जमीनों, गांवों, जंगलों पर कब्जा कर के शहर, सड़कें, फैक्ट्रियां भी बना डाली गईं और खानों से अरबोंखरबों का खनिज निकाल लिया गया. अब जब वे मुखर होने लगे तो कानूनों का हवाला दे कर उन का मुंह बंद करने की कोशिश की गई. बहाना बनाया गया विकास के लिए यह जरूरी था, पर किस के विकास के लिए? विकास हुआ तो शहरियों का, अफसरों का, नेताओं का, ठेकेदारों का और अमीरों का.

राजनीति और लोकतंत्र भी उन्हें बहुमत होने के बावजूद मुक्त न कर सके क्योंकि सरकार शहरियों की बनती और आदिवासियों के चुने लोगों को खरीद कर पालतू बना लिया जाता. 2-3 दशक तक तो आदिवासी चुपचाप देखते रहे, पर बाद में उन में से मुखर लोगों ने हिंसात्मक रुख अपना कर प्रतिशोध लेना शुरू किया. बदले में सरकार ने और अधिक शक्ति का प्रयोग किया. नतीजा यह है कि कल तक के डरपोक आदिवासी आज अपनी सेनाएं बना कर हमले कर रहे हैं.

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