सौर ऊर्जा भविष्य में ऊर्जा संकट को हल करने में सब से कारगर तरीका हो सकता है. यही वजह है कि तमाम देश सौर ऊर्जा को अपनी विभिन्न आर्थिक नीतियों व महत्त्वपूर्ण योजनाओं में प्रमुखता दे रहे हैं जबकि भारत में सौर ऊर्जा मिशन सियासत और कमजोर विदेश नीतियों के चलते सफेद हाथी बन कर रह गया है. कैसे, बता रहे हैं कपिल अग्रवाल.
प्रकृति ने हमें सबकुछ प्रचुर मात्रा में दिया है. जरूरत है उस का सही दोहन करने की. लेकिन हमारे यहां हर क्षेत्र में राजनीति इस कदर हावी है कि हम कुछ कर ही नहीं पाते. हालत ऐसी है कि एक रुपए के काम के लिए लाख रुपए खर्च करने के बावजूद नतीजा शून्य ही रहता है.
सौर ऊर्जा ऐसा ही एक क्षेत्र है जो काफी कम लागत पर देश की 60 फीसदी ऊर्जा की जरूरतें पूरी कर सकता है. पर जैसी कि हमारे नेताओं की आदत है, हर बात के लिए विदेशों का मुंह ताकना और रियायती मदद प्राप्त कर मददगारों की मनमरजी के मुताबिक चलना, इस के चलते अन्य क्षेत्रों की तरह इस क्षेत्र का भी बेड़ा गर्क हो कर रह गया है. अरबों रुपए स्वाहा होने के बावजूद स्थिति बेहद शोचनीय है.
जवाहर लाल नेहरू राष्ट्रीय सौर अभियान 2012-13 का पहला चरण समाप्त हो चुका है. दूसरे चरण की घोषणा हो गई है. करीब 2 हजार मेगावाट वाली ग्रिड आधारित सौर ऊर्जा विकसित करने के लक्ष्य के विपरीत केवल 300 मेगावाट का लक्ष्य ही हासिल हो पाया है. कारण, वही पुराना. अमेरिकी बैंक से सस्ता ऋण और बेहद महंगी व अनुपयुक्त तकनीक के उपयोग की बाध्यता व समस्त खरीद अमेरिका की दिवालिया होती कंपनियों से ही करने की अनिवार्यता. हालत यह हो गई है कि हमारी प्रति यूनिट लागत जहां लगभग 11 रुपए आ रही है वहीं वैश्विक स्तर पर यह घट कर 3-4 रुपए प्रति यूनिट (प्रति किलोवाट प्रतिघंटा) तक आ गई है. अपने देश में जहां बिजली की किल्लत के चलते हायतोबा मची है और बगैर पर्याप्त बिजली हासिल किए भारीभरकम बिलों से जनता परेशान है वहीं विश्व के अधिकांश देशों में यह कोई समस्या ही नहीं है.
गत वर्ष की तीसरी तिमाही में कनाडा के एक नागरिक ने चीन से मात्र 2,264 अमेरिकी डौलर की एक मिनी सौर यूनिट खरीद कर अपने यहां लगाई और अपने उपयोग के बाद बची बिजली आसपास के 4 घरों को देना शुरू कर दिया. अब उस की घर बैठे अच्छीखासी आमदनी हो रही है. अधिकांश क्षेत्रों की तरह चीन भी इस क्षेत्र में अग्रणी है. वहां सामान्य नागरिक अपनी जरूरतों के लिए जहां सौर ऊर्जा का इस्तेमाल कर रहे हैं वहीं बड़ेबड़े उद्यमों के लिए उच्च क्षमता वाले विद्युत प्लांट लगे हैं.
दरअसल, हमारे यहां इस क्षेत्र की शुरुआत ही बहुत गलत तरीके से की गई. हम ने प्रारंभ से ही अमेरिका का दामन थाम लिया, जिस से उसे दोहरा लाभ हुआ और हम बरबाद होते चले गए. शुरुआत में अमेरिका की तमाम बड़ी कंपनियों ने उस समय उपलब्ध फोटोवोल्टाइक सेल की बाबत महंगी जटिल आयातित थिन फिल्म तकनीक को अपनाया पर अत्यधिक लागत के चलते वे दिवालिया हो गईं. अब उन्हीं कंपनियों को जीवनदान के लिए भारत के सामने एक्जिम बैंक के माध्यम से
6 फीसदी पर रियायती ऋण देने का प्रस्ताव रखा गया. साथ ही, शर्त यह थी कि समस्त संबंधित खरीद इन्हीं दिवालिया अमेरिकी कंपनियों से ही की जाएगी. अमेरिका को इस से जहां दोहरा लाभ हुआ वहीं भारत को तिहरा घाटा. जलवायु परिवर्तन समझौते के तहत अमीर देश विकासशील मुल्कों को तीव्र व तत्काल वित्तीय मदद मुहैया कराने के लिए तैयार हुए थे. इसीलिए अमेरिका ने सारी व्यवस्था कर के सभी रियायती मदद, जलवायु परिवर्तन के लिए दी जाने वाली राशि संबंधी खाते से संबद्ध कर दी. यानी एक तरफ वह जलवायु परिवर्तन से लड़ाई में शामिल हो गया, दूसरी तरफ उस का दिवालिया हो रहा घरेलू उद्योग फिर से पनप उठा.
भारत को इस से पहला नुकसान यह हुआ कि इस की संपूर्ण योजना बुरी तरह असफल हो गई और कीमती समय व धन मिट्टी में मिल गया. दूसरा घाटा यह हुआ कि घरेलू उद्योग व सौर प्रोजैक्टों को दी गई भारीभरकम सब्सिडी बिलकुल व्यर्थ सिद्ध हुई. तीसरा देसी उद्योग बरबाद हो गया व आम जनता का इस तकनीक से विश्वास उठ गया. हम ने ग्रिड पर आधारित सौर ऊर्जा को अपनाया, जिस का वास्तविक लाभ केवल रसूखदारों को मिला और आम जनता इस से वंचित रह गई.
आज हालत यह है कि चीन के सस्ते आयातित उपकरण दुनियाभर में छा गए हैं और हमारी घरेलू 90 फीसदी सौर ऊर्जा इकाइयां या तो बंद हैं या कर्ज पुनर्गठन की राह तक रही हैं. बहरहाल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, केरल व गुजरात में कुछ एनजीओ ने चीन के सस्ते आयातित उपकरण व संयंत्र ग्रामीण इलाकों और नई विकसित कालोनियों में लगाने शुरू किए हैं, जिस से जनता को भारी राहत मिली है. आर्थिक स्थिति में सुधार के अलावा बेहद छोटीछोटी खुदरा दुकानों को इस से भारी लाभ हुआ है.
तमिलनाडु के कुंडूवला क्षेत्र में 3 गांवों की सौर ऊर्जा ने रातोंरात काया पलट दी. एक एनजीओ ने चीन से मात्र साढ़े 6 लाख रुपए में आयात किए गए सौर पैनल संयंत्र लगाए हैं जिन से उन की रोजमर्रा की घरेलू जरूरतें पूरी हो गईं व छोटेमोटे कामधंधे चल निकले. सब से बड़ी बात यह है कि 24 घंटे, सातों दिन भरीपूरी बिजली खपाने के बावजूद किसी को एक पैसे का भी बिल नहीं अदा करना पड़ता. केवल सौर पैनलों की मैंटिनैंस का मामूली खर्चा तीनों गांवों के लोग मिल कर उठाते हैं. इसी प्रकार केरल, तमिलनाडु व आंध्र प्रदेश के 100 से भी ज्यादा पिछड़े इलाकों में सौर लालटेन, सौर चूल्हा, सौर प्रैस, सौर गीजर आदि तमाम घरेलू व वाणिज्यिक उपयोग के उपकरण एनजीओ द्वारा वितरित किए गए हैं. इस से यहां के लोगों की परेशानियां कम हुई हैं व जीवन स्तर सुधरा है.
यानी अमेरिका से कर्जे ले कर व अरबों रुपए स्वाहा कर जो काम सरकार का राष्ट्रीय सौर अभियान नहीं कर पाया वह बगैर ज्यादा लागत के तमाम एनजीओ बड़ी कुशलता से सफलतापूर्वक कर रहे हैं. सरकार को इस से सबक लेना चाहिए.
इस के उलट सरकार ने बगैर अपनी नीति में परिवर्तन किए सौर ऊर्जा अभियान का दूसरा दौर शुरू कर दिया है. 2017 तक चलने वाले इस अभियान के बाबत सरकार के पास कोई धनराशि उपलब्ध नहीं है. एक बार फिर इस के लिए विदेशी मदद लिए जाने की योजना है. स्वच्छ व ज्यादा शक्ति वाली सौर ऊर्जा को पर्यावरण प्रदूषण उत्पन्न कर बनने वाली कोयले जनित बिजली से मिला कर ग्रिड में समाहित कर दिया जाएगा. इस प्रकार इस का 65 फीसदी भाग बगैर उपयोग ही बरबाद हो जाता है. विश्व में कई देश बेहद स्वच्छ व उन्नत सौर ऊर्जा विकसित कर उस का सीधा उपयोग कर रहे हैं जो बहुत ही किफायती है.
भारत सरकार यदि अमेरिकी शिकंजे से मुक्त हो कर अपने बाजार व घरेलू उद्योग को पूरी तरह स्वतंत्र कर दे तो देश में व्याप्त कई समस्याएं स्वयमेव समाप्त हो जाएंगी. उदाहरण के तौर पर सौर चूल्हे के उपयोग को बढ़ावा देने से न केवल कुकिंग गैस की समस्या हल होगी बल्कि सरकार का सब्सिडी संबंधी बिल भी कम होगा. इसी प्रकार मात्र एक ट्यूबलाइट की रोशनी से ऊर्जा ग्रहण करने वाले घरेलू सौर पैनलों का निर्माण चीन में शुरू हो चुका है, जिस से एक टैलीविजन, कंप्यूटर या एक पंखा आराम से चल सकता है. सौर ऊर्जा से चलने वाले एअरकंडीशनर भी आने लगे हैं जो न केवल अधिक ठंडक देते हैं बल्कि ऊर्जा की खपत भी कम करते हैं. यदि हम आम जनता की घरेलू ऊर्जा की जरूरत को ग्रिड की निर्भरता से मुक्त कर दें और आम जनता को छोटेछोटे सौर उपकरणों के इस्तेमाल के लिए प्रोत्साहित करें तभी हमारी सौर नीति का दूसरा चरण सही माने में सफल माना जाएगा.
हमारे देश में केवल गुजरात ने कुछ इसी तरह का मौडल अपनाया है और उस का 1,932 करोड़ रुपए के घाटे वाला ऊर्जा निगम मार्च 2012 तक 642 करोड़ रुपए का मुनाफा दर्ज कर चुका है. भारत विश्व के उन चुनिंदा देशों में है जहां लगभग पूरे साल भरपूर सौर ऊर्जा उपलब्ध रहती है. आम जनता की छोटीमोटी जरूरतों के लिए हम इस का भरपूर उपयोग कर सकते हैं. अगर सौर नीति सही ढंग से क्रियान्वित की जाए तो देश की विद्युत संबंधी समस्या हमेशाहमेशा के लिए समाप्त हो सकती है.