मैं 7 बहनों और 1 भाई वाले, बड़े परिवार में पलने वाली सब से छोटी और लाडली बेटी हूं. संकीर्ण विचारधारा वाले समाज में रहने के बावजूद मेरे पापा ने हम बहनों को ढेर सारा प्यार दिया. हम लोगों को उच्च शिक्षा दिला कर अपनेअपने लक्ष्य तक पहुंचाने में मदद की. जबकि लोग उन के प्रति ‘बेचारगी’ की भावना रखते थे.
उन्होंने समाज के समक्ष एक अलग नजरिया रखा था कि बेटियां पराया धन नहीं, बल्कि महकता फूल हैं, जो समाज को खुशनुमा बनाती हैं. आज मेरे पापा इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन उन का मधुर प्यार और स्नेह मैं आज भी महसूस करती हूं.
मोनिका, लखनऊ (उ.प्र.)
मेरे पापा न जाने कितने वर्षों से सोमवार का उपवास रखते आ रहे हैं. पर मैं ने पापा से इस उपवास के बारे में कभी चर्चा नहीं की थी.
कुछ महीने पहले, छोटे भाई के घर पर हम भाईबहन, भाभियां व मम्मीपापा इकट्ठा हुए. रात को बातोंबातों में ही मेरे पति पापा से पूछने लगे कि आप सोमवार का व्रत कब से रख रहे हैं? पापा ने जो बताया उसे सुन कर मैं श्रद्धा से नतमस्तक हो गई.
पापा ने बताया कि 1962 में भारत का पड़ोसी देश से युद्ध चल रहा था. उस समय लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री थे. उस समय देश में अनाज की कमी पड़ रही थी. पड़ोसी देश ने अनाज देने के लिए शर्त रखी, जिसे शास्त्रीजी ने नकार दिया और अनाज की कमी से निबटने के लिए पूरे देश से एक समय उपवास रखने का आह्वान किया. रैस्टोरैंट आदि बंद कर दिए गए. जनता से सोमवार को एक वक्त खाना खाने की अपील की गई. तब पापा ने देशहित में सहयोग देने के लिए जो उपवास रखा वह आज तक चला आ रहा है. ऐसे महान और संवेदनशील हैं मेरे पापा.