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प्रत्युषा का कमबैक

‘बालिका वधु’ से पौपुलर हुई प्रत्युषा बनर्जी जल्द ही एक नए टीवी शो में बंगाली बहू की भूमिका में नजर आएंगी. शो का नाम अभी तय नहीं हुआ है. इस में वे एक मौडर्न अवतार में दिखाई पडें़गी. प्रत्युषा के अचानक बालिका वधु छोड़ने को ले कर यह सुनने में आ रहा था कि उन्हें शो से निकाल दिया गया है जबकि प्रत्युषा ने अपनी मां की आंखों के औपरेशन के बाद सेवा की दुहाई दी थी.

बात चाहे कुछ भी हो पर प्रत्युषा को एक बार फिर मौका मिल रहा है. इस बार वे निर्मातानिर्देशक को परेशान नहीं करेंगी बल्कि अपने काम पर ध्यान देंगी. इसी में भलाई है प्रत्युषाजी नहीं तो आप समझ ही गई होंगी.

रहमान की शहनाई

जल्द ही रिलीज होने वाली फिल्म ‘रांझणा’ में अच्छा संगीत सुनाई देगा ऐसी उम्मीद है. निर्देशक आनंद राय ने इस फिल्म में बनारस को फिल्माने की वजह से उस में बनारस के पारंपरिक संगीत को डाला है. संगीतकार ए आर रहमान ने बनारसी अंदाज को बयान करने के लिए शहनाई सम्राट उस्ताद बिस्मिल्ला खान की शहनाई को शामिल किया है. यह बिस्मिल्ला खान के प्रति एक सम्मान है.

सभी बड़े संगीतकार अपने गानों में बड़ेबड़े उस्तादों के योगदान को याद करेंगे तो एक अच्छा संगीत सुनने को तो मिलेगा ही साथ ही, हमारे संगीत की परंपरा लुप्त होने से भी बच सकेगी.

 

प्रीति का फ्लौप शो

प्रीति जिंटा इन दिनों बुरे दौर से गुजर रही हैं. पहले प्रेमी नेस वाडिया से ब्रेकअप ने उन का दिल तोड़ा फिर आईपीएल में उन की टीम किंग्स इलैवन की फिसड्डी परफौर्मेंस ने. अब उन की फिल्म ‘इश्क इन पेरिस’ बौक्स औफिस पर धड़ाम हो गई. वे न सिर्फ इस फिल्म की निर्माता हैं बल्कि कहानी और स्क्रीन प्ले भी उन्होंने लिखा है. उन्हें उम्मीद थी कि इस फिल्म के जरिए उन्हें इंडस्ट्री में खोया रुतबा वापस मिल जाएगा.

बैडमैन बने ऋषि कपूर

वर्ष 2012 में फिल्म अग्निपथ में ऋषि कपूर ने रौफ लाला की निगेटिव भूमिका निभा कर दर्शकों की काफी प्रशंसा बटोरी. अब वे फिल्म औरंगजेब में पुलिस औफिसर की भूमिका में हैं. इस किरदार में?भी खलनायक की झलक है. ऋषि कपूर मौजूदा वक्त के खलनायक के रूप में उभर रहे हैं. अच्छी बात है कि वे वक्त के साथसाथ खुद को ढाल रहे हैं. यही वजह है कि उन्होंने फना, नमस्ते लंदन, लव आजकल, दो दूनी चार आदि फिल्मों में काम किया है. कई दूसरे कलाकारों की तरह गुमनाम जिंदगी नहीं बिता रहे.

सना बनी सनसनी

सलमान खान यारों के यार माने जाते हैं. तभी तो बिग बौस की प्रतिभागी रही और फिल्म ‘मेंटल’ की अदाकारा सना खान के सपोर्ट में उतर आए हैं. उन पर एक नाबालिग लड़की को अपहरण करने का आरोप लगा है. सना ने अपने भाई की शादी एक 15 साल की लड़की के साथ करवाने के लिए उस का अपहरण करने की कोशिश की. ऐसे वक्त में सल्लू ने ट्विटर पर लिखा है कि बेचारी सना, दुख हुआ. पहले उसे मशहूर होने दीजिए, उस के बाद कटघरे में खड़ा करिए. कोई लड़की आखिर एक 15 वर्षीय लड़की का अपहरण क्यों करेगी?

सल्लू भैया, यह तो जांच के बाद ही पता चल पाएगा, लेकिन उस की इतनी तरफदारी आखिर क्यों?

गौड पार्टिकल और धार्मिक अंधविश्वास

गौड पार्टिकल से जुड़े धार्मिक अंधविश्वास को वैज्ञानिकों ने निराधार साबित कर जता दिया है कि विज्ञान मानव जाति को सृष्टि के जन्म तथा विकास से जुड़े धार्मिक पाखंडों की अंधेरी गलियों से ठोस व तार्किक आधार द्वारा बाहर निकालने के लिए कटिबद्ध है. सदियों से धार्मिक हैवानियत और यातनाओं से गुजर कर दुनिया को सच से वाकिफ कराते वैज्ञानिक प्रयासों पर पढि़ए जितेंद्र कुमार मित्तल का लेख.

विज्ञान की नईनई खोजें सृष्टि के रहस्यों को समझने में हमारी मदद करती आई हैं. पिछले दिनों वैज्ञानिकों द्वारा की गई उस कण (पार्टिकल) की खेज इसी शृंखला की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है जो इस ब्रह्मांड को आकार देने में अहम भूमिका निभाता है और जो ‘हिंग्स बोसौन’ या ‘गौड पार्टिकल’ के नाम से जाना जाता है. यूरोपीय सैंटर फौर न्यूक्लियर रिसर्च यानी सर्न की 2 टीमें इस महत्त्वपूर्ण खोज में वर्षों से लगी हुई थीं और अब ऐसा लगता है कि उन की यह मेहनत रंग लाई है और वे इस गुत्थी को सुलझाने में कामयाब रही हैं.

मोटे तौर पर सृष्टि की हरेक चीज चाहे वे तारे, ग्रह या फिर हम स्वयं ही क्यों न हों, मैटर यानी पदार्थ से बनी हैं और पदार्थ अणु व परमाणुओं से बना है. ‘मास’ यानी द्रव्यमान वह फिजिकल प्रौपर्टी है जिस से अणु व परमाणुओं जैसे तमाम कणों को ठोस रूप मिलता है. अगर यह ‘मास’ यानी द्रव्यमान (भार) नहीं होगा तो ये कण रोशनी की रफ्तार से ब्रह्मांड में दौड़ते रहेंगे और कभी भी दूसरे कणों के साथ मिल कर किसी ठोस आकार में बदल नहीं सकेंगे. यही ‘मास’ जब गुरुत्वाकर्षण से गुजरता है तो वह भार के रूप में भी मापा जा सकता है.

सब से अहम सवाल जो वैज्ञानिकों को बरसों से परेशान कर रहा था वह यह था कि यह ‘मास’ या भार आखिर आता कहां से है? जब तमाम कणों को एक निश्चित वैज्ञानिक व्यवस्था के अनुरूप रख कर इस सवाल का जवाब तलाशने की कोशिश की गई तो वैज्ञानिकों को इस में किसी कण की कमी या गैप नजर आने लगा.

वर्ष 1965 में इस कमी को भरने के लिए इस अज्ञात कण को ब्रिटिश वैज्ञानिक पीटर हिंग्स ने ‘गौडडैम पार्टिकल’ की संज्ञा दी लेकिन बाद में उन के संपादक ने ‘गौडडैम’ में से ‘डैम’ को काट कर इसे ‘गौड पार्टिकल’ बना दिया. चूंकि क्वांटम यांत्रिकी के क्षेत्र में अलबर्ट आइंस्टीन के समकालीन भारतीय वैज्ञानिक सत्येंद्रनाथ बोस ने महत्त्वपूर्ण काम किया था, जिसे बाद में आइंस्टीन ने और आगे बढ़ा कर ‘बोस आइंस्टीन थ्योरी’ के रूप में पेश किया, इसीलिए इस कण को हिंग्स और बोस दोनों के नामों को जोड़ कर हिंग्स बोसौन पार्टिकल’ नाम दिया गया.

हिंग्स बोसौन कण लगभग रोशनी की रफ्तार से दौड़ता है और उसे पकड़ पाना मुश्किल है. उसे नजर में लाने व उस का विश्लेषण करने के लिए इतनी शक्ति की जरूरत थी, जितनी अरबों वर्ष पहले ब्रह्मांड के जन्म के समय रही होगी, इसलिए दुनियाभर के कुछ गिनेचुने वैज्ञानिकों ने वर्ष 2008 में 10 अरब डौलर की लागत से 27 किलोमीटर लंबी गोलाकार सुरंग बनाई, जिसे एलएचसी यानी ‘लार्ज हैड्रौन कोलाइडर’ का नाम दिया गया.

वैज्ञानिकों का यह मानना था कि इस प्रयोग से ब्रह्मांड के रहस्यों से परदा उठेगा, लेकिन कुछ सिरफिरे लोग ऐसे भी थे जो यह मानते थे कि यह भगवान के काम में हस्तक्षेप करने जैसा है और इसलिए इस मशीन का बटन दबाते ही दुनिया खत्म हो जाएगी. लेकिन दुनिया खत्म नहीं हुई और यह प्रयोग अंधविश्वासी लोगों की तमाम आशंकाओं को गलत साबित कर पूरी तरह सफल रहा.
इस कौलाइडर में प्रोटोंस को रोशनी की रफ्तार से दौड़ा कर जब टकराया गया तो उस से जो ऊर्जा पैदा हुई उस से कई कण वजूद में आए. तभी यह भी पता लगाया गया कि इन कणों में से एक कण ‘गौड पार्टिकल’ था.
सर्न के डायरैक्टर रौल्फ डीहेयर के शब्दों में, ‘‘प्रकृति को समझने की दिशा में हम अपनी मंजिल तक पहुंच गए हैं. हिंग्स बोसौन पार्टिकल की खोज नई खोजों का रास्ता खोलेगी, जिन से ब्रह्मांड के दूसरे रहस्य भी खुलेंगे.’’

हिंग्स बोसौन सिद्धांत के जन्मदाता पीटर हिंग्स अब काफी वृद्ध हो चुके हैं. उन्होंने इस खोज पर अपनी खुशी का इजहार कुछ इस तरह किया, ‘‘मुझे अपने जीवनकाल में इस सदी की इतनी महत्त्वपूर्ण खोज की उम्मीद नहीं थी.’’ लिवरपूल विश्वविद्यालय के प्रोफैसर थेमिस बोकौक के अनुसार, ‘‘भौतिकशास्त्रियों के लिए यह खोज उतनी ही महत्त्वपूर्ण है जितनी कोलंबस द्वारा अमेरिका की खोज.’’

इस खोज से यह साफ हो जाता है कि दुनियाभर के वैज्ञानिक मानवजाति को सृष्टि के जन्म व विकास से जुड़े धार्मिक किस्सेकहानियों की अंधेरी बंद गलियों से निकाल कर एक ठोस तार्किक व वैज्ञानिक आधार प्रदान करने के लिए कटिबद्ध हैं. लेकिन इतिहास इस बात का गवाह है कि धर्मगुरुओं ने हमेशा ही वैज्ञानिक खोजों का विरोध किया है. यूरोप में तो धार्मिक पुनर्जागरण के प्रारंभिक दिनों में अपनेआप को भगवान का दूत कहने वाले पादरियों द्वारा कई वैज्ञानिकों को नरक का भागी करार दे दिया गया, यहां तक कि उन में से कई को तो जिंदा जला कर मार डालने का अमानवीय काम भी किया गया.

पादरी लोग वैज्ञानिकों को यह कह कर सजा देते रहे हैं कि बाइबिल जैसे धर्मगं्रथ स्वयं भगवान ने लिखे हैं और वे उन के खिलाफ कुछ नहीं कह सकते. यहां पर सवाल उठता है कि अगर बाइबिल भगवान ने लिखी है तो फिर उस में ऐसी बातें कहां से आ गईं जो बाद में वैज्ञानिक खोजों ने गलत साबित कर दीं. मानव जाति की उत्पत्ति संबंधी ‘आदम और हव्वा’ की कहानी जब डार्विन ने अपने विकास के सिद्धांत से गलत साबित कर दी तो उन के समकालीन धर्मगुरुओं ने उन के खिलाफ भी फतवे जारी किए थे. आज उन धर्मगुरुओं के शायद किसी को नाम तक याद नहीं होंगे, लेकिन डार्विन मानवीय प्रगति के इतिहास में हमेशा के लिए अमर हो गए.

हमारे यहां कहा जाता रहा है कि वेदों की रचना स्वयं भगवान ने की है, लेकिन चार्वाक ने हिंदू धर्मगुरुओं की परवा न करते हुए यह स्पष्ट किया कि वेदों की रचना भगवान द्वारा नहीं, बल्कि जीतेजागते हाड़मांस के इंसानों ने की थी. चार्वाक के विरोधियों के पास उन के कथन को गलत साबित करने का कोई ठोस तर्क नहीं था और शायद इसीलिए उन्होंने यह कह कर अपने मन की भड़ास निकाली कि भगवान का अनादर करने के अपराध में चार्वाक व उन के शिष्यों को अगले जन्म में सियार की योनि में जन्म लेना पड़ेगा.

तेरहवीं सदी के ब्रिटिश दार्शनिक व वैज्ञानिक रौजर बैकन को अपने वैज्ञानिक विचारों के लिए तथा मध्ययुगीन चर्च के अंधविश्वासों का विरोध करने के जुर्म में बारबार जेल जाना पड़ा.

बैकन के बाद 1327 में खगोलशास्त्री सेको द एस्कोली को धर्म के पैरोकारों ने इसलिए जिंदा जला डाला था कि उन का मानना था कि दुनिया गोल है और इसीलिए उस के दूसरी ओर भी लोगों के रहने की संभावना है. 1513 के आसपास कोपरनिकस ने मानवजाति की महानतम खोज की थी कि धरती सूरज की परिक्रमा करती है. इस के 300 साल बाद तक चर्च इस सत्य को झुठलाता रहा और इस बात को मानने वाले लोगों को सजा देता रहा.

धर्मधुरंधरों की इसी हैवानियत का सुबूत हैं दार्शनिक बू्रनो, जिन्हें 1600 में रोम में जिंदा जला कर मार डाला गया. बू्रनो के बाद गैलीलिओ को भी इसी सत्य का प्रतिपादन करने के अपराध में जेल में डाल दिया गया और उन्हें अनेक यातनाएं दी गईं. गैलीलिओ का अपराध भी यही था कि वे चर्च के अंधविश्वासों के खिलाफ थे.

इतिहास इस तरह की धार्मिक हैवानियत की सच्ची घटनाओं से भरा पड़ा है जब पोंगापंथी धर्मगुरुओं ने अपने धार्मिक अंधविश्वासों की रक्षा के लिए सचाई को ही सूली पर चढ़ा दिया. आज स्थिति यह है कि अपने धर्म को बचाने के लिए धर्मगुरुओं को आखिरकार विज्ञान के सामने घुटने टेकने पडे़ और यह कहने के लिए मजबूर होना पड़ा कि जीसस व बाइबिल की कहानियों को उन के शाब्दिक अर्थ में नहीं लिया जाना चाहिए.

धर्म के नाम पर ही दुनिया में बारबार युद्ध लड़े गए और लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया. हिटलर द्वारा यहूदियों का कत्लेआम व मुसलिम आतंकवाद इसी सिक्के का दूसरा घिनौना पहलू है. जिस धर्म के नाम पर व्यक्ति हैवान बन जाता है और बड़ी निर्दयता से दूसरों की जान ले लेने पर उतारू हो जाता है, उस से आदमी या समाज को भला क्या लाभ मिल सकता है?

समाजशास्त्रियों के दृष्टिकोण से अगर धर्म की व्याख्या करें तो बादलों के गरजने, बिजली के गिरने या फिर भूकंप आने जैसी प्राकृतिक आपदाओं से डर कर आदिम मनुष्य ने धर्म व भगवान का निर्माण किया और उस आदिम मानव के मन का डर व अज्ञान आज तक मनुष्य व समाज के मन पर हावी है.

परीक्षा में पेपर खराब हो जाने का डर हो या व्यापार में घाटे का या फिर परिवार के किसी सदस्य की गंभीर बीमारी का डर, कमजोर इंसान आज भी भगवान, मंदिर या फिर किसी धर्मगुरु की शरण में पहुंच जाता है और शायद इसलिए निर्मल बाबा जैसे ढोंगी धर्मगुरु लोगों को बेवकूफ बना कर उन से करोड़ों रुपए बटोरने में कामयाब हो जाते हैं.

कई बार आसानी से धन कमाने का लालच भी लोगों को इन धर्मगुरुओं की शरण में ले जाता है क्योंकि धर्मगुरु निरंतर प्रचार करते रहते हैं कि दुख दूर करने हैं तो धर्म की दुकान पर आओ. और पर्याय न होने के कारण वहां जाने के अलावा कोई रास्ता नहीं होता. वहां एक बार लुट जाने पर बारबार जुआरी की तरह लुटने की आदत बन जाती है.

न्यूयौर्क से ले कर नई दिल्ली तक, धर्मगुरुओं के सैक्स स्कैंडलों से हर कोई वाकिफ है. किस प्रकार नित्यानंद जैसे हैवान अपनी जिस्मानी भूख मिटाने के लिए भोलीभाली लड़कियों को अपना शिकार बनाते हैं, यह किसी से छिपा नहीं है. अपने पति से तलाक होने के बाद जब दक्षिण की मशहूर अभिनेत्री रंजीता जैसी कोई महिला मन की शांति के लिए किसी स्वामी की शरण में जाती है तो उसे शांति और गुरुमंत्र के नाम पर मिलता है एक और वहशी, जो उसे अशांति के गर्त में और गहरे धकेल देता है.

आज तमाम वैज्ञानिक खोजों के बावजूद इस तरह के स्वामियों का समाज में बोलबाला है. इन में से कई पर तो लाखों लोग आंख मूंद कर विश्वास करते हैं, जिन के पास बड़ेबड़े आश्रम हैं, बेशुमार दौलत है, जो बड़ीबड़ी कारों व हवाई जहाजों में घूमते हैं. इन धर्मगुरुओं के ऐशोआराम व ऐयाशी देख कर शायद पुराने राजामहाराजाओं को भी अपनेआप पर शर्म आने लगे. उन के ये ऐशोआराम व भोगविलास, सबकुछ उन के अनुयायियों के बड़ेबड़े दान के बल पर चलते हैं. कई धर्मगुरुओं की राज्य व केंद्र सरकार के मंत्रियों तक पहुंच है और वे अपने अनुयायियों के जरिए सरकार से काम निकलवाने के लिए दलालों का काम करते हैं. ये धर्मगुरु माया बटोरने के लिए किसी भी हद तक गिर सकते हैं. इस का जीताजागता उदाहरण है चित्रकूट वाले एक स्वामी जिस ने 1 हजार से भी ज्यादा सुंदरियां अपने जाल में फंसा रखी थीं, जिन्हें वह राजनीतिज्ञों व ऊंचे तबके के लोगों को सप्लाई करता था.

इंडियन रैशनलिस्ट एसोसिएशन के अध्यक्ष सनल इदा मारुकु का कहना है, ‘‘मध्यवर्ग के अनेक भारतीय अब इन धर्मगुरुओं से नफरत करने लगे हैं. कई धर्मगुरु अब भगवा वस्त्र पहनने से घबराने लगे हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि कहीं उन के भगवा वस्त्र देख कर लोग उन्हें पाखंडी समझ कर उन पर पत्थर न फेंकने लगें.’’ इदा मारुकु की संस्था की पूरे देश में 200 से भी अधिक शाखाएं हैं, जिन के माध्यम से वे इन धर्मगुरुओं के कुकर्मों का भंडाफोड़ करने का महत्त्वपूर्ण काम कर रहे हैं.

बहरहाल, किसी एक व्यक्ति या संस्था से समाज इस कोढ़ से मुक्ति नहीं पा सकता. इस के लिए जरूरी है कि केवल बड़ेबड़े शहरों में ही नहीं, बल्कि छोटेछोटे कसबों व गांवों में भी पाखंडी धर्मगुरुओं के खिलाफ जनचेतना पैदा की जाए, तभी समाज को इस अभिशाप से मुक्ति मिल सकेगी. इस के साथ ही सरकार को भी इन ढोंगियों को सजा दिलवाने के लिए कठोर कानून बनाने चाहिए और छल व कपट से एकत्र की गई उन की संपत्ति को जब्त करना चाहिए. धर्म के नाम पर पाखंडियों का काला कारोबार ज्यादा समय तक चलने नहीं दिया जाना चाहिए.

शारीरिक संबंध में सहमति

यह आश्चर्य की बात है कि देश की संसद बलात्कार की परिभाषा तय करते हुए सहमति की आयु 16 वर्ष हो या 18 वर्ष इस पर दलीय आधार पर बंट गई. सांसदों से अपेक्षा होती है कि ऐसे मामलों, जिन में सत्ता का कोई दखल न हो, में वे सामाजिक जिम्मेदारी निभाएं. यहां इस विषय पर कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी सब दलीय खेमों में बंट गए.

कुछ दल 16 वर्ष से अधिक की लड़की को शारीरिक संबंधों में सहमति को सही मानना चाहते हैं तो कुछ 18 वर्ष की आयु की. वैसे, दोनों ही पैमाने गलत हैं क्योंकि प्रकृति ने तो लड़की के रजस्वला होते ही शारीरिक संबंधों की आवश्यकता पैदा कर रखी है. जब लड़कालड़की राजी हों तो सहमति का लाभ उस लड़के को मिलना चाहिए जिस पर बाद में लड़की के नाराज होने पर मुकदमा चल रहा हो. जहां सहमति न हो, वहां तो किसी भी आयु का जबरन संबंध बलात्कार ही है. सांसदों को परिपक्वता दिखानी चाहिए थी.

कानूनों में जटिलता

सरकार को जगाने और लालफीताशाही को दूर करने के लिए प्रधानमंत्री ने सुझाव दिया है या कहिए कि फैसला किया है कि नागरिक अधिकार विधेयक के तहत  दिए गए समय के भीतर सरकारी नौकरशाही द्वारा काम पूरा न करने पर नौकरशाहों को जुर्माना भरना होगा. यह विधेयक अन्ना हजारे की 2011 की मांग पर लाया जा रहा है. उस का क्या असर होगा, यह इसी बात से साफ है कि सिर्फ विधेयक लाने में सरकार को 2 साल लग गए और लागू कराने में कितने लगेंगे, पता नहीं.

यह कोरी कागजी बात है कि सरकारी बाबूडम अपने निकम्मेपन के लिए कभी अपनी जेब ढीली करेगा. सरकारी नियम इतने जटिल और ज्यादा हैं कि किसी भी आवेदन को बरसों लटकाना किसी भी बाबू के लिए बाएं हाथ का काम है. सिटीजन चार्टर में चाहे जो मांग रखी जाए, सरकारी चींटियां अपनी गति से ही नहीं चलेंगी, वे हर जगह की चाशनी भी हड़प करती जाएंगी और जनता, अन्ना हजारे और चाहें तो सोनियामनमोहन सरकार भी उस का कुछ नहीं कर सकती.

सरकारों ने देश को सुव्यवस्थित ढंग से चलाने के नाम पर इतने सारे कानून और नियम बना रखे हैं कि उन के बहाने सरकारी दफ्तर चाहे तो कागज 20 साल तक यों ही पड़ा रहे. 15 से 30 दिन में काम पूरा कर देने का कानून लागू करना असंभव  है. जरूरत सरकारी कर्मचारियों पर जुर्माना लगाने से ज्यादा नियम व कानूनों को कम करने और सरकारी अफसरों के विवेकाधिकारों को कम करने की है. ज्यादातर दिक्कतें इसी से आती हैं कि सरकारी दफ्तर किसी भी आवेदन पर सवालिया निशान लगा सकता है.

कागजों और कानूनों में उस के पास सैकड़ों अधिकार हैं जिन की आड़ में वह उल्लू सीधा करने के लिए नएनए नियम, फार्म, प्रक्रियाएं गढ़ सकता है. आमतौर पर बेकार से मामलों में भी आवेदकों से पहचानपत्र, राशन कार्ड, पैन कार्ड, पासपोर्ट, पड़ोसी की सिफारिश, सरकारी अधिकारी द्वारा सत्यापन जैसी शर्तें जोड़ दी जाती हैं. एक में भी कोई खामी हो, मामला लटका दिया जाता है.

ऐसे में समयबद्ध काम करने के नियम कोरे आश्वासनों से ज्यादा कुछ साबित न होंगे. सरकार में जाने और सरकारी नौकरी या नेतागीरी करने का लाभ ही क्या होगा अगर शासन में रह कर सत्तासुख नहीं पाया? 

अभिव्यक्ति और कानून

हिंदी फिल्म ‘जौली एलएलबी’ के कुछ दृश्यों और संवादों को ले कर दिल्ली उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका प्रस्तुत की गई?थी. गनीमत है कि उच्च न्यायालय ने उसे खारिज कर दिया क्योंकि यह याचिका केवल ट्रेलरों पर आधारित थी जो सिनेमाघरों या टैलीविजन पर दिखाए जा रहे हैं. गंभीर बात यह है कि याचिका कुछ वकीलों ने प्रस्तुत की थी.

देशभर के वकीलों ने यह शौक सा अपना लिया कि वे फिल्मों, नाटकों, प्रदर्शनियों, पुस्तकों, टैलीविजन बयानों पर छोटीबड़ी अदालतों में कभी धार्मिक भावनाएं आहत होने के, कभी अश्लीलता के नाम पर तो कभी मानहानि होने का पीड़ा दर्शा कर मामला अदालत में ले जाते हैं. निर्माता, निर्देशक, लेखक, प्रकाशक, संपादक आदि को दूरदराज इलाकों में खींच कर ये वकील बहुत उत्साहित महसूस करते हैं.

असल में वे उस संविधान को अपमानित कर रहे हैं जिस के अंतर्गत उन का व्यवसाय चल रहा है. संविधान की जड़ में विचारों की अभिव्यक्ति है. यह सर्वश्रेष्ठ व सर्वशक्तिशाली अधिकार है. संविधान कोराकागजी शेर बन कर रह जाएगा अगर विचारों की अभिव्यक्ति का अधिकार खोखला हो जाए.

विचारों की अभिव्यक्ति का मतलब ही यह है कि कुछ ऐसा कहना जो किसी को बुरा लगे. चाटुकारिता करने को विचारों की अभिव्यक्ति नहीं कहा जाता. यह अधिकार तो चीन, ईरान, सऊदी अरब, म्यांमार, नाइजीरिया और काफी हद तक रूस जैसे देशों में है जहां जब तक आप तारीफों के पुल बांध रहे हैं, चाहे झूठे हों, आप के पास अवसर ही अवसर हैं.

अधिकार का असली मतलब होता है आलोचना और वह भी कड़ी व कड़वी. मामला चाहे वकीलों को ले कर हो, अदालतों को ले कर हो, धर्म को ले कर हो, संस्कृति का हो, अभिव्यक्ति का अधिकार तभी है जब आप निश्चिंत हो कर दिल की बात कह सकें. सैंसरशिप चाहे सरकार की हो, भगवाई हो, टोपीपगड़ी वालों की हो या काले कोट वालों की हो, गलत है. यह संविधान पर प्रहार है.

अदालतों को तो इस तरह की याचिकाओं को प्रस्तुत करने वालों को फटकारना चाहिए पर वह ऐसा न कर दूसरे पक्ष को समन ही नहीं कभीकभी गिरफ्तारी वारंट भी जारी कर देती हैं, बिना जानेबूझे कि संबंधित व्यक्ति कहां रहता है और पीडि़त वास्तव में कोई हक रखता है या नहीं. भारत में अब इस स्वतंत्रता का हनन सरकार के हाथों कम, जनता के हाथों ज्यादा हो रहा है और इस का अर्थ है कि हमें संविधान की समझ नहीं. लगता है हमारे मन में अभी भी उसी शासन की कल्पना है जो हमारे पलपल का हिसाब रखे हमें जंजीरों में बांध कर रखे.

 

धर्म और औरत

अमेरिका के विदेश मंत्री, जिसे वहां सैक्रेटरी औफ स्टेट कहा जाता है, जौन कैरी ने उन औरतों, जिन्होंने अपने अधिकारों के लिए बेहद हिम्मत दिखाई, का सम्मान करते हुए कहा कि कोई भी समाज या देश उन्नति नहीं कर सकता अगर वह आधी आबादी को पीछे छोड़ दे. विश्व आर्थिक संगठन का मानना भी है कि जिन देशों में औरतों के अधिकार पुरुषों के बराबर हैं वे ज्यादा प्रतियोगी और अमीर हैं और उन देशों में कानून व्यवस्था की स्थिति भी अच्छी है.

पर जौन कैरी यह संदेश दे किसे रहे हैं. सरकारें लगभग सभी देशों में लिंग भेद समाप्त करना चाहती हैं क्योंकि सरकारी बाबूशाही और नेता दोनों जानते हैं कि यदि ज्यादा उत्पादन होगा तो  ज्यादा कर मिलेगा तो उन की मौज भी ज्यादा होगी.

औरतों को घरों में रोकने वाले पति या पिता हरगिज नहीं होते. पति को ऐसा जीवनसाथी चाहिए जो बराबरी से उस की समस्याएं समझे, हल करे और बराबरी से सैक्स सहयोगी बने. मुर्दा सा शरीर पति के लिए न रसोई या ड्राइंग रूम में काम का है न बिस्तर पर. पिता, मनोवैज्ञानिक फ्रायड की भाषा में, बेटी को बेटों से ज्यादा प्यार करता है.

तो फिर समस्या है कहां? जहां है वहां के बारे में सर्वशक्तिशाली अमेरिका के विदेश मंत्री जौन कैरी भी कुछ कहने में घबराते हैं. उन्होंने पाकिस्तान की मलाला यूसुफजई, जिसे तालिबानियों ने बस में गोली मारी थी क्योंकि वह स्कूल जाना चाहती थी, या दिल्ली की 23 साला लड़की, जिसे चलती बस में 6 युवकों ने बुरी तरह रेप किया, रौंदा, पीटा, की समस्याओं की जड़ पर प्रहार करने की हिम्मत नहीं दिखाई.

दुनियाभर में औरतों के साथ भेदभाव धर्म के इशारे पर होता आया है. न जाने क्यों औरतें फिर भी धर्म की ज्यादा गुलाम रहीं, जबकि उन्हें ही धर्म के नाम पर सताया गया. ईसाई धर्म हो, इसलाम हो या हिंदू धर्म, औरतों पर प्रतिबंध धर्मजनित हैं. उन्हें सुरक्षा के नाम पर पालतू जानवर बना कर पिंजरों में रखा गया जहां उन के पर काट दिए गए.

वे केवल थोड़ा सा खाना बनाने या बच्चे पैदा करने की मशीन बन कर रह गईं. धर्मों की नीयत रही कि औरतें लड़ाकू बेटे पैदा करें जो विधर्मी की हत्या करें, उन्हें लूटें, उन की औरतों का बलात्कार करें और अपने धर्म के पंडेपुजारियों को पैसा ला कर दें. पंडेपुजारी ही वे हैं जो औरतों की आजादी के खिलाफ अड़े रहते हैं.

आसाराम, प्रवीण तोगडि़या, अशोक सिंघल, पोप, अयातुल्ला खामेनाई, सब एक सी भाषा बोलते हैं. बड़ी बात यह है कि वे जो मरजी बोल लें, उन पर कोई उंगली नहीं उठा सकता. यदि उन के कथन की पोल खोलो तो धर्म खतरे में पड़ जाता है.

जौन कैरी में हिम्मत है तो धर्मों के खिलाफ बोलें वरना अपना मुंह बंद रखें. औरतें खुद धर्म की गुलाम बनी रहना चाहें, भेड़ों की तरह अपनी कुरबानी देती रहें तो यह धर्मों की सफलता है और सुधारकों की विफलता, क्योंकि वे जौन कैरी की तरह धर्म की पोल खोलना खतरनाक समझते हैं.

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