हिंदी फिल्म ‘जौली एलएलबी’ के कुछ दृश्यों और संवादों को ले कर दिल्ली उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका प्रस्तुत की गई?थी. गनीमत है कि उच्च न्यायालय ने उसे खारिज कर दिया क्योंकि यह याचिका केवल ट्रेलरों पर आधारित थी जो सिनेमाघरों या टैलीविजन पर दिखाए जा रहे हैं. गंभीर बात यह है कि याचिका कुछ वकीलों ने प्रस्तुत की थी.

देशभर के वकीलों ने यह शौक सा अपना लिया कि वे फिल्मों, नाटकों, प्रदर्शनियों, पुस्तकों, टैलीविजन बयानों पर छोटीबड़ी अदालतों में कभी धार्मिक भावनाएं आहत होने के, कभी अश्लीलता के नाम पर तो कभी मानहानि होने का पीड़ा दर्शा कर मामला अदालत में ले जाते हैं. निर्माता, निर्देशक, लेखक, प्रकाशक, संपादक आदि को दूरदराज इलाकों में खींच कर ये वकील बहुत उत्साहित महसूस करते हैं.

असल में वे उस संविधान को अपमानित कर रहे हैं जिस के अंतर्गत उन का व्यवसाय चल रहा है. संविधान की जड़ में विचारों की अभिव्यक्ति है. यह सर्वश्रेष्ठ व सर्वशक्तिशाली अधिकार है. संविधान कोराकागजी शेर बन कर रह जाएगा अगर विचारों की अभिव्यक्ति का अधिकार खोखला हो जाए.

विचारों की अभिव्यक्ति का मतलब ही यह है कि कुछ ऐसा कहना जो किसी को बुरा लगे. चाटुकारिता करने को विचारों की अभिव्यक्ति नहीं कहा जाता. यह अधिकार तो चीन, ईरान, सऊदी अरब, म्यांमार, नाइजीरिया और काफी हद तक रूस जैसे देशों में है जहां जब तक आप तारीफों के पुल बांध रहे हैं, चाहे झूठे हों, आप के पास अवसर ही अवसर हैं.

अधिकार का असली मतलब होता है आलोचना और वह भी कड़ी व कड़वी. मामला चाहे वकीलों को ले कर हो, अदालतों को ले कर हो, धर्म को ले कर हो, संस्कृति का हो, अभिव्यक्ति का अधिकार तभी है जब आप निश्चिंत हो कर दिल की बात कह सकें. सैंसरशिप चाहे सरकार की हो, भगवाई हो, टोपीपगड़ी वालों की हो या काले कोट वालों की हो, गलत है. यह संविधान पर प्रहार है.

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