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बौक्स औफिस पर धूम

हमेशा की तरह मिस्टर परफैक्शनिस्ट आमिर खान ने अपना तुरुप का इक्का साल के आखिर में चल ही दिया. धूम 3 नाम के इस पत्ते ने बौक्स औफिस पर कमाई के सारे रिकौर्ड तोड़ कर साबित कर दिया कि खान ब्रिगेड में उन का कोई भी मुकाबला नहीं कर सकता. शाहरुख खान की चेन्नई ऐक्सप्रैस का रिकौर्ड तोड़ते हुए आमिर की इस फिल्म ने अपने पहले ही वीकेंड में 150 करोड़ से ज्यादा का कारोबार कर लिया है. कहा जा रहा है कि इस के सैटेलाइट राइट्स 70 करोड़ रुपए में बिके हैं और अगर ओवरसीज के कलेक्शन को मिलाया जाए तो लगभग 150 करोड़ के बजट में बनी फिल्म अपनी दोगुनी कीमत यानी 300 करोड़ रुपए वसूल चुकी है. इस में आडियोवीडियो राइट, रेडियो व मोबाइल्स ऐप्लीकेशन के अलावा म्यूजिक राइट की कमाई भी शामिल है.

औस्कर में कामसूत्र

मौडल व अभिनेत्री शर्लिन चोपड़ा कल तक सी गे्रड की फिल्मों और इरोटिक म्यूजिक वीडियो में ही नजर आती थीं, पर लगता है अब उन के भी दिन बदल रहे हैं. पहले प्लेबौय में छपने वाली पहली इंडियन बनने का मौका मिला शर्लिन को, अब खबर है कि उन की अंतर्राष्ट्रीय फिल्म कामसूत्र 3डी को औस्कर की 3 श्रेणियों में शामिल कर लिया गया है. रूपेश पौल की इस फिल्म को 2014 के 86वें औस्कर अवार्ड की 3 श्रेणी, बैस्ट मोशन पिक्चर, ओरिजिनल स्कोर और ओरिजिनल सौंग विद फाइव सौंग की श्रेणी में रखा गया है. बता दें कि यह भारतीय कलाकारों की पहली फिल्म है जिसे इस तरह की कैटेगिरी में नौमिनेट किया गया है. खैर, देखने वाली बात यह है कि इरोटिक फिल्म कितने औस्कर जीतती है.

जैकपौट

इस फिल्म को देखना बहुत बड़ा सिरदर्द मोल लेना है. नसीरुद्दीन शाह जैसे बेहतरीन कलाकार को ले कर बनाई गई इस फिल्म में सबकुछ बकवास है. निर्देशक कैजाद गुस्ताद, जिस ने कई साल पहले अमिताभ बच्चन को ले कर ‘बूम’ फिल्म बनाई थी, ने इस फिल्म को बनाया है. उस वक्त ‘बूम’ का बुरा हाल हुआ था. अब वही हश्र ‘जैकपौट’ का भी होगा.
फिल्म की कहानी गोआ में एक कैसीनो चलाने वाले बौस (नसीरुद्दीन शाह) की है. उस कैसीनो में फ्रांसिस (सचिन जोशी), माया (सनी लियोनी), एंथनी (भारत विकास) और कीर्ति (एलिक्स) आते हैं. इन चारों का एक ही मकसद है, बौस द्वारा रखे गए 5 करोड़ के जैकपौट को जीतना. चारों में से एक ‘जैकपौट’ जीतता है पर कोई बौस के कैसीनो से यह रकम लूट कर ले जाता है. अब इन सभी का प्लान बीमा कंपनी से पैसा वसूलना है. बौस को फ्रांसिस और माया पर शक है. इन सब को मारने के चक्कर में बौस खुद डूब कर मर जाता है और तब रहस्य खुलता है, किस तरह इन चारों ने मिल कर रकम हड़पने की योजना बनाई थी. सब मिल कर लूटी रकम बांट लेते हैं.
फिल्म की कहानी का कोई सिरपैर नहीं है. फिल्म में लफ्फाजी बहुत है. फिल्म एकदम रूखी है. निर्देशन बेकार है. सनी लियोनी की संवाद अदायगी मजोर है. उसे हाफ नैकेड देखने वाले दर्शकों को निराशा ही हाथ लगेगी.
गीतसंगीत पक्ष बेकार है. किसी भी कलाकार की ऐक्टिंग अच्छी नहीं है. गोआ की लोकेशनों पर शूटिंग की गई है. छायांकन कुछ अच्छा है. 

व्हाट ए फिश

इस फिल्म के टाइटल से खुश न होइए. यह फिश न तो आकर्षक है न ही टैस्टी. यह फिश तो ऐक्वेरियम में तैरने वाली है. लेकिन जनाब, इस फिश की वजह से ऐक्वेरियम के साथसाथ पूरे घर की जो हालत होती है, उसे देख कर आप का सिर भन्ना जाएगा.
फिल्म के शुरू होने से पहले यह कह दिया गया है कि इस फिल्म में किसी फिश को कोई हानि नहीं पहुंचाई गई है, मगर दर्शकों के दिमाग का जो भुर्ता बना है उस का क्या?
कहने को यह एक फनी फिल्म है, लेकिन कुछ समझ में आए तभी तो फन पैदा हो. डिंपल कपाडि़या जैसी पुरानी मंझी हुई अभिनेत्री ने यह कैसी फिल्म साइन कर ली?
फिल्म की कहानी बड़ी अजीब है. सुधा मिश्रा (डिंपल कपाडि़या) एक बड़े से घर में अकेली रहती है. उस का पति अमेरिका में रहता है. सुधा बहुत सनकी है, बाथरूम में दीवारों पर नोट चिपका कर रखती है. वह 1 महीने के लिए अमेरिका जाती है तो अपनी भतीजी सुमन (शीबा शबनम) के पति सुमित (सुमित सूरी) से घर की देखभाल करने के लिए कह जाती है, साथ ही ऐक्वेरियम में रखी मछली और मनीप्लांट की देखभाल करने को भी कहती है. सुमित यह घर अपने किसी दोस्त को कुछ दिन रहने के लिए देता है. परिस्थितियां इस तरह घटती हैं कि घर की चाबी पहले सुमित के दोस्त रवि, फिर रवि की दोस्त मीनल, फिर मीनल के भाई राजपाल, फिर राजपाल के दोस्त हुडा के हाथों में आती है और पूरे घर का सत्यानाश हो चुका होता है. मौसी की प्यारी फिश भी मारी जा चुकी होती है, मनीप्लांट भी खत्म हो चुका होता है.
एक छोटी सी फिश को जिंदा रखने के लिए इतना सारा बवाल किया गया है. अगर ढंग से इस फिल्म को बनाया जाता तो फिल्म अच्छीखासी फनी बन सकती थी. लेकिन निर्देशक इस कहानी को सही ट्रीटमैंट देने में सफल नहीं हुआ है.
पूरी कहानी का पीरियड 1 महीने का है. फिल्म का सैकंड हाफ तो कन्फ्यूजन- भरा है. कोई भी कलाकार प्रभावित नहीं करता, गीतसंगीत का तो मतलब ही नहीं है. इस मौंस्टर मौसी और उस की फिश को देखने का कोई तुक नजर नहीं आता.

रज्जो

‘रज्जो’ तवायफ की जिंदगी पर बनी फिल्म है. तवायफ की भूमिका निभाई है कंगना राणावत ने. इस फिल्म में तवायफ का किरदार करने से पहले कंगना राणावत ने बाकायदा कोठों पर जा कर वेश्याओं और नाचने वालियों को देखा ताकि उस के रोल में जान आ सके. लेकिन फिर भी यह तवायफ दर्शकों को अपनी ओर खींच पाने में नाकाम रही है.
‘रज्जो’ की कमजोरी इस की कहानी और कंगना राणावत से फिल्म के नायक पारस अरोड़ा का उम्र में काफी छोटा होना है. लगता है फिल्म बनाने से पहले निर्देशक ने इन पहलुओं पर ध्यान नहीं दिया.
‘रज्जो’ एक बच्ची की कहानी है जिसे उस का जीजा एक किन्नर (महेश मांजरेकर) के हाथों बेच देता है. बड़ी होने पर रज्जो को कोठे पर पहुंचा दिया जाता है. एक दिन चंदू (पारस अरोड़ा) नाम का युवक कोठे पर जाता है. उसे रज्जो से प्यार हो जाता है. दोनों शादी कर लेते हैं. उधर एक डांस बार का मालिक हांडे भाऊ (प्रकाश राज) पैसे कमाने के लिए रज्जो को अपने डांस बार में नचाना चाहता है लेकिन रज्जो और चंदू तो कोठे से भाग चुके होते हैं. हांडे भाऊ के आदमी इन दोनों के पीछे पड़ जाते हैं परंतु रज्जो हिम्मत कर के छिपतेछिपाते हांडे भाऊ के एक प्रोग्राम में पहुंच जाती है और वहां स्टेज पर अपना डांस परफौर्म करती है. वहां बैठी समाजसेविका जानकी देवी (जयाप्रदा) और मुख्यमंत्री रज्जो की प्रतिभा की तारीफ करते हैं और उसे अलमोड़ा आने का न्योता दिया जाता है. मुख्यमंत्री भी रज्जो की प्रतिभा को देशविदेश में पहुंचाने का वादा करते हैं. हांडे भाऊ देखता रह जाता है.
यह कहानी एकदम फ्लैट है. कंगना राणावत को काफी कम उम्र का दिखाया गया है. उस की ऐक्टिंग में बनावटीपन है.
फिल्म का निर्देशन कमजोर है. निर्देशक ने कंगना राणावत पर एक भड़काऊ गाना ‘जुल्मी रे जुल्मी…’ फिल्माया है जो अच्छा बन पड़ा है.
फिल्म के कुछ संवाद अच्छे जरूर हैं परंतु उन की अदायगी ठीक ढंग से नहीं हो पाई. महेश मांजरेकर और दिलीप ताहिल के किरदारों को खामखां खर्च किया गया है. विलेन के किरदार में प्रकाश राज की खलनायकी पर दर्शक हंसते हैं. फिल्म का गीतसंगीत पक्ष साधारण है. छायांकन ठीक है.
 

धूम-3

धूम-3’ में बाइक्स के स्टंट ज्यादा हैं. फिल्म शुरू होते ही एक्सीलरेटर इतना तेज दबाया है कि फिल्म का मुख्य किरदार हवा से बातें करता हुआ बाइक को भगाता जाता है और अमेरिका के शिकागो शहर की पुलिस भी मध्यांतर तक उसे पकड़ नहीं पाती.
हमारे देश में जब से विदेशी बाइक्स आई हैं. युवाओं में उन के प्रति क्रेज बढ़ा है. अकसर युवा सड़कों पर बाइक्स के स्टंट करते नजर आ जाते हैं. ‘धूम-3’ में से अगर बाइक स्टंट्स को निकाल दें तो इस में कुछ भी नहीं बचेगा.
‘धूम-3’ धूम सीरीज की तीसरी फिल्म है. कहानी के स्तर पर फिल्म कमजोर है. लेदे कर फिल्म में एक ही सस्पैंस था, उसे भी फिल्म के बीच में खोल दिया गया है. फिल्म के ऐक्शन सीन गजब के हैं. फिल्म में इस्तेमाल की गई बाइक भी गजब की दिखाई गई है जो एक बटन दबाते ही वाटर स्कूटर में तबदील हो जाती है, दूसरे ही पल गोता लगा कर पनडुब्बी की तरह पानी के अंदर चली जाती है और फिर कई फुट ऊपर उठ कर छलांग मारती आंखों से ओझल हो जाती है.
फिल्म की कहानी शिकागो में रहने वाले एक भारतीय मूल के इकबाल खान (जैकी श्रौफ) की है, जो वहां ग्रेट इंडियन सर्कस चलाता है. उस ने बैंक से कर्ज ले रखा है. बैंक के अधिकारी कर्ज अदा न कर पाने के चलते उस के सर्कस को नीलाम करना चाहते हैं, मगर इकबाल खान आत्महत्या कर लेता है. उस का बेटा साहिर (आमिर खान) बड़ा हो कर बैंक की शाखाएं लूट कर अपने पिता का बदला पूरा करना चाहता है. बैंक लूट कर नोटों को हवा में उड़ा कर वह अपनी बाइक पर फुर्र हो जाता है. शिकागो पुलिस उसे पकड़ नहीं पाती. थकहार कर बैंक वाले भारत से एसीपी जय दीक्षित (अभिषेक बच्चन) और अली (उदय चोपड़ा) को केस सुलझाने के लिए शिकागो बुलाते हैं. इन दोनों को पता चल जाता है कि बैंक में चोरी कौन करता है. अब इन तीनों के बीच चूहाबिल्ली का खेल चलता रहता है. उधर, साहिर की सर्कस कंपनी में आलिया (कैटरीना कैफ) शामिल होती है, इधर जय दीक्षित की गोली साहिर की पीठ में लगती है. लेकिन जब जय साहिर को पकड़ने उस के घर जाता है तो साहिर अपनी नंगी पीठ उसे दिखाता है. उस की पीठ पर गोली का कोई जख्म नहीं होता.
यहां एक सस्पैंस खुलता है. साहिर का एक जुड़वां भाई समर भी है. दोनों मिल कर अपने काम को अंजाम देते हैं. आखिर जय को असलियत पता चल जाती है. वह साहिर और समर को पकड़ लेता है लेकिन दोनों खुद को छुड़ा कर पानी में कूद कर अपनी जान दे देते हैं.
फिल्म की यह कहानी बड़ी अजीब सी है. निर्देशक ने आमिर खान को बड़े हाइटैक तरीके से बैंक लूटने की योजना बनाते दिखाया है परंतु वह बैंक लूटता कैसे है, यह नहीं दिखाया है. फिल्म के क्लाइमैक्स में बाइक को उन्हीं सड़कों पर दौड़ते हुए दिखाया गया है जिन पर फिल्म की शुरुआत में दिखाया गया था.
आमिर खान ने सनसनीखेज परफौर्मेंस दी है. कैटरीना कैफ का रोल छोटा है. उस ने कोई लव सीन नहीं दिया है सिवा एक लिपलौक के. उदय चोपड़ा का रोल कौमिक है. हर बार की तरह उस ने बेवकूफों वाली ऐक्टिंग की है. अभिषेक का चेहरा हमेशा की तरह सपाट ही रहा है.
फिल्म का संगीत प्रीतम ने दिया है. ‘धूम मचा ले…’ और ‘मलंग मलंग…’ गाने अच्छे बन पड़े हैं. एक गाने में टैप डांस करता हुआ आमिर खान फनी लगता है.
ट्रिक फोटोग्राफी द्वारा आमिर खान को 30-40 मंजिली ऊंची इमारतों की दीवारों से नीचे उतरता ऐसे दिखाया गया है मानो सड़क पर चल रहा हो. फिल्म का छायांकन बहुत बढि़या है. लगभग पूरी फिल्म शिकागो शहर में फिल्माई गई है. फिल्म की लंबाई बहुत ज्यादा है, इसे कम किया जा सकता था.

मैं खुद को कहानीवाचक मानता हूं

 
लंबे अंतराल के बाद ‘इकबाल’, ‘डोर’ और ‘आशाएं’ जैसी फिल्म बनाने वाले निर्देशक नागेश कुकनूर फिल्म ‘लक्ष्मी’ से वापसी कर रहे हैं. यौन उत्पीड़न और मानव तस्करी के गंभीर मुद्दे पर बनी इस फिल्म से जुड़ी कई अहम बातों पर नागेश कुकनूर से शांतिस्वरूप त्रिपाठी ने बातचीत की. पेश हैं मुख्य अंश.
 
एक एनजीओ से मिले आंकड़ों के अनुसार हमारे देश में हर साल  44 हजार बच्चे एडौप्ट किए जाते हैं. हर साल 11? हजार से अधिक लड़कियां लापता हो जाती हैं. इन में से तमाम लड़कियों का अपहरण कर या छोटी उम्र में ही उन्हें उन के घर के आसपास से चुरा कर देह व्यापार के धंधे में जबरन धकेल दिया जाता है. उस के बाद देह व्यापार में संलग्न ये लड़कियां डर की वजह से कभी भी कोठे के मालिकों के खिलाफ अदालत में गवाही देने को तैयार नहीं होतीं. हर दिन शारीरिक व मानसिक यातना सहन करना ही इन की नियति बन कर रह जाती है. जबकि कई सामाजिक संस्थाएं कोठे पर मजबूरी में वेश्यावृत्ति कर रही इन लड़कियों के उद्धार के लिए कार्यरत हैं. ऐसी ही लड़कियों की कथा को यथार्थ के धरातल पर पहली बार फिल्म ‘लक्ष्मी’ में पेश किया गया है. इस फिल्म के निर्माता, लेखक व निर्देशक नागेश कुकनूर हैं.
यौन उत्पीड़न और मानव तस्करी के साथ लड़कियों को मिलने वाली यातना जैसे गंभीर विषय पर बनी फिल्म ‘लक्ष्मी’ को हाल ही में अमेरिका के तीसरे नंबर के सब से बड़े अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फैस्टिवल ‘पौम स्प्रिंग इंटरनैशनल फिल्म फैस्टिवल’ में काफी सराहा गया. नागेश कुकनूर ने फिल्म ‘लक्ष्मी’ में सब से बड़ा सवाल यह उठाया है कि क्या हमारे अंदर की मानवता खत्म हो चुकी है? क्या हम इंसानियत भूल चुके हैं?
 
सिनेमा के वर्तमान परिदृश्य में आप अपनी ‘लक्ष्मी’ को कहां पाते हैं?
‘लक्ष्मी’ संजीदगी वाली फिल्म है. इसे किसी ढांचे में ढालना बड़ा मुश्किल काम है. लेकिन पिछले 3 वर्षों से बौलीवुड में अलगअलग तरह की फिल्में बनने लगी हैं इसलिए मैं कुछ ज्यादा ही उत्साहित हूं.
 
‘लक्ष्मी’ का बीज कहां से पड़ा?
पिछले 4-5 वर्षों से मैं एक एनजीओ ‘प्लान इंडिया’ के साथ काम कर रहा हूं. इस एनजीओ से कई छोटेछोटे एनजीओ जुड़े हैं. एक एनजीओ आंध्र प्रदेश के समुद्री किनारे पर स्थित अंगोल नामक गांव में काम करता है. यहां पर तमाम लोग यौन उत्पीड़न और मानव तस्करी से पीडि़त हैं. यह संस्था ऐसी लड़कियों को समाज में दोबारा स्थान दिलाने का काम कर रही है. मैं भी इस संस्था में जा कर अपने हिसाब से ऐसी लड़कियों की बेहतरी के लिए काम कर रहा था. 
एक दिन 14 साल की एक लड़की ने बताया कि वह कोर्ट गई थी. ‘कोर्ट’ का शब्द सुनते ही मुझे लगा कि यह कोई नई कहानी है. फिर जब मैं ने एनजीओ के कार्यकर्ताओं से बात की तो पता चला कि एनजीओ लड़कियों को छुड़ा कर लाता है, पर ये लड़कियां अपराधियों के खिलाफ अदालत में बयान देने नहीं जाती हैं. इसलिए किसी को भी सजा नहीं मिल पाती. लेकिन इस लड़की ने यह साहस दिखाया. इस लड़की में बहुत हिम्मत है. इस लड़की ने बाकायदा उन लोगों को पहचाना, जिन्होंने उस का अपहरण कर वेश्यावृत्ति के क्षेत्र में बेचा था. उन के खिलाफ अदालत में बयान दिया. नतीजतन, अपराधियों को सजा मिल सकी.
मैं ने इस एनजीओ ‘शेल्टर होम’ की 25 लड़कियों से अलगअलग बात की. मैं ने उन में मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक रूप से प्रताडि़त होने के बावजूद कुछ कर गुजरने का हौसला पाया. रिसर्च के दौरान जब लड़कियों ने अपनी आपबीती सुनाई तो मेरे साथ काम कर रही टीम की लड़कियों को रोना आ गया. 
लक्ष्मी जैसी लड़की के साथ हुआ यह कि एक लड़के ने उस के साथ प्यार किया, शादी करने का झांसा दे कर उसे अपने साथ ले गया. फिर कोठे में बेच दिया. वह वहां से भागने की कोशिश करती है तो उसे बांध कर रखा जाता है. उस रात उस के साथ14 से 16 पुरुषों ने सहवास किया. हमें लगा कि यह कहानी पूरे विश्व को बताई जानी चाहिए.
 
‘लक्ष्मी’ के माध्यम से आप किस बात को उकेरना चाहते हैं?
हम ने एक सच्ची कहानी को परदे पर पेश किया है. पर इस में एक नहीं बल्कि कई कथाओं का मिश्रण है. फिल्म में संदेश है कि इस तरह के कांड को रोकना चाहिए. हम ने ऐसी ही कुछ लड़कियों की व्यथा व उन की यातना को ‘लक्ष्मी’ में चित्रित किया है.
देखिए, मानव तस्करी के व्यवसाय में कोई एक इंसान डौन की तरह काम नहीं कर रहा है. इस व्यवसाय में करोड़ों रुपए नहीं लगे हैं. सब से बड़ा कड़वा सच यह है कि लड़की को 20 रुपए के लिए भी अपने जिस्म को बेचना पड़ता है. मैं ने अपनी फिल्म में उन की बात नहीं की है जो जिस्मफरोशी को व्यापार बना कर लाखों में खेल रही हैं, मैं ने फिल्म में उन की बात की है जो दलालों के नियंत्रण में रहती हैं. हम ने मानवता और मानवीय संवेदनाओं की बात की है.
 
रिसर्च के दौरान आप की समझ में आया कि इस समस्या की जड़ कहां है?
यह समस्या बहुत जटिल है. इस समस्या में इतने ‘लेयर्स’ हैं कि यह समझना मुश्किल है कि कहां से शुरू व कहां खत्म हो रही है. हम ने अपनी फिल्म में कहा है कि जरूरत है कि हम इस तरह की औरतों को संरक्षण दें. पर मेरी समझ में आया कि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थितियां इस के लिए पूरी तरह से जिम्मेदार हैं. यदि देश देशवासियों की देखभाल करे तो यह समस्या पैदा नहीं हो सकती.
 
आप अपनी फिल्मों में नारी समस्याओं को ही हमेशा प्रमुखता देते हैं. इस की कोई खास वजह?
मैं हमेशा यह सोचता हूं कि यदि पुरुष और नारी को समान अधिकार प्राप्त हों तो पूरे विश्व में क्या होगा? इस सवाल का जवाब मुझे नहीं मिलता. पूरे विश्व के 99 प्रतिशत देशों में लिंगभेद की समस्या है. पूरे विश्व के 99 प्रतिशत शासक पुरुष हैं. यदि औरतें शासक हों तो शायद बहुतकुछ बदल जाए इसलिए मैं अपनी हर फिल्म में औरत को सशक्त रूप में ही या निर्णय करने वाली शक्ति के रूप में पेश करना चाहता हूं.
 
क्या ‘लक्ष्मी’ का असर होगा?
असर जरूर होगा? पर कैसे और कब होगा, इस की गारंटी नहीं दे सकता. समस्या के निदान के लिए लोगों की सोच बदलने की जरूरत है. लोग हमारी फिल्म देख कर इस मुद्दे को सोशल मीडिया में चर्चा करेंगे. मेरा मानना है कि यह फिल्म किसी न किसी स्तर पर कुछ बदलाव लाने की दिशा में एक कदम साबित होगी.
 
क्या आप को लगता है कि ‘लक्ष्मी’ के प्रदर्शन के बाद कोई क्रांति आएगी?
बिलकुल नहीं, जिस समस्या की जड़ें हजारों साल पुरानी हों उसे एक फिल्म के माध्यम से नहीं दूर किया जा सकता. पर हम बुराइयों के खिलाफ लड़ाई लड़ने की शुरुआत तो कर सकते हैं. यदि एक शहरी इंसान फिल्म ‘लक्ष्मी’ देख कर यह कह सके कि यह जो कुछ हो रहा है वह गलत है, तो भी बहुत बड़ी बात होगी. हम इसे समाज में बदलाव लाने की कोशिश कह सकते हैं.
 
आप मानते हैं कि फिल्मों से समाज में बदलाव लाया जा सकता है?
मेरा मानना है कि सिनेमा को किसी भी समस्या के लिए दोषी नहीं माना जा सकता. यदि कोई मूर्ख बिना हैल्मेट पहने बाइक स्टंट करता है, उसे चोट लगती है, तो इस के लिए सिनेमा को दोषी ठहराने का कोई औचित्य नहीं बनता. मेरा मानना है कि समाज पर या बच्चों पर जो प्रभाव पड़ता है वह उस के मातापिता का सब से ज्यादा पड़ता है. उस के बाद उस के टीचरों का, उस के बाद उस के अपने चाहने वालों का प्रभाव पड़ता है.
सिनेमा में उन लोगों को बदलने की ताकत है जो वास्तव में बदलाव चाहते हैं या अपनेआप को बदलना चाहते हैं. अब आप देखिए, अमेरिका में क्या हो रहा है. स्कूलों में बच्चे, दूसरे बच्चों पर गोलियां चलाते हैं. लोग अपनी गलती पर गौर करने के बजाय कभी सिनेमा को दोष देते हैं, कभी संगीत को और कभी किताबों को दोषी ठहराते हैं. यह मूर्खता है. सिनेमा तो कहानी सुनाने का सशक्त माध्यम है.  
 

खेल खिलाड़ी

फुटबाल खिलाडि़यों के लिए सुनहरा मौका
वर्ष 2010 के कौमनवैल्थ खेलों के बाद भारत में अब 2017 में खेलों का एक बड़ा मेला लगेगा. जी हां, हमारे देश में फीफा का अंडर 17 फुटबाल वर्ल्ड कप खेला जाएगा जिस में 24 देशों की टीमें शिरकत करेंगी. इस के मैच नई दिल्ली, गुवाहाटी, गोआ, पुणे, मुंबई, बेंगलुरु, कोलकाता, कोच्चि जैसी जगहों पर होने की संभावना है. चूंकि यह टूर्नामैंट भारत में होगा इसलिए हमारी अंडर 17 फुटबाल टीम भी इस में हिस्सा लेगी.
हाल ही जब ब्राजील में 2014 में होने वाले फीफा वर्ल्ड कप की ट्रौफी भारत में आई थी तब उस के अनावरण समारोह के अवसर पर क्रिकेट को अलविदा कहने वाले सचिन तेंदुलकर ने कहा था कि भारत के पास फीफा वर्ल्ड कप 2022 में पहुंचने का सुनहरा मौका है. अंडर 17 विश्वकप बहुत ही शानदार अवसर है. हमें योजनाओं के साथ कड़ी मेहनत करने की जरूरत है. उन्होंने कहा कि इस दिशा में आगे बढ़ने की जरूरत है. यह सबकुछ एक रात में नहीं हो सकता, हमें प्रतियोगिताओं को संवारने की दिशा में काम करने की जरूरत है.
हिमाचल प्रदेश जूनियर फुटबाल टीम व इलाहाबाद विश्वविद्यालय फुटबाल टीम के कोच इंद्रनील घोष ने बताया कि इतने बड़े टूर्नामैंट से यकीनन भारतीय फुटबाल को फायदा होगा क्योंकि इस वर्ल्डकप पर पूरे वर्ल्ड की निगाहें होंगी. हमें इस से बहुतकुछ सीखने को मिलेगा.
सोने पे सुहागा यह है कि भारत की महिला फुटबाल टीम भी अपनी सर्वश्रेष्ठ रैंकिंग पर है. उस का रैंक फिलहाल 49 है. लेकिन इतना तो तय है कि 2017 वर्ल्ड कप की मेजबानी से देश में फुटबाल के प्रति लोगों में दिलचस्पी बढ़ेगी और साथ ही युवा खिलाडि़यों का भी इस ओर रुझान बढ़ेगा जिस से फुटबाल की नईनई प्रतिभाएं उभर कर सामने आएंगी.
 
औलराउंडर जैक कैलिस का टैस्ट से संन्यास
दक्षिण अफ्रीका के जैक हेनरी कैलिस दुनिया के महान औलराउंडर हैं. जैक कैलिस ने न सिर्फ अपने बल्ले से रनों का पहाड़ खड़ा किया है बल्कि गेंदबाजी से भी बैट्समैन को पवेलियन का रास्ता दिखाया है. पिछले दिनों उन्होंने टैस्ट क्रिकेट को अलविदा कह दिया.
वर्ष 1995 में इंग्लैंड के खिलाफ टैस्ट कैरियर की शुरुआत करने वाले 38 वर्षीय कैलिस ने अपने टैस्ट कैरियर में 166 मैच खेले हैं. 55.12 की औसत से उन्होंने 13,289 रन बनाए हैं. जिस में 45 शतक और 58 अर्धशतक शामिल हैं. अपनी गेंदबाजी से उन्होंने 292 विकेट भी चटकाए हैं. 
लिटिल मास्टर सचिन तेंदुलकर के रिकौर्ड को तोड़ने के लिए जैक कैलिस ही सब से करीब थे लेकिन अब ऐसा नहीं हो पाएगा. जैक कैलिस का कहना था कि यह फैसला लेना आसान नहीं था, खासतौर पर जब आस्ट्रेलिया के साथ मैच होने हैं. वे अंतर्राष्ट्रीय एकदिवसीय मैच खेलते रहेंगे और फिट रहे तो 2015 में होने वाले वर्ल्डकप के लिए अपनेआप को तैयार करेंगे. यहां तक कैलिस को पहुंचने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ी है. युवाओं को उन से सीखने के लिए बहुतकुछ है. हर बुरे वक्त में कैलिस अपनी टीम के लिए दीवार बन कर खड़े रहे और अपने खेल का बेहतर प्रदर्शन दिखाने में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी.
किसी भी इंसान के लिए यह बेहद मुश्किल वक्त होता है जब वह रिटायर होता है, पर यह दिन तो एक दिन आता ही है. अगर कोई खिलाड़ी रिटायर नहीं होगा तो फिर नए खिलाडि़यों को मौका कैसे मिलेगा, इसलिए यह अच्छी बात है कि नई प्रतिभाओं को अवसर मिलेगा.
 
दीपिका की नजर दक्षिण कोरिया में होने वाले एशियाई खेलों पर
भारत की महिला तीरंदाज और वर्ष 2010 के दिल्ली कौमनवैल्थ गेम्स में स्वर्ण पदक जीतने वाली दीपिका कुमारी ने 34वीं सीनियर राष्ट्रीय तीरंदाजी चैंपियनशिप में बाजी मार ली. दीपिका ने गुजरात की वी प्रणीता को आखिरी सैट में हरा कर यह मुकाम हासिल किया.
दीपिका झारखंड की राजधानी रांची से तकरीबन 15 किलोमीटर दूर एक छोटे से गांव रातू छाटी की रहने वाली है. गरीबी के कारण उन के लिए यह खेल अपनाना आसान नहीं था. पर इस के लिए उन्होंने धैर्य रखा और कड़ी मेहनत की. दीपिका के पिता नहीं चाहते थे कि वह तीरंदाज बने. वे चाहते थे दीपिका पढ़लिख कर कुछ बने. लेकिन जब दीपिका ने वर्ष 2009 में अमेरिका में 11वीं आर्चरी चैंपियनशिप में जीत हासिल की तो उन्हें भी लगने लगा कि इस खेल में वह आगे बढ़ सकती है और फिर उन्होंने दीपिका को आगे बढ़ने के लिए हर तरह से सहयोग और समर्थन दिए.
वाकई दीपिका और उन के पिता तारीफ के काबिल हैं. यहां तक पहुंचने के लिए कितना कुछ त्याग और संघर्ष करना पड़ा होगा, यह वे जानते होंगे क्योंकि यह सच है कि अब कोई खेल सस्ता नहीं रहा, इसलिए पैसों की कमी की वजह से बहुत ऐसे प्रतिभाशाली खिलाड़ी आगे नहीं बढ़ पाते हैं. कुछ ही खिलाड़ी हैं जो अपने आत्मविश्वास को डगमगाने नहीं देते और धैर्य रखते हैं, उन में दीपिका भी एक है. आज उन्होंने धैर्य रखा तो इस मुकाम पर हैं. 
फिलहाल, दीपिका की नजर अब इसी साल दक्षिण कोरिया में होने वाले एशियाई खेलों पर है.  दीपिका जैसी खिलाड़ी ऐसे युवाओं के लिए प्रेरणास्रोत भी है जिन की पहुंच में सारा कुछ नहीं होता. दीपिका ने दिखाया है कि यदि आप में आगे बढ़ने की ख्वाहिश, देश के लिए कुछ करने का जज्बा हो तो गरीबी आड़े नहीं आती है. 

पाठकों की समस्याएं

मैं  एक मल्टीनैशनल कंपनी में कार्यरत शादीशुदा पुरुष हूं. अब तक हमारी जिंदगी बड़ी खुशी से गुजर रही थी. लेकिन हाल ही में मेरा प्रमोशन हुआ है और कार्य की व्यस्तता के कारण मैं पत्नी के साथ अधिक समय नहीं गुजार पाता जिस की वजह से वह अकसर नाराज रहती है, झगड़ा करती है. इस समस्या को कैसे सुलझाऊं?
मल्टीनैशनल कंपनी में काम करने का अर्थ यह नहीं कि आप पत्नी की इच्छाओं की ओर ध्यान देना छोड़ दें और चौबीसों घंटे सिर्फ काम में ही लगे रहें.
आप खुद को पत्नी की जगह रख कर देखें. अगर पत्नी, व्यस्तता के कारण आप को समय न दे तो आप को कैसा लगेगा. क्या आप उसे सामान्य समझेंगे? आप को भी गुस्सा आएगा. इसलिए सिर्फ पत्नी को पैसा दे कर अपनी जिम्मेदारी पूर्ण समझने के बजाय समय निकाल कर उस के साथ घूमनेफिरने जाएं, इकट्ठे समय व्यतीत करने के साथसाथ उस से बातचीत करें. पत्नी की शिकायत दूर हो जाएगी.
मैं एक फौजी हूं और एक लड़की से बहुत प्यार करता हूं. हम दोनों विवाह करना चाहते हैं पर मेरी समस्या है कि वह गैरबिरादरी की है और अगर मैं उस से विवाह करता हूं तो समाज मेरे परिवार को बिरादरी से बाहर कर देगा. मैं उसे भूल नहीं सकता. वह कहीं और शादी के बाद भी मुझ से संबंध रखने को तैयार है. आप ही बताइए, मैं क्या करूं?
अगर आप का गांव से ज्यादा संबंध नहीं है, आप को अपना वैवाहिक जीवन वहां व्यतीत नहीं करना तो आप के गैरबिरादरी की लड़की से विवाह करने से कोई खास समस्या नहीं होगी क्योंकि आप का वहां के समाज और बिरादरी से ज्यादा मेलजोल नहीं होगा. लेकिन अगर आप को विवाह के बाद गांव में ही रहना है तो उस लड़की से विवाह न करें क्योंकि समाज और बिरादरी वाले आप के लिए बारबार मुश्किलें खड़ी करेंगे.
जहां तक उस लड़की के कहीं और शादी के बाद भी आप से संबंध रखने की बात है, यह बिलकुल सही नहीं है. इस से न वह अपने परिवार में खुश रह पाएगी और न ही आप. इसलिए ऐसा करने का खयाल अपने मन से निकाल दें, यही बेहतर होगा.
मैं 3 भाइयों की बहन हूं और अपने तीनों भाइयों से बहुत प्यार करती हूं. पर मेरा सब से छोटा भाई घर में किसी से भी ठीक से बात नहीं करता. घर वाले उसे समझासमझा कर थक चुके हैं लेकिन उस पर कोई असर नहीं है. जब उसे पैसे की जरूरत होती है तो वह सब से ठीक से बात करता है. उसे सिर्फ पैसे से मतलब होता है वरना वह मम्मीपापा से भी गलत तरीके से व्यवहार करता है. उस के इस व्यवहार से सभी दुखी हैं. उसे कैसे सुधारें? आप ही बताइए.
अधिकांश घरों में देखा जाता है कि छोटे भाई परिवार वालों के अधिक लाड़प्यार के चलते बिगड़ जाते हैं और वे परिवार वालों के लाड़प्यार को अपना अधिकार समझ कर वे अपनी मनचाही बातें पूरी करवाते हैं और उद्दंड हो जाते हैं. अपने भाई को सुधारने के लिए आप कुछ दिन उस की हरकतों को नजरअंदाज करें. उसे न डांटें न दुलार करें, वह अपनेआप समझ जाएगा और सही राह पर आ जाएगा.
मैं एक प्राइवेट संस्थान में कार्यरत हूं. विवाह को 6 वर्ष हो चुके हैं.5 साल का एक बेटा है. मेरी समस्या यह है कि मैं अपने ही औफिस की एक लड़की से पिछले 2 साल से प्यार करता हूं. मैं न उस लड़की को छोड़ना चाहता हूं और न ही पत्नी से अलग रह सकता हूं. क्या हम तीनों एकसाथ रह सकते हैं?
आप की पत्नी और गर्लफ्रैंड के साथ इकट्ठे रहने की बात बिलकुल बेतुकी है. पत्नी के नजरिए से सोचें, क्या वह आप के सामने ऐसा प्रस्ताव रखेगी तो आप उसे स्वीकारेंगे? नहीं न, तो फिर आप भी पत्नी और गर्लफ्रैंड को एकसाथ रखने की बात को पूरी तरह अपने मन से निकाल दीजिए.
आप चाहें तो औफिस की लड़की के साथ दोस्ती रख सकते हैं. जब उस लड़की का कहीं और विवाह हो जाएगा तो वह भी सबकुछ भूल जाएगी. इसलिए अपने परिवार में पत्नी और बेटे के साथ सुखी जीवन बिताइए और औफिस की लड़की से केवल दोस्ताना व्यवहार रखिए. आप शायद यह नहीं जानते कि
दो नावों पर सवार व्यक्ति कभी पार नहीं उतर पाता.
मैं स्कूल में पढ़ने वाली छात्रा हूं. मेरी दादी हमारे साथ ही रहती हैं. मैं उन से बहुत प्यार करती हूं. आजकल वे बीमार रहती हैं. डाक्टर कहते हैं कि अब वे ज्यादा दिन तक जीवित नहीं रहेंगी. दादी के साथ मेरा भावनात्मक लगाव है. मैं डरती हूं कि अगर मेरी दादी को कुछ हो गया तो मैं खुद को कैसे संभालूंगी. यह सोचसोच कर मैं परेशान रहती हूं. आप ही बताइए मैं आने वाली स्थिति के लिए खुद को कैसे समझाऊं?
यह बहुत अच्छी बात है कि आप का अपनी दादी से इतना अधिक लगाव है और आप का लगाव और प्यार इसी बात से दिखाई दे रहा है कि आप दादी से हमेशाहमेशा के लिए दूर होने की बात के बारे में सोच कर परेशान हो रही हैं. बहुत कम लोग होते हैं जो इस लगाव और प्यार को दर्शाते हैं.
जीवनमृत्यु एक प्रक्रिया है जिस का सामना हर किसी को करना होता है. दादी के चले जाने के बाद आप को भी दुख होगा, कुछ दिन परेशानी होगी लेकिन धीरेधीरे समय के साथ आप के जीवन में नई गतिविधियां, नई घटनाएं घटेंगी जो आप को इस दुखद घटना से उबरने में मदद करेंगी और समय के साथ सबकुछ ठीक हो जाएगा.
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