न्यायाधीशों पर जनता का आज भी अथाह विश्वास है. अदालतों के गलियारों में जूते घिसने, अपनी वर्षों की कमाई और जमीन व जायदाद वकीलों व पेशकारों को देने के बावजूद लोगों को भरोसा है कि जब भी न्याय मिलेगा, सही मिलेगा. पहली अदालत में नहीं मिलेगा तो दूसरी अदालत में मिलेगा ही. अदालतों के गलियारों में न्यायाधीशों की बेईमानियों के किस्से सुनने को मिलते हैं पर चूंकि कभी कोई पक्का प्रमाण नहीं मिला, इसलिए समझा जाता है कि वे विशिष्ट चरित्र के लोग हैं.

इस विशिष्टता पर लगातार 2 धब्बे लगे हैं. पूर्व जस्टिस अशोक कुमार गांगुली और जस्टिस स्वतंत्र कुमार पर उन के साथ काम कर रहीं कानूनी प्रशिक्षुओं के साथ यौन दुर्व्यवहार के मामले सामने आए हैं. न्यायाधीश गांगुली के मामले में शिकायत- कर्ता युवती ने जो बातें कही हैं वे कमोबेश वैसी ही हैं जैसी तहलका पत्रिका के संपादक तरुण तेजपाल के विरुद्ध उन की सहायिका ने कही थीं. यद्यपि कानूनी प्रशिक्षु के मामले में सर्वोच्च न्यायालय की एक कमेटी ने शिकायत को सही पाया है फिर भी न्यायाधीश गांगुली केवल पश्चिम बंगाल मानव अधिकार आयोग से त्यागपत्र दे कर बच गए जबकि तरुण तेजपाल को लगातार जेल में बंद कर रखा गया है.

न्यायाधीश स्वतंत्र कुमार भी अभी तक किसी पुलिस प्रक्रिया से बचे हैं. पर इन दोनों मामलों ने साफ कर दिया है कि न्यायाधीश भी उसी मिट्टी के बने हैं जिस मिट्टी से देश के अन्य अधिकारी, मंत्री या असरदार लोग बने हैं. जो लोग अपने से कम उम्र की लड़कियों को छेड़ने से बाज नहीं आते उन के हाथों में देश का भविष्य वैसा ही है जैसा नेताओं के हाथों में, जिन पर घोटालों के आरोप लगते रहते हैं.

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