वर्ष 2014 के आम चुनाव देश के लिए नया इतिहास लिखेंगे. एक तरफ कांग्रेस है जो अपने शासन को बचाने में लगी है तो दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी में नई जान फूंकने वाले नरेंद्र मोदी हैं जिन की जीत से देश की नीतियों को नया मोड़ मिलना निश्चित है. तीसरी तरफ ‘आप’ है पर पता नहीं उस को किस के वोट मिलेंगे, वह किसे हराएगी. उस की नीतियां दोनों से अलग हैं पर मूलरूप से वह लोकतांत्रिक मूल्यों में व धर्म, जाति, वर्ण, वर्ग से ऊपर होने का दावा करती है. चुनावों के बाद इन में से जो भी जीतेगा, उसे क्षेत्रीय दलों के साथ नए समीकरण बनाने होंगे.

पर क्या जनता को कुछ नया मिलेगा? शायद नहीं. कांग्रेस और भाजपा के मामले में धर्मनिरपेक्षता और विकास के वादों के अलावा दोनों दल कुछ ऐसा न कह रहे हैं न कर रहे हैं कि जिस से लगे कि इन दलों की नीयत राजगद्दी पर चढ़ने के अलावा कुछ और है. दोनों दल अपने या अपनों के वास्ते कुछ करने के लिए चुनावी मैदान में हैं, जनता की सेवा के बारे में तो इन के घोषणापत्रों में बारीक अक्षरों में भी कहीं नहीं लिखा है.

जनता की सेवा का क्या अर्थ है? एक राजनीतिक दल से यह अपेक्षा नहीं की जाती कि वह सड़कें साफ कराएगा या पुलिस वाले की ड्यूटी लगाएगा. यह काम प्रशासन का है. उस पर नजर रखना जीतने वाले राजनीतिक दल का काम है. यह जनता की सेवा नहीं है. यह तो प्रशासन जनता से मिले पैसे के बदले करता है. यह कर्तव्य है उस का.

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