सरित प्रवाह, दिसंबर (द्वितीय) 2013
‘न्यायालय और कट्टरपंथी’ शीर्षक से प्रकाशित संपादकीय टिप्पणी में आप ने  ‘रामलीला’ फिल्म पर आए अदालती फैसले की सही आलोचना की है. आप का यह कहना उचित है कि दूसरे पक्ष का तर्क सुने और बहस किए बिना फैसला सुना देना न्यायसिद्धांतों के खिलाफ है.
जहां तक धर्म संबंधी विवाद है, उस में कट्टरपंथियों की बात आंख मूंद कर स्वीकार कर लेना और फैसले देना पश्चिम देशों में भी होता रहा है. ग्रीस में आज से 7 दशक पहले कट्टरपंथियों ने एक वैज्ञानिक के खिलाफ मुकदमा दायर कर विजय हासिल की थी.
हुआ यह था कि एक वैज्ञानिक ने ग्रीस में एक किताब लिखी जिस में उस की खोज कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाती है, लिखा था जबकि धर्मग्रंथ के अनुसार सूर्य ही पृथ्वी के चक्कर लगाता है. फैसला लिखने वाले भी अवैज्ञानिक (धर्मग्रंथ वाले) संस्कार ले कर बड़े हुए थे. लिहाजा, फैसला सत्य लिखने वाले के खिलाफ आया और वैज्ञानिक को कट्टरपंथियों ने मृत्युदंड दे दिया. इसीलिए आप की बात जायज है कि अदालतें कट्टरपंथियों की बात मान कर उन्हें पारलौकिक बना देती हैं.
माताचरण पासी, वाराणसी (उ.प्र.)
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‘नैना लाल किदवई की मंशा’ आप की एक अद्वितीय टिप्पणी है. नैना लाल किदवई ने सरकार से सुधारों की मांग की है. अमीर खरबपति उद्योगपति जब भी सुधारों की बात करते हैं तो उन का मतलब ऐसे सुधारों से होता है जिन से उन का मुनाफा बढ़े, उन्हें सरकार के काम में सुधार नहीं चाहिए. उन्हें उन किसानों की चिंता नहीं जिन की जमीन को सरकार मैले कागज पर कुछ भी टाइप कर, उन्हें नाममात्र का मुआवजा दे कर, उन से छीन लेती है. जबकि किसान भी छोटा उद्योगपति है, उत्पादन करता है, 2-3 नौकर रखता है.
नैना की और भी शिकायतें हैं जैसे पर्यावरण संबंधी कानून, औनलाइन पेमैंट की सुविधा, बिजनैस में नियमों, अनुमतियों आदि की भरमार, मगर इन से होने वाली हानियों की तरफ उन का ध्यान नहीं गया है.
असल में इस देश में उद्योगपति बनते ही इन नियमों के अंबार से हैं. जो लोग नेताओं व अफसरों के निकट होते हैं वे सफल हो जाते हैं. नैना लाल किदवई उद्योगों की कमजोरियों को सरकारी तंत्र के बहाने छिपा रही हैं जबकि सरकारी तंत्र व्यापारियों और कारखानेदारों को पनपने नहीं देना चाहते. औद्योगिक कंपनियों की संस्था को छोटे व्यापारियों की सुविधाओं का खयाल करना चाहिए ताकि उद्योगों का माहौल सुधरे.
कैलाश राम गुप्ता, इलाहाबाद (उ.प्र.)
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संपादकीय टिप्पणी ‘नैना लाल किदवई की मंशा’, अपने यहां छोटे उद्योगों के न पनपने के कारणों पर प्रकाश डालने के साथसाथ बहुत ही अमीर उद्योगपति सुधार की आड़ में क्या चाहते हैं, इस पर भी प्रकाश डालती है. सच तो यह है कि भारत की कृषि योग्य आधी धरती इन के अधूरे सपनों को पूरा करने के लिए कलकारखानों के जंगलों में बदल गई. इस पर भी शिकायत बिना यह सोचे कि आज अगर ये धरतीपुत्र न होते तो हमारी क्या दशा होती, जायज प्रतीत नहीं होती. पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने ‘जय जवान जय किसान’ का नारा ऐसे ही नहीं लगाया था. यही हाल पर्यावरण संबंधी कानूनों से शिकायत का है.
एक तरफ तो हम गंगा के मैली होने की शिकायत करते हैं दूसरी ओर उद्योगों का कचरा भी वहीं डालते हैं. ऐसी बात नहीं है कि प्रशासन इस से अनभिज्ञ हो परंतु उपरोक्त सुधार करने से अमीर उद्योगपतियों और खरबपतियों को घाटा जो हो जाएगा. इसलिए छोटे व्यापारियों को लगाने दो सचिवालय के चक्कर. हम तो एसी रूम में बैठे हैं न.
कृष्णा मिश्रा, लखनऊ (उ.प्र.)
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सरित प्रवाह में ‘न्यायालय और कट्टरपंथी’, ‘एफआईआर का अधिकार’ व ‘राजनीति का मोदीपन’ शीर्षक से प्रकाशित संपादकीय टिप्पणियां बहुत अच्छी लगीं.
हमारे देश में हर सरकारी विभाग में ऊपर से ले कर नीचे तक भ्रष्टाचार फैला हुआ है. हालात तो ऐसे हो गए हैं कि सरकारी महकमे में काम करने वाले कुछ कर्मचारी इतने निठल्ले हो गए हैं कि जिस काम के एवज में वे सरकार से पैसा लेते हैं उस को करने में भी आनाकानी करते हैं. वे काम करने के बदले में रिश्वत मांगते हैं. कोई रिश्वत नहीं देता है तो उस का काम लटका कर उसे परेशान किया जाता है.
प्रदीप गुप्ता, बिलासपुर (हि.प्र.)
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अंजाम बुरा होगा
दिसंबर (द्वितीय) अंक में प्रकाशित ‘हिंसक होती महिलाएं’ लेख में महिलाओं द्वारा किए जा रहे अत्याचार का अच्छा बखान किया गया है. दरअसल, टीवी चैनलों पर दिखाए जा रहे धारावाहिकों में महिला पात्रों को बेहद क्रूर व षड्यंत्रकारी दिखाया जाता है. पुरुष द्वारा प्रताडि़त स्त्रियों के अंतर्मन में संचित आक्रोश भी कई बार दुर्घटनाओं को अंजाम देता है. स्त्रियों को दी जाने वाली शारीरिक व मानसिक यातनाओं पर अंकुश लगाने से अपराधों में कमी लाई जा सकती है.
श्याम चौरे, इंदौर (म.प्र.)
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सच्ची तसवीर
दिसंबर (द्वितीय) अंक में छपे व्यंग्य ‘सरकारी बाबू’ में सरकारी कर्मचारियों की सही तसवीर दिखाई गई है. सरकारी बाबू साल में 180 दिन ही काम पर जाते हैं.52 इतवार, 52 शनिवार, 30 अर्न्ड लीव, 15 कैजुअल लीव, 20  सिक लीव, 16 त्योहारों आदि की लीव यानी 365 दिनों में वे 185 दिन छुट्टी पर रहते हैं. जिस दिन काम पर जाते हैं उस दिन
2 बार चाय के लिए, 1 बार खाने के लिए आधेआधे घंटे की छुट्टी. कोई लीडर आदि मर जाए, चुनाव हो तो और छुट्टियां.
भारतीय जब काम करते हैं तो देखते हैं किस काम को करने में उन्हें निजी लाभ है जबकि चीनी ऐसा नहीं सोचते. इसीलिए हम से बाद में आजाद होने के बावजूद चीन हम से आगे निकल गया.
आई पी गांधी, करनाल (हरियाणा)
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परिवारवाद की राजनीति
दिसंबर (द्वितीय) अंक में प्रकाशित लेख ‘मुलायम का सियासी कुनबा’ तथा ‘लालू बिन सब सून’ पसंद आए. जहां तक राजनेताओं की बात है, आज शायद ही कोई नेता ऐसा होगा जिस ने अपने कुटुंब को अपना सियासी कुनबा न
बनाया हो. उत्तर प्रदेश में ही देखिए, युवा मुख्यमंत्री लैपटौप और कन्याधन बांट कर युवाओं का कितना भला कर रहे हैं. यह दिनोंदिन बढ़ती बेरोजगारी बता रही है.
लोकप्रिय बनने के लिए सरकारी धन को लुटाने की नहीं, जनता के लिए कुछ विकास करने की जरूरत है. जनता का प्यारा नेता ही लोकप्रिय होता है और जननायक भी. जैसे लाल बहादुर शास्त्री, सरदार पटेल और महात्मा गांधी थे. पर किसे इस की परवा है. अब तो इस के
2 ही रास्ते प्रतीत होते हैं, प्रथम आरक्षण की बैसाखी प्रत्येक वर्गजाति को पकड़ाते जाओ, दूसरा अपने कुनबे को विरासत देते जाओ, ताकि कुरसी जाने न पाए.
के मिश्रा, लखनऊ (उ.प्र.)
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प्राथमिकताएं तय हों
दिसंबर (द्वितीय) अंक में प्रकाशित लेख ‘विकास पर राजनेताओं की खोखली सोच’ में राष्ट्रीय व राज्य स्तरीय पार्टियों एवं नेताओं की कार्यशैली की पोल सही ढंग से खोलने का प्रयास किया गया है. लेकिन क्या ये मोटी चमड़ी वाले राजनेता जातीय, धार्मिक व हर क्षेत्र को निष्पक्षता की आंख से देख पाएंगे? क्या विकास, विकास के अंतर्विरोधों को हटा कर विकास की प्राथमिकताएं तय कर पाएंगे?
आम जनता का विश्वास इन राजनेताओं से हट गया है. लेकिन अब यह प्रश्न खड़ा होता है कि देश में लोकतंत्र कैसे चले? इस संबंध में मैं लोकप्रिय सरिता के माध्यम से कुछ सुझाव रखना चाहता हूं :
  1. अमेरिका की तरह राष्ट्रपति शासन प्रणाली कायम की जाए. ताकि गठबंधन सरकारों से देश को मुक्ति मिले और सही निर्णय लिए जा सकें.
  2. देश हजारों वर्ष गुलाम रहा है तथा आज भी देश के ज्यादातर लोगों की भावनाएं ढोंगी, धार्मिक पंडे, मुल्लाओं, बड़े व्यापारियों, साधुसंतों, राजेरजवाड़ों, पंचों, बड़े घरानों से जुड़ी हुई होने के कारण वे लोकतंत्र में भी स्वतंत्र जिंदगी जीना नहीं चाहते हैं. तथा इन्हीं के प्रभाव से आज निष्पक्ष, ईमानदार, योग्य, समाजसेवी, देशभक्त व्यक्ति चुनाव में सफल नहीं हो पाते हैं. इसलिए गुलामी से जकड़े देशवासियों को स्वतंत्र हो कर जीना सिखाया जाए.
  3. देश के 30 प्रतिशत व्यक्ति मूलभूत सुविधाओं रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य, जल, बिजली आदि से वंचित रह कर केवल वोट देने के लिए जी रहे हैं. वे आज भी संविधान, मौलिक अधिकारों, नियमअधिनियमों को नहीं जानते, फिर वे अपने मतों का सही उपयोग कैसे करेंगे?
  4. देश की 30 प्रतिशत आम जनता राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्रियों, राष्ट्रीय स्तर की पार्टियों व उन के चुनाव चिन्ह की ही जानकारी नहीं रखती. ऐसे में वह सही मतदान कैसे करेगी? उन्हें जानकारी मुहैया कराई जाए.
  5. देश के पंचायत स्तर के गांवों, कसबों, नगरों व महानगरों में हर स्तर के दलाल, चमचे जीवित हैं. उन को आम जनता से अलग किया जाए.
जगदीश प्रसाद पालड़ी, जयपुर (राजस्थान)
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रोचक कहानी
कहानी ‘मिशन मुहब्बत’ मजेदार लगी. हर रिश्ते की एक गरिमा होती है. यह ठीक है प्रेम भावना कभी भी किसी भी उम्र में पनप सकती है लेकिन फिर भी मर्यादित सीमा के अंदर ही यह भावना अच्छी लगती है. कहानी का अंत सही है.
 मीना टंडन, कृष्णानगर (दिल्ली) 
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चहेती पत्रिका सरिता
आज 69 वर्ष की आयु में भी सरिता मेरी और मेरे परिवार की चहेती पत्रिका है. इस का कलेवर कई बार बदला परंतु ढोंग और आडंबर के विरुद्ध इस की धार कुंद कभी नहीं हुई. स्वास्थ्य, बागबानी, आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक आदि विविध विषयवस्तु के साथसाथ नियमित स्तंभों में भी रोचक सामग्री परोस कर यह पत्रिका सभी रुचियों व विभिन्न आयुवर्ग के पाठकों को बांधे रखने में पूरी तरह से सफल रही है.
पिछले कई वर्षों तक मैं सरिता हाथ में आते ही सर्वप्रथम पूरे पृष्ठ की कविता का आनंद लेता रहा हूं. आजकल हिंदी कविता अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष से गुजर रही है ऐसी स्थिति में हिंदी साहित्य की इस अनूठी विधा को आप की पत्रिका जैसी अन्य पत्रिकाओं के सहारे की बहुत जरूरत है.
बी डी शर्मा, यमुना विहार (दिल्ली) 
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राजनेताओं की राजनीति
सरिता दिसंबर (द्वितीय) अंक में छपे ‘विकास पर राजनेताओं की खोखली सोच’, ‘बिन लालू सब सून’, ‘मुलायम का सियासी कुनबा’ और ‘गोरखालैंड को भूल गए दार्जिलिंग के जसवंत’ ये 4 लेख राजनीति में रुचि रखने वाले सजग पाठकों के लिए सामयिक खुराक हैं. राजनीति आज पद और पैसा पाने का सहज, सरल धंधा है उन के लिए, जो बेशर्म और बेईमान बनने की हिम्मत रखते हैं.
राजनेताओं की खोखली सोच के कारण कहीं केवल करोड़ों की लागत से हाथियों की मूर्तियां खड़ी हुईं तो कहीं 2,500 करोड़ रुपए की लागत से गुजरात के सरदार सरोवर तट पर सरदार वल्लभभाई पटेल की प्रतिमा स्थापित की जा रही है. पश्चिम बंगाल में ममता की सरकार ने विकास के नाम पर सड़क के किनारे त्रिफला लैंपपोस्ट खड़ी कर के लंदन की रौनक लाने का वादा पूरा किया.  लेकिन साल होतेहोते ही रोशनी बुझ गई है. दूसरी तरफ कोयला घोटाला, आदर्श सोसायटी, 2जी स्पैक्ट्रम तथा कौमनवैल्थ गेम्स में खोखली व्यवस्था की तसवीर प्रकाश में आई तो सत्ता की सुरक्षा में तैनात पुलिस वाहिनी साप्ताहिक और मासिक के अलावा अतिरिक्त कमाई करने में लगी है.
जहां तक दार्जिलिंग के सांसद जसवंत सिंह की बात है, उन्हें तो यह पद दार्जिलिंग की विकलांग राजनीति के उपहार के रूप में मिला था. ‘आप गोरखालैंड चाहते हैं, मैं भी गोरखालैंड चाहता हूं’, कहने वाले जसवंत सिंह दार्जिलिंग ही भूल गए. सांसद की गुमशुदगी की रिपोर्ट तक दर्ज की गई.
बिर्ख खडका डुवर्सेली, दार्जिलिंग (प.बं.) 

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