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मेरा देवर दिनभर क्राइम शो देखता रहता है, मैं क्या करूं ?

सवाल

मैं 35 वर्षीया गृहिणी हूं. सासससुर की हाल ही मैं डैथ हुई है. मेरा 17 साल का देवर हमारे साथ ही रहने लगा है. मैं उस से अपने बच्चे जैसा ही प्यार करती हूं. मैं कई दिनों से नोटिस कर रही हूं कि वह टीवी में क्राइम शो देखता रहता है. यहां तक कि बातें भी उसी को ले कर करता है. इस कारण थोड़ा अग्रेसिव भी हो गया है.

अभी थोड़े दिनों पहले सोसाइटी के कुछ लड़कों के साथ उस का   झगड़ा भी हो गया था. मैं ने इस बात को ले कर उसे डांटा तो वह मुझे कुछ बोला तो नहीं लेकिन उस दिन के बाद से मुझ से कम ही बात करता है. मैं ने उसे क्राइम शो देखने से मना किया लेकिन मेरा कहा न मान कर वह अभी भी क्राइम शो देखता है. मुझे डर है कि कहीं उस की यह लत उसे गलत दिशा में न ले जाए. मैं क्या करूं ताकि वह गलत राह पर न जाए ?

जवाब

टीवी पर आने वाले क्राइम शो काल्पनिक होते हैं. जो समाज में जागरूकता तो नहीं फैलाते अलबत्ता लोगों को गुमराह जरूर करते हैं. अकसर रिश्ते में धोखाधड़ी, एक दोस्त द्वारा दूसरे दोस्त का कत्ल, पैसे के लिए हत्या, शादी में धोखा, अवैध संबंध, पतिपत्नी के रिश्तों में विश्वास का अभाव दिखाना कहीं न कहीं लोगों के मन में अपनों के प्रति अविश्वास का भाव ही पैदा करता है. यकीनन, टीवी पर दिखाए जाने वाले अधिकतर क्राइम शो न सिर्फ रिश्तों को प्रभावित करते हैं, अपराधियों के लिए मार्गदर्शक की भूमिका भी निभाते हैं.

बच्चों को तो इन धारावाहिकों से दूर ही रखने में भलाई है और फिर आप के देवर की उम्र तो अभी कम है. अगर वह अपराध कथाओं को पसंद करता है तो मनोहर कहानियां जैसी अपराध कथा वाली पत्रिका को उसे सौंप सकते हैं. इस पत्रिका में रोमांचित ढंग से अपराध से जागरूक किया जाता है. आप उसे प्यार से सम  झाने की कोशिश करें. उसे अच्छी पत्रिकाएं या अच्छा साहित्य पढ़ने को दें या प्रेरित करें. आप चाहें तो अपने पति से भी बात करें ताकि समय रहते उसे सही दिशा की ओर मोड़ा जा सके.

मूत्राशय को इंटरस्टिम तकनीक से करें कंट्रोल, जानें कैसे

2 बच्चों की 40 वर्षीय मां सुनंदा को उस समय कुछ राहत मिली जब उस ने ‘इंटरस्टिम टैक्नोलौजी’ से मूत्र असंयमता पर काबू पाया. इस से पहले सुनंदा ने कई इलाज करवाए पर फायदा बहुत कम था. जरा सी छींक, हंसी या खांसने से उस का यूरिन अनायास ही निकल आता था. उस ने अपनेआप को कहीं जानेआने से भी रोक रखा था. आम स्थान पर इस तरह की समस्या उस के लिए शर्मनाक थी.

मूत्र असंयम, दरअसल मूत्राशय पर नियंत्रण का न होना है. यह एक आम समस्या है जो अकसर खांसी, छींक आने पर आप को होती है. उस वक्त अगर आसपास शौचालय न मिले तो मूत्र को रोक पाना असंभव हो जाता है. यह दैनिक गतिविधियों को प्रभावित करता है. लोग डाक्टर के पास जाने से संकोच करते हैं. यह बीमारी लाइलाज नहीं. समय रहते अगर इस का इलाज किया जाए तो व्यक्ति नौर्मल जिंदगी बिता सकता है. अधिकतर महिलाएं इस की शिकार होती हैं. प्रसव के बाद यूरिनरी ट्रैक लूज हो जाने से यह समस्या आती है पर कई बार पुरुषों और कम उम्र की महिलाओं को भी यह समस्या हो जाती है. इस के रिस्क फैक्टर निम्न हैं-

  • तनाव से यह बीमारी बढ़ती है. इस बीमारी के चलते पुरुषों की अपेक्षा महिलाएं अधिक तनावग्रस्त हो जाती हैं. इस के अलावा प्रसव के बाद, मेनोपोज वाली महिलाओं या प्रोस्टेट ग्लैंड की समस्या वालों को यह बीमारी हो सकती है.
  • मोटापा या वजन अधिक होने पर जब आप खांसते या छींकते हैं, आसपास की मांसपेशियों पर दबाव पड़ने से मूत्राशय पर पकड़ कम हो जाती है और अनैच्छिक रूप से यूरिन निकलने लगता है.
  • कोई न्यूरोलौजिकल बीमारी या मधुमेह होने से इस बीमारी का रिस्क बढ़ता है.

इस बीमारी के लक्षण निम्न हैं-

  • जब आप को बारबार पेशाब के बाद भी असहजता लगे.
  • पेशाब के बाद भी आप के कपड़े गीले हो जाएं.
  • कुछ भारी उठाने, छींकने या हंसने पर अनायास यूरिन निकल जाए.

ये सभी लक्षण इस बीमारी की ओर इशारा करते हैं. यह बीमारी किसी उम्र में किसी भी व्यक्ति को हो सकती है. इंटरस्टिम तकनीक के द्वारा ब्रेन और नर्व दोनों को कंट्रोल किया जाता है. इस बारे में डा. रैना बताते हैं कि जब यूरिन का ब्लैडर भरा होता है तो व्यक्ति अपने ब्रेन द्वारा उसे कंट्रोल कर उपयुक्त स्थान पर यूरिन करता है और जब यह वायरिंग ‘क्रिस क्रौस’ हो जाती है तो मरीज नर्वस हो जाता है. न्यूरो मौड्यूलेशन द्वारा इसे ठीक किया जा सकता है. यह तकनीक काफी उन्नत है. यह इलाज दिल्ली, मुंबई, चैन्नई और हैदराबाद में किया जाता है.

इस तरह के इलाज के लिए अधिकतर वही व्यक्ति आता है जिस ने हर तरह की चिकित्सा करवा ली है और असर नहीं हो रहा. इसलिए इस इलाज के पहले प्रारंभिक प्रक्रिया की जाती है, जिस के तहत यूरो मौड्यूलेट किया जाता है. इस में एस थ्री फोरम में निडिल डाल कर लीड डाली जाती है.

‘नर्व को स्टिमुवेट’ कर बैटरी द्वारा उसे सैटिंग पर रखा जाता है. यह अधिकतर पोविक फलों के पास किया जाता है. 2 से 3 हफ्ते इस विधि द्वारा व्यक्ति की सहजता को आंका जाता है. अगर मरीज अपने यूरिन पर कंट्रोल पा लेता है तो उसे मरीज के अंदर प्रत्यारोपित किया जाता है. यह एक प्रकार की चिप होती है जो बैटरी द्वारा कंट्रोल होती है. एक बैटरी की लाइफ 5 साल तक होती है.

इस प्रक्रिया के लिए मरीज को पूरा बेहोश करने की आवश्यकता नहीं होती, लोकल एनेस्थेसिया के जरिए चिप को नस के ऊपर बैठा कर सैट कर दिया जाता है. रोगी उसी वक्त यूरिन पर कंट्रोल करना सीख जाता है. केवल एक सप्ताह एंटीबायोटिक देने के बाद व्यक्ति नौर्मल जिंदगी जी सकता है. इस का सक्सैस रेट काफी अच्छा है. यह उपाय महंगा है पर आवश्यक है.

इस का इलाज कराने वालों को बारबार बाथरूम की ओर नहीं भागना पड़ता और वे सैर पर, लंबी यात्रा पर भी जा सकते हैं.

एक्सोनिक्स नाम का एक और उपचार भी अब उपलब्ध है. मरीजों को दोनों के बारे में अपने डाक्टर से पूछताछ करनी चाहिए. एक्सोनिक्स के बनाने वालों का दावा है इस डिवाइस में कम बैटरी इस्तेमाल होती है.

मधुमेह के रोगी भी मधुमेह को कंट्रोल कर इसे लगवा सकते हैं. यह सिक्रेल नर्वस ब्लैडर को कंट्रोल करती है जिस से यूरिनरी मसल्स कंट्रोल में आ जाते हैं. अगर मस्तिष्क और सिक्रेल नर्वस दोनों सही दिशा में काम करते हैं तो यह समस्या खत्म हो जाती है.

Valentine’s Day 2024 : एक बार फिर – शिखा और शैलेश का रिश्ता क्या जुड़ पाया ?

शिखा ने कमरे में घुसते ही दरवाजा बंद कर लिया और धम्म से पलंग पर बैठ गई. नयानया घर, नईनई दुलहन… सबकुछ उसे बहुत अजीब सा लग रहा था. 25 वर्ष की उम्र में इतना सबकुछ देखा था कि बस, ऐसा लगता था कि जीवन खत्म हो जाए. अब बहुत हो चुका. हर क्षण उसे यही एहसास होता कि असंख्य निगाहें उस के शरीर को भेदती हुई पार निकल जातीं और आत्मा टुकड़ेटुकड़े हो कर जमीन पर बिखर जाती.

पलंग पर लेटते ही उस की निगाहें छत पर टिक गईं. पंखा पूरी तेजी से घूम रहा था. कमरे की ट्यूबलाइट बंद थी. एक पीला बल्ब बीमार सी पीली रोशनी फेंक रहा था. अचानक उस की निगाहें कमरे के कोने में फैले एक जाले पर पड़ीं, जिस में एक बड़ी सी मकड़ी झूल रही थी. कम रोशनी के कारण जाला पूरी तरह दिख नहीं रहा था, लेकिन मकड़ी के झूलने की वजह से उस का आभास जरूर हो रहा था.

वह एकटक उसे देखती रही. पता नहीं क्यों जाला उसे सम्मोहित कर देता है. उसे लगता है कि इस जाल में फंसी मकड़ी की तरह ही उस का जीवन भी है. आज एक महीना हो गया उस की शादी को, पर हर पल बेचैनी और घबराहट उसे घेरे रहती है. रोज मां का फोन आता है. हमेशा एक ही बात पूछती हैं, ‘कैसे लोग हैं शिखा, शेखर कैसा है, उस के मातापिता का व्यवहार ठीक है. चल बढि़या, वैसे भी पढ़ेलिखे लोग हैं.’

मां बारबार उसे कुरेदती पर उस का जवाब हमेशा एक जैसा ही होता, ‘‘हां, मम्मी, सब अच्छे हैं.’’

वैसे भी यह उत्तर उस के जीवन की नियति बन गया था. चाहे कोई कुछ भी पूछता, उस की जबान से तो सिर्फ इस के अलावा कुछ निकल ही नहीं सकता था. चाहे कोई उसे मार ही क्यों न डाले. पहले ही उस ने मांबाप को कितने दुख दिए हैं. पुराने खयालों से जुड़े मांबाप के लिए यह कितना दुखद अनुभव था कि मात्र 25 साल की उम्र में उन्हें उस की दूसरी शादी करनी पड़ी.

उस की आंखें डबडबा आईं. पीली रोशनी उसे चुभती हुई महसूस हुई. उस ने उठ कर लाइट बंद की और दोबारा लेट गई. आंसू बरबस ही निकल कर गालों पर ढुलकने लगे.

3 साल पहले उस का जीवन कितना खूबसूरत था. पंछी की तरह स्वच्छंद, खिलीखिली, पढ़ाईलिखाई करती, खेलतीकूदती एक अबोध युवती. मांबाप भले ही बहुत ज्यादा अमीर नहीं थे, अधिक सुखसुविधाएं भी नहीं थीं, लेकिन घर का माहौल कुल मिला कर बहुत अच्छा था. वैसे घर में था भी कौन. अम्मांबाबूजी, वह खुद और छोटा भाई नवीन जो अभी हाल ही में इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी कर के निबटा था.

दोनों भाईबहनों के बीच गहरी समझ थी. घर पर मां की तबीयत ठीक नहीं रहती थी. एक बार बातोंबातों में बहू की बात चलने लगी, पर फिर सभी को लगा कि पहले लड़की के हाथ पीले हो जाएं, फिर नवीन के बारे में सोच सकते हैं. स्वयं नवीन भी यही सोचता था.

शिखा परिवार के इस आकस्मिक निर्णय से हैरान रह गई. ‘अभी से शादी, अभी तो उस की उम्र ही क्या है. पूरी 22 साल की भी नहीं हुई.’ उस ने बहुत विरोध किया.

लाड़प्यार में पली शिखा का विरोध सफल भी हो जाता, पर तभी एक घटना घट गई. पड़ोस के त्रिभुवनजी के लड़के की शादी में शैलेश व उस के परिवार वाले आए. दोचार दिन साथ रहे. त्रिभुवनजी से इन के संबंध बहुत अच्छे थे. उन की लड़की विभा, शिखा की अच्छी सहेली थी. घर पर आनाजाना था. शिखा के परिवार वालों ने भी कामकाज में हाथ बंटाया. इस दौरान सभी लोग न केवल एकदूसरे के संपर्क में आए, वरन प्रभावित भी हुए.

शैलेश का परिवार जल्दी ही विदा तो हुआ, पर थोड़े ही दिन बाद उन का प्रस्ताव भी आ गया. प्रस्ताव था, शैलेश व शिखा की शादी का. शिखा के पिताजी शादी की सोच तो रहे थे, पर यह बात अभी तक केवल विचारों में ही थी. जीवन में कई बार इस तरह की घटनाएं घटती रहती हैं.

आदमी किसी बात के लिए अपनी मानसिकता तैयार करता है, लेकिन एकदम से ही स्थिति सामने आ कर खड़ी हो जाए, तो वह हड़बड़ा जाता है. शिखा के घर वाले इस अप्रत्याशित स्थिति से असमंजस में पड़ गए, क्या करें, क्या न करें.

पहले तो यही सोचा कि अभी से शादी कर के क्या करेंगे. अभी उम्र ही क्या है, पर अंतत: रिश्तेदारों से बातचीत की तो उन की सोच बदल गई.

सभी ने एक ही बात कही, ‘भई, शादी तो करनी ही है. ऐसी कम उम्र तो है नहीं, 22 की होने वाली है. लड़की की शादी समय से हो जाए, वही अच्छा है. फिर 2-3 साल बाद परेशानी शुरू हो जाएगी. तब फिर दुनिया भर में भागते फिरो और दोचार साल और निकल गए तो लड़की को कुंठाएं घेर लेंगी और मांबाप की नींद हराम हो, सो अलग. फिर इस से अच्छा परिवार उन्हें भला कहां मिलेगा.

‘लड़का सुंदर है. अच्छा कमाता है. पिताजी अच्छेखासे पद पर थे. अभी काफी नौकरी बाकी थी. कोई लड़की नहीं, बस, एक छोटा भाई जरूर था. सीमित परिवार. इस से अच्छा विकल्प मिलना बहुत मुश्किल था.’

और फिर शिखा का भी इतना सशक्त विरोध नहीं रहा. वह बिलकुल ही घरेलू लड़की थी. पढ़ने में औसत थी ही और जीवन के बारे में कोई बड़ी भारी योजनाएं थीं भी नहीं. कुल मिला कर चट मंगनी और पट ब्याह. सबकुछ ठीकठाक संपन्न हो गया.

हंसतीखिलखिलाती शिखा विदा हुई और शैलेश के घर पहुंच गई. शुरूशुरू में सब अच्छा रहा, पर धीरेधीरे सबकुछ बदल गया. घर वालों की असलियत धीरेधीरे सामने आ गई. अपने पढ़ेलिखे व कमाऊ लड़के के लिए साधारण सा दहेज पा कर वे जरा भी संतुष्ट नहीं हुए.

रिश्तेदारों की व्याख्या ने आग में घी का काम किया और धीरेधीरे छोटे से अंसतुष्टि के बीज ने दावानल का रूप ले लिया. फिर क्या था, हर बात में कमी, हर बात पर शिकवाशिकायत. सारी बातें इतना गंभीर रूप नहीं लेतीं, लेकिन शैलेश भी अपने मातापिता के सुर में सुर मिला कर बोलने लगा.

शिखा सुदंर थी, पढ़ीलिखी थी, पर उस की मानसिकता घरेलू लड़की की थी. जब शैलेश अपने साथ काम कर रही लड़कियों से शिखा की तुलना करता तो उसे कुंठा घेर लेती. उसे लगता कि उस के लिए तो एक प्रोफैशनल लड़की ही ज्यादा अच्छी रहती.

बस फिर क्या था. शिखा का जीवन बिलकुल ही नरक हो गया. जहां तक उस के बस में रहा उस ने सहा भी, पर जब पानी सिर से गुजरने लगा, तो उसे मजबूरन घर वालों को बताना पड़ा. घर वाले उस की बातें सुन कर सन्न रह गए. उन के पांवों के नीचे से जमीन खिसक गई. उन्होंने बहुत हाथपांव जोड़े, मनुहारमन्नतें कीं, पर कोई परिणाम नहीं निकला.

और फिर धीरेधीरे यह भी नौबत आ गई कि छोटीमोटी बातों पर शैलेश उस के साथ मारपीट करने लगा. सारे घर वाले मूकदर्शक बन कर तमाशा देखते रहते. शिखा को लगा कि अब कोई विकल्प नहीं बचा इसलिए वह घर छोड़ कर वापस मायके आ गई.

मांबाप ने उसे इस हालत में देखा तो उन्हें बहुत धक्का लगा. नवीन तो गुस्से के मारे पागल हो गया. पिताजी ने ताऊजी को बुलवाया. सलाहमशविरा चल ही रहा था कि एक दिन शिखा के नाम तलाक का नोटिस आ पहुंचा.

घर के आंगन में तो सन्नाटा पसर गया. अम्मांबाबूजी दोनों ने जीवन देखा था. वे मतभेद की घटनाओं से दुखी हुए पर उन्हें इस परिणाम का जरा भी एहसास नहीं था. उन्होंने लड़ाईझगड़े तो जीवन में बहुत देखे थे, सभी लोग बातें तो न जाने कहांकहां तक पहुंचने की करते थे, पर अंतत: परिणति सब मंगलमय ही देखी थी. पर अब खुद के साथ यह घटित होते देख वे बिलकुल टूट ही गए. वे ताऊजी को ले कर शैलेश के घर गए भी पर कोई परिणाम नहीं निकला.

इसी तरह दिन गुजरने लगे. मांबाप की हालत देख कर शिखा का कलेजा मुंह को आ जाता था. उसे लगता था कि वह ही इस हालत के लिए जिम्मेदार है. एक गहरा अपराधबोध उसे अंदर तक हिला देता था. वह मन ही मन घुटने लगी. उधर अम्मांबाबूजी व नवीन भी उस की यह हालत देख कर दुखी थे, पर उन्हें भी कुछ नहीं सूझता था. उन्होंने उस से भी आगे पढ़ने के लिए जबरदस्ती फार्म भरवा दिया.

उधर मुकदमा चलने लगा और फिर एक दिन तलाक भी हो गया. शिखा ने इसे नियति मान कर स्वीकार कर लिया. इंसान के जीवन में जब तकलीफें आती हैं, तो उसे लगता है कि वह उन्हें कैसे बरदाश्त कर पाएगा.

पर वह स्वयं नहीं जानता कि उस के मन में सहने की कितनी असीम शक्ति मौजूद है. वह धीरेधीरे अपनी पढ़ाई करने लगी.

इसी तरह काफी समय निकल गया. नवीन की शादी की बात चलने लगी. लोग बातचीत करने आते, पर शिखा का सवाल प्रश्नचिह्न की तरह सब के सामने खड़ा हो जाता था. शिखा को बस, लगता कि धरती फट जाए और वह उस में समा जाए.

नवीन को भी उस की बहुत चिंता थी. उस ने अम्मांबाबूजी पर जोर डाला कि वे दीदी को पुनर्विवाह के लिए राजी करें.

शिखा इस बात को सुन कर बहुत भड़की, चिल्लाई. उस ने 2 दिन तक खाना नहीं खाया, पर फिर जब अम्मां उस के कमरे में आ कर रोने लगीं, तो उसे लगा, बस, अब वह उन की इच्छाएं पूरी कर के ही उन्हें तार सकती है. उस ने खुद को नदी में बहती हुई लकड़ी की तरह छोड़ दिया, जिसे धारा बहाती ले जा रही है.

बस, जल्दी ही शादी हो गई. न कोई उमंगउल्लास, न कोई धूमधड़ाका. बहुत ही सीधेसादे ढंग से. उस ने वरमाला के समय ही तो दूल्हे को पहली बार देखा, पर कोई एहसास उस के मन में नहीं जगा.

बहुत ज्यादा लोग इकट्ठा नहीं थे, फिर भी उसे ऐसा लग रहा था कि वह उन्हें बरदाश्त नहीं कर पा रही है. पलपल वह रस्में दोहराई जा रही थीं. हवनकुंड में अग्नि प्रज्ज्वलित हो गई थी. छोटी व सूखी लकडि़यां चटकचटक कर जल रही थीं.

कैसी किस्मत है उस की, यही सब दोबारा दोहराना पड़ रहा है. 7 फेरे, पहले और किसी के साथ वचन… अब किसी और के साथ. पहले भी तो पवित्र अग्नि के सामने मंत्र उच्चारित किए गए थे, किसी ने मना नहीं किया था. क्यों नहीं निभा पाए इस वचन को? ऐसा क्यों हो जाता है?

पंडितजी ने सिक्के में सिंदूर भर कर नीलेश को पकड़ा दी. उस ने मुसकराते हुए शिखा की मांग में सिंदूर भर दिया. उस की सूनी मांग एक बार फिर सिंदूर से चमकने लगी. सिक्के का सिर पर स्पर्श होते ही उसे अजीब सा लगा. क्यों दोहराया जा रहा है उस के साथ ये सब. क्यों कोई मंत्र इतना ताकतवर नहीं रहा कि वह उस के सिंदूर को बचा पाता. छोटीछोटी बातें उस की मांग का सिंदूर उजाड़ गईं… तो फिर… उस की आंखें गीली हो गईं.

और फिर वह विदा हो कर पति के घर आ गई. ठीक वैसे ही जैसे कभी अम्मांबाबूजी का साथ छोड़ कर शैलेश के साथ चल दी थी. तब भी यही दोहराया गया था कि यही पति परमेश्वर है. यह घर ही सबकुछ है. अब ये ही तुम्हारे मातापिता हैं. तुम्हें मोक्ष तभी मिल पाएगा, जब तुम्हारी अंतिम यात्रा पति के कंधों पर जाएगी, पर शैलेश ने तो जीतेजी मोक्ष दिला दिया. जीतेजी उस की अंतिम यात्रा संपन्न करा दी. और अब यहां नए घर में… अब वह फिर पति के कंधों पर चढ़ कर मोक्ष की कामना करेगी.

तभी दरवाजे की आहट से वह चौंक गई. आंखों से आंसू पोंछते हुए उस ने दरवाजा खोला. सामने नीलेश मुसकराते हुए बोला, ‘क्या बात है, क्यों अंधेरा कर रखा है.’ वह क्या कहती, बस चुप ही रही.

नीलेश ने शिखा को सोफे पर बिठाया और खुद भी सामने सोफे पर बैठ गया.

‘तुम परेशान हो.’

वह फिर कुछ नहीं बोली. बस, आंखों से अश्रुधारा बहने लगी.

‘शिखा, पता नहीं, तुम क्यों अपराधबोध से ग्रसित हो. इतनी बड़ी दुनिया है. तरहतरह के लोग हैं. सब की मानसिकता अलगअलग है. यदि अम्मांबाबूजी ने तुम्हें किसी ऐसे व्यक्ति के साथ जोड़ दिया, जिस के मापदंडों पर तुम खरी नहीं उतर सकीं तो क्या तुम अपनेआप को खत्म कर लोगी. एक ऐसे व्यक्ति के लिए जिस ने केवल भौतिकवादी मापदंडों के आगे तुम्हें नकार दिया. तुम्हारी भावनाओं को बिलकुल नहीं समझा. एक ऐसे व्यक्ति के दिए गए कटु अनुभव को तुम क्यों जिंदगी भर संजो कर रखना चाहती हो.’

वह एक क्षण रुका और शिखा के आंसू पोंछते हुए बोला, ‘जीवन में हम दिनरात देखते हैं, इतनी विसंगतियों से भरा है जीवन. हर पल कहीं न कहीं किसी व्यक्ति के साथ ऐसा कुछ घटता ही रहता है, ऐसे में व्यक्ति क्या करे. क्या वह किसी दूसरे के द्वारा की गई गलत हरकत से अपने अस्तित्व को मिटा डाले. कोई दूसरा अगर बुरा निकल जाए तो क्या तुम अपने सारे जीवन को अभिशप्त कर लोगी?’

वह रोने लगी, ‘नहीं, पर मुझे लगता है कि आप के साथ कहीं नाइंसाफी तो नहीं हुई है. मैं आप के लायक…’

‘तुम भी बस,’ नीलेश बीच में ही बोला, ‘अगर तुम्हारे साथ पहले कुछ घट गया हो, जिस के लिए तुम जिम्मेदार नहीं हो तो, क्या तुम्हारे व्यक्तित्व पर प्रश्नचिह्न लग गया. शिखा, तुम्हारा व्यक्तित्व बहुत अच्छा है. तुम्हारी सहजता, सौम्यता सभी कुछ अच्छा है. व्यक्तित्व का मूल निर्माण आदमी के आंतरिक गुणों से निर्मित होता है. अगर हमारे बाहरी जीवन में कुछ गलत हो गया तो इस का मतलब यह नहीं कि हम गलत हो गए.’

और सही बात तो मैं ने तुम से शादी कोई सहानुभूति की वजह से नहीं की. मैं ने तुम्हें देखा, तुम अच्छी लगी. बस, यही पर्याप्त है, पर अब आज से नया जीवन जीने का संकल्प लो. बीते हुए कल की छाया कहीं से अपने जीवन पर मत पड़ने दो. अब तुम्हें मेरे साथ जीना है. मुझे तुम्हारी बहुत जरूरत है.’

शिखा क्या कहती. उसे लग रहा था कि उस के जीवन पर छाई कुहासे की परत धीरेधीरे हटती जा रही थी. वह नीलेश से लिपट गई और उस के सीने में मुंह छिपा लिया. उस के आंसू निकल कर नीलेश के सीने पर गिर रहे थे. उसे लगा कि उस की पुरानी जिंदगी की कड़वाहट आंसुओं से धुलती जा रही थी. अब शिखा खुश थी, बहुत खुश.

विवाहित महिलाओं में भी क्या मौत का कारण बनता है असुरक्षित गर्भपात ?

बहुत सारी जागरूकता के बाद भी गर्भपात शादीशुदा महिलाओं मौत का कारण बनता है. आंकड़े बताते है कि कुल  मौतों में 8 से 10 फीसदी मौतें असुरक्षित गर्भपात से होती है. परिवार नियोजन का सही प्रयोग न होने से शादीशुदा महिलाओं को गर्भपात के लिये जाना होता है. केवल उत्तर प्रदेश में हर साल 31 लाख गर्भपात होते है. 72 फीसदी महिलाओं को सुरक्षित गर्भपात की जानकारी नहीं होती है. केवल 23 प्रतिशत महिलाओं को ही सुरक्षित गर्भपात की जानकारी होती है. राष्ट्रीय स्तर पर देखे तो भारत में 56 प्रतिशत गर्भपात असुरक्षित स्थित में होते है. इस असुरक्षित गर्भपात के कारण 8 प्रतिशत मातृ मृत्यु होती है. असुरक्षित गर्भपात के कारण तमाम दूसरी बीमारियां भी महिलाओं को हो जाती है.

उत्तर प्रदेश में मां बनने की उम्र की करीब 4.8 करोड़ महिलायें है. यह कुल आबादी का करीब 50 प्रतिशत है. मां बनने लायक उम्र की महिलाओं में 1.9 करोड महिलायें 15 से 24 आयु वर्ग की है. यह मां बनने वाली उम्र की महिलाओं का 40 प्रतिशत है. ऐसे में साफ पता चलता है कि 15 से 24 साल उम्र की महिलाओं पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है. असुरक्षित गर्भपात ऐसी महिलाओं के लिये खतरनाक होता है. इससे समाज की बड़ी आबादी समाज के विकास में अपना सही योगदान नहीं दे पा रहे है.

गर्भपात पर खुलकर बोलने में बचती हैं महिलायें

संकोच, शर्म और बदनामी के डर के कारण महिलायें अप्रशिक्षित लोगों के चक्कर में फंसकर गर्भपात करा लेती हैं जो उनकी मौत का कारण बनता है. महिलायें अभी भी ऐसी हालत में खुलकर बोलने और सलाह लेने से बचती है. उत्तर प्रदेश में प्रति एक लाख में 216 माताओं की मौत हो जाती हैं. इनमें से 20 की मौत असुरक्षित गर्भपात के कारण होती है. यह संख्या देश भर में होने वाली मौतों की संख्या का 20 प्रतिशत है. गर्भपात से बचाव के लिए विवाहित जोड़ो को परिवार नियोजन से जोड़ना चाहिए.

उत्तर प्रदेश के परिवार कल्याण महानिदेशक डा. बद्री विशाल ने उप्र वालण्टरी हेल्थ एसोसिएशन द्वारा आईपास डेवलपमेंट फाउण्डेशन एवं साझा प्रयास के सहयोग से आयोजित की गयी ‘सुरक्षित गर्भपात समापन’ विषय पर एक दिवसीय राज्य स्तरीय कार्यशाला में कहा कि एमटीपी कानून के तहत यह प्रावधान है कि गर्भपात कराने वाले की जानकारी पूरी तरह से गोपनीय रखी जाती है, यहां तक कि इस जानकारी को सूचना के अधिकार के तहत भी नहीं मांगा जा सकता है. ऐसे में लोगों को इस बात के लिए जागरूक करने की आवश्यकता है कि संकोच और शर्म छोड़कर सरकारी अस्पताल के डॉक्टर से सम्पर्क करें, जिससे कि सुरक्षित गर्भपात हो सके.

अनचाहे गर्भ से बचाव और उसका प्रबन्धन

महाप्रबन्धक, परिवार नियोजन (एन.एच.एम.) डा0 अल्पना शर्मा ने इस विषय पर महिलाओं को जागरूक करने पर बल दिया. संयुक्त निदेशक, परिवार कल्याण डा0 विरेन्द्र सिंह ने एम.टी.पी. एक्ट को लेकर अपने विचार व्यक्त किये. यूपीवीएचए की कार्यक्रम प्रबन्धक श्वेता सिंह ने बताया कि आईपास डेवलपमेंट फाउण्डेशन के सहयोग से उ0प्र0 वालण्टरी हेल्थ एसोसिएशन द्वारा ‘साझा प्रयास’ जो उत्तर प्रदेश के 10 जिलों में कार्यरत स्वैच्छिक संस्थाओं का एक नेटवर्क है, जिसके माध्यम से विगत् दो वर्षों से महिलाओं के सुरक्षित गर्भ समापन पर कार्य किया जा रहा है.

आईपास डेवलपमेंट फाउण्डेशन के हरमेन्द्र सिंह द्वारा आशा बुकलेट पर प्रकाश डालते हुए उसकी उपयोगिता के बारे में बताया गया. आशा पुस्तिका ‘अनचाहे गर्भ से बचाव और उसका प्रबन्धन’ का विमोचन भी किया. कार्यशाला के अन्त में यूपीवीएचए के अधिशासी निदेशक विवेक अवस्थी ने कहा कि समाज के विभिन्न वर्गो के सहयोग और जागरूकता से सुरक्षित गर्भपात को बढ़ावा दिया जा सकता है.

जब छूट जाए जीवनसाथी का साथ, तो इस तरह बढ़े जिंदगी में आगे

शीना 22 साल की उम्र में विधवा हो गई है. उस की सहेली सरोज ने उस का बहुत साथ दिया है. इधर कुछ दिनों से सरोज को यह विश्वासघात जैसा लगता है जब शीना की पड़ोसिन ने उसे बताया कि उस के पति अकसर शाम को शीना के पास आते हैं. सरोज के तनबदन में आग लग गई पर उस ने धैर्य रखा क्योंकि शीना से मिलते रहने के कारण वह यह जान रही थी कि अभी तक वह दुख से उबरी नहीं है. उस ने पति से पूछा तो वह बोला, ‘‘हां, जाता हूं. उस बेचारी का और कौन है.’’

इस पर दोनों में खूब झगड़ा हुआ. उस ने शीना से कहा तो वह अचंभित थी. दुख के मारे ज्यादा सोच नहीं पाई फिर भी उस ने भविष्य में ध्यान रखने की बात कही. अब तक की गलतियों के लिए यही कह कर माफी मांगी कि वह सोचती थी कि शायद सरोज ही उन्हें भेजती है. खैर, अब सरोज व उस के पति शीना के घर साथसाथ आते हैं.

कई बेचारे भी तो हैं

ज्योतिका ने पति को अकसर देरसवेर किसी महिला से बात करते देख कर पूछा तो वह बोला कि उन के कार्यालय की महिला है जो हाल ही में अपना पति खो बैठी है. अब उस बेचारी का कौन है? ज्योतिका ने गुस्से में कहा, ‘‘आप जैसे कई बेचारे भी हैं.’’

उस की बात का आशय था कि दफ्तर की बातें दफ्तर तक सीमित रहें. एक सीमा तक ही किसी की सहायता की जाए. इसी से अपना व दूसरों का भला हो सकता है. सिर्फ मिलनेजुलने, मन बहलाने तथा छोटीमोटी चीजों की सहायता समस्या का हल नहीं है. अच्छा हो कोई ऐसी मदद की जाए जिस से उसे जीवन का आधार मिले, स्वावलंबी बनने का अवसर मिले.

हम भी तो हैं

अकसर हम अपने आसपास युवा विधवाविधुर को देखते हैं या असमय जीवनसाथी खो चुके लोगों को देखते हैं. ऐसे लोगों की आसपास के लोग भी मदद कर सकते हैं. महानगरों में पड़ोसियों में एकदूसरे की चिंता न करने की भावना के चलते भी अवैध रिश्ते पनपने लगते हैं. जब कोई बड़ी दुर्घटना या कांड हो जाता है तब पछतावा होता है.

अपर्णा पड़ोस में रहने आए परिवार के पास गई और सीधा औफर दिया. उस का एक 26 वर्षीय विधुर कजिन है. यदि वे चाहें तो शादी के 6 दिन बाद ही विधवा हुई अपनी बेटी के लिए उसे देख सकते हैं. लड़के से वे पूछ चुकी हैं, उसे किसी विधवा से शादी करने में कोई दिक्कत नहीं है. खैर, 3 महीने बाद यह शादी हुई. आज 9 साल बाद भी यह दंपती खुशहाल जिंदगी गुजार रहा है. अपर्णा कहती है कि यह शादी कराने से उसे किसी अच्छे कार्य को करने जैसा सुख मिला.

रवि कहता है, मैं ने अपनी पूर्व कलीग के मात्र 30 साल की उम्र में विधवा हो जाने पर उसे मन से समझाया. वह अपने किसी दोस्त के सहारे जिंदगी पूरी करना चाहती थी. चूंकि उस का यह दोस्त कुंआरा था, फिर भी उस से शादी न करने की बात कहता था, आजीवन कुंआरा रहने की बात भी करता था. चोरीछिपे मैं उस से मिला, उसे समझाया. यथासंभव साथ भी दिया. इसी बीच पता चला कि वह ब्राह्मण है और लड़की दलित. उस के अपने मातापिता नहीं मानेंगे. खैर, आज सब कुछ बढि़या चल रहा है.

अकसर व्यक्तिवादिता और ‘हमें क्या लेनादेना’, कोई आगे बढ़ कर हम से कहे या एहसान माने तो हम किसी के लिए पहल करें, जैसी सोच रखना आज आम है. फिर भी, पूछ कर किसी की मदद करने में कोई दिक्कत नहीं है.

रहिमन निजमन की व्यथा…

अकसर व्यथित लोग हर किसी से मन की बात शेयर नहीं करते. उन्हें लगता है इस का परिणाम ठीक नहीं होगा. संभव है लोग गंभीरता से न लें अथवा हंसी में ही उड़ा दें. इस से तो अच्छा है अपना दुख अपने पास ही हो, जो होगा देखा जाएगा. मनोचिकित्सक सिद्धार्थ चेलानी कहते हैं कि प्रियपात्र के बिछुड़ने का गम भूलना आसान नहीं है. उस से उबरने में समय लगता है. फिर भी युवाओं को चाहिए, जितना जल्दी हो, जीवन में क्षतिपूर्ति कर लें. व्यावहारिकता को अपनाएं. नए व पुराने की तुलना न करें. भविष्य की सोच कर वर्तमान का निर्णय लिया जाए पर अतीत से चिपके रहना बुद्धिमानी नहीं है. इस से बच्चे पर भी गलत असर पड़ता है.

एक मनोरोग से पीडि़त एक महिला कहती है, ‘‘मुझे पिछले पति सपने में बहुत परेशान करते थे. रोज रात में पास आ कर मानो सो जाते. अब आप ही बताएं, मैं किसी नए आदमी से कैसे जुड़ती?’’ खैर, उस की एक सखी उसे जबरन डाक्टर के पास ले गई. वे समझ गए कि उसे शारीरिक, भावनात्मक एवं मानसिक हर स्तर पर साथी की आवश्यकता है. लड़की स्वप्न वाली स्थिति से छुटकारा पाने के बाद ही शादी चाहती थी. बड़ी मुश्किल से उसे तैयार किया गया. शादी के डेढ़ महीने के बाद ही वह बिलकुल सामान्य हो गई. यह लड़की कहती है कि अब मैं इस बात से मुक्त हो गई हूं कि जो हर कोई कहता था, ‘इस बेचारी का कौन है?’ अब मेरे सब हैं- सास, ननद, देवर, जेठ. और मुझे अभी भी पुरानी ससुराल वालों का स्नेह मिलता है. शादी से पहले उन से मिली, माफी भी मांगी. पर उन्होंने उलटे मुझे ही समझाया कि ऐसा हमारी बेटी के साथ होता तो हम उसे उम्रभर थोड़ी बिठाते.

हमारे यहां रिवाज नहीं

ब्राह्मणों या सवर्णों में यह बात आम है कि हमारी बिरादरी में विधवा विवाह का चलन नहीं है. ऐसी बिरादरी में पुरुषों के विधुर होने पर ऐसी कोई पाबंदी नहीं है, बल्कि कई बार तो तेरहवीं के दिन ही मृतक के सालभर के श्राद्धादि कर्म कर के शीघ्रातिशीघ्र विवाह में विधुर को बांध दिया जाता है ताकि वह सबकुछ भूल कर हंसीखुशी सामान्य जीवन जिए. जब ये रीतिरिवाज बने होंगे तब संभवतया जाति व्यवस्था की कठोरता, विधवा के कई बच्चे होने एवं पुरुष वर्ग द्वारा नारी कौमार्य एवं शुद्धता का अतिआग्रह रहा होगा. आज तो कुंआरे व्यक्ति तक विधवा से विवाह करने को तैयार हो जाते हैं. ऐसी स्थिति में जातिसमाज के रिवाजों के कारण अपना जीवन तबाह करना बुद्धिमानी नहीं है.

सब से कठिन जाति अपनाना

दिवाकर बैंक मैनेजर हैं. वे कट्टर ब्राह्मण हैं. उन की अति युवा पुत्री के विधवा होने पर कई बीमारियों ने उन्हें घेर लिया. दिनरात उन्हें बेटी पर हुए तुषारापात और उस का दोबारा विवाह करने की चिंता रहती थी. खैर, दूसरी बेटी के ब्याह में बराती के रूप में आए मध्य प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्र के एक कामकाजी युवक ने शादी की पेशकश की तो उन्होंने जातिपांति के सारे नियम भुला दिए. उन्होंने शादी की स्वीकृति दे दी. वे कहते हैं, ‘‘आज मैं खुश हूं, मेरी बेटी भी खुश है. मेरी एक बेटी और बेटे की शादी में जाति वालों ने रुचि नहीं ली. तो मैं ने अपनी मानसिकता बदल ली. जब मुझे जाति से निकाला गया तो मुझे बेटी की सुखद जिंदगी के आगे अपने अपमान व प्रताड़ना का अनुभव तक नहीं हुआ. खैर, अपने दोनों बच्चों को मैं ने किसी भी जाति में विवाह करने की छूट दे दी है. मैं युवा विधवा बेटियों के मातापिताओं से कहना चाहूंगा कि आप दकियानूसी मान्यताओं को छोड़ कर अपने बच्चों के हितैषी बनें. मातापिता होने का सही फर्ज निभाएं.’’

छाया आदिवासी बहुल क्षेत्र बांसवाड़ा में प्राध्यापिका हैं. उन्होंने ब्राह्मण होने के बावजूद पति की मृत्यु के कई वर्ष बाद 2 बेटियों द्वारा अच्छे कैरियर के चयन के बाद अकेलापन अनुभव किया. इस बात को उन्होंने घर वालों से शेयर किया तथा वहीं के एक प्रशासनिक अधिकारी से विवाह किया जो स्वयं भी विधुर थे. लोग चार दिन बातें कर के चुप हो गए.

चित्रेश युवा विधवा है. वह कैजुअल नौकरी पर है. पति के घर (फ्लैट) को वह बहुत बड़ा सहारा मानती है. वह कहती है, ‘‘मेरी बेटी टीनएजर है. वह जब से अपने में मस्त रहने लगी है तब से मुझे साथी की जरूरत अनुभव होती है. मैं पुनर्विवाह की सोच रही हूं. पहले मुझे ऐसा सोचना गलत लगता था कि पर अब मुझे लगता है कि जब बेटी ससुराल चली जाएगी तब मेरा क्या होगा. मैं एकदो बच्चे वाले विधुर से शादी करने को तैयार हूं, उस के बच्चों को मां का प्यार दे दूं तो वह मेरी बच्ची को पिता का प्यार दे सकता है.’’

शिकारियों की कमी नहीं

शादीब्याह, सामाजिक जलसों के आयोजन में लोग ऐसी सौफ्ट टारगेट स्त्रियां ढूंढ़ते रहते हैं जो बेचारगी का शिकार हों और उन के नित नए सैक्स प्रयोगों तथा हवस की आजमाइश में आसानी से साथ निभा सकें. शादीशुदा मर्दों को ऐसी स्थिति के लिए विधवाएं सर्वाधिक उपयुक्त लगती हैं क्योंकि वे उपेक्षा तथा प्रताड़ना की शिकार होने के कारण दैहिक प्यार, सहानुभूति तथा मीठीमीठी बातों को सच्चा प्यार व समर्पण समझ लेती हैं. स्त्रियां, जो ऐसे रिश्तों में अनचाहे ही लिप्त हों, उन्हें भी मर्दों की निकटता अच्छी लगने लगती है.

शालिनी ने 60 साल की उम्र में दोबारा ब्याह किया. बेटियां ससुराल चली गईं, अकेलापन काटने को दौड़ता था. वे बताती हैं, ‘‘आजकल किस के पास इतना समय है जो पूरी जिंदगी का दुख बांटे. मुझे पड़ोस में ही अविवाहित व्यक्ति मिल गया. वे मेरी बेटियों के प्रति फर्ज निभाते हैं. मुझ से 5-6 साल छोटे हैं.’’

शालिनी काफी सुंदर और अपनेआप को मेंटैन किए हुए हैं. पति थोड़ी सी विकलांगता के शिकार हैं. जब मैं ने उन से शारीरिक संबंधों के बारे में बात की तो उन का कहना था कि एक उम्र के बाद रूप पर गुण हावी हो जाते हैं. फिर प्रकृति ने स्त्री शरीर को हर उम्र व हाल में पुरुषों की आवश्यकता के अनुकूल बनाया है बशर्ते वह स्वयं वैसा करना चाहे. आजकल मेरा जीवन अच्छा चल रहा है. मैं बेचारी होने तथा किसी पर बोझ होने से बच गई.

मेरी बेटी का बर्ताव अब बदल गया है, मैं क्या करूं ?

सवाल

मेरी उम्र 41 वर्ष है. मेरी 19 वर्षीया एक बेटी है. वह अकसर अपनी बातें मुझ से शेयर करती है. लेकिन, पिछले 2 महीने से मैं उस के व्यवहार में कुछ नोटिस कर रही हूं. वह अपने इंस्टाग्राम अकाउंट से बारबार तसवीरें आर्काइव करती है तो कभी अनआर्काइव. ऐसा उस ने एकदो बार नहीं, कम से कम 10-12 बार कर लिया है. मैं ने उस से कारण पूछने की कोशिश की तो कहती है कि कुछ गंभीर नहीं है, बस उस का मन तसवीरों को ले कर बनताबिगड़ता रहता है. सुनने में तो यह छोटी बात लगती है मगर मैं जानती हूं कुछ तो गलत है इस में. क्या मेरा अंदेशा सही है?

जवाब

मनोवैज्ञानिक रूप से देखें तो आप का अंदेशा लगभग सही है. जब व्यक्ति लगातार अपनी तसवीरों से या इंस्टाग्राम अकाउंट से या किसी भी और चीज से छेड़छाड़ करता रहे तो उस से साफ है कि कुछ गड़बड़ है. आप की बेटी बारबार अपनी तसवीरें आर्काइव और फिर अनआर्काइव करती है, इस का अर्थ है कि उस के दिमाग में कुछ न कुछ जरूर चल रहा है.

हो सकता है कि कुछ है जो वह आप से छिपा रही हो. उस से तसल्ली से बैठ कर बात कीजिए और उस की मनोस्थिति जानने की कोशिश कीजिए. सोशल मीडिया के इस युग में बच्चे अपनी ऐक्टिविटीज और पोस्ट्स के जरिए अपने मन का हाल बताने की कोशिश तो करते हैं लेकिन कोई उसे सम झने में समर्थ नहीं हो पाता.

हो सकता है बिना कहे आप की बेटी कुछ कहने की कोशिश कर रही हो. आप उस से बात कीजिए, हो सकता है वह एंग्जाइटी से गुजर रही हो या किसी और समस्या से.

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz

सब्जेक्ट में लिखें- सरिता व्यक्तिगत समस्याएं/ personal problem

मेरी दीदी : सनम क्यों अपनी बड़ी बहन से नजरें नहीं मिला पा रही थी ?

मेरी आंखें बंद हो रही हैं, सांसें तन का साथ छोड़ रही हैं। ऐसा लग रहा है मानों मम्मी की आवाज दूर बहुत दूर से आ रही है,”सनम, आंखें खोलो बेटा, क्या हो रहा है तुझे सनम…”मैं आंखें नहीं खोल सकती। शायद मेरे पास ज्यादा वक्त नहीं, पर अनंत की डगर पर जातेजाते मेरी आंखों के सामने जिंदगी की हर घटना किसी फिल्म की तरह प्रतिबिंबित हो रही हैं। मम्मी के उस वाक्य ने मुझे स्कूल से ले कर अब तक की जिंदगी का स्मरण करा दिया और मैं अतीत की गलियों का सफर करते कुछ साल पीछे चली गई…

रोज सुबह मम्मी कितनी सारी आवाज लगा कर उठाती थीं, “सनम बेटा, उठो स्कूल के लिए देर हो रही है.मुझे भी मम्मी के मुंह से बेटा शब्द सुनना बहुत अच्छा लगता है तो जानबूझ कर बिस्तर पर ही पड़ी रहती और जब तक मम्मी सनम से सन्नूडी पर आ कर डांटती नहीं और मुझे जगाने के चक्कर में पूरा घर जग जाता तब दौड़ती हुई बाथरूम में घुस जाती थी। और मम्मी भी झूठा गुस्सा जताते रसोई में सब के लिए नाश्ता बनाने चली जातीं.

मम्मीपापा, सागरिका दीदी, समर्थ और मुझे मिला कर कुल 5 लोगों का हमारा छोटा सा परिवार है। एकदूसरे के साथ भावनात्मक रूप से जुड़े शांति से जिंदगी जी रहे थे। मेरी सागरिका दीदी बहुत शांत और सरल स्वभाव की हैं और मैं थोड़ी सी चंचल। दीदी मुझे बहुत प्यार करती हैं पर एक बात मेरी दीदी को बिलकुल पसंद नहीं। दीदी की अपनी चीजें  कोई और इस्तेमाल करें वह उन्हें  बिलकुल पसंद नहीं था। पापा हमेशा तीनों बच्चों के लिए एक सी चीजें  लाते थे, पर मुझे हमेशा दीदी की चीजें  ही ज्यादा अच्छी लगती थीं, तो चोरीछिपे दीदी की चीजें इस्तेमाल कर लिया करती थी तो उस पर दीदी चिल्ला कर पूरे घर को सिर पर ले लेतीं।

घर में किसी बात पर कभी क्लेश नहीं होता था पर इस बात पर जंग छिड़ जाती। मम्मीपापा के बहुत डांटने पर,”सौरी, अगली बार ऐसा नहीं करूंगी…” बोल कर मैं छिटक लेती.दीदी मुझ से 3 साल बड़ी थीं। देखते ही देखते दीदी ग्रैजुएट हो गईं और मैं कालेज में आ गई। पापा दीदी के लिए लड़का ढूंढ़ने लगे और वह दिन भी आ गया। दीदी के लिए एक बहुत ही बेहतरीन रिश्ता आया। सूरत में अपना बिजनैस संभाल रहे आदित्य के साथ दीदी का रिश्ता पक्का हो गया। आदित्य के मम्मीपापा मुंबई में रहते थे क्योंकि उन की 1 ब्रांच वहां पर थी। बहुत ही सरल व समझदार और दिखने में हैंडशम थे आदित्य। मेरी दीदी भी गोरी, सुंदर और सलिकेदार हैं। दोनों की जोड़ी बहुत जमती थी। पापा ने बड़ी धूमधाम से दी की शादी की.

दीदी के ससुराल जाते ही मेरी जिंदगी में एक खालीपन भर गया। मुझे हर बात पर दीदी की याद आती.आहिस्ताआहिस्ता दीदी के बगैर जीने की आदत डाल रही थी. ऐसे में दीदी की शादी को 3 साल बीत गए। बीच में 2-3 बार दीदी घर आई थीं पर जीजू सिर्फ 1-2 बार ही आए। बस, फोन पर बातें होतीं. पढाई की वजह से मैं भी 1-2 बार ही दीदी के यहां गई थी, इसलिए जीजू का ज्यादा परिचय नहीं था, पर दीदी से उन की बहुत तारीफ सुनी थी.देखते ही देखते दीदी ने खुशखबरी दी, दीदी मां बनने वाली थीं.

मैं तो मौसी बनने के खयाल से ही झूम उठी। घर में नन्हें मेहमान के आने की तैयारियां शुरू हो गईं. मम्मीपापा भी नानानानी बनने वाले हैं, यह सुन कर खुशी से पागल हो गए। पर दीदी की तबियत बहुत ही खराब रहने लगी. जीजू दी को अपनी नजर के सामने रखना चाहते थे और मम्मीपापा दीदी को हमारे घर लाना चाहते थे.जीजू के मम्मी की तबियत भी कुछ ठीक नहीं रहती थी तो वे भी दी की देखभाल नहीं कर पातीं, इसलिए यह तय हुआ कि अगले कुछ महीने दीदी हमारे यहां रहेंगी और डिलिवरी के वक्त जीजू के यहां, दीदी को पापा हवाईजहाज से ले आए। उन के आते ही घर चहक उठा और मैं इसलिए ज्यादा खुश थी कि मेरा ग्रैजुएशन पूरा हो गया था तो अब आराम से दी के साथ वक्त बिता सकती थी.

मैं दीदी का बहुत खयाल रखती थी और मम्मी भी दीदी को बिस्तर से उठने नहीं देती थीं, फिर भी दी की तबियत दिनबदिन खराब होती चली गई और 7वें महीने में ही एक दिन उन्हें जोर का दर्द उठा और उन्हें अस्पताल ले जाना पड़ा. जीजू भी तुरंत आ गए पर डाक्टर की लाख कोशिशों के बाद भी बच्चे को नहीं बचा पाए. दी और जीजू दोनों ही टूट गए। तब मां ने कहा कि बच्चे के साथ लेनदेन नहीं होगा, कुदरत दोबारा सुख देगा, पर डाक्टर ने कहा कि दोबारा मां बनने की सोचिएगा भी नहीं, क्योंकि सागरिका का यूट्रस कमजोर है। 9 महीने तक बच्चे को कोख में नहीं पाल सकता… यह सुन कर दी को बहुत बड़ा झटका लगा, एक स्त्री तभी संपूर्ण कहलाती है जब उसे मां का सुख प्राप्त होता है। दीदी पर भी यही बात लागू होती थी। दीदी मानों बुत बन गई,जिंदगी से रस ही उड़ गया, अकेली बैठी पता नहीं क्या सोचती रहती। सारे घर वाले मिल कर भी दी को खुश नहीं रख पा रहे थे। 2 महीने बीत गए पर दी अपने बच्चे को भूल ही नहीं पा रही थी.

जीजू दी को लेने आ गए पर दी की तबियत इतनी ठीक नहीं थी तो उन का ध्यान रखने के लिए मम्मीपापा ने मुझे दी के साथ सूरत भेज दिया, मैं और जीजू दी को हंसाने की भरपूर कोशिश करते रहते थे, पर दी को डिप्रैशन से बाहर निकालने में नाकामयाब रहे, दी खानेपीने में भी लापरवाह रहने लगीं और न किसी चीज में दिलचस्पी ले रही थीं, एक दिन हीमोग्लोबिन कम हो जाने की वजह से वे चक्कर खा कर गिर गईं, तुरंत ऐंबुलेंस बुला कर उन्हें अस्पताल ले गए, डाक्टर ने कहा कि औक्सीजन और ब्लड चढ़ाना होगा और 3-4 दिन अस्पताल में ऐडमिट करना पड़ेगा, दी को अस्पताल में ऐडमिट करना पड़ा। घर और जीजू की जिम्मेदारी मेरे उपर आ गई। अस्पताल वाले वहां किसी को रहने नहीं देते, वहां का स्टाफ ही मरीज को देखता. मैं ने अच्छे से सब संभाल लिया पर दीदी की चिंता में जीजू भी अपनी सेहत के प्रति लापरवाह होते चले गए.

अगली रात 2 बजे मैं पानी पीने उठी तो देखा कि जीजू बालकनी में खड़े आसमान की तरफ देख कर चिंता में जाग रहे थे. नींद कोसों दूर थी. मुझ से जीजू की यह हालत देखी नहीं गई. मैं आहिस्ता से जीजू के पास गई और सांत्वना देते हुए पानी का गिलास दे कर समझाने लगी कि सब ठीक हो जाएगा सो जाइए, जीजू मुझ से लिपट कर रोने लगे,”सनम, हम ने किसी का क्या बिगाड़ा था…क्यों हुआ हमारे साथ यह सब…”

मैं ने भी जीजू को रोने दिया ताकि दर्द थोड़ा कम हो, पर आहिस्ताआहिस्ता हम दोनों पर पता नहीं कौन सा नशा छाने लगा,  विपरीत सैक्स की पहली छुअन पा कर थोड़ी मैं बहक गई और बहुत महीनों के प्यासे जीजू मुझ में दीदी को ढूंढ़ने लगे। नजदीकियों ने कब हम दोनों को अपनी आगोश में ले लिया पता ही नहीं चला और जो नहीं होना चाहिए वह हो गया.

सारी सीमाओं को लांघने के बाद हम दोनों को होश आया, मैं तो धक से रह गई, ‘हाय, यह मैं क्या कर बैठी? दी को क्या मुंह दिखाऊंगी, मम्मीपापा से कैसे नजरें मिला पाऊंगी’, पर जो हुआ उसे कैसे झुठलाऊं, जीजू मुझ से नजरें तक नहीं मिला पा रहे थे, बारबार मुझे सौरी कहते रहे पर उन के अकेले की गलती भी नहीं थी, न उन्होंने जबरदस्ती की थी, इस गुनाह में मैं बराबर की हिस्सेदार थी, हम दोनों ही बहक गए थे.

जीजू ने अब घर आना बंद कर दिया। औफिस में ही लंच मंगवा लेते थे और वहीं पर सो जाते थे। दीदी 1 सप्ताह बाद अच्छी हो कर घर आ गई, अब जीजू को घर आए बगैर चारा नहीं था। दी अब थोड़ी मूड़ में भी रहने लगी थीं, पर मुझे और जीजू को चुप देख कर टोकतीं,”आखिर आप दोनों को हुआ क्या है? जो पूरा घर सिर पर लिए घूमते थे अचानक यह परिवर्तन क्यों? अब तो मैं भलीचंगी हूं। अब तो दोनों खुश रहो…” पर क्या जवाब देते हम दोंनो।

जीजू दी का बहुत खयाल रखते थे, मगर मेरे साथ बात करने से भी कतराते थे। चाह कर भी हम दोनों उस कमजोर पल को भूला नहीं पा रहे थे। याद आते ही सिर शर्म से झुक जाता था. अब मैं यहां से भाग जाना चाहती थी। मैंने दी से कहा,”दी, अब आप ठीक हो तो मैं घर जाऊं?”

मम्मीपापा कुछ दिन बाद दी को देखने आने वाले थे, तो उन्होंने कहा कि इतनी जल्दी क्या है तुझे, अब मम्मीपापा के साथ ही जाना और जबरदस्ती रोक लिया। ऐसा करते 1 महीना बीत गया और एक दिन खाने के टेबल पर दाल की खुशबू लेते ही मुझे जोरदार मितली उठी। मैं दौड़ कर बाथरूम चली गई और वहां उलटी हो गई। मैं सोच में पड़ गई कि पेट में तो कोई गड़बड़ नहीं फिर यह उलटी किस बात की? और सोचते ही मेरे रौंगटे खड़े हो गए। आंखों में आंसू आ गए। आजतक दी की हर चीज छिप कर इस्तेमाल कर लेती थी तब उन के डांटने पर भी मजे लेती थी मैं, आज पहली बार दी को जान से भी ज्यादा अजिज जीजू के साथ अंतरंग पल बिताने पर घोर पछतावा हो रहा था और खुद के प्रति तिरस्कार।

किस मुंह से उन्हें बताऊं कि दी, आजतक मैं ने आप की हर चीज को बिना बताए इस्तेमाल किया। ऐसा तो सपने में भी नहीं सोचा था कि जिस पर सिर्फ और सिर्फ आप का अधिकार है एक दिन उसे भी मैं… ओह, यह मैं क्या कर बैठी। आज अनजाने में ही सही अपनी उस आदत को दोहराने पर खुद पर शर्म आ रही थी.इतने में बाथरूम के बाहर से दीदी ने पूछा,”सनम, क्या हुआ तू ठीक तो है? चल बाहर आ हम डाक्टर को दिखा देते हैं. मैं स्वस्थता का चोला पहन कर बाहर आई और दी से कहा कि शायद ऐसीडिटी हो गई है, थोड़ा आराम कर लेती हूं ठीक हो जाऊंगी। अपने रूम में आ कर बिस्तर पर ओंधे मुंह लेटे इतना रोई कि आंखें सूख गईं.

मन में खयालों का बवंडर उठ रहा था पर किसी निर्णय पर नहीं पहुंच पा रही थी,  ऐसे ही पूरा दिन पड़ी रही,  उलटी के डर से रात को डिनर के लिए भी नहीं उठी, थोड़ा जूस पी कर सो गई. दूसरे दिन मम्मीपापा और समर्थ आ गए, दीवाली की छुट्टियां थीं तो मम्मीपापा कुछ दिन रुकने का प्लान बना कर आए थे. मैं यहां से कहीं भाग जाना चाहती थी पर जाऊं तो कहां जाऊं…

मम्मीपापा और दी पीछे गार्डन में गप्पें लड़ा रहे थे कि इतने में जीजू औफिस से आ गए, उस एकांत का फायदा उठा कर मैं ने जीजू से अपने मन की शंका बता दी, जीजू घबरा गए। उन की आंखें पछतावे के आंसू से नम हो गईं, हम दोनों में से कोई एकदूसरे को आश्वासन देने की स्थिति में नहीं थे, जैसे पाप छत पर चढ़ कर चिल्लाता है वैसे ही मेरी उलटियों का सिलसिला दूसरे दिन भी चालू रहा, उस दिन तो दी गुस्सा हो गईं,”सनम, 2 दिन से तबियत खराब है, न ठीक से खाना खाती है न दवा लेती है, अब हद हो गई, जबरदस्ती डाक्टर के पास ले गईं, मेरे तो पसीने छूट गए.

डाक्टर ने सारे टेस्ट किए और रिपोर्ट देखते ही दी को बधाई देते हुए कहा,”बधाई हो, यह मां बनने वाली हैं…”दी की आंखें बाहर निकल आईं, होंठ सील गए मानों बदन का पूरा खून जम गया हो। मैं सिर झुकाए बैठी रही। कोई चारा न था, क्या रिएक्ट करती? दी जल्दी ही डाक्टर का शुक्रिया अदा कर बाहर चली गईं, मैं भी पीछेपीछे चल दी। घर आते ही दी का आक्रोश ज्वालामुखी की तरह फूट पड़ा। सब से पहले यही सवाल किया,”कौन है वह? आदित्य…”

मैं ने हलका सा सिर हिला कर हां कहा तो दी बोली,”सनम, तुम ने मेरी सारी चीजें आजतक इस्तेमाल कीं मैं बरदाश्त करती रही पर अब आदित्य को भी…?” इतना सुनते ही मम्मी ने मेरे गाल पर थप्पड़ जङ दिया और पापा तो मानों मेरा मुंह तक देखने को तैयार नहीं थे, पीछे मुड़ कर बोले,”कल ही नर्सिंगहोम जा कर सब क्लियर करवा लो. पर इतना सुनते ही दी को पता नहीं क्या हुआ कि मुझ से लिपट कर चिल्लाते हुए बोलीं,”नहीं, मैं अपने बच्चे की हत्या करने की किसी को इजाजत नहीं दूंगी, यह मेरा बच्चा है मुझे हर कीमत पर चाहिए। दी मेरा सिर चुमती रहीं मानों बच्चे के आने की खुशी में मेरी और जीजू की गलती माफ करने के मूड़ में हों। दी खुशी से झूम उठीं और मेरे सामने दया की भीख मांगते बोलीं,”सनम, वादा कर तू मेरे बच्चे को जन्म देगी, मेरी झोली ममता से भर दे मेरी बहन। तेरा यह उपकार मैं जिंदगीभर नहीं भूल पाऊंगी।”

मैं असमंजस में थी और मम्मीपापा इस बात से बिलकुल सहमत नहीं थे। उन्होंने दी को समझाया कि तुम्हारी खुशी के लिए सनम की जिंदगी बरबाद नहीं कर सकते। जीजू किसी भी बात की तरफदारी करने की परिस्थिति में नहीं थे। हाथ जोड़ कर इतना ही बोले,”हो सके तो मुझे माफ़ कर दीजिएगा, फिर दीदी को भी लगा की सनम की जिंदगी का सवाल है, मेरी खुशी के लिए सनम की जिंदगी बरबाद नहीं कर सकती। तो दी ने मुझे कहा कल ही हम अस्पताल जाते हैं, तुम तैयार रहना.

मैं अपनी दी की मनोदशा से वाकिफ थी। दीदी दिल से चाहती थीं कि यह  बच्चा किसी भी हाल में जन्म ले कर उन का आंचल ममता से भर दे, पर उन का मन इजाजत नहीं दे रहा था। दी की लाचारी उन की आंखों से आंसू बन कर बह रही थी और उन आंसूओं ने मुझे एक ठोस निर्णय लेने पर मजबूर कर दिया।

मैं ने दी को अपने पास बैठाया और उन का हाथ अपने हाथों में ले कर वादा किया,”दी, मेरी जिंदगी का जो होना है हो जाए पर मैं आप को मां का सुख दे कर आप को संपूर्ण स्त्री बनने का सुख जरूर दूंगी। मेरी कोख में पल रहा बच्चा आप की अमानत है। मैं इस बच्चे को जन्म दूंगी फिर जो हो मेरे साथ। कोई ऐसा लड़का मिल जाएगा जो मुझे मेरी कमी और खूबी के साथ मुझे अपनाएगा। बाकी जो होगा देखा जाएगा,” इतना सुनते ही जैसे पहली बारिश का स्पर्श पाते पतझड़ वसंत में बदल जाती है वैसे ही दीदी के भीतर नवचेतना का संचार हुआ और मुझ से लिपट कर बोलीं,”सनम, आज पहली बार तेरा मेरी चीज का इस्तेमाल करने पर मैं नाराज नहीं, जानेअनजाने मेरी चीजों का इस्तेमाल करने की बहुत बड़ी कीमत तुम ने चुका दी है।”

मम्मीपापा को भी मेरे निर्णय के आगे झुकना पड़ा। बच्चों के प्यार के आगे मांबाप हमेशा झुकते जो आए हैं, वक्त अपनी गति से बह रहा था। दी ने 8 महीने एक मां की तरह मेरा खयाल रखा, पर 9वें महीना लगते ही एक दिन बाथरूम में नहाते वक्त मेरा पैर फिसला और दर्द के साथ ब्लिडिंग होने लगा। चीखते हुए मैं बेहोश हो गई। आंखें खुलीं तो खुद को अस्पताल के बिस्तर पर पाया। मेरी आगोश में फूल सी बच्ची सो रही थी। डाक्टर ने कहा,”अभिनंदन… आप को बेटी हुई है। मैं ने बच्ची दीदी के हाथों में सौंपते हुए कहा,”दी, संभालिए अपनी अमानत।”

जिंदगी जैसे मेरी सांसों से नाता छुड़ा कर छूट रही थी, आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा, हृदय की गति मंद होती महसूस हो रही थी। सब के चेहरे धुंधले दिख रहे थे और मम्मी की आवाज मानों दूर किसी पर्वत के पीछे से आ रही हो ऐसा महसूस हो रहा था,”सनम बेटा, आंखें खोल… क्या हो रहा है तुझे। डाक्टर, देखिए मेरी बच्ची को… सनम बेटे, आंखें खोल…” और आज भी मम्मी के मुंह से बेटा शब्द महसूस करते पड़ी रही। आज तो मम्मी सनम से सन्नूडी पर आएगी फिर भी उठा नहीं जाएगा, अनंत की डगर पर प्रस्थान जो कर रही हूं। एक तसल्ली लिए कि दीदी की इस्तेमाल की हुई सारी चीजों की कीमत चुका कर जा रही हूं। अब अलविदा कहने का भी होश नहीं रहा, आंखें हमेशा के लिए बंद जो हो रही थीं।

Valentine’s Day 2024 : कढ़ा हुआ रूमाल – रूमाल में रखें पत्र में क्या लिखा था ?

प्रोफैसर महेश ने कढ़ा हुआ रूमाल उठाया. उन्होंने रूमाल को पहचानने की कोशिश की. यह वही रूमाल था जो शिवानी उन्हें देने के लिए उस दिन उन के कमरे में आई थी. उन की आंखें आंसुओं से भर गईं. कहानी द् तिनसुखिया मेल के एसी कोच में बैठे प्रोफैसर महेश एक पुस्तक पढ़ने में मशगूल थे. वे एक सैमिनार में भाग लेने गुवाहाटी जा रहे थे. पास की एक सीट पर बैठी प्रौढ़ महिला बारबार प्रोफैसर महेश को देख रही थी. वह शायद उन्हें पहचानने का प्रयास कर रही थी. जब वह पूरी तरह आश्वस्त हो गई तो उठ कर उन की सीट के पास गई और शिष्टतापूर्वक पूछा, ‘‘सर, क्या आप प्रोफैसर महेश हैं?’’ यह अप्रत्याशित सा प्रश्न सुन कर प्रोफैसर महेश असमंजस में पड़ गए. उन्होंने महिला की ओर देखते हुए कहा, ‘‘मैं ने आप को पहचाना नहीं, मैडम.’’ ‘‘मेरा नाम माधवी है. मैं लखनऊ यूनिवर्सिटी में प्रोफैसर हूं.

मेरी एक सहेली थी प्रोफैसर शिवानी,’’ वह महिला बोली. ‘‘थी… से आप का क्या मतलब है?’’ प्रोफैसर महेश ने उस की ओर देखते हुए पूछा. ‘‘वह अब इस दुनिया में नहीं है. उस ने किसी को अपनी किडनी डोनेट की थी. उसी दौरान शरीर में सैप्टिक फैल जाने के कारण उस की मृत्यु हो गई थी,’’ महिला ने कहा. ‘‘क्या?’’ प्रोफैसर महेश का मुंह आश्चर्य से खुला रह गया था. ‘‘जी सर. उसे शायद अपनी मृत्यु का एहसास पहले ही हो गया था. मरने से 2 दिन पहले उस ने मुझे यह रूमाल और एक पत्र आप को देने के लिए कहा था. उस के द्वारा दिए पते पर मैं आप से मिलने दिल्ली कई बार गई. मगर आप शायद वहां से कहीं और शिफ्ट हो गए थे.’’ यह कह कर उस महिला ने वह रूमाल और पत्र प्रोफैसर को दे दिया. वह महिला जा कर अपनी सीट पर बैठ गई. प्रोफैसर महेश बुत बने अपनी सीट पर बैठे थे. तिनसुखिया मेल अपनी पूरी रफ्तार से दौड़ रही थी और उस से भी तेज रफ्तार से अतीत की स्मृतियां प्रोफैसर महेश के मानसपटल पर दौड़ रही थीं. आज से 25 वर्ष पूर्व उन की तैनाती एक कसबे के डिग्री कालेज में प्रोफैसर के रूप में हुई थी.

कालेज कसबे से दोढाई किलोमीटर दूर था. कालेज में छात्रछात्राएं दोनों पढ़ते थे. कालेज का अधिकांश स्टाफ कसबे में ही रहता था. प्रोफैसर महेश का व्यक्तित्व बड़ा आकर्षक था और उन के पढ़ाने का ढंग बहुत प्रभावी. इसलिए छात्रछात्राएं उन का बड़ा सम्मान करते थे. वे बड़े मिलनसार और सहयोगी स्वभाव के थे. इसलिए स्टाफ में भी उन के सब से बड़े मधुर संबंध थे. एक दिन वे क्लास में पढ़ा रहे थे, तभी चपरासी उन के पास आया और बोला, ‘सर, प्रिंसिपल सर आप को अपने औफिस में बुला रहे हैं.’ प्रोफैसर महेश सोच में पड़ गए. फिर वे प्रिंसिपल रूम की ओर चल दिए. उन्हें देख कर प्रिंसिपल साहब बोले, ‘प्रोफैसर महेश, बीए सैकंड ईयर की छात्रा शिवानी अचानक क्लास में बेहोश हो गई है. उसे किसी तरह होश तो आ गया है मगर अभी उस की तबीयत पूरी तरह ठीक नहीं है. आप ऐसा करिए, उसे अपने स्कूटर से उस के घर छोड़ आइए.’ उस समय स्टाफ के 2-3 लोगों के पास ही स्कूटर था.

शायद इसी कारण प्राचार्यजी ने उन्हें यह कार्य सौंपा था. वे शिवानी को स्कूटर पर बैठा कर कसबे की ओर चल दिए. वे कसबे में पहुंचने ही वाले थे कि सड़क के किनारे खड़े बरगद के पेड़ के पास शिवानी ने कहा, ‘सर, स्कूटर रोक दीजिए.’ प्रोफैसर महेश ने स्कूटर रोक दिया और शिवानी से पूछा, ‘‘क्या बात है शिवानी, क्या तुम्हें फिर चक्कर आ रहा है?’ ‘मुझे कुछ नहीं हुआ सर, मैं तो आप से एकांत में बात करना चाहती थी, इसलिए मैं ने कालेज में बेहोश होने का नाटक किया था,’ उस ने बड़े भोलेपन से कहा. ‘क्या?’ प्रोफैसर ने हैरानी से उस की ओर देखा. फिर पूछा, ‘आखिर, तुम ने ऐसा क्यों किया और तुम मुझ से क्या बात करना चाहती हो?’ ‘सर, मैं आप से प्यार करती हूं और आप को यही बात बताने के लिए मैं ने यह नाटक किया था,’ वह प्रोफैसर की ओर देख कर मुसकरा रही थी.

प्रोफैसर हतप्रभ खड़े थे. उन्हें समझ में ही नहीं आ रहा था कि वे उस से क्या कहें. काफी देर तक वे चुप रहे. फिर बोले, ‘यह तुम्हारी पढ़ने की उम्र है, प्यार करने की नहीं. अभी तो तुम प्यार का मतलब भी नहीं जानतीं.’ ‘आप ठीक कह रहे हैं, सर. मगर मैं अपने इस दिल का क्या करूं, यह तो आप से प्यार कर बैठा है,’ वह प्रोफैसर की ओर देख कर मुसकराते हुए बोली. ‘तुम्हें मालूम है कि मैं शादीशुदा हूं और मेरे 2 बच्चे हैं. और मेरी तथा तुम्हारी उम्र में कम से कम 20 साल का अंतर है,’ प्रोफैसर ने उसे समझते हुए कहा. ‘मुझे इन बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता, सर. मैं तो केवल एक ही बात जानती हूं कि मैं आप से प्यार करती हूं, बेपनाह प्यार,’ वह दार्शनिक अंदाज में बोली. प्रोफैसर ने उसे समझने का हरसंभव प्रयास किया. मगर उस पर कोई असर नहीं हुआ.

तो उन्होंने यह कह कर कि, अब तुम ठीक हो इसलिए यहां से अपने घर पैदल चली जाना, वे कालेज लौट गए. प्रोफैसर महेश ने इस बात को उस का बचपना समझ और गंभीरता से नहीं लिया. शिवानी किसी न किसी बहाने से उन के करीब आने और उन से बात करने का प्रयास करती रहती. परंतु वह उन के जितना करीब आने का प्रयास करती, वे उतना ही उस से दूर भागते. वे नहीं चाहते थे कि कालेज में यह बात चर्चा का विषय बने. कसबे में छोटे बच्चों का कोई कौन्वैंट स्कूल नहीं था, इसलिए वे यहां अकेले ही किराए के मकान में रहते थे. उन की पत्नी और बच्चे उन के मम्मीपापा के साथ रहते थे. एक दिन शाम का समय था. प्रोफैसर कमरे में अकेले बैठे एक किताब पढ़ रहे थे. तभी दरवाजे पर खटखट हुई. उन्होंने दरवाजा खोला. सामने शिवानी खड़ी थी. उसे इस प्रकार अकेले अपने घर पर देख वे असमंजस में पड़ गए. इस से पहले कि वे कुछ कहते, वह कमरे में आ कर एक कुरसी पर बैठ गई.

आज पहली बार प्रोफैसर ने शिवानी को ध्यान से देखा. 20-21 वर्ष की उम्र, लंबा व छरहरा बदन, गोराचिट्टा रंग और आकर्षक नैननक्श. उस के लंबे घने बाल उस की कमर को छू रहे थे. सादे कपड़ों में भी वह बेहद सुंदर लग रही थी. कमरे के एकांत में एक बेहद सुंदर नवयुवती प्रोफैसर के सामने बैठी थी और वह उन से प्यार करती है, यह सोच कर प्रोफैसर के मन में गुदगुदी सी होने लगी. उन्होंने अपने मन को संयत करने का बहुत प्रयास किया मगर वे अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखने में असफल रहे. उन के मन में तरहतरह की हसीन कल्पनाएं उठने लगीं, चेहरे का रंग पलपल बदलने लगा. इस सब से बेखबर शिवानी कुरसी पर शांत और निश्चल बैठी थी. उस के एक हाथ में सफेद रंग का रूमाल था.

प्रोफैसर उठ कर उस के पास गए और उस के गालों को थपथपाते हुए पूछा, ‘शिवानी, तुम यहां अकेले क्या करने आई हो?’ उस ने प्रोफैसर की आंखों में झंक कर देखा, पता नहीं उसे उन की आंखों में क्या दिखाई दिया, वह झटके के साथ कुरसी से उठ कर खड़ी हो गई. उस के चेहरे के भाव एकाएक बदल गए थे. प्रोफैसर के हाथों को अपने गालों से झटके के साथ हटाते हुए वह बोली, ‘प्लीज, डोंट टच मी. आई डोंट लाइक दिस.’ प्रोफैसर के ऊपर पड़ा बुद्धिजीवी का लबादा फट कर तारतार हो चुका था. शिवानी का यह व्यवहार उन के लिए अप्रत्याशित था. उन्हें समझ ही नहीं आ रहा था कि वे उस से क्या कहें. ‘तुम तो कहती हो कि तुम मुझ से बहुत प्यार करती हो,’ प्रोफैसर महेश ने शिवानी की ओर देखते हुए कहा. ‘हां सर, मैं आप को बहुत प्यार करती हूं. मगर मेरा प्यार गंगाजल की तरह निर्मल और कंचन की तरह खरा है,’ उस ने दृढ़ स्वर में कहा. ‘ये सब फिल्मी डायलौग हैं,’ प्रोफैसर ने खिसियानी हंसी हंसते हुए कहा. ‘सर, जरूरत पड़ने पर मैं यह सबित कर दूंगी कि आप के प्रति मेरा प्यार कितना गहरा है,’ यह कह कर वह कमरे से चली गई थी. काफी देर तक प्रोफैसर अवाक खड़े रहे थे, फिर अपने काम में लग गए थे. इस के बाद शिवानी ने उन से बात करने या मिलने का प्रयास नहीं किया.

वे भी धीरेधीरे उसे भूल गए. कुछ समय बाद उन का उस कालेज से स्थानांतरण हो गया. सरकारी सेवा होने के कारण कई जगह स्थानांतरण हुए और आखिर में वे दिल्ली में सैटल्ड हो गए. 2 साल पहले प्रोफैसर को किडनी प्रौब्लम हो गई. कई महीने तक तो डाइलिसिस पर रहे, फिर डाक्टरों ने कहा कि अब किडनी ट्रांसप्लांट के अलावा कोई चारा नहीं है. तब प्रोफैसर ने अपने परिवार में इस संबंध में सब से बातचीत की. उन की पत्नी, दोनों बेटों और बेटी ने राय दी कि पहले किडनी के लिए विज्ञापन देना चाहिए. हो सकता है कि कोई जरूरतमंद पैसे के लिए अपनी किडनी डोनेट करने के लिए तैयार हो जाए. अगर 2-3 बार विज्ञापन देने के बाद भी कोई डोनर नहीं मिलता है तो हम लोग फिर इस बारे में बातचीत करेंगे. बेटे ने राजधानी के सभी अखबारों में किडनी डोनेट करने वाले को 20 लाख रुपए देने का विज्ञापन छपवाया. विज्ञापन में प्रोफैसर का नाम, पूरा पता दिया गया. विज्ञापन दिए एक महीना हो गया था.

जिस अस्पताल में प्रोफैसर महेश का इलाज चल रहा था. एक दिन वहां से फोन आया. ‘सर, आप के लिए गुड न्यूज है. आप को किडनी देने के लिए एक डोनर मिल गई है. उस की उम्र 45 साल के करीब है और वह आप को किडनी डोनेट करने के लिए तैयार है. मगर उस की एक शर्त है कि, किडनी ट्रांसप्लांट होने से पहले उस का नाम व पता किसी को न बताया जाए.’ मुझे यह जान कर हैरानी हुई कि डोनर अपना नाम, पता क्यों नहीं बताना चाहती. फिर हम सब ने सोचा कि शायद उस की कोई मजबूरी होगी. ट्रांसप्लांट की सारी फौर्मैलिटीज पूरी कर ली गईं और नियत तारीख पर उन की किडनी का ट्रांसप्लांटेशन हो गया, जो पूरी तरह से सफल रहा. इस के कई दिनों बाद जब प्रोफैसर महेश अपने को काफी सहज अनुभव करने लगे तो उन्होंने एक दिन डाक्टर साहब से पूछा कि ‘डाक्टर साहब, वे लेडी कैसी हैं जिन्होंने उन्हें अपनी किडनी डोनेट की थी.’ कुछ देर तक डाक्टर साहब खामोश रहे, फिर बोले कि वह लेडी तो परसों बिना किसी को कुछ बताए अस्पताल से चली गई.

हैरानी की बात यह है कि वह अपनी डोनेशन फीस भी नहीं ले गई. ‘क्या..?’ प्रोफैसर का मुंह विस्मय से खुला का खुला रह गया था. जब उन्होंने यह बात अपने परिवार के लोगों को बताई तो उन सब को बड़ी हैरानी हुई. सभी को यह बात समझ ही नहीं आ रही थी कि आज के इस आपाधापी के दौर में 20 लाख रुपए ठुकरा देने वाली यह लेडी आखिर कौन थी. काफी दिनों तक प्रोफैसर इसी उधेड़बुन में रहे. उन्होंने उस लेडी का पता लगाने की हरसंभव कोशिश की, मगर इस के बारे में कुछ पता नहीं चला. ‘‘आप को कहां तक जाना है, सर,’’ अचानक टीटीई ने आ कर प्रोफैसर महेश की तंद्रा को भंग कर दिया. वे अतीत से वर्तमान में लौट आए. टिकट चैक करने के बाद टीटीई चला गया. प्रोफैसर महेश ने वह रूमाल उठाया जो शिवानी ने उन्हें देने के लिए प्रोफैसर माधवी को दिया था. उन्होंने रूमाल को पहचानने की कोशिश की. यह शायद वही कढ़ा हुआ रूमाल था जो शिवानी उन्हें देने उन के कमरे पर आई थी.

सफेद रंग के उस रूमाल के एक कोने में सुनहरे रंग से इंग्लिश का अक्षर एस कढ़ा हुआ था. एस यानी शिवानी के नाम का पहला अक्षर. अब प्रोफैसर महेश को डोनर की सारी पहेली समझ में आ गई थी. उन्होंने रूमाल में रखे हुए मुड़ेतुड़े पत्र को खोल कर पढ़ा, लिखा था- ‘‘प्रोफैसर साहब, ‘‘आप का जीवन मेरे लिए बहुत बहुमूल्य है, इसलिए मैं ने अपने जीवन को संकट में डाल कर आप की जान को बचाया. मगर मैं ने ऐसा कर के आप पर कोई एहसान नहीं किया. मुझे तो इस बात की खुशी है कि मैं जिसे हृदय की गहराइयों से प्यार करती थी, उस के किसी काम आ सकी. ‘‘आप की शिवानी.’’ पत्र पढ़ कर प्रोफैसर महेश का मन गहरी वेदना से भर उठा. शिवानी का यह निस्वार्थ प्यार देख कर उन की आंखों से आंसू बहने लगे. उन्होंने शिवानी का दिया हुआ रूमाल उठाया और उस से अपने आंसुओं को पोंछने लगे. ऐसा कर के शायद उन्होंने शिवानी के सच्चे अमर प्रेम को स्वीकार कर लिया था.

Valentine’s Day 2024 : प्यार की पहली किस्त – सायरा को किस बात का सदमा लगा था ?

बेगम रहमान से सायरा ने झिझकते हुए कहा, ‘‘मम्मी, मैं एक बड़ी परेशानी में पड़ गई हूं.’’

उन्होंने टीवी पर से नजरें हटाए बगैर पूछा, ‘‘क्या किसी बड़ी रकम की जरूरत पड़ गई है?’’

‘‘नहीं मम्मी, मेरे पास पैसे हैं.’’

‘‘तो फिर इस बार भी इम्तिहान में खराब नंबर आए होंगे और अगली क्लास में जाने में दिक्कत आ रही होगी…’’ बेगम रहमान की निगाहें अब भी टीवी सीरियल पर लगी थीं.

‘‘नहीं मम्मी, ऐसा कुछ भी नहीं है. आप ध्यान दें, तो मैं कुछ बताऊं भी.’’

बेगम रहमान ने टीवी बंद किया और बेटी की तरफ घूम गईं, ‘‘हां, अब बताए मेरी बेटी कि ऐसी कौन सी मुसीबत आ पड़ी है, जो मम्मी की याद आ गई.’’

‘‘मम्मी, दरअसल…’’ सायरा की जबान लड़खड़ा रही थी और फिर उस ने जल्दी से अपनी बात पूरी की, ‘‘मैं पेट से हूं.’’

यह सुन कर बेगम रहमान का हंसता हुआ चेहरा गुस्से से लाल हो गया, ‘‘तुम से कितनी बार कहा है कि एहतियात बरता करो, लेकिन तुम निरी बेवकूफ की बेवकूफ रही.’’

बेगम रहमान को इस बात का सदमा कतई नहीं था कि उन की कुंआरी बेटी पेट से हो गई है. उन्हें तो इस बात पर गुस्सा आ रहा था कि उस ने एहतियात क्यों नहीं बरती.

‘‘मम्मी, मैं हर बार बहुत एहतियात बरतती थी, पर इस बार पहाड़ पर पिकनिक मनाने गए थे, वहीं चूक हो गई.’’

‘‘कितने दिन का है?’’ बेगम रहमान ने पूछा.

‘‘चौथा महीना है,’’ सायरा ने सिर झुका कर कहा.

‘‘और तुम अभी तक सो रही थी,’’ बेगम रहमान को फिर गुस्सा आ गया.

‘‘दरअसल, कैसर नवाब ने कहा था कि हम लोग शादी कर लेंगे और इस बच्चे को पालेंगे, लेकिन मम्मी, वह गजाला है न… वह बड़ी बदचलन है. कैसर नवाब पर हमेशा डोरे डालती थी. अब वे उस के चक्कर में पड़ गए और हम से दूर हो गए.’’

रहमान साहब शहर के एक नामीगिरामी अरबपति थे. कपड़े की कई मिलें थीं, सियासत में भी खासी रुचि रखते थे. सुबह से शाम तक बिजनेस मीटिंग या सियासी जलसों में मसरूफ रहते थे.

बेगम रहमान भी अपनी किटी पार्टी और लेडीज क्लब में मशगूल रहती थीं. एकलौती बेटी सायरा के पास मां की ममता और बाप के प्यार के अलावा दुनिया की हर चीज मौजूद थी, यारदोस्त, डांसपार्टी वगैरह यही सब उस की पसंद थी.

हाई सोसायटी में किरदार के अलावा हर चीज पर ध्यान दिया जाता है. सायरा ने भी दौलत की तरह अपने हुस्न और जवानी को दिल खोल कर लुटाया था, लेकिन उस में अभी इतनी गैरत बाकी थी कि वह बिनब्याही मां बन कर किसी बच्चे को पालने की हिम्मत नहीं कर सकती थी.

‘‘तुम ने मुसीबत में फंसा दिया बेटी. अब सिवा इस बात के कोई चारा नहीं है कि तुम्हारा निकाह जल्द से जल्द किसी और से कर दिया जाए. अपने बराबर वाला तो कोई कबूल करेगा

नहीं. अब कोई शरीफजादा ही तलाश करना पड़ेगा,’’ कहते हुए बेगम रहमान फिक्रमंद हो गईं.

एक महीने के अंदर ही बेगम रहमान ने रहमान साहब के भतीजे सुलतान मियां से सायरा का निकाह कर दिया.

सुलतान कोआपरेटिव बैंक में मैनेजर था. नौजवान खूबसूरत सुलतान के घर जब बेगम रहमान सायरा के रिश्ते की बात करने गईं, तो सुलतान की मां आब्दा बीबी को बड़ी हैरत हुई थी.

बेगम रहमान 5 साल पहले सुलतान के अब्बा की मौत पर आई थीं. उस के बाद वे अब आईं, तो आब्दा बीबी सोचने लगीं कि आज तो सब खैरियत है, फिर ये कैसे आ गईं.

जब बेगम रहमान ने बगैर कोई भूमिका बनाए सायरा के रिश्ते के लिए सुलतान का हाथ मांगा तो उन्हें अपने कानों पर यकीन नहीं आया था.

कहां सायरा एक अरबपति की बेटी और कहां सुलतान एक मामूली बैंक मैनेजर, जिस के बैंक का सालाना टर्नओवर भी रहमान साहब की 2 मिलों के बराबर नहीं था.

सुलतान की मां ने बड़ी मुश्किल से कहा था, ‘‘भाभी, मैं जरा सुलतान से बात कर लूं.’’

‘‘आब्दा बीबी, इस में सुलतान से बात करने की क्या जरूरत है. आखिर वह रहमान साहब का सगा भतीजा है. क्या उस पर उन का इतना भी हक नहीं है

कि सायरा के लिए उसे मांग सकें?’’ बेगम रहमान ने दोटूक शब्दों में खुद ही रिश्ता दिया और खुद ही मंजूर कर लिया था.

चंद दिनों के बाद एक आलीशान होटल में सायरा का निकाह सुलतान मियां से हो गया. रहमान साहब ने उन के हनीमून के लिए स्विट्जरलैंड के एक बेहतरीन होटल में इंतजाम करा दिया था. सायरा को जिंदगी का यह नया ढर्रा भी बहुत पसंद आया.

हनीमून से लौट कर कुछ दिन रहमान साहब की कोठी में गुजारने के बाद जब सुलतान ने दुलहन को अपने घर ले जाने की बात कही तो सायरा के साथ बेगम रहमान के माथे पर भी बल पड़ गए.

‘‘तुम कहां रखोगे मेरी बेटी सायरा को?’’ बेगम रहमान ने बड़े मजाकिया अंदाज में पूछा.

‘‘वहीं जहां मैं और मेरी अम्मी रहती हैं,’’ सुलतान ने बड़ी सादगी से जवाब दिया.

‘‘बेटे, तुम्हारे घर से बड़ा तो सायरा का बाथरूम है. वह उस घर में कैसे रह सकेगी,’’ बेगम रहमान ने फिर एक दलील दी.

सुलतान को अब यह एहसास होने लगा था कि यह सारी कहानी घरजंवाई बनाने की है.

‘‘यह सबकुछ तो आप को पहले सोचना चाहिए था,’’ सुलतान ने कहा.

इस से पहले कि सायरा कोई जवाब देती, बेगम रहमान को याद आ गया कि यह निकाह तो एक भूल को छिपाने के लिए हुआ है. मियांबीवी में अभी से अगर तकरार शुरू हो गई, तो पेट में पलने वाले बच्चे का क्या होगा.

उन्होंने अपने मूड को खुशगवार बनाते हुए कहा, ‘‘अच्छा बेटा, ले जाओ. लेकिन सायरा को जल्दीजल्दी ले आया करना. तुम को तो पता है कि सायरा

के बगैर हम लोग एक पल भी नहीं रह सकते.’’

सुलतान और उस की मां की खुशहाल जिंदगी में आग लगाने के लिए सायरा सुलतान के घर आ गई.

2 दिनों में ही हालात इतने खराब हो गए कि सायरा अपने घर वापस आ गई. मियांबीवी की तनातनी नफरत में बदल गई और बात तलाक तक पहुंच गई, लेकिन मसला था मेहर की रकम का, जो सुलतान मियां अदा नहीं कर सकते थे.

10 लाख रुपए मेहर बांधा गया था. आखिर अरबपति की बेटी थी. उस के जिस्म को कानूनी तौर पर छूने की कीमत 10 लाख रुपए से कम क्या होती.

एक दिन मियांबीवी की इस लड़ाई को एक बेरहम ट्रक ने हमेशा के लिए खत्म कर दिया.

हुआ यों कि सुलतान मियां शाम को बैंक से अपने स्कूटर से वापस आ रहे थे, न जाने किस सोच में थे कि सामने से आते हुए ट्रक की चपेट में आ गए और बेजान लाश में तबदील हो गए.

सायरा बेगम अपने पुराने दोस्तों के साथ एक बड़े होटल में गपें लगाने में मशगूल थीं, तभी बीमा कंपनी के एक एजेंट ने उन्हें एक लिफाफे के साथ

10 लाख रुपए का चैक देते हुए कहा, ‘‘मैडम, ऐसा बहुत कम होता है कि कोई पहली किस्त जमा करने के बाद ही हादसे का शिकार हो जाए.

‘‘सुलतान साहब ने अपनी तनख्वाह में से 10 लाख रुपए की पौलिसी की पहली किस्त भरी थी और आप को नौमिनी करते समय यह लिफाफा भी दिया था. शायद वह यही सोचते हुए जा रहे थे कि महीने के बाकी दिन कैसे गुजरेंगे और ट्रक से टकरा गए.’’

सायरा ने पूरी बात सुनने के बाद एजेंट का शुक्रिया अदा किया और होटल से बाहर आ कर अपनी कार में बैठ कर लिफाफा खोला. यह सुलतान का पहला और आखिरी खत था. लिखा था :

तुम ने मुझे तोहफे में 4 महीने का बच्चा दिया था, मैं तुम्हें मेहर के 10 लाख रुपए दे रहा हूं.

तुम्हारी मजबूरी सुलतान.

सायरा ने खत को लिफाफे में रखा और ससुराल की तरफ गाड़ी को घुमा लिया.

वह होटल आई थी अरबपति रहमान की बेटी बन कर, अब वापस जा रही थी एक खुद्दार बैंक मैनेजर की बेवा बन कर.

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