मेरी आंखें बंद हो रही हैं, सांसें तन का साथ छोड़ रही हैं। ऐसा लग रहा है मानों मम्मी की आवाज दूर बहुत दूर से आ रही है,"सनम, आंखें खोलो बेटा, क्या हो रहा है तुझे सनम..."मैं आंखें नहीं खोल सकती। शायद मेरे पास ज्यादा वक्त नहीं, पर अनंत की डगर पर जातेजाते मेरी आंखों के सामने जिंदगी की हर घटना किसी फिल्म की तरह प्रतिबिंबित हो रही हैं। मम्मी के उस वाक्य ने मुझे स्कूल से ले कर अब तक की जिंदगी का स्मरण करा दिया और मैं अतीत की गलियों का सफर करते कुछ साल पीछे चली गई...

रोज सुबह मम्मी कितनी सारी आवाज लगा कर उठाती थीं, "सनम बेटा, उठो स्कूल के लिए देर हो रही है.मुझे भी मम्मी के मुंह से बेटा शब्द सुनना बहुत अच्छा लगता है तो जानबूझ कर बिस्तर पर ही पड़ी रहती और जब तक मम्मी सनम से सन्नूडी पर आ कर डांटती नहीं और मुझे जगाने के चक्कर में पूरा घर जग जाता तब दौड़ती हुई बाथरूम में घुस जाती थी। और मम्मी भी झूठा गुस्सा जताते रसोई में सब के लिए नाश्ता बनाने चली जातीं.

मम्मीपापा, सागरिका दीदी, समर्थ और मुझे मिला कर कुल 5 लोगों का हमारा छोटा सा परिवार है। एकदूसरे के साथ भावनात्मक रूप से जुड़े शांति से जिंदगी जी रहे थे। मेरी सागरिका दीदी बहुत शांत और सरल स्वभाव की हैं और मैं थोड़ी सी चंचल। दीदी मुझे बहुत प्यार करती हैं पर एक बात मेरी दीदी को बिलकुल पसंद नहीं। दीदी की अपनी चीजें  कोई और इस्तेमाल करें वह उन्हें  बिलकुल पसंद नहीं था। पापा हमेशा तीनों बच्चों के लिए एक सी चीजें  लाते थे, पर मुझे हमेशा दीदी की चीजें  ही ज्यादा अच्छी लगती थीं, तो चोरीछिपे दीदी की चीजें इस्तेमाल कर लिया करती थी तो उस पर दीदी चिल्ला कर पूरे घर को सिर पर ले लेतीं।

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