Download App

कानून और न्यूनतम सजा

 
समाज सुधारों के नाम पर पिछले दशकों में कई कानून बनाए गए हैं जिन में न्यूनतम सजा भी नियत कर दी गई है. दहेज लेनेदेने व दहेज हत्या के कानून भी ऐसे ही हैं जिन में संसद ने अपराधी मान लिए जाने पर न्यूनतम सजा का प्रावधान कर दिया है. अभिनेता संजय दत्त आजकल आतंकवाद विरोधी एक ऐसे ही कानून के अंतर्गत न्यूनतम सजा झेल रहे हैं.
यह न्यूनतम सजा एकदम अमानवीय है. जब अदालतें हैं, वकील हैं, कानून हैं, गवाह हैं, अपीलें हैं तो ऐसे में न्यूनतम सजा का प्रावधान इन सब को बेमतलब कर देता है. कोई भी अपराध किसी विशेष परिस्थिति में किया जाता है. कभी केवल दुर्भावना, सोचसमझ कर, बदला लेने के लिए किया जाता है तो कभी गुस्से में आपा खो जाने पर. हर अपराध को बराबर मान लेना, क्योंकि पीडि़त को बराबर का नुकसान हुआ है, एक पैशाचिक कानून है जिस में आंख के बदले आंख और जान के बदले जान का प्रावधान होता है.
पतिपत्नी के मामलों में न्यूनतम सजा तो एकदम अव्यावहारिक व अमानवीय है. पत्नी द्वारा आत्महत्या करने पर पति व उस के घर वालों को न्यूनतम सजा देने का मतलब है घर के कई और लोगों को, निर्दोष होने पर भी, सजा दे देना. पतिपत्नी जब घरौंदा बनाते हैं तो सपने सजाते हैं, दोनों एकदूसरे को सबकुछ दे देते हैं. झगड़ा चाहे दहेज को ले कर हुआ है या घर वालों के साथ न निभा पाने के कारण, इतना गंभीर नहीं होता कि पूरे घरौंदे को आग लगा दी जाए. हमारा कानून कुछ यही कर रहा है.
आंध्र प्रदेश के एक मामले में दहेज के कारण की गई शिकायत पर ट्रायल कोर्ट ने 3 माह की सजा दी जबकि भारतीय दंड विधान की धारा 498 ए में 5 साल की न्यूनतम सजा का प्रावधान है. ट्रायल कोर्ट की सजा काफी थी पर सर्वोच्च न्यायालय ने इस पर गहरी आपत्ति जताई है क्योंकि वह न्यूनतम से कम है और न्यायालय ने स्पष्ट नहीं किया कि केवल 3 माह की सजा क्यों दी गई. इस मामले को सर्वोच्च न्यायालय ने दोबारा ट्रायल अदालत को भेज दिया.
दहेज जैसे मामले पर एक परिवार को वर्षों तक रगड़ना नितांत अमानवीय और निरर्थक है. यह छोटा मामला वैसे तो परिवारों के साथ बैठने से हल हो सकता है वरना निचली अदालतों को अंतिम फैसला सुनाने का हक होना चाहिए. इस पर सर्वोच्च न्यायालय राय दे, गलत है और खासतौर पर तब, जब पति को वर्षों बाद फिर अदालतों में घसीट कर ले जाने की राय हो. यह न्यायिक आतंक है जिस का डर इस देश में धार्मिक आतंक से ज्यादा है

बैंक और ग्राहक

 
रिजर्व बैंक ने बैंकों को बचत खाते में न्यूनतम राशि रखने की शर्त को समाप्त करने के  निर्देश दे कर उपभोक्ताओं को भारी राहत दी है. बैंकों में खाते खुलवाने के लिए जबरदस्त प्रचार करने वाले बैंक यह बात आमतौर पर गुप्त ही रखते हैं कि उपभोक्ता को एक न्यूनतम राशि खाते में रखनी होगी. अगर किसी उपभोक्ता के कई बचत खाते हों तो उसे काफी परेशानी होती है कि सभी में न्यूनतम राशि रखी जाए और वह भी कम ब्याज दर पर.
बैंकों का कामकाज धीरेधीरे एकतरफा होता जा रहा है और उपभोक्ताओं की एकएक कर के परेशानियां बढ़ रही हैं. बड़े उद्येगों को हजारों करोड़ के ऋण देने वाले बैंक गृह ऋण, शिक्षा ऋण, सोने के बदले ऋण आदि का धुआंधार प्रचार कर के ग्राहकों को आकर्षित कर लेते हैं पर शुरू में लौलीपौप की ऊपरी परत के बाद उन्हें एकएक कर के लंबे अनुबंधों, नियमों और रिजर्व बैंक के निर्देशों के नाम पर जम कर परेशान करते हैं. 
ग्राहक बैंक को अपना साथी समझे और उस के सहारे अपनी अचानक आई समस्याओं से निबट सके, ऐसा होने की जगह बैंक उन्हें पैसा कमा कर देने वाली मशीन बना डालते हैं.
बैंक मुफ्त में काम नहीं कर सकते, यह पक्का है. पर बैंक केवल उन ग्राहकों के लिए ही नहीं बन सकते जो बैंकरों के दांवपेंच समझते हों. बैंक एक साझेदार हैं जो समाज को स्थिरता देने की जिम्मेदारी भी रखते हों और जनता के आड़े वक्त काम आएं. बचत खाते में कम पैसे होने पर भी बचत खाते के प्रबंध पर बैंक का खर्चा होता है, यह ठीक है पर यह सुविधा तो दोनों के लिए ही है क्योंकि बैंकों के पास जो पैसा जमा होता है वह इन छोटे बचत खातों के माध्यम से ही होता है.
जरूरत तो यह है कि अब रिजर्व बैंक ग्राहकों को दी जाने वाली सारी सेवाओं के नियमों व भत्तों की जांच करे. बैंकों के सैकड़ों नियम ऐसे हैं जो ग्राहकों को परेशान करते हैं और उन का सरलीकरण करना अब आवश्यक हो गया है ताकि बैंक पुलिस वाले न लगें जिन से सुरक्षा नहीं लूट मिलती है.

सब जासूस, सब की जासूसी

 
मोबाइल के जमाने में नेताओं के लिए अब कुछ भी कहीं भी कह देना खतरे से खाली नहीं. वीडियो बना सकने वाले मोबाइल्स अब हर किसी के पास हैं और लोग अपने चाहने वाले या विरोधी किसी के भी वीडियो आसानी से बना सकते हैं. नतीजा यह है कि इस नई तकनीक के चलते 4 जनों के बीच बैठ कर भी कुछ अटपटा कहने की छूट नहीं रह गई है. तकनीक के चलते आज सभी स्वाभाविक जासूस बन गए हैं और किसी की भी कभी भी जासूसी हो सकती है.
भारतीय जनता पार्टी के अमित शाह ने बदला लेने की जो बातें उत्तर प्रदेश की सभाओं में कहीं वे रिकौर्ड हो गईं. रिकौर्डेड सुबूत के चलते चुनाव आयोग ने उन की रैलियों पर प्रतिबंध लगा दिया. चुनावों में बहुतकुछ कहा जाता है पर चूंकि पहले यह रिकौर्ड नहीं होता था, नेताओं को मन की भड़ास निकालने की छूट थी, अब नहीं. अमित शाह ही नहीं, वरुण गांधी, मुलायम सिंह यादव, अखिलेश यादव, कपिल सिब्बल जैसे नेता भी वीडियो कैमरों या टैलीविजन कैमरों के शिकार बन चुके हैं.
वीडियो तकनीक ने अब प्राइवेसी यानी निजी जीवन को बुरी तरह भेद दिया है. राजनीति में ही नहीं, आम जीवन में भी जगहजगह वीडियो बनने लगे हैं. जहां 4 जने मिले, वीडियो बनना चालू हो जाता है. 
ज्यादातर वीडियो 2-4 दिन में काट दिए जाते हैं पर कुछ पड़े रह जाते हैं. प्रेमियों के बीच बने जीवनभर की यादगार के लिए खींचे गए वीडियो प्रेम का रंग उतरने पर बहुत महंगे पड़ रहे हैं. अंतरंग क्षणों के बनाए गए वीडियो यूट्यूब पर छाए हुए हैं और कितने ही जीवन बरबाद कर रहे हैं.
तकनीक की अपनी जगह है. पर तकनीक को व्यक्तिगत जीवन में इस तरह घुसने की अनुमति देना बहुत खतरनाक है. वैसे ही सुरक्षा के नाम पर सड़कों, होटलों, दफ्तरों, स्कूलों, कालेजों, सभाओं में चल रहे क्लोज सर्किट टैलीविजन आम आदमी को घेरों में डाल रहे हैं जबकि मोबाइलों के वीडियो कैमरे ज्यादा खतरा साबित हो रहे हैं.
हर व्यक्ति को अपने चारों ओर अपनी निजता का घेरा बनाए रखने का हक है. वह अपने अंतरंग क्षणों में अपनों से क्या कह रहा है, उस के सुबूत जमा करना एक मानसिक बोझ बनेगा. यह बहुत से संकट पैदा करेगा. बच्चे तक मातापिताओं की बातें और उन के व्यवहार को रिकौर्ड करने से अब नहीं हिचकिचाते और घर की मोटी दीवारें अब हर तरह से पारदर्शी होने लगी हैं.
ये किस तरह से देशों, समाजों और परिवारों के साथ अकेले व्यक्तियों के जीवन को नष्ट करेंगे, यह साफ दिख रहा है. बढि़या तकनीक वाले मोबाइल एक सुरक्षित समाज में भय का विशाल वृक्ष खड़ा कर रहे हैं.

धर्म नहीं वर्ण अहम

इस बार के चुनावों में धर्मनिरपेक्षता को ले कर बहुत हल्ला मचाया गया और भारतीय जनता पार्टी व उस के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी को मुसलिम विरोधी करार दिया गया. इस विवाद का लाभ भाजपा को यह हुआ कि सवर्ण व गैर सवर्ण जातियों और अमीरों व गरीबों के सवाल दब गए.
देश की समस्या धर्म की इतनी नहीं है जितनी धर्मजनित जाति और उस में भी 3 बड़े टुकड़ों, सवर्ण, पिछड़ों और अछूतों (जिन्हें अब दलित कहा जाने लगा है) की है. अमीरगरीब हर समाज में होते हैं पर हमारे यहां यह बात जन्म से जुड़ी होती है और माना जाता है कि गधे को जितना मरजी धो लो, सजा लो, वह घोड़ा नहीं बन सकता.
आजादी के बाद ही नहीं, पहले भी, अंगरेजों के जमाने में भी, पिछड़ों और अछूतों को अपना उद्धार करने के अपार अवसर मिलते रहे हैं. केवल राजाओं के क्षेत्रों में जाति का हिंदू कानून चलता था पर वहां भी नियुक्त अंगरेज रैजीडैंट नजर रखता था और रायसीना हिल की सरकार को भारतीयों से ज्यादा जाति के सवाल का खयाल रहता था. उन्होंने छिटपुट आरक्षण तो कई दशक पहले देना शुरू भी कर दिया था.
आजादी के बाद पहले 10-15 साल कांगे्रस पर सवर्ण हावी रहे. बाद में वोटों की राजनीति के कारण गैर सवर्ण मुख्यधारा में जुड़ने लगे. वे कांगे्रस में नहीं थे. वे समाजवादी, कम्युनिस्टों, किसानों, मजदूरों की पार्टी में थे. पर पूर्ण सत्ता उन को आबादी के 80 प्रतिशत से ज्यादा होने के बाद भी नहीं मिली.
भारतीय जनसंघ और उस के बाद उस का नया नाम भारतीय जनता पार्टी हमेशा से उस हिंदू संस्कृति का गुणगान करती रही जो सवर्ण और गैर सवर्ण के भेद को ईश्वररचित मानती है. इस बार के चुनावों में भाजपा के इसी वर्ग ने नरेंद्र मोदी के मुखौटे का इस्तेमाल कर के जीत हासिल करने की कोशिश की है पर उस की शिकार पिछड़ी जातियों से सहानुभूति रखने वाली पार्टियां बजाय उस मुद्दे पर गंभीर होने के, हिंदू और इसलाम के मुद्दे पर भटक गईं.
यह भारतीय जनता पार्टी की बड़ी विजय है कि पिछड़ा चेहरा सामने रख कर उस ने एक बार फिर देश में ऊंची जातियों को पूर्ण सत्ता सौंपने का सपना साकार करने का सफल प्रयास कर लिया है. कम से कम हिंदी क्षेत्र में पिछड़ी व अछूत जातियों के नेताओं को भ्रमित करने में वह सफल रही है और उस ने मुख्य मुद्दा धर्म का बना दिया है.
देश का विकास तभी हो सकता है जब कर्मठ हाथों को सम्मान मिले यानी पिछड़ों, अछूतों और मुसलमानों की हाथ से काम करने वाली जातियों को पर्याप्त शिक्षा, बराबरी के अवसर, जरूरत पड़ने पर आरक्षण व आर्थिक सहायता, उन में समाज सुधार आदि किए जाएं. इन चुनावों में भाजपा ने नरेंद्र मोदी के सहारे उस रामराज्य को लाने की कोशिश की है जिस में केवटों, सबरियों, धोबियों, वानरों को धर्म के अनुसार स्थान दिया गया था.
अगर भाजपा जीतती भी है तो वह सपना पूरा कर पाएगी, यह अभी कहना कठिन है क्योंकि भारतीय समाज पौराणिक युग में नहीं है. आज मंदिरों में लगे घंटे चाहे ज्यादा हो गए हों और ज्यादा जोर से बजने लगे हों पर इस का अर्थ यह नहीं है कि समाज फिर वापस चलने लगा है.

आपके पत्र

सरित प्रवाह, मार्च (द्वितीय) 2014
संपादकीय टिप्पणी ‘फांसी की सजा’ में आप के विचार पढ़े. 16 मार्च के टाइम्स औफ इंडिया में निर्भया केस पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले और 6 साल की लड़की का एक माइनर (17 साल) द्वारा रेप किए जाने की खबरें छपी थीं. मेरे मन में भी एकदम वही विचार उठे जो आप ने लिखे हैं यानी ‘यहां हर अपराध पर फांसी की मांग की जाती है पर अदालतें कू्ररतम जुर्म के बावजूद मुजरिम को फांसी के बजाय आजन्म कारावास दे सकती हैं.’
संक्षिप्त में दोनों खबरें कुछ इस प्रकार थीं : सुप्रीम कोर्ट ने निर्भया गैंग रेप केस में अपने ही फैसले पर थोड़ा संशोधन किया था. उस ने कहा कि 4 में से 2 दोषियों को फांसी 31 मार्च तक रोक दी जाए और दूसरी खबर में 17 साल के लड़के ने 6 साल की लड़की का रेप किया था जिसे पकड़ लिया गया था.
2 साल पहले निर्भया गैंग रेप के बाद, महीनों आंदोलन चले, नए कानून बने, करोड़ों रुपयों के बजट तय किए गए, नेताओं ने वादे किए, टीवी चैनलों पर बहसें हुईं, लेकिन नतीजा क्या निकला? 6 बदमाशों में 1 माइनर होने की वजह से बच गया, दूसरे ने सूसाइड कर लिया, बाकी 4 को फांसी सुनाई गई, उस में भी 2 की फांसी अभी रोक दी गई. जल्द ही बाकी 2 के भी वकील दरख्वास्त दे देंगे ताकि उन को भी आजन्म कारावास हो जाए. मेरे हिसाब से यदि फाइल अधिक समय तक राष्ट्रपति के यहां पड़ी रहती है तो सजा राष्ट्रपति को मिलनी चाहिए न कि सजा को कम कर देना चाहिए. यह अन्याय है उन लोगों के साथ जिन्होंने न्याय मांगा था या न्याय किया था.
यदि आखिर में सबकुछ हो जाने के बाद हमें दोषी की सजा कम ही करनी है तो नए रेप मामलों में क्यों समय और पैसा बरबाद करें. जैसे दूसरे केस में लड़के को पकड़ तो लिया गया है परंतु वह तो वैसे ही छूट जाएगा क्योंकि वह अभी नाबालिग है.
मेरी समझ में नहीं आता कि केवल भारत में ही क्यों ऐसी मुश्किलें आती हैं. दूसरे देशों में अन्याय पर काबू पा लिया जाता है पर हमारे यहां कोई न कोई दोषियों को बचा ही लेता है. रेप केस में फांसी बहुत जरूरी है और जैसे ही कोर्ट का फैसला सुनाया जाता है तुरंत उस पर ऐक्शन होना चाहिए. बल्कि मैं तो कहूंगा कि राष्ट्रपति के पास कोई फाइल भेजने की जरूरत ही नहीं है.
ओ डी सिंह, बड़ौदा (गुजरात)
*
आप की टिप्पणी ‘जोड़तोड़ की राजनीति’ पढ़ी. सत्ता पाने की खातिर अपने ईमानधर्म को गिरवी रखने वाले सत्तालोलुप नेताओं की वर्तमान कारगुजारियों का आप ने अच्छा खुलासा किया है. जनता को कभी धर्म के नाम पर तो कभी जाति के नाम पर इन तथाकथित देशभक्तों ने न केवल बांटा, बल्कि भाईभतीजावाद और स्वार्थसिद्धि के लिए देश की अस्मत को भी दांव पर लगा दिया. वे केवल तभी अपने घडि़याली आंसू बहाते नजर आते हैं जब जनता से उन्हें वोट लेना होता है. न कोई सिद्धांत, न कोई स्वच्छ विचार. इन की हर कथनीकरनी में षड्यंत्र की बू आती है. अगर वर्षों से सोई पड़ी जनता अभी भी नहीं जागी तो दुनिया की कोई ताकत उसे स्वार्थी नेताओं के फंदे से निजात नहीं दिला सकती.
छैल बिहारी शर्मा, छाता (उ.प्र.)
*
संपादकीय टिप्पणी ‘जोड़तोड़ की राजनीति’ रोचक, सामाजिक, सामयिक लगी. बहुत समय पहले से ही पार्टियों की यह धारणा रही है कि जिस का पलड़ा भारी देखा उस की तरफ बढ़ गईं. किसी में धर्म, ईमान, कायदाकानून की कोई सोच नहीं होती, उसे केवल अपना फायदा देखना होता है. भाजपा की बढ़त की उम्मीद देखते हुए रामविलास पासवान भाजपा के पाले में आ गए और लालू प्रसाद यादव के राजद के कई विधायक नीतीश कुमार के खेमे में चले गए हैं. दूसरे दलों में भी इस तरह का जोड़तोड़ जरूर होगा क्योंकि कांगे्रस का जहाज डूबता नजर आ रहा है. 
भाजपा में नरेंद्र मोदी की जो हवा चली है वह मोटे पैसे के मोटे प्रचार से बनी. और जब से कांगे्रस ने प्रचार में अपना और सरकारी पैसा झोंकना शुरू किया है, नरेंद्र मोदी का कद घटने लगा है. नरेंद्र मोदी असल में व्यापारी वर्ग की देन हैं जो हिंदू धर्म की आस्था के नाम पर डरासहमा रहता है और जिस में नीची जातियों के प्रति बहुत ज्यादा पौराणिक घृणा ठूंसठूंस कर भर दी गई है. केंद्र में नरेंद्र मोदी अपने बल पर अटल बिहारी वाजपेयी से ज्यादा बड़ी शख्सीयत बनेंगे, यह सवाल बहुत बड़ा है. अटल बिहारी वाजपेयी खासे बेदाग, सौम्य, कुशल वक्ता, कवि, अनुभवी व्यक्ति हैं और ये गुण मोदी में न के बराबर हैं. अब सारा दारोमदार जनता के हाथों में है कि वह किसे सत्ता सौंपती है.
कैलाशराम गुप्ता, इलाहाबाद (उ.प्र.)
*
‘आप और जनसेवा’ शीर्षक से प्रकाशित आप के विचार पढ़े. आप का यह कहना कि ‘आप’ जन आंदोलन का राजनीतिक चेहरा है, सोफे पर जिंदगी गुजारने वालों का पार्किंग प्लेस नहीं-यही सचाई बयां कर रहा था कि ‘हथेली पर सरसों उगाने को लालायित या फिर आननफानन ही आसमान से तारे तोड़ लाने की सोच से ग्रस्त ‘आप’ शायद अपने गठन का असली मकसद ही भूल गई है. इस का उदाहरण है, ‘आप’ में भरती होने वाले तत्त्वों का ‘स्टेटस सिंबल’. मसलन, जिस तरह से देश के प्रख्यात, प्रतिष्ठित, बौद्धिक, धनाढ्य तथा सैलिब्रिटीज ‘गण्यमान्य’ लोग बिना किसी हिचक के ‘आप’ की सदस्यता ग्रहण कर रहे हैं, उस में उन का मकसद चाहे जो कुछ भी हो, ‘आप’ की छवि को खास चेहरे में परिवर्तित करते अवश्य नजर आ रहे हैं. 
ऐसे में ‘आप’ के असली कार्यकर्ताओं में बेचैनी बढ़ना स्वाभाविक है, क्योंकि इन नएनवेले मगर ‘खास’ सदस्यों में ही जिस तरह से सदस्यता ग्रहण करते ही लगेहाथों थाली में परोसपरोस कर आम चुनाव हेतु लोकसभाई क्षेत्रों के टिकट भी बिना किसी जांचपड़ताल या देरी के बांटे जा रहे हैं वह आम/असली कार्यकर्ताओं को किनारे लगाए जाने का सुस्पष्ट संकेत ही है. सो, अगर ‘आप’ के आम आदमी सदस्य अपने ही दल के दिग्भ्रमित नेतृत्व से सवाल करें कि क्या ‘आप’ या केजरीवाल अपनी राह नहीं भटक गए या ‘आप’ क्यों ‘खाप’ वाली छवि में बदल रही है, तो गलत क्या है? इसलिए ‘आप’ के ठेकेदारों को यह कतई नहीं भूलना चाहिए कि अगर आम आदमी भी उन की तरह राह भटक गया तो ‘आप’ की क्या हालत होगी?
टी सी डी गाडेगावलिया, करोल बाग (न.दि.)
*
संपादकीय टिप्पणी ‘तर्क और तथ्य’ में आप ने बहुत सही चेताया है कि ये आधुनिक विकास की पहली सीढ़ी हैं तथा सुखी परिवार इन्हीं पर समृद्ध होते हैं. यह सच है कि किसी बुजुर्ग को परिवार अपना गुरु मान कर जीता है लेकिन इस के अलावा बाहर के लोग भी सलाह देते रहते हैं. यदि परिवार के बुजुर्ग और बाहर के सलाहकार खुद स्वार्थ से ग्रसित, अहंकार से भरे तथा दकियानूसी सलाह दें तो ये दुर्गुण स्वत: परिवार और समाज में चले आते हैं. बाहरी व्यक्ति अपने स्वार्थ को तलहटी में रख सलाह देते हैं.
धर्म के नाम पर भी सलाह की तलहटी में रखे स्वार्थ के कारण हमारा देश अंधविश्वासी और कमजोर बना और विदेशी हजारों साल तक भारत को लूटते व शासन करते रहे. इस अवैज्ञानिक सलाह से भारत में आधुनिक विज्ञान जन्म नहीं ले सका, उसे पश्चिमी देशों में जन्म लेना पड़ा. हम आज तक अंधविश्वास वाली सलाह पर जी रहे हैं.
माताचरण पासी, देहरादून (उत्तराखंड)
*
एकतरफा बात क्यों
लेख ‘पिछलग्गू बन रहे भाजपा के बड़े नेता’ ने यही दर्शाया कि ‘अगर किसी का विरोध करना ही है तो फिर आंख खोल कर करो या बंद आंखों से, चेहरामोहरा तो खिसियानी बिल्ली समान बनाना ही पड़ेगा न.’ लेखक के ये शब्द कुछ ऐसा ही उजागर कर रहे हैं, ‘नमो अभी चुनाव जीते नहीं हैं, पर उन्होंने अपने को पीएम मानना शुरू कर दिया है, इसलिए रैलियों के प्रबंधन व संचालन में जमीन से जुड़े नेताओं की उपेक्षा की जा रही है.’ यह तो मैं नहीं जानता कि लेखक महोदय अंधता के शिकार हैं या नहीं, मगर उन की एकतरफा बात यह अवश्य जता रही है कि उन्हें शायद काने समान, एकतरफ का ही दिखाई देता है, दूसरी आंख से जरा भी नहीं. क्या वे यह बता सकते हैं कि अगर भाजपा में बुजुर्गों व जमीन से जुड़े नेताओं या कर्मठ कार्यकर्ताओं की अनदेखी की जा रही है तो आज कांगे्रस की कमान किस के हाथों में और क्यों है, राजद के लालू यादव के दल में किस को और क्यों आगे बढ़ाया जा रहा है, जदयू में नीतीश, बसपा में मायावती, अन्नाद्रमुक में जयललिता, तृणमूल में ममता बनर्जी, सपा में मुलायम सिंह या फिर ‘आप’ में क्या अरविंद केजरीवाल की अलंबरदारी/ तानाशाही नहीं चल रही है? मात्र भाजपा या नमो के विरोध का ही राग अलापने से क्या देश की ये शेष सभी पार्टियां दूध की धुली या फिर सौ प्रतिशत शुद्ध सोना हो गई हैं? 
यहां मेरा विरोध इस बात का नहीं है कि लेख में क्यों नमो का विरोध किया गया, बल्कि कहना यह है कि एकतरफा बात कर, लेखक महोदय ऐसा कौन सा तीर चला रहे हैं कि उन्हें फूलमाला पहनाई ही जाए. धर्म का विरोध करें, मगर अपना कर्म भी तो न भूलें.
ताराचंद देव रैगर, श्रीनिवासपुरी (न.दि.)
*
महिलाओं का शोषण
कुछ दिन हुए हरियाणा की मंत्री किरण चौधरी को एक जनसभा में भाषण देते हुए पत्थरों से मारा गया. वे अब गुड़गांव के एक अस्पताल में स्वास्थ्य लाभ कर रही हैं. महिलाओं के खिलाफ हिंसा क्यों बढ़ रही है यह आज एक सवाल है.
सीता और द्रौपदी के जमाने से नारी पर अत्याचार हो रहे हैं. क्या हमारे धर्म में कोई कमजोरी है? क्या अभी तक लोग इस कहावत को नहीं भूले कि ‘ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी. सकल ताड़ना के अधिकारी.’ आज तो नारी हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही है, फिर भी उसे पशु समझता जाता है? 
आई पी गांधी, अंबाला (हरियाणा)
*
भाजपा के नेता?
मार्च (द्वितीय) अंक में प्रकाशित लेख ‘पिछलग्गू बन रहे भाजपा के बड़े नेता’ पढ़ा. जनता की नब्ज को पहचानना आसान नहीं. राजनीतिक पार्टियां फिल्मों के प्रचार की तरह प्रचार कर रही हैं. फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ पर बहुत पैसा लगा था और बड़ा प्रचार हुआ था फिर भी फिल्म फ्लौप हो गई. आज भी कुछ ऐसे हालात हैं. कौन बनेगा प्रधानमंत्री, कोई कुछ नहीं कह सकता. सब लीडर प्रधानमंत्री बनने के लिए काला धन खर्च कर रहे हैं. परंतु कौन जीतेगा, अंदाजा लगाना कठिन है. 
यदि भाजपा की 272 सीटें आ भी जाएं तो प्रधानमंत्री की कुरसी के लिए भाजपा के लीडरों में लड़ाई होगी. लालकृष्ण आडवाणी, अरुण जेटली, सुषमा स्वराज आदि सब प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं.
इंदर गांधी, करनाल (हरियाणा)
*
आधी आबादी का दर्द
लेख ‘पंचायतों का औरतों पर जुल्म’ हृदयघातक है. पश्चिम बंगाल के लाभपुर की निर्लज्जतापूर्ण घटनाएं पंचायतों के अंदर छिपी हुई कुत्सित भावना को प्रकट करने के साथ ही हमारे देश में कुछ जगहों पर चल रही समानांतर व्यवस्था किस प्रकार राजनीतिक रंग में रंगी है, इसे भी दिखाती हैं. यही कारण है कि लाभपुर जैसी घटनाएं अकसर घटती रहती हैं. केवल यही नहीं, मनुष्य के निजी व सामाजिक जीवन से जुड़ी बातों पर भी खाप और सालिसी सभा का पूर्ण दबाव है जोकि इस लेख को पढ़ने से ज्ञात हुआ है. 
अभी तक जनता के सामने इस समानांतर व्यवस्था के दिनोंदिन फलनेफूलने का सत्य क्या है, यह स्पष्ट नहीं था. लेकिन अब ज्ञात हुआ कि अपने राजनीतिक लाभ के लिए ही प्रशासन इन्हें चलने दे रहा है वरना मजाल है कि संविधान द्वारा प्रदत्त नागरिकों के मौलिक अधिकारों का इस प्रकार न केवल हनन हो बल्कि इस के एवज में उसे आदिम युग के दंड भी मिलें. बड़े आश्चर्य की बात है कि आधी आबादी की याद राजनीतिक दलों को केवल वोटिंग के समय ही आती है. उसे नग्न कर के प्रताडि़त करते समय सभी राजनीतिक दल इस बात को भूल जाते हैं. चलिए, इसे छोड़ भी दीजिए. स्त्री किसी की मां, बेटी, बहन है, इसे भी थोड़ी देर के लिए भूल जाएं. पीडि़ता किस जातिप्रजाति या वर्ण की है, इसे भी सजा का आधार न बनाएं. तब क्या उस के साथ इस प्रकार के इंसानियत को बेचने वाले व्यवहार को कोई उचित ठहराएगा? दुख तो इसी बात का है कि आज ऐसा ही हो रहा है और प्रशासन मूक बना बैठा रहता है अथवा मात्र खानापूर्ति करता है.
कृष्णा मिश्रा, लखनऊ (उ.प्र.) 

भड़क गईं वहीदा

गुजरे जमाने की मशहूर अभिनेत्री  वहीदा रहमान के जीवन पर आधारित एक किताब ‘कंवरसेशंस विद वहीदा’ पिछले दिनों लौंच की गई. नसरीन मुन्नी कबीर की लिखी किताब का लोकार्पण वहीदा रहमान ने ही किया. 
कार्यक्रम के दौरान जब किसी ने उन से फिल्मकार गुरुदत्त की खुदकुशी को ले कर सवाल पूछ डाला तो वे भड़क गईं. सब जानते हैं कि एक समय वहीदा का नाम गुरुदत्त के साथ जोड़ा जाता था. वे गुस्से में बोलीं कि मेरी निजी जिंदगी से किसी को वास्ता नहीं होना चाहिए और जहां तक गुरुदत्त की आत्महत्या का सवाल है तो मुझे नहीं लगता कि फिल्म ‘कागज के फूल’ की असफलता की वजह से वे अवसाद में थे, क्योंकि उस के तुरंत बाद उन्होंने फिल्म ‘चौदहवीं का चांद’ बनाई, जो सुपरहिट हुई.
गौर करने वाली बात यह है कि  सालों बाद आज भी वहीदा गुरुदत्त के बारे में खुल कर बोलने से बचती हैं. लेकिन क्या करें, अतीत तो सवालों की शक्ल में बारबार वापस आता ही रहता है.

सोनम का बयान

आजकल हर कोई अपने बैनर तले बनने वाली फिल्मों में काम करना चाहता है. यही वजह है कि ज्यादातर अभिनेता और अभिनेत्री फिल्म निर्माण के क्षेत्र में कूद पड़े हैं. इस कड़ी में हालिया नाम सोनम कपूर का है. सोनम इन दिनों होम प्रोडक्शन में बन रही फिल्म ‘खूबसूरत’ को ले कर व्यस्त हैं. फिल्म ‘आयशा’ के बाद सोनम एक बार फिर से पिता अनिल कपूर और बहन रिया के साथ काम कर रही हैं. सोनम का कहना है कि फैमिली मैंबर्स के साथ काम करना बेहद मुश्किल होता है क्योंकि वे आप से बहुत अधिक उम्मीदें रखते हैं.
गौरतलब है कि यह फिल्म 1980 की फिल्म ‘खूबसूरत’ की रीमेक है. और जो भूमिका उस फिल्म में रेखा ने निभाई थी उसी किरदार को सोनम रुपहले परदे पर जिएंगी. बहरहाल, सोनम का अपने फैमिली के साथ काम करने में मुश्किल होने वाला बयान लोगों के गले नहीं उतर रहा है.
 

सेना प्रमुख बनेंगे ओमपुरी

अभिनेता ओमपुरी अपने विविध अभिनय के बारे में जाने जाते हैं. यही वजह है कि अब तक उन्होंने कई विदेशी फिल्मों में भी बेहतरीन भूमिकाएं निभाई हैं. खबर है कि ओमपुरी जल्द
ही पाकिस्तान में महिलाओं की शिक्षा के लिए आवाज उठाने वाली मलाला यूसुफजई की जिंदगी पर बनने वाली फिल्म में पाकिस्तान के पूर्व सेना प्रमुख अशफाक परवेज कयानी का किरदार निभाएंगे. यह फिल्म पाकिस्तान में बनाई जाएगी, यानी इसे एक पाकिस्तानी फिल्मकार बनाएंगे.
जब इस बाबत ओमपुरी से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि कयानी का किरदार निभाना मेरे लिए चुनौतीपूर्ण अनुभव होगा. साथ ही, मलाला के मसले पर पूरी दुनिया ने अपनी प्रतिक्रिया दी थी. ऐसे में इस साहसी फिल्म पर काम करना सुखद बात है
अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें