समाज सुधारों के नाम पर पिछले दशकों में कई कानून बनाए गए हैं जिन में न्यूनतम सजा भी नियत कर दी गई है. दहेज लेनेदेने व दहेज हत्या के कानून भी ऐसे ही हैं जिन में संसद ने अपराधी मान लिए जाने पर न्यूनतम सजा का प्रावधान कर दिया है. अभिनेता संजय दत्त आजकल आतंकवाद विरोधी एक ऐसे ही कानून के अंतर्गत न्यूनतम सजा झेल रहे हैं.
यह न्यूनतम सजा एकदम अमानवीय है. जब अदालतें हैं, वकील हैं, कानून हैं, गवाह हैं, अपीलें हैं तो ऐसे में न्यूनतम सजा का प्रावधान इन सब को बेमतलब कर देता है. कोई भी अपराध किसी विशेष परिस्थिति में किया जाता है. कभी केवल दुर्भावना, सोचसमझ कर, बदला लेने के लिए किया जाता है तो कभी गुस्से में आपा खो जाने पर. हर अपराध को बराबर मान लेना, क्योंकि पीडि़त को बराबर का नुकसान हुआ है, एक पैशाचिक कानून है जिस में आंख के बदले आंख और जान के बदले जान का प्रावधान होता है.
पतिपत्नी के मामलों में न्यूनतम सजा तो एकदम अव्यावहारिक व अमानवीय है. पत्नी द्वारा आत्महत्या करने पर पति व उस के घर वालों को न्यूनतम सजा देने का मतलब है घर के कई और लोगों को, निर्दोष होने पर भी, सजा दे देना. पतिपत्नी जब घरौंदा बनाते हैं तो सपने सजाते हैं, दोनों एकदूसरे को सबकुछ दे देते हैं. झगड़ा चाहे दहेज को ले कर हुआ है या घर वालों के साथ न निभा पाने के कारण, इतना गंभीर नहीं होता कि पूरे घरौंदे को आग लगा दी जाए. हमारा कानून कुछ यही कर रहा है.
आंध्र प्रदेश के एक मामले में दहेज के कारण की गई शिकायत पर ट्रायल कोर्ट ने 3 माह की सजा दी जबकि भारतीय दंड विधान की धारा 498 ए में 5 साल की न्यूनतम सजा का प्रावधान है. ट्रायल कोर्ट की सजा काफी थी पर सर्वोच्च न्यायालय ने इस पर गहरी आपत्ति जताई है क्योंकि वह न्यूनतम से कम है और न्यायालय ने स्पष्ट नहीं किया कि केवल 3 माह की सजा क्यों दी गई. इस मामले को सर्वोच्च न्यायालय ने दोबारा ट्रायल अदालत को भेज दिया.
दहेज जैसे मामले पर एक परिवार को वर्षों तक रगड़ना नितांत अमानवीय और निरर्थक है. यह छोटा मामला वैसे तो परिवारों के साथ बैठने से हल हो सकता है वरना निचली अदालतों को अंतिम फैसला सुनाने का हक होना चाहिए. इस पर सर्वोच्च न्यायालय राय दे, गलत है और खासतौर पर तब, जब पति को वर्षों बाद फिर अदालतों में घसीट कर ले जाने की राय हो. यह न्यायिक आतंक है जिस का डर इस देश में धार्मिक आतंक से ज्यादा है

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