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सुसाइड की कोशिश

फिल्म अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत के साथ फिल्म ‘डिटैक्टिव व्योमकेश बख्शी’ से बौलीवुड में पदार्पण कर रही बंगाली अभिनेत्री स्वास्तिका मुखर्जी ने तथाकथित तौर पर सुसाइड करने की कोशिश की. खबरों की मानें तो स्वास्तिका ने यह कदम अपने फिल्ममेकर बौयफ्रैंड के साथ हुए झगड़े के चलते उठाया है. स्वास्तिका ने अपनी कलाई और हाथ की नस काट कर आत्महत्या करने की कोशिश की तभी उन्हें गंभीर हालत में अस्पताल पहुंचाया गया. हालांकि उन की बहन इसे महज हादसा करार दे रही है.

खतरों का खिलाड़ी

इन दिनों टीवी पर रिऐलिटी शो की भरमार है. कहीं डांस पर चांस मारा जा रहा है तो कहीं सुरों का संग्राम छिड़ा है. इन सब के बीच स्टंट पर आधारित रिऐलिटी शो ‘खतरों के खिलाड़ी’ भी खासा लोकप्रिय है. हाल ही में इस के 5वें संस्करण का फिनाले हुआ. इस बार फिल्म ‘1920’ के स्टार रजनीश दुग्गल ने बाजी मारी. रजनीश ने बेहद मुश्किल स्टंट में टीवी ऐक्टर गुरमीत चौधरी और निकीतन धीर को जबरदस्त तरीके से मात देते हुए खतरों के खिलाड़ी का खिताब अपने नाम कर लिया. रजनीश के मुताबिक, इस शो ने उन्हें बेहद मजबूत इंसान बनाया है. उन के लिए यह जीत खास है.

रोशन पर किताब

फिल्मी सितारों पर किताबें लिखने का चलन पुराना है. लेकिन बीते कुछ सालों में देखा गया है कि अकसर फिल्मी हस्तियों के जीवन पर लिखी जा रही किताबों के लेखक परिवार के ही सदस्य होते हैं. पिछले दिनों प्रेम चोपड़ा की बेटी ने उन पर लिखी किताब का विमोचन किया था. हाल ही में अभिनेता, निर्माता, निर्देशक राकेश रोशन की सचित्र जीवनी का विमोचन भी उन की बेटी सुनैना रोशन ने किया. ‘टू डैड विद लव’ नाम की इस किताब के विमोचन के दौरान जब उन से अगले प्रोजैक्ट के बारे में पूछा गया तो उन का जवाब दिलचस्प था. उन के मुताबिक, शायद उन की अगली किताब सुपरस्टार भाई ऋतिक रोशन पर हो.

सीरियल से संसद तक

धारावाहिक ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ ने अभिनेत्री स्मृति ईरानी को देश के हर घर में लोकप्रिय चेहरा बना दिया था. सासबहू के उस सीरियल से स्टार बनी स्मृति ईरानी ने जब सियासत में कदम रखा तो शुरुआत में उन्हें गंभीरता से नहीं लिया गया. लेकिन वे सियासी मैदान में डटी रहीं और इस बार के लोकसभा चुनाव में वे राहुल गांधी के खिलाफ लड़ीं. स्मृति चुनाव भले ही न जीत पाई हों लेकिन नरेंद्र मोदी सरकार ने उन्हें मानव संसाधन विकास मंत्री बनाया है. हालांकि कई लोग उन की शिक्षा और कैबिनेट पद को ले कर सवाल उठा रहे हैं लेकिन स्मृति का सीरियल से संसद तक का सफर लाजवाब कहा जा सकता है.

लिंगा में सोनाक्षी

पुराना दस्तूर है कि हिंदी फिल्म अभिनेत्रियां दक्षिण भारतीय फिल्मों में भी काम करती हैं. ऐश्वर्या राय से ले कर दीपिका पादुकोण इस का उदाहरण हैं. अब इस कड़ी में ताजा नाम सोनाक्षी सिन्हा का भी जुड़ गया है.

सोनाक्षी इन दिनों तमिल फिल्म ‘लिंगा’ की शूटिंग में व्यस्त हैं. वे इस फिल्म को ले कर काफी उत्साहित हैं. इस के 2 कारण हैं. पहला कारण तो यह कि ‘लिंगा’ उन की पहली साउथ इंडियन फिल्म है और दूसरा बड़ा कारण है फिल्म में सुपरस्टार रजनीकांत का होना.

गौरतलब है कि रजनीकांत के साथ काम करना हर अभिनेत्री का सपना होता है. इस से पहले रजनी के साथ फिल्म ‘रोबोट’ में ऐश्वर्या राय और ‘कोचडयान’ में दीपिका ने काम किया था. ऐसे में फिल्म ‘लिंगा’ से जुड़ कर सोनाक्षी सिन्हा का खुश होना लाजिमी है.

कोयलांचल

निर्देशक आशु त्रिखा ने फिल्म में जहां स्टेट ब्यूरोक्रेसी और कोल माफिया की मिलीभगत को दिखाया है वहीं उस ने सभी चालू मसालों को भी डाला है. फिल्म में माओवादी हैं, एक क्रांतिकारी बंगाली नेता है, नौटंकी है, वेश्या के उभार हैं और क्रांतिकारी कविता भी. साथ ही, उस ने एक ऐसे किरदार करुआ (विपिन्नो) की रचना की है जो सिर्फ खून की भाषा समझता है, एक इशारे में आदमी का सिर धड़ से अलग कर देता है और सिर्फ अपने ‘मालिक’ (डौन) का हुक्म मानता है, उस के पैर धो कर वह पानी पीता है. उस के लिए उस का यह ‘मालिक’ ही सबकुछ है. ऐसे किरदार की रचना कर निर्देशक ने आतंक का माहौल क्रिएट किया है.

फिल्म की कहानी आम फिल्मों की तरह एक कोल माफिया डौन सरयूभान सिंह (विनोद खन्ना) और एक ईमानदार कलैक्टर निशीथ कुमार (सुनील शेट्टी) के टकराव की है. राजापुर इलाके में सरयूभान सिंह का राज है. कोयलांचल में जो भी उस के रास्ते में आता है, उसे मार डाला जाता है. करुआ (विपिन्नो) उस का खास आदमी है, जो खूंखार है. कलैक्टर निशीथ कुमार की पोस्ंिटग राजापुर होती है. वह सरयूभान सिंह की आंख की किरकिरी बन जाता है. करुआ निशीथ कुमार की पत्नी को जख्मी कर उस के छोटे बेटे को किडनैप कर लेता है. निशीथ कुमार सरयूभान पर शिकंजा कसता है. परिस्थितियां ऐसी बनती हैं कि बच्चा करुआ के लिए मुसीबत बन जाता है. एक वेश्या करुआ को सीख देती है कि बच्चे को उस की मां को लौटा दे. करुआ का हृदय परिवर्तन होता है. वह सरयूभान को कोयलांचल की आग में समा जाने को राजी कर लेता है और खुद भी भस्म हो जाता है.

कोयलांचल में माफिया डौन प्रशासन के राष्ट्रीयकरण के प्रयासों को धता बताते हुए किस तरह समानांतर सरकार चलाते हैं, फिल्म इस का जीताजागता उदाहरण है.

माफिया डौन की भूमिका में विनोद खन्ना जमा नहीं है. विपिन्नो प्रभावित करता है. फिल्म के निर्देशक ने जबरन लौंडा नाच जैसी नौटंकी को डाला है. वेश्या की भूमिका में रूपाली कृष्णा राव के उभारों को दिखाने में ज्यादा दिलचस्पी दिखाई है.

निर्देशन साधारण है, गीतसंगीत बेदम है. सुनील शेट्टी बेअसर रहा है.  फिल्म का क्लाइमैक्स जबरन खींचा गया है.

हवा हवाई

‘हवा हवाई’ को अमोल गुप्ते ने निर्देशित किया है, जिस ने आमिर खान की फिल्म ‘तारे जमीं पर’ को निर्देशित करने की जिम्मेदारी उठाई थी, मगर बीच में ही आमिर खान ने अपनी इस फिल्म को खुद ही निर्देशित करने का फैसला कर लिया था. इस के बाद अमोल गुप्ते ने अपने बेटे को ले कर ‘स्टेनले का डिब्बा’ फिल्म बनाई. कम बजट में बनी इस फिल्म को खूब सराहा गया.

‘हवा हवाई’ की कहानी व पटकथा भी अमोल गुप्ते ने लिखी है. इस फिल्म में भी उस ने अपने बेटे पार्थो गुप्ते को बतौर हीरो चुना है. अमोल गुप्ते की यह फिल्म सिर्फ स्केटिंग के खेल की ही बात नहीं करती, इस फिल्म में सामाजिक विषमताओं को भी दर्शाया गया है. फिल्म में एक तरफ 25 से 50-50 हजार रुपए तक के महंगे स्केट्स पहन कर स्केटिंग सीखने आ रहे अमीर बच्चों को दिखाया गया है तो दूसरी तरफ ऐसे बच्चों को भी दिखाया गया है जो या तो कचरा बीनते हैं, कारखाने में काम करते हैं या 16-16 घंटे चाय की दुकानों पर लोगों को चाय पिलाने और झूठे बरतन साफ करने का काम करते हैं. ऐसे बच्चों का वजूद मानो खत्म सा हो जाता है.

ऐसा नहीं है कि उन के सपने नहीं हैं, उन के भी सपने होते हैं. वे भी उन अमीर बच्चों की तरह बनना चाहते हैं, मगर समाज में अमीरगरीब की जो दीवार है, वह उन के आगे बढ़ने में बाधक बनती है. निर्देशक ने अपनी इस फिल्म में इन मुद्दों को भी संजीदगी से उठाया है. कमर्शियली यह फिल्म भले ही हिट या सुपरहिट न हो लेकिन फिल्म को सराहना जरूर मिलेगी.

फिल्म की कहानी महाराष्ट्र के एक किसान के बेटे अर्जुन (पार्थो गुप्ते) की है. उस के पिता की मृत्यु हो चुकी है. उस की मां अपने परिवार को ले कर मुंबई की एक चाल में रहने चली आती है. अपनी मां का हाथ बंटाने के लिए अर्जुन एक चाय की दुकान पर नौकरी करने लगता है. वहां वह रोजाना रात को बच्चों के एक झुंड को स्केटिंग करते देखता है, जिन्हें उन का कोच लकी सर (साकिब सलीम) टे्रनिंग देता है. यहीं अर्जुन की मुलाकात लकी सर से होती है.

अर्जुन को लगता है कि वह भी स्केटिंग सीख सकता है. वह रोजाना एकलव्य की तरह लकी सर को स्केटिंग के गुर सिखाते हुए देखता है. अर्जुन के पास स्केट्स नहीं हैं.

अर्जुन के 4 दोस्त हैं. एक कचरा बटोरता है, दूसरा वर्कशौप में काम करता है, तीसरा गजरा बेचता है और चौथा सिलाई का काम करता है. जब उन्हें अर्जुन के स्केटिंग के शौक के बारे में पता चलता है तो चारों मिल कर अर्जुन के लिए स्केटिंग शूज बनाते हैं जिस का नाम वे हवा हवाई रखते हैं. लकी सर को जब अर्जुन की स्केटिंग के प्रति लगन का पता चलता है तो वे उसे स्टेट चैंपियनशिप में हिस्सा लेने के लिए तैयार करते हैं. आखिर अर्जुन स्टेट चैंपियन बन कर पुरस्कार पाने का हकदार बनता है.

फिल्म की यह कहानी फर्स्ट हाफ में तो ढीली है लेकिन सैकंड हाफ में कहानी की गति तेज हो जाती है और दर्शक दम साधे बैठे रहते हैं. क्लाइमैक्स में तो लगता है जैसे यह किरदार अर्जुन नहीं बल्कि मिल्खा सिंह निभा रहे हैं. निर्देशक ने अर्जुन के किरदार  के जरिए भूख और गरीबी में खोता बचपन और किसान परिवार की बेबसी को अर्जुन की मां की आंखों के जरिए दिखाया है. कहींकहीं फिल्म दर्शकों को झकझोरती है.

पार्थो गुप्ते सहित उस के चारों दोस्तों ने लाजवाब ऐक्ंिटग की है. बाकी कलाकार साधारण हैं. फिल्म का गीतसंगीत भी ताजगी महसूस कराता है. छायांकन अच्छा है.

कोचडयान

फिल्म का कैनवास काफी बड़ा और भव्य है. ऐसा लगता है जैसे महाभारत काल में हुए विशाल युद्ध का नजारा देख रहे हों जिस में अनगिनत हाथियों और घोड़ों पर सवार योद्धाओं ने युद्ध लड़ा था.

इस फिल्म की तुलना कुछ साल पहले आई हौलीवुड की फिल्म ‘अवतार’ से की जा सकती है, मगर तकनीक में यह ‘अवतार’ से कहीं पीछे है. रजनीकांत की बेटी निर्देशिका सौंदर्या रजनीकांत अश्विन ने एनिमेशन के जरिए दृश्यों को वास्तविक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. वह एक ग्राफिक डिजाइनर है. उस ने अपनी तकनीशियन टीम के साथ मिल कर फिल्म को 3डी इफैक्ट में बनाया है. फिल्म काफी हद तक दर्शकों को बांधे रखती है.

पूरी फिल्म रजनीकांत के इर्दगिर्द बुनी गई है. सभी पात्रों की संवाद अदायगी दक्षिण भारतीय फिल्मों जैसी है.

फिल्म की कहानी भारत के 2 राज्यों कोट्टापट्टनम और कलिंगपुरी की है. कोट्टापट्टनम का राजा उदयभान (नासिर) है तो कलिंगपुरी का राजा महेंद्रराज (जैकी श्रौफ) है. दोनों राज्यों में दुश्मनी है. कोट्टापट्टनम का एक किशोर राणा (बड़ा हो कर रजनीकांत) कलिंगपुरी जाने के लिए एक नाव पर बैठ कर निकलता है और एक जलप्रपात में गिर पड़ता है. किसी तरह वह कलिंगपुरी के किनारे पहुंचता है जहां कुछ लोग उस की जान बचाते हैं.

शिक्षादीक्षा ले कर वह एक योद्धा बन जाता है. वह अपनी बहादुरी से कई राज्यों को कलिंगपुरी में मिला लेता है. महेंद्रराजा उसे महासेनापति बना देता है. राणा कोट्टापट्टनम पर हमले की योजना बनाता है. वह कोट्टापट्टनम आता है. वहां के राजा उदयभान के बेटे के साथ अपनी बहन की शादी करवाता है और राजा की बेटी (दीपिका पादुकोण) से प्यार करने लगता है. वह राजा उदयभान पर जानलेवा हमला करते समय पकड़ा जाता है. वह अपनी प्रेमिका को राजा पर हमले का प्रयोजन बताता है.

यहां कहानी फ्लैशबैक में चली जाती है. राजा उदयभान ने उस के पिता कोदर्यान (रजनीकांत की दूसरी भूमिका) को मौत के घाट उतार दिया था इसी का बदला लेने के लिए राणा ने राजा उदयभान पर हमला किया था.

राजा उदयभान राणा को मौत की सजा का फरमान सुनाता है परंतु राणा राजा की फौज का मुकाबला करते हुए राजा को मार डालता है और राजा की बेटी का हाथ थाम लेता है.

यह पूरी कहानी बदले की है. कहानी रोचक है. फिल्म के ऐक्शन दृश्यों में काफी मेहनत की गई है. डांस सीक्वैंस भी अच्छे हैं. फिल्म बुराई पर अच्छाई का प्रतीक बन गई है.

फिल्म देख कर लगा कि यदि इस फिल्म के रजनीकांत और दीपिका पादुकोण वाले कुछ प्रेम प्रसंग रियल किरदारों पर फिल्माए जाते तो कुछ और ही असर पड़ता. दीपिका पादुकोण का यह एनिमेटेड किरदार भी सुंदर लगा है. रजनीकांत का तो कहना ही क्या. उस ने 2-3 मिनट तक तांडव नृत्य किया है जो काफी अच्छा बन पड़ा है. खलनायक पात्रों में नासिर और जैकी श्रौफ का काम भी अच्छा है.

ए आर रहमान का संगीत परंपरागत फिल्मों से अलग है. फिल्म की फोटोग्राफी गजब की है.

हमारा नाश बर्गर कर रहा है : अमोल गुप्ते

हाल ही में प्रदर्शित बाल फिल्म ‘हवा हवाई’ के लेखक, निर्देशक व निर्माता अमोल गुप्ते किसी परिचय के मुहताज नहीं है. 2008 में प्रदर्शित फिल्म ‘तारे जमीं पर’ के लिए सर्वश्रेष्ठ कहानीकार व पटकथा लेखक के लिए फिल्मफेअर सहित कई अवार्ड जीत चुके अमोल गुप्ते का दावा है कि ‘तारे जमीं पर’ के रिलीज के बाद शिक्षा क्षेत्र में काफी बदलाव आया है. वे ‘कमीने’, ‘उर्मि’, ‘स्टेनली का डिब्बा’, ‘भेजा फ्राय’ सहित कई फिल्मों में विलेन के किरदार निभा चुके हैं. पेश हैं उन से हुई बातचीत के खास अंश :

आप फिल्मों में हमेशा विलेन के किरदारों में नजर आते हैं जबकि आप लेखक व निर्देशक के रूप में बहुत ही इमोशनल बाल फिल्में बनाते हैं. इतना बड़ा अंतर क्यों?

फिल्म इंडस्ट्री में भेड़चाल है. एक बार आप ने जिस तरह का काम कर लिया, आप को बारबार उसी तरह के काम को करने के औफर मिलते हैं. विशाल भारद्वाज ने फिल्म ‘कमीने’ में मुझे एक बार कमीना बना दिया, उस के बाद से हर फिल्म में लोग मुझे कमीना बना कर ही पेश करते आ रहे हैं.

दूसरी बात, एक किताब है ‘क्राइम ऐंड पनिशमैंट’. इस में जितने गहरे किरदार हैं उतने गहरे किरदार निभाने के मौके तो मुझे मिलने से रहे. जबकि मैं बच्चों के लिए अच्छी स्क्रिप्ट लिखता रहता हूं. जिस तरह के किरदार बलराज साहनी निभाया करते थे, उस ढांचे के किरदार कोई लिखे तो बात समझ में आए. लेकिन हम जिस तरह की जिंदगी जी रहे हैं, उस तरह के चरित्र बचे नहीं हैं. हमारा नाश बर्गर कर रहा है. इसी संस्कृति ने सोवियत यूनियन को भी बरबाद कर दिया. जबकि कभी सोवियत यूनियन रिफाइंड देश था. पूंजीवाद हर किसी को बरबादी के कगार पर ही ले जाता है.

हाल ही में आप की फिल्म ‘हवा हवाई’ रिलीज हुई, जिसे काफी सराहा जा रहा है?

इस की वजह इतनी है कि मैं ने इस फिल्म में उस सपने की बात की है जोकि इंसान को सोने नहीं देता. मैं ने सवाल उठाया है कि जेब में दमड़ी न हो तो क्या आप को या आप के बच्चे को सपने देखने का हक नहीं है? हम ने ‘हवा हवाई’ में 5 बच्चों के सपनों को पूरा करने की जद्दोजेहद को दिखाया है. मूल्यों की भी बात की है. हमारी फिल्म कुछ भी न होते हुए भी बहुत बड़ा कारनामा कर जाने की दास्तान है. यह हर वर्ग के हर इंसान के जद्दोजेहद की कहानी है.

आप की हर फिल्म में बच्चों से जुड़ा मुद्दा होता है?

मैं समझ गया हूं कि नए भारत को ‘शुगर कोटेड’ गोली चाहिए. इसलिए मैं उसी हिसाब से फिल्म बना रहा हूं. मैं फिल्मों में उपदेशात्मक भाषणबाजी देने के बजाय दृश्यों में इस तरह से बात कह जाता हूं कि फिल्म देखते हुए लोग समझ जाएं. मैं ने फिल्म ‘तारे जमीं पर’ में देश की शिक्षा प्रणाली पर कटाक्ष किया था. आप को शायद यकीन न हो, मगर ‘तारे जमीं पर’ की रिलीज के बाद सरकार ने शिक्षा का पूरा ढांचा ही बदल दिया.

आप के अनुसार बच्चों से जुड़ी सब से बड़ी समस्या क्या है?

बच्चों से जुड़ी तमाम समस्याएं हैं और हर समस्या के लिए प्रौढ़/वयस्क इंसान दोषी हैं. वे बच्चों को कोई अहमियत नहीं देते. राजनेता भी बच्चों पर ध्यान नहीं देते. यदि बच्चों को वोट देने का अधिकार होता तो शायद उन पर ध्यान दिया जाता. इस वजह से बच्चों को जो आत्मसम्मान मिलना चाहिए, वह नहीं मिल रहा है.

पर हर मातापिता एक ही रट लगाए रहता है कि आज के बच्चे बुजुर्गों की इज्जत नहीं करते?

बच्चे बड़ों से ही तो सीखते हैं. यदि एक इंसान अपने मातापिता की इज्जत नहीं करता है और यह बात उस का बेटा या बेटी देखते हैं, तो वे भी उन की इज्जत नहीं करते. इस के अलावा मुझे लगता है कि हमारी भारतीय संस्कृति बच्चों पर जरूरत से ज्यादा बोझ डालती है. भारतीय संस्कृति सिर्फ बच्चों पर ही कई तरह की पाबंदी लगाती है. हमारी भारतीय संस्कृति में नियम है कि बच्चा घर आने वाले हर इंसान के पैर छुए. पर क्यों? जरूरत यह है कि आप अपनी इज्जत इस तरह की बनाएं कि बच्चा खुद आप की इज्जत करना चाहे.

इतना ही नहीं, हमारे यहां एक नई संस्कृति पैदा हो गई है, वह है रिऐलिटी शो. मातापिता अपने सपनों को अपने बच्चों के माध्यम से पूरा होते देखने के लिए उन्हें रिऐलिटी शो में भेज कर उन का भविष्य बरबाद कर रहे हैं.

आप मानते हैं कि टीवी पर प्रसारित हो रहे रिऐलिटी शो में बच्चों को ला कर उन के भविष्य के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है तो इस के खिलाफ कोई मुहिम क्यों नहीं चलाते?

मैं सरकार को कई पत्र लिख चुका हूं पर सरकार ने मेरे एक भी पत्र का जवाब नहीं दिया. इसलिए अब मैं इस मुहिम को स्कूल प्रिंसिपल के साथ मिल कर चला रहा हूं. मैं ने 2 हजार स्कूल के प्रिंसिपल से बात की है. उन से कहा है कि वे अपने स्कूल के बच्चों को बाहर न जाने दें. जब स्कूल के प्रिंसिपल बच्चे को इजाजत नहीं देंगे तो बच्चे रिऐलिटी शो के साथ नहीं जुड़ पाएंगे. तभी बदलाव आएगा. मैं ने 2 फिल्में बनाईं. मैं ने कभी भी 4 घंटे से ज्यादा बच्चों से काम नहीं करवाया. मगर रिऐलिटी शो वाले तो 12 घंटे और लगातार कई माह तक काम करवाते हैं, जो कि गलत है. स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे को रिऐलिटी शो में आने से शोहरत तो मिलती है पर यह शोहरत सिर्फ चंद दिनों की ही होती है.

बाद में वह डिप्रैशन का शिकार हो जाता है. यह समाज की बीमारी हो गई है. इस पर अंकुश लगाने की जरूरत है.

तो क्या बच्चों का डांस वगैरह सीखना गलत है?

ऐसा मैं ने कब कहा. कला सीखना आसान नहीं है. जब एक बच्ची लगातार 12 साल तक भरतनाट्यम सीखती है, तब उस का पहला डांस का कार्यक्रम होता है. उस के बाद भी सीखते रहना पड़ता है. इस में तुरंत शोहरत नहीं मिलती. तुरंत शोहरत पाने का जो मसला है, उस पर मैं रिसर्च कर रहा हूं. आगे चल कर इस पर फिल्म बनाऊंगा.

मैं ने भी बच्चों को ले कर फिल्म बनाई. हम ने पूरी फिल्म बच्चों की स्कूल की छुट्टियों में फिल्माई है. किसी भी बच्चे की पढ़ाई का कोई नुकसान नहीं हुआ.

बच्चों के बीच थिएटर व सिनेमा का ज्ञान बांटते समय आप के क्या अनुभव होते हैं?

अच्छे अनुभव ही हो रहे हैं. मैं ने इन बच्चों को पूरा ईरानी सिनेमा दिखाया. ईरान के फिल्मकार मजीद मजीदी ने तो तमाम बाल फिल्में बनाई हैं. मैं चार्ली चैप्लिन की फिल्में भी बच्चों को दिखाता हूं. इस के अलावा विश्व के जो बड़ेबड़े फिल्मकार हैं, उन की फिल्में भी हम इन बच्चों के साथ बैठ कर देखते हैं. उस के बाद उस पर चर्चा करते हैं. फिर हम लोग अपना स्क्रीनप्ले लिखते हैं और फिल्म बनाते हैं. हमारी ये फिल्में 5 से 10 मिनट की होती हैं.

मैं इस बात में यकीन नहीं करता हूं कि ये गरीब बच्चे हैं, इसलिए इन्हें वोकेशनल टे्रनिंग दे कर कारपेंटर बना दें या फिल्म इंडस्ट्री में स्पौट बौय बना दें. मेरा मानना है कि इन बच्चों को तो फिल्म बनानी चाहिए. ऐसे बच्चे गरीब होने की वजह से लाइट बौय क्यों बनें? ऐसे बच्चे फिल्म निर्देशक बनें, तो बेहतर होगा.

बच्चों के साथ शूटिंग करते समय किस तरह की समस्याएं सामने आती हैं?

समस्याएं तो नहीं आईं मगर हम जब बच्चों के साथ काम करते हैं तो कुछ बातों का खयाल रखते हैं. सब से पहली बात हम उन के साथ ज्यादा समय तक काम नहीं करते. मेरा मानना है कि बच्चों के स्वास्थ्य का खयाल रखना बहुत जरूरी होता है.

ईरानी सिनेमा में बच्चों को ले कर तमाम फिल्में बनाई गई हैं पर भारत में बाल फिल्में न के बराबर बनती हैं?

मैं ऐसा नहीं मानता. भारत में भी बाल फिल्में बनती हैं पर वे बच्चों तक पहुंच नहीं पातीं. चिल्ड्रेन फिल्म सोसायटी हर साल 4 फिल्में बनाती है. सब से बड़ा सवाल यह है कि ये बाल फिल्में दिखाई कहां जाएं? किसे दिखाएं? हमारे यहां का दर्शक ‘ग्रैंड मस्ती’ जैसी फिल्में देखने में व्यस्त है. हमारे यहां बच्चों की फिल्मों के नाम पर ‘चिल्लर पार्टी’ जैसी फिल्में बनती हैं. मेरी नजर में यह फिल्म सही नहीं थी. इस में जिस तरह से चड्ढी वगैरह दिखाई गई थी, वह गलत है.

इन दिनों आप चिल्ड्रेन फिल्म सोसायटी से जुड़े हुए हैं. चिल्ड्रेन फिल्म सोसायटी फिल्मों को दिखाने को ले कर क्या कोई कदम उठा रही है?

मेरी कोशिश है कि स्कूल बच्चों को एक विषय की तरह बाल फिल्में दिखाने के लिए मल्टीप्लैक्स में ले जाएं. ‘चिल्ड्रेन फिल्म सोसायटी’ ने बच्चों के लिए तमाम बेहतरीन फिल्में बनाई हैं. मैं तो चाहता हूं कि हर स्कूल में सिनेमा एक विषय होना चाहिए. सिनेमा को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाना चाहिए.

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