हाल ही में प्रदर्शित बाल फिल्म ‘हवा हवाई’ के लेखक, निर्देशक व निर्माता अमोल गुप्ते किसी परिचय के मुहताज नहीं है. 2008 में प्रदर्शित फिल्म ‘तारे जमीं पर’ के लिए सर्वश्रेष्ठ कहानीकार व पटकथा लेखक के लिए फिल्मफेअर सहित कई अवार्ड जीत चुके अमोल गुप्ते का दावा है कि ‘तारे जमीं पर’ के रिलीज के बाद शिक्षा क्षेत्र में काफी बदलाव आया है. वे ‘कमीने’, ‘उर्मि’, ‘स्टेनली का डिब्बा’, ‘भेजा फ्राय’ सहित कई फिल्मों में विलेन के किरदार निभा चुके हैं. पेश हैं उन से हुई बातचीत के खास अंश :

आप फिल्मों में हमेशा विलेन के किरदारों में नजर आते हैं जबकि आप लेखक व निर्देशक के रूप में बहुत ही इमोशनल बाल फिल्में बनाते हैं. इतना बड़ा अंतर क्यों?

फिल्म इंडस्ट्री में भेड़चाल है. एक बार आप ने जिस तरह का काम कर लिया, आप को बारबार उसी तरह के काम को करने के औफर मिलते हैं. विशाल भारद्वाज ने फिल्म ‘कमीने’ में मुझे एक बार कमीना बना दिया, उस के बाद से हर फिल्म में लोग मुझे कमीना बना कर ही पेश करते आ रहे हैं.

दूसरी बात, एक किताब है ‘क्राइम ऐंड पनिशमैंट’. इस में जितने गहरे किरदार हैं उतने गहरे किरदार निभाने के मौके तो मुझे मिलने से रहे. जबकि मैं बच्चों के लिए अच्छी स्क्रिप्ट लिखता रहता हूं. जिस तरह के किरदार बलराज साहनी निभाया करते थे, उस ढांचे के किरदार कोई लिखे तो बात समझ में आए. लेकिन हम जिस तरह की जिंदगी जी रहे हैं, उस तरह के चरित्र बचे नहीं हैं. हमारा नाश बर्गर कर रहा है. इसी संस्कृति ने सोवियत यूनियन को भी बरबाद कर दिया. जबकि कभी सोवियत यूनियन रिफाइंड देश था. पूंजीवाद हर किसी को बरबादी के कगार पर ही ले जाता है.

हाल ही में आप की फिल्म ‘हवा हवाई’ रिलीज हुई, जिसे काफी सराहा जा रहा है?

इस की वजह इतनी है कि मैं ने इस फिल्म में उस सपने की बात की है जोकि इंसान को सोने नहीं देता. मैं ने सवाल उठाया है कि जेब में दमड़ी न हो तो क्या आप को या आप के बच्चे को सपने देखने का हक नहीं है? हम ने ‘हवा हवाई’ में 5 बच्चों के सपनों को पूरा करने की जद्दोजेहद को दिखाया है. मूल्यों की भी बात की है. हमारी फिल्म कुछ भी न होते हुए भी बहुत बड़ा कारनामा कर जाने की दास्तान है. यह हर वर्ग के हर इंसान के जद्दोजेहद की कहानी है.

आप की हर फिल्म में बच्चों से जुड़ा मुद्दा होता है?

मैं समझ गया हूं कि नए भारत को ‘शुगर कोटेड’ गोली चाहिए. इसलिए मैं उसी हिसाब से फिल्म बना रहा हूं. मैं फिल्मों में उपदेशात्मक भाषणबाजी देने के बजाय दृश्यों में इस तरह से बात कह जाता हूं कि फिल्म देखते हुए लोग समझ जाएं. मैं ने फिल्म ‘तारे जमीं पर’ में देश की शिक्षा प्रणाली पर कटाक्ष किया था. आप को शायद यकीन न हो, मगर ‘तारे जमीं पर’ की रिलीज के बाद सरकार ने शिक्षा का पूरा ढांचा ही बदल दिया.

आप के अनुसार बच्चों से जुड़ी सब से बड़ी समस्या क्या है?

बच्चों से जुड़ी तमाम समस्याएं हैं और हर समस्या के लिए प्रौढ़/वयस्क इंसान दोषी हैं. वे बच्चों को कोई अहमियत नहीं देते. राजनेता भी बच्चों पर ध्यान नहीं देते. यदि बच्चों को वोट देने का अधिकार होता तो शायद उन पर ध्यान दिया जाता. इस वजह से बच्चों को जो आत्मसम्मान मिलना चाहिए, वह नहीं मिल रहा है.

पर हर मातापिता एक ही रट लगाए रहता है कि आज के बच्चे बुजुर्गों की इज्जत नहीं करते?

बच्चे बड़ों से ही तो सीखते हैं. यदि एक इंसान अपने मातापिता की इज्जत नहीं करता है और यह बात उस का बेटा या बेटी देखते हैं, तो वे भी उन की इज्जत नहीं करते. इस के अलावा मुझे लगता है कि हमारी भारतीय संस्कृति बच्चों पर जरूरत से ज्यादा बोझ डालती है. भारतीय संस्कृति सिर्फ बच्चों पर ही कई तरह की पाबंदी लगाती है. हमारी भारतीय संस्कृति में नियम है कि बच्चा घर आने वाले हर इंसान के पैर छुए. पर क्यों? जरूरत यह है कि आप अपनी इज्जत इस तरह की बनाएं कि बच्चा खुद आप की इज्जत करना चाहे.

इतना ही नहीं, हमारे यहां एक नई संस्कृति पैदा हो गई है, वह है रिऐलिटी शो. मातापिता अपने सपनों को अपने बच्चों के माध्यम से पूरा होते देखने के लिए उन्हें रिऐलिटी शो में भेज कर उन का भविष्य बरबाद कर रहे हैं.

आप मानते हैं कि टीवी पर प्रसारित हो रहे रिऐलिटी शो में बच्चों को ला कर उन के भविष्य के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है तो इस के खिलाफ कोई मुहिम क्यों नहीं चलाते?

मैं सरकार को कई पत्र लिख चुका हूं पर सरकार ने मेरे एक भी पत्र का जवाब नहीं दिया. इसलिए अब मैं इस मुहिम को स्कूल प्रिंसिपल के साथ मिल कर चला रहा हूं. मैं ने 2 हजार स्कूल के प्रिंसिपल से बात की है. उन से कहा है कि वे अपने स्कूल के बच्चों को बाहर न जाने दें. जब स्कूल के प्रिंसिपल बच्चे को इजाजत नहीं देंगे तो बच्चे रिऐलिटी शो के साथ नहीं जुड़ पाएंगे. तभी बदलाव आएगा. मैं ने 2 फिल्में बनाईं. मैं ने कभी भी 4 घंटे से ज्यादा बच्चों से काम नहीं करवाया. मगर रिऐलिटी शो वाले तो 12 घंटे और लगातार कई माह तक काम करवाते हैं, जो कि गलत है. स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे को रिऐलिटी शो में आने से शोहरत तो मिलती है पर यह शोहरत सिर्फ चंद दिनों की ही होती है.

बाद में वह डिप्रैशन का शिकार हो जाता है. यह समाज की बीमारी हो गई है. इस पर अंकुश लगाने की जरूरत है.

तो क्या बच्चों का डांस वगैरह सीखना गलत है?

ऐसा मैं ने कब कहा. कला सीखना आसान नहीं है. जब एक बच्ची लगातार 12 साल तक भरतनाट्यम सीखती है, तब उस का पहला डांस का कार्यक्रम होता है. उस के बाद भी सीखते रहना पड़ता है. इस में तुरंत शोहरत नहीं मिलती. तुरंत शोहरत पाने का जो मसला है, उस पर मैं रिसर्च कर रहा हूं. आगे चल कर इस पर फिल्म बनाऊंगा.

मैं ने भी बच्चों को ले कर फिल्म बनाई. हम ने पूरी फिल्म बच्चों की स्कूल की छुट्टियों में फिल्माई है. किसी भी बच्चे की पढ़ाई का कोई नुकसान नहीं हुआ.

बच्चों के बीच थिएटर व सिनेमा का ज्ञान बांटते समय आप के क्या अनुभव होते हैं?

अच्छे अनुभव ही हो रहे हैं. मैं ने इन बच्चों को पूरा ईरानी सिनेमा दिखाया. ईरान के फिल्मकार मजीद मजीदी ने तो तमाम बाल फिल्में बनाई हैं. मैं चार्ली चैप्लिन की फिल्में भी बच्चों को दिखाता हूं. इस के अलावा विश्व के जो बड़ेबड़े फिल्मकार हैं, उन की फिल्में भी हम इन बच्चों के साथ बैठ कर देखते हैं. उस के बाद उस पर चर्चा करते हैं. फिर हम लोग अपना स्क्रीनप्ले लिखते हैं और फिल्म बनाते हैं. हमारी ये फिल्में 5 से 10 मिनट की होती हैं.

मैं इस बात में यकीन नहीं करता हूं कि ये गरीब बच्चे हैं, इसलिए इन्हें वोकेशनल टे्रनिंग दे कर कारपेंटर बना दें या फिल्म इंडस्ट्री में स्पौट बौय बना दें. मेरा मानना है कि इन बच्चों को तो फिल्म बनानी चाहिए. ऐसे बच्चे गरीब होने की वजह से लाइट बौय क्यों बनें? ऐसे बच्चे फिल्म निर्देशक बनें, तो बेहतर होगा.

बच्चों के साथ शूटिंग करते समय किस तरह की समस्याएं सामने आती हैं?

समस्याएं तो नहीं आईं मगर हम जब बच्चों के साथ काम करते हैं तो कुछ बातों का खयाल रखते हैं. सब से पहली बात हम उन के साथ ज्यादा समय तक काम नहीं करते. मेरा मानना है कि बच्चों के स्वास्थ्य का खयाल रखना बहुत जरूरी होता है.

ईरानी सिनेमा में बच्चों को ले कर तमाम फिल्में बनाई गई हैं पर भारत में बाल फिल्में न के बराबर बनती हैं?

मैं ऐसा नहीं मानता. भारत में भी बाल फिल्में बनती हैं पर वे बच्चों तक पहुंच नहीं पातीं. चिल्ड्रेन फिल्म सोसायटी हर साल 4 फिल्में बनाती है. सब से बड़ा सवाल यह है कि ये बाल फिल्में दिखाई कहां जाएं? किसे दिखाएं? हमारे यहां का दर्शक ‘ग्रैंड मस्ती’ जैसी फिल्में देखने में व्यस्त है. हमारे यहां बच्चों की फिल्मों के नाम पर ‘चिल्लर पार्टी’ जैसी फिल्में बनती हैं. मेरी नजर में यह फिल्म सही नहीं थी. इस में जिस तरह से चड्ढी वगैरह दिखाई गई थी, वह गलत है.

इन दिनों आप चिल्ड्रेन फिल्म सोसायटी से जुड़े हुए हैं. चिल्ड्रेन फिल्म सोसायटी फिल्मों को दिखाने को ले कर क्या कोई कदम उठा रही है?

मेरी कोशिश है कि स्कूल बच्चों को एक विषय की तरह बाल फिल्में दिखाने के लिए मल्टीप्लैक्स में ले जाएं. ‘चिल्ड्रेन फिल्म सोसायटी’ ने बच्चों के लिए तमाम बेहतरीन फिल्में बनाई हैं. मैं तो चाहता हूं कि हर स्कूल में सिनेमा एक विषय होना चाहिए. सिनेमा को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाना चाहिए.

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