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भारत भूमि युगे युगे

फिर घिसापिटा मुद्दा

चंद चाटुकारों से घिरे राहुल गांधी को जब कुछ नहीं सूझता तो वे दलितों के हक की राजनीति करने लगते हैं. इसी झोंक में वे भीमराव अंबेडकर की जन्मस्थली महू जा पहुंचे और ऐसी बातें कर डालीं मानो कांग्रेसी राज में दलित बड़े सुकून से रहते थे जो भाजपा के राज में उन से छिन गया है. इस घिसेपिटे मुद्दे से अब आम लोगों को वितृष्णा सी हो चली है कि जाने क्यों नेता सलीके की बात नहीं करते. रैली और भाषण के बाद राहुल के खास सिपहसालार ज्योतिरादित्य सिंधिया ने राहुल की तारीफ करने में फुरती दिखाई तो लोग यह पूछते नजर आए कि दलित अत्याचारों के मामले में वे पहले अपने इलाके ग्वालियरचंबल में झांक लें जहां देश में सब से अधिक दलित अत्याचार होते हैं.

जनता के आम

दूसरे के घर या राह चलते पत्थर मार कर आम तोड़ने का मजा ही कुछ और है. चोरी के ये आम बडे़ स्वादिष्ठ लगते हैं क्योंकि ये मेहनत और चालाकी से हासिल किए जाते हैं. जिन के आंगन में आम लगे होते हैं वे गरमी के दिनों में आम के सीजन में सो नहीं पाते कि जाने कब उन के घर कहीं से सनसनाता पत्थर आए और धड़ाम की आवाज सुनाई दे, आम टूटे न टूटे पर खिड़की के कांच टूट गए तो हजारों रुपए का चूना लग जाता है. एक दिलचस्प इलजाम बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर जीतनराम मांझी ने लगाया कि सीएम हाउस के आम, कटहल, लीची वगैरह की हिफाजत के लिए 25 सदस्यीय पुलिस टीम तैनात की गई है जिस का मकसद उन्हें फल खाने से रोकना है. आरोपप्रत्यारोप राजनीतिक हैं लेकिन इस सवाल का जवाब नहीं मिला कि सरकारी आवासों में लगे फलदार वृक्षों पर हक किस का है और इन की हिफाजत पर क्यों लाखों रुपए खर्च किए जाते हैं. इस से तो अच्छा है कि आम तोड़ कर आम जनता में बांट दिए जाएं. वैसे, मांझी वक्त रहते मुख्यमंत्री निवास खाली कर देते तो इस विवाद और पहरेदारी की जरूरत ही न पड़ती.

दो दाढ़ी, एक तिनका

अभिनेता अमिताभ बच्चन और पूर्व केंद्रीय मंत्री जगदीश टाइटलर दोनों की दाढि़यां एक ही स्टाइल की हैं पर इस का 1984 के दंगों के बारे में अमिताभ के दिए गए गोलमोल बयान से कोई संबंध नहीं. इस से पहले अमिताभ यह मशवरा देने के बाद भी चर्चा में रहे थे कि सबकुछ करना पर किसी से पंगा मत लेना, तब उन का इशारा बोफोर्स घोटाले की तरफ था. 1984 के दंगों में किस की क्या भूमिका थी इस के अब कोई माने नहीं. 30 साल बहुत होते हैं किसी हादसे को भूलने के लिए पर जाने क्यों सिख समुदाय टाइटलर को माफ नहीं कर पा रहा है इसलिए उन्हें क्लीन चिट मिलते ही हायहाय करते कांग्रेस मुख्यालय पहुंच गया. इस बहाने ही सही, दिल्ली के अकबर रोड पर कुछ हलचल तो दिखी और अमिताभ बच्चन भी एक और पंगा लेने से बच गए.

दीदी, ज्यादा हो गया

उमा भारती 5 जून को जयपुर में थीं, आयोजन जल संरक्षण से ताल्लुक रखता सरकारी था. सो, मौजूद लोग उमस और गरमी के मारे ऊंघ रहे थे कि जलक्रांति पर भाषणबाजी होती रहेगी और चायनाश्ते के बाद सभी अपनेअपने घर चले जाएंगे  पर एकाएक ही बिड़ला सभागार में मौजूद लोगों की सुस्ती छू हो गई जब उमा भारती ने तेज आवाज में प्रधानमंत्री की तारीफ में कसीदे गढ़ते यह कहा कि नरेंद्र मोदी मसीहा हैं जो हजारों साल बाद जन्म लेते हैं, उन्हें देश के बारे में सब पता है, उन के पास हर समस्या का समाधान है. उमा पूरी तरह मोदी को भगवान टाइप का नेता साबित कर पातीं, इस के पहले ही आवाजें आने लगीं कि दीदी, ज्यादा हो गया. तब उन्हें समझ आया कि यह भागवत कथा नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक आयोजन है. उमा का इरादा इंदिरा इज इंडिया और इंडिया इज इंदिरा का नारा देने वाले चाटुकार को पछाड़ने का रहा हो तो बात हैरानी की नहीं होनी चाहिए क्योंकि चाटुकारिता भी आजकल अनलिमिटेड होती है.

चंचल छाया

तनु वेड्स मनु रिटर्न्स

मुंबई की फिल्म इंडस्ट्री अब ऐसे बच्चों के हाथों में आ गई है जो न परिवार को जानतेसमझते हैं, न जिन्हें सामाजिक मुद्दों से कोई सरोकार है. हिंदीअंगरेजी की खिचड़ी में बढ़ी यह जमात कुछ क्षण हंसने वाली और 140 कैरेक्टर से ज्ञान लेने वाली है और आजकल इसी तरह की फिल्में बना रही है. बड़े बैनर तले बनी अच्छे सितारों के साथ ‘तनु वेड्स मनु’ में थोड़ीबहुत कहानी और सामान्य मध्यवर्ग की समस्याओं का आईना था, यहां उस के रिटर्न्स में यह आईना सरकारी टेढ़ेमेढ़े आईनों की तरह है जिन में किसी का अक्स नहीं दिखता. पूरी फिल्म में हर पात्र गलती करता चला जाता है और निर्मातानिर्देशक गलती को गलत न मानते हुए सामान्य मानता चलता है. विवाह टूटता है, पति पागलखाने में भेज दिया जाता है, पत्नी दूसरों पर डोरे डालने लगती है, पति उस की एक हमशक्ल महिला पर लट्टू हो जाता है, हमशक्ल बिना कारण प्रेम को स्वीकार कर लेती है, पत्नी पति के दूसरे विवाह में जबरन घुस जाती है आदि बेतुकी बातों को बढि़या ढंग से फिल्माया गया है. ऐसा लगता है कि पांचसितारा भव्य शादी में चमचम फोटो पर विवाह तोड़ने की नई आकर्षक दिखती रैसिपी परोस दी गई हो. मुबई फिल्म निर्माताओं ने मान लिया है कि उन्हें फिल्म और उस की बहनों टीवी, कंप्यूटर व मोबाइल स्क्रीनों को देखने वालों की मानसिक भूख से कोई लेनादेना नहीं है. वह तो मात्र बार डांसर है. शराब छलकाओ, ठुमके दिखाओ, 125 मिनट मन बहलाओ, बस. फिल्म में कंगना राणावत ने अपने दोनों रोलों में अच्छा अभिनय किया है पर फिल्म दी एंड होते ही दिमाग से बाहर हो जाती है. 4 साल पहले आई ‘तनु वेड्स मनु’ में कंगना राणावत की परफौर्मेंस दर्शकों को बहुत भाई थी. उस के बाद फिल्म ‘क्वीन’ में भी कंगना ने शीर्ष अभिनय किया और वह बौलीवुड की क्वीन बन गई.

हां, अगर यह सोच कर फिल्म बने कि फिल्म चाहे कैसी भी हो, उस की कहानी और उसे कहने का अंदाज ऐसा होना चाहिए कि दर्शक उस से खुद को जुड़ा महसूस कर सकें तो निर्माता सफल है. ‘तनु वेड्स मनु रिटर्न्स’ की कहानी एकदम सीधी है, ‘पति, पत्नी और वो’ वाली कहानी है कि हर कोई एकदूसरे को खाने को तैयार लगता है. यह फिल्म कानपुर शहर के गलीमहल्लों और उन में रहने वाले किरदारों का बारीकी से चित्रण करती है.

फिल्म की कहानी पिछली फिल्म से आगे बढ़ती दिखाई गई है. तनु उर्फ तनूजा त्रिवेदी (कंगना राणावत) की शादी लंदन बेस्ड डाक्टर मनु उर्फ मनोज शर्मा से हो चुकी है. शादी को 4 साल हो गए हैं. अब उन दोनों के बीच नोकझोंक शुरू हो चुकी है. बात तलाक तक पहुंच चुकी है. दोनों की काउंसलिंग होती है. काउंसलिंग के वक्त मनु एग्रैसिव हो जाता है. उसे पागलखाने भेज दिया जाता है. तनु अपने घर कानपुर लौट आती है. उधर मनु का दोस्त पप्पी (दीपक डोबरियाल) मनु को पागलखाने से छुड़ा कर वापस कानपुर ले आता है. तनु के घर में रह रहा एक किराएदार (मोहम्मद जीशान अयूब) पेशे से वकील है. वह तनु की तरफ से मनु को तलाक का नोटिस भेजता है. उधर मनु को दिल्ली जाना पड़ता है. वहां उस की मुलाकात हरियाणा के झज्जर जिले की ऐथलीट कुसुम उर्फ दत्तो (कंगना की दूसरी भूमिका) से होती है. कुसुम की शक्ल तनु से मिलतीजुलती है. मनु को उस से प्यार हो जाता है. परिस्थितियां इस प्रकार घटती हैं कि तनु की मुलाकात अपने पुराने प्रेमी राजा अवस्थी (जिमी शेरगिल) से होती है. वह तनु को बताता है कि उस का पति मनु कुसुम से प्यार की पींगें बढ़ा रहा है और वह उस की और कुसुम की शादी में बहुत बड़ा रोड़ा बना हुआ है. तनु राजा के साथ कुसुम के घर पहुंच जाती है जहां मनु और कुसुम की शादी की तैयारियां हो रही होती हैं. वह अपने पति की शादी में जम कर नाचती है लेकिन उस के अंदर टीस भी है. आखिरकार ऐन फेरों के वक्त मनु अपना फैसला बदल लेता है और फिर से तनु को अपना लेता है. फिल्म की यह कहानी और इस की पटकथा काफी सिरफिरी है. पर फिल्म का निर्देशन अच्छा है. पूरी फिल्म कंगना के कंधों पर है और उस ने इसे बखूबी संभाला है. आर माधवन ने एक पति और प्रेमी दोनों भूमिकाओं को बखूबी निभाया है. परदे पर पप्पी (दीपक डोबरियाल) अच्छा लगा है. राजा अवस्थी की भूमिका में जिमी शेरगिल का काम भी अच्छा है. फिल्म के संवाद अच्छे हैं. ‘मैं कोई संतरा हूं कि रस भर जाएगा’ और ‘पिछली बार भैयादूज पर सैक्स किया था’ जैसे संवाद गुदगुदाते हैं. पप्पी की प्रेमिका की शादी में पप्पी, मनु और कुसुम का जाना और वहां से पप्पी की प्रेमिका को उठा लाने वाला प्रसंग ठहाके लगाने के लिए रखा गया है. फिल्म का गीतसंगीत अच्छा है. कोई भी गीत ठूंसा गया नहीं लगता. फिल्म का छायांकन काफी अच्छा है.

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बौंबे वेलवेट

इस साल की सब से महंगी (लगभग 120 करोड़ रुपए) फिल्म ‘बौंबे वेलवेट’ का बुरा हश्र हुआ है. शुरू के 3 दिनों में ही दर्शक थिएटरों से गायब रहे. फिल्म का इतना बुरा हाल होगा, यह किसी ने सोचा न था. इस की सब से बड़ी वजह फिल्म की कहानी बताने का खराब तरीका रही. फिल्म का म्यूजिक भी दर्शकों को नहीं जमा. दर्शक फिल्म से जुड़ नहीं पाए. फिल्म फटा वेलवेट खाली वालेट बन कर रह गई. गुजरे जमाने को हूबहू परदे पर दिखाना आसान काम नहीं होता. पूरे के पूरे शहर को पुराने जमाने जैसा बनाया जाता है. शहर में चलने वाली कारें, साइकिलें, दुकानें भी वैसी ही दिखाई जाती हैं. पात्रों के कौस्ट्यूम्स, उन की बौडी लैंग्वेज को भी ठीक वैसा ही दिखाया जाता है. अनुराग कश्यप की फिल्म ‘बौंबे वेलवेट’ में 60 के दशक की मुंबई को दिखाया गया है. निर्देशक ने मुंबई को 60 के दशक जैसा दिखाने के लिए श्रीलंका में बाकायदा एक सैट बनवाया. उस वक्त शहर में चल रही ट्रामों को दिखाने के लिए उस ने उस सैट पर पटरियां बिछवाईं और ट्राम चलवाई है. विंटेज कारों को जमा कर शहर में उन्हें चलता हुआ दिखाया है. होटल में इस्तेमाल होने वाली कटलरी पर ‘बीवी’ लिखा है. इस सब पर अनुराग कश्यप ने काफी मेहनत की है. कलात्मकता की दृष्टि से फिल्म कुछ अच्छी है परंतु मनोरंजन की दृष्टि से फिल्म काफी कमजोर है.

अनुराग कश्यप की यह फिल्म इतिहासकार ज्ञान प्रकाश की पुस्तक ‘मुंबई फेबल्स’ से प्रेरित है. कहानी भारतपाक विभाजन के दौर की है. जौनी बलराज (रणबीर कपूर) अमीर बनने का ख्वाब लिए अपनी मां के साथ बौंबे आता है. वह एक बिजनैसमैन कैजाद खंबाब (करन जौहर) के बौंबे वेलवेट क्लब में मैनेजर बन जाता है. रोजी (अनुष्का शर्मा) उसी क्लब में जैज सिंगर है. बलराज को रोजी से प्यार हो जाता है. कैजाद अपराध की दुनिया का बादशाह है. उस की नजर सरकार की उस प्लानिंग पर है जिस में मुंबई को देश को बड़ा बिजनैस हब बनाने की योजना है. इस के लिए वह एक मिनिस्टर को ब्लैकमेल करता है. वह अपनी प्लानिंग को पूरा करने के लिए जौनी बलराज को इस्तेमाल करता है. लेकिन जब बलराज उस के काबू में नहीं आता तो वह उस की प्रेमिका रोजी को मरवा देना चाहता है. परंतु जौनी उस की यह मंशा पूरी नहीं होने देता. वह कैजाद को मार डालना चाहता है परंतु कैजाद और मंत्री के आदमी जौनी बलराज और रोजी दोनों को मार डालते हैं. फिल्म दुखांत है. नायकनायिका दोनों को अंत में मार डाला जाता है. फिल्म की गति बहुत धीमी है. अनुराग कश्यप ने हालांकि 60 के दशक के शहर की हर छोटीछोटी बात पर ध्यान दिया है लेकिन उस का कहानी कहने का ढंग निराशाजनक है. फिल्म में ‘गैंग्स औफ वासेपुर’ जैसी मारधाड़ व गोलीबारी भी है, मगर वह प्रभावित नहीं कर पाती. रणबीर कपूर की ऐक्ंिटग देख कर युवाओं को मजा नहीं आएगा. रोजी के किरदार में अनुष्का जंची है. करन जौहर को खलनायक की भूमिका में देख कर दिवंगत प्राण की याद ताजा हो आई. केके मेनन का काम भी अच्छा है. फिल्म का गीतसंगीत 60 के दशक जैसा ही है. सैट अच्छे हैं. छायांकन खूबसूरत है.

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कुछ कुछ लोचा है

सनी लियोनी के जिस्म को दिखाती फिल्म ‘कुछ कुछ लोचा है’ में बहुत से लोचे हैं. निर्देशक ने पूरी फिल्म में सनी लियोनी और इवलिन शर्मा को बिकिनी पहना कर दर्शकों का ध्यान उन दोनों पर केंद्रित करने की कोशिश की है. फिल्म का लोचा नं. 1, फिल्म की कहानी कमजोर है. लोचा नं. 2, फिल्म का निर्देशन कमजोर है. लोचा नं. 3, फिल्म का नायक राम कपूर बिलकुल अच्छा नहीं लगता. लोचा नं. 4, फिल्म में द्विअर्थी संवाद और घटिया जोक्स हैं. लोचा नं. 5, सनी लियोनी ऐक्ंिटग में जीरो, सैक्सी अदाएं दिखाने में ही लगी रही है. उस की डायलौग डिलिवरी भी कमजोर है. फिल्म में डबिंग दोष भी साफ नजर आता है.

अभी पिछले दिनों सनी लियोनी की ‘लैला : एक पहेली’ रिलीज हुई है, जिस में सनी ने खुल कर अंग प्रदर्शन किया. यह फिल्म भी उसी स्तर की है. अग्रिम पंक्ति के दर्शक सनी लियोनी और इवलिन शर्मा के क्लीवेज देख कर भले ही खुश हो जाएं लेकिन फिल्म में ऐसा कुछ नहीं है जो दर्शकों को अपनी ओर खींच सके. कहानी एक गुजराती बिजनैसमैन प्रवीन पटेल (राम कपूर) की है. वह लगभग 50 साल का है. उस की पत्नी पारंपरिक महिला है और धर्मकर्म में लगी रहती है. बेटा जिगर (नवदीप छाबड़ा) पड़ोस में रहने वाली एक लड़की नैना (एवलिन शर्मा) से प्यार करता है. प्रवीन पटेल बौलीवुड ऐक्ट्रैस शनाया (सनी लियोनी) की ओर आकर्षित हो जाता है. वह एक कौंटैस्ट जीत कर शनाया से मिलने जाता है. जाने से पहले वह अपनी पत्नी को कोई बहाना बना कर मायके भेज देता है. कहानी में ट्विस्ट उस वक्त आता है जब प्रवीण पटेल को शनाया के साथ अधिक से अधिक वक्त गुजारने के लिए अपने बेटे जिगर से अपने बाप की ऐक्ंिटग करने को कहना पड़ता है. नैना को उस की मां बनना पड़ता है. यहीं से प्रवीन पटेल की लाइफ में परेशानियां शुरू होने लगती हैं. अंत में शनाया उसे सबक सिखा कर छोड़ जाती है. यह फिल्म कुछकुछ सैक्स कौमेडी जैसी है. राम कपूर टीवी पर तो अच्छा लगता है परंतु इस फिल्म में उस ने निराश किया है. इवलिन शर्मा तो बदन दिखाने में सनी लियोनी से होड़ लगाती दिखी.फिल्म के संवाद चालू हैं. संवादों में गुजरातीपन झलकता है. गीतसंगीत साधारण है. पहला गाना पानी में लोटपोट करती हुई कई सुंदरियों पर फिल्माया गया है जो काफी हौट है. छायांकन अच्छा है.

नसीर का क्रिकेट ज्ञान

एक जमाने में नसीरुद्दीन शाह पैरेलल सिनेमा के सब से मजबूत स्तंभ माने जाते थे. उन्हीं के दौर में ओम पुरी, पंकज कपूर, शबाना आजमी, स्मिता पाटिल सरीखे कलाकार भी उभरे. मौजूदा दौर में सिर्फ ओम पुरी ही देशीविदेशी फिल्मों में उत्कृष्ट अभिनय की बदौलत अपना लोहा मनवा रहे हैं जबकि अन्य अभिनेता लगभग बेरोजगार से हैं. नसीर भी इसी बेरोजगारी को खत्म करने के लिए अब टीवी का रुख कर रहे हैं. खबर है कि नसीर जल्द ही एक टीवी कार्यक्रम होस्ट करते नजर आएंगे. अब क्रिकेट, जोकि पहले से ही कमाई की खान है, ऐसे कार्यक्रमों के जरिए अपने  प्रशंसकों को लुभाएगा और नसीर अपने ढलते कैरियर में कुछ कमाई कर लेंगे.

अरुणिमा पर बायोपिक

अरुणिमा राष्ट्रीय स्तर की वौलीबौल खिलाड़ी थीं. 2011 में एक दिन ट्रेन में अपराधियों ने लूटपाट के बाद उन्हें चलती ट्रेन से फेंक दिया. इस हादसे में उन की एक टांग चली गई. लेकिन हौसलों की उड़ान देखिए कि अरुणिमा विकलांगता के बावजूद माउंट एवरेस्ट की चोटी पर चढ़ने में कामयाब हुईं. 2013 में हासिल की गई इस उपलब्धि से दुनिया प्रभावित तो हुई, साथ में अभिनेता फरहान अख्तर भी इतना प्रभावित हुए कि इस साहसी खिलाड़ी के जीवन पर एक बायोपिक बना रहे हैं. इस से पहले मिल्खा सिंह के जीवन को परदे पर सफलतापूर्वक उतार चुके फरहान जानते हैं कि अरुणिमा की कहानी में फिल्मी इमोशन के सारे मसाले हैं जो हिट होने के लिए काफी हैं. बहरहाल, फरहान एक अच्छी फिल्म बनाने की कूवत रखते हैं.

रेखा का फितूर

फिल्म ‘काईपोचे’ और ‘रौकस्टार’ से चर्चित निर्देशक अभिषेक कपूर काफी अरसे से अंगरेजी फिल्म ग्रेट एक्सपैक्टेशंस पर आधारित हिंदी फिल्म ‘फितूर’ बना रहे थे. आदित्य कपूर, कटरीना कैफ और रेखा अभिनीत इस फिल्म की शूटिंग लगभग खत्म हो चुकी थी लेकिन फिल्म के कुछ दृश्यों से नाखुश रेखा ने पूरी फिल्म से ही बहिष्कार कर लिया. लिहाजा निर्माता को लाखों का चूना लगा सो लगा, ऊपर से फिल्म भी अटक गई. फिलहाल निर्माता हिम्मत कर के अभिनेत्री तब्बू के साथ रेखा वाले सीन दोबारा शूट करने की सोच रहे हैं.रेखा के इस व्यवहार से खफा निर्माता भले ही उन पर गैरप्रोफैशनल रवैए के चलते मुकदमा न करें लेकिन करोड़ों की लागत का यों जाया होना कतई ठीक नहीं है. उम्रदराज अभिनेत्री की सनक से हुआ यह नुकसान निर्माता को भारी पड़ेगा. 

बिग बी पर ठोंका केस

अमिताभ बच्चन सोशल मीडिया में काफी सक्रिय रहते हैं. लेकिन कई बार सटीक जानकारी का अभाव और सोशल मीडिया के साइड इफैक्ट किस तरह भारी पड़ जाते हैं, यह अमिताभ बच्चन को उस वक्त समझ आया होगा जब हरियाणा की एक यूनिवर्सिटी के यूथ वैलफेयर विभाग के निदेशक ने उन्हें एक लीगल नोटिस भेज कर 15 दिन में जवाब और 1 करोड़ रुपए मांगे. दरअसल, बिग बी ने अपने किसी प्रशंसक की ट्वीट की हुई कविता को अपने अकाउंट से रिट्वीट कर दिया जो काफी मशहूर हुई. कविता के मूल लेखक को यह नागवार गुजरा और उस ने यह कानूनी कदम उठाया. यों तो सोशल मीडिया में कौपीपेस्ट का काम धड़ल्ले से होता है लेकिन बड़ी हस्ती होने का नुकसान बिग बी को उठाना पड़ रहा है. 

खेल खिलाड़ी

फीफा में भ्रष्टाचार

अतर्राष्ट्रीय फुटबाल महासंघ यानी फीफा के 7 अधिकारियों को स्विट्जरलैंड के जांच अधिकारियों ने भ्रष्टाचार, पैसे की कालाबाजारी और फीफा में 2 दशक तक धोखाधड़ी के आरोपों में गिरफ्तार कर लिया गया. इन अधिकारियों पर 10 करोड़ डौलर यानी तकरीबन 6 अरब 40 करोड़ रुपए से अधिक की रिश्वत लेने का आरोप है. अधिकारियों की गिरफ्तारी के बाद फीफा के अध्यक्ष सैप ब्लाटर पर उंगली उठने लगीं कि उन्हें अब पद छोड़ देना चाहिए. लेकिन अध्यक्ष पद के लिए हुए चुनाव में ब्लाटर 5वीं बार चुनाव जीत गए. चुनाव जीतने के बाद ब्लाटर ने कहा कि अमेरिका की न्यायपालिका ने जिस तरह फुटबाल की वर्ल्ड गवर्निंग बौडी को निशाना बनाया उस से वे परेशान थे. साथ ही उन्होंने यूरोपीय फुटबाल अधिकारियों के नफरत फैलाने के अभियान की भी आलोचना की. अब सवाल है कि आखिर अमेरिका फीफा में इतनी दिलचस्पी क्यों ले रहा है जबकि फुटबाल खेल को अमेरिका पसंद भी नहीं करता और क्रिकेट से तो नाता ही नहीं. जाहिर सी बात है फीफा की कमाई पर अमेरिका की नजर हो सकती है. फीफा की कमाई लगातार बढ़ रही है. पिछले वर्ष विश्वकप के सफलतापूर्वक आयोजन के बाद फीफा की 2 अरब डौलर यानी लगभग 128 अरब रुपए की कमाई हुई. पिछले 10 सालों में फीफा की कमाई में असाधारण रूप से वृद्धि हुई है. वर्ष 2006 में जब जरमनी में फीफा का विश्वकप आयोजन किया गया तो उस समय फीफा की कमाई 749 मिलियन डौलर यानी तकरीबन 48 अरब रुपए की हुई थी. रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन भी अमेरिका की इस करतूत से काफी खफा हैं. उन्होंने फीफा अधिकारियों की गिरफ्तारी को अमेरिकी एजेंडा करार दिया और कहा कि यह अमेरिका की दूसरे देशों में अपना दखल बढ़ाने की एक और खुली साजिश है. इधर, अमेरिकी अधिकारी कहते हैं कि बहुत सारे देश फीफा से त्रस्त हैं. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर घूसखोरी देख कर अमेरिकी न्याय विभाग ने कहा कि अगर कोई इस पर कार्यवाही नहीं कर रहा है तो वह खुद भ्रष्टाचार के मामलों की जांच करेगा. उधर, फीफा के पूर्व उपाध्यक्ष जैक वार्नर कहते हैं कि अमेरिका विश्वकप 2022 की मेजबानी न मिलने के कारण बदले की भावना से ऐसा कर रहा है.

हरहाल, फीफा पर लगे इस दाग से खिलाडि़यों और खेलप्रेमियों को गहरा सदमा तो लगा है. फीफा से 209 देशों के राष्ट्रीय फुटबाल संघ जुड़े हुए हैं जिन में 47 एशिया में हैं. इन में भारत का औल इंडिया फेडरेशन भी जुड़ा हुआ है. ऐसे में इस का असर भारत पर भी पड़ना लाजिमी है. भ्रष्टाचार हर देश में है और बड़ेबड़े पदों पर बैठे अधिकारियों की मंशा अब सिर्फ और सिर्फ पैसा कमाने की रह गई है. और जहां लाखोंकरोड़ों नहीं, अरबोंखरबों डौलरों की बात हो तो अमेरिका वहां दखल न दे, ऐसा हो ही नहीं सकता. अमेरिका को जहां फायदा नजर आता है वहां वह अपनी दखलंदाजी शुरू कर देता है.

डरे हुए हैं आईपीएल के आका

जिस तरह से क्रिकेट खेल का व्यवसायीकरण हुआ है उस से क्रिकेट अब खेल नहीं, बल्कि कामधेनु गाय है और इस कामधेनु गाय को बीसीसीआई यानी भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड और आईसीसी यानी अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट कौंसिल दुह रही है. इस गाय को दुहने की कोशिश एस्सेल ग्रुप के मालिक सुभाष चंद्रा ने 8 साल पहले की थी आईसीएल यानी इंडियन क्रिकेट लीग की शुरुआत कर. लेकिन धनकुबेरों के पुराने धुरंधरों ने इस की काट के लिए आईपीएल की शुरुआत कर आईसीएल को डुबो दिया. अब आईपीएल की सफलता और इस की कमाई को देख कर सुभाष चंद्रा की लार टपकने लगी है और वे फिर से आईसीएल की शुरुआत करने का संकेत दे रहे हैं. अपनी पुरानी गलतियों से सबक लेते हुए इस बार वे फूंकफूंक कर कदम रख रहे हैं. कहा जा रहा है कि आईसीसी और बीसीसीआई से बचने के लिए न्यूजीलैंड, आस्ट्रेलिया और स्कौटलैंड जैसे देशों में समानांतर क्रिकेट बोर्ड का भी गठन हो चुका है और खिलाडि़यों को भी मोटे पैसे का लालच दे कर जोड़ने का काम किया जा रहा है.इधर, भारत और पाकिस्तान के बीच क्रिकेट सीरीज बहाल हो, इस के लिए भी कोशिशें जारी हैं क्योंकि दोनों देशों के बीच जब भी मुकाबला होता है, कमाई जम कर होती है. माना जा रहा है कि इस वर्ष विश्वकप क्रिकेट के लीग मुकाबले के लिए एक वर्ष पूर्व ही टिकट बिक गए थे. ऐसे में आईपीएल के आका भी चाह रहे हैं कि दोनों देशों के बीच मुकाबला हो. मुंबई हमले के बाद भारत और पाकिस्तान क्रिकेट का रिश्ता टूटे कई वर्ष बीत चुके हैं. इस कारण पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड की आर्थिक हालत काफी खराब हो चुकी है. बीसीसीआई के आका भी चाहते हैं कि दोनों देशों के बीच क्रिकेट सीरीज बहाल हो. बीसीसीआई में अनुराग ठाकुर सचिव पद पर काबिज हैं, अरुण जेटली और अमित शाह भी क्रिकेट राजनीति के पुराने खिलाड़ी हैं. ये लोग चाहते तो हैं कि भारतपाक के बीच क्रिकेट सीरीज बहाल हो पर पार्टी स्टैंड इस की अनुमति नहीं दे रहा है. इसलिए मजबूरी में ये भी चुप्पी साधे हुए हैं. इस से बड़ी परेशानी बीसीसीआई को यह सता रही है कि कहीं आईसीएल ने फिर से सिर उठा लिया तो अंधी कमाई का हिस्सा आईसीएल की झोली में न चला जाए.

महामूर्ख गधा परंतु उत्तम स्मरणशक्ति

बड़े आश्चर्य की बात है कि घासफूंस पर निर्वाह करने वाला, हर मौसम में अथक भार ढोने वाला तथा संसार में सब से मूर्ख कहलाने वाला प्राणी गधा उत्तम स्मरणशक्ति रखता है. बहुत से देशों में जटिल परिस्थितियों में गधा एक श्रेष्ठतर भार ढोने वाला जानवर माना जाता है. भारी यातायात में भी यह भयभीत नहीं होता और पीछे मुड़ कर नहीं देखता. गधे की औसत आयु लगभग 50 वर्ष है. घोड़े के मुकाबले में गधा अधिक शक्तिशाली है तथा कम मूल्य पर उपलब्ध है. यह झुंड में रहना पसंद करने वाला जानवर है. अधिक वर्षा इस के स्वास्थ्य के अनुकूल नहीं है. गधा हठी प्रकार का जानवर है, परंतु इसे आसानी से साधा जा सकता है. यह तंग से तंग जगह पर भी चल सकता है तथा मुड़ सकता है. एक अनुमान के अनुसार, गधे का मरुस्थल से गहरा संबंध है. मरुस्थल में यह अपने लंबे कानों के कारण दूसरे गधे की आवाज 10 मील की दूरी से सुन सकता है. लंबे कान इस को ठंडा रखने में भी सहायता करते हैं. गधा अपने 30 साल पुराने साथी गधे को आसानी से पहचान लेता है. गधा (जैक) और घोड़ी तथा घोड़ा और गधी (जैनी) मिल कर खच्चर को जन्म देते हैं (नर अथवा मादा). गधी 12 मास में बच्चा देती है. उत्तर प्रदेश के सहारनपुर तथा मेरठ में सेना के रिमाउंट डिपो में इस प्रकार पैदा खच्चरों को लड़ाई का सामान ले जाने के लिए तैयार किया जाता है.

संसार के बहुत से देशों में गधा एक निर्धन परिवार की आय का साधन है. यह पानी ढोने, लकड़ी ढोने, खेती के कुछ काम करने, रेलवे माल गोदाम से कोयला ढोने, धोबी द्वारा मैले कपड़े घाट तक ले जाने, गीले कपड़े वापस लाने, कुम्हार के लिए मिट्टी लाने, घड़े बाजार तक ले जाने तथा अनाज को मंडियों तक पहुंचाने का काम करता है. भेड़बकरी के झुंड की रखवाली के लिए गधे को अधिक पसंद किया जाता है. भेड़बकरी के झुंड में प्रवेश के कुछ दिन बाद, गधा उन में घुलमिल जाता है. उस के बाद गधा अपने बच्चों की तरह उन की लोमड़ी, भेडि़या तथा कुत्ते आदि से रक्षा करता है. भेड़बकरी की तरह गधा भी शाकाहारी है तथा उन के साथ यह भी घास चरता रहता है. यद्यपि कुत्ते के लिए अलग प्रकार के भोजन की आवश्यकता है. यदि कोई जानवर हमला करता है तो गधा उस को अपने पैर से ठोकर मार कर भगा देता है. एक अनुमान के अनुसार, संसार में गधों की संख्या 4 करोड़ से अधिक है. 1495 में जब कोलंबस अपनी दूसरी जलयात्रा पर अमेरिका आया तो वह कुछ गधे अपने साथ लाया था. अमेरिका में हवाई नाम का एक प्रदेश है, इस में 9 द्वीप हैं. किसी समय यहां केवल आदिवासी रहते थे, सड़कों का नामोनिशान नहीं था, चारों ओर समुद्र या ज्वालामुखी पहाड़ थे, आज भी कई जगह पर जमीन से धुआं निकलता रहता है. ऐसे में केवल गधा ही वहां यातायात का एकमात्र साधन था. अब बहुत विकास हो चुका है. वहां देशविदेश से पर्यटक घूमने के लिए जाते हैं. सड़कों के बनने से ट्रक दौड़ते नजर आते हैं, ऐसे में गधों को लावारिस मरने के लिए छोड़ दिया गया है. सड़कों पर जगहजगह साइड वौक की तरह क्रौसिंग बने हुए हैं जिन पर लिखा है, सावधान! डौंकी क्रौसिंग. कार में सफर के दौरान गधों के झुंड को क्रौसिंग को पार करते हुए देखा जाता है.

इथोपिया की राजधानी अदीस अबाबा में गधा यातायात का एक अच्छा साधन है. इथोपिया में गधों की संख्या 50 लाख से अधिक है. पहाड़ी तंग रास्तों और नदीनालों के कारण अच्छी सड़कों का वहां अभाव है. ऐसे स्थान पर जहां घोड़ा या ऊंट नहीं पहुंच सकता वहां गधे द्वारा आसानी से सामान पहुंचाया जा सकता है. यह भीड़ से भी नहीं घबराता, जबकि ट्रक के चालक हौर्न बजाते रहते हैं. गधा अपना मार्ग स्वयं बना लेता है. गधा वनवे सड़क पर भी यदि सड़क की दूसरी ओर से अंदर आ जाता है तो भी इस का चालान नहीं होता. बुधवार तथा शनिवार को पैंठ (हाट) लगती है तथा गांवों से हजारों की संख्या में व्यापारी गधों पर सामान लाद कर बेचने के लिए अदीस अबाबा लाते हैं. कभी मालिक उन के साथ तो कभी पीछेपीछे चलते हैं और उन को भगाते हैं ताकि समय पर बाजार पहुंचा जा सके. गधों का कोई मजदूर संगठन नहीं है, इस कारण साप्ताहिक अवकाश की कल्पना करना निराधार है.

गधा एक, गुण अनेक

गधे के रखरखाव तथा खाने का खर्च बहुत कम है. गधे को घोड़े की तुलना में अधिक बुद्धिमान माना गया है. दिशा और मार्ग के विषय में गधे की स्मरणशक्ति बहुत तेज है. तारीफ उस की, जिस ने गधा बनाया. मूर्ख तो कहलवाया, परंतु रास्ता नहीं भुलाया. यह अकेला लगभग 10 मील सामान ले कर आजा सकता है, आवश्यकता केवल इतनी है कि कोई व्यक्ति एक ओर सामान लाद दे और दूसरी ओर उतार ले. इसी कारण चलते समय गधे के गले में पड़ी घंटी बजती रहती है, ताकि माल उतारने और लादने वाला सावधान रहे. इतना सख्त काम करते हुए यदि कोई दुर्घटना हो जाती है तो रोगी गधे की पास के नगर में स्थित पशु चिकित्सालय में चिकित्सा की जाती है. गधों की दुर्दशा को देखते हुए कुछ वर्ष पहले लूसी नाम की यूके की रहने वाली एक महिला ने ‘सेफ वाहन फौर डौंकीज’ नाम से एक संस्था खोली थी. दानवीरों की सहायता से यहां घायल तथा बीमार गधों का निशुल्क उपचार होता है. लूसी का कहना है कि उपचार के बाद रोगी गधे को आराम मिलता है तथा उस की आयु भी बढ़ जाती है.

बहुत सस्ती घास खा कर तथा इतना कठिन काम करने के बाद भी गधा उपहास का पात्र बना रहता है और मूर्ख कहलाता है. आप ने लकड़हारे तथा नाई की कहानी में पाया होगा – जब नाई बीच सड़क पर गधे की हजामत करता है, उस समय भी दर्शक गधे का मजाक उड़ा रहे होते हैं. नकल के लिए बुद्धि आवश्यक है. एक व्यापारी घोड़े पर नमक तथा गधे पर रूई लाद कर नगर में बेचने के लिए ले जा रहा था. रास्ते में तालाब देख कर चालाक घोड़ा पानी पीने के बहाने उस में घुस गया, तालाब से निकलने के बाद घोड़े पर लदा भार (पानी में नमक घुलने से) कम हो गया था. इस के बाद गधा भी पानी के तालाब में घुस गया, जब गधा तालाब से बाहर निकला तो पानी भरने के कारण उस पर लदी रूई का भार बहुत अधिक हो गया था.

गधी का दूध और उस के गुण

मां के दूध की तरह गधी के दूध में विटामिन तथा चिकनाई कम, परंतु लैक्टोस अधिक मात्रा में पाया जाता है. एक गधी एक समय में 6-10 औंस दूध देती है. श्वासरोग विशेषज्ञों के अनुसार, गधी का दूध दमा और श्वसनरोग से पीडि़त नवजात शिशु के लिए बहुत लाभकारी है. वैद्य भी दमा से पीडि़त शिशु को गधी का दूध देने का सुझाव देते हैं. अब कई नगरों में खानाबदोश गधी का दूध बेच कर अच्छी कमाई कर रहे हैं. एक भारतीय समाचारपत्र के अनुसार, आंध्र प्रदेश में एक लिटर गधी के दूध का मूल्य 2 हजार रुपए तक बताया जाता है. भूमध्यरेखा के पास रहने वालों के अनुसार, उन की दीर्घ आयु का रहस्य गधी के दूध का सेवन है. इस विषय में न्यूट्रीशनिस्ट्स ने संसार की सब से वृद्ध महिला मरिया इसथर का उदाहरण दिया है जिस की मृत्यु 116 वर्ष की आयु में हुई थी. मिस्टर डेनिस की यूरोपियन डेरी 1 वर्ष में लगभग 2,500 लिटर गधी के दूध का उत्पादन करती है, जिस में से कुछ तो कौस्मैटिक बनाने के काम आता है, बाकी घरों में इस्तेमाल होता है. डेनिस के अनुसार, गाय के मुकाबले गधी का दूध कीटाणु रहित, हलका तथा अधिक सफेद होता है. फ्रांस तथा बेल्जियम में सफलता के बाद अब गधी के दूध की मांग अमेरिका में भी होने लगी है. सुना जाता है कि मिस्र की महारानी क्लियोपेट्रा बहुत सुंदर थी, वह एक समय के स्नान के लिए 500 से अधिक गधियों का दूध प्रयोग करती थी. दूध का इतना महत्त्व है कि माता अपने पुत्र को युद्ध में भेजते समय बडे़ गर्व से कहती थी, तू ने राजपूतनी का दूध पिया है, विजय प्राप्त कर के ही घर लौटना. आश्चर्य की बात है कि गधी को मूर्ख बताने वाला भारतीय समाज उसी गधी के दूध को अपने बच्चों को स्वस्थ रखने के लिए प्रयोग कर रहा है. यह जानवर मानव समाज के लिए बहुत उपयोगी है, सो, इस के रखरखाव व स्वास्थ्य की ओर ध्यान देना जरूरी है. भारत के लोगों को यह पढ़ कर आश्चर्य होगा कि अमेरिका के लोग अपने बच्चों से अधिक पालतू जानवरों को प्यार करते हैं. इस से भी अधिक आश्चर्य की बात यह है कि इन की पालतू जानवरों की सूची में गधा भी शामिल है. अमेरिकी बच्चों को तो बेबी सिटर पालती हैं जबकि पालतू जानवरों को अमेरिकी स्वयं पालते हैं और कुछ लोग तो अपने साथ काम पर भी ले जाते हैं तथा रात को उन के साथ सोते भी हैं.

मैं कार से जाते हुए एक मकान के बैकयार्ड में अकसर 2 गधों को चरते देखता हूं. इंगलैंड में तो गधा विकलांगों की सवारी के तौर पर भी प्रयोग किया जाता है. चीन के कुछ होटलों में जीवित गधे के शरीर से मांस के टुकड़े काट कर, पका कर ग्राहकों को परोसा जाता है. होटल के एक भाग में गधे के शरीर से मांस काटते समय उस की पीड़ा की आवाज को ग्राहक भली प्रकार सुन सकता है. स्पेन तथा ग्रीस जैसे देशों में गधे को गधा टैक्सी में प्रयोग किया जाता है

बच्चों से जुड़ा है समाज का भविष्य

बच्चे अपने अधिकारों की लड़ाई खुद नहीं लड़ सकते. वे वोटर नहीं होते हैं. ऐसे में बहुत सारे राजनीतिक दल उन की लड़ाई नहीं लड़ते. कई घरपरिवार बच्चों का बचपन छीन कर उन को मेहनतमजदूरी में लगा देते हैं जिस से वे न अपना बचपन जी पाते हैं, न ही अपनी स्कूल की पढ़ाई पूरी कर पाते हैं. बच्चों के अधिकार और जरूरतों को ले कर सरकारी स्तर पर बहुत सारी योजनाएं चल रही हैं. लेकिन जमीनी स्तर पर उन का बहुत प्रभाव नहीं पड़ रहा है. 2005 में बाल अधिकार ऐक्ट पास हुआ पर बाल आयोग का गठन 2013 में किया गया. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने समाजसेवी, राजनेता व महिला मुद्दों की जानकार जूही सिंह को बाल आयोग का पहला अध्यक्ष बनाया. जूही सिंह ब्यूरोक्रैट परिवार से हैं. मूलरूप से वे फैजाबाद जिले की रहने वाली हैं. लखनऊ से ले कर लंदन तक उन की पढ़ाई हुई है. पेशे से चार्टर्ड अकाउंटैंट जूही सिंह से खास बातचीत हुई. पेश हैं अंश :

बाल आयोग बच्चों की किस प्रकार मदद कर सकता है?

बच्चे के गर्भ में आने से ले कर 18 साल की उम्र तक उस के जो भी  अधिकार हैं, वे बाल आयोग के दायरे में आते हैं. इन में बच्चों का न्यूट्रीशन, खानपान, पढ़ाई और उन के खिलाफ होने वाले अपराध सभीकुछ शामिल हैं. बाल आयोग सरकारी विभागों से बच्चों के लिए चल रही योजनाओं की प्रगति का हिसाब मांग सकता है, उस की जांच कर सकता है. बेहतर ढंग से बच्चों के अधिकारों को कैसे समझा जाए, इस की रिपोर्ट बाल आयोग के द्वारा सरकार और शासन को सौंपी जाती है.  

सरकारी स्तर पर तमाम तरह की योजनाएं तैयार होती हैं. उन का जमीनी प्रभाव क्यों नहीं पड़ता?

मुझे 2 तरह की परेशानियां समझ में आती हैं. एक तो कई योजनाओं की जानकारी संबंधित अधिकारी को नहीं होती. दूसरे, जनप्रतिनिधियों को जिस तरह से काम करना चाहिए वे उस तरह काम नहीं करते. केवल सत्तापक्ष की आलोचना करने से ही विकास नहीं हो सकता. हर जनप्रतिनिधि को विकास और जनता को राहत देने वाले काम में सहयोग करना चाहिए. जनता के लिए बनी योजनाओं को जिस संवेदनशीलता के साथ लेने की जरूरत होती है, उन को लिया नहीं जाता है. सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों को मिल कर जनता की भलाई वाले काम करने चाहिए. 

आप ने बच्चों की क्या परेशानियां अनुभव की हैं?

बच्चों के सामने सब से बड़ी परेशानी बालमजदूरी की है. गांव या शहर दोनों जगहों पर यह परेशानी बनी हुई है. हम ने गांव में बच्चों से बात की तो पता चला कि उन के मातापिता उन को स्कूल भेजने के बजाय खेत में मजदूरी करने को भेज देते हैं. लड़कियों के साथ भी इसी तरह की परेशानियां हैं. जब बच्चे छोटे रहते हैं तब तोे वे प्राइमरी स्कूल में पढ़ते भी हैं, जैसे ही ये बच्चे मेहनतमजदूरी करने लायक हो जाते हैं, उन का स्कूल जाना बंद हो जाता है. कम उम्र में लड़कियों की शादियां, बच्चों का नशे का शिकार हो जाना अलग तरह की परेशानियां हैं. बच्चे सामाजिक कुरीतियों और रूढि़वादी सोच का शिकार भी हो जाते हैं. 

शिक्षा अधिकार कानून का कितना लाभ बच्चों को मिल सकेगा?

शिक्षा अधिकार कानून को लागू करने में भी सामाजिक जागरूकता की आवश्यकता है. मांबाप अपने बच्चे को ले कर प्राइवेट स्कूल में जाएं. अगर प्राइवेट स्कूल बच्चे का प्रवेश लेने से मना करता है तो बाल आयोग उन की मदद करेगा. हम जल्द ही बाल आयोग की एक हैल्पलाइन नंबर शुरू करने वाले हैं जिस के जरिए बच्चों की परेशानियों की शिकायत दर्ज कराना सरल हो जाएगा. हमारे पास बच्चे और उन के मातापिता दोनों ही अपनी शिकायत ले कर आ सकते हैं. जो समस्याएं हमें पता चलेंगी, हम उन का खुद संज्ञान लेंगे. बाल आयोग सरकारी स्कूलों में मिलने वाले खाने और उस के न्यूट्रीशन को भी जांचेगा. इस के साथ बच्चों को ले कर हर तरह की रिसर्च की कोशिश भी करेगा. बच्चों के खिलाफ किसी भी किस्म की होने वाली आपराधिक घटनाओं के कारण को भी बाल आयोग समझने की कोशिश करेगा.

स्कूलों में बच्चों के पाठ्यक्रम में क्या बदलाव की जरूरत है?

सरकारी स्कूलों में बच्चों को किताबी जानकारी ही दी जाती है. मेरा मानना है कि प्राइवेट स्कूलों की तरह इन बच्चों को दूसरी सामान्य ज्ञान की किताबें भी पढ़ने को दी जाएं, जिन की सामग्री रोचक और बच्चों की रचनात्मक शक्ति को उभारने वाली हो और जिन को बच्चे रुचि से पढ़ सकें. स्कूलों में जरूरत है कि बच्चों को उन की रुचि के विषय भी पढ़ाए जाएं. कहानियों और कविताओं के द्वारा बच्चों को पढ़ने की तरफ जोड़ा जाए. हमारे घर में ‘सरिता’ और ‘गृहशोभा’ जैसी पत्रिकाएं हमेशा से आती हैं जिन से मनोरंजन के साथसाथ बहुत सारी उपयोगी जानकारियां भी मिलती हैं.

भटकाव के बाद

संजीव का फोन आया था कि वह दिल्ली आया हुआ है और उस से मिलना चाहता है. मुकेश तब औफिस में था और उस ने कहा था कि वह औफिस ही आ जाए. साथसाथ चाय पीते हुए गप मारेंगे और पुरानी यादें ताजा करेंगे. संजीव और मुकेश बचपन के दोस्त थे, साथसाथ पढ़े थे. विश्वविद्यालय से निकलने के बाद दोनों के रास्ते अलग हो गए थे. मुकेश ने प्रतियोगी परीक्षाओं के माध्यम से केंद्र सरकार की नौकरी जौइन कर ली थी. प्रथम पदस्थापना दिल्ली में हुई थी और तब से वह दिल्ली के पथरीले जंगल में एक भटके हुए जानवर की तरह अपने परिवार के साथ जीवनयापन और 2 छोटे बच्चों को उचित शिक्षा दिलाने की जद्दोजहद से जूझ रहा था. संजीव के पिता मुंबई में रहते थे. शिक्षा पूरी कर के वह वहीं चला गया था और उन के कारोबार को संभाल लिया. आज वह करोड़ों में नहीं तो लाखों में अवश्य खेल रहा था. शादी संजीव ने भी कर ली थी, परंतु उस के जीवन में स्वच्छंदता थी, उच्छृंखलता थी और अब तो पता चला कि वह शराब का सेवन भी करने लगा था. इधरउधर मुंह मारने की आदत पहले से थी. अब तो खुलेआम वह लड़कियों के साथ होटलों में जाता था. कारोबार के सिलसिले में वह अकसर दिल्ली आया करता था. जब भी आता, मुकेश को फोन अवश्य करता था और कभीकभार मौका निकाल कर उस से मिल भी लेता था, परंतु आज तक दोनों की मुलाकात मुकेश के औफिस में ही हुई थी. मुकेश की जिंदगी कोल्हू के बैल की तरह थी, बस एक चक्कर में घूमते रहना था, सुबह से शाम तक, दिन से ले कर सप्ताह तक और इसी तरह सप्ताह-दर-सप्ताह, महीने और फिर साल निकलते जाते, परंतु उस के जीवन में कोई विशेष परिवर्तन होता दिखाई नहीं पड़ रहा था. नौकरी के बाद उस के जीवन में बस इतना परिवर्तन हुआ था कि दिल्ली में पहले अकेला रहता था, शादी के बाद घर में पत्नी आ गई थी और उस के बाद 2 बच्चे हो गए थे परंतु जीवन जैसे एक ही धुरी पर अटका हुआ था. निम्नमध्यवर्गीय जीवन की वही रेलमपेल, वही समस्याएं, वही कठिनाइयां और रातदिन उन से जूझते रहने की बेचैनी, कशमकश और निष्प्राण सक्रियता, क्योंकि कहीं न कहीं उसे यह लगता था कि उस के पारिवारिक जीवन में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं होने वाला है, सो जीवन के प्रति ललक, जोश और उत्तेजना दिनोंदिन क्षीण होती जा रही थी.

उधर से संजीव ने कहा था, ‘‘अरे यार, इस बार मैं तेरे औफिस नहीं आने वाला हूं. आज 31 दिसंबर है और तू मेरे यहां आएगा, मेरे होटल में. आज हम दोनों मिल कर नए साल का जश्न मनाएंगे. मेरे साथ मेरे 2 दोस्त भी हैं, तुझे मिला कर 4 हो जाएंगे. सारी रात मजा करेंगे. बस, तू तो इतना बता कि मैं तेरे लिए गाड़ी भेजूं या तू खुद आ जाएगा?’’ मुकेश सोच में पड़ गया. सुबह घर से निकलते समय उस के बच्चों ने शाम को जल्दी घर आने के लिए कहा था. वह दोनों शाम को बाहर घूमने जाना चाहते थे. घूमफिर कर किसी रेस्तरां में उन सब का खाना खाने का प्रोग्राम था. वह जल्दी से कोई जवाब नहीं दे पाया, तो उधर से संजीव ने अधीरता से कहा, ‘‘क्या सोच रहा है यार. मैं इतनी दूर से आया हूं और तू होटल आने में घबरा रहा है.’’

उस ने बहाना बनाया, ‘‘यार, आज बच्चों से कुछ कमिटमैंट कर रखा है और तू तो जानता है, मैं कुछ खातापीता नहीं हूं. तुम लोगों के रंग में भंग हो जाएगा.’’ ‘‘कुछ नहीं होगा, तू भाभी और बच्चों को फोन कर दे. बता दे कि मैं आया हुआ हूं. और सुन, एक बार आ, तू भी क्या याद करेगा. तेरे लिए स्पैशल इंतजाम कर रखा है.’’ उस की समझ में नहीं आया कि संजीव ने उस के लिए क्या स्पैशल इंतजाम कर रखा है. स्पैशल इंतजाम के रहस्य ने उस की निम्नमध्यवर्गीय मानसिकता की सोच के ऊपर परदा डाल दिया और वह ‘स्पैशल इंतजाम’ के रहस्य को जानने के लिए बेताब हो उठा. उस ने संजीव से कहा कि वह आ रहा है परंतु उस से वादा ले लिया कि उसे 10 बजे तक फ्री कर देगा. फिर पूछा, ‘‘कहां आना है?’’ संजीव ने हंसते हुए कहा, ‘‘तू एक बार आ तो सही, फिर देखते हैं. पहाड़गंज में होटल न्यू…में आना है. मेन रोड पर ही है.’’ मुकेश ने कहा कि वह मैट्रो से आ जाएगा और फिर फोन कर के पत्नी से कहा कि घर आने में उसे थोड़ी देर हो जाएगी. वह घर में ही खाना बना कर बच्चों को खिलापिला दे. आते समय वह उन के लिए चौकलेट और मिठाई लेता आएगा. उस की बात पर पत्नी ने कोई एतराज नहीं किया. वह जानती थी कि उस का पति एक सीधासादा इंसान है और बेवजह कभी घर से बाहर नहीं रहता. उसे अपनी पत्नी और बच्चों की बड़ी परवा रहती है.

मुकेश होटल पहुंचा तो संजीव उसे लौबी में ही मिल गया. बड़ी गर्मजोशी से मिला. हालचाल पूछे और कमरे की तरफ जाते हुए होटल के मैनेजर से परिचय कराया. मैनेजर बड़ी गर्मजोशी से मिला जैसे मुकेश बहुत बड़ा आदमी था. कमरे में उस के 2 दोस्त बैठे बातें कर रहे थे. संजीव ने उन से मुकेश का परिचय कराया. वे दोनों दिल्ली के ही रहने वाले थे. मुकेश से बड़ी खुशदिली से मिले, परंतु मुकेश शर्म और संकोच के जाल में फंसा हुआ था. होटल के बंद माहौल में वह अपने को सहज नहीं महसूस कर पा रहा था. इस तरह के होटलों में आना उस के लिए बिलकुल नया था. ऐसा कभी कोई संयोग उस के जीवन में नहीं आया था. कभीकभार पत्नी और बच्चों के साथ छोटेमोटे रेस्तराओं में जा कर हलकाफुलका खानापीना अलग बात थी. संजीव अपने दोस्तों की तरफ मुखातिब होते हुए बोला, ‘‘चलो, कुछ इंतजाम करो, मेरा बचपन का दोस्त आया है. आज इस की तमन्नाएं पूरी कर दो. बेचारा, कुएं का मेढक है. इस को पता तो चले कि दुनिया में परिवार के अतिरिक्त भी बहुतकुछ है, जिन से खुशियों के रंगबिरंगे महल खड़े किए जा सकते हैं.’’ फिर उस ने मुकेश की पीठ में धौल जमाते हुए कहा, ‘‘चल यार बता, तेरी क्याक्या इच्छाएं हैं, तमन्नाएं और कामनाएं हैं, आज सब पूरी करवा देंगे. यह मेरे मित्र का होटल है और फिर आज तो साल का अंतिम दिन है. कुछ घंटों के बाद नया साल आने वाला है. आज सारे बंधन तोड़ कर खुशियों को गले लगा ले.’’

संजीव कहता जा रहा था. ‘पहले तो कभी इतना अधिक नहीं बोलता था,’ मुकेश मन ही मन सोच रहा था. पहले वह भी मुकेश की तरह शर्मीला और संकोची हुआ करता था. दोनों एक कसबेनुमां गांव के रहने वाले थे. उन के संस्कारों में नैतिकता और मर्यादा का अंश अत्यधिक था. मुकेश दिल्ली आ कर भी अपने पंख नहीं फैला सका था. पिंजरे में कैद पंछी की तरह परिवार के साथ बंध कर रह गया था, जबकि संजीव ने मुंबई जा कर जीवन को खुल कर जीने के सभी दांवपेंच सीख लिए थे. सच कहा गया है, संपन्नता मनुष्य में बहुत सारे गुणअवगुण भर देती है, परंतु उस के अवगुण भी दूसरों को सद्गुण लगते हैं. जबकि गरीबी मनुष्य से उस के सद्गुणों को भी छीन लेती है. उस के सद्गुण भी दूसरों को अवगुण की तरह दिखाई पड़ते हैं. संजीव के एक दोस्त अमरजीत ने कहा, ‘‘आप के मित्र तो बड़े संकोची लगते हैं, लगता है, कभी घर से बाहर नहीं निकले.’’

मुकेश वाकई संकोच में डूबा जा रहा था. जिस तरह की बातें संजीव कर रहा था, उस तरह के माहौल से आज तक वह रूबरू नहीं हुआ था. वह किसी तरह के झमेले में पड़ने के लिए यहां नहीं आया था. वह तो केवल संजीव के जोर देने पर उस से मिलने के लिए आ गया था. उस ने सोचा था, कुछ देर बैठेगा, चायवाय पिएगा, गपशप मारेगा, और फिर घर लौट आएगा. रास्ते में बच्चों के लिए केक खरीद लेगा, वह भी खुश हो जाएंगे. दिसंबर की बेहद सर्द रात में भी मौसम इतना गरम था कि उसे अपना कोट उतारने की इच्छा हो रही थी. पर मन मार कर रह गया. सभी सोचते कि वह भी मौजमस्ती के मूड में है. उस ने संजीव के मुंह की तरफ देखा. वह उसे देख कर मुसकरा रहा था, जैसे उस के मन की बात समझ गया था. बोला, ‘‘सोच क्या रहा है? कपड़े वगैरह उतार कर रिलैक्स हो जा. अभी तो मजमस्ती के लिए पूरी रात बाकी है.’’ संजीव का एक दोस्त मोबाइल पर किसी से बात कर रहा था और दूसरा दोस्त इंटरकौम पर खानेपीने का और्डर कर रहा था. संजीव स्वयं मुकेश से बात करने के अतिरिक्त मोबाइल पर बीचबीच में बातें करता जा रहा था. गोया, उस कमरे में मुकेश को छोड़ कर सभी व्यस्त थे. उन की व्यस्तता में कोई चिंता, परेशानी या उलझन नहीं दिखाई दे रही थी. मुकेश व्यस्त न होते हुए भी व्यस्त था, उस के दिमाग में चिंता, उलझन और परेशानियों का लंबा जाल फैला हुआ था, जिस में वह फंस कर रह गया था. उस के जाल में उस की पत्नी फंसी हुई थी, उस के मासूम बच्चे फंसे हुए थे. उस के बच्चों की आंखों में एक कातर भाव था, जैसे मूकदृष्टि से पूछ रहे हों, ‘पापा, हम ने आप से कोई बहुत कीमती और महंगी चीज तो नहीं मांगी थी. बस, एक छोटा सा केक लाने के लिए ही तो कहा था. वह भी आप ले कर नहीं आए. पापा, आप घर कब तक आएंगे? हम आप का इंतजार कर रहे हैं.’

मुकेश के मन में एक तरह की अजीब सी बेचैनी और दिल में ऐसी घबराहट छा गई. जैसे वह अपने ही हाथों अपने बच्चों का गला घोंट रहा था, उन के अरमानों को चकनाचूर कर रहा था. पत्नी के साथ छल कर रहा था. वह उठ कर खड़ा हो गया और संजीव से बोला, ‘‘यार, मुझे घर जाना है, आप लोग एंजौय करो. वैसे भी मैं आप लोगों का साथ नहीं दे पाऊंगा.’’ ‘‘तो क्या हो गया? जूस तो ले सकता है, चिकन, मटन, फिश तो ले सकता है.’’

‘‘क्या 10 बजे तक फ्री हो जाऊंगा?’’ मुकेश ने जैसे हथियार डालते हुए कहा. ‘‘क्या यार, तुम भी बड़े घोंचू हो. बच्चों की तरह घर जाने की रट लगा रखी है. पत्नी और बच्चे तो रोज के हैं, परंतु यारदोस्त कभीकभार मिलते हैं. नए साल का जश्न मनाने का मौका फिर पता नहीं कब मिले,’’ संजीव थोड़ा चिढ़ते हुए बोला. थोड़ी देर में चिकनमटन की तमाम सारी तलीभुनी सामग्री मेज पर लग गई. मुकेश मन मार कर बैठा था, मजबूरी थी. अजीब स्थिति में फंस गया था. न आगे जाने का रास्ता उस के सामने था, न पीछे हट सकता था. संजीव उस की मनोस्थिति नहीं समझ सकता था. अपनी समझ में वह अपने दोस्त को जीवन की खुशियों से रूबरू होने का मौका भी प्रदान कर रहा था. परंतु मुकेश की स्थिति गले में फंसी हड्डी की तरह थी, जो उसे तकलीफ दे रही थी.

मुकेश के हाथ में जूस का गिलास था, परंतु जब भी वह गिलास को होंठों से लगाता, जूस का पीला रंग बिलकुल लाल हो जाता. खून जैसा लाल और गाढ़ा रंग देख कर उसे उबकाई आने लगती और बड़ी मुश्किल से वह घूंट को गले से नीचे उतार पाता. संजीव और उस के दोस्त बारबार उसे कुछ न कुछ खाने के लिए कहते और वह ‘हां, खाता हूं’ कह कर रह जाता, चिकनमटन के लजीज व्यंजनों की तरफ वह हाथ न बढ़ाता. उस के कानों में सिसकियों की आवाज गूंजने लगती, अपने बच्चों के सिसकने की आवाज… कितने छोटे और मासूम बच्चे हैं, अभी 7 और 5 वर्ष के ही तो हैं. इस उम्र में बच्चे मांबाप से बहुत ज्यादा लगाव रखते हैं. उन की उम्मीदें बहुत छोटी होती हैं, परंतु उन के पूरा होने पर मिलने वाली खुशी उन के लिए हजार नियामतों से बढ़ कर होती है.

तभी एक सुंदर, छरहरे बदन की युवती ने वहां कदम रखा. उस ने हंसते हुए संजीव के बाकी दोनों दोस्तों से हाथ मिलाया, फिर प्रश्नात्मक दृष्टि से मुकेश की तरफ देखने लगी. संजीव ने कहा, ‘‘मेरा यार है, बचपन का, थोड़ा संकोची है.’’ बीना ने अपना हाथ मुकेश की तरफ बढ़ाया. उस ने भी हौले से बीना की हथेली को अपनी दाईं हथेली से पकड़ा. बीना का हाथ बेहद ठंडा था. उस ने बीना की आंखों में देखा, वह मुसकरा रही थी. उस का चेहरा ही नहीं आंखें भी बेहद खूबसूरत थीं. चेहरे पर कोई मेकअप नहीं था, होंठों पर लिपस्टिक नहीं थी, बावजूद इस के वह बहुत सुंदर लग रही थी. मुकेश अपनी भावनाओं को छिपाते हुए बोला, ‘‘संजीव, अगर बुरा न मानो तो मुझे जाने दो. तुम लोग एंजौय करो. मैं कल तुम से मिलूंगा,’’ कह कर उठने का उपक्रम करने लगा. हालांकि यह एक दिखावा था, अंदर से उस का मन रुकने के लिए कर रहा था, परंतु मध्यवर्गीय व्यक्ति मानमर्यादा का आवरण ओढ़ कर मौजमस्ती करना पसंद करता है. बदनामी का भय उसे सब से अधिक सताता है, इसीलिए वह जीवन की बहुत सारी खुशियों से वंचित रहता है.

संजीव ने उस की बांह पकड़ कर फिर से कुरसी पर बिठा दिया, ‘‘बेकार की बातें मत करो.’’ संजीव की बात सुन कर मुकेश का हृदय धाड़धाड़ बजने लगा, जैसे किसी कमजोर पुल के ऊपर से रेलगाड़ी तेज गति से गुजर रही हो. वह समझ नहीं पाया कि यह खुशी के आवेग की धड़कन है या अनजाने, आशंकित घटनाक्रम की वजह से उस का हृदय तीव्रता के साथ धड़क रहा है? बीना ने मुकेश की तरफ देख कर आंख मार दी. वह झेंप कर रह गया.

संजीव बाहर निकलते हुए बोला, ‘‘चलो, जल्दी करो. मुकेश को घर जाना है.’’ संजीव बगल वाले कमरे में चला गया. मुकेश कमरे में अकेला रह गया, विचारों से गुत्थमगुत्था. उस ने अपने दिमाग को बीना के सुंदर चेहरे, पुष्ट अंगों और गदराए बदन पर केंद्रित करना चाहा, परंतु बीचबीच में उस की पत्नी का सौम्य चेहरा बीना के चंचल चेहरे के ऊपर आ कर बैठ जाता. उस के मन को बेचैनी घेरने लगती, परंतु यह बेचैनी अधिक देर तक नहीं रही. मुकेश चाहता था, वह बीना के शरीर की ढेर सारी खुशबू अपने नथुनों में भर ले, ताकि फिर जीवन में किसी दूसरी स्त्री के बदन की खुशबू की उसे जरूरत न पड़े. परंतु यहां खुशबू थी कहां? कमरे में एक अजीब सी घुटन थी. उस घुटन में मुकेश तेजतेज सांसें लेता हुआ अपने फेफड़ों को फुला रहा था और एकटक बीना के शरीर को ताक रहा था, जैसे बाज गौरैया को ताकता है. परंतु यहां बाज कौन था और गौरैया कौन, यह न मुकेश को पता था, न बीना को.

बीना तंदरुस्त लड़की थी और उस के हावभाव से लग रहा था कि वह किसी भले घर की नहीं थी. उस ने हाथ पकड़ कर मुकेश को खड़ा किया और बोली, ‘‘क्या खूंटे की तरह गड़े बैठे हो? कुछ डांसवांस नहीं करोगे? जल्दी करो. आज सारी रात जश्न मनेगा,’’ उस ने मुकेश के सामने खड़े हो कर अपने बाल संवारते हुए कुछ तल्खी से कहा. वह चुप बैठा रहा तो बीना ने बेताब हो कर अपने हाथों से उसे उठाते हुए कहा,  ‘‘आओ, अब डांस करो.’’ वह अचानक उठ खड़ा हुआ, जैसे उस के शरीर में कोई करंट लगा हो.

बीना बोली, ‘‘यह क्या? तुम्हें तो कुछ आता ही नहीं, वैसे के वैसे खड़े हो, खंभे की तरह…’’ परंतु मुकेश ने उस की तरफ दोबारा नहीं देखा. लपक कर वह बाहर आ गया. संजीव से भी मिलने की उस ने आवश्यकता नहीं समझी. गैलरी में आ कर उस ने इधरउधर देखा. इक्कादुक्का वेटर कमरों में आजा रहे थे. बाहर का वातावरण शांत था और हवा में हलकीहलकी सर्दी का एहसास था. वह होटल के बाहर आ गया. होटल के बाहर आ कर उसे चहलपहल का एहसास हुआ. उस ने समय देखा, 10 बजने में कुछ ही मिनट शेष थे. गोल मार्केट की दुकानें खुली होंगी, यह सोच कर वह गोल मार्केट की ओर चल दिया. साढ़े 10 बजे के लगभग जब हाथ में केक और मिठाई का डब्बा ले कर वह घर पहुंचा तो उस के मन में अपराधबोध था. आत्मग्लानि के गहरे समुद्र में वह डुबकी लगा रहा था. पत्नी ने जब दरवाजा खोला तो वह उस से नजरें चुरा रहा था. पत्नी को सामान पकड़ा कर वह अंदर आया. दोनों बच्चे उसे जगते हुए मिले. वे टीवी पर नए साल का कार्यक्रम देख रहे थे. उसे देख कर एकदम से चिल्लाए, ‘‘पापा आ गए, पापा आ गए. क्या लाए पापा हमारे लिए?’’

उस ने पत्नी की तरफ इशारा कर दिया. बच्चे मम्मी की तरफ देखने लगे तो उस ने लपक कर बारीबारी से दोनों बच्चों को चूम लिया. तब तक उस की पत्नी ने सामान ला कर मेज पर रख दिया, ‘‘वाउ, मिठाई और केक…अब मजा आएगा.’’ मुकेश के मन में एक बहुत बड़ी शंका घर कर गई थी. और वह शंका धीरेधीरे बढ़ती जा रही थी. उसे तत्काल दूर करना आवश्यक था. वह इंतजार नहीं कर सकता था. मुकेश दोनों बच्चों को नाचतागाता छोड़ कर पत्नी के पीछेपीछे किचन में आ गया. पत्नी ने उसे ऐसे आते देख कर कहा, ‘‘आप जूतेकपड़े उतार कर फ्रैश हो लीजिए. मैं पानी ले कर आती हूं.’’ ‘‘वह बाद मे कर लेंगे,’’ कह कर उस ने पत्नी को पीछे से पकड़ कर अपनी बांहों में भर लिया. पत्नी के हाथ से गिलास छूट गया. फुसफुसा कर बोली, ‘यह क्या कर रहे हैं आप?  ऐसा तो पहले कभी नहीं किया, बिना जूतेकपड़े उतारे और वह भी किचन में…’

‘‘पहले कभी नहीं किया, इसीलिए तो कर रहा हूं,’’ उस ने पूरी ताकत के साथ पत्नी के शरीर को भींच लिया. उस के शरीर में जैसे बिजली प्रवाहित होने लगी थी.

‘बच्चे देख लेंगे?’ पत्नी फिर फुसफुसाई. मुकेश के मन में हजार रंगों के फूल खिल कर मुसकराने लगे. उस के मन का भटकाव खत्म हो चुका था. अब उस के मन में कोई शंका नहीं थी, परंतु मुकेश को एक बात समझ में नहीं आ रही थी. कहते हैं कि आदमी को पराई औरत और पराया धन बहुत आकर्षित करता है. इन दोनों को प्राप्त करने के लिए वह कुछ भी कर सकता है. मुकेश को पराई नारी वह भी इतनी सुंदर, बिना किसी प्रयत्न के सहजता से उपलब्ध हुई थी, फिर वह उसे क्यों नहीं भोग पाया? यह रहस्य कोई मनोवैज्ञानिक ही सुलझा सकता था. मुकेश के लिए यह रहस्य एक बड़ा आश्चर्य था.

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