मेरी उम्र 12 वर्ष थी. बारिश का मौसम था. मेरी मम्मी एक शासकीय विद्यालय में प्रधानाध्यापिका थीं. एक रात को पापा को भोजन परोसते समय उन्होंने बताया कि शायद आज वे अपने कार्यालय की लाइट बंद करना भूल गई हैं और पंखा भी चल रहा होगा. भोजन के बाद मैं ने देखा कि पापा तैयार होते हुए मम्मी से बोले कि औफिस की चाबी ले लो, हम अभी स्कूल जाएंगे. बरसते पानी में 4 किलोमीटर दूर वे साइकिल से मम्मी को ले कर स्कूल गए और लाइट बंद कर के आए. इस घटना ने मेरे मनमस्तिष्क पर गहरा असर छोड़ा. आज नैतिक मूल्यों के अवमूल्यन के दौर में विचार आता है कि व्यक्ति अगर मेरे पापा जैसे हो जाएं तो देश की जो दुर्दशा दिखाई दे रही है उस से उसे बचाया जा सकता है.

- सुधीर शर्मा, इंदौर (म.प्र.)

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मैं 10वीं की बोर्ड की परीक्षा देने वाली थी. हमारे शहर मथुरा में उसी समय रेडियो स्टेशन की स्थापना हुई. रेडियो स्टेशन वालों ने हमारे कालेज में पत्र भेज कर कुछ लड़कियों के नाम मांगे थे जो संगीत में अच्छी हों. मेरी अध्यापिका ने मेरा नाम भी दिया और कहा कि मातापिता की अनुमति के बाद तुम्हारा नाम आगे भेजा जाएगा. घर आ कर बताया तो मां ने साफ मना कर दिया, कहा कि पहले पढ़ाई पर ध्यान दो, बोर्ड की परीक्षा सिर पर है. पर मेरे पिताजी को जब यह पता चला तो वे बहुत खुश हुए. वे मुझे स्वयं औडीशन के लिए ले कर गए. मेरा चयन होने के बाद जबजब मेरी रिकौर्डिंग होती, वे मेरे साथ जाते और स्टूडियो के बाहर मेरा इंतजार करते रहते. पिताजी के बढ़ावा देने पर ही मैं ने रेडियो स्टेशन में और भी कई प्रोग्राम दिए. आज भी जब मैं गाती हूं तो मुझे उन की बहुत याद आती है और मेरी आंखें भर आती हैं.

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