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बीजमसालों की उन्नत व रोगरोधी किस्में

भारत का दुनिया भर में मसाला उत्पादन व मसाला निर्यात में पहला स्थान है. इसलिए भारत को मसालों का घर भी कहा जाता है. इन मसालों में बीजमसालों का अनोखा स्थान है. हमारे देश में धनिया, जीरा, सौंफ, मेथी व अजवायन वगैरह बीजमसाले काफी मात्रा में उगाए जाते हैं. किसान भाई इन मसालों की अधिक उत्पादन देने वाली उन्नत व रोगरोधी किस्मों की खेती कर के अपनी आमदनी बढ़ा सकते हैं. खास बीजमसालों की खास किस्मों के बारे में यहां बताया जा रहा है.

धनिया की उन्नत व रोगरोधी किस्में

आरसीआर 41 : यह किस्म सिंचित खेती के लिए राजस्थान के सभी इलाकों के लिए उपयोगी पाई गई है. यह किस्म राजस्थान कृषि विश्वविद्यालय द्वारा साल 1988 में विकसित की गई थी. इस के दाने सुडौल, गोल व छोटे होते हैं. यह किस्म तनासूजन व उकटा रोगों के प्रति रोधी है. यह किस्म 130 से 140 दिनों में तैयार हो जाती है. इस की औसत उपज 9.2 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. इस के दानों में 0.25 फीसदी वाष्पशील तेल होता है.

आरसीआर 20 : यह किस्म सिंचित व असिंचित दोनों इलाकों के लिए मुफीद है. यह कम नमी वाली भारी मिट्टी वाले राजस्थान के दक्षिणी इलाके के साथसाथ टोंक, बूंदी, कोटा, बारां व झालावाड़ के लिए मुनासिब है. 110 से 125 दिनों में पकने वाली इस किस्म से असिंचित इलाकों में 4 से 7 क्विंटल और सिंचित इलाकों में 10 से 12 क्विंटल पैदावार प्रति हेक्टेयर होती है.

आरसीआर 435 : यह किस्म साल 1995 में विकसित की गई. इस के पौधे झाड़ीनुमा व जल्दी पकने वाले होते हैं. इस के बीज मध्यम आकार के होते हैं. इस के 1000 दानों का वजन 14 ग्राम होता है. 110 से 130 दिनों में पक कर तैयार होने वाली इस किस्म की औसत उपज 10.5 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है. यह सूत्रकृमि व छाछिया की प्रतिरोधी है.

आरसीआर 436 : यह किस्म साल 1995 में कम नमी वाले इलाकों कोटा, बारां, झालावाड़ व बूंदी के लिए विकसित की गई थी. इस के पौधे 50 से 100 दिनों में पक जाते हैं. पौधे झाड़ीनुमा व दाने सुडौल होते हैं. इस की उपज 11.9 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. इस के 1000 दानों का वजन 16 ग्राम होता है.

आरसीआर 446 : यह किस्म साल 1997 में जयपुर के सिंचित इलाकों के लिए विकसित की गई थी. इस के पौधे अधिक पत्तियों वाले और सीधे खड़े गुच्छों में घने मध्यम आकार के बीजों वाले होते हैं. यह किस्म 110 से 130 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. इस की औसत उपज 12 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. इस के 1000 दानों का वजन 13.5 ग्राम होता है.

आरसीआर 480 : यह किस्म साल 2006 में विकसित की गई थी. यह 130 से 135 दिनों में पक कर 13.5 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है. यह सिंचित इलाकों के लिए मुफीद होती है. इस के बीजों में 0.44 फीसदी तेल होता है.

आरसीआर 684 : इस का पौधा मध्यम ऊंचाई वाला होता है. मुख्य तना मजबूत व मोटा होता है. तने का रंग सफेद होता है और दाने मध्यम आकार के गोल होते हैं. यह तनासूजन के प्रति रोगरोधी है. यह किस्म 130 दिनों में पक कर 10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है.

आरसीआर 728 : यह किस्म साल 2009 में विकसित की गई. इस के पौधे लंबे व घनी पत्तियों वाले होते हैं. यह किस्म 130 से 140 दिनों में पक कर 13.7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है. इस के बीजों में 0.34 फीसदी तेल होता है.

हिसार आनंद : यह बीज व पत्ते वाली किस्म अधिक उपज देने वाली भी होती है. यह हिसार इलाके के लिए मुफीद है.

स्वाथी (सीएस 6) : यह किस्म बारानी, पछेती बोआई और आंध्र प्रदेश के गुंटूर इलाके के लिए मुफीद है. इस में फलमक्खी के प्रतिरोधी गुण हैं. इस की उपज 855 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है. यह 90 से 105 दिनों में पकती है. इस के दानों में 0.3 फीसदी वाष्पशील तेल होता है.

सिंधु (सीएस 2) : यह किस्म क्षेत्रीय अनुसंधान केंद्र लाम, गुंटूर से विकसित की गई है. यह किस्म अंतर सस्य और बारानी इलाकों के लिए मुफीद है. यह उकटा, छाछिया व तेले के लिए रोधी है. यह किस्म 10 क्टिंवल प्रति हेक्टेयर उपज देती है. यह 102 दिनों में पकती है. इस के दानों में 0.4 फीसदी वाष्पशील तेल होता?है.

गुजरात धनिया 1 : यह किस्म गुजरात कृषि विश्वविद्यालय के मसाला अनुसंधान केंद्र जगुदान से विकसित की गई है. यह गुजरात राज्य के लिए मुफीद है. यह 112 दिनों में पकती है और इस की औसत उपज 11 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है. यह किस्म उकटा व छाछिया रोग के प्रति काफी सहनशील है.

गुजरात धनिया 2 : यह किस्म भी जगुदान से विकसित की गई है, जो असिंचित इलाकों में शीघ्र बोआई के लिए सही है. यह किस्म 110 से 115 दिनों में पक कर तैयार होती है. इस की पैदावार 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है. इस का दाना बड़ा होता है.

एसीआर 1 : यह किस्म राष्ट्रीय बीजीय मसाला अनुसंधान केंद्र अजमेर द्वारा विकसित की गई थी. यह लंबे अरसे वाली किस्म है, जिसे बीज व पत्तियों दोनों के लिए सिंचित इलाकों में उगाया जाता है. इस के बीज गोलाकार होते हैं, जो निर्यात के लिए मुफीद होते हैं. इस की उपज 12 से 14 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है. इस में वाष्पशील तेल 0.5 से 0.6 फीसदी तक होता है. यह तनासूजन व छाछिया रोग की प्रतिरोधी है.

को 1 : यह पत्तियों व बीजों दोनों के लिए मुनासिब किस्म है. यह साल 1987 में कयंबटूर कृषि विद्यालय से विकसित की गई थी. यह किस्म 110 दिनों में पक कर 5 से 7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है. यह किस्म ग्रीन मोल्ड बीमारी के प्रति प्रतिरोधी होती है.

को 2 : यह किस्म 90 से 100 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. इस की औसत पैदावार 6 से 7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. यह रबी व खरीफ दोनों मौसमों के लिए मुफीद है. यह सूखा प्रतिरोधी किस्म मानी जाती है. इस के दानों में 0.3 फीसदी वाष्पशील तेल की मात्रा होती है.

को 3 : यह धनिया की अगेती किस्म है, जो तमिलनाडु के लिए मुफीद है. यह दानों व पत्तियों दोनों के लिए उगाई जाती है. यह 78 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. इस की उपज 6 से 7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है. इस के दानों में 0.4 फीसदी वाष्पशील तेल की मात्रा होती है. यह उकटा व ग्रेनमोल्ड के प्रति सहनशील होती है.

जीरे की उन्नत व रोगरोधी किस्में

आरजेड 19 : यह किस्म साल 1988 में विकसित की गई थी. इस के पौधे सीधे खड़े होते हैं. इस के फूल गुलाबी और बीज गहरे भूरे रंग के होते हैं. यह किस्म स्थानीय किस्म की तुलना में उकटा व झुलसा के प्रति रोगरोधक होती है. यह किस्म 120 से 125 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. इस की औसत उपज 5 से 6 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है. यह पूरे राजस्थान के लिए मुफीद होती है.

आरजेड 209 : यह किस्म साल 1995 में राजस्थान कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित की गई थी. इस के बीज सुडौल व गहरे भूरे रंग के होते हैं. यह उकटा व झुलसा रोगों की प्रतिरोधी होती है. इस में छाछिया रोग के प्रति प्रतिरोधकता आरजेड 19 से ज्यादा है. यह किस्म 120 से 135 दिनों में पक कर 6 से 7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है. यह राजस्थान के लिए मुफीद है.

आरजेड 223 : यह किस्म राजस्थान कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित की गई थी. यह किस्म उकटा रोग प्रतिरोधी है. यह 120 से 130 दिनों में पकती है और लगभग 6 से 7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है. इस में वाष्पशील तेल की मात्रा 3.23 फीसदी तक होती है. यह किस्म राजस्थान के लिए मुफीद है.

आरजेड 341 : यह किस्म साल 2006 में एसकेआरएयू द्वारा विकसित की गई थी. इस के बीजों में वाष्पशील तेल की मात्रा 3.87 फीसदी होती है. इस की उपज 4 से 5 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

आरजेड 345 : यह किस्म साल 2009 में एसकेआरएयू द्वारा विकसित की गई थी. यह उकटा, झुलसा व छाछिया रोगों के प्रति प्रतिरोधी है. यह 120 से 130 दिनों में पक कर 6 से 7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है.

जीसी 1 : गुजरात के मसाला अनुसंधान केंद्र जगुदान से विकसित इस किस्म के पौधे सीधे होते हैं. इस में गुलाबी रंग के फूल व भूरे रंग के बीज होते हैं. यह किस्म बड़े बीज व अधिक उत्पादन देने वाली होती है. यह 105 से 110 दिनों में पक कर तैयार होती है. इस में उकटा रोग सहने की हलकी कूवत होती है. इस का उत्पादन 7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होता है.

जीसी 2 : यह किस्म भी गुजरात के जगुदान से विकसित की गई है. यह 100 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. इस की औसत उपज 7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है. पौधे झाड़ीनुमा व ज्यादा शाखाओं वाले होते हैं.

जीसी 3 : यह किस्म भी गुजरात के जगुदान से विकसित की गई है. यह उकटा रोग प्रतिरोधी होती है. यह 100 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. इस का उत्पादन 7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. इस में आवश्यक तेल की मात्रा 3.5 फीसदी होती है.

जीसी 4 : यह किस्म भी गुजरात के जगुदान से विकसित की गई है. इस में उकटा रोग सहने की ज्यादा कूवत है. यह 130 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. इस की उपज 7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. यह राजस्थान व गुजरात में ज्यादा बोई जाती है.

सौंफ की उन्नत व रोगरोधी किस्में

आरएफ 101 : सौंफ की यह किस्म साल 1995 में राजस्थान के टोंक की स्थानीय सौंफ से चयन कर के विकसित की गई है. यह किस्म 150 से 160 दिनों में पक कर तैयार होती है और 15 से 16 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है.

आरएफ 125 : यह किस्म इटली के ईसी 243380 से चयन कर के राजस्थान से विकसित की गई है. यह साल 1997 में विकसित की गई थी. इस के पौधे बौने व जल्दी पकने वाले छोटे घने गुच्छों वाले होते हैं. इस में वोलेटाइल आयल 1.9 फीसदी तक होता है. यह किस्म 110 से 130 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है इस की औसत उपज 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है. यह किस्म राजस्थान के लिए मुफीद है.

आरएफ 143 : यह किस्म साल 2004 में विकसित की गई थी. इस के पौधे लंबे व सीधे होते हैं. इस के बीज मध्यम आकार के होते हैं और पौधों की लंबाई 116 से 118 सेंटीमीटर होती है.  इस की औसत उपज 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. यह 140 से 150 दिनों में पकती है. इस में वोलेटाइल आयल 1.87 फीसदी होता है.

आरएफ 205 : यह किस्म राजस्थान में साल 2009 में विकसित की गई थी. यह किस्म 130 से 140 दिनों में पक कर 16 क्विंटल और उपज देती है. इस में वोलेटाइल आयल 2.48 फीसदी तक होता है. पौधे सीधे व मध्यम ऊंचाई के होते हैं और दाने सुडौल होते हैं.

गुजरात फेनल 1 : यह किस्म गुजरात के बीजापुर स्थानीय से चयन कर के साल 1985 में विकसित की गई थी. इस के पौधे लंबे व झाड़ीनुमा होते हैं इस के बीज हरे होते हैं. यह गूंदिया रोग व पत्ती धब्बा रोग से मध्यम रोधी है. यह 225 दिनों में पकती है. इस की औसत उपज 17 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है. यह अगेती बोआई के लिए मुनासिब है. यह सूखा सहने की कूवत रखती है.

जी एफ 11 : रबी की सिंचित खेती के लिए मुनासिब यह अच्छी उपज वाली किस्म मसाला अनुसंधान केंद्र जगुदान गुजरात से साल 2003 में विकसित की गई. इस में वाष्पशील तेल की मात्रा 1.8 फीसदी होती है. यह 150 से 160 दिनों में पक कर 15 से 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर औसत उपज देती है.

एएफ 1 : यह किस्म राष्ट्रीय बीजीय मसाला अनुसंधान केंद्र अजमेर से साल 2005 में विकसित की गई. इस का पौधा बड़ा और शाखाओं वाला होता है. इस में बड़े आकार के पुष्पछत्रक होते हैं. यह किस्म सीधी बोआई द्वारा 19 क्विंटल और पौध रोपण विधि द्वारा 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उपज देती है. यह 185 दिनों में पकने वाली मोटे दानों की किस्म है.

मेथी की उन्नत व रोगरोधी किस्में

आरएमटी 1 : यह किस्म राजस्थान के लिए साल 1989 में विकसित की गई थी. इस के पौधे लंबे व शाखायुक्त होते हैं. इस के बीज सुडौल व चमकीले होते हैं. यह किस्म 140 से 150 दिनों में तैयार हो कर लगभग 14 से 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है. यह जड़गलन की मध्यम रोधी किस्म है और इस में छाछिया रोग भी कम लगता है. इस किस्म का विकास नागौर जिले के स्थानीय बीज से चुनाव कर के किया गया है.

आरएमटी 143 : इस किस्म का विकास जोधपुर जिले के स्थानीय बीज का चुनाव कर के साल 1997 में किया गया. यह किस्म 140 से 150 दिनों में पक कर लगभग 16 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है. यह किस्म चित्तौड़, भीलवाड़ा, झालावाड़ व जोधपुर के लिए मुफीद है.

आरएमटी 303 : यह किस्म साल 1999 में म्यूटेशन ब्रीडिंग से विकसित की गई थी. यह छाछिया रोग के प्रति मध्यम रोधी होती है. इस के बीज पीले रंग के होते हैं. यह 140 से 150 दिनों में पकती है. इस की औसत उपज 19 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

आरएमटी 351 : यह किस्म साल 2006 में गामा किरणों द्वारा विकसित की गई थी. इस के पौधों की ऊंचाई मध्यम होती है और शाखाएं ज्यादा होती हैं. इस की फलियों में बीजों की संख्या अधिक होती है. यह 140-150 दिनों में पक कर औसत उपज 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर देती है.

एफजी 1 : मध्यम ऊंचाई व चौड़ी पत्तियों वाली यह किस्म अजमेर में विकसित की गई है. यह किस्म 137 से 140 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. इस किस्म को विशेष रूप से पत्तियों के लिए उगाया जाता है, जिस की औसत उपज 75 क्विंटल प्रति हेक्टेयर पाई गई है. इस में 3 बार पत्तियों की कटाई की जाती है. इस के दाने बड़े मोटे और कम कड़वे होते हैं. इस की बीज की उपज 20 से 24 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक होती?है.

एफजी 2 : मध्यम ऊंचाई वाली यह किस्म भी अजमेर में विकसित की गई है. इस के बीज छोटे आकार के होते हैं. यह किस्म 138 दिनों में पकती है. इस के बीजों की उपज 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है. यह किस्म भी पत्तियों के लिए खासहै. इस की 3 बार कटाई में 72 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हरी पत्तियां हासिल होती हैं.

अजवायन की उन्नत व रोगरोधी किस्में

अजमेर अजवायन 1 : यह किस्म प्रतापगढ़ की स्थानीय किस्म से चयन कर के अजमेर में विकसित की गई है. यह किस्म बारानी व सिंचाई दोनों हालात में मुफीद है. यह 165 दिनों में पकती?है. इस की उपज 14.2 क्विंटल प्रति हेक्टेयर सिंचित इलाकों में और 5.8 क्विंटल प्रति हेक्टेयर असिंचित इलाकों में होती है. बीज में आवश्यक तेल की मात्रा 3.4 फीसदी होती है.

अजमेर अजवायन 2 : यह किस्म भी अजमेर में विकसित की गई है. यह छाछिया रोग के प्रति रोगरोधी है. यह 147 दिनों में पकती है. इस की उपज 12.8 क्विंटल प्रति हेक्टेयर सिंचित इलाकों में और 5.2 क्विंटल असिंचित इलाकों में है. बीज में आवश्यक तेल 3 फीसदी होता है. 

बतखपालन : जोखिम कम मुनाफा ज्यादा

बतखपालन का काम बेरोजगार युवाओं के लिए आय का अच्छा साधन साबित हो सकता है. मुरगीपालन के मुकाबले बतखपालन कम जोखिम वाला होता है. बतख के मांस और अंडों के रोग प्रतिरोधी होने के कारण मुरगी के मुकाबले बतख की मांग अधिक है. बतख का मांस और अंडे प्रोटीन से भरपूर होते हैं. बतखों में मुरगी के मुकाबले मृत्युदर बेहद कम है. इस का कारण बतखों का रोगरोधी होना भी है. अगर बतखपालन का काम बड़े पैमाने पर किया जाए तो यह बेहद लाभदायी साबित हो सकता है.

कैसे करें शुरुआत

बतखपालन शुरू करने के लिए शांत जगह बेहतर होती है. अगर यह जगह किसी तालाब के पास हो तो बहुत अच्छा होता है, क्योंकि बतखों को तालाब में तैरने के लिए जगह मिल जाती है. अगर बतखपालन की जगह पर तालाब नहीं है, तो जरूरत के मुताबिक तालाब की खुदाई करा लेना जरूरी होता है. तालाब में बतखों के साथ मछलीपालन भी किया जा सकता है. अगर तालाब की खुदाई नहीं करवाना चाहते हैं तो टीनशेड के चारों तरफ  2-3 फुट गहरी व चौड़ी नाली बनवा लेनी चाहिए, जिस में तैर कर बतखें अपना विकास कर सकती हैं. बतखपालन के लिए प्रति बतख डेढ़ वर्ग फुट जमीन की आवश्यकता पड़ती है. इस तरह 5 हजार बतखों के फार्म को शुरू करने के लिए 3750 वर्ग फुट के 2 टीनशेडों की आवश्यकता पड़ती है. इतनी ही बतखों के लिए करीब 13 हजार वर्ग फुट का तालाब होना जरूरी होता है.

प्रजाति का चयन

बतखपालन के लिए सब से अच्छी प्रजाति खाकी कैंपवेल है, जो खाकी रंग की होती है. ये बतखें पहले साल में 300 अंडे देती हैं. 2-3 सालों में भी इन की अंडा देने की कूवत अच्छी होती है. तीसरे साल के बाद इन बतखों का इस्तेमाल मांस के लिए किया जाता है. इन बतखों की खासीयत यह है कि ये बहुत शोर मचाने वाली होती हैं. शेड में किसी जंगली जानवर या चोर के घुसने पर शोर मचा कर ये मालिक का ध्यान अपनी तरफ  खींच लेती हैं. इस प्रजाति की बतखों के अंडों का वजन 65 से 70 ग्राम तक होता है, जो मुरगी के अंडों के वजन से 15-20 ग्राम ज्यादा है. बतखों केअंडे देने का समय तय होता है. ये सुबह 9 बजे तक अंडे दे देती हैं, जिस से इन्हें बेफिक्र हो कर दाना चुगने के लिए छोड़ा जा सकता है. खाकी कैंपवेल बतख की उम्र 3-4 साल तक की होती है, जो 90-120 दिनों के बाद रोजाना 1 अंडा देती है.

बतखों का आहार

बतखों के लिए प्रोटीन वाले दाने की जरूरत पड़ती है. चूजों को 22 फीसदी तक पाच्य प्रोटीन देना जरूरी होता है. जब बतखें अंडे देने की हालत में पहुंच जाएं, तो उन का प्रोटीन घटा कर 18-20 फीसदी कर देना चाहिए. बतखों के आहार पर मुरगियों के मुकाबले 1-2 फीसदी तक कम खर्च होता है. उन्हें नालोंपोखरों में ले जा कर चराया जाता है, जिस से कुदरती रूप से वे घोंघे जैसे जलीय जंतुओं को खा कर अपनी खुराक पूरी करती हैं. बतखों से अच्छा उत्पादन प्राप्त करने के लिए उन्हें अलग से आहार देना जरूरी होता है. वे रेशेदार आहार भी आसानी से पचा सकती हैं. बतखों को 20 फीसदी अनाज वाले दाने, 40 फीसदी प्रोटीन युक्त दाने (जैसे सोयाकेक या सरसों की खली), 15 फीसदी चावल का कना, 10 फीसदी मछली का चूरा, 1 फीसदी, नमक व 1 फीसदी खनिजलवण के साथ 13 फीसदी चोकर दिया जाना मुनासिब होता है. हर बतख के फीडर में 100-150 ग्राम दाना डाल देना चाहिए.

इलाज व देखभाल

बतखों में रोग का असर मुरगियों के मुकाबले बहुत ही कम होता है. इन में महज डक फ्लू का प्रकोप ही देखा गया है, जिस से इन को बुखार हो जाता है और ये मरने लगती हैं. बचाव के लिए जब चूजे 1 महीने के हो जाएं, तो डक फ्लू वैक्सीन लगवाना जरूरी होता है. इस के अलावा इन के शेड की नियमित सफाई करते रहना चाहिए और 2-2 महीने के अंतराल पर शेड में कीटनाशक दवाआें का छिड़काव करते रहना चाहिए.

बतख के साथ मछलीपालन

जिस तालाब में बतखों को तैरने के लिए छोड़ा जाता है, उस में अगर मछली का पालन किया जाए तो एकसाथ दोगुना लाभ लिया जा सकता है. दरअसल बतखों की वजह से तालाब की उर्वरा शक्ति में इजाफा हो जाता है. जब बतखें तालाब के पानी में तैरती हैं, तो उन की बीट से मछलियों को प्रोटीनयुक्त आहार की आपूर्ति सीधे तौर पर हो जाती है, जिस से मछलीपालक मछलियों के आहार के खर्च में 60 फीसदी की कमी ला सकते हैं.

लागत व लाभ

कृषि विज्ञान केंद्र बंजरिया (बस्ती) के वरिष्ठ पशु वैज्ञानिक डा. लाल के अनुसार बतखपालन के लिए प्रति चूजा 35 रुपए का खर्च आता है. इस तरह 5 हजार चूजों की लागत 1 लाख 75 हजार रुपए आती है. टीन शेड बनवाने पर करीब 3 लाख रुपए व तालाब पर 50 हजार रुपए की लागत आती है, जो सिर्फ  1 बार ही लगती है. इस तरह 5 हजार बतखों का फार्म शुरू करने में करीब 6 लाख रुपए की जरूरत पड़ती है. 1 साल में 1 बतख के दाने व रखरखाव पर करीब 1 हजार रुपए का खर्च आता है. इस तरह 1 साल में 5 हजार चूजों पर करीब 50 लाख रुपए की लागत आती है. कुल लागत 56 लाख को निकाल कर अगर पहले साल में देखा जाए तो 5 हजार बतखों पर शुद्ध आय 15 लाख अंडों से (5 रुपए प्रति अंडा की दर से कुल 75 लाख में से घटा कर) 19 लाख रुपए होगी. दूसरे साल से तालाब व शेड पर कोई लागत नहीं आती है. इस तरह बतखपालन से काफी लाभ कमाया जा सकता है. पशु विज्ञानी डा. लाल के अनुसार बतख के अंडों के अलावा तीसरे साल लगभग डेढ़ सौ रुपए के हिसाब से बतख को मांस के लिए बेचा जा सकता है, जिस से करीब 7 लाख 50 हजार रुपए की आमदनी होगी. तीसरे साल नए चूजे खरीद कर उन से अंडे का उत्पादन लिया जा सकता है. बतख के अंडों को बेचने में किसी तरह की परेशानी नहीं होती है. इन्हें दवाएं बनाने के लिए भी खरीदा जाता है.

डा. लाल के अनुसार बतख न केवल लाभ देती है, बल्कि यह सफाई बनाए रखने में भी योगदान देती है. मात्र 5-6 बतखें ही 1 हेक्टेयर तालाब या आबादी के आसपास के मच्छरों के लारवों को खा जाती हैं. इस तरह बतखें न केवल लाभदायी होती हैं, बल्कि ये इनसानों की सेहत के लिए भी कारगर होती हैं. बतखपालन की ज्यादा जानकारी के लिए कृषि विज्ञान केंद्र बंजरिया के पशु विज्ञानी डा.  लाल के मोबाइल नंबर 9415853028 पर संपर्क किया जा सकता है. चूजों को हासिल करने के लिए बेंगलूरू के हैसर घट्टा में स्थित ‘सेंट्रल डक ब्रीफिंग फार्म’, बरेली के इज्जत नगर में स्थित ‘केंद्रीय पक्षी अनुसंधान संस्थान’ या भुवनेश्वर के ‘केंद्रीय पक्षी अनुसंधान संस्थान’ से संपर्क किया जा सकता है.

अनपढ़ वनवासियों ने ईजाद की अपनी नहर

उन आदिवासियों पर लोग हंसते और कहते थे कि पथरीली जमीन पर क्यों पसीना बहा रहे हो? लेकिन वे इतने जिद्दी थे कि उन का हौसला नहीं डिगा. मजबूत इरादों और जीतोड़ मेहनत से उन्होंने ऐसा कारनाम किया, जो दूसरे किसानों के लिए मिसाल बन गया. यहां बात हो रही है राजस्थान के प्रतापगढ़ जिले के सरूपगंज पहाड़ी इलाके की. देश में एक ओर जहां नदियों व नहरों को जोड़ने के लिए इंजीनियरिंग और तकनीकी पर करोड़ों रुपए पानी की तरह बेतहाशा बहाए जा रहे हैं, वहीं सरूपगंज के भाखर गांव के पहाड़ी व आदिवासी इलाके में आदिवासियों का तकनीकी जुगाड़ इंजीनियरिंग विज्ञान को चुनौती दे रहा है. जुगाड़ तकनीक की लाजवाब मिसाल पेश करते हुए यहां के आदिवासी लोगों ने ऐसी नहर तैयार की है, जिस के जरीए इस इलाके से गुजरने वाली नदी के पानी को ये पहाड़ों के बीच बने अपने ऊंचाई वाले खेतों तक ले जाते हैं. लोकल बोलचाल में इस नहर को ‘सारण’ कहा जाता?है.

तकनीकी देशी जुगाड़

ये माहिर आदिवासी नदी में बहते पानी के बराबर एक नहर की खुदाई कर के पत्थरों व लकडि़यों से पानी को रोक कर उस की दिशा बदल देते हैं. नहर बनाते समय उस के घुमाव व सरफेस लेवल का पूरा ध्यान रखा जाता है, ताकि नदी से जब पानी का रुख नहर की ओर मोड़ा जाए तो उस का दबाव इस तरह बना रहे कि वह ऊपर तक चढ़ सके.

खजूर से बनाते हैं नेट

इस इलाके में काफी मात्रा में पाए जाने वाले खजूर के पेड़ों की टहनियों का नेट बना कर उस को रस्सी के सहारे बांध कर उस में वजनदार पत्थर रखा जाता है. इस नेट को नहर में खींचते हैं, जिस से यदि कहीं कोई रुकावट या काई का जाल हो तो नेट में फंस जाए और उसे बाहर निकाल लिया जाए. नहर बनाने में चूने या सीमेंट का इस्तेमाल नहीं किया जाता, पत्थरों को ही अच्छे तरीके से इंटरलाक किया जाता है और साथ ही जंगली पत्तों की पाल बनाई जाती है, ताकि पानी का रिसाव न हो. सालों से चली आ रही तकनीक इलाके में पिछले रबी सीजन में ओले गिरने पर फसल बरबाद होने से किसान परेशान तो हैं, लेकिन बुलंद हौसले के साथ बनाई गई सारण यानी नहर के पानी से खेत सींचे जा रहे हैं, जल्द ही खेतों में गेहूं, चना, सौंफ व अरंडी वगैरह की फसलें लहलहाने लगेंगी. इलाके के सरपंच कन्हैयालाल ने बताया कि इस पहाड़ी इलाके में आदिवासियों की भरपूर मेहनत से बनी नहर के पानी से इलाके के किसान बारीबारी से जरूरत के अनुसार अपने खेतों की सिंचाई करते हैं. इस साल भी इलाके में तकरीबन 2 हजार हेक्टेयर एरिया इसी नहर से सींचा जाएगा.

खतरे में नागौरी नस्ल के बैल

नागौर के वीर तेजाजी परबतसर पशु मेले से बैलों की जोडि़यां खरीद कर लाए व बैल दौड़ प्रतियोगिता में अव्वल रहने पर परबतसर के उपखंड अधिकारी के हाथों सम्मान पाने वाले किसानों को नहीं पता था कि ट्रकों में बैलों को लाद कर अपने गांव लाने पर जयपुर जिले के चाकसू थाना इलाके में उन का अपमान भी किया जाएगा. चाकसू थाना पुलिस ने कई गौरक्षक संगठनों के दबाव में आ कर करौली जिले के उन लोगों को गौ तस्कर मान कर गिरफ्तार कर लिया. पशुपालक मोहनलाल, मुंशी, चिरंजीलाल, भरतलाल, मुन्ना, प्रकाश, महेश व खेमराज आदि ने बताया कि वे नागौर के परबतसर पशु मेले से 45 जोड़ी बैल खरीद कर रामदेवरा पदयात्रा के चलते पैदल चलने के बजाय किराए के ट्रक व पिकअप में बैलों को लाद कर अपने गांव सपोटरा, करौली ले जा रहे थे. जब वे चाकसू के पास पहुंचे तो अचानक 3 लग्जरी गाडि़यां आ कर रुकीं और उन में से करीबन 20 व्यक्ति उतरे व 2 लाख रुपए  की रसीद कटवाने की मांग की और कहने लगे कि रसीद कटवाने के बाद ही इलाके से जाने देंगे वरना जिंदा नहीं छोड़ेंगे. उन में से कुछ लोग एक गौरक्षक संगठन का नाम भी पुकार रहे थे. रसीद नहीं कटवाने पर उन में से कुछ लोगों ने उन्हें मारनापीटना शुरू कर दिया व 73 हजार रुपए छीन कर ले गए. जब मामले की जानकारी पुलिस थाने में देने गए तो वहां भी पुलिस के सामने ही कमला दीदी नामक गौरक्षक संगठन चलाने वाली महिला जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल करते हुए उन से मारपीट करने लगी.

खूबसूरत कदकाठी, फुरतीलेपन और गजब की ताकत को देखते हुए उन्नत नस्ल के नागौरी बैलों का कोई सानी नहीं है. लेकिन पिछले कुछ सालों से इन बैलों की पहचान व शान सिमटती जा रही है. मेलों से खरीद कर इन्हें एक जगह से दूसरी जगह पर ले जाने पर कई भगवाई गौरक्षक संगठनों के बवाल की वजह से धीरेधीरे इन बैलों की शान ही फीकी पड़ गई है. रोक की वकालत करने वाले संगठनों का तर्क है कि छोटे बछड़ों को मेलों से खरीद कर खेतीबाड़ी या पशुपालन के लिए नहीं, बल्कि बूचड़खानों में हलाल करने के लिए ले जाया जाता है. इस के चलते नागौर क्षेत्र के अलावा प्रदेश के दूसरे हिस्सों व प्रदेश से बाहर के व्यापारियों का यहां के पशु मेलों में आना कम हो गया है. बैलों की खरीदबिक्री के पेशे से जुड़े व्यापारियों का पक्ष रखते हुए मध्य प्रदेश के व्यापारी अर्जुनलाल बताते हैं कि हालांकि यह सच है कि कुछ लोग बैलों को बूचड़खानों के लिए खरीदते थे, लेकिन इस का खमियाजा हम बाकी व्यापारियों को भुगतना पड़ रहा है. दरअसल सोयाबीन, गन्ना, धान और कपास के खेत तैयार करने के लिए नागौरी बैल सब से अच्छे माने जाते हैं. मध्य प्रदेश के किसान नागौरी बैल को खासतौर पर पसंद करते हैं, क्योंकि वहां की चिकनी मिट्टी में ट्रैक्टर से बोआईजुताई करना आसान नहीं है. इस के अलावा कई जगहों पर 2 फसलों की खेती एकसाथ होती है. इस में बैलों से ही बोआई करना मुनासिब होता है, क्योंकि इस से दूसरी खड़ी फसल को नुकसान नहीं होता. मध्य प्रदेश के किसान तो इसे अपनी शान का प्रतीक तक समझते हैं.

इस बार नागौर के परबतसर पशु मेले से करीब सवा सौ बैल खरीदने वाले मध्य प्रदेश के पशुव्यापारी नंदराम जाखड़ बताते हैं, ‘नागौरी बैल तो बस नाम से ही बिक जाते हैं. दुनिया में इन से अच्छी नस्ल के बैल कहीं नहीं मिल सकते. कई बड़े लोग तो शान के लिए अपने फार्महाउस में 8-10 बैलों के जोड़े रखते हैं. बस, उन को पसंद आने चाहिए. कीमत चाहे जो भी हो.’ 5 हजार से 40 हजार रुपए तक के बैल खरीद चुके नंदलाल अब निराश हैं. वे बताते हैं, ‘पहले एक बार में मेले से 5 सौ से ज्यादा बैल खरीदते थे. अब 100 बैल खरीद पाना भी मुश्किल हो गया है, क्योंकि 3 साल से बड़े बैल भी काफी महंगे आ रहे हैं और उन को गाडि़यों में ले जाना भी महंगा पड़ रहा है.’ गौरतलब है कि पंजाब, हरियाणा, गुजरात, मध्य प्रदेश, बिहार और उत्तर प्रदेश के व्यापारी यहां नागौरी बैल खरीदने आते हैं. तकरीबन 1 दशक पहले नागौर के परबतसर में लगने वाले वीर तेजाजी पशु मेले में 1 लाख से सवा लाख तक की तादाद में नागौरी  बैल बिकने के लिए आते थे. अब यह तादाद 20 हजार के करीब ही रह गई है. प्रदेश के पशुपालन विभाग के निदेशक भागीरथ चौधरी बताते हैं, ‘अब पहले के मुकाबले एक चौथाई से भी कम बैल आ रहे हैं. इन में भी 3 साल से कम उम्र के बैलों की सही कीमत नहीं मिल पा रही है. गौरक्षक संगठनों द्वारा आए दिन किए जाने वाले बवालों की वजह से प्रदेश के बाहर के व्यापारियों ने इन बैलों से मुंह मोड़ लिया है.’

पौंजी स्कीमों का फलताफूलता कारोबार

आज हर ओर फर्जीवाड़े का मकड़जाल फैला हुआ है. फर्जी कंपनियों द्वारा चलाई गई बेशुमार पौंजी स्कीमों व धन जमा योजनाओं के जरिए हजारों करोड़ रुपयों की हेराफेरी किए जाने के कांड आम हो चले हैं. लाखों की संख्या में निवेशक इन की गिरफ्त में फंस कर अपनी गाढ़ी कमाई की रकम गंवा बैठे हैं. बावजूद इस के, पौंजी स्कीमों का कारोबार फलताफूलता जा रहा है. पौंजी स्कीम का नामकरण चार्ल्स पौंजी नामक व्यक्ति के नाम पर पड़ा. वह इटैलियन था, जिस ने वर्ष 1920 में अमेरिका में तहलका मचा दिया था. उस ने लोगों को पोस्टल कूपन के नाम पर धोखा दिया था. कथित तौर पर चार्ल्स डिकेंस की 1844 में प्रकाशित ‘मार्टिन चजिलविट’ व 1857 में प्रकाशित ‘लिटिल डोरिट’ जैसे उपन्यासों में वर्णित स्कीमों से उत्प्रेरित हो कर उस ने उन स्कीमों को हकीकत में अंजाम दे डाला. अंतर्राष्ट्रीय डाक कूपनों की योजना चलाई. जम कर पैसा बटोरा. थोड़ाबहुत तो शुरुआती निवेशकों को बांट दिया और जो बचा, सब खुद ले उड़ा.

पौंजी स्कीम से तात्पर्य है आमतौर पर निवेश से अधिक रिटर्न की पेशकश के जरिए नए निवेशकों को लुभाने की कवायदों से उन के ख्वाबों का तानाबाना बुनना या यों कहें कि बेईमानी भरी  योजनाओं में बहुत ऊंचे लाभ का लालच देते हुए लोगों से पैसा जमा कराना. शुरू में तो वैध काम शुरू होता है, क्योंकि प्रारंभिक स्थिति ऊंचे रिटर्न को बनाए रखने के लिए नए निवेशकों से पैसों के बढ़ते प्रवाह की आवश्यकता रहती है. आश्चर्य की बात है कि पौंजी स्कीम को चलाने वालों द्वारा स्वयं का उस में कोई पैसा नहीं लगाया जाता अपितु वे निवेशकों  द्वारा जमा कराई रकम का ही अन्य को रिटर्न देने में उपयोग करते रहते हैं. बाद में नए जमाकर्ताओं से प्राप्त राशि से ज्यादा चुकाने पर योजना अकसर गड़बड़ा जाती है और सपनों का किला ध्वस्त होने लगता है. पैसों के अभाव में योजना डगमगाने लगती है. मामला चौपट होने से वह स्कीम पौंजी योजना बन जाती है. देखा जाए तो लोग इन योजनाओं में फंसते हैं. इस का सब से बड़ा कारण यह भी है कि योजनाकर्ता निवेशकों को घर बैठे अपनी सेवाएं मुफ्त सुलभ कराते हैं, व्यक्तिगत संपर्क बनाए रखते हैं. इस तरह से उन का तालमेल कायम रहता है. दूसरी तरफ आलम यह है कि बैंकों में जाओ तो कागजी खानापूर्ति के अलावा लाइनों में लग कर पैसा जमा कराना पड़ता है. इस में काफी श्रम व वक्त लग जाता है.

झांसे का खेल

दिलचस्प पहलू यह है कि वाकई में यों तो इन का कोई वजूद नहीं होता लेकिन देशभर में सुदूर अंतरंग इलाकों में घुसपैठ का शगल कायम होने से इन का दबदबा बरकरार रहता है. कम समय में ज्यादा रिटर्न का लालच दे कर, सैकड़ों प्रकार की स्कीमें चला कर अनेक कंपनियां धड़ल्ले से निवेशकों को चूना लगा रही हैं. पौंजी, पिरामिड, चेन, लौटरी व चिटफंड, वित्तीय, गैरबैंकिंग वित्तीय कंपनियां, क्रैडिट नैटवर्क, मल्टीलैवल मार्केटिंग, गु्रपसैल्स, प्राइज चिट्स, सैल्स व मार्केटिंग, सहकारिता, समेकित निवेश इत्यादि स्कीमें बखूबी चलाई जाती हैं. व्यापक नैटवर्क, विज्ञापनबाजी, गिफ्ट, पुरस्कार, कमीशन, ज्यादा ब्याज जैसे प्रलोभनों में आदमी बरबस आ ही जाता है. ऐसी कंपनियों के एजेंट व कारिंदे शातिराना अंदाज में किसी परिचित को साथ में ले, झांसा दे कर पैसा ऐंठने में माहिर होते हैं. काबिलेगौर हैं विदेशी निकायों द्वारा ओ बी सी मार्गों यानी आउटवार्ड बिल्स कलैक्शन चैनल्स का दुरुपयोग कर के भारी मात्रा में पैसा बटोर ले जाने की हरकतें. इसे परिभाषित करें तो विक्रेता अथवा निर्यातक द्वारा अपने बैंक, जोकि घरेलू बिक्री और निर्यात दस्तावेजों को संभाल रहे हैं, के जरिए प्रस्तुत बिलों को क्रेता बैंक के माध्यम से खरीदार से भुगतान लेने के लिए संप्रेषित किए जाते हैं. इस दौरान घोटालेबाज कंपनियों द्वारा तत्संबंधित क्रियाप्रक्रिया में गड़बड़झाला कर के हेराफेरी को अंजाम दिया जाता है.

अमेरिकी थिंकटैंक ग्लोबल फाइनैंशियल इंटिग्रिटी यानी जीएफआई की एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, 2003 से 2012 के बीच 10 सालों में भारत में 440 अरब डौलर अर्थात 28 लाख करोड़ रुपए की राशि अवैध तरीके से लाई गई और 2012 में ही, 95 अरब डौलर यानी 6 लाख करोड़ रुपए की राशि अवैध तरीके से बाहर ले जाई गई. बहुचर्चित बड़े कांडों की कड़ी में सहारा गु्रप, सारदा चिटफंड, सत्यम ग्रुप, अर्थतत्त्व गु्रप आदि द्वारा हजारों करोड़ रुपयों की हेराफेरी के प्रकरण जगजाहिर हैं. नैशनल स्टौक एक्सचेंज में वायदा कारोबार के जरिए फाइनैंशियल इंडिया लिमिटेड द्वारा निवेशकों के पैसों का गोलमाल कर के 5,600 करोड़ रुपए की घोटालेबाजी उजागर हुई है. शेयर्स व कमोडिटी कारोबार को निवेश का प्रमुख साधन माना जाता है. कौन जानता है कि अच्छीभली लगने वाली अमुक कंपनी कब बैठ जाए? मनमाने तरीके से भावों के उतारचढ़ाव की गाज छोटे निवेशकों पर पड़ती है, बड़े दिग्गज पैसा बटोर कर रफूचक्कर हो जाते हैं. कदमकदम पर ऐसे धूर्तों का मायाजाल फैला हुआ है. लाचार जनता इन्हें हैरत से ताकती रह जाती है. उसे चाकचौबंद रहने की नसीहत दी जाती है.

पौंजी स्कीमों की कार्यविधि ही कुछ ऐसी होती है कि आम आदमी सहज ही गच्चा खा जाता है. सामान्यतया चेन- पिरामिड जैसी योजनाओं में पैसा लगाने को तरजीह दी जाती है. इस के तहत सदस्यता को आगे बढ़ाते रहना होता है. नएनए लोग जुड़ते रहते हैं. ऐसी कंपनियां दूसरी स्कीमों को भी चलाती रहती हैं. इस प्रकार से पौंजी स्कीमों का कारोबार फलताफूलता रहता है. अमूमन पौंजी स्कीमों के कर्ताधर्ताओं द्वारा समयसमय पर अपने कारिंदों व एजेंटों की मीटिंगें, संवाद, विचारविमर्श जैसे कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं. इस से उन्हें प्रोत्साहित करने के साथसाथ कार्यप्रणाली में पारंगत बनाया जाता है तथा उन को धंधेबाजी के नित नए गुर सिखाने का अच्छा मौका भी मिलता है. एजेंट सर्वप्रथम अपने परिचितों के पास आनाजाना शुरू करते हैं. उन के सुखद भविष्य के लिए बचत के महत्त्व से अवगत कराते हैं. फिर अनायास ही बातोंबातों में अमुक पौंजी स्कीम के बारे में जिक्र करते हैं. उस के बाद निवेशक का मानस टटोलते हुए लक्षित योजना विशेष की खूबियां बखान करते हुए उस में पैसा निवेश करा लिया जाता है. ऊंचे प्रतिफल व अधिक ब्याज के लालच में आदमी बरबस आ ही जाता है. पौंजी स्कीमों के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो मिसाल के तौर पर बड़े प्रकरणों की कड़ी में सहारा गु्रप जैसे नामचीनों की कारगुजारियां कमतर नहीं लगतीं. यह 36 सालों से कार्यरत है. देश में ऐसा कोई शहर या कसबा नहीं होगा जहां सहारा गु्रप की पहुंच न हो. उस के एजेंट, कारिंदे, फ्रैंचाइजी बड़े जोरशोर के साथ लोगों से पैसा उगाहने में मशगूल हैं. गु्रप ने अनेक कंपनियां बना डाली हैं. कई प्रकार के बौंड, डिबैंचर्स वगैरा के जरिए पैसा बटोरा जा रहा है.

3 वर्ष पहले सुप्रीम कोर्ट ने 31 अगस्त, 2012 के फैसले में सहारा गु्रप द्वारा अवैध तरीके से सहारा रीयल एस्टेट कौर्पोरेशन लिमिटेड तथा सहारा हाउसिंग इन्वैस्टमैंट कौर्पोरेशन लिमिटेड नामक कंपनियों के जरिए 2 करोड़ 96 लाख निवेशकों से एकत्रित की गई 24 हजार करोड़ रुपए से भी ऊपर की राशि को लौटाया जाना आदेशित किया था. उक्त रकम को सेबी के पास जमा कराया जाना निर्देशित था. सहारा समूह द्वारा उक्त मामले में विभिन्न स्तरों पर काफी आनाकानी की जाती रही है. कई तरह के दांवपेंच, वादों, प्रस्तावों तथा भरसक प्रयासों के बावजूद मसला नहीं सुलझ पाया. उधर सेबी के साथ तनातनी के चलते काफी वक्त यों ही गुजरता चला गया. उच्चतम न्यायालय के आदेशों की अवमानना की वजह से सहारा सुप्रीमो सुब्रतो राय अपने 2 सिपहसालारों संग 4 मार्च, 2014 से जेल में हैं.

चिटफंड घोटाला

रिजर्व बैंक तथा सेबी द्वारा इस संदर्भ में विज्ञप्तियों व विज्ञापनों के जरिए बारबार आगाह कराए जाने के बावजूद निवेशक आंखें मूंद कर पैसा जमा कराए जा रहे हैं. सहारा समूह द्वारा आज भी अपनी विभिन्न योजनाओं के नाम पर पैसा उगाहने का क्रम चालू है. ऐसे ही, सारदा चिटफंड कांड सुर्खियों में है. इस के सूत्रधार सुदीप्तो सेन द्वारा 3,500 करोड़ रुपए का घोटाला किया गया. कई कंपनियां बना डालीं. कई हस्तियों का प्रश्रय रहा. फरवरी 2014 में गिरफ्तार हुए. और भी गिरफ्तारियां हुई हैं. परतें खुलती जा रही हैं. 2008 से 2012 के बीच सारदा गु्रप की 4 कंपनियों ने अपनी पौलिसियां जारी कर के 2,459 करोड़ रुपए इकट्ठे किए, जबकि निवेशकों को केवल 47,657 करोड़ रुपए का पेमैंट किया गया. अवैध तरीके से बैंकिंग कारोबार करने वाली सांई प्रसाद इंटरप्राइजेज चिटफंड कंपनी के सीएमडी पुष्पेंद्र सिंह बघेल को जून माह में भोपाल पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया. इन की आधा दर्जन से भी अलगअलग नाम की फर्मों पर देशभर में करीब 2,600 करोड़ रुपए के घोटाले करने का आरोप है. इस कंपनी के कर्ताधर्ता लोगों को दोगुना रकम का लालच दे कर पैसा बटोर कर फरार हो जाते थे. देश के 6 राज्यों में इन का गोरखधंधा फैला हुआ था. उधर, पौंजी योजनाओं द्वारा लाखों निवेशकों के साथ धोखाधड़ी के मामलों की अहमियत व गंभीरता को महसूस करते हुए रिजर्व बैंक ने इस के लिए नियामकीय कमी तथा निगरानीकर्ताओं एवं जांच एजेंसियों के बीच तालमेल के अभाव को जिम्मेदार ठहराया है. पौंजी योजनाओं के मामले में नियामकीय दायित्व का सरासर अभाव है. देखा जाए तो एक तरह से यह अस्पष्ट सा क्षेत्र बना हुआ लगता है.

कैसे लगे लगाम

अनेक प्रकार के म्यूचुअल फंड, एसआईपी, इक्विटी, बौंड, डिबैंचर्स व सार्वजनिक सूचीबद्ध कंपनियों की स्कीमों में निवेश की बातें भी बढ़चढ़ कर की जाती हैं. विषय विशेषज्ञ व परामर्शक भी तर्कवितर्क देते रहते हैं. मगर इन के प्रतिमान कुछ और ही होते हैं. अमूमन इन से संबंधित प्रावधानों का खुलासा व अन्य जानकारी को ठीक से जाननासमझना हरेक के बूते की बात नहीं होती. आमजन, खुदरा छोटे निवेशकों, वृद्धजन, सेवानिवृत्त लोगों के लिए बैंकों, डाकघर अथवा किसी जांचीपरखी योजना में निवेश ही मुनासिब लगता है. भारत सरकार के वित्त, विनिवेश, वाणिज्य, उद्योग व व्यापार, आर्थिक व कंपनी मामलात विभागों, रिजर्व बैंक तथा सेबी की अहम  भूमिका रहती है. पौंजी स्कीमों व चिटफंड कंपनियों के मसले की अहमियत को महसूस करते हुए उच्चतम न्यायालय द्वारा एक जनहित याचिका के प्रसंग में केंद्र सरकार, रिजर्व बैंक, सेबी, प्रवर्तन निदेशालय तथा गंभीर धोखाधड़ी जांच कार्यालय यानी एसएफआईओ को सख्त कदम उठाने को पाबंद किया गया है. पौंजी स्कीमों पर लगाम कसने तथा छोटेछोटे निवेशकों से पैसा ले कर रातोंरात चंपत हो जाने वाली फर्जी कंपनियों पर अंकुश लगने की दृष्टि से लोकसभा द्वारा पारित प्रतिभूति कानून (संशोधन) 2014 केंद्र सरकार द्वारा अधिसूचित कर दिया गया है. 25 अगस्त की अधिसूचना से लागू इस अधिनियम के अंतर्गत सेबी को प्रभावी अधिकार मिल गया है. डिफौल्टरों के खिलाफ जांच व अभियोजन में तेजी लाने के लिए मामलों की सुनवाई हेतु मुंबई में विशेष अदालत का गठन किया गया है.

मुद्दे की बात यह है कि नीयत के साथ सीरत भी बदलनी होगी. सिस्टम सुधारना जरूरी है, नियमकायदे भी जरूरी हैं. और, उस से भी जरूरी है उन का कड़ाई से पालन कराना. निवेशकों के हित संरक्षण को सर्वोपरि मानते हुए हर स्थिति में फर्जीवाड़े का खात्मा करना होगा. इस के लिए त्वरित कदम उठाते हुए पुख्ता नियम बनाने होंगे, तभी सार्थक परिणाम अपेक्षित हैं.

कुछ तो बोलो

मेरे भीतर उतरती है

तेरे प्यार की रोशनी

कुछ इस तरह

यों चली आए

धूप

अंधेरी गुफाओं की

जमीन तक

सदियों से बंद हैं

कुछ बीती कहानियां

कुछ तड़पते एहसास

कुछ

सपने अपने

चलो

आज फिर से इन्हें

मुक्त करें…

फिर नई कहानी

की तलाश में

मन आकाश से

युक्त करें…

सुनो, चलोगे मेरे साथ

किसी और गहराई में

बंद गुफा से निकल कर

आकाश की ऊंचाई में…

अपना मन तो टटोलो

बोलो,

कुछ तो बोलो.

       – डा. प्रिया सूफी

ऐसे पाएं होम लोन में टैक्स पर छूट

होम लोन एक बोझ जैसा महसूस हो सकता है, क्योंकि इस पर लगने वाला ब्याज का बोझ कर्ज लेने वाले की खासी कमाई खा जाता है.  टैक्स का बोझ कम करने के लिए सरकार समयसमय पर टैक्स में छूट के जरिए राहत देती रहती है. टैक्स में छूट पाने के लिए घर खरीद कर न सिर्फ आप एक मकान मालिक बन सकते हैं, बल्कि टैक्स में छूट भी पा सकते हैं. सरकार द्वारा होम लोन लेने वालों को टैक्स पर छूट देने का मूल उद्देश्य लोगों को अपनी संपत्ति खरीदने के लिए प्रोत्साहित करना है. 

टैक्स बचाने और लंबे समय तक इस में राहत पाने का सब से अच्छा तरीका है होम लोन. इनकम टैक्स ऐक्ट 1961 कहता है कि लोन को टैक्स बचाने के इंस्ट्रूमैंट के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है. कोई प्रौपर्टी खरीदने के लिए होम लोन लेने के बाद व्यक्ति अपने टैक्स में छूट के लिए आवेदन कर सकता है. यह छूट न सिर्फ मूल राशि पर, बल्कि होम लोन पर लगने वाले ब्याज पर भी लागू होती है.

होम लोन पर इनकम टैक्स में छूट इनकम टैक्स ऐक्ट के सैक्शन 24, 80 सी और 80 ईई के तहत मिलती है. यह लाभ सिर्फ किसी व्यक्ति विशेष और एचयूएफ यानी हिंदू अनडिवाइडैड फैमिलीज को मिल सकती है. टैक्स में यह छूट सिर्फ होम लोन पर ही मिलती है, अन्य तरह के लोन जैसे कि लोन अगेंस्ट प्रौपर्टी यानी एलएपी आदि पर नहीं.

टैक्स में मिलने वाली छूट

टैक्स पर छूट होम लोन के 2 हिस्सों पर उपलब्ध है–मूल राशि और ब्याज पर. मूल राशि पर लाभ जहां सैक्शन 80 सी के तहत पाया जा सकता है वहीं इसी लाभ के लिए सैक्शन 24 के तहत भी आवेदन किया जा सकता है. केंद्र सरकार ने सैक्शन 80 ईई को 2013-14 के बजट में पेश किया था, जिस के तहत ब्याज के भुगतान पर कुछ शर्तों के साथ टैक्स में छूट मिलती है. जिन लोगों ने वित्त वर्ष 2013-14 में पहली बार होम लोन लिया था वे ब्याज की अदायगी पर सैक्शन 24 के तहत 1 लाख रुपए की अतिरिक्त छूट पाने के हकदार हो गए. अनयूटिलाइज्ड ब्याज के लिए वर्ष 2014-15 के लिए भी छूट उपलबध है. टैक्स पर अतिरिक्त छूट मिलने का मतलब यह है कि आप थोड़ा ज्यादा पैसा बचा सकते हैं. लेकिन सरकार ने इस छूट को आगे के वर्षों के लिए नहीं बढ़ाया क्योंकि इस के बारे में सैक्शन 80 ईई में वर्णित नहीं किया गया है. वित्त वर्ष 2015-16 के लिए यह लाभ सिर्फ सैक्शन 80 सी और सैक्शन 24 के तहत ही उपलब्ध है.

मूल राशि की अदायगी पर छूट : होम लोन लेने वाला व्यक्ति मूल राशि का जो हिस्सा हर महीने अदा कर सकता है उस के आधार पर इनकम टैक्स में छूट वह इनकम टैक्स ऐक्ट के सैक्शन 80 सी के तहत ले सकता है. इस सैक्शन के तहत कोई भी व्यक्ति अधिकतम डेढ़ लाख रुपए तक की राशि पर टैक्स में छूट पा सकता है. डेढ़ लाख रुपए की छूट की यह सीमा आप के पीपीएफ, टैक्स सेविंग एफडी, इक्विटी ओरिएंटेड म्यूचुअल फंड, नैशनल सेविंग सर्टिफिकेट और अन्य सभी को मिला कर मिलने वाली छूट होती है.

इस सैक्शन के तहत छूट तब तक लागू नहीं होती है जब तक प्रौपर्टी निर्माणाधीन हो. यह लाभ प्रौपर्टी का कंप्लीशन सर्टिफिकेट मिलने के बाद ही मिलता है. सब से महत्त्वपूर्ण बात यह जानना है कि एक टैक्सपेयर उन सालों के दौरान की गई ब्याज अदायगी का संयोजन कर के 5 बराबर किस्तों में छूट की मांग कर सकता है और इस की शुरुआत निर्माण कार्य पूरा होने वाले वर्ष से की जा सकती है. लेकिन अगर प्रौपर्टी का मालिक पजेशन लेने के 5 साल के भीतर प्रौपर्टी बेच देता है तो छूट नहीं मिलती. अगर प्रौपर्टी का मालिक इस पीरियड में टैक्स पर छूट लेता है तो इस छूट को आमदनी का हिस्सा माना जाएगा और टैक्स देना होगा. यह छूट पेमैंट के आधार पर भी उपलब्ध होती है, न कि उन सालों पर जब यह भुगतान किया गया.

संयुक्त रूप से छूट : सैक्शन 80 सी प्रौपर्टी की खरीदारी के समय लगी स्टैंप ड्यूटी और रजिस्टे्रशन चार्ज पर भी टैक्स में छूट देता है. सैक्शन 80 सी के तहत कोई भी व्यक्ति अधिकतम डेढ़ लाख रुपए तक की छूट पा सकता है जोकि पीपीएफ, टैक्स सेविंग एफडी, इक्विटी ओरिएंटेड म्यूचुअल फंड, नैशनल सेविंग सर्टिफि केट व अन्य सभी को मिला कर संयुक्त रूप से मिलती है. यह छूट उस साल के दौरान ली जा सकती है जिस में इस की अदायगी की गई हो.

ब्याज की अदायगी पर छूट : प्रौपर्टी खरीदने पर यह लाभ सिर्फ उसी स्थिति में लिया जा सकता है जब प्रौपर्टी का निर्माण पूरा हो चुका हो और इस का पजेशन सर्टिफिकेट मिल चुका हो. प्रौपर्टी की खरीद के अलावा, टैक्स पर छूट रिहायशी प्रौपर्टी के निर्माण, मरम्मत, नवीनीकरण और पुनर्निर्माण आदि के वास्ते लिए गए लोन पर मिल सकती है. हाउस प्रौपर्टी से होने वाली आमदनी को होम लोन पर लगने वाले ब्याज के साथ ऐडजस्ट किया जा सकता है.

अपने कब्जे वाली प्रौपर्टी पर छूट पाने की अधिकतम राशि 2 लाख रुपए होती है. इस के अलावा, अगर प्रौपर्टी लोन मंजूर होने की तारीख से ले कर 3 वर्षों के भीतर कंप्लीट नहीं होता है तो ब्याज पर मिलने वाली छूट की सीमा 2 लाख रुपए से घट कर 30 हजार रुपए हो जाती है. अगर संपत्ति पर अपना कब्जा नहीं है तो टैक्स में छूट की कोई सीमा नहीं होती है, ब्याज की कुल राशि पर टैक्स में छूट के लिए आवेदन किया जा सकता है. इस का एक अन्य पहलू भी है- अगर प्रौपर्टी का मालिक अपने घर में न रह कर नौकरी या व्यापार अथवा अन्य किसी जिम्मेदारी की वजह से किसी अन्य जगह पर रहता है तो वह 2 लाख रुपए तक की छूट हासिल कर सकता है. सैक्शन 80 सी के तहत पेमैंट की अदायगी के आधार पर मिलने वाली छूट के विपरीत इस सैक्शन के तहत मिलने वाली छूट संग्रहण आधारित होती है. ऐसे में छूट वार्षिक आधार पर ली जा सकती है. ऐसा उस स्थिति में भी लागू होता है जब उस वर्ष के दौरान कोई अदायगी न की गई हो.       

होम लोन : कायदा और फायदा

होम लोन रिटेल बैंकिंग का सब से ज्यादा बिकने वाला उत्पाद है.

जौइंट होम लोन लेने से लोन राशि बढ़ती है, वहीं दूसरी तरफ टैक्स बचत में भी फायदा मिलता है.

सिंगल होम लोन में केवल होम लोन लेने वाले को ही टैक्स का फायदा मिलता है.

इंट होम लोन में लोन में भागीदारी करने वाले का भी टैक्स बचता है.

बैंक लोन देते वक्त दोनों आवेदकों की इनकम को ध्यान में रख कर लोन देता है.

इनकम टैक्स ऐक्ट 24 (बी) के तहत होम लोन के ब्याज पर 2 लाख रुपए तक की छूट का क्लेम कर सकते हैं.

इनकम टैक्स ऐक्ट 80 सी के तहत प्रिंसिपल अमाउंट पर 1.5 लाख रुपए तक का क्लेम किया जा सकता है.

किसी संस्था या संगठन के नाम होम लोन नहीं दिया जाता है.

परिजन की मृत्यु के बाद कैसे सुलझाएं मनीमैटर्स

अकसर कई लोग पैसों या प्रौपर्टी आदि के कानूनी वारिस के बारे में जीतेजी न तो कागजात तैयार करते हैं और न ही इस बाबत कोई निर्णय ले पाते हैं. नतीजतन ऐसे किसी व्यक्ति की मृत्यु होने पर उस के नाम की संपत्ति के स्वामित्व को ले कर घरपरिवार में तमाम विवाद खड़े हो जाते हैं. कई बार तो मृतक के नाम किसी भी प्रकार की देय राशि का भुगतान तक रुक जाता है. इन में बैंक में जमा राशियों से ले कर बीमा दावे भी शामिल हैं. मुंबई के ठाणे उपनगर के निवासी 48 वर्षीय विलास की मृत्यु उस वक्त हो गई जब वे ड्राइंगरूम में टैलीविजन देख रहे थे. डाक्टर ने बताया कि हृदयाघात की वजह से उन की मौत हुई. आघात इतना जबरदस्त था कि विलास को अस्पताल ले जाने का भी वक्त नहीं मिला. न ही वे जातेजाते किसी से कुछ बात कर सके. शायद अचानक सीने में दर्द उठा हो और इस से पहले कि किसी को बुला पाते, वे चल बसे. हां, वे उस वक्त ड्राइंगरूम में अकेले थे. बेटे ने जब पानी का गिलास व दवाएं ला कर पिता को देनी चाहीं तभी उसे इस हादसे के बारे में पता चला.

विलास 20 दिन पहले ही अस्पताल से डिस्चार्ज हो कर आए थे. सीने में दर्द की शिकायत पर वे कुल 12 दिन भरती थे. अस्पताल के खर्च को मिला कर करीब 1 लाख 60 हजार रुपए का मैडिक्लेम दावा बीमा कंपनी के पास जमा कर दिया गया था. वह भी, अस्पताल से छुट्टी मिलने के एक सप्ताह के भीतर. उन की पत्नी शारदा ने बीमा कंपनी को लिखित रूप से इस मृत्यु के बारे में सूचित किया तथा उन से अनुरोध किया कि मैडिक्लेम दावे का चैक विलास कोजरेकर की जगह शारदा कोजरेकर के नाम जारी करें. बीमा कंपनी ने अनुरोध को ठुकराया तो नहीं पर उस के बीमा अधिकारी ने कहा कि भुगतान की प्रक्रिया टीपीए यानी थर्ड पार्टी एडमिनिस्ट्रेटर द्वारा पूरी की जाती है. पर उन्होंने आश्वस्त किया कि टीपीए को इस संबंध में बता दिया जाएगा. शारदा ने एफिडेविट भी जमा कर दिया. लेकिन टीपीए की ओर से उन्हें चैक विलास कोजरेकर के नाम ही मिला. शारदा चाहतीं तो इस चैक को बैंक में जमा कर भुगतान ले सकती थीं लेकिन यह कानूनन जुर्म था. इसलिए उन्होंने यह चैक टीपीए को इस अनुरोध के साथ वापस किया कि यह चैक उन के नाम से जारी किया जाए. उन्होंने आवश्यकतानुसार जरूरी कागजात भी जमा किए. मसलन, मृत्यु प्रमाणपत्र, सक्सैशन सर्टिफिकेट (उत्तराधिकार प्रमाणपत्र) आदि. अब शारदा को इंतजार है कि उन के नाम जारी दावे का चैक उन्हें मिल जाएगा.

विशेषज्ञ की लें मदद

बीमाधारक की मृत्यु की दशा में बीमा दावे के भुगतान प्रकरण में अधिक परेशानियां नहीं आतीं क्योंकि जमा किए जाने वाले कागजात की संख्या अधिक नहीं होती. लेकिन फिर भी, चूंकि भुगतान के लिए जमा किया जाने वाला हर कागजात विधिसम्मत होना चाहिए, इसलिए न तो इन्हें जुटाने या तैयार करने में देरी करनी चाहिए, न ही इन्हें तैयार करते वक्त किसी नौसिखिए की सलाह लेनी चाहिए. इस काम के लिए वकील, चार्टर्ड अकाउंटैंट या वित्तीय योजनाकारों की राय लेनी चाहिए. इन्हें अदा किया जाने वाला पेशेवर शुल्क भले आप को तत्काल भारी महसूस हो पर इस की वजह से आप तमाम परेशानियों में फंसने से बच जाएंगे.

जीवन बीमा, व्यक्तिगत दुर्घटना बीमा या मैडिक्लेम दावे की रकम लाखों में हो सकती है. गलत तरीके से दावा प्रस्तुत करने की दशा में इन का भुगतान रुक जाता है या देरी होती है. जाहिर है कि बड़ी रकम पर ब्याज भी अधिक होगा. इस के अलावा, कई जरूरी कार्य भी रकम फंस जाने की वजह से अटक जाते हैं. दरअसल, परिजन की मृत्यु के बाद सिर्फ उन के बीमा दावे ही नहीं होते बल्कि इस सूची में कई प्रकार के अन्य भुगतान भी शामिल होते हैं, जैसे बैंक, पीपीएफ, फिक्स्ड डिपौजिट, डीमैट खाता, बौंड, डिबैंचर, प्रौपर्टी पर अधिकार आदि. इस के साथ ही, कै्रडिट कार्ड लंबित भुगतान, किसी भी प्रकार का बकाया कर्ज, बकाया मैडिकल बिल आदि के बारे में भी जानकारी होनी महत्त्वपूर्ण है. याद रखें, मृतक के नाम कोई भी कर्ज बकाया होने की दशा में उन के नाम जारी होने वाले अन्यत्र किसी भी प्रकार के भुगतान में देरी हो सकती है. ऐसा क्रैडिट कार्ड के भुगतान को ले कर अकसर देखा जाता है.

कुछ परिजन अपने मृत रिश्तेदार के क्रैडिट कार्ड पेमैंट को यह समझ कर छोड़ देते हैं कि कार्ड जिस के नाम से था, वह तो चला गया. मैं क्यों भुगतान करूं. लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि कै्रडिट कार्ड जारी करने वाले बैंक के पास कार्डधारक का पूरा ब्योरा होता है. भुगतान 3 माह से अधिक लंबित होने पर वह इस की जानकारी सिविल संस्था (व्यक्ति की क्रय क्षमता निर्धारित आने वाली सरकारी नियामक एजेंसी) को देता है. वहां से यह सूचना सभी संबंधित वित्तीय संस्थाओं, मृतक के नियोक्ता कार्यालय आदि को जारी कर दी जाती है सो, किसी भी स्तर पर फरेब महंगा पड़ सकता है. यदि व्यक्ति पैंशनधारी है तो मृत्यु के बारे में संबंधित बैंक को भी तत्काल सूचित करें. मृत्यु होने के बाद वाले माह से पैंशन राशि की पैंशन के बैंक खाते से किसी भी प्रकार की निकासी कानूनन अपराध है. यह सही है कि जिंदगी में की गई वसीयत व्यक्ति के मरने के बाद हर प्रकार की कानूनी उलझन से छुटकारे का अचूक दस्तावेज होता है लेकिन इस के न होने की दशा में उपयुक्त तरीके से दावा किया जाना भुगतान प्रकिया को सरल बनाता है.

बैंक खाता और डीमैट खाता

आजकल बैंक खातों में नामित व्यक्ति का होना अनिवार्य है लेकिन कई पुराने खातों में अभी भी नामित किए जाने की प्रक्रिया शेष है. ऐसी स्थिति में या तो मृतक की वसीयत मान्य होती है या फिर दावा करने वाले व्यक्ति की ओर से जमा किया जाने वाला उत्तराधिकार प्रमाणपत्र. वसीयत में खाते के बारे में विस्तारपूर्वक जानकारी होनी जरूरी है. उचित यही है कि यदि आप का कोई भी खाता बगैर नौमिनी के जारी है तो अविलंब किसी को नौमिनी बना दें. डीमैट खाताधारक के लिए भी एक व्यक्ति को नामित करना आवश्यक होता है. क्योंकि इस प्रकार डीमैट खाते का हस्तांतरण आसान हो जाता है. नामिती की स्थिति में डिपौजिटरी के स्तर पर संबंधित कागजी कार्यवाही पूरी करने से शेयरों का हस्तांतरण नामित व्यक्ति के नाम हो जाता है. अगर दिवंगत व्यक्ति का डीमैट खाता किसी अन्य परिजन के साथ संयुक्त रूप से खुला हुआ हो तो डीमैट खाता बंद हो जाता है, भले ही दूसरा व्यक्ति जीवित हो, ऐसे मामले में संयुक्त खाताधारक को अपने नाम एक अलग डीमैट खाता खुलवाना चाहिए. इस के बाद संयुक्त डीमैट खाते से शेयरों का हस्तांतरण इस सिंगल डीमैट खाते में करवाना चाहिए.

म्युचुअल फंड के हस्तांतरण में कंपनियां नामित व्यक्ति या संयुक्त नाम से जारी फंड में से दूसरे नाम में यूनिट को सहजता से जारी कर देती हैं लेकिन इस कार्यवाही के लिए मृत्यु प्रमाणपत्र की प्रति के साथ अपने केवाईसी (नो योर कस्टमर) प्रोफौर्मा और बैंक खाते के विवरण की प्रति म्युचुअल फंड कंपनी के पास जमा करनी पड़ती है. यूनिट के मूल्यांकन के आधार पर नामित व्यक्ति या संयुक्त यूनिटधारक को एक मुआवजा बौंड भी सौंपना पड़ता है.

मृतक की संपत्ति से भुगतान

व्यक्ति की मौत होने की दशा में उस की आय की समीक्षा उस की मौत की अवधि तक ही की जाएगी. यानी उस वर्ष के लिए आयकर का भुगतान व्यक्ति के कानूनी वारिस के जरिए होगा. रिटर्न भी उसी के हस्ताक्षर से फाइल होगा. यह रिटर्न आयकर अधिनियम की धारा 159 के तहत भरा जाता है. हां, यह जानना जरूरी है कि कानूनी वारिस पर मृत व्यक्ति के कर की अदायगी अपने पैसे से करने की जिम्मेदारी नहीं होती. मृत व्यक्ति मृत्यु के वक्त जितने कर का देनदार होता है, उस की वसूली मृतक की संपत्ति से की जाती है. देश के विभिन्न बैंकों में लगभग 56 लाख ऐसे खाते हैं जो खाताधारक की मृत्यु होने अथवा नामिती के अभाव में निष्क्रिय पड़े हैं. अकसर व्यक्ति की मृत्यु होने की महीनों बाद तक उस के दावों संबंधी प्रक्रियाएं पूरी नहीं हो पातीं. बरसों भी लग जाते हैं. इसलिए यह जरूरी है कि हम जीवित रहते ही मरणोपरांत उत्पन्न होने वाली कानूनी प्रक्रियाओं से निबटने के लिए खाका तैयार कर लें.                        

वादविवाद और वसीयत

  1. वसीयत पर हस्ताक्षर या अंगूठे का निशान करा लेने मात्र से वसीयत मान्य नहीं होती.
  2. भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम के तहत उत्तराधिकार प्रमाणपत्र ऐसा दस्तावेज होता है जिस के माध्यम से धारक को मृतक की तरफ से (उस के नाम पर देय हों) कर्ज की रकम या प्रतिभूतियां पाने का अधिकार होता है.
  3. आमतौर पर अदालत में अलग सेल होती है जो उत्तराधिकार प्रमाणपत्र जारी करती है.
  4. ज्यादातर मामलों में विवाद तब होता है जब एक ही संपत्ति के एक से ज्यादा दावेदार होते हैं और अलगअलग इलाकों में रह रहे होते हैं.
  5. कुछ समय पहले बौंबे हाईकोर्ट ने भी कहा था कि यदि कोई व्यक्ति आमतौर पर जिस भाषा का इस्तेमाल नहीं करता, अपनी वसीयत पर उसी भाषा में हस्ताक्षर कर दे तो वह झूठी नहीं हो जाती. गौरतलब है कि अदालत में जमीन से जुड़े विवाद के क मामले में यह फैसला देते हुए उसे वैध करार दिया जब जन्म से सिंधी मेलवानी ने अपनी मातृभाषा गुरुमुखी में हस्ताक्षर किया था. इसी तथ्य को ले कर वसीयत की वैधता पर सवाल उठा था.

रंगमंच की बिसात के वैश्विक खिलाड़ी थे सईद जाफरी

भारतीय फिल्मों को मुख्यतौर पर 2 धड़ों में बांटा जाता है. पहला व्यावसायिक सिनेमा जिसे चालू और मसाला फिल्मों का सिनेमा भी कहते हैं और दूसरा समानांतर सिनेमा, जो ज्यादातर सामाजिक सरोकार और मुख्यधारा से उपेक्षित विषयों, मसलों व समाज की आवाज को परदे पर उतारता था. जाहिर है इन्हीं 2 धाराओं में न सिर्फ सिनेमा बंटा था बल्कि अभिनेता भी बंटे थे. सुपरस्टार और हीरो की छवि में कैद कलाकार व्यावसायिक सिनेमा के पैरोकार थे तो वहीं गैर परंपरागत चेहरेमोहरे और थिएटर की पृष्ठभूमि से आए कलाकार पैरेलल यानी समानांतर सिनेमा के पैरोकार थे. एक तरफ मसाला सिनेमा जहां दिलीप कुमार, राज कपूर से ले कर खान, कपूर और कुमार सितारों तक सिमटा है तो वहीं समानांतर सिनेमा में नसीरुद्दीन शाह, फारुख शेख, अमोल पालेकर, ओम पुरी, कुलभूषण खरबंदा, नीना गुप्ता, सुरेखा सीकरी, स्मिता पाटिल, शबाना आजमी जैसे अनूठे अभिनेता व अभिनेत्री थे. हालांकि यह विभाजन कई बार धुंधला भी होता है और एकदूसरे धड़े के कलाकार प्रयोगों से गुजरते हैं.

लेकिन सईद जाफरी जैसे कुछ कलाकार ऐसे भी होते हैं जो इन सीमाओं से परे वैश्विक रंगमंच में कलाकार की उस हैसियत को छू लेते हैं जो किसी खास मुल्क या बिरादरी की मुहताज नहीं होती. सईद जाफरी को बतौर कलाकार परिभाषित करना बेहद मुश्किल है. बौलीवुड के शौकीन उन्हें आमिर खान की ‘दिल’ और राज कपूर की फिल्म ‘राम तेरी गंगा मैली’ के मामा कुंजबिहारी की भूमिका के लिए, हास्य रसिक उन्हें ‘चश्मेबद्दूर’ के पानवाला लल्लन मियां के लिए याद करते हैं. लेकिन सईद जाफरी होने का अर्थ सिर्फ हिंदी फिल्में ही नहीं है. अर्थपूर्ण फिल्मों के शौकीनों की नजर में वे महान फिल्मकार सत्यजीत रे की फिल्म ‘शतरंज के खिलाड़ी’ के नवाब मिर्जा हैं जो शतरंज की बाजियों में इस कदर मसरूफ हैं कि उन्हें लखनऊ के बदलते सियासी हालात की फिक्र ही नहीं. इंटरनैशनल फिल्म बिरादरी में जो पहचान सईद जाफरी की है वह चंद भारतीय समझते हैं, जो लंदन थिएटर से वाकिफ और हौलीवुड की चालू मसाला फिल्मों से इतर भी अंगरेजी सिनेमा को कुछ समझते हैं. उन्हें वे ‘अ पैसेज टू इंडिया’, ‘द फार पवेलियंस’ और ‘माय ब्यूटीफुल लौंड्रेट’ सहित महान फिल्म ‘गांधी’ के सरदार पटेल की भूमिका के लिए जानते हैं. एक ही दौर में अभिनय के इतने आयामों और अलगअलग देशों में सक्रिय रहे सईद ने 80 और 90 के दशक में न जाने कितने यादगार काम किए हैं. सईद जाफरी की खासीयत यही थी कि वे कला फिल्मों में और बौलीवुड मसाला फिल्मों में उतनी ही शिद्दत से काम करते थे जितना अमेरिका के हौलीवुड और ब्रिटिश फिल्मों, बीबीसी की सीरीज और थिएटर में. चश्मेबद्दूर के शौकीन और दिलफेंक मिजाज पानवाला से ले कर ठसकदार नवाब की भूमिकाएं अदा करने वाले बहुमुखी अभिनेता सईद जाफरी का पिछले दिनों 86 वर्ष की अवस्था में लंदन स्थित आवास पर ब्रेन हैमरेज से निधन हो गया.

पंजाब के मालेरकोटा नामक गांव में 8 जनवरी, 1929 को जन्मे सईद जाफरी के मातापिता उन्हें सिविल सर्विस में लाना चाहते थे लेकिन बचपन से ही खानाबदोश स्वभाव के रहे सईद को तो अभिनय के मैदान में उतरना था, लिहाजा उन्होंने एक दिन पिता से दिल्ली घूमने की इजाजत मांगी और दिल्ली की उस रेलयात्रा में एक दिल्ली के दोस्त से हुई मुलाकात उन्हें औल इंडिया रेडियो तक ले आई और फिर वहां उन्होंने पब्लिसिटी व एडवरटाइजिंग डायरैक्टर के तौर पर काम किया. यहां से शुरू हुआ सफर कब जा कर नाटक की दहलीज पर पहुंच गया, उन्हें खुद ही पता नहीं चला. बाद में जब उन्होंने 1951 में न्यू यूनिटी अ मेच्योर थिएटर की स्थापना की तब वे पूरी तरह से रंगमंच के खिलाड़ी बन चुके थे. जमींदार खानदान के सईद में कला का गुण ननिहाल से आया. बीबीसी को दिए एक साक्षात्कार में सईद साहब ने स्वीकार किया था, ‘बस यों ही शायरी पढ़तेपढ़ते और मामा के खतों का जवाब देतेदेते मैं खुद शायर बनने लगा.’ शेर-ओ-शायरी का यही शौक उन्हें उर्दू, अंगरेजी और हिंदी भाषाओं तथा आगे चल कर अभिनय की दुनिया में खींच ले गया. उन के बारे में कहा जाता है कि वे भारतीय होने के बावजूद विदेशों में अपनी परफैक्ट औक्सफोर्ड स्टाइल की अंगरेजी बोलने के लिए जाने जाते थे. इसी रंगमंच की दुनिया में उन की कला से प्रभावित हो कर उन्हें लंदन में नाटक करने का बुलावा आया. और इस तरह सईद जाफरी एकसाथ हिंदी सिनेमा, रंगमंच और लंदन थिएटर में काम करने वाले शायद पहले भारतीय बन चुके थे. जाफरी ने ‘द ऐक्टर्स स्टूडियो’ में थोड़े समय के लिए जगत प्रसिद्ध अभिनेत्री मर्लिन मुनरो के साथ काम किया था. लेकिन सब से ज्यादा चर्चा मिली उन्हें 1962 में ब्रौडवे के प्रोडक्शन ‘अ पैसेज टू इंडिया’ में प्रोफैसर गोडबोले के किरदार से. इस प्रकार ब्रौडवे के साथ काम करने वाले वे पहले भारतीय बने. अपने कैरियर के दौरान उन्होंने हौलीवुड के कई दिग्गजों के साथ काम किया. वे ऐसे पहले भारतीय अभिनेता थे जो शेक्सपियर के नाटकों को ले कर पूरे अमेरिका में घूमे.

इस बीच, एक नाटक के दौरान उन की मुलाकात अभिनेत्री और ट्रेवलर मधुर बहादुर से हुई. कला की उर्वरक जमीन पर 2 कलाकारों के बीच रोमांस का रसायन कुछ यों बना कि दोनों ने एकसाथ जिंदगी गुजारने की ठान ली. लेकिन पता नहीं क्यों दुनियाभर के संजीदा कलाकार, शायर और वैज्ञानिक, लेखक, दुनियादारी के तमाम किरदारों को संपूर्णता से निभाते हुए घर में पति के किरदार में असफल हो जाते हैं. सईद के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ और दोनों अलग हो गए. शायद एक आदर्श विवाह की राह में आजादखयाली ही सब से बड़ा रोड़ा होती है जबकि उम्दा कलाकार होने के लिए सब से जरूरी भी यही आजादखयाली ही है. जाफरी की मधुर के साथ यूएसए में ज्यादा दिन निभ नहीं सकी. वर्ष 1965 में दोनों का तलाक हो गया. उन की तीनों बेटियां जिया, मीरा और सकीना मां के साथ रह गईं और सईद फिर से ब्रिटेन आ गए. कहते हैं कि ब्रिटेन में सईद को नए सिरे से संघर्ष करना पड़ा. छोटीमोटी भूमिकाओं के अलावा कई नौकरियां भी कीं ताकि रोजीरोटी का जुगाड़ हो सके. 1980 में उन्होंने जेनिफर से शादी की. लेकिन सईद साहब का आखिरी वक्त शराब की आगोश में ही गुजरा. यह भी एक अजीबोगरीब इत्तफाक है कि ज्यादातर गंभीर कलाकार परिवार में अकेले रह जाते हैं और आखिरी वक्त में उन का साथ शराब ही निभाती है. महान फिल्मकार गुरुदत्त से ले कर मीना कुमारी, सुपरस्टार राजेश खन्ना इसी शराबनोशी में दुनिया को अलविदा कह गए. सईद भी शराब को गले लगा चुके थे.

शराब को ले कर बेहद दिलचस्प किस्सा बयान करते हुए फिल्म समीक्षक जयप्रकाश चौकसे कहते हैं कि सईद जब दावतों में शरीक होते तो हमेशा उन की कोट में चांदी का गिलास होता और शराब केवल उसी गिलास में पीते और पीतेपीते मजेदार किस्से सुनाते. हर दावत के आरंभ में वे मेजबान से कहते कि अगर वे पीतेपीते होश खो दें तो बराय मेहरबानी उन का चांदी का गिलास उन की जेब में रख कर ही उन्हें अपने कमरे में भिजवा दें. हालांकि वे चाहते तो और भी चांदी के गिलास ले सकते थे लेकिन कुछ बात थी, जिसे सिर्फ वे ही जानते थे. कई कलाकार ऐसे होते हैं जिन के योगदान का मूल्यांकन आने वाली पीढ़ी नहीं कर पाती. सईद जाफरी के जीवन के कई ऐसे पहलू आज भी हम नहीं जानते. कारण, उन्होंने भारत से ज्यादा काम विदेशों में किया और विदेशी काम को 80-90 के दशक में भारतीय मीडिया न तो हम तक सही से पहुंचा पाया और न ही सईद ने कभी अपने काम को ले कर अंतर्राष्ट्रीय मंच पर कोई ढिंढोरा पीटा. सिर्फ अपने काम में डूबे रहे सईद जाफरी ने जब आखिरी सांस लंदन में ली तो उन के चाहने वाले लोगों की आंखें नम जरूर हुई होंगी. सईद जैसे कलाकार शतरंज की हर बिसात और रंगमंच की हर विधा में माहिर खिलाड़ी होते हैं.

खास बातें जाफरी की

  1. जाफरी ने कैरियर की शुरुआत दिल्ली में थिएटर से की थी.
  2. 1951-56 तक औल इंडिया रेडियो में पब्लिसिटी, एडवरटाइजिंग डायरैक्टर के तौर पर रहे.
  3. जाफरी ने द ऐक्टर्स स्टूडियो में अभिनेत्री मर्लिन मुनरो के साथ काम किया था.
  4. सईद पहले भारतीय थे जिन्हें ‘और्डर औफ ब्रिटिश एंपायर’ अवार्ड मिला था.
  5. सईद जाफरी ने 100 से ज्यादा फिल्मों में काम किया.
  6. फिल्म ‘शतरंज के खिलाड़ी’ (1977) के लिए बेस्ट सपोर्टिंग ऐक्टर के फिल्मफेयर अवार्ड से नवाजा गया.
  7. 1985-87 के दौरान प्रसारित हिट सीरीज ‘तंदूरी नाइट्स’ में भी उन्होंने काम किया है.
  8. औस्कर विजेता फिल्म ‘गांधी’ में सरदार वल्लभभाई पटेल की भूमिका निभाई थी.
  9. पियर्स ब्रोसनन, शान कोनरी और माइकल केन जैसे बड़े नाम उन के सह कलाकार रह चुके हैं.

सईद का फिल्मनामा

उन्होंने ‘द मैन हू वुड बी किंग’ (1975), ‘शतरंज के खिलाड़ी’ (1977), ‘गांधी’ (1982), ‘अ पैसेज टू इंडिया’ (1964), बीबीसी संस्करण एवं 1984 फिल्म, ‘द फार पैवेलियंस’ (1984) और ‘माय ब्यूटीफुल लौंड्रेट’ (1985) सहित विभिन्न फिल्मों में अभिनय किया. उन्होंने 80 और 90 के दशक में विभिन्न बौलीवुड फिल्मों में भी काम किया. उन की अहम फिल्में रही हैं, ‘गांधी’, ‘मासूम’, ‘शतरंज के खिलाड़ी’, ‘हिना’, ‘राम तेरी गंगा मैली’, ‘चश्मेबद्दूर’, ‘जुदाई’, ‘अजूबा’, ‘दिल’, ‘किशन कन्हैया’, ‘घर हो तो ऐसा’, ‘राजा की आएगी बरात’, ‘मोहब्बत’ और ‘आंटी नंबर वन’, वहीं ‘तंदूरी नाइट्स’ और ‘ज्वैल इन द क्राउन’ जैसे टीवी शो के लिए भी सईद जाने जाते रहे हैं.

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