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प्रियंका के सीन लीक

प्रियंका चोपड़ा ने जब से विदेशी शो ‘क्वांटिको’ करना शुरू किया है, उन के काम की तारीफ कम, उन के बोल्ड सींस को ले कर ज्यादा बातें होती हैं. बीते दिनों कार में उन के बोल्ड सीन की क्लिप बड़े चटखारे ले कर सोशल मीडिया में परोसी गई और अब उस सीरियल से जुड़ा एक शौवर सीन लीक हो गया है और इस तरह प्रचारित किया जा रहा है मानो वे पहली अभिनेत्री हैं जिन्होंने इस तरह के बोल्ड और सैक्सी दृश्य किए हों. इस से पहले भी कई हिंदी फिल्मों में प्रियंका चोपड़ा ने बोल्ड सीन किए हैं. और प्रियंका ने ही नहीं लगभग सभी अभिनेत्रियां यह कर रही हैं. दरअसल, हम भारतीय इतने लंपट हैं कि अभिनय से ज्यादा देहसुख में आनंद लेते हैं. शायद इसीलिए, अभिनेत्रियों के अभिनय के बजाय उन के बदन पर सब की निगाहें टिकी रहती हैं.

धर्म, शादी, चंदा और जीवन

महल्ले के मध्य में घर और आनेजाने के लिए चार तरफ से रास्ते. चारों रास्तों पर बीच वाले घर में शादी होने से शादी का शामियाना तान दिया गया है. अब वे लोग कहां से निकलें जिन का घर इन रास्तों के बाद आता है. उन से कहा गया कि भाई, आगे हमारा घर है, हमें जाना है. आप रास्ता न रोकें. उन का उत्तर था, ‘‘तो क्या हम शादी न करें. हमारी खुशी आप से बरदाश्त नहीं हो रही है. दूसरे रास्ते भी तो हैं.’’

‘‘लेकिन दूसरे रास्तों में भी तंबू तने हुए हैं. कुरसियां लगी हुई हैं. वे भी यही कर रहे हैं.’’

वे गुस्से से बोले, ‘‘हम भी यही कह रहे हैं. शादी तो हो कर रहेगी.’’

हम ने कहा, ‘‘आप शादी करें. मेरी तरफ से बधाई भी स्वीकारें किंतु घर जाने का रास्ता तो खोलें.’’ वे फिर गुस्से में बोले, ‘‘आप के घर का रास्ता मेरे घर के आगे से जाता है तो इस में मेरा क्या कुसूर. इतनी ही तकलीफ है तो किसी और कालोनी में मकान लेना था.’’ अब हमें भी गुस्सा आ गया, ‘‘आप को शादी का इतना शौक है तो कोई लौन बुक कराना था. रास्ता घेर कर क्यों बैठ गए. यह कोई तरीका है. आप ने आनेजाने वालों के बारे में जरा भी नहीं सोचा.’’ उन्होंने कहा, ‘‘देखिए साहब, शादी वाला घर है. सौ टैंशन होती हैं दिमाग में. आप व्यर्थ में बहस मत करिए. इतना रुपया नहीं है कि महंगे लौन को किराए पर लें. हमारे तो सारे कार्यक्रम घर के सामने वाले रास्ते पर ही होते हैं. घर हमारा है तो सामने का रास्ता भी हमारा है. हम अपने रास्तों का उपयोग भी न करें? क्या आप एकदो दिन तकलीफ नहीं सह सकते इंसानियत के नाते?’’

हम ने कहा, ‘‘तकलीफ होती है. सह लेता हूं. अभी आप सारी रात लाउडस्पीकर, डीजे बजा कर हमारी रातें खराब करेंगे. ब्लडप्रैशर वाला बेचैन रहेगा. छोटे बच्चे सो नहीं पाएंगे. आप पटाखों के धमाके करेंगे. बच्चेबूढ़े परेशान हो जाएंगे. रातभर का शोरशराबा. बचा हुआ खाना, प्लास्टिक के सामान जिन में आप खाना परोसेंगे, उन का कचरा आप नाली में फेंकेंगे. नाली जाम होगी. सड़े भोजन की दुर्गंध फैलेगी. रोड पर टैंट गाड़ने से सड़क पर गड्ढे होंगे. फिर ऐक्सिडैंट होंगे. ये सब तो हम सभी को झेलना ही है किंतु रात को घर जाना जरूरी है. हम निकलें कैसे? आप को हमारा भी तो कुछ खयाल करना होगा? क्या अब हमें अपने ही शहर में लौज में कमरा किराए पर लेना होगा?’  मेरी बात सुन कर उन्होंने जोर की आवाज लगाई, ‘‘बब्बू, गोलू, मोनू, सोनू…’’

किशोर उम्र के लड़के हाथों में लाठीडंडे लिए आ खड़े हुए.

‘‘क्या हुआ, मौसाजी?’’ चारों एकसाथ बोले. उन्होंने कहा, ‘‘इन जनाब को तकलीफ हो रही है. इन्हें समझाओ. मेरे पास ढेरों काम हैं,’’ इतना कह कर वे चले गए. और चारों लट्ठधारी लड़कों ने हमें घेर लिया. उन में से एक ने कहा, ‘‘अंकलजी, बात समझ में नहीं आ रही है, समझाएं?’’ मैं घबरा गया. मैं भावी हमले के डर से भयभीत हो गया. मैं ने कहा, ‘‘भाइयो, मुझे कोई तकलीफ नहीं हो रही. बस, मेरा घर उस पार है. मां बीमार हैं. दवा ले कर जाना जरूरी है.’’ तभी महल्ले के पार्षद ने स्थिति भांप ली और वे तेजी से मेरे पास आ कर बोले, ‘‘यार मिश्राजी, आप कोऔपरेट नहीं करते. कल आप के घर में भी किसी की शादी होगी. परिवार वाले हो. आप को समझना चाहिए. थोड़ा घूम कर दूसरा रास्ता पकड़ लो.’’ मैं ने उन्हें बताया कि सारे रास्तों पर तंबू गड़े हैं. मैं तो घर जाना चाहता हूं. मैं आप के साथ हूं. इस घर की शादी मेरे घर की शादी जैसी है. लेकिन आप बताएं कि घर कैसे जाएं? वे गंभीर हो कर बोले, ‘‘हां, यह तो विकट समस्या है. आप ऐसा करिए, अपनी मोटरसाइकिल यहीं खड़ी कर दीजिए, मंदिर के पास. इतनी भीड़भड़क्कन में किसी चोर की हिम्मत भी न होगी. अब रही आप की बात, तो यह जो नाला है, इस में पानी बहुत कम है. कोशिश करिए निकलने की. कामयाब हो जाएं तो निकल जाइए. बाकी आप ही जानें.’’

कोई रास्ता नहीं था. इस से पहले कि मेरे जैसे आम आदमी के साथ फौजदारी हो जाए, अस्पताल की शरण में जाना पड़े, अच्छा है कि रिस्क लिया जाए. पुलिस के पास जाने का कोई लाभ नहीं था. एक बार शिकायत की थी पिछले साल ऐसी ही समस्या आने पर तो थानेदार ने कहा था कि हम क्या किसी की शादी रुकवाने के लिए बैठे हैं. जाइए, हमें और भी काम हैं. फिर जब भी घर के सामने से निकलते, कभी गाली देते, कभी पत्थर फेंकते, कभी झूठी रिपोर्ट दर्ज करा कर अंदर करा देने की धमकी देते रहते. थक कर मैं ने गलती की माफी मांग ली, तो उन्होंने कहा, ‘‘चलो आप को अपनी गलती का एहसास तो हुआ. अन्यथा हम तो आप को स्त्री से छेड़छाड़ के आरोप में अंदर करवाने की सोच रहे थे. एससी एसटी ऐक्ट अलग से लगता. जाओ, माफ किया.’’ तब से थाने का खयाल दिल से यों निकल गया जैसे बेवफा प्रेमिका का खयाल दिल से निकल जाता है. हां अपनेआप होने की टीस जरूर रही, जैसे बेवफाई से आहत रहता है दिल. तो हम डरतेडरते नाले में प्रवेश कर गए. जान बचाने के लिए महामृत्युंजय का जाप भी करते रहे. नाले पर चढ़ने के चक्कर में बैलेंस बिगड़ा, फिर गंदे पानी में गिरे. चीखे, डरे, फिर पैरों को साध कर आगे बढ़े. हिम्मत की और फूलती सांस नाले के गंदे पानी से सराबोर शरीर पर चोटों के निशान के साथ किसी तरह घर पहुंचे. ऐसी ही स्थिति तब आती है जब प्रत्येक गली के बेरोजगार गुंडे टाइप लड़के अपनीअपनी गली को अलग महल्ला सिद्ध कर के गणेश व दुर्गा की स्थापना कर वातावरण को धर्ममय करते हैं. चारों तरफ चंदा दो. हर वर्ष चंदे की रकम बढ़ाई जाती है. यह कह कर कि मूर्ति महंगी है. लाइटिंग, डीजे सब के रेट बढ़ गए हैं. फिर हम पीछे नहीं रहना चाहते. दूसरे महल्ले वालों ने ज्यादा महंगी मूर्ति ली है. हम अपनी नाक नीची नहीं होने देंगे, उन से बड़ी मूर्ति रखेंगे. इस बार 501 रुपए से काम नहीं चलेगा. 1,100 रुपए चाहिए. चंदा यों मांगा जाता जैसे हफ्तावसूली की जा रही हो. न देने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता. होली के हुड़दंग में घर पर कचरा, मैला, गोबर फेंका जाता है. घर की स्त्रियों पर भद्दे कमैंट्स और घर से निकलना मुश्किल हो जाता है.

तो हम दूध वाले, राशन वाले का पेमैंट और घर के जरूरी सामान रोक कर चंदा देते हैं. देना पड़ता है. फिर चारों ओर कानफोडू संगीत, जिस में शीला की… मुन्नी बदनाम…जैसे गाने चौबीसों घंटे बजते हैं. धर्म की बात है. पंडे टाइप के लोग इन मुस्टंडों को यह कहते रहते हैं, ‘‘अरे धर्म का काम है, कुछ दे दोगे तो पुण्य मिलेगा, स्वर्ग में जगह मिलेगी.’’ फिर एक जुमला सुनने को मिलेगा, ‘‘देखते नहीं शुक्रवार को कैसे गलियां, सड़कें भर जाती हैं, तब तो आप कुछ नहीं कहते. यह तो हम हिंदुओं की कमजोरी है कि आप विरोध कर पा रहे हैं.’’ यानी छिपे शब्दों में पूरी धमकी. अब आप टोक कर जान जोखिम में कैसे डाल सकते हैं? फिर ऐसे समय में हमें अपना वाहन कहीं अन्यत्र खड़ा करना पड़ता है और किसी तरह पैदल घर जाते हैं. पत्नी, बेटी का तो उतने समय घर से बाहर निकलना बंद रहता है. स्कूल जाना भी. क्योंकि ये सारे लड़के शराब, गांजे के नशे में चूर रह कर अपने को श्रेष्ठ साबित करने में लगे रहते हैं. चंदे के पैसों से ही इन का नशा कार्यक्रम चलता है और जब तक कि ये धार्मिक आयोजन या वैवाहिक कार्यक्रम संपन्न नहीं हो जाते, हमारी आफत रहती है. यदि इन के कार्यक्रम में टोकाटाकी करें तो हमारे क्रियाकर्म की संभावना भी बन सकती है.

जबजब हम अपना दोपहिया वाहन घर तक न पहुंच पाने के कारण दूसरी जगह खड़ा करते हैं भगवान भरोसे. दूसरे दिन हमें हमारी बाइक से पैट्रोल गायब मिलता है. बाइक से ट्यूब नदारद रहते हैं. वाहन की बैटरी गायब रहती है. ऐसे में आप सोचिए, हम किसी मैकेनिक के पास अपने वाहन को किसी हाथठेले, रिकशे में लाद कर ले जाते हैं. जेब के साथसाथ दिलदिमाग को तकलीफ अलग. एक बार तो गाड़ी चोरी हो गई. लाख पूछताछ की, रिपोर्ट की लेकिन सब ने कहा, ‘‘थोड़ी देर पहले तक तो यहीं थी. पता नहीं. पुलिस वाले कहते हैं, रिपोर्ट लिख ली है. तलाश जारी है. लेकिन चोरी की गई चीज उस आतंकवादी की तरह होती है जो पड़ोसी मुल्क में छिपा होता है. मिल भी गई तो हजार कानूनी झमेले हैं. अच्छा है कि आप दूसरी गाड़ी किस्तों में खरीद लें. फिर हम ने भी मन मार कर सैकंडहैंड मोटरसाइकिल खरीद ली. लेकिन महल्ले का अभी भी यही आलम है. किसी की शादी हो या देवीदेवताओं की बैठक, रास्ते बंद हो ही जाते हैं. कहते हैं कि जब सारे रास्ते बंद हो जाएं तो भगवान कोई न कोई रास्ता खोलता ही है. लेकिन जब रास्ता भगवान के कारण ही बंद हो तब तो कोई रास्ता खुलने का सवाल ही पैदा नहीं होता. तो अब हमें जैसे पता चलता है कि किसी के घर शादी होने वाली है या दुर्गाजीगणेशजी बैठने वाले हैं, उतने दिन के लिए हम गाड़ी घर में रख कर पैदल ही चलते हैं. कभी नाले में से, कभी कोई दीवार फांद कर, कभीकभी तो अवकाश ही ले लेते हैं और घर में बैठे रहते हैं.

चंदा देना तो जरूरी ही होता है चैन से जीने के लिए. फिर चंदा देना न केवल धर्म का काज है बल्कि सुरक्षा का भी. सुरक्षा धर्म से नहीं, महल्ले के उन गुंडों से जो हर शादी, हर जागरण के बाद 4 दिनों तक चौराहे पर बोतलें खोले रात के 2 बजे तक पीते रहते हैं और शुभ कार्यों को अंतिम अंजाम देते रहते हैं.

सऊदी अरब हुक्मरानों की बदलती सोच

सऊदी महिलाओं के लिए साल 2015 बहुत ही अहम रहा. इस साल पहली बार सऊदी सरकार ने देश की महिलाओं को वोट देने और चुनाव में खड़े होने का अधिकार दिया है. अब यह आशा की जा रही है कि सऊदी समाज में महिलाओं की भागीदारी बढ़ेगी और राजनीति में भी वे सक्रिय भूमिका निभा सकेंगी. लेकिन वहीं, कुछ कट्टरपंथी सोच रखने वालों ने इस के खिलाफ माहौल बनाना शुरू कर दिया है ताकि महिलाओं को उन अधिकारों से वंचित रखा जा सके. औनलाइन मुहिम द्वारा महिलाओं को निशाना बनाया जा रहा है और कटाक्ष कर उन्हें चुनाव में हिस्सा लेने से रोकने की मांग की जा रही है. यह मुहिम कितनी कामयाब होगी, इस बहस से हट कर इस बात को निरस्त नहीं किया जा सकता कि महिला अधिकारों का समर्थन करने वालों की संख्या अधिक और प्रबल है जिस से प्रभावित हो कर ही सऊदी सरकार ने यह फैसला किया है. ज्ञात रहे, सऊदी सरकार की संसद, जिसे शूरा कहते हैं, में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 2011 से है लेकिन इस के बावजूद, उन्हें वोट देने अथवा चुनाव में खड़े होने की इजाजत नहीं थी. 2011 में सऊदी सुल्तान अब्दुल्ला बिन अब्दुल अजीज अलसऊद ने संसद में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए 20 फीसदी सीटें आरक्षित करने की घोषणा की थी. इस के बाद 150 सीटों वाली संसद में 30 सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हो गईं.

इस पहल से खाड़ी देशों में सऊदी अरब अकेला ऐसा देश है जहां किसी भी देश की संसद में महिला प्रतिनिधि के मुकाबले अधिक प्रतिनिधि हैं. संयुक्त अरब अमीरात यानी यूएई की 40 सदस्यों वाली संसद में महिलाओं की संख्या 7 है, बहरीन में 40 में 4, कुवैत में 50 में 3, ओमान में 84 में 1 महिला सदस्य है. सब से खराब सूरतेहाल यमन की है जहां 301 सदस्यों वाली संसद में केवल 1 महिला सदस्य है. इस से यह साफ होता है कि सऊदी समाज, जिस में महिलाओं को उन के जायज अधिकार भी हासिल नहीं थे, की सोच में तबदीली आ रही है. सऊदी सरकार द्वारा महिलाओं पर बहुत सी पाबंदियों को खत्म किए जाने के बावजूद उन्हें अभी भी कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है. इन में निकाह, नौकरी और पासपोर्ट के लिए घर के मुखिया से इजाजत लेना अनिवार्य होना भी शामिल है.

बदलाव की बयार

सऊदी महिलाओं ने खेलों में भी हिस्सा लेना शुरू कर दिया है. पहले तो इस की इजाजत नहीं थी फिर जब इजाजत मिली तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर के खेलों के लिए यह शर्त है कि टूर्नामैंट में हिस्सा लेने के लिए घर के किसी आदमी को खेल के मैदान तक जाना पड़ेगा. इतना ही नहीं, इसलामी शिक्षा एवं दिशानिर्देश के अनुसार अपने बदन को छिपाने वाले कपड़े पहनने होंगे. इस के तहत, 2012 में लंदन के ओलिंपिक खेलों में किसी सऊदी महिला ने पहली बार हिस्सा लिया. इस से भी बड़ा बदलाव उस समय आया जब एक सऊदी महिला ने वकालत करने के लिए अपना रजिस्ट्रेशन कराया. इस के पूर्व किसी महिला ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि वह वकालत करेगी. इस महिला के साहस ने अन्य महिलाओं को इस दिशा में आगे बढ़ने का रास्ता दिखाया है. वैसे यह अलग बात है कि इस महिला के लिए वकालत शुरू करने के लिए किसी वकील के अधीन रह कर प्रशिक्षण प्राप्त करना अनिवार्य किया गया था.

सऊदी अरब में अभी भी महिलाओं के कार चलाने पर प्रतिबंध है. बीते दिनों कुछ महिलाओं ने कार चलाने की अनुमति हासिल करने के लिए सऊदी अरब की सड़कों पर गाडि़यां चलाई थीं लेकिन सरकार ने गाडि़यां चला रही महिलाओं को गिरफ्तार कर लिया था. महिलाओं को कार चलाने की अनुमति कब मिलेगी, यह समय ही बताएगा. 2013 में सऊदी सरकार ने कुछ शर्तों के साथ महिलाओं को स्कूटर चलाने की इजाजत दी है. इस के तहत सऊदी महिला के स्कूटर चलाते समय साथ में घर का कोई आदमी रहेगा जो दुर्घटना होने की स्थिति में जख्मी महिला को परदे का लिहाज रखते हुए अस्पताल तक पहुंचाने में मदद कर सके. महिलाओं को मतदान करने और निकाय चुनाव में खड़े होने के खिलाफ कट्टरपंथियों के ए समूह ने देश के मुफ्ती आजम से मुलाकात कर इस बात पर जोर दिया है कि वे इस मामले में हस्तक्षेप करें और महिलाओं को चुनाव में भाग लेने से रोकें. मुफ्ती आजम ने उन की मांग को निरस्त कर दिया है, जिस के बाद इस समूह ने सोशल मीडिया पर मुहिम छेड़ दी है लेकिन इस मुहिम का नतीजा विपरीत निकला और महिला हितों के लिए काम करने वाले और भी ज्यादा सक्रिय हो गए हैं. ऐसे में आशा की जा रही है कि विरोधी समूह अपने मकसद में कामयाब नहीं हो सकेगा.

बहरहाल, सऊदी अरब के इस फैसले का भारत और पाकिस्तान के मुसलमानों पर गहरा असर पड़ेगा. इन दोनों देशों में औरतों के पास चाहे बराबर के हक हों मगर हकीकत यह भी है कि मुसलिम समाज अरब देशों की नकल करने की कोशिश करता है. वहां के बदलाव की हवा यहां पर नए पत्तों को उगने का मौका देगी.

बच्चों को बिगाड़ते हिंसक वीडियो गेम्स

मातापिता को पछतावा है कि उन के बच्चे ने अपने सहपाठी की खेलखेल और मामूली बात में हत्या कर दी. एक और बच्चे ने सही राय देने वाले दूसरे बच्चे का सिर फोड़ दिया. क्लास का यह छोटा बच्चा अकसर पुलिस का रोल करता था और बच्चों की खूब धुनाई करता था, उन की चीजें खा जाता था. किसी के पास अच्छी चीज देखता तो उसे चुरा लेता या तोड़फोड़ देता. इस तरह की अनेक घटनाएं हमारे आसपास रोज ही घटती दिखाई देती हैं लेकिन बच्चे ऐसी हरकत क्यों करते हैं, यह विचारणीय है. बत्रा अस्पताल, दिल्ली की बाल मनोवैज्ञानिक डा. दीपाली का कहना है कि आजकल बच्चे टीवी, वीडियो गेम और कंप्यूटर के संपर्क में बहुत ज्यादा हैं. वे जो कुछ इन गैजेट्स में देखते हैं, उसे अपने जीवन में कौपी करने की कोशिश करते हैं. उन का जीवन घर और स्कूल तक सीमित होता है. दोनों जगह उन्हें मनमानी करने का मौका मिल जाता है. यह मनमानी उन्हें निरंकुश और हिंसक बनाती है. दरअसल, बच्चे वीडियो गेम और कार्टून कैरेक्टर की जगह अपने को अनुभव करते हैं. एक कल्पनात्मक जीवन उन पर हावी होता जाता है. हमें जो व्यवहार हिंसक लगता है वह उन का सामान्य व्यवहार है. वे सबकुछ बहुत सहज रीति से कर रहे होते हैं. उन्हें कुछ भी गलत नहीं लगता. इसीलिए मातापिता को जब तक उन के हिंसात्मक व्यवहार का पता चलता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है. काफी समय तक उन का व्यवहार मांबाप ढकतेछिपाते रहते हैं.

मेरी पड़ोसिन की 4 साल की बेटी सारे दिन वीडियो गेम खेलती और टीवी देखती रहती है. घर में मजाल है कि कोई अपनी पसंद का धारावाहिक देख ले या समाचार अथवा कोई अन्य चैनल लगा ले. अगर कोई ऐसा करने का प्रयास करता हो तो उसे वह थप्पड़, लात मारने लगती है. एक दिन मैं पड़ोसिन के घर अपना मनपसंद कार्यक्रम देखने गई क्योंकि मेरा टीवी खराब पड़ा था. उस ने रोरो कर हंगामा खड़ा कर दिया कि आंटी को यानी मुझे भगाओ. अकसर ऐसे बच्चे मातापिता को होशियार लगते हैं. उन का ध्यान आधुनिक खेल व तकनीक में देख कर मातापिता को लगता है वे होशियार तथा तेज हो रहे हैं. जबकि यही चीज उन के सिर पर हावी हो जाती है. विमहैन्स के क्लीनिकल साइकोलौजिस्ट डा. जौन विक्टर कहते हैं, ‘‘ऐसे बच्चे इन हिंसक खेलों के दुष्प्रभावों से अपनी संवेदनशीलता खोने लगते हैं. उन्हें दूसरों को पीडि़त व परेशान करने में मजा आता है. वे केवल अपने बारे में सोचते हैं. उन्हें सिर्फ अपने आनंद व अपनी तकलीफ से मतलब होता है. ऐसे में उन का अपनेआप से नियंत्रण हटने लगता है. वे हिंसक स्वभाव के हो जाते हैं.’’ ऐसा नहीं है कि हिंसक होते हुए बच्चे पहचाने न जा सकें. आवश्यकता है उन पर निगाह रखने की.

‘आजकल बच्चे ऐसे ही हैं. ये नए युग के बच्चे हैं. हमारी पुरानी पीढ़ी की तरह घोंचू नहीं हैं. 21वीं सदी के बच्चे भी ऐसे नहीं होंगे तो कौन होंगे.’ अकसर मातापिता ये सफाई देते हैं. इस तरह बच्चों को काबू करने का जो योग्य समय होता है वह निकल जाता है. जब हिंसा उन की रगों, दिलोदिमाग में आ कर छा जाती है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है. हिंसा उन के ब्रेन और नर्वस सिस्टम का हिस्सा बन जाती है. वीडियो गेम, टीवी या कंप्यूटर जैसी तमाम चीजें अपनी दृश्यात्मकता के कारण बच्चों को बहुत यथार्थ लगती हैं. जब वे वीडियो गेम खेलते हैं तो वे केवल दर्शक नहीं रहते. वे स्वयं उस का हिस्सा हो जाते हैं. उन की मासूम दुनिया में ये खेल नकारात्मक हिंसा और प्रतिस्पर्द्धा का तानाबाना बुनते हैं. बच्चों को ये गेम्स पहले धीरे और फिर बहुत तेजी से अपने रंग में रंगते हैं. अमेरिकी मनोवैज्ञानिकों ने टीवी शो का बच्चों पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन किया. अध्ययन में पाया गया कि देखने को सच समझने और ऐक्शनप्रधानता के कारण बच्चों का दिमाग हिंसा की ओर ऐसे सहज रूप से प्रवृत्त होता है जैसे वह उन के स्वभाव का हिस्सा हों. बच्चों को खेलने के गुड्डेगुडि़या दिए गए. 6-7 वर्ष के बच्चों ने उन के साथ बहुत प्यारभरा व्यवहार किया, जैसे वे उन के प्यारे दोस्त हों. अगले दिन, उन्हें एक फुटेज दिखाई गई जिस में एक बच्चा बहुत बेरहमी से उस गुड्डे को मार रहा था. ये बच्चे भी अपने गुड्डेगुडि़या को मारने में लग गए. लातघूंसे, उठापटक आदि तमाम तरीकों का उन्होंने इस्तेमाल किया.

यह मानसिक प्रक्रिया कैसी होती है या बनती है, इस बारे में शिशु रोग विशेषज्ञ डा. देवेंद्र कुमार आमेरा कहते हैं, ‘‘जो कुछ हम देखते हैं वैसे ही ब्रेन में स्टिम्युलेशन होते हैं. ये बच्चे को अपनी गिरफ्त में लेते हैं. वीडियो गेम खेलते ही बच्चे हिंसक या प्रतिक्रियाशील नहीं होते. धीरेधीरे देख कर उन में जीतने का जनून हावी होता है. अगले चरण में यह जनून बरकरार रह कर दृढ़ होता जाता है. फिर जिद की हद तक पहुंच जाता है. ‘बाई हुक ऐंड कु्रक’ की स्थिति आ जाती है. तब यह खेल उन के जीवन के सहज हिस्से जैसे होते जाते हैं.’’ इस की गिरफ्त से बच्चे को बचाने के बारे में डा. आमेरा कहते हैं, ‘‘उन के साथ बहुत प्यार से पेश आया जाए. उन की हिंसक प्रवृत्ति को नजर में रख कर भी नजरअंदाज किया जाए यानी आप की निगाह या ध्यान उन पर है, इस का उन्हें पता न लगने दिया जाए वरना वे जागरूक हो जाएंगे. जरूरत यह है कि अपने व्यस्त कार्यक्रम के बावजूद कुछ समय निकाल कर उन्हें बे्रन गेम के बजाय खेल के मैदान में उतारा जाए. वहां कृत्रिम हार मान कर उन्हें जिता कर प्रोत्साहित किया जाए. इस तरह वे अन्य बच्चों से समायोजन व तालमेल बिठाना सीख कर हार को जीत में और जीत को हार में बदलना या सहज रूप से स्वीकारना सीख लेंगे.’’

डा. दीपाली कहती हैं कि लड़कियों पर इस तरह के वीडियो गेम्स का प्रभाव उतना नहीं होता क्योंकि कहीं न कहीं हम उन्हें रचनात्मकता से जोड़े रखते हैं. यही बात हमें लड़कों पर भी लागू करनी होगी. उन की छोटीछोटी रचनात्मकता को उभारना और प्रोत्साहित करना होगा. प्रशंसा व प्यार में कमी नहीं रखनी होगी. लड़कों की संवेदनशीलता को भी गुण मानना चाहिए. समय रहते मनोवैज्ञानिक निदान से हिंसक बच्चे आसानी से राह पर लाए जा सकते हैं. जितनी देर से निदान होगा, सुधार में भी उतनी ही देरी होगी. लेखक डा. वीरेंद्र सक्सेना कहते हैं कि बच्चे हिंसक न हों, इस के लिए वीडियो गेम के साथसाथ शिक्षा व घरेलू माहौल भी सकारात्मक बनाए जाने की आवश्यकता है. ऐसा संभव नहीं कि बच्चा शांति भरे वीडियो गेम देखे और घर में चौबीस घंटे कलह, मारपीट देख कर उस से प्रभावित न हों. बच्चों को एकाग्र करने वाली चीजों और ऐक्टिविटी में लगा कर भी वीडियो गेम का गुलाम होने से बचाया जा सकता है. ये तो वे शौर्टकट हैं जो मातापिता ने अपनी प्राथमिकताओं के चलते बच्चों को व्यस्त रखने के लिए उन्हें खुद थमाए हैं.

हर वीडियो गेम हिंसक नहीं होता, इसलिए उसे एकदम उस से दूर न किया जाए बल्कि धीरेधीरे समझाया जाए. पढ़ाई, पेंटिंग आदि में अगर उस की रुचि हो तो उसे इन ऐक्टिविटीज में व्यस्त रखा जाए. केवल एक साधन दे कर अन्य से हाथ खींच लेना ठीक नहीं. महंगी चीज खरीद कर मातापिता फिर जरा भी खर्चा करना पसंद नहीं करते. उन की इच्छा का सम्मान और तवज्जुह दोनों जरूरी हैं. कहते हैं हिटलर चित्रकार बनना चाहता था पर उस के पिता को उस की रचनात्मकता पसंद नहीं आई. उन्होंने जबरन उसे इस से दूर किया. यदि उस समय उसे रचनात्मक होने या बनने दिया जाता तो शायद वह कभी भी उतना हिंसक नहीं होता. बच्चे मासूम और फूल की तरह होते हैं. वे खिलना चाहते हैं, मुरझाना नहीं. हम लोग समय रहते उन के मन व संसार को मुरझाने से रोक सकते हैं. आज बच्चों पर नंबर लाने का जनून और हीरो बनने का शौक थोप दिया गया है. यह खुद उस के दिमाग की उपज नहीं है. यह बात हमें खुद समय रहते समझनी और माननी होगी. जीत के साथसाथ बच्चों को हार भी स्वीकारना सीखना होगा. वीडियो गेम का झुनझुना बच्चों को थमा कर हम समझ बैठे हैं कि वे अपने में मस्तमग्न हैं, हमें जरा भी डिस्टर्ब नहीं करते तो यह बात हम ने भले ही अच्छा संकेत मान ली हो पर यह सही नहीं है. द्य डा. जौन विक्टर का मानना है कि हिंसा व अक्खड़पन को लोग जैनेटिक मान कर मुक्ति पा लेना आसान समझते हैं जबकि ऐसा नहीं है. ज्यादातर हिंसा और नकारात्मक व्यवहार हम ने अपने परिवेश और प्रकृति से ग्रहण किए हुए होते हैं. आदत और स्थायी प्रकृति का हिस्सा बनने से पहले इन से मुक्ति पाना आसान रहता है.

७वां वेतनमान : सरकारी नौकरों की मौज

7वें वेतनमान के लागू होने के बाद सरकारी नौकरों को कम से कम 18 हजार रुपए प्रतिमाह और अधिक से अधिक 2 लाख 50 हजार रुपए प्रतिमाह का वेतन मिलेगा. इस वेतनमान के लागू होने से सरकारी नौकरों का वेतन 23.55 फीसदी बढ़ जाएगा. आर्थिक मुद्दों के जानकार संगठनों फिच और सिटी ग्रुप के अनुमान हैं कि 7वें वेतन आयोग की सिफारिशों के लागू होने के बाद राजकोषीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद जीडीपी का 0.50 फीसदी तक बढ़ सकता है. सरकार के आय और व्यय के अंतर को राजकोषीय घाटा कहते हैं. इस वेतन वृद्धि के बाद चल रहे वित्त वर्ष में राजकोषीय घाटे को 3.5 के भीतर रखना मुश्किल होगा. राजकोषीय घाटे का लक्ष्य 3.9 है. इस को हासिल करना मुश्किल होगा. आर्थिक बोझ को दरकिनार कर अगर जनता पर पड़ने वाले बोझ को देखा जाए तो जबजब सरकारी कर्मचारियों का वेतनमान बढ़ा है महंगाई बढ़ी है. 7वें वेतनमान से 1.02 लाख करोड़ रुपए का अतिरिक्त बोझ देश पर पड़ेगा. केंद्र सरकार के वित्त मंत्रालय का दावा है कि सरकार को पहले से अनुमान था कि 7वें वेतनमान के लागू होने का असर पडे़गा इसलिए वह पहले से ही सचेत था. सरकार के सामने आगे कोई जोखिम आने वाला नहीं है. इस के विपरीत रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने कहा कि भारतीय अर्थव्यवस्था सार्वजनिक और निजी निवेश में गिरावट के दौर से गुजर रही है. इस से देश की अर्थव्यवस्था को नुकसान हो रहा है. ऐसे में 7वें वेतनमान के रूप में अतिरिक्त बोझ देश के सामने नई चुनौतियां खड़ी कर रहा है. देश के सामने जीडीपी ग्रोथ को बनाए रखना आसान नहीं होगा. देसी रेटिंग एजेंसी क्रिसिल का मानना है कि 7वें वेतनमान के लागू होने के बाद उपभोक्ता मांग बढ़ेगी. उपभोक्ता मांग सरकारी कर्मचारियों के लिए सहज हो सकती है पर बाकी जनता बढ़ती महंगाई के बोझ के नीचे दब जाएगी.

हैरानी यह है कि सरकारी नौकर वेतन में 23.55 फीसदी वृद्धि से भी खुश नहीं हैं. इंडियन पब्लिक सर्विस सर्विसेज इंप्लाइज फैडरेशन के अध्यक्ष वी पी मिश्र का कहना है कि वेतन आयोग ने फैडरेशन की केवल 2 मांगों–वन रैंक वन पैंशन और पे ग्रेड को खत्म करने को माना है. बाकी मांगों पर वेतन आयोग ने कोई विचार नहीं किया. इसलिए फैडरेशन इस वेतनमान से खुश नहीं है. फैडरेशन अपने मुद्दों को ले कर आंदोलन की तैयारी में है. दरअसल, सरकारी नौकरों की नाराजगी की बड़ी वजह यह है कि छोटे कर्मचारियों के वेतन में 2,670 रुपए की वृद्धि हुई है जबकि कैबिनेट सेक्रैटरी के वेतन में 1 लाख 60 हजार रुपए की. वेतन आयोग ने बडे़ और छोटे अफसरों के बीच जो भेदभाव रखा है उस से असंतोष बढ़ रहा है  

उत्तर प्रदेश सरकार में काम कर रहे राजस्व विभाग के एक अफसर कहते हैं, ‘‘केंद्र सरकार ने अपने नौकरों के लिए 7वां वेतनमान लागू कर दिया है. इस से अब राज्य सरकारों पर भी दबाव होगा कि वे भी अपने प्रदेशों में 7वां वेतनमान लागू करें. इस का एक राजनीतिक उद्देश्य भी है. उत्तर प्रदेश में 2017 में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. उत्तर प्रदेश की वर्तमान सरकार पर दबाव होगा कि वह इस बढे़ वेतनमान को लागू करे. अगर वर्तमान सरकार बढे़ वेतनमान को लागू न कर पाएगी तो सहज भाव उस के खिलाफ और 7वां वेतनमान लागू करने वाली केंद्र सरकार के पक्ष में होगा. इस का उसे चुनावी लाभ मिल सकेगा. 1990 के बाद सरकारी नौकरियों में दलित व पिछडे़ वर्ग के लोगों की संख्या सब से अधिक बढ़ी है. ऐसे में यह वोटबैंक उस के साथ हो सकता है. बिहार चुनाव की करारी हार के बाद केंद्र सरकार अपनी साख बचाने के लिए 7वें वेतनमान का सहारा ले रही है.’’

10 साल में नया वेतन आयोग

सरकारी नौकरों के लिए सरकार ने हर 10 साल में नए वेतनमान का गठन अब तक किया है. 1946 में श्रीनिवास वरदचारियार की अध्यक्षता में पहले वेतन आयोग का गठन किया गया. उस समय मूल वेतन 35 रुपए था. देश की आजादी के बाद इस वेतन आयोग की सिफारिशें लागू हुईं. इस के बाद 1957 में जगन्नाथ दास की अध्यक्षता में दूसरा वेतन आयोग आया. उस ने न्यूनतम वेतन 80 रुपए रखा. 1970 में तीसरा वेतनमान रघुवीर दयाल की अगुआई में बना, इस में मूल वेतन 135 रुपए रखा गया. 1983 में चौथा वेतन आयोग पी एन सिंघल की अध्यक्षता में बना, इस में न्यूनतम वेतन 750 रुपए रखा गया. इस के बाद 1994 में 5वां वेतन आयोग जस्टिस एस पांडियन की अध्यक्षता में बना. 5वें वेतन आयोग में मूल वेतन 2,550 रुपए रखा गया. 2006 के छठे वेतनमान में यह वृद्धि बढ़ कर 7 हजार रुपए हो गई. छठे वेतन आयोग के अध्यक्ष जस्टिस बी एन कृष्णा थे.  जस्टिस ए के माथुर की अध्यक्षता में बने 2014 में 7वें वेतन आयोग में मूल वेतन बढ़ कर 18 हजार रुपए हो गया है.

वेतन वृद्धि और बढ़ती महंगाई के समीकरण को वेतन आयोग में होने वाली वृद्धि से देखा व समझा जा सकता है. महंगाई का असर 1980 के बाद बढ़ना शुरू हुआ जब न्यूनतम वेतन करीब 6 गुना बढ़ कर 750 रुपए हो गया. महंगाई में असल तेजी 1990 के बाद देखने को मिली जब न्यूनतम वेतन 4 गुना बढ़ कर 2,550 रुपए हो गया. छठे वेतनमान के बाद महंगाई आगे बढ़ी जब न्यूनतम वेतन बढ़ कर 7 हजार रुपए हो गया. वेतनमान के बढ़ने के चलते महंगाई बढ़ने की आशंका से लोग अनुभव कर रहे हैं कि 7वां वेतनमान लागू होने के बाद महंगाई और भी तेजी से बढ़ेगी. केंद्र सरकार में करीब 18 फीसदी नौकरों के पद खाली हैं. केंद्र सरकार में कुल 40 लाख 48 हजार 707 स्थायी पद हैं. इस समय 33 लाख 1 हजार 536 कर्मचारी ही कार्यरत हैं. 7 लाख 47 हजार 171 पद खाली हैं. केंद्र सरकार के वेतनमान लागू करने के बाद सभी प्रदेशों पर इस बात का दबाव होगा कि वे अपने यहां भी इस वेतनमान को लागू करें. 

सरकारी नौकरियों का आकर्षण

सरकारी नौकरियों के बढ़ते वेतनमान के चलते युवाओं में सरकारी नौकरी के प्रति आकर्षण तेजी से बढ़ रहा है. इस को देखते हुए सरकारों ने लगातार सरकारी नौकरियों में परीक्षा शुल्क को बढ़ा दिया है. सरकारी नौकरियों में बढ़ते परीक्षा शुल्क का मुख्य कारण सरकारी नौकरियों का बढ़ता आकर्षण होता है. इस को समझने के लिए उत्तर प्रदेश सचिवालय में चपरासी भरती के लिए आए आवेदनपत्रों को देखना चाहिए. 368 चपरासी के पदों की भर्ती के लिए 23 लाख लोगों ने आवेदन किया. चपरासी की भरती के लिए योग्यता 5वीं पास रखी गई. जिन लोगों ने आवेदन किया उन में से 2 लाख से ज्यादा ग्रेजुएट और पोस्टग्रेजुएट थे. 255 लोगों ने पीएचडी कर रखी थी. 20 लाख लोग कक्षा 12 पास थे. केवल 53 हजार लोेग ऐसे थे जो 5वीं कक्षा तक ही पढे़ थे. एक पद के लिए करीब 6 हजार 250 लोगोें ने आवेदन किया. चपरासी की नौकरी करने के लिए पहले कोई आवेदन नहीं करता था. अब चपरासी की नौकरी के लिए भी लोग तैयार हैं. सरकारी नौकरी में छोटे से छोटे पद के लिए लोग कुछ भी करने को तैयार हैं. सरकारी नौकरी को पाने के लिए लोग केवल महंगी परीक्षा फीस ही देने को तैयार नहीं होते बल्कि वे रिश्वत भी देने को तैयार रहते हैं. सरकारी नौकरियों की भरती में होने वाली गड़बडि़यों की मुख्य वजह रिश्वत ही होती है. लेखपाल की नौकरी के लिए 6 से 9 लाख रुपए की रिश्वत लोग देने को तैयार थे. इसी तरह, दारोगा भरती में 10 से 15 लाख रुपए तक रिश्वत की मांग होे रही थी. रिश्वत के इस पैसे को जुटाने के लिए लोग घर की जमीन, खेत और गहने तक बेचने से पीछे नहीं हटते हैं. चपरासी और लेखपाल की भरती के बाद जितना वेतन सरकार से मिलता है उस के मुकाबले रिश्वत की रकम बहुत होती है. इस के बाद भी लोग तैयार रहते हैं. कितने लोग तो रिश्वत बिचौलियों को दे कर फंस जाते हैं. ऐसे बहुत से मामले प्रकाश में आते हैं जिन में लोग शिकायत दर्ज कराते हैं कि सरकारी नौकरी के लिए उन के साथ ठगी की गई.

नौकरी, रिश्वत और आरक्षण

सरकारी नौकरी के आकर्षण की मूल वजह ज्यादा वेतन और कम काम होता है. इस के अलावा रिश्वत पाने की संभावनाएं बहुत होती हैं. 15 साल पहले एक पतिपत्नी ने साथसाथ नौकरी शुरू की. पति प्राइवेट नौकरी में था. उस समय उस का वेतन 6 हजार रुपए था. पत्नी सरकारी नौकरी में थी. उसे 16 हजार रुपए मिलते थे. 15 साल बाद पति को 30 हजार रुपए का वेतन मिल रहा है जबकि उस की पत्नी का वेतन 1 लाख 20 हजार रुपए हो गया है. पत्नी को रहने के लिए सरकारी मकान अलग से मिला है. काम का समय तय है. औफिस में छुट्टी की कमी नहीं है. इस में सरकारी नौकरी जाने का खतरा नहीं होता. हर साल महंगाई भत्ता और दूसरी सुविधाएं अलग से मिलती हैं. सरकारी नौकरी का स्थायित्व अलग आत्मविश्वास देता है. हर तरह की सरकारी नौकरी में रिश्वत लेने की अपार संभावनाएं होती हैं. सरकारी नौकरों के पास काम कराने तमाम लोग जाते रहते हैं. सुबह से शाम तक लाइन लगी होती है. छोटे से छोटा सरकारी नौकर भी बड़े काम का होता है. वह काम कराने वाले साहब तक सीधी पहुंच रखता है. इस में साहब का ड्राइवर, रसोइया, चौकीदार और चपरासी तक शामिल होते हैं. सरकारी विभाग में हर काम करने के बदले रिश्वत की दरकार होती है. दलित और ओबीसी बनना सभी जातियां चाहती हैं ताकि उन को आरक्षण के लाभ के सहारे सरकारी नौकरी मिल जाए. उत्तर प्रदेश की 17 ओबीसी जातियों ने खुद को दलित जातियों में शामिल करने की गुहार लगा रखी है. वे यह कदम दलितप्रेम में नहीं उठा रहीं, वे चाहती हैं कि दलितों के कोटे का मिलने वाला आरक्षण उन को मिलने लगे, जिस से वे सरकारी नौकरी पा जाएं और फिर खूब रिश्वत वसूलें. 

रोजगार साधनों की कमी

सरकारी नौकरी के लिए परीक्षा फीस लेने वाले तर्क देते हैं कि परीक्षाओं का आयोजन कराने में खर्च होता है, इस के लिए फीस ली जाती है. उन की इस बात में दम हो सकता है. जब खर्च से अधिक फीस ली जाए तो महंगी परीक्षा फीस पर सवाल उठने लगते हैं. जरूरत इस बात की है कि परीक्षा की ऐसी व्यवस्था हो जिस के आयोजन में कम से कम फीस ली जाए. कोशिश हो कि छात्र को अपने शहर में ही परीक्षा देने का मौका मिले. उसे दूसरे शहर न जाना पडे़. इस से सरकार और परीक्षा इंतजाम करने वाली संस्थाओं का मुनाफा खत्म हो सकता है. देश में बेरोजगारों की दिनोंदिन बढ़ती समस्या को देखते हुए ऐसे प्रबंध करने जरूरी हो गए हैं. परीक्षा में नया सिस्टम बनाना होगा जिस में गड़बड़ी की संभावनाएं कम हों. परीक्षा देने में सरलता हो. प्राइवेट क्षेत्र के रोजगार में लोगों को सुविधाएं नहीं मिलतीं. वहां भी वेतन और तरक्की को ले कर चाटुकारिता और जीहुजूरी चलने लगी है. ऐसे में लोग प्राइवेट जौब की जगह किसी भी तरह से सरकारी जौब पाने के लिए भागते रहते हैं. कुछ साल पहले तक जब देश में प्राइवेट सैक्टर में जौब थीं तो लोग सरकारी नौकरी की तरफ कम जाते थे. 6 से 7 सालों में आर्थिक मंदी के चलते प्राइवेट सैक्टर में नौकरियों में कमी आई है. वहां वेतन और सुविधाएं कम हुई हैं. देश में सब से अधिक रोजगार के साधन कृषि क्षेत्र में हैं. इस के बाद कंस्ट्रक्शन, कारोबार, मैन्युफैक्चरिंग और शिक्षा के क्षेत्र में हैं. खेती में हो रहे नुकसान ने कृषि क्षेत्र में रोजगार की संभावना क ो कम कर दिया है. दूसरे क्षेत्रों में भी नौकरियां कम हो गई हैं. ऐसे में देश को बेरोजगारी के बोझ से बचाना है तो प्राइवेट सैक्टर को मजबूत करना होगा ताकि वहां रोजगार बढ़ सके और सरकारी नौकरियों पर दबाव कम हो सके. रोजगार के अवसर बढ़ने से लोग आरक्षण जैसे मुददों को भी भूल सकेंगे. अगर लोगों को प्राइवेट सैक्टर में अच्छे रोजगार मिलेंगे तो वे सरकारी नौकरियों की तरफ भागेंगे नहीं, न ही रिश्वत दे कर सरकारी नौकरी पाने की फिराक में रहेंगे.

धर्मयुद्ध के मुहाने पर दुनिया

दुनिया एक बार फिर विश्वयुद्ध के कगार पर है. विश्व के देशों में आईएस से निबटने की रणनीति तैयार की जा रही है. दूसरे विश्वयुद्ध की तर्ज पर विभिन्न देशों के  बीच गुटबंदी शुरू हो चुकी है. एकदूसरे पर जबान और हथियारों से हमले किए जा रहे हैं. सामरिक रणनीतियां परवान चढ़ाई जाने लगी हैं. कारण वही है चिरपरिचित, सदियों पुराने सड़ चुके धर्म और तमाम पराकाष्ठाओं को लांघती धर्मों की बर्बर संकीर्ण सोच, जिस के कारण सदियों से इस पृथ्वी पर बड़ीबड़ी लड़ाइयां होती रही हैं. 13 नवंबर को आईएस द्वारा फ्रांस में किया गया हमला एक तरह से दूसरे पर्ल हार्बर पर आक्रमण था. 13 नवंबर के हमले में पेरिस के कंसर्ट हौल में 130 लोगों को जान गंवानी पड़ी. इस हमले के बाद सीरियाई क्षेत्र में स्थित आईएस के ठिकानों पर फ्रांस सरकार के बमवर्षक विमानों की गड़गड़ाहट गूंजने लगी. फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद ने बदला लेने की बात कहते हुए वहां अपनी सैन्यशक्ति झोंक दी. बदले की इस कार्यवाही के बाद मुसलिम देशों में ही नहीं, अन्य राष्ट्रों में भी युद्ध की भयावहता पर चिंता व्याप्त हो गई. इस कार्यवाही में रूस, ब्रिटेन, अमेरिका भी शामिल हो गए हैं और आईएस पर हमला बोल दिया गया है. दुनियाभर के देशों में हलचल बढ़ गई है. फ्रांस पर हमले के बाद रूस के विमान को तुर्की द्वारा गिरा देने के बाद कुछ देशों के बीच आपसी तल्खी और बढ़ गई. आईएस से मुकाबले के लिए गैरइसलामी देशों के बीच एकता दिखाई देने लगी.
 
पश्चिमी देशों को आशंका सता रही है कि आईएस के पास जैविक हथियार न हों और अगर परमाणु हथियार उन के हाथ लग गए तो दुनिया को भारी विनाश से कोई नहीं रोक पाएगा.लिहाजा, अमेरिका और यूरोपीय देशों के बीच मामले को ले कर गंभीर गुफ्तगू चल रही है क्योंकि आईएस अपने मजहब बहुल वाले देशों में कत्लेआम तो मचाए हुए है ही, पश्चिम के लिए भी खतरा बना हुआ है. रूस ने सीरिया के अपने वायुसेना ठिकाने पर मिसाइल रक्षा प्रणाली तैनात करने का ऐलान कर दिया. उधर, भारत और रूस का साझा युद्धाभ्यास पोखरण क्षेत्र में शुरू हो गया. यूक्रेन ने सभी रूसी विमानों को अपनी हवाई सीमा में प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया. उधर, रूस ने यूक्रेन के लिए गैस की खेप रोकने का ऐलान कर दिया था. यूक्रेन अपनी ऊर्जा जरूरतों के लिए बहुत हद तक रूस पर निर्भर है. जापान, जरमनी, आस्ट्रेलिया समेत दूसरे देश भी सतर्क हो गए हैं. इन देशों की सेनाओं ने अपनेअपने हथियार पोंछने, चमकाने शुरू कर दिए हैं. रोचक तथ्य है कि कभी नाटो के सदस्य रहे पाकिस्तान ने आईएस के खिलाफ युद्ध में शामिल होने से इनकार कर दिया. पाकिस्तान का कहना है कि उस के 1 लाख 82 हजार सैनिक पहले से ही अफगानिस्तान की सीमा पर तैनात हैं.
 
इराक व सीरिया से भाग रहे और मारे जा रहे लोगों के हालात विश्वयुद्ध जैसे ही हैं. इन घटनाक्रमों को विश्वयुद्ध का आगाज माना जा रहा है. आमतौर पर जनमानस की धारणा है कि अमेरिका, फ्रांस जैसे देशों पर आतंकवादियों के हमले इसलाम के नाम पर कट्टरपंथियों का काफिरों यानी गैर मुसलमान देशों पर हमला है. इस संघर्ष में एक तरफ कट्टर इसलामी संगठन और भीतरी तौर पर उन की पैरोकार सरकारें तथा दूसरी ओर बाकी धर्मों के मानने वाले देश शामिल हैं. आतंकियों के निशाने पर प्रगतिशील, उदार विचारों वाले मुसलिम और उन के देश भी हैं. इराक, सीरिया, लेबनान, तुर्की, सऊदी अरब, सूडान, लीबिया, अफगानिस्तान, पाकिस्तान और भारत समेत कई देश आईएस के निशाने पर हैं. आईएस इन देशों को इसलामिक राज्य घोषित करना चाहता है और फिर यहां इसलामिक शरीया कानून थोपने की सोच रहा है. यह बात आईएस कई बार जाहिर कर चुका है. यह कट्टरपंथी संगठन मध्यपूर्व की प्राचीन धरोहर को नष्ट करने में लगा है. वह दूसरे धर्मों के स्थलों को नेस्तनाबूद कर रहा है. सैकड़ों लड़कियोें को अपहृत कर वह उन के साथ बलात्कार, जबरन शादी करता है उन का और धर्म परिवर्तन करा रहा है. वह सीरिया केकुछ हिस्से पर कब्जा कर चुका है जहां उसी की हुकूमत चलती है. अब वह लीबिया में घुस रहा है. पश्चिम एशिया में मजहब बड़ी समस्या है. राज्य की पहचान स्थापित करने मुसलमानों और उस की ताकत दिखाने में वहाबी मुसलमानों और शिया मुसलमानों द्वारा इसलाम के इस्तेमाल किए जाने का वहां इतिहास रहा है. क्षेत्र में संस्कृति बहुल के लिए कोई विशेष जगह नहीं रही है कि शिया, सुन्नी, यजिदी, कुर्द, तुर्क, ईसाइयों के विभिन्न पंथ हाशमी, बेडूइन और यहूदी शांतिपूर्ण रहे हों. फ्रांस और ब्रिटेन सहित यूरोप द्वारा उपनिवेश बनाने तथा अमेरिका के हाल के हमले का यहां इतिहास रहा है.
 
एशिया एकमात्र महाद्वीप है जो दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जापान में हुए परमाणु हमले का घाव झेल चुका है. चिंता इस बात की है कि एशिया में कईर् देशों के पास परमाणु हथियार हैं. रूस, भारत, चीन, पाकिस्तान और उत्तर कोरिया परमाणु हथियारों से लैस हैं. मौजूदा समय में एशिया में शक्ति संतुलन के लिए कई देशों में होड़ लगी है. शीतयुद्ध की महाशक्ति रूस सहित चीन और भारत भी महाशक्ति के तौर पर अपना दावा पुख्ता करने में लगे हैं. 2013 में उत्तर कोरिया के परमाणु परीक्षण करने के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा उस पर प्रतिबंध लगा दिए गए थे. उस के बाद अमेरिका और दक्षिण कोरिया ने सालाना संयुक्त सैन्य अभ्यास शुरू किया जिस के बाद उत्तर कोरिया ने आरोप लगाया था कि अमेरिका इस क्षेत्र में अपनी शक्ति स्थापित करने के लिए उसे जंग की ओर ढकेलना चाहता है. इस क्षेत्र में धर्म की कट्टरता और खूनी नफरत का फैलाव जारी है. इन सब के बीच भारत भी इसलामी आतंकवाद के भय से गैरइसलामी देशों के साथ दोस्ताना ताल्लुकात बढ़ा रहा है. महाभारत युद्ध की तर्ज पर विश्वभर के राजाओं के साथ मिल कर युद्ध में जीत की जमीन तैयार की जा रही है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पिछले डेढ़ साल में आधी दुनिया को नाप चुके हैं. वे इसलामी आतंकवाद के खिलाफ विश्व के देशों को एकजुट करने की कवायद में जुटे हैं. इस के साथ वे विश्व में रह रहे प्रभावशाली अमीर हिंदू भारतीयों के जरिए कई देशों की सरकारों को वश में करने के प्रयास में हैं.
 
यह असल में धर्मयुद्ध है. इस पृथ्वी पर धर्मयुद्धों का बहुत पुराना इतिहास रहा है. यूरोप में शताब्दियों पहले दशकों तक चले क्रुसेड्स में करोड़ों लोग धर्म की बलि चढ़ गए थे. प्रथम विश्वयुद्ध की बात करें तो कहने को यह औद्योगिक कारणों से लड़ा गया लेकिन इस के पीछे गुलाम बनाने वाली धार्मिक श्रेष्ठ मानसिकता निहित थी. 1914 से 1918 में लड़े गए इस महायुद्ध में बड़े देश ऐसे उपनिवेश चाहते थे जहां वे कच्चा माल पा सकें और मशीनों से बनाई गई चीजें बेच सकें. इस काम के लिए सैनिक संधियां की गईं. इस से देशों में आपसी अविश्वास और वैमनस्य उत्पन्न हुआ. बहाना बना आस्ट्रिया की गद्दी के उत्तराधिकारी आर्क ड्यूक फर्डिनैंड और उन की पत्नी की हत्या का.
इस वारदात के एक महीने बाद आस्ट्रिया ने सर्बिया के खिलाफ युद्ध का ऐलान कर दिया. फ्रांस, रूस और ब्रिटेन ने सर्बिया की मदद की और जरमनी, आस्ट्रिया की तरफ हो गया. कुछ समय बाद ब्रिटेन, जापान की ओर से व तुर्की, जरमनी की ओर से युद्ध में शामिल हो गया. युद्ध यूरोप, एशिया और अफ्रीका-3 महाद्वीपों में लड़ा गया. शुरू में जरमनी की जीत हुई. जरमनी ने कई व्यापारी जहाजों को डुबो दिया. इस से अमेरिका, ब्रिटेन की तरफ से युद्ध में कूद पड़ा पर रूसी क्रांति के बाद रूस अलग हट गया. 1918 में ब्रिटेन, फ्रांस और अमेरिका ने जरमनी व दूसरे देशों को हरा दिया. इस महायुद्ध में करीब 1.6 करोड़ लोगों को जान गंवानी पड़ी थी. प्रथम विश्वयुद्ध का आधार 13वीं शताब्दी में ही तैयार हो गया था. तब ओटोमन साम्राज्य तमाम मुसलिम राष्ट्रों से बड़ा था. वहां ज्यादातर लोग मुसलमान थे या परिवर्तित थे. 13वीं सदी से ही उन में पड़ोसी ईसाइयों से वैरविद्वेष था. इन मुसलिम देशों की सेनाएं यूरोप केखिलाफ सैनिक मार्च निकालती थीं. सेना में उलेमा, धर्मगुरु भी होते थे. 1481 के बाद तुर्क शासन ग्रीक और बाल्कन समेत एशिया में स्थापित हो गया. तुर्क इसलामिक शासन स्थापित करना चाहते थे. उन के शासन में यहूदी दूसरे दरजे में आते थे पर वे इसलाम धर्म अपनाकर शासक वर्ग में शामिल हो सकते थे.

 
पहले विश्वयुद्ध के समय भारत औपनिवेशिक शासन के अधीन था. भारत के सैनिक भी युद्ध में शामिल हुए थे. युद्ध शुरू होने से पहले जरमनी ने कोशिश की थी कि भारत में ब्रिटेन के खिलाफ आंदोलन शुरू किया जा सके लेकिन रियासतों और कांग्रेस ने इस युद्ध में ब्रिटेन की आर्थिक और सैनिक सहायता की थी. 1933 में जरमनी  का शासक एडोल्फ हिटलर बना और उस ने एक शक्तिशाली सैन्य ताकत के रूप में प्रदर्शन करना शुरू कर दिया. यहूदियों से नफरत दूसरे विश्वयुद्ध का सब से बड़ा कारण था. इस बात से फ्रांस और इंगलैंड चिंतित हो गए जो पिछली लड़ाई में काफी नुकसान उठा चुके थे. उधर, इटली भी इस बात से परेशान था कि जरमनी उस के काम में दखल देगा क्योंकि इटली भी शक्तिशाली बनना चाहता था. इन तमाम बातों के चलते खुद को बचाने के लिए फ्रांस ने इटली के साथ हाथ मिलाया और उस ने अफ्रीका में इथियोपिया को इटली को देने का फैसला कर लिया. यह देश उस के कब्जे में था. हिटलर ने संधि तोड़ी, घोषणापत्रों को दरकिनार किया. इटली ने इथियोपिया पर हमला कर दिया. केवल जरमनी ने इस हमले को सही ठहराया. इस कारण इटली ने जरमनी को आस्ट्रिया पर कब्जा करने की मंशा को हरी झंडी दे दी.
 
वक्त बीतता गया, देशों के बीच तनाव बढ़ता गया और एकदूसरे से ताकतवर बनने की कोशिशें होती रहीं. यूरोप में जरमनी और इटली ज्यादा शक्तिशाली होते जा रहे थे. जरमनी ने 1938 में आस्ट्रिया पर हमला बोल दिया. लेकिन दूसरे यूरोपीय देशों ने इस का विरोध नहीं किया. इस बात से हिटलर उत्साहित होता गया. दूसरे विश्वयुद्ध के समय भी भारत पर अंगरेजों का कब्जा था, इसलिए भारत ने नाजी जरमनी के खिलाफ युद्ध में भाग लिया. गुलाम भारत की ओर से 20 लाख से ज्यादा सैनिक युद्ध के लिए लड़े. इस के अलावा सभी देसी रियासतों ने युद्ध के लिए बड़ी मात्रा में अंगरेजों को धनराशि दी थी. 1939 से 1945 तक चले दूसरे विश्वस्तरीय युद्ध में 70 देशों की सेनाएं शामिल थीं. इन में धर्म ओतप्रोत था. युद्ध में विश्व 2 हिस्सों में बंट गया था. इस में 10 करोड़ सैनिकों ने हिस्सा लिया. यह मानव इतिहास का सब से ज्यादा घातक युद्ध साबित हुआ. इस में 5 से 7 करोड़ लोगों की जानें गईं. इस की शुरुआत नाजी जरमनी द्वारा की गई. यह धार्मिक वैमनस्य की उपज थी. नाजी यहूदियों को खत्म कर देना चाहते थे. जरमनी ने पहले पोलैंड पर हमला बोला. उस के बाद फ्रांस ने जरमनी पर युद्ध की घोषणा कर दी तथा इंगलैंड व दूसरे राष्ट्रमंडल देशों ने भी इस की स्वीकृति दे दी. जरमनी ने 1939 में यूरोप में एक बड़ा साम्राज्य बनाने के उद्देश्य से पोलैंड पर हमला किया था. अंत तक जरमनी ने यूरोप का एक बड़ा भाग अपने अधीन कर लिया था. 1944 और 1945 के दौरान अमेरिका ने कईर् जगहों पर जापानी नौसेना को शिकस्त दी तथा पश्चिमी प्रशांत के कई द्वीपों पर अपना कब्जा जमा लिया. जब जापानी द्वीप समूह पर आक्रमण करने का समय आया तो अमेरिका ने जापान में 2 परमाणु बम गिरा दिए. मध्य युग में 11 से 13वीं सदी के बीच 200 सालों तक यूरोप में धर्मयुद्ध चला. 10वीं सदी के आखिरी वर्षों में इसराईल पर कब्जे के लिए खूनी युद्ध शुरू हो गया था. भारत में 1947 के भारतपाक विभाजन का संघर्ष और जम्मूकश्मीर में दशकों से धर्मयुद्ध चल रहा है. भारतपाकिस्तान के बीच 6 दशक से ज्यादा समय से लड़ाई चल रही है. यह धर्मों की नफरत का ही नतीजा है. 
 
धर्मग्रंथों में जिहाद
 
असल में इन देशों में धर्म पर आधारित कानून बने हुए हैं जो दूसरे धर्म के साथ भेदभाव करने वाले होते हैं. ज्यादातर अरब देशों में मजहबी किताबों में लिखी गई बातों को ही कानून बना दिया गया है. इन किताबों में जिहाद की शिक्षा दी गई है. बताया गया है कि  काफिरों को खत्म कर देना चाहिए. ऐसा करना ऊपर वाले का हुक्म है. लिहाजा मुसलिम देशों में बच्चों के खून में जिहाद बहने लगता है. धर्र्म के लिए वे कुछ भी करगुजरने को तैयार रहते हैं. लोकतंत्र को धर्म पनपने नहीं देता. धर्म व्यक्ति पर तानाशाही थोपता है. लोकतंत्र दरअसल लोगों की स्वतंत्रता की पैरवी करता है, इसलिए मजहबी देशों में मानव अधिकारों का हनन अधिक होता है. धर्मग्रंथों में जिहाद का जिक्र है. 11वीं सदी के आरंभ में क्रुसेडरों ने जब यरुशलम के लिए मोरचाबंदी की तो पहली बार मुसलमानों को जिहाद के लिए इकट्ठा किया गया. सीरिया को एकजुट कर मुसलमानों ने ईसाइयों को खदेड़ कर इसलामिक गणराज्य बनाया. इस के बाद से जिहाद और बड़े पैमाने पर दुनिया में फैलने लगा. ईसाइयों ने अपनी पवित्र भूमि फिलिस्तीन और उस की राजधानी यरुशलम स्थित ईसा की मजार पर कब्जा करने के लिए 1095 और 1291 के बीच धर्मयुद्ध किए. उस वक्त उस जमीन पर इसलाम की सेना ने कब्जा जमा रखा था. लेकिन कहा जाता है कि इस भूमि पर मूसा ने अपने राज्य की स्थापना की थी. इस भूमि पर यहूदी भी अपना अधिकार चाहते थे. यह युद्ध धर्मों का युद्ध था. ईसाई, मुसलमान और यहूदी आज भी यहां युद्ध जारी रखे हुए हैं.
धर्म की इस सोच के कारण ही आईएस, तालिबान, जैश-ए-मोहम्मद जैसे खूंखार आतंकवादी संगठन कामयाब होते रहे हैं. विश्व में बड़ी संख्या में युवा इन संगठनों में भरती होने को लालायित दिखाई देते हैं. इन में अनपढ़ ही नहीं, पढे़लिखे लोगों की तादाद भी ज्यादा है. ये लड़ाके यूरोप, अमेरिका जैसे समृद्ध देशों में जा कर उन पर हमला कर के धर्म का मकसद पूरा करने में जुटे हैं. एक धर्म को दूसरा धर्म फूटी आंखों नहीं सुहाता. इसलिए मुसलिम देशों के ये आतंकी कभी अमेरिका, कभी ब्रिटेन, कभी फ्रांस तो कभी अन्य धर्म वाले देशों में खूनखराबा करते हैं. ये संगठन भावी विश्वयुद्ध का कारण बनेंगे. युद्ध हमेशा बरबादी ले कर आता है. पहले से ही गरीब, पिछड़े, भुखमरी के शिकार देशों की हालत और खराब होगी. सीरिया, इराक से भाग कर यूरोप, अमेरिका, जरमनी जैसे देशों में शरण लेने के लिए समुद्र में डूबते, भूख, बीमारी से मरते लोगों को देख कर धर्मयुद्धों के दृश्य ताजा हो रहे है. आईएस के हमलों में हजारों लोग मारे जा चुके हैं, लाखों बेघर हो चुके हैं.
 
इसलामिक स्टेट का हो खात्मा
 
विश्वयुद्ध के लिए विश्वभर में जनमत तैयार होने लगा है. यूरोप के अधिकांश देशों में मुसलमानों को शक की निगाहों से देखा जाने लगा है और उन से भेदभाव बढ़ने लगा है. इसलामिक स्टेट की बर्बरता का जवाब यूरोप या अमेरिका में रह रहे आम मुसलमानों के प्रति अपमानजनक व्यवहार किया जाना नहीं है पर कट्टरपंथी चाहते हैं कि ऐसा हो ताकि दुनिया इसलामी और गैरइसलामी खेमों में बंट जाए ताकि हथियारों में कमजोर मुसलिम आत्मदाह को हथियार बना कर पश्चिमी देशों में भयंकर भय का वातावरण बना सकें. अब के युद्ध में और पिछले युद्धों में फर्क यह है कि अब यूरोप और अमेरिका अपने नागरिकों की जान की बहुत परवा कर रहे हैं. पिछले युद्धों में सरकारों ने सैनिकों की जानों की कोई चिंता न की थी. दूसरी तरफ मुसलिम देशों में जिहाद का प्रचार खूब हो रहा है और धर्म के नाम पर मुसलमान मरने को तैयार हैं. क्या यूरोप, अमेरिका अपनी तकनीक के सहारे इसलामिक स्टेट को समाप्त कर पाएंगे? यह न भूलें कि बहुत सी तकनीकें तो पहले से ही इसलामिक स्टेट के हाथों में हैं.

 
भारत की स्थिति इस युद्ध में अजीब है. यहां के मुसलिम फिलहाल इसलामिक स्टेट में रुचि नहीं दिखा रहे क्योंकि वे जानते हैं कि यह इसलामिक स्टेट अरबियों का है और भारतीय मूल के मुसलमान एक धर्म के होने के बावजूद उन्हें यानी अरबियों को पसंद नहीं हैं. भारत सरकार को आतंकवाद से निबटने के लिए अमेरिका, यूरोप के साथ जाना होगा पर किस हद तक और कब, यह अभी अस्पष्ट है. अमेरिकी जनता को इसलामविरोधी युद्ध की डोज रोज रिपब्लिकन पार्टी के संभावित उम्मीदवार डौनल्ड ट्रम्प से मिल रही है जिसे कट्टरपंथी ईसाई कहा जा सकता है. अमेरिका में अब आर्थिक समस्याओं से उपजे भेदभाव की जगह धार्मिक आतंक से उपजी समस्याओं ने ले ली है और बराक ओबामा को पश्चिम एशिया में सक्रिय होने पर सोचना पड़ रहा है. वरना 2016 में होने वाले राष्ट्रपति पद के चुनावों में उन की डैमोके्रटिक पार्टी के उम्मीदवार की हार पक्की है. डौनल्ड ट्रंप कतई इस युद्ध में सभी तरह के हथियार अपनाने से न हिचकिचाएगा, ऐसा उस की सिरफिरी बातों से लगता है. धर्र्म और आतंकवाद अलग नहीं हो सकते. धर्म का नफरत, बैर, अशांति, कलह, हिंसा और युद्ध से हमेशा से नाता रहा है. यही धर्म की फितरत है. धर्म शांति का वाहक कभी रहा ही नहीं है. न कभी हो सकता है. धर्म कहां सहिष्णुता की सीख देता है. धर्म की उपस्थिति जहां भी रहेगी, वहां लड़ाई की पक्की गारंटी है. दुनिया में शांति, प्रेम, भाईचारा धर्मों के खात्मे से ही स्थापित हो पाएगा, यह पक्का है. अगर इस धरती पर धर्म मौजूद रहा तो धरती का खात्मा तय है. मानवता के बचाव के लिए धर्मों का त्याग करना ही रास्ता है.
 

कट्टरता की जड़ें

इसलामिक स्टेट का पेरिस में कहर ढाना एक तरह से डिप्लोमैसी यानी कूटनीति के लिए अच्छा रहा. अमेरिका, रूस, सऊदी अरब, फ्रांस, ईरान सब उस दुष्ट इसलामिक स्टेट यानी आईएस को निबटाने में अपने हितों को ज्यादा देख रहे थे. दोनों तरफ के लोगों ने जो पैसा एकदूसरे के खिलाफ दिया था उस से ट्रेंड लड़ाकू अब अपने आकाओं की नहीं, इसलामी सोच की सुन रहे हैं. बदलती स्थिति में अब इन खूंखारों को खत्म करने में किस का कैसा नुकसान होगा, यह सब को भूलना होगा. पश्चिमी एशिया की शांति के लिए यूरोप, चीन, अमेरिका, जापान, भारत आदि को भी सोचना होगा. यह समस्या हम से दूर है, यह न सोचें. इसलाम के नाम पर इस समस्या को कहीं भी निर्यात किया जा सकता है. द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू तो यूरोप में हुआ पर उस ने एशिया, अफ्रीका और अमेरिका को भी लपेटे में ले लिया था. वह समाप्त हुआ तब जब जरमनी, जापान और इटली पूरी तरह नष्ट हो गए. और तब यहूदियों को एक देश दिलाया गया जिसे वे अपना कह सकें.

नई कूटनीति के तहत अब केवल सुरक्षा के इंतजाम काफी नहीं हैं, इसलाम को पटरी पर लाना जरूरी है. इस के लिए सऊदी अरब और ईरान, जो सुन्नी और शिया मुसलमानों की शक्ति के केंद्र हैं, लपेटे में लाए जाएं. इन के साथ ही पाकिस्तान, अफगानिस्तान, नाइजीरिया, सोमालिया, टर्की भी मरम्मत मांगेंगे. कुल मिला कर जहां कट्टर इसलामी हैं, जिन्हें इसलामिस्ट कहना ज्यादा सही रहेगा नाजियों की तरह, को एक कोने में न धकेला जाए. विश्व की ताकतों को हर देश से इसलामिस्टों को निकाल बाहर करना होगा या उन के पर कतरने होंगे. उन की आय के स्रोत बंद करने होंगे. उन्हें पनाह देने वाले केंद्र नष्ट करने होंगे. इसलाम के प्रचार के नाम पर बने कू्ररता और जंगलीपन का पाठ पढ़ाने वालों को नष्ट करना होगा. इस के साथ ही, इन की प्रतिछाया वाले ईसाई, हिंदू व बौद्ध अतिवादियों को भी नियंत्रित करना जरूरी है. अत्याचार व अनाचार का वायरस ऐसा है जो किसी भी धर्म में घुस कर एकजैसा काम कर के लगता है. सभी धर्मों के कट्टर एक तरह से सोचते हैं. वे खुद को ईश्वर का ऐसा दूत मानने लगते हैं जिन के पास हर विरोधी का गला काट देने का लाइसैंस हो, धर्म चाहे कोई भी हो.

विश्व की ताकतों को मुहिम शुरू करने से पहले अपने में झांकना होगा कि इसलामिक स्टेट वाले विषाणु उन के यहां भी तो नहीं पल रहे हैं. वे मौजूद हैं, यह जानना कठिन नहीं है.

शराब पर पाबंदी

नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली बिहार सरकार ने राज्य में शराब की बिक्री पर पाबंदी लगा दी है. इस से सरकार को चाहे 4 हजार करोड़ रुपए का नुकसान हो पर जनता को जो लाभ होगा वह इस नुकसान से कहीं अधिक होगा. शराब कोई खाना नहीं है कि उस के बिना कोई जी नहीं सकता. शराब पीना प्राकृतिक नहीं है, इसे पीना सिखाया जाता है और उस सिखाने के पीछे शराब कंपनियां और देशी शराब भट्ठों के मालिक दोनों खूब पैसा खर्च करते हैं. शराब का नुकसान गलीगली, घरघर में देखा जा सकता है. जिसे एक बार शराब की लत पड़ जाए वह किसी भी सूरत में उसे नहीं छोड़ता, घरबार चाहे बिक जाए, सोशल ड्रिंकिंग से शुरू हो कर शराब कब लत बन जाए, यह कहा नहीं जा सकता. जो सोशल ड्रिंकिंग यह सोच कर करते हैं कि एकदो पैग से क्या होगा, वे तनाव में कितनी ही बार बोतलों पर बोतलें चढ़ा जाते हैं.

घर के सदस्य के शराब पीने का खमियाजा औरतों और बच्चों दोनों को भुगतना पड़ता है. उन्हें न केवल धुत्त शराबी की देखभाल करनी होती है, उसे संभालना होता है, बल्कि उस की गालियां भी सुननी पड़ती हैं, उस ने जिन से झगड़ा किया उन से माफी भी मांगनी पड़ती है. शराब पी कर गाड़ी, ट्रक, बस चलाने वाले खुद को तो मारते ही हैं, दूसरों को भी मार डालते हैं. शराब का एक भी ऐसा गुण नहीं है कि सरकार या समाज इसे किसी तरह की मान्यता दे. अफसोस यह है कि सदियों से शराब सरकारी खजाने को भरने का काम कर रही है इसलिए इस को हर तरह से बढ़ावा दिया जा रहा है. शराब से नेताओं और अफसरों की जेबें भरती हैं और वे नीतीश को अपनी जेब पर डाका डालने देंगे, यह असंभव है. अंगरेजी के अखबार जल्दी ही रोना शुरू कर देंगे कि बिहार में शराबबंदी से क्या नुकसान हुए. शराब समर्थक टैलीविजन स्क्रीनों पर उतर आएंगे कि कौन क्या पिएगा, इस का फैसला उसी को करने दें.

शराब कंपनियां और अफसर मिल कर जल्दी ही कानून व्यवस्था का मसला खड़ा कर देंगे. जहरीली शराब मुफ्त पिलानी शुरू कर दी जाएगी ताकि 100-200 लोग मर जाएं और मांग हो जाए कि अच्छी शराब की बिक्री चालू कर दी जाए. सरकार के हाथों में पैसे की कमी का रोना और ज्यादा रोया जाएगा, लोग पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश, नेपाल आदि से शराब ला रहे हैं आदि के समाचार सुर्खियां पकड़ लेंगे. ये सब हरियाणा में हो चुका है जहां मुख्यमंत्री बंसीलाल ने एक बार औरतों की मांग पर शराबबंदी लागू की थी. नीतीश कुमार इस शराब आंधी को कैसे काबू करते हैं, देखने की बात है. यह लगता नहीं कि उन की ताकत शराब कंपनियों, ठेकेदारों, अफसरों व नेताओं से ज्यादा है.

देश की सोच

मनोरंजन की दुनिया की शख्सीयत आमिर खान ने खुली सभा में स्वीकार कर के कि वे बढ़ते कट्टरवाद और उस के परिणाम असहिष्णुता से चिंतित हैं और उन की पत्नी देश छोड़ने तक की बात कर रही है, देश के कट्टर अंधविश्वासी, छाती पीटने वाले व भगवा लाठी फटकारने वालों को चुनौती सी दी है. लोकसभा चुनावों में भारी जीत के बाद भारतीय जनता पार्टी के छुटभैये समझ रहे थे कि 1971 के कांगे्रसी समाजवाद की तरह 2014 में हिंदू पोंगाशाही का युग 500-700 साल बाद आखिर लौट ही आया है.

आमिर खान जानापहचाना चेहरा है. उन के 4 शब्दों से जो तूफान मचा है वह दूसरों के 4000 शब्दों से भी नहीं मचता. वे सच कह रहे हैं, यह तो बाद के तूफान से साफ है कि यहां के पोंगापंथी सच सुनना ही नहीं चाहते. यह कोई नई बात नहीं है. यहां राम नाम या राधेकृष्ण इतना जोरशोर से बोला जाता है कि राम और कृष्ण के बारे में रामायण, महाभारत या भागवत पुराण से उद्धृत सच भी कह दो तो वैसा ही तूफान खड़ा हो जाता है और झूठ को इस कदर तरहतरह के शब्दों में लपेट कर फेंका जाता है कि सच गोबर के ढेर में दब कर, सिसक कर मर जाता है.

आमिर खान ने जो कहा वह देशभर में महसूस किया जा रहा है. मुसलिम ही नहीं, दलित, पिछड़े, आरक्षित सरकारी कर्मचारी, लेखक, कलाकार, विचारक, इतिहासकार देख रहे हैं कि देश की संस्थाओं पर पोंगापंथी का रंग पोता जा रहा है. देश की सोच पर अंकुश लगाया जा रहा है. लोकतंत्र की जान ‘विचारों की अभिव्यक्ति’ को कुचला जा रहा है. यह एक रात में होने वाला काम नहीं है और आम जनता को यह महसूस भी नहीं होता. पोंगापंथी पाखंडों से भ्रमित मध्यवर्ग अनजाने अपने पैरों पर जंजीरें बांध रहा है और भगवाई पाखंड की पाकिस्तान बनने की खीझ और आरक्षण को लागू करने की कुंठा के कारण आमिर खान के वक्तव्य, लालू की जीत, साहित्यकारों की सम्मानवापसी को आश्चर्य से देख रहा है. इस वर्ग को भ्रम है कि उस की प्रगति का राज घंटेघडि़यालों और उन के स्वामियों के हाथों में है. इस वर्ग ने अब तक जो भी पाया है, अपनी मेहनत से पाया है पर हैरानी की बात है कि वह इस का श्रेय  उस पूजापाठ को देता है जिस का धंधा चमकाने के लिए देश को बांटा जा रहा है या पाखंडविरोधियों का मुंह बंद किया जा रहा है.

कल तक आमिर खान इसी वर्ग का आदर्श था. अब जब आमिर ने अपने मन में व्याप्त भय व्यक्त कर दिया है तो उस वर्ग के लिए वे देशद्रोही हो गए, त्याज्य हो गए, शंबूक जैसे अछूत हो गए हैं जिस ने वेदों का ज्ञान प्राप्त कर लिया वह एकलव्य बन गया जो धनुर्धारी हो गया. आमिर खान के साथ जो हो रहा है वह हमारे लोगों के साथ सदियों से होता रहा है. यही हमारी गुलामी और गरीबी का कारण रहा है. जब तक ऐसा माहौल रहेगा, न मेक इन इंडिया होगा, न स्वच्छ भारत बनेगा, न अच्छे दिन आएंगे, न सुशासन मिलेगा. ये सब एकदूसरे से जुड़े हैं.

करों पर कर का बढ़ता बोझ

चुनावी गणित ने नरेंद्र मोदी को समझौतावादी रुख अपनाने को मजबूर कर दिया है. उन्होंने कांगे्रस को बुला कर संसद में मिल कर महत्त्वपूर्ण कानून बनवाने में सहायता मांगी है. बिहार चुनावों के परिणामों से पहले भारतीय जनता पार्टी को विश्वास था राम और कृष्ण की कृपा की वजह से वे अपना युद्ध कुछ दिन बाद जीत ही लेंगे पर लगातार बढ़ती कट्टरता के खिलाफ बोलों और चुनावी हारों ने स्पष्ट कर दिया है कि लोकसभा में बहुमत मात्र सरकार की मनमानी के लिए काफी नहीं है. सरकार मुख्यतया गुड्स ऐंड सर्विसेस टैक्स यानी जीएसटी कानून पास करवाना चाहती है, जिस से आशा है कि उत्पादकों व व्यापारियों को बेहद फायदा होगा और खरबों की पूंजी व मेहनत का लाभ आम जनता को मिलेगा. करों का बोझ जनता पर है,  यह तो साफ है पर गुड्स ऐंड सर्विसेस टैक्स यानी जीएसटी कोई रामबाण नहीं. यह द्रौपदी का चीरहरण भी साबित हो सकता है या एकलव्य का अंगूठा काट भी हो सकता है.

आजकल बहुत से करों का हिसाब करना पड़ता है, पर इतने कर हैं ही क्यों? ये कर नौकरशाही की देन हैं जिस ने समयसमय पर नेताओं को बेवकूफ बना कर लागू करवाया. क्या उस समय के नेता समझ नहीं पा रहे थे कि करों का बढ़ता बोझ किस तरह न केवल जनता की जेब पर डाका है, कर वसूलने में डाकुओं की तरह, जनता की कनपटी पर बंदूक रखनी पड़ती है सो अलग. यह बंदूक अकसर चल ही जाती है. हर साल देशभर में हजारों व्यापार इन टैक्सों के कारण बेमौत मर जाते हैं और उन व्यापार स्वामियों की संपत्ति वर्षों तक बेकार पड़ती रहती है. एक गुड्स और सेवा कर क्या इस समस्या को सुलझाएगा – शायद नहीं. एक अफसर के पास अब इतने अधिक अधिकार हो जाएंगे कि वह हर मक्खी को भी मोटी रिश्वत देने को मजबूर कर देगा. इस में कर की दर सब से बड़ी बात है और ऐसा लगता नहीं कि यह कर कम होगा. अगर कर पर कर न हो और कुल कर बराबर हों तो भी कर चोरी तो होगी ही. अफसरों को बहाना मिल जाएगा कि कर चोरों से निबटने के लिए सख्त कानून बनाए जाएं जिस का मतलब असल में उन के द्वारा मोटी रिश्वत वसूलना होगा.

कांगे्रस इस लूट के खिलाफ है, ऐसा नहीं. कांगे्रस अब मोदी सरकार से सहयोग कर रही है क्योंकि उसे लग रहा है कि शासन की डोर उस से हमेशा के लिए हाथ से नहीं गई है. बिहार में वह सत्ता की भागीदार है. मध्य प्रदेश में उस की स्थिति सुधर रही है और अगले चुनावों में वह जीत भी सकती है. वह कर जमा करने और उस के फ्रिंज बेनेफिट ‘रिश्वत’ के मौके क्यों खोएगी? यह कानून सिर्फ मोदी सरकार बनवाए या दोनों भाजपा व कांगे्रस समझौता कर के बनवाएं, यह तो जनता के खिलाफ ही होगा.

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