Download App

वनडे सीरीज के बाद कड़े कदम उठाने की जरूरत: गावस्कर

पूर्व भारतीय क्रिकेट कप्तान सुनील गावस्कर ने ऑस्ट्रेलिया में जूझ रही भारतीय क्रिकेट टीम को लेकर कड़े कदम उठाने की मांग करते हुए कहा कि कुछ खिलाड़ियों ने कई बार ऑस्ट्रेलिया का दौरा करने के बावजूद अपनी अतीत की गलतियों से सबक नहीं लिया हैं.

गावस्कर ने चौथे वनडे मैच में हार के बाद पांच मैचों की सीरीज में भारत के 0-4 से पिछड़ने के बाद कहा कि सीरीज के बाद हमें कड़े कदम उठाने होंगे. मैं आमूलचूल बदलाव के लिए नहीं कह रहा लेकिन ऐसे खिलाड़ी हैं जो अपनी अतीत की गलतियों से नहीं सीखे हैं. ऐसे खिलाड़ी हैं जो तीन या चार बार ऑस्ट्रेलिया का दौरा कर चुके हैं लेकिन अपनी गलतियों से नहीं सीखे हैं. अगर हम 2019 विश्व कप के लिए टीम तैयार करने पर ध्यान दे रहे हैं तो हमें कुछ युवाओं को शामिल करना होगा.

गावस्कर ने टीम को निराश करने के लिए गेंदबाजों की अधिक आलोचना की और साथ ही कहा कि लगातार दूसरे मैच में स्टार स्पिनर रविचंद्रन अश्विन को बाहर करने का फैसला समझ से परे है. उन्होंने कहा कि अश्विन को लगातार दूसरे मैच में नहीं खिलाना अच्छा फैसला नहीं है. मुझे लगता है कि कैनबरा के हालात उसके अनुकूल होते. ऐसा लग रहा है कि कुछ अन्य गेंदबाज लगातार वही गलतियां कर रहे हैं.

कप्तान महेंद्र सिंह धौनी के हार की जिम्मेदारी लेने पर गावस्कर ने कहा कि उसने खुद कहा कि उस स्थिति से उसे मैच खत्म करना चाहिए था. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि वह सिर्फ दो गेंद खेल पाया.

मैदानी व पानी के छोटेबड़े जीवों की हिफाजत

महासागरों में बहुत छोटेछोटे जीवों से ले कर बहुत बड़े आकार के जीव जैसे व्हेल, शार्क वगैरह पाए जाते हैं. समुद्री मछलियों में बहुत अधिक फर्क पाया जाता है. इन मछलियों को पूरी तरह से विकसित होने में लाखों साल लग गए हैं. महासागरों में ऐसी मछलियां भी पाई जाती हैं, जो अपने वजन के मुताबिक अपना सेक्स बदल लेती हैं. महासागरों की तलहटी पर तमाम तरह की घासें व वन पाए जाते हैं, जिस में घुस कर तमाम जीव दूसरे जीवों का शिकार करते हैं. महासागरों की तलहटी में पाई जाने वाली कोरल रीफ जलीय पर्यावरण को साफ व सही रखने में बड़ी भूमिका निभाती है. हाल ही में हुए शोध से पता चला है कि सनस्क्रीन लोशन में पाए जाने वाले कैमिकल कंपाउंड पराबैगनी फिल्टर का काम करते हैं. जब हम तैरते हैं तो ये कैमिकल पानी में मिल जाते हैं. भले ही हम इस का इस्तेमाल थोड़ी मात्रा में करें, लेकिन यह कोरल को ब्लीच करने का काम करता है. इस से धीरेधीरे इस जंतु (कोरल) की मौत हो जाती है.

समुद्र में 3 जगह पर जीव होते हैं

ऊपरी हिस्से पर : ये पानी के बिना  समुद्र तट पर रहते हैं.

बीच में : ये जीव आधे समय पानी में और आधे समय जमीन पर रहते हैं.

निचले भाग में : ये जीव हमेशा पानी में ही रहते हैं, जैसे केकड़े वगैरह. ये पानी से आक्सीजन लेते हैं. केकड़ा पानी को अपनी आंखों के पास लगे पंप से शरीर में दाखिल करता है. पानी से बाहर होने पर वह पानी को बाहर निकालता है. इस प्रकार वह जिंदा रहता है. व्हेल अपने बच्चों की आवाज महासागरों के अंदर 300 किलोमीटर से भी ज्यादा दूरी से सुन सकती है. यह समुद्र में रहने वाला सब से बड़ा स्तनधारी जीव है. इस की लंबाई 120 फुट तक भी हो सकती है. समुद्र में पाए जाने वाले जीवों की भी एक खाद्य शृंखला (फूड चेन) होती है. आज गैरकानूनी तरीके से मछलियों को पकड़ने का कारोबार बहुत तेजी से चल रहा है, जिस से खाद्य शृंखला को काफी खतरा पैदा हो गया है. रोजाना लाखों गैलन गंदा पानी महासागरों में छोड़ दिया जाता है, जिस से समुद्र में रहने वाले जीवों की बहुत सी प्रजातियां गायब होने के कगार पर पहुंच गई हैं. आज व्हेल व शार्क को बड़े पैमाने पर पकड़ा जा रहा है और इन के पंखों को काट कर इन्हें महासागरों में फेंक दिया जाता है, क्योंकि बाजारों में केवल इन के पंखों की मांग है. पंख कटने के बाद इन की मौत धीरेधीरे और दर्दनाक तरीके से होती है. इसीलिए ये भी आज खत्म होने के कगार पर पहुंच गई हैं. इन सब वजहों से समुद्री माहौल गड़बड़ा गया है और महासागरों में गंभीर बाढ़ व कुदरती आपदाओं का खतरा बढ़ गया है. इस से धरती का वजूद भी खतरे में पड़ गया है.

मैदानी छोटेबड़े जीवों का मामल

पेड़ समुद्री एल्गी से तैयार हुए हैं. पेड़पौधे सूरज की ऊर्जा को कार्बोहाइड्रेट्स में बदल देते हैं जो इन का खाना होता है. मैदानी भागों पर बहुत अधिक जैवविधिता (जीवजंतुओं में फर्क) पाई जाती है. आज धरती कई तरह की समस्याओं से एकसाथ जूझ रही है, उन में से एक खास समस्या है जीवों व वनस्पतियों के वजूद पर मंडराता खतरा. आंकड़ों के मुताबिक 16806 जीवजंतुओं और वनस्पतियों की प्रजातियां गायब होने की कगार पर हैं. हालांकि कनवेशन आफ इंटरनेशनल ट्रेड इनडेवर्ड स्पीसीज’ (साइटिस) संस्था ने जीवजंतुओं और वनस्पतियों की हजारों प्रजातियों को लुप्त होने से बचाया है. इस संस्था के 183 देश सदस्य हैं, लेकिन आज बाघ, हाथी व भालू आदि के वजूद पर खतरा मंडरा रहा है. इन के अलावा और भी कई जीव हैं, जिन्हें बचाने के लिए कुछ नहीं किया जा रहा है. ध्रुवीय भालू और पैंगविन ऐसे ही जीव हैं. इन पर इसलिए खतरा मंडरा रहा है, क्योंकि बर्फ पिघलने के कारण इन के रहने की जगह सिकुड़ती जा रही है. गौरेया, तितली व गिद्ध भी अब मुश्किल से देखने को मिलते हैं. दरअसल मनुष्य के लालच और खुदगर्जी ने तमाम जीवों के वजूद पर खतरा पैदा कर दिया है.

वैज्ञानिकों का मानना है कि गौरेया पक्षी के गायब होने की वजह बाजरे के खेतों में कीटनाशकों का प्रयोग है. चूंकि बाजरे की खेती में कीटनाशकों का इस्तेमाल किया जाता है और उसी दवा से जहरीले होने वाले बाजरे के दानों को गौरेया खाती है, इसलिए उस की प्रजनन की कूवत ही खत्म हो रही है. पानी की खराबी व कमी के कारण साइबेरियान क्रेन जैसा पक्षी भी अब दुर्लभ परिंदों में शामिल हो गया है. दूसरी ओर गिद्ध भी आज गायब होने की कगार पर हैं, जबकि वातावरण को साफ बनाए रखने में गिद्ध का खासा योगदान होता है. गिद्ध एक खास जीव है. भारत में एक समय 8 करोड़ 70 लाख गिद्ध थे, लेकिन आज 99 फीसदी गिद्ध मर चुके हैं. जाहिर है कि इसी वजह से वातावरण पर खराब असर पड़ा है. भारत में हर साल 10 से 20 करोड़ मवेशी मरते हैं, उन को चट करने के लिए गिद्ध ही थे. अब गिद्ध खत्म होने से मरे हुए जानवरों के शरीर सड़ते रहते हैं और उन के अंदर मौजूद बैक्टीरिया व वायरस से भयंकर बीमारियां होती हैं.

इस प्रकार कुदरत का संतुलन बिगड़ गया है. आहार श्रृंखला यानी फूड चेन में हर जीव का अपना एक खास योगदान है. गिद्धों की प्रजाति में भारी कमी की वजह एक दवा डाइग्नासाफिलिक सोडियम है. इस दवा का इंजेक्शन पशुओं को बुखार, सूजन व दर्द आदि होने पर दिया जाता था. जब पशु मरते थे तो गिद्धों द्वारा उन का मांस खाने पर यह दवा उन के शरीर के अंदर चली जाती थी और गुर्दों को नुकसान पहुंचने व डिहाइड्रेशन के कारण गिद्धों की मौत हो जाती थी. गिद्धों को गायब होने से बचाने के लिए उन के प्रजनन केंद्र हरियाणा के पिंजौर और पश्चिम बंगाल के बक्सर में खोले गए हैं. यह कितना दुखद है कि पिछले 5 सालों के दौरान शिकारियों ने करीब 23 सौ बाघों को मौत के घाट उतार दिया. 1 अरब से ज्यादा लोगों की आबादी वाला देश 23 सौ बाघों की जिंदगी नहीं बचा पाया. साल 1973 में प्रोजेक्ट टाइगर शुरू करते समय देश में 17 सौ बाघ थे. 8वें दशक में इन की तादाद 4 हजार से ऊपर हो गई थी, लेकिन अब हमारे देश में लगभग 14 सौ बाघ ही रह गए हैं. हमें जंगलों को बचाना होगा, क्योंकि अगर जंगल बचेंगे तभी बाघ भी बचेंगे.

मैंग्रोव का पेड़ दक्षिण भारत में बहुत ही अधिक मात्रा में पाया जाता है. यह समुद्र व नहरों आदि के किनारों पर पाया जाता है. दक्षिण भारत में इस के बड़ेबड़े वन पाए जाते हैं. इस पेड़ की जड़ें धरती के ऊपर ऊबड़खाबड़ तरीके से फैली रहती हैं. ये जड़ें पानी के बहाव को कम करने के साथसाथ मिट्टी में नमी को भी काफी मात्रा में बरकरार रखती हैं. दक्षिण भारत में सुनामी नामक भयंकर तबाही मैंग्रोव के जंगलों को काटे जाने की वजह से ही आई थी. अब वक्त ऐसी योजना शुरू करने का है, जिस से पानी और जमीन के तमाम छोटेबड़े जीवों को बचा कर महफूज रखा जा सके. यह सिर्फ सरकार का ही काम नहीं है, बल्कि यह जिम्मेदारी तमाम नागरिकों की भी है. भारत के हर नागरिक को इस जिम्मेदारी को समझना होगा. इस के साथ ही दुनिया के सभी देशों को एकसाथ मिल कर पर्यावरण की इस समस्या पर एकसाथ एकजुट हो कर काम करना होगा और कड़े नियम बनाने होंगे, जिस से कोई सही हल निकले.

– अरुण कुमार, डा. आरएस सेंगर व डा. पूरनचंद

कुछ कहती हैं तसवीरें

वफादारों का मजमा : वफादारी के लिए कुत्तों को मिसाल माना जाता है, इसीलिए हिफाजत के मोरचों पर भी इन्हीं को तैनात किया जाता है. हाल ही में अमृतसर में हुए एक शानदार डाग शो में देश भर के 3 सौ से ज्यादा कुत्तों ने भाग लिया

जीरे की फसल में आईपीएम

खास मसाला फसल जीरे में कई कीट व रोग लग जाते हैं, जिस से उत्पादन के अलावा गुणवत्ता भी कम हो जाती है और निर्यात पर असर पड़ता है. लिहाजा जीरा उगाने वालों को इस के हानिकारक कीटों व रोगों के इलाज का सही इंतजाम करना चाहिए. कीटनाशी रसायन अपने तेज असर के कारण अधिक मात्रा में प्रयोग किए जा रहे हैं. पर इन के अंधाधुंध प्रयोग से तमाम समस्याएं पैदा हो गई हैं, जिन से पर्यावरण खराब हो रहा है. मौजूदा हालात में हमें ऐसी विधियों को अपनाना चाहिए, जिस से हम इन कीटों व बीमारियों का इलाज बगैर किसी नुकसान के कर सकें और ज्यादा पैदावार ले सकें. ऐसी ही विधि है समन्वित कीट प्रबंधन यानी आईपीएम. यह फसल उत्पादन व फसल सुरक्षा की मिलीजुली विधि है. समन्वित कीट प्रबंधन के तहत फसलों की कीटों व रोगों से सुरक्षा के लिए एक से अधिक विधियों को इस प्रकार से प्रयोग किया जाता है, ताकि नाशीकीटों की संख्या आर्थिक हानि स्तर से नीचे रहे.

आईपीएम के तहत बोआई व रोपाई से ले कर फसल की कटाई तक उन सभी क्रियाओं का प्रयोग इस प्रकार एकीकृत ढंग से किया जाता है, जिस से कीटों व बीमारियों द्वारा फसल की उत्पादकता व गुणवत्ता पर पड़ने वाले असर को काबू किया जा सके. आईपीएम में मान्यता प्राप्त नाशीजीव रसायनों का प्रयोग सही मात्रा में तभी करते हैं, जब कीटों व बीमारियों का प्रकोप आर्थिक हानि स्तर से ऊपर पहुंच जाए और गैररासायनिक तरीकों से उन का इलाज मुमकिन न हो.

समन्वित कीट प्रबंधन की विधियां

उन्नत कृषि क्रियाएं : आईपीएम के तहत खेतों में समयसमय पर की जाने वाली कृषि क्रियाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है. इस में विभिन्न क्रियाओं द्वारा खेत में ऐसा माहौल तैयार किया जाता है, जो कीटों व रोगों और उन के जीवनचक्र के लिए मुनासिब न हो. इस के तहत खेतों की गहरी जुताई करना, फसल के अवशेषों व खरपतवारों को नष्ट करना, बोआई से पहले खेत की अच्छी तरह तैयारी करना, सही प्रजाति का चयन करना, समय पर सिंचाई करना खादों व सूक्ष्म तत्त्वों का सही इस्तेमाल करना, बीजोपचार करना व फसल की कटाई जमीन स्तर से करना वगैरह गतिविधियों पर खास ध्यान दिया जाता है.

गंधपाश (फेरोमोन ट्रैप) : गंधपाश द्वारा किसी फसल  के चुने हुए हानिकारक कीटों को उन की मादा कीटों की गंध (कार्बनिक रसायन) के द्वारा लालच दे कर खत्म किया जाता है. इस विधि द्वारा केवल प्रौढ़ कीटों को ही खत्म किया जा सकता है. जीरे की लट के खात्मे के लिए इस का काफी इस्तेमाल किया जाता है.

जैविक नियंत्रण : इस में कीटों के कुदरती दुश्मनों (परजीवी/परभक्षी) का प्रयोगशाला में बड़े पैमाने पर उत्पादन कर के कीटों के नियंत्रण के लिए सही समय पर प्रयोग किया जाता है. कीटों के ये दुश्मन हानिकारक कीटों के अंडों, सूंडि़यों व प्रौढ़ों को नष्टकर देते हैं. जैविक नियंत्रण की सफलता के लिए किसानों को मौसम, फसल, कीट, परजीवी व परभक्षी और सुरक्षित रसायनों वगैरह की सही जानकारी होना जरूरी है.

क्राइसोपरला कारनिआ : इस का प्रयोग जीरे के माहू कीट व दूसरे कोमल शरीर वाले कीटों की रोकथाम के लिए किया जाता है.

लेडी बर्ड बीटल (क्रिप्टोलैमस मानट्रोजरी) : वयस्क बीटलों को डब्बे में से निकाल कर छोड़ दिया जाता है. इन के पंख होने के कारण ये सभी जगह फैल जाते हैं और अपने भोजन के लिए कीटों को ढूंढ़ते हैं.

जैविक कीटनाशक/ फफूंदीनाशक : आईपीएम के तहत सूक्षमजीवों जैसे जीवाणु व फफूंदी का प्रयोग जैविक कीटनाशकों के रूप में किया जाता है. जैविक कीटनाशियों जैसे ट्राइकोडर्मा विरीडी व वरटी सीलियम (फफूंद), स्यूडोमोनास व बेसीलस थूरिनजीएनसिस (बीटी) का प्रयोग जैव नियंत्रकों के रूप में किया जाता है. मिट्टी के उपचार के लिए 20-25 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद में 1 किलोग्राम ट्राइकोडर्मा प्रति एकड़ की दर से मिला कर छाया में 2 सप्ताह तक नम अवस्था में रखा जाता है. ट्राइकोडर्मा से जमीन में होने वाली फफूंद व अन्य बीमारियां दूर हो जाती हैं.

वानस्पतिक कीटनाशक : वानस्पतिक कीटनाशकों में नीम से बनने वाले कीटनाशकों का प्रयोग कीटनियंत्रण में सफल साबित हो रहा है. ये बाजार में निंबीसिडीन, निमारिन, अचूक, एजाडिट, निमेक्टिन, नीम एजल, बायोनीम, इकोनीम, नीम गालड, एनएसकेइ व रक्षक वगैरह नामों से उपलब्ध हैं. इन की 3-5 लीटर मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग में लाई जाती है.

कीटनाशकों का सही इस्तेमाल : आईपीएम के तहत जब अन्य विधियों द्वारा कीटों व रोगों की रोकथाम में सही सफलता नहीं मिलती है, तो ऐसे में फसल को बचाने के लिए हमें मान्यता प्राप्त कीटनाशकों का प्रयोग सही मात्रा में बदलबदल कर करना चाहिए. तमाम जांचों के बाद कुछ नाशीजीव रसायन ऐसे पाए गए हैं, जो परजीवी, परभक्षी व परागण करने वाले कीटों के लिए काफी सुरक्षित हैं और उन का ढंग से प्रयोग करने से पर्यावरण  व मानवस्वास्थ्य पर खराब असर पड़ने का खतरा कम रहता है. रसायन का छिड़काव उस समय नहीं करना चाहिए, जब फूल पूरी तरह खिलें हों. ऐसा करने से परागण करने वाले कीट मर जाते हैं. नतीजतन फसल में परागण न होने से फल नहीं बनते. कीटनाशी को बदलबदल कर प्रयोग करना चाहिए वरना कीटों में एक ही कीटनाशी सहन करने की कूवत बढ़ जाती है और इस प्रकार आगे चल कर उस कीटनाशी का असर खत्म हो जाता है. एकीकृत नाशीजीव प्रबंधन में कीटों, रोगों और खरपतवारों को पूरी तरह खत्म करने के बजाय उन के प्रबंधन की बात है. वास्तव में मकसद यह होता है कि किसी जीव को हमेशा के लिए नष्ट न कर के, ऐसे इंतजाम किए जाएं, ताकि उन की तादाद काबू में रहे और उन से नुकसान न हो.

जीरे के खास रोग

उकटा (विल्ट) : यह रोग ‘फ्यूजेरियम आक्सीस्पोरम कुमीनाई’ नामक कवक से होता है. इस रोग का प्रकोप पौधों की किसी भी अवस्था में हो सकता है, पर युवावस्था में ज्यादा होता है. जीरे में होने वाले रोगों में यह ज्यादा घातक होता है, क्योंकि इस के भयंकर प्रकोप से पूरी फसल नष्ट हो जाती है. पहले साल यह बीमारी कहींकहीं पर खेत में आती है, फिर हर साल बढ़ती रहती है और 3 साल बाद उस इलाके में जीरे की फसल लेना नामुमकिन हो जाता है.

लक्षण : यह बीमारी जमीन व बीज के साथ आती है. रोग के शुरुआती लक्षण उगने वाले बीज पर आते हैं और पौधा भूमि से निकलने से पहले ही मर जाता है. फसल पर रोग आने से रोगी पौधे मुरझा जाते हैं. अगर रोग का प्रकोप फूल आने के बाद होता है, तो कुछ बीज बन जाते हैं. ऐसे रोगग्रसित बीज हलके, आकार में छोटे व पिचके हुए होते हैं. ये उगने की कम कूवत रखते हैं. रोगी पौधे कद में छोटे होते हैं और इन की पत्तियां पीली नजर आती हैं.

झुलसा (ब्लाइट) : यह रोग ‘आल्टरनेरिया बर्नसाई’ नामक कवक से होता है. फसल में फूल आना शुरू होने के बाद अगर आकाश में बादल छाए रहें तो इस रोग का लगना पक्का हो जाता है. फूल आने के बाद से ले कर फसल पकने तक यह रोग कभी भी हो सकता है. मौसम इस के मुताबिक होने पर यह रोग बहुत तेजी से फैलता है.

लक्षण : रोग के शुरुआती लक्षण पौधे की पत्तियों पर भूरे रंग के धब्बों के रूप में दिखाई देते हैं. धीरेधीरे ये धब्बे काले रंग में बदल जाते हैं. पत्तियों से तने व बीजों पर इस का असर बढ़ता है. इस रोग के असर से पौधों के सिरे झुके हुए नजर आते हैं. संक्रमण के बाद यदि नमी लगातार बनी रहे या बारिश हो जाए तो रोग बढ़ जाता है. यह रोग इतनी तेजी से फैलता है कि रोग के लक्षण दिखाई देते ही यदि इलाज न कराया जाए तो फसल को नुकसान से बचाना मुश्किल होता है.

छाछिया (पाउडरी मिल्ड्यू) : यह रोग ‘इरीसाईफी पोलीगोनी’ नामक कवक से होता है.

लक्षण : इस रोग के लक्षण पहले पत्तियों पर सफेद चूर्ण के रूप में नजर आते हैं. धीरेधीरे पौधे के तने व बीजों पर रोग फैल जाता है और पूरा पौधा दूर से ही सफेद दिखाई पड़ता है. रोग बढ़ने पर पौधा गंदला व कमजोर हो जाता है. रोग का प्रकोप जल्दी हो जाता है तो बीज नहीं बनते हैं. प्रकोप होने पर बीज बहुत छोटे व अधपके रह जाते हैं.

जीरे के खास कीट

यह फसल मौसम, रोग व कीटों से जल्दी प्रभावित हो जाती है. फसल को 5-6 किस्म के कीट अंकुरण से फसल पकने तक नुकसान पहुंचाते हैं. जीरे को ऐफिड (माहू/मोयला) नामक कीट से सब से ज्यादा नुकसान होता है. ऐफिड के अलावा माइट, थ्रिप्स, हरी पत्ती भक्षक लट, हरी बग व सूत्रकृमि भी जीरे के दुश्मन नाशीजीव (कीट) हैं.

ऐफिड (मोयला या माहू) : यह हरेपीले रंग का कोमल शरीर वाला छोटा व अंडाकार कीट है, इस का हमला फूल आने पर जनवरी के पहले हफ्ते में शुरू होता है और फसल में दाना पकने तक बना रहता है. इस का सब से ज्यादा असर फरवरी के अंत से मार्च के मध्य तक रहता?है. इस से 30 से 50 फीसदी तक फसल को नुकसान होता है.

मौसम में नमी होने पर इस कीट की संख्या में तेजी से इजाफा होता है और नुकसान का खतरा बढ़ जाता है. इस के शिशु और प्रौढ़ सैकड़ों की तादाद में पौधों के फूलों, पत्तियों और बीजों से रस चूस कर हानि पहुंचाते हैं. इस कीट से ग्रसित पौधे कमजोर हो कर पीले पड़ जाते हैं. पौधों पर काली फफूंद पनपने से उपज बहुत घट जाती है और दाने सिकुड़ जाते हैं. गुणवत्ता में कमी होने से बाजार में भाव कम मिलता है. इस का प्रकोप सभी किस्मों पर होता है, पर कम तेल वाली किस्में कम प्रभावित होती हैं.

जीरे की फसल में समन्वित कीटरोग प्रबंधन : इसे 4 भागों में किया जाता है.

पहला भाग : बोआई से पहले जीरे में भूमिजन्य रोग व सूत्रकृमि के प्रकोप का खतरा रहता?है.

समन्वित प्रबंधन विधियां : गरमी की गहरी जुताई कर के उचित फसल चक्र अपनाएं यानी 3 साल में 1 बार जीरे की फसल लें. रोगग्रसित खेत में जीरा न बोएं. रोगरोधी जीरा जीसी 4 की बोआई करें.

दूसरा भाग : बोआई पर जीरे को उकटा (विल्ट) रोग व मोयला कीट का खतरा रहता?है.

समन्वित प्रबंधन विधियां : सिफारिश की गई किस्म के साफ व निरोगी बीज का चुनाव करें. बोआई मध्य नवंबर तक करें. बोआई के समय नीम या अरंडी खल 10 क्विंटल या सरसों का भूसा 5 टन प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में मिला कर सिंचाई करें. ट्राइकोडर्मा विरिडी मित्र फफूंद 2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से गोबर के साथ खेत में मिला कर सिंचाई करें. बीजउपचार हेतु कार्बेंडाजिम 50 डब्ल्यूपी 2 ग्राम या ट्राइकोडर्मा मित्र फफूंद 6 ग्राम व इमिडाक्लोप्रिड 7.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीजों में भलीभांति मिला कर बोआई करें. आक्साडाईजरिल 50 ग्राम सक्रिय (800 मिलीलीटर राफ्ट) 750 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से 15-20 दिनों बाद छिड़कें. पेंडीमिथेलिन 1 किलोग्राम सक्रिय (3.3 किलोग्राम स्टांप एफ 34) 750 लीटर पानी में मिल कर प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई के बाद पर उगने से पहले छिड़कें.

तीसरा भाग : बढ़वार शुरू होने पर जीरे की फसल को खरपतवार, झुलसा (ब्लाइट) रोग व मोयला/एफिड कीट का खतरा रहता है.

समन्वित प्रबंधन विधियां : समन्वित विधि अपनाते हुए जीरे की फसल में 30-35 दिनों व 55-60 दिनों के बीच 2 बार निराईगुड़ाई करें. खेत की सफाई का खयाल रखें. फसल में फूल आते समय मैंकोजेब 0.2 फीसदी (2 ग्राम प्रति लीटर) या थायोफिनेट मिथाइल 0.1 फीसदी (1 ग्राम प्रति लीटर) पानी में मिला कर 30-35 दिनों पर पहला छिड़काव करें. आवश्यकतानुसार 10 से 15 दिनों बाद दोबारा छिड़काव करें.

मित्र कीटों का संरक्षण करें. मधुमक्खियों को कीटनाशी छिड़काव से बचाएं. काक्सीनेला भृंग 5 हजार प्रति हेक्टेयर की दर से 2 हफ्ते के अंतर पर 2 बार कीटप्रकोप शुरू होने पर फसल पर छोड़ें. काक्सीनेला न मिलने पर नीम आधारित (निंबोली अर्क 5 फीसदी या तेल ईसी 0.03) कीटनाशी का छिड़काव कीटप्रकोप शुरू होने पर करें.

चौथा भाग : फूल व दाना बनने की अवस्था पर जीरे की फसल को झुलसा व छाछिया रोगों और मोयला कीट का खतरा रहता?है

समन्वित प्रबंधन विधियां : मैंकोजेब 0.2 फीसदी (2 किलोग्राम) व घुलनशील गंधक 0.2 फीसदी (2.5 किलोग्राम) या केराथेन 1 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़कें. दूसरा छिड़काव 10-15 दिनों बाद बोआई के 45-50 दिनों बाद करें. इस के आलावा पीले चिपचिपे कीटपाश का भी प्रयोग करें.

इमिडाक्लोप्रिड 17.8 घुलनशील तरल 100 मिलीलीटर या थायोमिथोक्सिम 25 घुलनशील चूर्ण 100 ग्राम या ऐसीफेट 75 घुलनशील चूर्ण 750 ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से पानी में घोल कर छिड़कें. जरूरत पड़ने पर 10-15 दिनों बाद दोबारा छिड़काव करें. रोग के लक्षण दिखाई देते ही गंधक चूर्ण 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से तीसरे छिड़काव के बाद यदि जरूरी हो तो बुरकें.

जैविक जीरे की फसल पर मोयला, झुलसा व छाछिया रोग के इलाज के लिए गौमूत्र (10 फीसदी) व एनएसकेई (2.5 फीसदी) व लहसुन अर्क (2.0 फीसदी) घोल का छिड़काव करें.

13 साल में पहली बार कच्चा तेल 27 डॉलर के नीचे

वैश्विक स्तर पर बड़े भंडार के जारी दबाव एवं अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी द्वारा इस वर्ष भी अधिक आपूर्ति जारी रहने की आशंका के मद्देनजर कच्चा तेल की कीमतों में गिरावट का रुख जारी रहा और अमेरिकी क्रूड करीब 13 साल में पहली बार 27 डॉलर प्रति बैरल के नीचे आ गया.

सिंगापुर से प्राप्त जानकारी के अनुसार अमेरिकी क्रूड दो डॉलर गिरकर 28.70 डॉलर प्रति बैरल पर रहा. इससे पहले करोबार के दौरान यह वर्ष 2003 के बाद पहली बार 27 डॉलर प्रति बैरल के स्तर से भी नीचे चला गया था.

विश्लेषकों के अनुसार एशियाई बाजारों के शुरुआती कारोबार से मिले समर्थन के दौरान यह थोड़ा संभलने में कामयाब रहा लेकिन इसपर अब भी अधिक भंडार का दबाव कायम है. उन्होंने कहा कि अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी द्वारा कच्चा तेल के भंडार के आंकड़े जारी होने के बाद इसमें और गिरावट देखी जा सकती है.

चिक्की मूंगफली और गुड़ का स्वाद

जायकेदार चिक्की गुड़ और मूंगफली के दानों से तैयार की जाती है. इस का कुरकुरा स्वाद जाड़ों में खूब पसंद आता है. मूंगफली को गरीबों का बादाम कहा जाता है. जाड़ों में खानपान के जरीए सर्दी के असर को दूर किया जा सकता है. गुड़ और मूंगफली खाने से शरीर गरम रहता है. गुड़ व मूंगफली से बनने वाली चिक्की या गुड़पट्टी खाने में लजीज लगती है. पहले इसे आम लोगों की मिठाई ही माना जाता था. अब यह ‘चिक्की’ के नाम से मिठाई की बड़ीबड़ी दुकानों में भी मिलने लगी है. यह कई आकार की बनने लगी है. चिक्की का आकार कुछ भी हो पर इस का स्वाद लाजवाब होता है.

सर्दियों में जो लोग मेवे नहीं खा सकते उन के लिए मूंगफली किसी मेवे से कम नहीं होती है. रात में खाने के बाद इस पट्टी को खाने से शरीर गरम रहता है. इसे खाने से मिठाई खाने जैसा नुकसान नहीं होता है. मूंगफली में प्रोटीन होता है, जो शरीर को मजबूत बनाने का काम करता है.

कैसे बनती है चिक्की

चिक्की बनाने के लिए अच्छे किस्म का गुड़ लेना चाहिए. चिक्की यानी गुड़पट्टी का रंग काला न हो कर पारदर्शी दिखे इस के लिए इस में गुड़ के बराबर चीनी मिलाई जाती है. अगर गुड़पट्टी के रंग को ज्यादा साफ दिखाना हो तो गुड़ में चीनी की मात्रा बढ़ा देनी चाहिए. वैसे सब से अच्छी गुड़पट्टी वही मानी जाती है, जिस में गुड़ और चीनी की मात्रा बराबर होती है. गुड़ को पानी में डाल कर उबाला जाता है. इस दौरान गुड़ से कुछ झाग सा निकलता है, उसे छन्नी से बाहर कर दिया जाता है. इस के बाद इस में चीनी डाल दी जाती है. इस में से अगर कोई गंदगी निकले तो उसे छान कर अलग कर दिया जाता है.

गुड़ व चीनी की 2 तार की चाशनी बना लेनी चाहिए. उस में जरूरत के हिसाब से मूंगफली के दाने साफ कर के और भून कर डाल देने  चाहिए. 1 किलोग्राम तैयार चाशनी में 500 ग्राम मूंगफली के दाने डाले जाते हैं. जिन लोगों को गुड़ कम खाना हो, वे 750 ग्राम तक मूंगफली के दाने डाल सकते हैं.

इस तैयार सामग्री को एक बड़ी चौड़ी और साफसुथरी जगह पर फैला दिया जाता है. जब पूरी सामग्री सेट हो जाती है, तो उसे कटर के सहारे इच्छानुसार टुकड़ों और डिजाइन में काट लिया जाता है. चिक्की ज्यादातर छोटेछोटे टुकड़ों में काटी जाती है. गुड़पट्टी को कुछ लोग प्लेट में सजा कर जमा देते हैं. जिस जगह पर यह सामग्री डाली जाती है, वहां पर पहले चिकनाई लगा दी जाती है, जिस से ठंडी होने के बाद इसे निकालने में आसानी रहे. गुड़पट्टी या चिक्की को कुरकुरा रखने के लिए पूरा इंतजाम किया जाता है.

गुड़पट्टी या चिक्की को बना कर बेचना एक अच्छा रोजगार होता है. मिठाई की दुकानों के साथ ही साथ सड़कों, मेलों और प्रदर्शनी में ठेला लगा कर इसे बेचा जाता है. गुड़पट्टी ही चिक्की कहलाती है. इस पट्टी को तैयार करने में देशी घी का प्रयोग भी किया जाता है. गुड़पट्टी के कारीगर रामकुमार कहते हैं, ‘गुड़पट्टी बनाने में लगने वाली सामग्री की क्वालिटी बहुत ही अच्छी होनी चाहिए. इसे बनाते समय सफाई का पूरा खयाल रखना चाहिए. इसे बनाने के बाद ऐसे डब्बों में रखना चाहिए जिस से इस में हवा न लगे. हवा लगने से यह कुरकुरी नहीं रहती और सील जाती है.’

कहीं ये 1000 का नोट बिना सुरक्षा धागे के तो नहीं

रिजर्व बैंक ने सभी बैंकों को निर्देश दिया है कि वे 1,000 रुपये के नोट बिना सुरक्षा धागे के जारी न करें. पिछले दिनों आरबीआई को इस संबंध में कई शिकायतें मिली हैं. वहीं पिछले दिनों आरबीआई ने 1000 के ही करीब 30 करोड़ के गलत नोट को जलाया था.

रिजर्व बैंक के एक प्रवक्ता ने कहा, हमें नासिक स्थित करेंसी नोट प्रेस में छपे 1,000 रुपये मूल्य के नोट के संदर्भ में शिकायतें मिली हैं. होशंगाबाद स्थित सिक्योरिटी पेपर मिल द्वारा आपूर्ति किये गये कागज में सुरक्षा धागा नहीं है.

केंद्रीय बैंक ने मुंबई क्षेत्र के सभी बैंकों से ऐसे नोट पाये जाने पर उसे ग्राहकों को जारी नहीं करने को कहा है. साथ ही अगर ऐसे नोट लेकर ग्राहक आते हैं और अगर वे सही हैं तो उस नोट को बदला जाए.

रोटावेटर से करें खेत तैयार

रोटावेटर मशीन के प्रयोग से खेत की मिट्टी को अच्छी तरह तैयार किया जाता है. यह मशीन बोआई के लिए खेत की जमीन को कम समय में तैयार करती है. यह मशीन पिछली फसल कटने के बाद जो अवशेष खेत में रह जाते हैं, उन्हें जड़ से खोद कर अच्छी तरह से मिट्टी में मिला देती है.

रोटावेटर के खास तरीके से डिजाइन किए गए ब्लेडों की खास बनावट रोटावेटर को एक मजबूत मशीन का आकार देती है. आज कई कंपनियां बढ़चढ़ कर रोटावेटर मशीनें बना रही हैं, जो किसानों का खेती का काम आसान कर रही हैं.

टिलमेट रोटावेटर

* इस रोटावेटर मशीन में बोरोन स्टील के ब्लेड लगे होते हैं.

* इस में खास तरीके से तैयार किया गया हैवी ड्यूटी गीयर बाक्स लगा होता है. इस के सभी बोल्ट उम्दा क्वालिटी के स्टील के बने होते हैं और नाइलौक नट के साथ होते हैं.

* गीयर ड्राइव होने के कारण यह लंबे समय तक चलती है.

* इस में ट्रेनिंग बोर्ड को एडजस्ट करने के लिए आटोमैटिक स्प्रिंग लगे होते हैं.

* बेयरिंग पर लगी सील रोटावेटर के पुर्जों को नमी और कीचड़ से बचाती है. साथ ही भट्टी पेंट इस मशीन को सुंदर बनाता है और इसे जंग से भी बचाता है.

सायल मास्टर रोटावेटर

इस रोटावेटर मशीन को नरम और कठोर दोनों तरह की खेती लायक जमीन के लिए खासतौर से डिजाइन किया गया है. मजबूत डिजाइन की बनी होने की वजह से इस में कंपन कम होता है और ट्रैक्टर पर भी कम बोझ पड़ता है. यह अकेली ऐसी रोटावेटर मशीन है, जिस में दोनों तरफ से सील बेयरिंग का इस्तेमाल किया गया है, जो गीली और सूखी जमीन पर काम करते समय बेहतर नतीजे देते हैं. अच्छी क्वालिटी की होने की वजह से इस के रखरखाव पर भी कम खर्च आता है. इस का बाक्स कवर खेत में काम करते समय गीयर बाक्स को पत्थरों व दूसरी बाहरी चीजों से बचाता है. साइड स्किड असेंबली के साथ जुताई की गहराई में 4 से 8 इंच तक का फेरबदल किया जा सकता है.

खासीयतें

* बहुगति गीयर बाक्स 540 और 1000 आरपीएम दोनों एकसाथ उपलब्ध हैं.

* लंबे समय तक चलने के लिए खास बोरोन इस्पात से बने ब्लेड लगे हैं.

* जुताई के लिए हल की सुविधा के साथसाथ हैवी ड्यूटी के लिए नई मजबूत रूपरेखा के साथ उपलब्ध.

* भारी ट्रेलिंग तख्ता, स्परिंग शाक अबर्जवर के अलावा गहरी जुताई के लिए अडजस्टेबल डैप्थ स्किड.

* गीयर बाक्स और ट्रैक्टर पर ज्यादा भार न आए इस के लिए अडजस्टेबल पीटीओ शाफ्ट लगी है.

* अच्छे नतीजों और क्वालिटी के लिए गोलाकार ब्लेड वाले रोटर लगे हैं.

* खेत में काम करते वक्त पानी और कीचड़ से होने वाले नुकसान से बचाने के लिए बढि़या क्वालिटी के नटबोल्ट और ग्रीस किए हुए दोहरी सील वाले बेयरिंग लगे हैं.

टिलमेट रोटावेटर मशीन के बारे में ज्यादा जानकारी के लिए किसान भोगल्स प्रा. लि. कंपनी के फोन नं. 91-161-2510781, 2510070 व सायल मास्टर रोटावेटर के लिए कंपनी के फोन नंबर 91-161-2510781, 2510070, 0183-6510222 पर बात कर सकते हैं.

ट्रैक्टर पावर्ड ग्रेन कम स्ट्रा कंबाइन

भारत में पहले फसल की कटाई मजदूरों द्वारा की जाती थी, लेकिन समय ने तरक्की की रफ्तार पकड़ी और फसल कटाई के लिए कंबाइन मशीन बाजार में आ गई. भारत के पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश आदि सूबों में कंबाइन मशीन से तैयार फसल के ऊपरी हिस्से को काटा जाता है, उस के बाद स्ट्रा रीपर द्वारा शेष बची फसल का भूसा बनाया जाता है, जिस से किसान की दोगुनी लागत व समय लगता है. कुछ किसान बचे अवशेषों को जला देते हैं. इसी काम को आसान किया है ‘ट्रैक्टर पावर्ड ग्रेन कम स्ट्रा कंबाइन’ मशीन ने. यह मशीन खेत में फसल काटने के साथसाथ भूसा भी बनाती है. इस मशीन के काम करने का तरीका अन्य कंबाइन मशीनों से अलग है. इस मशीन के साथ खास डिजाइन की बनी ट्राली लगाई जाती है, जो फसल के भूसे को खेत में ही इकट्ठा कर देती है. इस मशीन में थोड़ा बदलाव कर के इसे तमाम फसलों में इस्तेमाल किया जा सकता है.

इस ट्रैक्टर पावर्ड ग्रेन कम स्ट्रा कंबाइन मशीन के साथ लगी ट्राली को आटोमैटिक तरीके से खाली किया जा सकता है, जिस से इस में लगने वाले समय, मेहनत और खर्च तीनों की बचत होती है. अभी यह मशीन भारत सरकार के टेस्टिंग सेंटर हिसार में जांचीपरखी जा रही है.

ट्रैक्टर पावर्ड ग्रेन कम स्ट्रा कंबाइन के फायदे

* पारंपरिक कंबाइन मशीन के मुकाबले डीजल की कम खपत होती है.

* कम मेहनत करनी पड़ती है.

* भूसा बनाने के लिए अलग से स्ट्रा रीपर की जरूरत नहीं होती.

* पारंपरिक कंबाइन मशीन के मुकाबले इस की कीमत भी कम है.

* इस की कूवत 55 से 60 हार्स पावर तक है.

ज्यादा जानकारी के लिए ‘गिल एग्रो इंडस्ट्रीज’ कंपनी के 91-1637-263353, 91-9317100008, 91-9417066252 नंबरों पर बात की जा सकती है

बारिश का पानी जमा कर के बचेगी खेती

बारिश के भरोसे खेती करने के दिन अब लद गए हैं. बारिश के पानी के इंतजार में हाथ पर हाथ धरे बैठे किसानों को अपनी फसलों की सिंचाई के लिए खुद ही इंतजाम करने की जरूरत है. इस के लिए कुछ खास मेहनत और खर्च करने की जरूरत नहीं है, बल्कि बारिश के पानी को बचा कर रखने से ही सिंचाई की सारी मुश्किलों से छुटकारा मिल सकता है. बरसात के पानी के भरोसे खेती करने के बजाय सिंचाई के पुराने तरीके अपना कर उम्दा खेती की जा सकती है. बिहार के नालंदा जिले के नूरसराय प्रखंड के कथौली गांव के किसान बृजनंदन प्रसाद ने अपने गांव में 10 एकड़ जमीन में तालाब बनाए हैं, जिस से करीब 200 एकड़ खेत में लगी फसलों को पानी मिलता है. उन्होंने सिंचाई की आस में हाथ पर हाथ धर कर सरकार और किस्मत को कोसने वाले किसानों को नया रास्ता दिखाया है. बृजनंदन कहते हैं कि खुद को और खेती को बरबाद होते देखने से बेहतर है कि अपने आसपास के पुराने और बेकार पड़े तालाबों और पोखरों को दुरुस्त कर के खेती और सिंचाई की जाए.

कुछ इसी तरह के जज्बे और हौसले की कहानी बांका जिले के बाबूमहल गांव के किसान नुनेश्वर मरांडी की भी है. 32 एकड़ में फैले लहलहाते  बाग मरांडी की मेहनत और लगन की मिसाल हैं. उन्होंने अपने गांव में छोटेछोटे तालाब बना कर बरसात का पानी जमा किया और अपने गांव की बंजर जमीन में जान फूंक दी. उन्होंने पुराने और छोटे तालाबों को धीरेधीरे बड़ा किया और नए तालाब भी खुदवाए. तालाबों के पानी से सिंचाई कर के उन्होंने अपनी 32 एकड़ जमीन में पपीता और अमरूद के बाग का लहलहा दिए. तालाब  के पानी से खेतों की सिंचाई करने के साथसाथ वे उस में मछलीपालन भी कर रहे हैं और अपनी आमदनी बढ़ा रहे हैं.

कृषि विभाग के आंकड़े बताते हैं कि बिहार में सिंचित क्षेत्र ज्यादा होने के बाद भी किसान समय पर फसलों की सिंचाई नहीं कर पाते हैं. पिछले 6 सालों में सिंचित क्षेत्रों में करीब 2 लाख हेक्टेयर की कमी आई है. अभी कुल सिंचित क्षेत्र 35 लाख 20 हजार हेक्टेयर है. इस में 10 लाख 11 हजार हेक्टेयर क्षेत्र की नहरों से, 1 लाख 17 हजार हेक्टेयर क्षेत्र की तालाबों से और 23 हजार हेक्टेयर क्षेत्र की कुओं से सिंचाई हो पाती है. कुओं और तालाबों जैसे सिंचाई के परंपरागत तरीकों की अनदेखी करने की वजह से यह गिरावट आई है.

कृषि वैज्ञानिक बीएन सिंह कहते हैं कि कृषि उत्पादकता बढ़ाने के लिए उन्नत बीज, खाद, मिट्टी, कीटनाशकों के साथ पानी की सब से बड़ी भूमिका होती है और हम पानी को बचाने को ले कर ही सब से ज्यादा लापरवाह बने हुए हैं. बारिश के पानी के भरोसे बैठे रहने वाली किसानों की मानसिकता ने ही खेती और किसानों का बेड़ा गर्क किया है. बारिश के मौसम में कब, कहां और कितनी बारिश होगी? इस का सटीक अंदाजा लगाना आज भी मुश्किल है. फसलों को पानी के अभाव में बरबाद होने से बचाने के लिए बारिश के पानी को बचाने और उस के सही इस्तेमाल के तरीके किसानों को सीखने होंगे. बिहार में 93.29 हजार हेक्टेयर में तालाब और पोखर हैं. इस के अलावा 25 हजार हेक्टेयर में जलाशय और 3.2 हजार हेक्टेयर में सदाबहार नदियां हैं. देश भर में आमतौर पर 15 जून के बाद से बारिश शुरू होती है और धान की नर्सरी डालने का सही समय 25 मई से 6 जून तक का होता है. मिसाल के तौर पर पटना जिले के पिछले 40 सालों के बारिश के आंकड़ों पर गौर करने से पता चलता है कि वहां जून में 134 मिलीमीटर, जुलाई में 340 मिलीमीटर, अगस्त में 260 मिलीमीटर और सितंबर में 205 मिलीमीटर की औसत बारिश होती है. जून में 6 दिन, जुलाई में 13 दिन, अगस्त में 12 दिन और सितंबर में 10 दिन ही बरसात होती है. बारिश के पानी को बेकार बहने से बचाने को ले कर किसानों को जागरूक होना पड़ेगा और तालाबों व पोखरों वगैरह को बचाना होगा. इस से किसान किसी महीने में कम बारिश होने पर भी अपनी फसलों को सूखने से बचा सकेंगे. इस के साथ ही सिंचाई पर होने वाली लागत में भी कमी आएगी.

किसान सलाहकार रजत यादव बताते हैं कि खेतों की मेंड़ों की ऊंचाई को बढ़ा कर मानसून के दौरान बारिश के पानी को खेतों में रोक कर रखा जा सकता है. मेंड़ की ऊंचाई जितनी ज्यादा होगी, उतने ही बारिश के पानी को बचा कर रखा जा सकेगा. अमूमन मेंड़ों की ऊंचाई 7 सेंटीमीटर से 15 सेंटीमीटर तक होती है. बारिश के पानी को खेतों में महफूज रखने के लिए मेंड़ों की ऊंचाई 20 से 25 सेंटीमीटर और मोटाई 10 से 15 सेंटीमीटर कर लेना जरूरी है. यह ध्यान रखना भी जरूरी है कि खेतों में इतना पानी न जमा हो जाए कि फसलों को नुकसान होने लगे. जरूरत से ज्यादा पानी खेतों में न जमा हो, इस के लिए पानी की निकासी का भी इंतजाम करना चाहिए. ज्यादा समय तक खेतों में पानी भरे रहने से धान के पौधों के गलने का खतरा भी बढ़ सकता है.

बारिश के पानी को खेतों में बचा कर रखने से केवल सिंचाई का ही फायदा नहीं होता है, बल्कि सिंचाई पर होने वाले खर्च में कमी आती है. गौरतलब है कि डीजलपंप से सिंचाई करने पर किसानों को हर घंटे 80-90 रुपए खर्च करने पड़ते हैं. इस से खेती की लागत, पैदावार और किसानों की आमदनी पर बुरा असर पड़ता है. खेत में ज्यादा समय तक बारिश का पानी जमा रहने से जमीन के नीचे के पानी के स्तर को बढ़ावा मिलता है.                

पेंच में फंसा वर्षा जल संरक्षण

बारिश का पानी जमा करने के लिए आम लोगों को जागरूक बनाने के लिए सरकार विज्ञापनों पर करोड़ों रुपए खर्च कर रही है, लेकिन बिहार में 2 विभागों के अफसरों के पेंच में यह योजना फंसी हुई है. सूबे के 8 सूखा प्रभावित जिलों में बहुत तामझाम के साथ इस योजना को शुरू करने का ढिंढोरा पीटा गया. मगर यह योजना कृषि विभाग और ग्रामीण विकास मंत्रालय के बीच उलझ कर रह गई है. बिहार कृषि विभाग केंद्रीय कृषि मंत्रालय को योजना का प्रस्ताव भेज चुका है. पर उस के लिए फंड मुहैया कराने का जिम्मा ग्रामीण विकास विभाग के पास है. पैसे की कमी की वजह से सूबे में बारिश के पानी को जमा करने की योजना ठप पड़ी हुई है. राज्य में जलछाजन के तहत 40 योजनाओं के जरीए 1.92 लाख हेक्टेयर में सिंचाई की सुविधा बहाल करने पर काम शुरू किया गया था. पिछले साल 64 नई योजनाओं को इस में शामिल किया गया है. इस से 3 लाख हेक्टेयर में बारिश के पानी से सिंचाई का इंतजाम किया जाना है. इस योजना के पूरा होने से गया, नवादा, बांका, मुंगेर, जमुई, रोहतास, कैमूर और औरंगाबाद जिलों में सिंचाई का ठोस इंतजाम हो जाएगा.

गौरतलब है कि राज्य सरकार ने अगले 15 सालों में सिंचाई का इंतजाम न होने वाले 28 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई का पानी पहुंचाने की योजना बनाई है, लेकिन 2 विभागों के चक्कर में उलझ कर यह योजना दम तोड़ रही है.       

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें