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सिर किसी का, धड़ किसी का

अपना शरीर चिरयुवा रखने की इच्छा रखने वाले अपना सिर अपनी चाहत वाले स्वस्थ, सुंदर शरीर में फिट करवा सकते हैं. यह साइंस फिक्शन या हवाई सोच नहीं है, अपने पिछले प्रयोगों के बूते वैज्ञानिकों को यकीन है कि बस 22 महीने के बाद इस का जीवंत मानवीय नमूना सब को दिखेगा. यह तय पाया गया है कि वियतनाम और जरमनी के सहयोग से बने अस्पताल में 25 दिसंबर, 2017 को मानवीय सिर के प्रत्यारोपण को अंजाम दे दिया जाए. चिकित्सकों, वैज्ञानिकों का मानना है कि यह परीक्षण पूरी तरह सफल रहेगा. अभी इसी साल जनवरी में एक बंदर के शरीर पर सिर प्रत्यारोपण की प्रक्रिया पूरी तरह सफल रही है. उन्हें यह भी यकीन है कि इस औपरेशन के महज 2 दशकों के भीतर ही इस सिर प्रत्यारोपण की तकनीक  विकसित हो कर इतनी आसान बन जाएगी कि लोग अपने बगल के अस्पताल में जा कर अपनी सुविधानुसार सिर या शरीर बदलवा सकेंगे.

पिछले साल जून की 12 तारीख को यह साफ हो गया कि मनुष्य अमरता के इस नए रास्ते पर चलेगा. इतालवी न्यूरो सर्जन सेर्जियो कनावेरो ने उसी दिन अमेरिका के मेरीलैंड के एन्नापोलिस में होने वाली एक बैठक में अपनी उस योजना का ब्योरा रखा, जिस के तहत वे शल्य चिकित्सकों के एक दल के साथ एक व्यक्ति का सिर दूसरे व्यक्ति के स्वस्थ शरीर पर प्रत्यारोपित करेंगे. शल्य चिकित्सकों के संगठन एकेडमी औफ न्यूरोलौजिकल एंड और्थोपेडिक सर्जंस की इस सालाना बैठक में उन्होंने विशेषज्ञों के हर सवाल का जवाब दिया जो इस विवादित मगर महत्त्वपूर्ण और महत्त्वाकांक्षी औपरेशन से जुड़े थे. सहमति, सम्मति इस पर बनी कि अगले साल इस औपरेशन को अंजाम देने से पहले बाकी तैयारियां कर ली जाएं. 2 साल पहले से ही इस प्रयोग के लिए अपना सिर समर्पित करने वाले वलेरी स्पिरिदोनफ का सिर वे एक दूसरे व्यक्ति के धड़ पर रोप देंगे.

बस दो साल

सालभर का इंतजार और इस औपरेशन की उलटी गिनती शुरू, फिर सबकुछ सही रहा तो इसी रास्ते पर चल कर जो भी लोग अपने शरीर से बेजार महसूस कर रहे होंगे, नए शरीर अपनाकर कायाकल्प कर सकेंगे. कनावेरो ख्यातिप्राप्त न्यूरो सर्जन होने के साथसाथ त्यूरिन एडवांस न्यूरोमौड्यूलेशन ग्रुप जैसे अग्रणी थिंकटैंक के मुखिया भी हैं, ऐसे में उन के दावे और वादों को हलके में नहीं लिया जा सकता. उन के दावे के पुख्ता वैज्ञानिक आधार हैं. कनावेरो दिमागी रूप से मृत घोषित व्यक्ति का सिर उस व्यक्ति पर स्थापित करेंगे जिस का शरीर नष्टता को प्राप्त है. स्वस्थ शरीर का मेल स्वस्थ दिमाग से होगा, और सालभर में दोनों मिल कर सक्रिय हो जाएंगे. कनावेरो के अनुसार, एक बार बस यह मौड्यूल व्यावहारिक तौर पर परख लिया जाए फिर तो इस सिर बदल प्रक्रिया में 1 घंटे से भी कम समय लगेगा. कनावेरो अपने इसी औपरेशन का पूरा ब्योरा संबंधित विशेषज्ञ, शल्य चिकित्सकों के सामने रखेंगे. उन्होंने अपने इस न्यूरो मौड्यूल का नाम दिया है हैवेन जेमिनी.

सिर समर्पित

 कनावेरो के प्रयोग को अपना सिर समर्पित करने वाला मिल गया है. बचपन से अब तक व्हीलचेयर पर गुजार रहे 30 वर्षीय रूसी वलेरी स्पिरिदोनफ का जीवन मौत से भी बदतर है. वे शरीर की मांसपेशियों के लगातार बेकार होती जाने वाली दुर्लभ आनुवंशिक बीमारी वर्डनिग हौफमैन से ग्रस्त हैं. उन्होंने  कनावेरो का यह प्रस्ताव मान लिया है कि उन का सिर उतार कर किसी दूसरे शरीर में लगा इस नष्ट होते शरीर को बदल दिया जाएगा. दुनिया के वे पहले शख्स कहलाएंगे, जिन के सिर का प्रत्यारोपण किया जाएगा.

कैसे होगा यह सब

सिर के प्रत्यारोपण के लिए हड्डी, दिमाग, मैडिसिन और तमाम क्षेत्रों के 100 विशेषज्ञ चिकित्सक कुल 36 घंटे चलने वाला औपरेशन करेंगे और खर्च आएगा 15 से 20 मिलियन अमेरिकी डौलर. बीमार शरीर पर स्वस्थ, सक्रिय सिर और उसे निष्क्रिय दिमाग वाला जिस्म, दोनों से सिर एक ही वक्त में और बेहद तेज धार वाले अल्ट्रा शार्प ब्लेड से पहले से तय जगह से बड़ी सफाई से अलग किया जाएगा. धड़ और सिर को शून्य से 10-15 डिगरी नीचे के तापमान में रखा जाएगा ताकि देर तक औक्सीजन न मिलने के बावजूद कोशिकाएं मरें नहीं. शीतल शरीर पर ठंडा सिर कटने के सैकंडों के भीतर सावधानी से फिट किया जाएगा.

कल्पना करें बेहद तेज चाकू से तेजी से कटे केले के 2 टुकड़े. इस के पहले खून की नलियों से वे कृत्रिम नलियां जोड़ी जा चुकी होंगी जिन्हें एकदूसरे से जुड़ना है. खासतौर पर खाने को भीतर ले जाने वाली ग्रसनी और फेफड़ों से जुड़ने वाली ट्रैकिया जिस से आवाज प्रभावित होती है तथा कुछ और नलियां, नस, नाडि़यां. इस के साथ ही, गले के इर्दगिर्द की मांसपेशियों को भी इस लायक बना लिया जाएगा कि सिर रखने के तुरंत बाद उन्हें चिपकाया जा सके. सिर को धड़ से सफलतापूर्वक चिपकाने और रीढ़ की हड्डी के आखिरी सिरे से जोड़ने के बाद पौलीएथिलीन ग्लायीकौल से उन्हें लगातार तर रखा जाएगा और घंटेभर बाद से इसी के इंजैक्शन भी लगातार लगाए जाते रहेंगे.

असल में ग्लायीकौल एथिलीन फैट सैल या कोशिका की बाहरी झिल्ली या मेंब्रेन को गला कर नई कोशिकाएं बनाने में भी मदद करती है.

इस पूरी प्रक्रिया में 2 सब से अहम बातें हैं. पहली, धड़ और सिर दोनों की रीढ़ की हड्डी और उस के भीतर के तंत्रिकाओं का आपस में जुड़ना. दूसरी, शरीर के इम्यून सिस्टम का नए सिर को स्वीकारना. मांसपेशियां जल्दी से जुड़ जाती हैं, चमड़ी, हड्डियां और नलिकाएं भी समय पर जुड़ जाती हैं मगर तंत्रिकातंत्र वाली नसें अपनी धीमी रफ्तार या तकरीबन बिलकुल न बढ़ने के लिए कुख्यात हैं. अगर एक्सौन और भूरी परत के नीचे उस के सफेद तंतु भोथरे तरीके से कटफट गए हैं तो काम असंभव की हद तक मुश्किल है. ऐसे में पौलिएथिलीन ग्लायीकौल का घोल या घंटों दिया जाने वाला इंजैक्शन इस में मदद करेगा. पर अगर यह युक्ति कामयाब कम होती दिखी तो कनावेरो के पास एक दूसरा रामबाण सरीखा रास्ता भी है. इस के तहत वे या तो मरीज की रीढ़ की हड्डी के भीतर स्टेम सैल पहुंचाएंगे या दिमाग और नाक के बीच पाई जाने वाली झिल्ली की कोशिका यानी औलीफैक्ट्री एंसीथिंग सैल का इस्तेमाल करेंगे, अपनेआप बढ़ने वाली ये कोशिकाएं रीढ़ की हड्डी की तंत्रिकाओं को बढ़ने और जुड़ने के लिए प्रेरित करेंगी. इन के अलावा जुड़ाव के लिए भी कनावेरो के पास एक दूसरी तरह की झिल्ली का जुगाड़ है जो शरीर के भीतर ही पाई जाती है.

कई बार एक शरीर का इम्यून सिस्टम या प्रतिरक्षा प्रणाली दूसरे शरीर के अंगों को अपनाने से नकार देता है, कनावेरो को इस की फिक्र नहीं, क्योंकि अब ऐसी दवाएं, रसायन और तरीके विकसित

किए जा चुके हैं कि ऐसी स्थिति से सफलतापूर्वक निबटा जाए. गले की मांसपेशियों और खून की नलियों को साथ में सिल कर कुछ ही मिनटों में जोड़ देने के बाद सबकुछ ठीक रहा तो 15 मिनट बाद रक्तवाहिकाएं फिर से सिर को रक्त आपूर्ति शुरू कर देंगी. अगले 36 घंटे तक इस औपरेशन से संबंधित अन्य कार्य निबटाए जाएंगे, जैसे उन एलेक्ट्रोडों की स्थापना जो बिजली के धीमे झटके दे कर खून का संचार जारी रखेंगे और तंत्रिकातंत्र तथा मांसपेशियों की बढ़त को उकसाते रहेंगे.

औपरेशन के बाद रक्त संचार शुरू होने के समय से मरीज कम से कम 4 हफ्तों के लिए कोमा में चला जाएगा. कई शारीरिक बदलावों और दूसरी जरूरतों के लिए मरीज का कोमा में जाना भी जरूरी ही है. जब उसे होश आएगा तो वह अपने सिर के नीचे एक स्वस्थ मगर अजनबी शरीर को पाएगा. दिमाग के लिए इस अजनबी शरीर से तालमेल बिठाने के लिए फिजियोथैरेपी के तहत ढेर सारी शारीरिक अभ्यास, कसरतें करनी होंगी जिस से साल के भीतर ही यह नए सिर वाला शरीर चलनेफिरने, बोलनेबतियाने और उस के बाद दूसरे कामकाज के काबिल हो जाएगा

पहले के प्रयास

वर्ष 1908 : गुदरे नामक वैज्ञानिक ने बड़े कुत्ते की गरदन पर छोटे कुत्ते का सिर प्रत्यारोपित किया. इस विचित्र प्राणी का चित्र और बनाए जाने की प्रक्रिया का वर्णन किताब में मौजूद है. खून की नलियों ने 20 मिनट के भीतर ही उस के दिमाग तक खून पहुंचा दिया और नए लगे सिर ने बाकायदा हरकत की. आंख की पुतलियों में हरकत देखी गई, जीभ भी लपलपाई.

वर्ष 1950 : रूसी चिकित्सा वैज्ञानिक देमीखोव ने डेढ़ दशक में लगभग 2 दर्जन पिल्लों के सिरों का प्रत्यारोपण कर सिर काटे जाने और प्रत्यारोपण के बीच के समय को कम करने, बिना औक्सीजन के इसे देर तक रखने और औपरेशन जल्दी निबटाने  में सफलता पाई. नसों को सिलने के लिए खास मशीन का इस्तेमाल किया. प्रत्यारोपण के बाद ज्यादातर कुत्ते 2 से 6 दिन तक जिंदा रहे. एक मामले में तो यह आंकड़ा 29 दिन तक भी पहुंच गया था. 1954 में इस तरह के किए गए एक औपरेशन के बाद प्राणी ने दूध पीने

तक में सफलता पाई. इस बीच, 1959 में चीन ने घोषणा की कि उस के वैज्ञानिकों ने 2 कुत्तों के सिर के प्रत्यारोपण  में कामयाबी पा ली है.

वर्ष 1970 : अमेरिकी न्यूरो सर्जन रौबर्ट जे व्हाइट ने एक बंदर का सिर दूसरे बंदर के धड़ पर प्रत्यारोपित कर दिखाया. व्हाइट की टीम ने दावा किया कि बंदर का प्रत्यारोपित सिर सूंघ सकता है, स्वाद ले सकता है, अपने आसपास के वातावरण को देखसुन, महसूस कर सकता है. दिमाग तक खून का दौरा बनाने में उन्होंने सफलता पाई थी. पर बंदर औपरेशन के बाद कुछ देर ही जिंदा रहा. व्हाइट के साथियों ने इस सफलता को फिर एक दूसरे बंदर के साथ दोहराया पर सबकुछ होने के बावजूद पहले ही की तरह बंदर का निचला हिस्सा लकवाग्रस्त या असंवेदनशील ही बना रहा, रीढ़ का तंत्रिकातंत्र विकसित नहीं हुआ और शरीर के इम्यून सिस्टम ने सिर को नहीं स्वीकारा, बंदर मर गया.

वर्ष 2002 : इस मामले में रूस और अमेरिका की बराबरी को आतुर चीन ने 2002 में दावा किया कि उस ने चूहे के साथ यह सफलता अर्जित की. ठीक ऐसा ही दावा जापानी वैज्ञानिकों ने भी किया. पूरे दशक बाद चीन और जापान के वैज्ञानिकों ने सिर प्रत्यारोपण के मामले में अपने अनुभव साझा किए.

वर्ष 2013 : इतालवी न्यूरो सर्जन ने दावा किया कि उस के पास डा. रौबर्ट व्हाइट से अलग और खास तकनीक तथा योजना है जिस के तहत वे सिर का प्रत्यारोपण सफलतापूर्वक कर सकते हैं. 2015 में उन्हें सिर देने वाला भी मिल गया. अब वे 2017 तक सिर के प्रत्यारोपण के सफल परिणाम सब को दिखाने के लिए प्रतिबद्ध हैं.

जनवरी 2016 : डा. कनावेरो ने दावा किया कि उन की टीम के एक शल्य चिकित्सक ने बंदर का सिर जोड़ने का काम सफलतापूर्वक किया. उन्होंने एक प्रैस कौन्फैं्रस कर के न सिर्फ औपरेशन के बाद का उस बंदर का चित्र दिखाया बल्कि शल्य प्रक्रिया से जुड़ी कई बातें भी साझा कीं और कहा कि वे दिसंबर में ऐसा ही प्रयोग मानव सिर के साथ करने के लिए प्रतिबद्ध हैं.

रास्ते के रोड़े

कनावेरो सिर बदलने का औपरेशन चीन में करना चाहते थे पर चीन ने साफ मना कर दिया. अब वे चाहते हैं कि चूंकि सिर देने वाले वलेरी स्पिरिदोनफ रूसी नागरिक हैं सो औपरेशन रूस में हो. उन का एक और तर्क यह भी है कि सिर प्रत्यारोपण के विश्वपितामह व्लदिमीर देमिखोव रूस के ही थे, सो रूस को इतिहास बनाने का श्रेय मिलना चाहिए. जाहिर है कनावेरो को इस विवादित औपरेशन के लिए कोई ऐसा देश ढूंढ़ना पड़ेगा जिस का कानून और समाज इस तरह की कवायद की इजाजत दे. धर्म, नैतिकता और समाज के साथ तमाम वैज्ञानिक भी कनावेरो के इस कृत्य के विरोध में है.

कनावेरो ने 2013 में पहली बार इस तरह का विचार सामने रखा था. सर्जिकल न्यूरोलौजी इंटरनैशनल पत्रिका में उन की शोध रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी. तभी से इस का समर्थन और विरोध चालू है. अंगों के प्रत्यारोपण के संबंध में हर देश में अपने नियमकायदे, कानून हैं, बिना इन के बदले इस तरह के तजरबे की इजाजत नहीं दी जा सकती. कनावेरो को पता है समर्थित देश न हुआ तो जेल तय है. फिलहाल, वियतनाम के अस्पताल द्वारा हामी भर देने से और तैयारियां शुरू कर देने से अस्थायी तौर पर इस किए जाने वाले औपरेशन के रास्ते से एक बड़ा रोड़ा हट गया लगता है. 

औपरेशन अगर सफल हो गया तो यह कारनामा अमरत्व की दिशा में एक कदम होगा यह धर्माधिकारियों को कतई रास नहीं आता, किसी का सिर किसी का धड़ यह नैतिकतावादी और परंपरावादियों को पसंद नहीं. दुनिया के तमाम दूसरे चिकित्सक, जिन्हें अपनी बिरादरी का होने के नाते कनावेरो का समर्थन करना चाहिए, वे डा. कनावेरो को सनकी करार दे रहे हैं. उन के मुताबिक ऐसा सोचना जनूनी फंतासी मात्र है, कर पाना नामुमकिन है. रूस इस क्षेत्र में खासा काम कर चुका था और अमेरिकी न्यूरोलौजिस्ट ने भी आगे के समय में शानदार काम किया. ऐसे में एक इतालवी वैज्ञानिक की सफलता से इस क्षेत्र में किए गए सारे काम की सफलता का सेहरा उस के सिर बंध सकता है. इस मामले में महाशक्तियों की राजनीति भी रोड़ा बनी हुई है.

मैं अलग प्रजाति का न्यूरो साइंटिस्ट हूं

–डा. ऐर्जियो कनावेरो, न्यूरोसर्जन

डा. रौबर्ट व्हाइट की बंदर के साथ कोशिश सफल नहीं रही, उन में और आप में अंतर?

उन के पास हैवेन जेमिनी तकनीक नहीं थी. अब सिर को बेहद सलीके से काटने की नई तकनीक बहुत उन्नत है. अब हालिया उदाहरण को लीजिए, मेरे दल के शल्य चिकित्सक श्योपिंग रेन ने बंदर के सिर का सफल प्रत्यारोपण कर साबित कर दिया कि मेरा मौड्यूल बिना दिमाग को नुकसान पहुंचाए सफल है. व्हाइट फंक्शनल तंत्रिका विज्ञानी नहीं थे. मैं अलग प्रजाति का न्यूरोसाइंटिस्ट हूं.

आप को इस में कुछ अनैतिक नहीं लगता?

नहीं. मैं तो बेहद खुश हूं. जरा उस से पूछ कर देखिए जो दर्दनाक चिकित्सकीय परिस्थितियों में पड़ा है. मैं उस से उस को मुक्ति दिलाने का नैतिक व मानवीय प्रयास कर रहा हूं. और्थोडौक्स चर्च ने कहा है कि अगर यह औपरेशन हुआ तो एक शरीर की आत्मा दूसरे शरीर से भिड़ जाएगी, मेरा मानना है कि वे अज्ञानी हैं जो इसे नैतिकता व धर्म का प्रश्न बना रहे हैं.

क्या यह बहुत जल्दी नहीं है, और तजरबे नहीं किए जाने चाहिए थे?

मैं आलोचनाओं से सहमत हूं. आदमी के हवा में उड़ने की अवधारणा का उपहास और आज के बोइंग के बीच कितना कम फासला है.

एक औपरेशन में खर्च 15-20 मिलियन डौलर? अधिक नहीं है?

इस से ज्यादा फुटबौल की टीमों पर खर्च हो जाता है. मैं तो बिल गेट, जुकरबर्ग जैसे लोगों से औपरेशन प्रायोजित करने को कहूंगा. आखिर यह मानवीय इतिहास का एक मोड़ जो है.

इस का भविष्य?

आज 100 चिकित्सक, 36 घंटे, खास अस्पताल और 15 मिलियन डौलर खर्च हो रहे हैं. कल यह सुविधा आप के नजदीकी अस्पताल में होगी और बेहद सस्ती, महीनेभर में सब दुरुस्त. दुनिया में कई अरब लोग होंगे जो इस के आधार पर मरने से मना कर देंगे. यह क्लोनिंग से बढि़या विकल्प होगा.

ये पाकिस्तानी क्रिकेटर करता है धोनी की पूजा

पाकिस्तान के विकेटकीपर-बल्लेबाज सरफराज अहमद ने कहा है कि वह भारतीय टीम के कप्तान महेंद्र सिंह धोनी को अपना आदर्श मानते हैं और उनके जैसा 'फिनिशर' बनना चाहते हैं.

अहमद ने कहा कि निश्चित तौर पर धोनी से मुझे प्रेरणा मिलती है. वह विकेटकीपिंग और बल्लेबाजी दोनो बहुत ही बेहतर तरीके से करते हैं. वह एक बेहतरीन विकेटकीपर हैं. मैं उन्हें पूजता हूं. जिस तरह से वह एक पारी को पूरा करते हैं, मैं वहीं पाकिस्तान के लिए करना चाहता हूं.

सफराज ने अस्थायी रूप से पाकिस्तानी टीम के लिए बल्लेबाज की भूमिका निभाई है और वह अपनी टीम की जरूरत के हिसाब से इस क्रम को जारी रखना चाहते हैं. एशिया कप में पाकिस्तान को बांग्लादेश के हाथों हार मिली थी. वह एशिया कप के फाइनल में नहीं पहुंच सका था. भारत ने फाइनल में बांग्लादेश को हराया था.

अपने एशिया कप अभियान के बारे में सरफराज ने कहा कि बांग्लादेश में स्थिति काफी खराब थी. हर टीम के लिए पहले छह ओवर काफी मुश्किल थे, लेकिन अब हमने सभी चीजें सुलझा ली हैं और आशा है कि हम यहां बेहतर प्रदर्शन करेंगे.

ईडन गार्डन्स स्टेडियम में पाकिस्तान का सामना भारत से 19 मार्च को होगा और सरफराज का मानना है कि दोनों टीमों पर समान दबाव होगा. सरफराज ने कहा कि यह बहुत बड़ा खेल है. दोनों टीमों पर समान दबाव होगा. हम यहां बेहतर क्रिकेट खेलने की पूरी कोशिश करेंगे.

यह भी खूब रही

मेरे मित्र के 3 वर्षीय पुत्र मानू को दूसरों की उंगली अपने मुंह में डाल कर काटने की बुरी आदत थी. एक दिन मैं अपने 7 वर्षीय भतीजे हर्ष के साथ वहां गया तो मानू ने मेरी उंगली भी अपने मुंह में रख कर काट ली. यह देख कर हर्ष ने मेरी जेब से स्टील का पैन निकाला और उंगली के नीचे छिपा कर मानू को अपना मुंह खोलने को कहा. मानू के मुंह खोलते ही हर्ष ने अपनी उंगली उस के मुंह में रख दी और मुंह बंद होने से पहले ही अपनी उंगली निकाल कर पैन मुंह में ही छोड़ दिया. मानू ने 2-3 बार पैन में दांत मारे और फिर ‘आह’ कर के छोड़ दिया. उस के बाद तो मित्र ने भी यही उपाय बारबार अपनाकर उस की यह बुरी आदत सदा के लिए छुड़वा दी.

मुकेश जैन ‘पारस’, बंगाली मार्केट (न.दि.)

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सुनीता अस्पताल में काफी दिनों से भरती थी. ठीक होने पर उसे अस्पताल से छुट्टी मिली तब वह वापस घर जाने को तैयार नहीं थी. पति ने व बेटेबहुओं ने समझाया तब भी वह जिद पर अड़ी रही. पास की मरीज महिला सुधा यह नजारा काफी देर से देख रही थी. वह सुनीता के पास आ कर बोली, ‘‘बहन, अस्पताल से सब को घर जाने की जल्दी होती है. वे खुश होते हैं. तुम्हें यह खुशी का मौका मिला, फिर भी तुम घर जाने से इनकार कर रही हो, क्यों?’’

‘‘बहन, अस्पताल में एसी का जो सुख है वह घर पर नहीं मिलेगा. मैं इस सुख से वंचित होना नहीं चाहती.’’ अस्पताल के गमगीन माहौल में भी सुनीता के उत्तर ने सब को हंसाहंसा कर लोटपोट कर दिया.

रेणुका श्रीवास्तव, लखनऊ (उ.प्र.)

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घर में मामाजी आए हुए थे. वे मजाकिया स्वभाव के हैं. मार्च का महीना था. रात होते ही मच्छरों ने भिनभिनाना और काटना शुरू कर दिया. उन दिनों औलआउट नहीं था. चेहरे व हाथों पर ओडोमास का प्रयोग किया जाता था. यह क्रीम लगाने से मच्छर नहीं काटते थे. रात को सोते समय मामाजी ने भी क्रीम लगाई. वे हर 10 मिनट बाद शरीर खुजाते हुए बोलते, ‘‘मच्छर काट रहे हैं.’’ मम्मी बोली, ‘‘क्रीम थोड़ी ही सही पर अपना असर जरूर दिखाएगी.’’ पर मामाजी की रट जारी रही और फिर वे अचानक चुपचाप सो गए. दूसरे दिन सुबह मम्मी ने कहा, ‘‘भैया, अच्छी नींद आई न, आखिर क्रीम का असर जो हुआ.’’ मामाजी बोले, ‘‘हां बिलकुल, मैं ने क्रीम शरीर पर लगाने के साथसाथ पूरी चादर पर भी लगा दी और मजे से सो गया.’’ मामाजी की बात सुन कर हम सब हंसतेहंसते लोटपोट हो गए.

रेणुका चिंचोलकर, नागपुर (महा.)

बजट : सरकार के लिए

जिन लोगों ने सामूहिक रूप से हल्ला मचाते हुए नरेंद्र मोदी को विकास का देवदूत बना कर लोकसभा चुनाव जिताया था और उम्मीदें की थीं कि भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनते ही अमीरों व समर्थों के भाग्य के दरवाजे खुल जाएंगे, उन्हें वित्त मंत्री अरुण जेटली द्वारा संसद में पेश किए गए आम बजट से फिर निराशा हुई होगी क्योंकि बजट में व्यापारियों, उद्योगपतियों, शेयर बाजार के कर्ताधर्ताओं, मकानमालिकों, भवन निर्माताओं आदि के लिए कुछ नहीं है. उन्हें न कर में छूट दी गई है न उन के लिए नए कानूनों की प्रस्तावना है. छिटपुट ऊंचनीच है जो बेमतलब की, शायद धार्मिक सी रस्म निभाने की कोशिश है.

सरकार का बजट आजकल देश के लिए बहुत ज्यादा महत्त्व का होता है क्योंकि आम जनता के हाथ क्या बचेगा, क्या उस से छीना जाएगा, उसी से तय होता है. बजट में उम्मीद थी कि उदासीन हालात में चमक डालने के लिए कुछ किया जाएगा और उद्योगों व व्यापारों को बढ़ाने की कोशिशें होंगी पर ऐसा नजर नहीं आया.

सरकार अपना राजस्व खोए बिना भी बहुतकुछ ऐसा कर सकती है जिस से जनता को लाभ हो सके. आज जनता कर देने से उतना नहीं घबराती जितना कर को वसूलने वाली प्रक्रिया के कारण भयभीत रहती है. ठीक है केंद्र सरकार जनरल सेल्स ऐंड सर्विस टैक्स यानी जीएसटी लाना चाहती है पर संसद के गतिरोध के कारण ऐसा हो नहीं पा रहा लेकिन फिर भी बजट में सैकड़ों छोटेछोटे प्रावधान लाए जा सकते थे जिन से जीवन सरल बनाया जा सके. ऐसा हुआ कुछ नहीं.

सरकार ने न फालतू के कर, उपकर कम किए न उत्पादन, सेवा कर कम किए, न नियम सुधारे और न ही सपने दिखाए. यह कहना कि 5 साल में बैठेबिठाए किसानों की आय दोगुनी हो जाएगी, यह केवल राजनीतिक जुमला है. 5 सालों के दौरान महंगाई कितनी बढ़ेगी, क्या इस का भी अंदाजा है? देश में जो तरक्की दिख रही है वह असल में उस तकनीक के कारण है जो हम ने न बनाई है न उस में कुछ जोड़ा है. हम से गाडि़यां और मोबाइल तक नहीं बनते. हमारे उद्योग विदेशी इशारों पर चलते हैं, विदेशी मशीनों पर फलतेफूलते हैं. खेती की आमदनी में थोड़ा बदलाव आया है पर उस के लिए राज्य सरकारें श्रेय लेंगी, केंद्र सरकार नहीं.

यह न भूलें कि भारत में ही दुनिया के सब से अधिक गरीब हैं. प्रसव के वक्त भारत में ही सब से ज्यादा औरतें मरती हैं. भारत में ही सब से ज्यादा अनपढ़ हैं. भारत में ही बीमारों की संख्या सब से ज्यादा है. हम 7 प्रतिशत की प्रगति पर फूल नहीं सकते. भारत की जनसंख्या दुनिया में सब से ज्यादा बढ़ रही है और पिछले 15-20 सालों में देश में जो चमक बढ़ी थी, अब बढ़नी बंद हो चुकी है. मानवीय अधिकारों की हत्या के इस नए दौर में केंद्र सरकार का आम बजट किसी भी वर्ग को संतुष्ट न करेगा. यह निराशाजनक है. यह बजट हमेशा की तरह केवल सरकार द्वारा, सरकार के लिए है.

 

बौलीवुड टू हौलीवुड

इरफान खान ने जहां हौलीवुड में अपना एक दशक पूरा किया वहीं अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा ने भी पीपुल चौइस अवार्ड जीत कर हौलीवुड में अपनी धमक जाहिर कर दी है. अब तक हौलीवुड की फिल्मों में चंद मिनटों के रोल में सिमटे रहने वाले बौलीवुड कलाकार अब ‘ए’ ग्रेड फिल्मों में लीड रोल हथिया रहे हैं. पहले प्रियंका ने क्वांटिको में यही काम किया और अब दीपिका पादुकोण ने हौलीवुड में अपना डेब्यू हौलीवुड ऐक्टर विन डीजल के साथ आने वाली फिल्म ‘एक्सएक्सएक्स : द रिटर्न औफ जैंडर केज’ से किया है.  जिस तरह से सिनेमा अपनी सीमाओं को तोड़ कर दर्शकों तक पहुंच रहा है, उस से इस उद्योग के बढ़ते कदमों का अंदाजा लगाया जा सकता है. शायद सिनेमा का स्वर्णिम ग्लोबल दौर यही है.

जेल से निकले संजय

1993 के मुंबई बम धमाके मामले में सजा काट रहे संजय दत्त अब रिहा हो चुके हैं. रिहा होते ही संजय ने बाकायदा प्रैस कौन्फ्रैंस कर जेल में बिताए दिनों के अनुभवों को साझा किया. संजय कहते हैं कि वे अपने मातापिता को मिस करते हैं. वे होते तो देखते कि उन का बेटा आजाद हो गया है. संजय दत्त का फिल्म उद्योग में जम कर स्वागत हो रहा है. उन के हाथ में अभी से 7 बड़े प्रोजैक्ट हैं. जिन्हें वे कुछ दिन परिवार के साथ बिताने के बाद, शुरू करेंगे. उन का कहना है कि सोहम शाह की फिल्म ‘शेर’ जो काफी समय से उन की वजह से अधर में लटकी है, उसे पूरा करना प्राथमिकता है. फिलहाल वे अपनी पत्नी और बच्चों के साथ अपनी आजादी का जश्न मनाने में मसरूफ हैं.

कमबैक करेंगी पूजा

अभिनेत्री पूजा भट्ट ने अपने कैरियर की लगभग सभी फिल्में अपने पिता के निर्देशन में ही की हैं. फिर चाहे वह ‘दिल है कि मानता नहीं’, ‘सड़क’, ‘फिर तेरी कहानी याद आई’ हो या ‘जख्म’. आखिरी बार उन्हें महेश भट्ट निर्देशित फिल्म ‘जख्म’ में देखा गया था. लगभग 18 साल के बाद अब वे फिर से बड़े परदे पर वापसी कर रही हैं. इस बार फिल्म का निर्देशन भले ही उन के पिता महेश भट्ट नहीं कर रहे हों लेकिन उस की पटकथा महेश भट्ट ने ही लिखी है.

सालों बाद वापसी को ले कर पूजा का कहना है कि काफी समय तक उन्हें अपने पिता की तरह गंभीर विषय की फिल्में नहीं मिलीं, लिहाजा उन्होंने अभिनय भी छोड़ दिया. पर अब कुछ लोगों के पास ऐसी अच्छी कहानियां हैं जो मेरे पिता की लिखी कहानियों से कहीं बेहतर हैं, इसलिए दोबारा अभिनय की नई शुरुआत कर रही हूं.

फिल्म संरक्षण मुहिम

भारतीय सिनेमा की कई अहम फिल्मों के प्रिंट जल चुके हैं और कई इतनी खराब स्थिति में हैं कि उन का इस्तेमाल नहीं हो सकता. हमारे यहां किसी भी तरह की विरासत को संरक्षित करने की परंपरा नहीं रही है. लेकिन बीते दिनों फिल्म हैरिटेज फाउंडेशन ने वायकौम 18 के साथ जुड़ कर भारतीय सिनेमाई विरासत को बचाए रखने के लिए ‘फिल्म प्रिजर्वेशन ऐंड रैस्टोरेशन वर्कशौप 2016’ का आयोजन किया. यह कार्यक्रम पुणे के ‘नैशनल फिल्म आर्काइव औफ इंडिया’ में हुआ. इस मुहिम को समर्थन देने के लिए नसीरुद्दीन शाह और बिग बी भी आगे आए. नसीरुद्दीन शाह की 50 फिल्में आर्काइव सूची में शामिल की गईं.

हंसल का पत्रलेखा कनैक्शन

हंसल मेहता की फिल्म ‘सिटी लाइट’ में बौलीवुड में अपने कैरियर की शुरुआत करने वाली अदाकारा पत्रलेखा हंसल मेहता को अपना गुरु मानती हैं. किसी भी फिल्म को साइन करने से पहले या किसी प्रोजैक्ट के लिए हामी भरने से पहले वे हंसल से जरूर राय लेती हैं. पत्रलेखा का मानना है, ‘अब तक मैं ने ऐक्ंिटग और सिनेमा के बारे में जो कुछ सीखा है, सब उन से ही सीखा है.’ वैसे पत्रलेखा कथित तौर पर राजकुमार राव के साथ डेट कर चुकी हैं और ‘सिटी लाइट’ भी शायद राजकुमार के जरिए ही मिली होगी. हंसल जैसा मार्गदर्शक कौन नहीं चाहेगी जिन की फिल्में जम कर अवार्ड बटोर रही हों.

क्या है मिस्र के पिरामिडों का रहस्य

संसार के 7 आश्चर्यों में से एक मिस्र के पिरामिडों का रहस्य जानने की नए सिरे से कोशिश हो रही है. इस अभियान में मिस्र के अलावा फ्रांस, कनाडा और जापान के विशेषज्ञ एकसाथ जुटे हैं, जिन का मुख्य उद्देश्य है पिरामिडों की तकनीक और इन के अंदर के चैंबर के रहस्य जानना. प्राचीन मिस्रवासियों की धारणा थी कि उन का राजा किसी देवता का वंशज है, अत: वे उसी रूप में उसे पूजना चाहते थे. मृत्यु के बाद राजा दूसरी दुनिया में अन्य देवताओं से जा मिलता है, इस धारणा के चलते राजा का मकबरा बनाया जाता था और इन्हीं मकबरों का नाम पिरामिड रखा गया था. दरअसल, प्राचीन मिस्र में राजा अपने जीवनकाल में ही एक विशाल एवं भव्य मकबरे का निर्माण कराता था ताकि उसे मृत्यु के बाद उस में दफनाया जा सके. यह मकबरा त्रिभुजाकार होता था. ये पिरामिड चट्टान काट कर बनाए जाते थे. इन पिरामिडों में केवल राजा ही नहीं बल्कि रानियों के शव भी दफनाए जाते थे. यही नहीं, शव के साथ अनेक कीमती वस्तुएं भी दफन की जाती थीं. चोरलुटेरे इन कीमती वस्तुओं को चुरा कर न ले जा सकें, इसलिए पिरामिड की संरचना बड़ी जटिल रखी जाती थी. प्राय: शव को दफनाने का कक्ष पिरामिड के केंद्र में होता था.

पिरामिड बनाना आसान नहीं था. मिस्रवासियों को इस कला में दक्ष होने में काफी समय लगा. विशाल योजना बना कर नील नदी को पार कर बड़ेबड़े पत्थर लाने पड़ते थे. पिरामिड बनाने में काफी मजदूरों की आवश्यकता होती थी. पत्थर काटने वाले कारीगर भी अपने फन में माहिर होते थे. ऐसी मान्यता है कि पिरामिड ईसापूर्व 2690 और 2560 शताब्दियों में बनाए गए. सब से पुराना पिरामिड सक्कारा में स्थित जोसीर का सीढ़ीदार पिरामिड है. इसे लगभग 2650 ईसापूर्व बनाया गया था. इस की प्रारंभिक ऊंचाई 62 मीटर थी. वैसे काहिरा में गीजा के दूसरी शताब्दी ईसापूर्व के पिरामिड संसार के 7 आश्चर्यों में शामिल हैं.

वर्तमान में मिस्र में अनेक पिरामिड मौजूद हैं, इन में सब से बड़ा पिरामिड राजा चिओप्स का है. राजा चिओप्स के पिरामिड के निर्माण में 23 लाख पत्थर के टुकड़ों का इस्तेमाल हुआ था. इसे बनाने में एक लाख मजदूरों ने लगातार काम किया था. इसे पूरा होने में करीब 30 वर्ष का समय लगा. इस के आधार के किनारे 226 मीटर हैं तथा इस का क्षेत्रफल 13 वर्ग एकड़ है. मिस्र के पिरामिडों का रहस्य जानने के लिए नवीनतम टैक्नोलौजी का उपयोग किया जा रहा है. इस दौरान जानने का प्रयास किया जाएगा कि इन पिरामिडों को किस तकनीक से बनाया गया है और इन के अंदर ऐसे चैंबर तो नहीं हैं, जिन्हें अब तक नहींखोला जा सका है. इस के लिए इन्फ्रोटड कार्योग्राफी का इस्तेमाल किया जाएगा. यह तकनीक किसी चीज से निकलने वाली इन्फ्रारैड ऊर्जा और उस के आकार वगैरा की पहचान करती है. फिर उस के जरिए छिपी हुई चीज का पता चलना आसान हो जाता है.

3डी लेजर स्कैन तकनीक में से किसी चीज के अंदरूनी हिस्से के आकलन में मदद मिलेगी. इस से स्कैनिंग के बाद उस की 3डी इमेज बनाई जाएगी. कौस्मिक डिटैक्टर तकनीक के जरिए भवनों के अंदर गए बिना भी उन के अंदर रखी चीजों का पता चल जाता है और उस चीज को नुकसान भी नहीं पहुंचता. विचार यह है कि पिरामिड की बनावट की अंदरूनी जानकारी जुटा कर 3डी इमेज बनाई जाए. मिस्र के गीजा के पिरामिड पर किए जा रहे एक थर्मल स्कैन प्रोजैक्ट में रहस्यमयी हीट स्पौट्स नजर आए हैं. ‘स्कैन पिरामिड’ नाम से चलाए जा रहे इस प्रोजैक्ट में पिरामिड के इन्फ्रारैड थर्मल को स्कैन किया गया. सूर्योदय व सूर्यास्त के समय जब तापमान में बदलाव आता है तो उस समय इन स्कैनर्स के जरिए ये स्पष्ट नजर आए. वैज्ञानिकों का मानना है कि इन पिरामिडों में खासतौर पर सब से बड़े खुफू पिरामिड में और कब्रें व गलियारे मौजूद हैं, जिन के बारे में अभी दुनिया के लोग नहीं जानते. मिस्र, जापान, कनाडा और फ्रांस के वैज्ञानिक और आर्किटैक्ट इस प्रोजैक्ट पर काम कर रहे हैं. एक समय था जब यहां लोगों की इतनी भीड़ होती थी कि मिस्र के पिरामिडों की तसवीर लेना भी दूभर होता था. 2010 में जहां यहां डेढ़ करोड़ पर्यटक आए थे वहीं 2014 में उन की संख्या घट कर 90 लाख रह गई. आज आईएस के बढ़ते खौफ के चलते पर्यटक हजारों साल पुरानी इन अद्भुत कलाकृतियों को देखने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं. आतंकी घटनाओं के चलते पर्यटक अपनी जान जोखिम में नहीं डालना चाहते. कभी लाखों पर्यटकों की भीड़ से गुलजार रहने वाला यह विश्वविख्यात पर्यटन स्थल आज वीरान पड़ा है और इक्केदुक्के लोग ही यहां नजर आते हैं.

पर्यटन व्यवसाय को हुए बड़े नुकसान का खमियाजा स्थानीय लोगों को भुगतना पड़ रहा है. हालत यह है कि उन्हें फाके करने पर मजबूर होना पड़ रहा है. मिस्र में कुछ समय से पिरामिडों पर चल रहे शोध में वैज्ञानिकों को बड़ी जानकारी हाथ लगी है. वैज्ञानिकों और मिस्र सरकार के अधिकारियों का दावा है कि ‘वैली औफ किंग्स’ में तूतनखामन की ममी के नीचे और भी कमरे हैं, जिन में ऐसे राज हैं जिन के बारे में अभी कोई जानकारी नहीं है. आर्कियोलौजिस्ट निकोलस रीव्स के अनुसार तूतनखामन की ममी को एक बाहरी चैंबर में रखा गया है, जिस के नीचे और कमरे या गलियारे हो सकते हैं, जिन में सामान व ममीज भी हो सकती हैं. रीव्स का कहना है कि तूतनखामन की कब्र को असल में रानी नेफरतीती के लिए बनाया गया था. विशेषज्ञों के अनुसार तूतनखामन की कब्र के नीचे ही किसी अन्य कमरे में नेफरतीती की भी कब्र हो सकती है. ऐसा माना जाता है कि लगभग 3 हजार से 3,500 साल पहले तूतनखामन की मौत हुई उस समय उन की उम्र 19 साल के आसपास थी.

1922 में तूतनखामन की ममी को खोजा गया था. ब्रिटिश पुरातत्त्ववेत्ता हौवर्ड कार्टर ने फराओ (राजा) की इस ममी को ढूंढ़ा था. ममी ने तावीज पहन रखा था और पूरा चेहरा सोने से बने मास्क से ढका हुआ था. कार्टर और उन की टीम ने फराओ के चेहरे से मास्क भी उतारा था. कहा जाता है कि अब तक केवल 50 लोगों ने तूतनखामन के चेहरे को देखा है. इस ममी को एक ताबूत में रखा गया था और जब इस प्राचीन शासक के शरीर को इस से बाहर निकाला गया तो उस का चेहरा झुर्रीदार और काला था. हालांकि बाद में वापस मास्क लगा दिया गया था. उन की कब्र से सोने और हाथी दांत की बनी ढेरों कीमती चीजें मिली थीं.

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