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गधे की परोपकारी

एक फकीर किसी बंजारे की सेवा से इतना खुश हो गया कि उस ने बंजारे को अपना एक गधा दे दिया. बंजारा बड़ा खुश था गधे के साथ. अब उसे पैदल नहीं चलना पड़ता था, न ही अपना सामान कंधे पर ढोना पड़ता. और गधा था भी बड़ा स्वामीभक्त. लेकिन एक दिन गधा अचानक बीमार पड़ गया और मर गया. बंजारे ने गधे की कब्र बनाई. वह कब्र के पास बैठ कर रो रहा था. तभी सौदागारों का एक कारवां उधर से गुजरा. सौदागरों ने सोचा, जरूर किसी पहुंचे हुए पीर की मौत हो गई है. वे भी कब्र के सामने झुके. उन्होंने बहुत से रुपए कब्र पर चढ़ाए. बंजारे को यह सब देख कर हंसी आ रही थी.

उस ने सोचा कि यह तो बड़ी कमाई का धंधा है. फिर वह उसी कब्र के पास बैठता और रोता रहता. धीरेधीरे आसपास के गांवों में खबर फैल गई और चढ़ावा जमा होतेहोते काफी संपत्ति इकट्ठी हो गई. उस ने गधे की कब्र के लिए बड़ी सी इमारत बना डाली. आसपास कई सराएं भी खोल दीं. एक दिन वह फकीर, जिस ने उसे यह गधा भेंट किया था, उस गांव के पास से गुजरा. उस ने बंजारे से पूछा, ‘‘अरे भाई, यह किस की कब्र है? और तुम यहां क्या कर रहे हो?’’ उस बंजारे ने सारी कथा सुना दी. पूरी बात सुन कर फकीर हंसने लगा. बंजारे ने हंसने का कारण पूछा.

फकीर ने कहा, ‘‘जिस कब्र पर मैं बैठता हूं, वह भी एक पहुंचे हुए फकीर की कब्र है.’’ उसी से तो मेरा भी खर्चापानी चलता है. क्या तुम्हें मालूम है कि वह किस फकीर की कब्र है?’’ बंजारे ने कहा, ‘‘मुझे कैसे मालूम, आप ही बताएं.’’ फकीर ने बताया कि वह इस गधे की मां की कब्र है.

ऐसा भी होता है

बात उन दिनों की है जब अंटार्कटिका से भारतीय टीम लौट रही थी. केपटाउन और जोहांसबर्ग आने पर छुट्टी होने के कारण बाजार बंद थे. मैं लौटते समय किसी के लिए कुछ भी खरीद नहीं पाया. दोपहर 2 बजे की फ्लाइट थी जोहांसबर्ग से मुंबई, इसलिए 10 बजे होटल से निकल कर 1 बजे तक माइग्रेशन की प्रक्रिया पूरी कर ली थी. अभी उड़ान के लिए 1 घंटे का समय था इसलिए टीम के लोग जल्दीजल्दी एअरपोर्ट में दुकानों की तरफ लपके. मैं दुकान में खरीदारी में इतना मशगूल हो गया कि पता ही नहीं चला कि कब साथ के लोग फ्लाइट की ओर जा चुके थे. अपनेआप को अकेला पा कर मैं भी तेजी से निकला और दिशाहीन बढ़ा चला जा रहा था. तभी एक भारतीय युगल ने टोका कि मुंबई की फ्लाइट पकड़नी है क्या? मैं ने कहा, ‘‘हां.’’ उन्होंने कहा कि मैं गलत दिशा में जा रहा हूं, मुंबई टर्मिनल का रास्ता दूसरी तरफ है. मैं दोबारा वापस मुड़ा और तेजी से काउंटर की ओर दौड़ा, काउंटर पहुंच कर देखा कि मेरा बोर्डिंग पास गायब था. अब ऐसी असहज स्थिति के चलते मेरे मन में तरहतरह की आशंकाएं उठने लगीं. तभी मेरे नाम का एनाउंसमैंट हुआ कि मेरा बोर्डिंग पास काउंटर पर है. अपना पासपोर्ट दिखा कर काउंटर पर उपस्थित अधिकारी से अपना बोर्डिंग पास हासिल किया. उस ने कहा कि गुम हुआ बोर्डिंग पास मिल गया, जिसे कोई काउंटर पर जमा कर गया था. वरना मैं घोर संकट में पड़ सकता था. अब मैं तेजी से विमान में पहुंचा. मेरे इंतजार में फ्लाइट लेट हो रही थी.

डा. घनश्याम सिंह, देहरादून (उ.खं.)

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मेरी सहेली की शादी थी. लड़की वाले पंजाबी और लड़के वाले सिख थे. फेरे लेने की रस्म दोपहर में गुरुद्वारे में तय हुई. प्रीतिभोज अलग स्थान पर रखा गया था. जब फेरे पूरे हुए तो दूल्हा सपरिवार अलग गाडि़यों में व दुलहन अलग से सजी हुई गाड़ी में प्रीतिभोज वाले स्थान के लिए रवाना हो गए. सभी मेहमानों व दूल्हे के पहुंचने के काफी देर बाद भी जब दुलहन की गाड़ी नहीं पहुंची तो कार ड्राइवर को फोन लगाया गया. पता चला कि वह किसी दूसरे विवाह में पहुंच गया. दुलहन के सिर पर घूंघट था, इसलिए उसे बाहर का कुछ दिखा नहीं और न ही दूसरों को उस का चेहरा दिख पाया.

भाविनी डेम्बला, जयपुर (राज.)

आरक्षण और जातिवाद

जाटों जैसी सक्षम व सफल जातियों के ऊंची, दबंग जाति वाला स्थान छोड़ कर पिछड़ी जाति में उतर आने के आंदोलन ने देश की सामाजिक व्यवस्था के छिपे पृष्ठ खोल दिए हैं. जिन्हें यह गुमान हो रहा था कि आधुनिक शिक्षा व बराबर के अवसरों के असर से देश में जातिवाद का प्रभाव कम हो गया है और जाति केवल नाम के पीछे पुंछल्ला बन कर रह गई है, वे अपने अज्ञान पर ठगे रह गए हैं.

पहले राजस्थान के गुर्जरों ने महीनों संघर्ष किया, फिर गुजरात में पटेल उठ खड़े हुए. उस के बाद आंध्र प्रदेश के कापू तोड़फोड़ करने लगे और ताजी घटना में जाटों ने हरियाणा को पूरा का पूरा बंद ही नहीं कर दिया, सेना के हवाले करवा दिया. जाति का सवाल भारतीय समाज पर आज 2016 में वैसा ही छाया हुआ है जैसा पौराणिक कल्पित युग के राम के समय छाया हुआ था जब शंबूक शूद्र वेदपाठ कर ब्राह्मणों को चुनौती दे रहा था.

हरियाणा के जाट, गुजरात के पटेलों और आंध्र प्रदेश के कापुओं की तरह जमीनों, व्यापारों, मकानों के मालिक हैं और उन की सामाजिक प्रतिष्ठा भी है पर फिर भी ऊंची ब्राह्मण, बनिया जातियों जैसा सम्मान न मिलने के कारण वे बेचैन ही नहीं रहते, सत्ता में भागीदारी न होने के कारण गुस्से में भी हैं. हरियाणा में जब तक राजनीति में उन की देवीलाल के सहारे राजनीतिक पहुंच थी, वे थोड़े चुप थे पर जब से देवीलाल के परिवार को जेलों में डाल दिया गया है और दूसरी जातियों ने भारतीय जनता पार्टी के भगवाई झंडे के सहारे सत्ता पर कब्जा कर लिया, उन का विद्रोह मुखर हो गया है. हरियाणा में मुख्यमंत्री को इस तरह के आंदोलन से निबटने का कोई अनुभव न होना भी एक कारण रहा कि जाट आंदोलन के चलते राज्यभर में भयंकर लूटपाट हुई, दिल्ली का पानी बंद हो गया, शहर के शहर कर्फ्यू की चपेट में आ गए और सेना भी राजमार्गों से न हो कर हैलिकौप्टरों से पहुंचाई गई. शासन की विफलता का इस से बड़ा सुबूत और क्या होगा.

जाटों व अन्य पिछड़ी जातियों के गुस्से का कारण स्वाभाविक है. सरकारी नौकरियां आज भी सत्ता का पक्का सहारा हैं. वहां काम कम और वेतन ही अच्छा नहीं, जीवनभर में वेतन से 20-25 गुना रिश्वत कमाने का अवसर भी है. सरकारी खर्चे पर चल रहे मैडिकल, इंजीनियरिंग, प्रबंधन कालेजों में प्राइवेट कालेजों के मुकाबले नाममात्र की फीस है. इन सब पर मैरिट के नाम पर जो कब्जा कर रहे हैं वे ऊंची जातियों के हैं. आरक्षण के नाम पर जो लाभ उठा रहे हैं वे करोड़ों में से चुन कर आ रहे हैं. सक्षम पिछड़े जो आरक्षित श्रेणियों में से तो हैं लेकिन न तो वे ऊंची जातियों के बराबर मेधावी हैं और न ही उन से नीची जातियों की तरह उन्हें छूट मिल पा रही है. नतीजा यह है कि उन की संपन्नता व दबंगता के बावजूद उन की सत्ता पर पकड़ न के बराबर हो गई है.

समाज इस तरह नहीं बदला कि वह गरीब, अमीर या जाति के असर को मिटा सका हो. भेदभाव तो आज भी ब्राह्मणों व बनियों तक में है. बनिए चुपचाप ब्राह्मणों को श्रेष्ठ मान कर चल रहे हैं, इसलिए उन में संघर्ष नहीं है पर शेष इस श्रेष्ठता को चुपचाप स्वीकारने को तैयार नहीं हैं. और यही बात वर्तमान संघर्ष की जड़ को खादपानी देने वाली है. भारतीय जनता पार्टी ने धर्म बेचने के चक्कर में जिस तरह से संस्कारों, परंपराओं, इतिहास, संस्कृति के जख्म उधेड़े हैं उस की वजह से अगड़ेपिछड़े के घाव भी दिखने लगे हैं. उन में अब दर्द तो होगा ही. दिक्कत यह है कि समाज में ऐसे नेता नहीं या विचारक बचे ही नहीं जो इन घावों पर महरम लगा सकें. अगर कुछ हैं तो उन्हें सत्तारूढ़ पार्टी देशद्रोही साबित करने में लगी है

VIDEO: पाक ने भारत को हराया, तो कपड़े उतारेगी ये मॉडल

क्रिकेट के प्रति दीवानगी सिर्फ आमजन में ही नहीं बल्कि ऐक्टर-ऐक्ट्रैस के भी सिर चढ़ कर बोलती है, तभी तो भारत और पाक के बीच 19 मार्च, 2016 को कोलकाता के ईडन गार्डन में होने वाले मैच के लिए पाकिस्तानी मौडल कंदीला अपनी अजीबो गरीब घोषणा के कारण सुर्खियों में आ गई हैं. उन्होंने सोशल मीडिया के द्वारा सूचना दी कि अगर इस मैच में पाक टीम जीत गई तो वे अपने कपड़े उतार देंगी. उन की इस घोषणा से सोशल मीडिया में तहलका मच गया. यहां तक कि उन की तुलना भारतीय मौडल पूनम पांडे से भी की जाने लगी है. क्योंकि पिछली बार उन्होंने भी वर्ल्ड कप के दौरान भारत को ले कर कुछ ऐसा ही कहा था.

कंदीला के इस पोस्ट को पढ़ कर लग रहा है कि वे ऐसा करने में गुरेज भी नहीं करेंगी क्योंकि उन्होंने इस के साथ अपने फैंस के लिए कम कपड़ों में डांस की वीडियो भी पोस्ट की है. अब यह तो पाक मौडल कंदीला ही जाने कि ये सच में उन की पाक टीम के प्रति दीवानगी का परिचायक है या फिर पब्लिसिटी स्टंट, जिस के लिए वे किसी भी हद तक जाने को तैयार हो गई हैं.

पाकिस्तान जहां महिलाएं बुरखे के बिना घर से निकलने में भी संकोच करती हैं लेकिन वहां की मौडल अगर ऐसी बात कहें तो बात सोचनीय ही है.

 

If Pakistan beats India on 18th march, ill do a strip dance for all of you & will dedicate it to Shahid Afridi. Umaaah ❤ #MuchLove #PleaseNaa #HaraDoIndiaKo #QB #qandeelbaloch #afridifans#IndianCricketTeam #TeamIndia #BCCI #ICC #T20Worldcup #PakistanCricket #PCB #Gift #Dhoni #MSD #IndiaTV #AajTak #ZeeTV #SonyTV #India247 #Cricket #IndiaToday #RadioMirchi #Pakium #PakistanRocks #IndiaShocks

Posted by Qandeel Baloch Official on Sunday, 13 March 2016

रिश्तों में मिठास घोलती होली की ठिठोली

वैसे तो होली रंगों का त्योहार है पर इस में शब्दों से भी होली खेलने का पुराना रिवाज रहा है. होली ही ऐसा त्योहार है जिस में किसी का मजाक उड़ाने की आजादी होती है. उस का वह बुरा भी नहीं मानता. समय के साथ होली में आपसी तनाव बढ़ता जा रहा है. धार्मिक और सांप्रदायिक कुरीतियों की वजह से होली अब तनाव के साए में बीतने लगी है. पड़ोसियों तक के साथ होली खेलने में सोचना पड़ता है. अब होली जैसे मजेदार त्योहार का मजा हम से अधिक विदेशी लेने लगे हैं. हम साल में एक बार ही होली मनाते हैं पर विदेशी पानी, कीचड़, रंग, बीयर और टमाटर जैसी रसदार चीजों से साल में कई बार होली खेलने का मजा लेते हैं. भारत में त्योहारों में धार्मिक रंग चढ़ने से दूसरे धर्म और बिरादरी के लोग उस से दूर होने लगे हैं.

बदलते समय में लोग अपने करीबियों के साथ ही होली का मजा लेना पसंद करते हैं. कालोनियों और अपार्टमैंट में रहने वाले लोग एकदूसरे से करीब आने के लिए होली मिलन और होली पार्टी जैसे आयोजन करने लगे हैं. इस में वे फूलों और हर्बल रंगों से होली खेलते हैं. इस तरह के आयोजनों में महिलाएं आगे होती हैं. पुरुषों की होली पार्टी बिना नशे के पूरी नहीं होती जिस की वजह से महिलाएं अपने को इन से दूर रखती हैं. अच्छी बात यह है कि होली की मस्ती वाली पार्टी का आयोजन अब महिलाएं खुद भी करने लगी हैं. इस में होली गेम्स, होली के गीतों पर डांस और होली क्वीन चुनी जाती है. महिलाओं की ऐसी पहल ने अब होली को पेज थ्री पार्टी की शक्ल दे दी है. शहरों में ऐसे आयोजन बड़ी संख्या में होने लगे हैं. समाज का एक बड़ा वर्ग अब भी होली की मस्ती से दूर ही रह रहा है.

धार्मिक कैद से आजाद हो होली

समाजशास्त्री डा. सुप्रिया कहती हैं, ‘‘त्योहारों की धार्मिक पहचान मौजमस्ती की सीमाओं को बांध देती है. आज का समाज बदल रहा है. जरूरत इस बात की है कि त्योहार भी बदलें और उन को मनाने की पुरानी सोच को छोड़ कर नई सोच के हिसाब से त्योहार मनाए जाएं, जिस से हम समाज की धार्मिक दूरियों, कुरीतियों को कम कर सकें. त्योहार का स्वरूप ऐसा बने जिस में हर वर्ग के लोग शामिल हो सकें. अभी त्योहार के करीब आते ही माहौल में खुशी और प्रसन्नता की जगह पर टैंशन सी होने लगती है. धार्मिक टकराव न हो जाए, इस को रोकने के लिए प्रशासन जिस तरह से सचेत होता है उस से त्योहार की मस्ती उतर जाती है. अगर त्योहार को धार्मिक कैद से मुक्ति मिल जाए तो त्योहार को बेहतर ढंग से एंजौय किया जा सकता है.’’

पूरी दुनिया में ऐसे त्योहारों की संख्या बढ़ती जा रही है जो धार्मिक कैद से दूर होते हैं. त्योहार में धर्म की दखलंदाजी से त्योहार की रोचकता सीमित हो जाती है. त्योहार में शामिल होने वाले लोग कुछ भी अलग करने से बचते हैं. उन को लगता है कि धर्म का अनादार न हो जाए कि जिस से वे अनावश्यक रूप से धर्म के कट्टरवाद के निशाने पर आ जाएं. लोगों को धर्म से अधिक डर धर्म के कट्टरवाद से लगता है. इस डर को खत्म करने का एक ही रास्ता है कि त्योहार को धार्मिक कैद से मुक्त किया जाए. त्योहार के धार्मिक कैद से बाहर होने से हर जाति व धर्म के लोग आपस में बिना किसी भेदभाव के मिल सकते हैं.

मस्त अंदाज होली का

होली का अपना अंदाज होता है. ऐसे में होली की ठिठोली के रास्ते रिश्तों में रस घोलने की पहल भी होनी चाहिए. होली की मस्ती का यह दस्तूर है कि कहा जाता है, ‘होली में बाबा देवर लागे.’ रिश्तों का ऐसा मधुर अंदाज किसी और त्योहार में देखने को नहीं मिलता. होली चमकदार रंगों का त्योहार होता है. हंसीखुशी का आलम यह होता है कि लोग चेहरे और कपड़ों पर रंग लगवाने के बाद भी खुशी का अनुभव करते हैं. होली में मस्ती के अंदाज को फिल्मों में ही नहीं, बल्कि फैशन और लोकरंग में भी खूब देखा जा सकता है. साहित्य में होली का अपना विशेष महत्त्व है. होली में व्यंग्यकार की कलम अपनेआप ही हासपरिहास करने लगती है. नेताओं से ले कर समाज के हर वर्ग पर हास्यपरिहास के अंदाज में गंभीर से गंभीर बात कह दी जाती है. इस का वे बुरा भी नहीं मानते. ऐसी मस्ती होली को दूसरे त्योहार से अलग करती है. होली के इस अंदाज को जिंदा रखने के लिए जरूरी है कि होली में मस्ती को बढ़ावा दिया जाए और धार्मिक सीमाओं को खत्म किया जाए. रिश्तों में मिश्री सी मिठास घोलने के लिए होली से बेहतर कोई दूसरा तरीका हो ही नहीं सकता है. होली की मस्ती के साथ रंगों का ऐसा रेला चले जिस में सभी सराबोर हो जाएं. सालभर के सारे गिलेशिकवे दूर हो जाएं. कुछ नहीं तो पड़ोसी के साथ संबंध सुधारने की शुरुआत ही हो जाए.

मधेशी आंदोलन: भारी पड़ी पेट की आग

‘‘15 रुपए प्रति किलोग्राम बिकने वाला नमक 50 रुपए प्रति किलोग्राम बिक रहा है. ऐसे में गरीब तो रोटीनमक भी नहीं खा सकता,’’ यह कहते हुए विनय थापा गुस्से में आ जाता है और उस की आंखों में चमकते आंसू उस के जैसे तमाम नेपालियों के दर्द को बयां कर देते हैं.

‘‘जिस आलू को 6 से 10 रुपए प्रति किलोग्राम की दर पर कोई पूछता नहीं था, उस के भाव 40 रुपए प्रति किलोग्राम हो गए. इस से गरीब जनता पिस रही थी. ऐसे आंदोलन का क्या फायदा कि गरीब जनता बिना वजह के पिसे. भारत, नेपाल और मधेशियों की तनातनी के बीच गरीब नेपाली घुन की तरह पिसने लगा था,’’ 55 साल का दिलीप यादव यह कहते हुए तैश में आ जाता है. आंदोलन की वजह से उस के दूध का कारोबार ठप हो गया था और वह भारत जा कर दूध नहीं बेच पा रहा था.

नेपाल की माली हालत का आटा जब गीला होने लगा और नेपाली जनता को आटेदाल का भाव महसूस होने लगा तो मधेशियों ने अपने आंदोलन के चूल्हे में पानी डालने में ही भलाई समझी. पिछले 5 महीने से चल रहा मधेशी आंदोलन आखिरकार काफी जद्दोजेहद के बाद पिछले माह खत्म हो गया. मधेशियों द्वारा की गई आर्थिक नाकेबंदी की वजह से सामान भारत से नेपाल नहीं पहुंच पा रहा था. वहां अराजक हालात पैदा हो गए थे. अपने हक की मांग कर रहे मधेशियों पर नेपाल की आम जनता, दुकानदार, रिकशा, ठेला वाले, टैक्सी वाले और ट्रांसपोर्टर्स ने अपना गुस्सा निकालना शुरू कर दिया था. वे लोग नेपाल में जरूरी सामानों की कमी की वजह मधेशियों को ही मान रहे थे और नेपाल सरकार भी बारबार मधेशियों व भारत सरकार को इस के लिए जिम्मेदार ठहरा रही थी.

पिछले साल 20 सितंबर को नेपाल का नया संविधान लागू होने के बाद से मधेशी इस बात से नाराज थे कि संविधान में उन की अनदेखी की गई है और पहाडि़यों को ज्यादा तरजीह दी गई है. उस के बाद से ही मधेशी संगठनों ने आर्थिक नाकेबंदी शुरू कर दी थी. भारत और नेपाल की सरकारें मधेशी आंदोलन को खत्म करने को ले कर माथापच्ची करते रह गईं और आम नेपालियों ने आंदोलन की आग को ठंडा कर दिया.

जनदबाव के आगे टिक न पाए

कुछ दिन पहले तक मधेशियों का साथ दे रहे बौर्डर इलाके के नेपालियों और भारतीयों ने 5 फरवरी को बीरगंज के मैत्री सेतु पर लगे आंदोलनकारियों के तंबुओं को तहसनहस कर डाला. आम लोगों के गुस्से को देख कर आंदोलनकारी भाग खड़े हुए. दूसरे दिन मधेशियों ने दोबारा नाकेबंदी की कोशिश की तो लोगों ने फिर से उन्हें खदेड़ कर भगा दिया. उस के बाद मधेशियों और आम लोगों के बीच जम कर पत्थरबाजी हुई. इस में दुकानदारों, छोटे कारोबारियों और ट्रांसपोर्टर्स ने भी नेपालियों का साथ दिया.

भारत के ट्रांसपोर्टर सुरेंद्र गुप्ता कहते हैं कि मधेशियों की आर्थिक नाकेबंदी की वजह से उन के जैसे कई ट्रांसपोर्टर्स को करोड़ों रुपयों का नुकसान हो गया. हजारों ट्रक 5 महीने तक खड़े रह गए और ड्राइवर, खलासी समेत सभी मुलाजिमों को बैठा कर वेतन देना पड़ा. भारत के रास्ते कोई भी सामान नेपाल नहीं जा पा रहा था, इस से आम नेपालियों समेत कारोबारियों व दुकानदारों के सामने भी भुखमरी की हालत पैदा हो गई थी. मधेशी नेता कहते हैं कि वे अपनी मांगें पूरी होने तक आंदोलन जारी रखने के मूड में थे पर जनदबाव की वजह से उन्हें आंदोलन वापस लेना पड़ा. वहीं, कई मधेशी नेता दबी जबान में यह भी कहते हैं कि मधेशी दलों के भीतर भी आंदोलन को खत्म करने का दबाव था.

बिहार के पूर्वी और पश्चिमी चंपारण में नेपाल में चल रहे मधेशी आंदोलन की वजह से अराजक हालात बढ़ते जा रहे थे और आंदोलन की ओट में तस्कर चांदी काटने लगे थे. भिखनाठोढ़ी से ले कर रक्सौल तक तस्करों का बड़ा नैटवर्क कायम हो चुका था. इस नैटवर्क ने मजदूर तबके और छोटेछोटे बच्चों को जोड़ लिया. नेपाल में मजदूरी का काम बंद होने के बाद मजदूर पेट पालने के लिए आसानी से तस्करों के झांसे में फंस गए थे.

पिछले 5 महीनों से चल रहे मधेशी आंदोलन की वजह से खाने के अनाजों समेत जरूरी चीजें भारत से नेपाल नहीं जा पा रही थीं, जिस को देखते हुए तस्करों ने फायदा उठाने के लिए अपना नैटवर्क बना लिया था. डीजल, पैट्रोल और कैरोसिन तेल को बड़े गैलनों से ले कर छोटे डब्बों में भरभर कर भारत से नेपाल पहुंचाया जा रहा था और उन्हें ऊंची कीमतों पर बेचा जा रहा था. इस के साथ ही, भारतीय गैस के सिलैंडर को भी रिकशों, ठेलों और साइकिलों पर लाद कर नेपाल पहुंचाया जाने लगा था. भारतीय गैस सिलैंडर की गैस को नेपाली तुरंत छोटे गैस सिलैंडरों में भर कर बेचने का नया धंधा करने लगे थे. 800 रुपए में मिलने वाले बड़े गैस सिलैंडर को लोग 10 हजार रुपए तक में खरीद रहे थे. गौरतलब है कि भिखनाठोढ़ी में पंडई नदी के दक्षिणी सिरे पर सीमा सुरक्षा बल का कैंप है. उस के उत्तर की ओर नेपाल का ठोढ़ी बाजार है. नेपाल की ओर पंडई नदी के किनारे छोटेबड़े तंबुओं की एक बस्ती ही बस गई थी, जहां से खानेपीने समेत कई तरह के जरूरी सामानों को इधरउधर पहुंचाया जा रहा था. बड़े सामानों की बात तो दूर, नमक के पैकेटों की भी तस्करी होने लगी थी. एक किलोग्राम नमक का पैकेट भारत में 18 रुपए में खुदरा बाजार में बेचा जाता है, वह नेपाल में 40 से 50 रुपए में बिकने लगा था. तस्करी के काम में लगे बच्चे रोजाना 400 से 500 रुपए की कमाई करने लगे थे.

तस्करों ने भारत को भले ही नुकसान पहुंचाया लेकिन वे नेपाल के लोगों को राहत दे रहे थे. बीरगंज चैंबर औफ कौमर्स के अध्यक्ष प्रदीप केडिया बताते हैं कि करीब 1 लाख लिटर से ज्यादा डीजल रोज अवैध तरीके से भारत से नेपाल पहुंचाया जा रहा था. पहले तो मधेशियों ने पूरी तरह से नाकेबंदी कर रखी थी पर जनता की खराब होती हालत को देखते हुए पिछले कुछ दिनों से भारत सरकार बीरगंज को छोड़ कर बाकी बौर्डर से जरूरी सामानों को नेपाल भेजने लगी थी. उस के बाद से ही पहाड़ों पर मधेशी आंदोलन की पकड़ ढीली पड़ने लगी थी.

नेपाल सरकार मधेशियों के आंदोलन को लंबे समय तक लटका कर उन्हें थकाने की राजनीति कर रही थी और उस में आम नेपाल पिस रहा था. नेपाल सरकार बारबार यह रट लगा कर अपनी जवाबदेही से कन्नी काट रही थी कि मधेशी आंदोलन को भारत का समर्थन हासिल है. यह कह कर वह संयुक्त राष्ट्र समेत पूरी दुनिया में खुद को निरीह साबित करने की कोशिश करती रही पर उसे कामयाबी नहीं मिल सकी. उधर, चीन भी तिब्बत के रास्ते सामान ढुलाई के लिए तैयार नहीं हो कर नेपाल को झटका दे चुका है. नेपाल सरकार लगातार मधेशी आंदोलन को दबाने में लगी हुई थी, जिस से हर तरफ से उस की छीछालेदर होने लगी थी.

आंदोलन से सामान की किल्लत

मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट आने के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ की टीम नेपाल पहुंची. टीम ने मधेशी आंदोलनकारी और सरकार से बात की. नेपाल के प्रधानमंत्री खडग प्रसाद शर्मा ओली ने पिछले 21 दिसंबर को ही मधेशियों की मांगों के मुताबिक संविधान में संशोधन करने का ऐलान किया था. उपप्रधानमंत्री कमल थापा ने इस बारे में भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को जानकारी दी थी. उस के बाद 4 जनवरी को मधेशी समस्या को सुलझाने के लिए 6 सदस्यों वाले कार्यदल का गठन किया गया. दल में मधेशियों की ओर से राजेंद्र श्रेष्ठ, रामनरेश राय और हृदयेश त्रिपाठी एवं सरकार की तरफ से महेश आचार्य, कृष्ण बहादुर माहरा को शामिल किया गया. सरकार ने दावा किया था कि 72 घंटे के भीतर कार्यदल मधेशी समस्या को निबटाने के लिए अपनी रिपोर्ट सौंप देगा. लेकिन ऐसा नहीं हो सका. उस के बाद 13 जनवरी की तारीख तय की गई और वह भी फेल हो गई. उस के बाद फिर से नई तारीख 19 जनवरी रखी गई थी और वह भी बगैर किसी नतीजे के गुजर गई.

वर्ल्ड फूड प्रोग्राम ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि नेपाल में रसोई गैस की कीमत को तस्करों ने 600 फीसदी से ज्यादा बढ़ा दिया है. इस के साथ ही चावल, आटा, दाल, सब्जी आदि की कीमतें इतनी बढ़ गई हैं कि गरीब नेपाली को एक टाइम का खाना भी ठीक से नहीं जुट रहा है. नेपाल में तस्करी का पैट्रोल 250 रुपए प्रति लिटर बिक रहा है. भारत में पैट्रोल 65 से 70 रुपए प्रति लिटर मिलता है. इस हिसाब से छोटा तस्कर भी नेपाल में पैट्रोल बेच कर प्रति लिटर 180 रुपए कमा रहा है यानी 100 लिटर भी अगर रोज बेचे तो उसे 18 हजार रुपए का रोज फायदा हो रहा है. मधेशी आंदोलन की वजह से भले ही नेपाल में जरूरी सामान की भारी किल्लत हो गई हो और इस की वजह से भारत व नेपाल के बीच रिश्तों में खटास पैदा हो गई हो पर संयुक्त राष्ट्र संघ समेत कई संगठनों ने मधेशी आंदोलन को सही ठहराया है.

संयुक्त राष्ट्र संघ, नेपाल राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग सहित 45 देशों ने साफ कह दिया है कि मधेशी अपने हक की लड़ाई लड़ रहे हैं और वे हिंसात्मक नहीं हैं. सभी ने नेपाल सरकार को बातचीत के जरिए समाधान निकालने की सलाह दी है. वहीं, राष्ट्रीय जनता दल नेता और मीडिया फौर बौर्डर हारमनी के संरक्षक रघुवंश प्रसाद सिंह कहते हैं कि मधेशी आंदोलन को ले कर भारत सरकार उदासीन है. आंदोलन कर रहे मधेशियों को नेपाल सरकार भारतीय बताती है जबकि भारत सरकार उन्हें नेपाली करार देती है. इसी से संकट गहरा होता जा रहा है. मधेशियों ने जनदबाव में फिलहाल अपना आंदोलन खत्म कर दिया लेकिन उन की समस्याओं और मांगों पर गौर करना जरूरी है. अगर नेपाल सरकार ने ज्यादा समय तक इन की अनदेखी की तो नेपाल को दोबारा आंदोलन की आग में जलना पड़ सकता है.

डिगरी है, पर नौकरी नहीं

उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद शहर के रहने वाले फुरकान अंसारी ने एक नामी प्राइवेट कालेज से कंप्यूटर ऐप्लिकेशन में मास्टर डिगरी ली. लेकिन पढ़ाई खत्म करने के 2 साल बाद भी उसे कहीं ढंग की नौकरी नहीं मिली. उस का कहना है कि कोर्स करते वक्त उस के कालेज में किसी कंपनी ने कैंपस सिलेक्शन के लिए रुख नहीं किया.

कैंपस से निकल कर, सौफ्टवेयर इंडस्ट्री में घुसने के लिए फुरकान ने दिल्ली, गुड़गांव से ले कर बेंगलुरु तक काफी हाथपैर मारे लेकिन कहीं बात नहीं बन सकी. 1 साल की भागदौड़ के बाद वह अपने शहर वापस लौट आया और शहर के एक निजी कालेज में बेहद मामूली तनख्वाह पर कंप्यूटर ऐप्लिकेशन के छात्रों को पढ़ाने लगा. कई कोशिशों के बाद, अभी कुछ दिन पहले जब फुरकान एक सौफ्टवेयर निर्माता कंपनी के इंटरव्यू में शामिल होने के लिए दिल्ली गया तो साक्षात्कार मंडल द्वारा उस से सब से पहला सवाल यह पूछा गया कि अब तक आप कहां थे?

यह बताने पर कि ‘एक निजी कालेज में कंप्यूटर ऐप्लिकेशन पढ़ाते थे’, साक्षात्कार मंडल द्वारा उस से दोटूक कह दिया गया कि अब आप वहीं पढ़ाइए, यहां इंडस्ट्री में आप की जरूरत नहीं है.

लाखों खर्च लेकिन नौकरी नहीं

यह कहानी अकेले फुरकान की नहीं है. देश में ऐसे हजारों फुरकान घूम रहे हैं जो लाखों रुपए खर्च कर आईटी और मैनेजमैंट का कोर्स करने के बाद नौकरी के लिए महानगरों में ठोकरें खाते हुए निष्ठुर बाजार के सामने गिड़गिड़ा रहे हैं. मानव संसाधन और बाजार पर नजर रखने वाले विशेषज्ञों का कहना है कि रोजगार के बाजार में आईटी और मैनेजमैंट के छात्रों की मांग इतनी ज्यादा गिर गई है कि वे उच्च शिक्षित होने के बावजूद, मामूली वेतन पर कंप्यूटर औपरेटर और सेल्समैन का काम पाने के लिए परेशान हैं. यही नहीं, दिल्ली जैसी जगहों पर कई संस्थानों के छात्र सौफ्टवेयर कंपनियों में अनुभव प्रमाणपत्र पाने के लिए कई जगह में मुफ्त इंटर्नशिप तक कर रहे हैं.

बाजार का हाल यह है कि बीटेक और एमबीए पास छात्र 10 हजार रुपए मासिक से कम पर काम करने को तैयार हैं. फिर इन से नीचे के डिगरीधारियों की बाजार में क्या जगह होगी, यह भी गौर करने लायक है. बीसीए, पीजीडीसीए और बीबीए पास छात्रों को बाजार में कहीं कोई जगह नहीं मिल रही है. हर साल एक करोड़ नई नौकरियों का वादा करने वाली नरेंद्र मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद भी रोजगार के क्षेत्र में कोई उत्साह नहीं है. दूरस्थ शिक्षा के माध्यम पढ़े छात्रों की समस्याएं और भी ज्यादा हैं. दूरस्थ शिक्षा पद्धति से चलने वाले एक निजी कालेज के अध्यापक अखिलेश मिश्र कहते हैं कि इन संस्थानों से एमबीए और एमसीए करने वाले छात्रों की कोई पूछ नहीं है क्योंकि कंपनियां इन संस्थानों के छात्रों की शिक्षा गुणवत्ता को बेहद निम्न कोटि का मानती हैं.

वे बताते हैं कि ज्यादातर संस्थान एमसीए में पढ़ाने के लिए एमसीए पास लोगों को ही अध्यापक रखते हैं. क्योंकि संस्थान इस से ज्यादा शिक्षित व्यक्ति को पढ़ाने के लिए न्यूनतम तनख्वाह नहीं दे सकता. वे कहते हैं कि एमसीए पास व्यक्ति एमसीए में कैसे पढ़ा सकता है? लेकिन ज्यादातर जगहों पर यही चल रहा है. दरअसल, भारत का निम्नमध्यवर्गीय समाज प्रोफैशनल शिक्षा पर ज्यादा फोकस करता है क्योंकि वह इन कोर्सों को कमाऊ मानता है. यह वर्ग पैसे के बल पर निजी कालेजों से डिगरियां भी खरीद सकता है. इन डिगरियों के सहारे वह अलग किस्म की एक काल्पनिक ‘एलीट’ दुनिया में जीता है जो समाज की कू्रर सचाइयों से उस का सामना नहीं होने देतीं.

आईटी और मैनेजमैंट के छात्र आम सामाजिक जीवन से एकदम कटे हुए ‘पब और पैकेज’ की काल्पनिक दुनिया में जीते हैं. इसी वजह से वे कू्रर अर्थतंत्र वाली दुनिया के संघर्ष में जल्द ही थक जाते हैं और डिप्रैशन में चले जाते हैं यही नहीं, कभीकभी तो आत्महत्या तक का रास्ता अपना लेते हैं. आईटी और मैनेजमैंट के लोगों के लिए कभी बेहतरीन स्थल समझा जाने वाला बेंगलुरु आज ऐसे युवाओं के ‘सुसाइड जोन’ और ‘डिप्रैशन हब’ में तबदील हो चुका है.

निराशा का माहौल

कुल मिला कर आईटी क्षेत्र के लिए बेहद निराशाजनक माहौल है. फिर भी सरकार झूठ बोल रही है कि देश के युवाओं में नौकरी के लिए कोई योग्यता ही नहीं है जबकि देश में नौकरियों की कमी है. लेकिन विश्लेषण में यह तर्क कहीं ठहरता नहीं है.दरअसल, सरकारें इस प्रचार की आड़ में देश के युवाओं को रोजगार देने की अपनी बुनियादी जिम्मेदारी से पीछे हट रही हैं. वास्तविकता यह है कि यह संकट मुनाफाखोरी की उत्पादन और वितरण प्रणाली की आवश्यक उपज है. सरकारें अर्थव्यवस्था के इस निर्मम सच को झुठला कर इस का ठीकरा बेरोजगारों के सिर ही फोड़ रही हैं. इस समय देश में तकरीबन 35 हजार निजी मैनेजमैंट तथा आईटी कालेज हैं, जिन में हर साल लाखों की संख्या में पढ़ कर छात्र बाहर निकलते हैं. यहां से निकलने वाला हर तीसरा छात्र पूरी तरह से बेरोजगार होता है. 60 फीसदी छात्र कंप्यूटर औपरेटर जैसे बेहद मामूली काम करते हैं.

अगर यह मान भी लिया जाए कि कई प्राइवेट संस्थानों से निकलने वाले छात्र खराब गुणवत्ता वाले हैं तो फिर यह सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वह इन्हें गुणवत्तायुक्त बनाए. अगर आईआईएम और आईआईटी को छोड़ दें तो सरकारी संस्थान से निकले छात्रों की भी बाजार में कोई खास मांग नहीं है. इसलिए सरकार का यह तर्क कि बाजार के मुताबिक युवा योग्य नहीं हैं, कहीं नहीं ठहरता.

जहां तक रोजगार में सुधार की बात है. अर्थव्यवस्था से ऐसा कोई ठोस संकेत नहीं मिल रहा है. आज देश का उत्पादन पिछले 10 सालों के सब से न्यूनतम स्तर को छू रहा है, निर्यात में आधे की कमी आ गई है. इस का सीधा मतलब है कि रोजगार के लिए कहीं कोई ‘स्पेस’ अभी लंबे समय तक अर्थव्यवस्था में बनने नहीं जा रहा है. मेक इन इंडिया के ‘प्रचार’ और अथाह विदेशी पूंजी निवेश के प्रायोजित प्रचार के बीच नरेंद्र मोदी सरकार ने केंद्र सरकार की सभी नौकरियों के लिए की जा रही भरतियों पर रोक लगा रखी है. यही नहीं, निजी क्षेत्र में भी हालात निराशाजनक हैं. इन्फोसिस जैसी दिग्गज कंपनी ने अगले 1 साल तक नई भरतियां करने से इनकार कर दिया है.कुल मिला कर देश के युवाओं के सामने रोजगार का संकट मुंह फैलाए खड़ा है. लेकिन रोजगार बढ़ाने के नाम पर ठोस रूप में अब तक कुछ भी सामने नहीं आना सरकार समेत पूरी राजनीति के जनविरोधी और युवाविरोधी चरित्र को बेनकाब करता है.

ताकि हंसता खेलता रहे बचपन

7 साल का राजीव कुछ दिनों से चुपचुप रहने लगा था. वह कहता था कि वह स्कूल नहीं जाएगा. स्कूल जाने से उस के सिर में दर्द होता है. उस की बातों को बहाना मान कर मातापिता ने जबरदस्ती उसे स्कूल भेजा पर वहां वह पढ़तालिखता नहीं था. टिफिन का खाना नहीं खाता था. मातापिता गौर कर रहे थे कि पहले की तरह वह सक्रिय व चंचल नहीं था. परेशान हो कर राजीव की मां स्कूल गई, पता चला कि वहां वह पीछे बैठ कर सोता रहता है. दोस्तों से बात तक नहीं करता.

घर आ कर मां ने उस से पूछा कि वह ऐसा क्यों करता है तो पहले तो वह कुछ नहीं बोला फिर जोर देने पर काफी देर बाद उस ने बताया कि उस की एक गलती पर टीचर ने स्केल से उस के हाथ पर मारा है. यह उसे बहुत खराब लगा. टीचर उसे स्केल से मारने के बजाय दूसरी सजा भी दे सकती थी. उस का कहना है कि वह अब उस स्कूल में नहीं जाएगा, किसी दूसरे स्कूल में पढ़ेगा. मां उसे काउंसलर के पास ले गईं. काउंसलर से बात करने पर पता चला कि राजीव डिप्रैशन के दौर से गुजर रहा है. इलाज के बाद शुरुआत में उस का इलाज शुरू हुआ. पहले तो वह बिना यूनिफौर्म के स्कूल जाता था, साथ में मां भी स्कूल जाती थीं, 2 महीने बाद इलाज से वह सामान्य हो गया.

बदलते समीकरण

राजीव तो उदाहरण मात्र है, इस तरह की घटनाएं आजकल अकसर घटती रहती हैं. इस बारे में काउंसलर याशिता लालपुरिया बताती हैं कि आजकल के बच्चे मीडिया व आधुनिक तकनीक के काफी करीब हैं. वे अपनी मानसिक क्षमता से अधिक एक्स्पोजर पा रहे हैं. प्रतियोगिता बहुत बढ़ चुकी है. साथ ही, मातापिता का स्कूलों में बेहतर अकादमिक प्रदर्शन का दबाव, मातापिता की आपसी अनबन, सैपरेशन एंग्जायटी, स्कूल बदलना, दोस्तों में नासमझी, सैक्सुअल एब्यूज आदि बातें भी बाल मन पर असर डालती हैं. ऐसे में बच्चा उस परिस्थिति से भागने की कोशिश करता है और अगर मातापिता का ध्यान उस ओर नहीं गया तो बच्चा डिप्रैशन का शिकार हो जाता है. मातापिता जानते हैं बच्चे उन का भविष्य हैं. आज जो कुछ वे उन पर लुटाएंगे बुढ़ापे में उन्हें उस का सुख भी मिलेगा. उन की यही चाह उन से वह सब करा देती है जो उन्हें नहीं करना चाहिए.

–       पढ़ाईलिखाई का लगातार उन पर दबाव देते रहते हैं.

–       दूसरे बच्चों के साथ उस की तुलना कर उसे और आगे बढ़ने की हिदायत देते हैं.

–       जो वे खुद नहीं कर सके अपने बच्चे के जरिए अपनी उन इच्छाओं को पूरी करते हैं. मसलन, स्वयं डाक्टर नहीं बन पाए तो बच्चे को डाक्टर बनने के लिए मजबूर करेंगे, चाहे उस की रुचि खेल में हो.

–       अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा ऊंची दिखाने के लिए महंगी से महंगी, बहुचर्चित शिक्षादीक्षा दिलाएंगे. दूसरों के आगे यह बताते फख्र महसूस करेंगे कि उन का बेटा या बेटी किसी नामीगिरामी डांस स्कूल में डांस सिखाता/सिखाती है.

–       अपने बच्चे के टैलेंट को जगजाहिर करने के पीछे उन से उन का बचपन छीन लेते हैं. औडिशंस, प्रैक्टिस आदि के झमेले में बच्चे को डाल कर उन्हें और बच्चों से अलगथलग बना देते हैं. मानसिक और शारीरिक रूप से बच्चा कितना स्ट्रैस रहता है, उस की परवाह नहीं करते.

ज्यादातर ऐसे बच्चों के अभिभावक भी अपनी परेशानियों की वजह से डिप्रैस्ड रहते हैं, खासकर मांएं. जिस का असर बच्चों की परवरिश पर पड़ता है. बच्चों व मातापिता में आपसी संवाद नहीं स्थापित हो पाता.

याशिता आगे कहती हैं, ‘‘मैं जिस स्कूल में काम करती हूं वहां करीब 1 हजार बच्चों से मैं ने बातचीत की है. मानसिक समस्या कुछ न कुछ हर बच्चे में मिलती है. कुछ बच्चे तो स्कूल का बहाना कर घर से निकलते हैं और पार्क में जा कर बैठ जाते हैं. शाम को फिर घर पहुंच जाते हैं. ये कोई गंभीर समस्या नहीं, लेकिन शुरुआत में पता चलना आवश्यक है.’’

डा. अलका सुब्रमण्यम कहती हैं, ‘‘जीवनशैली और पारिवारिक समीकरण तेजी से बदले हैं. संयुक्त परिवारों से एकीकृत परिवार और अब तो ऐसे भी परिवार हैं जहां मातापिता दोनों ही वर्किंग हैं. ऐसे में बच्चे में आए बदलाव को समझ पाना मुश्किल होता है.’’ बच्चों में तनाव यदि बीमारी का रूप ले रहा है तो घबराने की बात नहीं. इस का इलाज संभव है. इस के कुछ लक्षण ये हैं:

–       स्वाभाविक रूप से बच्चा जब नाखुश या उदास मूड में दिखता है, चीखना, चिल्लाना या चिड़चिड़ाना आदि अगर बेवजह करे तो डिप्रैशन का कारण हो सकता है.

–       जीवन की किसी बड़ी घटना को देखना, जैसे कि किसी प्रिय व्यक्ति की मृत्यु हो जाना.

–       पहले जिन गतिविधियों में दिलचस्पी रही, उस में रुझान कम होना, स्कूल या घर में ठीक तरह से मन न लगा पाना.

–       सामाजिक गतिविधियों और दोस्तों के साथ बातचीत आदि में कमी आना.

–       कम या अधिक नींद का आना.

ये सभी लक्षण प्रारंभिक होते हैं जिन का मातापिता बातचीत के जरिए कुछ हल निकाल सकते हैं. बचपन यानी कि बच्चे के व्यक्तित्व के निर्माण की नींव. जिस तरह सुदृढ़ नींव इमारत को मजबूती प्रदान करती है वैसे ही बचपन में मातापिता का भरपूर प्यार, सही मार्गदर्शन, बच्चे के बचपन को सजासंवार कर निखार देता है और उस का बनता है ऐसा व्यक्तित्व जिस में होती है समझदारी, उचित दृष्टिकोण और जीवन के प्रति सकारात्मक रवैया. मातापिता को चाहिए कि बच्चे की पसंद के अनुसार बातें करने की कोशिश करें. अगर वह अपनी समस्या बताता है तो उस पर हंसने के बजाय चर्चा करें, हल बताएं और देखें कि बच्चा कितना सहज अनुभव कर रहा है. उस की मनपसंद ऐक्टिविटी में उसे व्यस्त करें. गुस्सा कभी न करें. अगर इस सब के बावजूद बच्चा सामान्य नहीं हो रहा है तो ऐक्सपर्ट की राय लें.

सम विषम: बम बम बम

पाजी दिल की कहूं तो जब से मैं अपनी बीवी के साथ इस जन्म के वैवाहिक बंधन में बंधा हूं तब से मैं ने उस की नाक बहती ही देखी, उसे खांसते ही देखा. घर में जितना घी तड़के को नहीं लगा होगा उस से अधिक विक्स वह अपने नाक में मल चुकी है. मैं जितना अपनी बीवी से परेशान नहीं उस से अधिक उस के विक्स से परेशान हूं. कई बार सोचता हूं कि अगर यह विक्स का दुरुपयोग न करती तो विक्स बनाने वाली कंपनी कब की बंद हो चुकी होती.

औरों को देश की उलटीसीधी चिंता पर मुझे जागतेसोते बस एक ही चिंता है कि अब बीवी के इस जुकाम का क्या करूं? किस को इस की नाक दिखाऊं? इस के बदले घर के काम करने का तो अब मैं आदी हो चुका हूं. अब तो जिस वक्त घर के बरतन न धोऊं, सारा दिन हथेलियों में खुजली होती रहती है. लोगों की हथेलियों में खुजली पैसे आने के लिए होती है और मेरी हथेलियों में खुजली बरतन न धोने के कारण होती है.

जब से वे सर्दीजुकाम वाले लोकप्रिय हुए हैं तब से मुझे सर्दीजुकाम वालों से दिली प्यार हो गया है. दिल सर्दीजुकाम वालों से प्यार करने को लाचार हो गया है. सर्दीजुकाम वालों से निडर हो, गले लगता हूं कि कम्बख्त ये सर्दीजुकाम मुझे भी हो जाए तो बंदा उन का खासमखास हो जाए, जनता की सेवा के बहाने गृहस्थी में पास हो जाए, पर मेरी इम्युनिटी भी न? हरदम इस फिराक में रहता हूं कि कहीं कोई सर्दीजुकाम वाला मिल जाए तो उसे गले से लगा लूं, सारे गिलेशिकवे भुला कर. हो सकता है वह बंदा ही उन का खास निकले.

पहले जो बंदा अपनी बीवी के सर्दीजुकाम से बहुत तंग था, अब उस के सर्दीजुकाम से दंग है. पहले जिसे कोई अपनी पार्टी का मैंबर बनाना तो दूर, पार्टी औफिस में फटकने तक नहीं देता था, आज सब उस के नाक का बाल होना चाहते हैं. कल तक जो सर्दीजुकाम मेरे लिए तकलीफदेह था, आज आरामदायक साबित हो रहा है. राजनीति में कुछ पता नहीं चलता भाईसाहब, क्या पता कब कौन खोटा नोटा सिक्का चल निकले.

अब मुझे अपनी जुकामी सर्दियाई बीवी में अपार संभावनाएं दिखने लगी हैं. लगता है, एकदिन वह घर की तो घर की, दिल्ली की कायापलट कर देगी. उस ने भी अब ‘आप’ जौइन कर ली है और हरदम अपनी नाक पोंछती हुई दिल्ली की सेवा में लगी रहती है.

ज्यों ही केजरी भैया के दिमाग में दिल्ली का प्रदूषण कम करने के लिए समविषम का आइडिया सूखे आसमान में बिजली की तरह कौंधा, हमारी बीवी के सोए दिमाग ने भी करवट बदली और उस ने चाय सुड़कते हुए केजरी भाई के प्लान को सलाम करते हुए कहा, ‘‘देखो जी, दिल्ली सरकार की तरह जो घर में मेहमानों का प्रदूषण कम करना हो तो मेरे दिमाग में भी एक धांसू आइडिया कौंधा है.’’

उस ने यह कहा तो मैं औंधे मुंह गिरने को हुआ. असल में, जबजब बीवी के दिमाग में कोई धांसू आइडिया कौंधता है तबतब मैं औंधे मुंह गिरता रहा हूं.

‘‘कहो, अब घर में क्या बरबादी लाने की सोची है?’’ असल में उस के विकास की बयार में देश की तरह विनाश की ही आंधी चलती आई है.

‘‘अगर हम ‘आप’ की तर्ज पर घर में हर काम में समविषम का दुरुपयोग सौरी सदुपयोग करें तो हमारे घर का भी प्रदूषण नियंत्रण में हो सकता है दिल्ली की तरह.’’

‘‘मतलब…’’ मेरे सिर पर बाल न होने के बाद भी सिर की चमड़ी के अंदर छिपे बाल खड़े हो गए.

‘‘मतलब यह कि अगर हम घर में केजरी साहब की तर्ज पर अपने अतिथियों को आने को कहें तो हमारे घर में भीड़ भी कम हो जाएगी और जेब का बढ़ता आर्थिक प्रदूषण भी कंट्रोल में हो सकता है.’’

पहली बार बीवी ने अक्ल की बात की तो मैं ने पूछा, ‘‘यह इकोनौमिकल आइडिया आखिर तुम्हारे दिमाग में आया कहां से? आज तक तो तुम जब भी बाजार गई हो, मेरी जेब खाली करने के बाद भी लाला से उधार कर के ही घर लौटी हो.’’

‘‘बस, आ गया तो आ गया. नेता जो चाहे तो अपने दिमाग में इस से भी बड़ेबड़े आइडिए ला सकता है,’’ कह वह मुसकराई तो मैं ने उस के आइडिए पर शंका जाहिर करते हुए पूछा, ‘‘पर जो बिन बताए घर न आए तो वे अतिथि ही काहे के?’’

‘‘देखो, घर में तुम्हारे ही अतिथि अधिक आते हैं, वह भी बिन बताए और फिर जाने का नाम ही नहीं लेते.’’

उस ने कहा तो मैं झेंपा. कई बार अपने रिश्तेदारों की वजह से पत्नी के सामने हद से अधिक फजीहत बरदाश्त करता रहा हूं. पर रिश्तेदारों के हाथों मजबूर हूं.

‘‘ठीक है, ठीक है. तो तुम्हारे रिश्तेदार सम में आना चाहेंगे कि विषम तारीख में?’’

‘‘तुम घर के मुखिया हो. पहले डेट तुम चुनो.’’ उस ने मेरे मर्द होने पर मुझे छूट दी तो पता चला कि महिलाएं चाहे कितनी ही ऐडवांस क्यों न हो जाएं, रहेगा तो अपना समाज पुरुषप्रधान ही.

‘‘तो ऐसा करते हैं सम तारीखों में तुम्हारे रिश्तेदारों का प्रवेश घर में वर्जित रहेगा तो विषम तारीखों में मेरे रिश्तेदारों का घर में प्रवेश वर्जित रहेगा, मंजूर?’’

‘‘डन.’’

‘‘डन, और गलती से जो कोई मेरातुम्हारा रिश्तेदार विपरीत तारीख को आ गया तो?’’

‘‘तो उस की ऐंट्री बंद. आएगा कैसे? सब छोटेबड़े रिश्तेदारों को सूचना की प्रति वाट्सऐप फेसबुक के माध्यम से भेज दी जाएगी कि हमारे घर में मेहमानों से बढ़ते प्रदूषण को ध्यान में रखते हुए समविषम का नियम दिल्ली में ऐंट्री की तरह तत्काल प्रभावी हो गया है. फिर भी रिश्तेदार न मानें तो उन का चालान किया जाएगा. हर स्तर के रिश्तेदारों का उन के यहां बेखौफ, तारीखों का ध्यान रखे बिना आने पर उन का रिश्तेदारी का लाइसैंस निरस्त किए जाने का भी प्रावधान हो चुका है.’’

‘‘और?’’

‘‘और यह कि जिस तरह दिल्ली में वायु प्रदूषण बढ़ रहा है, वैसे ही हमारे घर में भी रोजरोज की किचकिच से ध्वनि प्रदूषण सब घरों से अधिक है.’’

‘‘तो?’’

‘‘तो क्या? आज से हमारे घर में सम तारीखों को तुम कहोगे और मैं केवल सुनूंगी, कहूंगी कुछ नहीं. कहूं, तो मुझे जुर्माना भरना होगा. विषम तारीखों पर बकने का पूरा अधिकार मेरा होगा

और तुम्हारा कर्तव्य चुपचाप मुझे सुनना. कहीं रत्ती भर भी चूं की तो चालान कटेगा.’’

‘‘पर बोलती तो घर में तुम ही रही हो आज तक,’’ मैं ने सहमे हुए सवाल उठाया तो वह बोली, ‘‘आज तक जो होता रहा सो होता रहा पर अब घर और दिल्ली को प्रदूषणमुक्त करना है तो…आज सम तारीख है कि विषम?’’

‘‘सम,’’ मैं ने सोचा कि चलो, मुद्दत बाद आज जी भर कहने का अवसर तो मिलेगा. पर कुछ देर सोचने के बाद उस ने एकदम कहा कि यह नियम कल से प्रभा

माट साब का मोदियापा

मुरारी बाबू, जो पेशे से मास्टर थे, पता नहीं कब और कैसे मोदियापा  के शिकार हो गए. उन्होंने घोषणा कर दी कि अब वे मास्टर नहीं रहे. आज के बाद वे चाय बेचा करेंगे. पीपल के नीचे चाय का स्टौल होगा. चाय की एक केतली, चमकते हुए 2 दर्जन कप, चीनी, दूध तथा चाय की पत्ती घर में रख कर, अंतिम बार मुरारी बाबू विद्यालय गए. जातेजाते पीपल के नीचे एक चूल्हा बनाना नहीं भूले लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था. उन की यह जम्बो योजना उस समय धरालत पर आ गई जब उन की श्रीमतीजी ने चाय नामक पेय के विरुद्ध आंदोलन की धमकी दी. चाय की केतली में तो उफान नहीं आया लेकिन घर में तूफान जरूर आ गया. मुरारीजी की पत्नी ने मोरचा कस लिया. विद्यालय से आए तो पाया कि केतली घर की रसोई में अचेतावस्था में पड़ी है और चूल्हा शहीद हो गया. उस के टुकड़े जमीन पर पड़े इतिहास की कहानी कह रहे हैं. चीनी और चायपत्ती घर के बजट में शामिल हो गए और दूध की खीर बना ली गई है.

मुरारी बाबू ने आखिरी बार त्योरी चढ़ाई, ‘‘यह आप ने उचित नहीं किया. चाय एक राष्ट्रीय पेय है. आप ने इस के वितरण में बाधा डाल कर देशद्रोह किया है. राष्ट्रद्रोही हैं आप. आप को विदित है कि चायवितरण परमपुनीत कर्म माना गया है. आज से 100 साल बाद जब इस देश का इतिहास लिखा जाएगा तो देश के चायवितरकों में मेरा नाम आदर के साथ शामिल किया जाएगा. मैं मोदीजी के समकक्ष खड़ा हो ही रहा था कि आप ने यह षड्यंत्र रच दिया.’’ ‘‘चूल्हे में गया आप का राष्ट्रीय कर्म. आप को अपने बच्चों के साथ बैठने की फुरसत नहीं है. मुनिया गणित में कितनी कमजोर है. यह नहीं होता कि कभी उस के साथ बैठ कर उसे गणित के 2 अक्षर पढ़ा दें. समीर बेचारा महल्ले में मुंह दिखाने के काबिल नहीं रहा. कल चौधरीजी का रजुआ पूछ रहा था, ‘क्यों रे, मास्टरी से घर का खर्चा नहीं चलता जो तेरा बाप चाय बेचने जा रहा है?’ खबरदार, जो आज के बाद मुई चाय की बात की तो.’’

भीषण युद्ध की आशंका थी. मुरारी बाबू ने भी प्रथम 30 सैकंड तक मोरचा संभाला. उस के बाद बहादुरीपूर्वक पीछे हट गए. चाय वितरकों की दुनिया से एक बड़ा नाम आतेआते रह गया. मुरारी बाबू हार मानने वाले जीव नहीं थे. मोदीगीरी इतनी आसानी से छोड़ने वाले नहीं थे. उन्होंने ऐलान किया कि अब वे अपना शेष जीवन जनता की सेवा में बिताएंगे. सरपंची पर उन की नजर थी. उन्होंने घरघर जा कर लोगों को बताया कि आजादी को 70 साल हो गए. गांवों का विकास नहीं हुआ क्योंकि हम ने सही आदमी को चुना ही नहीं. आप जिसे मुखिया बनाते हैं वह दुखिया निकलता है. अपनी पेटी भरने में लग जाता है, आप का पेट क्या भरेगा? जुमलेबाजी वाली भाषणकला लोगों को भा गई. लोगों ने घबरा कर उन्हें चुन लिया. 

सरपंच बनते ही उन्होंने तय किया कि पहले गांव का विकास करेंगे ताकि किसी को कष्ट न हो. कितनी बुरी हालत है अपने क्षेत्र की. सड़कें ऐसी कि बैल भी चलने के पहले पांवपूजा कराएं. यहां फ्लाईओवर युक्त फोरलेन बनना जरूरी है. एक बड़ी चीनी मिल अपने गांव रामपुर में हो. पंचायत के दूसरे गांवों यानी कि हरखी और मधुबनी में एकएक कपड़े की मिल. गांव के हर बच्चे के हाथ में स्मार्टफोन हो और पंचायत का हर फरमान वाट्सऐप पर भेजा जाए. ग्रामवासी भी अपनी समस्या वाट्सऐप पर शेयर करें. यानी जनसेवा की अपार संभावनाएं हैं. क्रांति करनी होगी, क्रांति. एक दिन यह पंचायत अर्थात रामपुर पंचायत देश की ही नहीं, विश्व की सब से चर्चित पंचायत होगी. दुनिया देखने के लिए बेचैन होगी. रामपुर में विकास कैसे हुआ, यह जानने के लिए बड़ेबड़े रिसर्चर आएंगे.

चुनाव जीतने के चौथे दिन मुरारी बाबू उठे और हरपुर खीरी पंचायत चले गए. दिल्ली से सटा हुआ यह पंचायती क्षेत्र था जहां उन के दूर के भाई, फगुनी ठाकुर, सरपंच का पद संभाल रहे थे. उन को भी घनघोर आश्चर्य हुआ कि बाबू अचानक कैसे आ गए. उन्होंने हुक्कापानी देने के बाद पूछा, ‘‘और भैया, कैसे?’’ ‘‘ऐसे ही, हम आप के पंचायत क्षेत्र का विकास देखने आए हैं. आप हमें विकास का मंत्र बताएं. हम पर कृपा करें.’’ ‘‘मास्टर साहब, आप भी कमाल करते हैं. अजी साहब, यह इलाका दिल्ली से सटा है. यहां एक सड़क है जो आगरा को जाती है. वही एकमात्र सड़क है जो चमचमाती है वरना बाकी की हालत तो बेहद खराब है. रही बात बिजली की, वह 20 घंटे रहती है लेकिन यह तो दिल्ली का कमाल है. आप बिहार के एक गांव से इस की तुलना मत ही कीजिए तो बेहतर है.’’

‘‘नहींनहीं साहब, आप हमारा दिल मत तोडि़ए. हमें वह राज बताइए जिस से चौबीसों घंटे बिजली आती है. अहा, कितनी शानदार सड़क है, जी चाहता है कि इसी पर तकिया लगा के पड़ा रहूं.’’ इधर मुरारी बाबू हरपुर खीरी की पंचायत में हुए विकास को बटोरने की फिराक में थे उधर उन के अपने पंचायत इलाके में लोग अभिनंदन के लिए उन को खोज रहे थे. दिन में 3 बार उन के घर की सांकल बजा रहे थे. पत्नी को भी कहां मालूम रहता था कि बाबू साहब कहां का दौरा कब करेंगे. लोग फूलों के हार ले कर खोज रहे हैं. सरपंच साहब दिल्ली से निकले तो कोलकाता चले गए. उन्हें खबर मिली कि कोलकाता में कभी चटकल (पटसन की वस्तुएं बनाने वाली फैक्टरी) हुआ करती थीं जो सालों से बंद हैं.

उन्होंने सोचा, तो क्यों न 2-4 को अपने गांव ले कर चलें. पहुंच गए हुगली. हुगली के किनारे एक पंचायत महाकालपाड़ा है. महाकालपाड़ा के मुखिया हैं संतोष बाबू. उन्होंने यह जान कर कि मुरारी बाबू मास्टर रहे हैं, सरपंच हैं, स्वागत किया. ‘‘मेरी इच्छा है कि अपने गांव में ऐसा ही एक कपड़े का कारखाना खोल लूं. गांव की बेरोजगारी दूर होगी. गांव के बच्चे, जो बेचारे पानतंबाकू की लत में लिपटे पड़े हैं, कामधंधे में लग जाएंगे. देश से बेरोजगारी दूर होनी ही चाहिए.’’ संतोष बाबू ने पहले तो खूब गौर से देखा. जब उन्हें पूरा विश्वास हो गया कि मुरारी बाबू किसी पागलखाने के केस नहीं हैं तो बोले, ‘‘भलेमानुष, कारखाना कोई आटाचक्की है जो गांव में लगा लोगे. इस में पूंजी लगती है, बहुत सारी पूंजी. उस के साथ ही बाजार, व्यापार का भी खयाल रखना पड़ता है.’’ ‘‘हम छोटीछोटी बाधाओं से घबराने वालों में से नहीं हैं. भारतभर का विकास अपने गांव रामपुर में उठा कर ला पटकेंगे. आप बाधाओं की चिंता न करें. मुझे बताएं कि कारखाना गांव में कैसे लगेगा?’’

‘‘गांव में बिजली है?’’

‘‘वह भी आ जाएगी. पहले कारखाना तो लगे. बच्चों के पास रोजगार होगा. उन का जीवन सुधरेगा. मोबाइल और लैपटौप से खेलेंगे. गांव में सूचना क्रांति आ जाएगी.’’

‘‘पहले गांव में बिजली तो आने दो.’’

‘‘हम छोटीछोटी बाधाओं से घबराने वालों में से नहीं हैं. बिजली नहीं आने का अर्थ यह नहीं कि हम हाथ पर हाथ रखे इंतजार करें. हम विकास के लिए संघर्ष करेंगे. यदि भारत भ्रमण से काम नहीं चलेगा तो हम संसार भ्रमण पर निकल जाएंगे.’’ कहने की

जरूरत नहीं कि संतोष बाबू की तबीयत खराब हो गई. मुरारी बाबू को बिदा कर दिया गया. मुरारी बाबू वहां से निकले तो मुंबई जा पहुंचे. उन के सपने में था कि गांव में एक ऐसी फिल्म इंडस्ट्री तैयार की जाए जिस से निकल कर बच्चे अमिताभ बच्चन और अक्षय कुमार बन सकें. गांव की प्रतिभा बरबाद हो रही है. बरात में नाचते बच्चों को देख कर ही उन्हें अनुमान हो गया था कि इन में नाचने की अकूत प्रतिभा है. बस, सन्मार्ग दिखाने की जरूरत है. मुंबई जा कर उन्होंने एक नामचीन प्रोड्यूसर को जा पकड़ा. अपना प्रस्ताव रखा. वह प्रोड्यूसर आवश्यकताभर चालाक था. उस ने बाबू साहब को खूब ठंडागरम पिलाया.

‘‘अरे वाह साहब, आप जैसे जनसेवकों पर ही यह दुनिया टिकी है. आप का यह सपना जरूर पूरा होगा. आप के गांव में ही हम एक फिल्मी सैट लगाएंगे. गांव के ही लड़के उस में काम करेंगे. आप हमारी थोड़ी आर्थिक मदद कर दें. आजकल कड़की चल रही है.’’ भला हो उस आदमी का कि उस ने मुरारी बाबू के एटीएम में जो बचे थे, निकलवा लिए और बाबू साहब हलके हो कर गांव आ गए. नहीं तो उन के मन में अभी लुधियाना जाने का सपना भी हिलोरे ले रहा था कि जा कर देखें कि हौजरी उद्योग कैसे लगता है. मालमता नहीं बचा तो गांव वापस आ गए. गांव में भव्य स्वागत हुआ.

गांव की चौपाल पर उन के स्वागत में भाषण हुआ. पंचायत के सदस्यों ने खूब लच्छेदार शब्दों से उन का स्वागत किया. बाबू साहब भावुक हो रहे थे. पंचायत के सदस्यों ने उन की तुलना सुभाष चंद्र बोस और भगत सिंह से की. एक ने तो उन्हें आधुनिक युग का गांधी बताया, जो अपने गांव के विकास के लिए इस धरती पर आया है. मौलिक बात यह थी कि बाबू साहब की पकड़ पंचायत के वोटों पर मजबूत थी. सदस्यों को मालूम था कि उन के आशीर्वाद से जीतना आसान हो जाएगा. मनरेगा पर मीटिंग कब होगी? गांव की पुलिया का उद्घाटन किस मंत्री से चौथी बार कराना है? गांव की पाठशाला में विकास के लिए जो 5 लाख रुपए आए हैं उन्हें कैसे आपस में बांटा जाए? गांव में कन्या पाठशाला के लिए भवन नहीं है, पीपल के नीचे पाठशाला चलती है, इस के लिए किसे लिखा जाए और कैसे? इन तमाम प्रश्नों के समाधान हेतु एक बैठक की जरूरत थी लेकिन मुरारी बाबू मिलें तब न. वे तो अलसुबह झाड़ू ले कर गांव की सड़क साफ करने निकल जाते थे. 8 बजे तक 2 किलोमीटर तक झाड़ू दे कर आते, तब नाश्ता करते. उस के बाद जिला मुख्यालय जा कर नगर के विकास का अध्ययन करते रहते. उन का सपना था कि रामपुर एक न एक दिन महानगर हो कर मानेगा.

एक दिन उन के बालसखा रहमान ने कहा भी, ‘‘मुरारी भाई, एक बात समझ में नहीं आती कि गांव के विकास के लिए नगर का अध्ययन करने क्यों जाते हैं आप?’’

‘‘क्योंकि हर महानगर पहले गांव था. गांव से ही शहर बना होगा. जब कोलकाता गांव कोलकाता महानगर बन सकता है तो रामपुर क्यों नहीं? मोदीजी यों ही स्मार्टसिटी की बात नहीं कर रहे जबकि यह देश गांवों का है.’’

रहमान साहब ने उन के ज्ञान को नमस्कार किया और चलते बने. बमुश्किल 15 दिन तक गांव की शोभा बढ़ा कर अचानक एक दिन मुरारी बाबू चेन्नई चले गए. वहां उन्हें रामपुर के विकास की सारी संभावनाएं नजर आ रही थीं. यदि एक समुद्र गांव से आ मिले तो यहां भी बंदरगाह बनाया जा सकता है. मछली मारने से आर्थिक विकास होगा. पंचायत के मल्लाहों का कितना भला होगा. वहां से निकले तो कानपुर के चमड़ा उद्योगों का अध्ययन करने हेतु कानपुर गए. यह उद्योग उन को अपने गांव के अनुकूल लगा. गांव में जानवरों की कमी तो है नहीं. यदि होगी तो जानवर पाल लिए जाएंगे. उन के मरने पर जो चमड़ा बरबाद होता है उस को कच्चे माल के तौर पर इस्तेमाल कर के कारखाना चलाया जाए. पंचायत में विकास के फंड का इस्तेमाल कैसे हो, इस पर एक रिपोर्ट बना कर भेजनी थी लेकिन सरपंच तो कानपुर में थे. वहां से निकल कर हैदराबाद जाने वाले थे कि पत्नी ने बीमारी का बहाना बना कर बुला लिया. जरूरी मीटिंग वगैरह हो सकी, वरना फंड वापस चला जाता.

सरपंची सरपट भाग रही थी कि अचानक एक बार फिर घरवाली ने हल्दीघाटी के युद्ध की घोषणा कर दी. उस ने ही नहीं, दोनों बच्चों ने भी उसी पाले में जा कर गोले बरसाए. मुंह से नहीं, तो आंखों से ही सही. हुआ यों कि किसी अमावस/पूर्णिमा को पत्नी का व्रत था. उस ने बाबू साहब के मानसिक संतुलन के लिए मन्नत मांगी थी. उस ने साफसाफ कहा था कि कम से कम 1 दिन घर में टिक जाओ. उस के बाद जहां मरजी घूमते रहो. घर की जिम्मेदारियां तो तुम कभी उठा नहीं सकते लेकिन घर में 1 दिन उपलब्ध तो हो ही सकते हो. मुरारी बाबू का दिमाग, जो किसी जेट विमान से भी तेज चलता है, चल रहा था. उन के दिमाग में आया कि एक बार जगुआरा पैट्रोलपंप देख आएं. कारखाना नहीं लगा सकते तो कम से कम एक पैट्रोलपंप ही गांव में लग जाए. किसानों को डीजल के लिए कितनी मारामारी करनी पड़ती है. जगुआरे वाले को ही कहना होगा कि आ कर पंप लगाए. पंप वाले से बात की. उस ने साफ मना कर दिया.

‘‘देखो भइयाजी, अइसा है कि जो पंप है पानी का नहीं है. इस में तेल बिकता है और उस में लगती है पूंजी. आप के गांव रामपुर में तेल बिकेगा ही कितना. 20-25 मोटरसाइकिलें हैं. डीजल खरीदने वालों के भरोसे तो यह बिजनैस हो ही नहीं सकता. भइयाजी, सीजन में डीजल बिकेगा, बाकी के महीने हम बैठ कर भुट्टे भूनेंगे. आप आए हैं तो नाश्ता कर के ही जाइए. रही बात पंप की तो उस के लिए हमें माफ कीजिए.’’माफ करने की कला में बाबू साहब पारंगत थे. माफ तो उन्होंने तुरंत कर दिया लेकिन घर तुरंत नहीं गए. बाबू साहब के दिमाग में आया कि पड़ोस के पंचायत क्षेत्र परसुरामपुर जा कर एक बार रामफल चौबे को प्रणाम बोल देना चाहिए. बेकार ही दोनों पंचायतों में ठनी रहती है. कभी वे पाइपलाइन काट लेते हैं तो कभी नलकूप उखाड़ कर ले जाते हैं. पिछली बार तो हद ही हो गई. गांव की 4 बकरियां गायब हो गईं. 10 दिनों तक खोजी गईं. अंत में कलुआ चरवाहा ही खबर लाया कि परसुरामपुर वाले उठा ले गए. दोनों पंचायतों में मारपीट की नौबत आ गई. परसुरामपुर वालों के तर्क थे कि बकरियां उन के मटर के खेतों में चर रही थीं तो उन को लाने का मौलिक हक उन को हासिल हो ही जाता है. इस से पहले कि खून की नदी बहती, बकरियां भाग कर गांव आ गईं.

परसुरामपुर के मुखिया रामफल चौबे घबराए कि माजरा क्या है? मुरारी बाबू की तीव्र कल्पनाशक्ति की चर्चा हर पंचायत में होती थी. रामफल चौबे तो दुश्मन सरपंच थे. पलपल की खबर रखते थे. घबराना स्वाभाविक भी था. उन्हें पता लगा कि बंदा केवल लंच करेगा और चला जाएगा. उन्होंने पुलाव बनवाया. मटन और पुलाव. रामफल चौबे और मुरारी बाबू में वार्त्ता होती रही. दोनों गांवों में स्थायी शांति कैसे होगी, इस पर गंभीर वार्त्ता होती लेकिन बीचबीच में पुलाव के कौर भी मुंह में डालने पड़ रहे थे. मटन का शोरबा तो वाह. आज भी शोरबा बनाना परसुरामपुर वालों से बेहतर कौन जान सकता है. मजा आ गया.

एक लंबी डकार लेते हुए बाबू साहब बोले, ‘‘अब राजपूत और ब्राह्मनों को हठ से आगे आने की जरूरत है. हमें मिल कर विकास करना होगा. हम दोस्त बदल सकते हैं लेकिन पड़ोसी नहीं. मैं तो अपने गांव में कपड़े की मिल और पैट्रोल पंप की बात कर चुका हूं. मेरा तो बस एक ही सपना है कि गांव में सूचना क्रांति आ जाए. गांव के लड़के लैपटौप और मोबाइल से ख्ेलें.’’

‘‘पहले उन का शिक्षित होना जरूरी है.’’

‘‘हम छोटीमोटी बाधाओं से नहीं घबराते. आप तो बस यही कोशिश कीजिए कि अब दोनों गांवों में मारपीट न हो.’’

‘‘हमारी तो उम्र ही नहीं रही मारपीट करने की लेकिन बलदेव माने तब न. वह तो आप के गांव का नाम सुनते ही…पर आप चिंता न करें. सब ठीक हो जाएगा.’’ गांव में खोज कर बच्चे थक चुके थे. उन्हें पक्का विश्वास हो गया कि श्रीमान हरिद्वार या काशी चले गए. पत्नी ने अपना व्रत खोल लिया और बच्चों को खाना देने की तैयारी कर ही रही थी कि दरवाजे पर मोटरसाइकिल रुकने की आवाज आई. अर्थात मुरारी बाबू पधार गए. उस के बाद जो शब्दसुमनों से उन का स्वागत हुआ, आमतौर पर भारतीय पति इस की कल्पना कर सकते हैं. पौ फटने के पूर्व ही श्रीमतीजी मायके प्रस्थान कर गईं. गांव में 2 दल हो गए हैं. एक का कहना है कि जो परिवार का नहीं हुआ वह संसार का क्या होगा. दूसरे मानते हैं कि जो परिवार का होगा वह संसार का नहीं होगा. पता नहीं, सच क्या है? मगर मुरारी बाबू आज भी मोदियाए घूम रहे हैं

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