जाटों जैसी सक्षम व सफल जातियों के ऊंची, दबंग जाति वाला स्थान छोड़ कर पिछड़ी जाति में उतर आने के आंदोलन ने देश की सामाजिक व्यवस्था के छिपे पृष्ठ खोल दिए हैं. जिन्हें यह गुमान हो रहा था कि आधुनिक शिक्षा व बराबर के अवसरों के असर से देश में जातिवाद का प्रभाव कम हो गया है और जाति केवल नाम के पीछे पुंछल्ला बन कर रह गई है, वे अपने अज्ञान पर ठगे रह गए हैं.
पहले राजस्थान के गुर्जरों ने महीनों संघर्ष किया, फिर गुजरात में पटेल उठ खड़े हुए. उस के बाद आंध्र प्रदेश के कापू तोड़फोड़ करने लगे और ताजी घटना में जाटों ने हरियाणा को पूरा का पूरा बंद ही नहीं कर दिया, सेना के हवाले करवा दिया. जाति का सवाल भारतीय समाज पर आज 2016 में वैसा ही छाया हुआ है जैसा पौराणिक कल्पित युग के राम के समय छाया हुआ था जब शंबूक शूद्र वेदपाठ कर ब्राह्मणों को चुनौती दे रहा था.
हरियाणा के जाट, गुजरात के पटेलों और आंध्र प्रदेश के कापुओं की तरह जमीनों, व्यापारों, मकानों के मालिक हैं और उन की सामाजिक प्रतिष्ठा भी है पर फिर भी ऊंची ब्राह्मण, बनिया जातियों जैसा सम्मान न मिलने के कारण वे बेचैन ही नहीं रहते, सत्ता में भागीदारी न होने के कारण गुस्से में भी हैं. हरियाणा में जब तक राजनीति में उन की देवीलाल के सहारे राजनीतिक पहुंच थी, वे थोड़े चुप थे पर जब से देवीलाल के परिवार को जेलों में डाल दिया गया है और दूसरी जातियों ने भारतीय जनता पार्टी के भगवाई झंडे के सहारे सत्ता पर कब्जा कर लिया, उन का विद्रोह मुखर हो गया है. हरियाणा में मुख्यमंत्री को इस तरह के आंदोलन से निबटने का कोई अनुभव न होना भी एक कारण रहा कि जाट आंदोलन के चलते राज्यभर में भयंकर लूटपाट हुई, दिल्ली का पानी बंद हो गया, शहर के शहर कर्फ्यू की चपेट में आ गए और सेना भी राजमार्गों से न हो कर हैलिकौप्टरों से पहुंचाई गई. शासन की विफलता का इस से बड़ा सुबूत और क्या होगा.
जाटों व अन्य पिछड़ी जातियों के गुस्से का कारण स्वाभाविक है. सरकारी नौकरियां आज भी सत्ता का पक्का सहारा हैं. वहां काम कम और वेतन ही अच्छा नहीं, जीवनभर में वेतन से 20-25 गुना रिश्वत कमाने का अवसर भी है. सरकारी खर्चे पर चल रहे मैडिकल, इंजीनियरिंग, प्रबंधन कालेजों में प्राइवेट कालेजों के मुकाबले नाममात्र की फीस है. इन सब पर मैरिट के नाम पर जो कब्जा कर रहे हैं वे ऊंची जातियों के हैं. आरक्षण के नाम पर जो लाभ उठा रहे हैं वे करोड़ों में से चुन कर आ रहे हैं. सक्षम पिछड़े जो आरक्षित श्रेणियों में से तो हैं लेकिन न तो वे ऊंची जातियों के बराबर मेधावी हैं और न ही उन से नीची जातियों की तरह उन्हें छूट मिल पा रही है. नतीजा यह है कि उन की संपन्नता व दबंगता के बावजूद उन की सत्ता पर पकड़ न के बराबर हो गई है.
समाज इस तरह नहीं बदला कि वह गरीब, अमीर या जाति के असर को मिटा सका हो. भेदभाव तो आज भी ब्राह्मणों व बनियों तक में है. बनिए चुपचाप ब्राह्मणों को श्रेष्ठ मान कर चल रहे हैं, इसलिए उन में संघर्ष नहीं है पर शेष इस श्रेष्ठता को चुपचाप स्वीकारने को तैयार नहीं हैं. और यही बात वर्तमान संघर्ष की जड़ को खादपानी देने वाली है. भारतीय जनता पार्टी ने धर्म बेचने के चक्कर में जिस तरह से संस्कारों, परंपराओं, इतिहास, संस्कृति के जख्म उधेड़े हैं उस की वजह से अगड़ेपिछड़े के घाव भी दिखने लगे हैं. उन में अब दर्द तो होगा ही. दिक्कत यह है कि समाज में ऐसे नेता नहीं या विचारक बचे ही नहीं जो इन घावों पर महरम लगा सकें. अगर कुछ हैं तो उन्हें सत्तारूढ़ पार्टी देशद्रोही साबित करने में लगी है