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ब्रेकअप के बाद खुश हैं रणबीर

रणबीर-कैटरीना के ब्रेकअप को काफी समय बीत चुका है. लेकिन दोनों ही इस मामले में चुप्पी साधे हुए हैं. हां, कैटरीना के चहरे के उड़े हुए रंग देख कर ही कोई कह सकता है कि दोनों के बीच कुछ तो गड़बड़ हैं. वहीं दोनों अब उस फ्लैट में भी नहीं रह रहे जहां पहले साथ में रहा करते थे, न ही एक दूसरे के साथ किसी पार्टी या फंक्शन में साथ नजर आते हैं.

कैटरीना तो फिर भी अपनी फिल्म फितूर के प्रमोशन के लिए मीडिया से रूबरू हुईं, लेकिन रणबीर ने तो जैसे ब्रेकअप के गम में खुद को कमरे में ही कैद कर लिया था. लेकिन अब लगता है रणबीर दुखी होने का नाटक करते करते थक गए हैं.

दरअसल हाल ही में रणबीर को अभिषेक बच्चन और डीनो मौर्या के साथ बांद्रा में बौल खेलते देखा गया था और अब सोशल नैटवर्किंग साइट्स पर किसी अंजान लड़की के साथ पाउट बनाते हुए उन की तसवीरें भी दिखाई दे रही हैं. यह लड़की कौन है इस का अंदाजा लगाना मुश्किल है लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है रणबीर अपने ब्रेकअप के बाद काफी रिलीफ महसूस कर रहे हैं. 

गौरतलब हैं, कि अबतक रणबीर-कैटरीना के ब्रेकअप को लेकर मीडिया में काफी कयास लगाए जा चुके हैं. सब से पहले दोनों के ब्रेकअप का कारण दीपिका पादुकोण को ठहराया गया. सभी का मानना था कि फिल्म तमाशा के दौरान दीपिका-रणबीर एक बार फिर एकदूसरे के करीब आगए थे. कैटरीना को दोनों की करीबियां पसंद नहीं आई इसलिए वो रणबीर से अलग हो गईं. वहीं कुछ लोगों ने कहा कि रणबीर की मां नीतू कपूर को कैटरीना कभी पसंद नहीं थी क्योंकि उन की वजह से रणबीर अपने परिवार से अलग रहने लगे थे. मां नीतू के कहने पर रणबीर ने कैटरीना से दूरियां बनानी शुरू कर दी थी.

इस कड़ी में आलिया भट्ट का भी नाम आ चुका है. कुछ मीडिया रिपोर्ट्स में यह भी कहा गया कि रणबीर आलिया भट्ट को अपने घर की पार्टीज में बहुत तवज्जो देने लगे थे इसलिए कैटरीना ने कई बार आलिया को पार्टी लिस्ट से आउट कर दिया. ये बात भी रणबीर को पसंद नहीं आई और बाद में दोनों के बीच मनमुटाव का कारण बनी.

खैर, वजह जो भी हो रणबीर सोशल नैटवर्क पर वाइरल हुई इन तसवीरों में बहुत खुश नजर आ रहे हैं और लग रहा है कि अब वो ब्रेकअप के दुख से बाहर निकल चुके हैं. अब बारी कैटरीना आपकी है.

 

आखिर कौन है ये बिकनी गर्ल…?

आजकल बौलीवुड सैलिब्रिटीज हों या मौडल्स पब्लिसिटी स्टंट करने से नहीं घबरातीं. किसी भी चीज पर कमैंट कर सकती हैं, किसी के साथ भी फोटो क्लिक कर के अपलोड कर सकती हैं, किसी भी तरह के कपड़े पहन सकती हैं, ताकि लोगों के बीच मुफ्त की पब्लिसिटी हो सके.

आजकल जयपुर में भी कुछ इसी तरह का नजारा देखने को मिल रहा है. रात में जब अधिकांश लोग अपने अपने घरों में होते हैं, तब एक लड़की लाल बिकनी पहन कर खुलेआम घूमती हुई दिख रही है.

इस लड़की को देख कर ऐसा लगता है कि शौपिंग कर ने निकली है, पर शौपिंग नहीं करती सिर्फ भीड़ भरे बाजार में टहलती है. इसे देखते ही लोगों के फोन के कैमरे औन हो जाते हैं. जब लोग उसे टोकते हैं तो कहती है आप लोग घबराइए मत, मेरी सब के साथ सैटिंग है, मैंने यहां डयूटी कर रही पुलिस को बता दिया है कि मैं ऐसी हालत में घूम रही हूं, मेरी सुरक्षा का ध्यान रखें. बात यहीं खत्म नहीं होती ये लड़की कौंफिडैंस के साथ यह भी कहती है कि कुछ पालिटिकल पार्टी से मेरी जान पहचान है, आप लोग नैरो माइंडेड हैं, मैं बोल्ड हूं, प्लीज अपना काम करें.

पब्लिसिटी के लिए कुछ भी करेगा

दरअसल ये बिकनी गर्ल मौडलिंग का क्रेज लिए इस तरह से घूम रही है, ताकि उसे मौडलिंग के कुछ औफर मिल सकें.  इस की कुछ तस्वीरें भी सामने आई हैं. इस बिकनी गर्ल को औफर मिलते हैं या नहीं, ये तो समय आने पर ही पता चलेगा. लेकिन इस बिकनी गर्ल ने अपनी सुरक्षा को ताक पर रख कर जयपुर के लोगों के होश जरूर उड़ा दिए हैं.

होली पर कुप्रथा को खत्म करने की पहल

एक विधवा के लिए हिंदु मान्यताओं में खास नियम बनाए गए हैं, उसे दुनिया भर के रंगों को त्याग कर सफेद साड़ी पहननी होती है. वह किसी भी प्रकार के आभूषण एवं श्रृंगार नहीं कर सकती. इतना ही नहीं जो लोग कट्टर तरीके से इन नियमों का पालन करते हैं, वे सूरज ढलने के बाद खाना भी नहीं खाते. उन्हें आखिरी सांस तक भगवान को याद कर के अपना बचा हुआ जीवन व्यतीत करने को मजबूर किया जाता है. लेकिन वृंदावन में कुछ अलग ही तरह से इस कुप्रथा को रोकने की कोशिश की गई है.

इतिहास में पहली बार

वृंदावन के इतिहास में ऐसा पहली बार होगा, जब वहां दशकों से रहती आ रही विधवा महिलाएं मंदिर में रंग और उमंग से होली का त्यौहार मनाती दिखाई देंगी. उन के लिए इस पहल का बीड़ा उठाया है. संस्था सुलभ इंटरनैशनल ने. 21 मार्च को वृंदावन के प्राचीन गोपीनाथ मंदिर में आयोजित होने वाले कार्यक्रम में शामिल होने के लिए वृंदावन की विधवाएं तो बेसब्री से इंतजार कर रही हैं. उन के अलावा वाराणसी की विधवाएं भी होली मनाने यहां पहुंच रही हैं. सुलभ इंटरनैशनल के संस्थापक एवं सामाजिक सुधारक डा. विदेश्वरी पाठक ने बताया कि हिंदू समाज की कुप्रथा को रोकने की यह पहली कोशिश है.

विधवाओं को सम्मान दिलाने का प्रयास

उच्चतम न्यायालय के निर्देश पर सुलभ इंटरनैशनल वृंदावन व वाराणसी में रहने वाली तकरीबन 1500 विधवा महिलाओं की विभिन्न प्रकार से देखभाल कर रहा है. यह संस्था परिवार एवं समाज की मुख्य धारा से पिछले कई दशकों से दूर परित्यक्त जीवन जी रही इन महिलाओं को उन का खोया हुआ सम्मान दिलाने के प्रयास में पिछले 3 साल से उन के आश्रम में होली का त्यौहार मना रही हैं.\

इस गांव में सिर्फ महिलाएं खेलती हैं होली

रंग बिरंगे रंगों का त्यौहार है होली जहां लोग पुराने गिलेशिकवे को भूल कर उत्साह व जोश से आपस में होली मनाते हैं. स्त्री, पुरुष और बच्चे सभी इस त्यौहार का भरपूर आनंद उठाते हैं पर क्या आप को पता है कि एक ऐसा गांव भी है, जहां सिर्फ महिलाएं ही होली खेलती हैं पुरुष और बच्चे नहीं. है ना आश्चर्य…

दिलचस्प गांव

उत्तर प्रदेश के हिस्से वाले बुंदेलखंड क्षेत्र के हमीरपुर जनपद के कुंडरा गांव में सिर्फ महिलाएं ही होली खेलती हैं. यहां पुरुषों का होली खेलना वर्जित है. जिस देशविदेश में पुरुष समुदाय होली के दिन रंगों में डूब कर इस का आनंद ले रहा होता है वहीं इस छोटे से गांव में होली के दिन सभी पुरुष खेतों में या किसी दूसरे काम से कहीं बाहर चले जाते हैं.

बच्चे जहां पूरे साल होली खेलने को बेकरार रहते हैं. वहीं कुंडरा गांव के बच्चे होली के दिन साफसुथरे कपड़े पहन कर घरों में ही रहते हैं. जैसे होली न हो दीवाली हो.

होली से दूरी क्यों

कई दशक पहले होली ही के दिन गांव के लोग रामजानकी मंदिर में फागुन गा रहे थे, तभी एक इनामी डकैत मेंबर सिंह ने एक शख्स को गोली मार कर हत्या कर दी थी. इस घटना के बाद इस गांव में कई सालों तक होली नहीं मनाई गई.

महिलाओं की कोशिश

कुछ साल तक तो महिलाएं चुप रहीं, फिर उन्होंने पुरुषों को समझाने की कोशिश की और जब वे नहीं माने तो गांव की सभी महिलाएं उसी रामजानकी मंदिर में इकट्ठा हुईं और फैंसला लिया कि होली के दिन गांव की सभी महिलाएं पूरी रस्म के साथ त्यौहार मनाएंगी. इस में पुरुषों की कोई भागीदारी नहीं होगी. गांव की महिलएं इस दिन पूरी तरह आजाद रहती हैं. साल के 364 दिन जो महिलाएं गांव के बुजर्गों के सामने पर्दे में रहती हैं, वे होली के दिन किसी से घूंघट नहीं करती और होली खेलने का आनंद लेती हैं.

 

हादसे से उबर कर खड़े होने का जज्बा

एसिड अटैक सर्वाइवर्स के लिए जीवन हर रोज किसी हादसे से गुजरने जैसा बन जाता है. जो जुर्म करता है, उसे मुसकुराते हुए अदालत से रिहा होते देखना. फिर से तेजाब से जलाए जाने से कम दुखद अनुभव नहीं होता है. कई बार समाज उन पर ही सवाल उठाने लगता है, तो कई बार पुलिस और सरकार आरोपी के साथ खड़े नजर आते हैं. वहीं राज्य सरकार की ओर से इलाज की सुविधा और मिलने वाली आर्थिक मदद ने पीडि़ताओं में एक नए उत्साह का संचार किया है. हादसे से उबर कर खड़े होने का जज्बा पैदा किया है.

नौकरियों में वरीयता

एसिड अटैक पीडि़ताओं को प्रदेश सरकार सरकारी नौकरियों में वरीयता देने जा रही है. इस की शुरुआत महिला कल्याण विभाग से की जा रही है. पहले चरण में खुद मुख्यमंत्री ने पिछले दिनों सूबे के 11 जिलों में हाल ही में खुले आशा ज्योति केंद्रों के पदों पर भर्ती में इन्हें प्राथमिकता दी जाएगी. महिला कल्याण प्रमुख सचिव रेणुका कुमार के मुताबिक एसिड अटैक पीडि़ताओं को कहीं पर भी नौकरी नहीं मिलती है इसलिए प्रदेश सरकार ने आशा ज्योति केंद्रों में होने वाली भर्तियों में इन्हें प्राथमिकता देने का निर्णय किया.

प्राथमिकता के आधार पर

महिलाओं को एक छत के नीचे सभी विभागों की सुविधाएं एकसाथ दिलाने के लिए निर्भया केंद्र की तर्ज पर रानी लक्ष्मीबाई आशा ज्योति केंद्र खुले हैं. इन के संचालन के लिए नियमित नियुक्तियों के दौरान एसिड पीडि़ताओं को प्राथमिकता दी जाएगी.

 

डिनर टाइम इज फैमिली टाइम

आज की इस भागती दौड़ती जिंदगी में सभी व्यस्त हैं. दूसरों के लिए तो छोडि़ए लोगों के पास खुद के लिए भी वक्त नहीं. ऐसे में ‘फैमिली टाइम’ जैसे शब्द व्यर्थ से लगते हैं. लेकिन अपनी धुन मग्न लोगों को यह नहीं पता कि परिवार के साथ वक्त बिताना जिंदगी में कितनी सकारात्मकता भर देता है. खासतौर पर यदि फैमिली के साथ बैठ कर रात का भोजन किया जाए और भोजन के दौरान अपनी दिनचर्या को परिवार के दूसरे सदस्यों संग साझा किया जाए तो कई समस्याओं का हल या उन से निपटने के नए रास्ते मिल जाते हैं.

परिवार के बड़े सदस्यों के संग ही छोटे सदस्यों के लिए भी ‘फैमिली डिनर’ काफी फायदेमंद होता है. यूनिवर्सिटी औफ फ्लौरिडा द्वारा की गई रिसर्च में भी बताया गया है कि हफ्ते में 4 बार किया गया फैमिली डिनर बच्चों की मानसिक विकास के लिए बहुत फायदेमंद है. इस के साथ ही रिसर्च में ‘फैमिली डिनर’ को मोटापे जैसी बीमारी की रोकथाम के लिए भी जरूरी बताया है.

आइए ‘फैमिली डिनर’ के फायदों पर डालते हैं एक नजरः

·        फैमिली डिनर यानी पारिवारिक बातों को कहने का बहाना. इस बहाने परिवार के छोटे से ले कर बड़े तक सभी सदस्य अपने मन की बात को आपस में साझा कर सकते हैं. इस से सदस्यों को कई बार कुछ नया जानने और सीखने को मिलता है. खासतौर पर कम बोलने वाले सदस्यों को इस समय अधिक बोलने का मौका देने से उन की हिचकिचाहट दूर होती है.

·       डिनर के दौरान होने वाली चर्चा में जब परिवार के दूसरे सदस्य भी हिस्सा लेते हैं तो किसी के साथ होने और एक अलग सी सुरक्षा का अहसास होता है. साथ ही ‘फैमिली डिनर’ पारिवारिक अनुशासन को बनाए रखने में भी मददगार होता है. ‘फैमिली डिनर’ में घर के छोटे से ले कर बड़े तक सभी लोग हिस्सा लेते हैं, जिस से सभी को अपने दायरे पता होते हैं कि क्या बात किस लहजे में करनी चाहिए.

·       ‘फैमिली डिनर’ में यदि फैमिली के सभी सदस्यों को डिनर की तैयारी का कोई न कोई काम सौंप दिया जाए तो सदस्यों को एकदूसरे के नजदीक आने और एकदूसरे को समझने का मौका मिलता है.

·       अकेले भोजन करने में आप का फोकस सिर्फ भोजन पर होता है इस लिए आप खाते वक्त बहुत कौनशियस रहते हैं कि क्या खाऊं और क्या नहीं ज्यादातर लोग ऐसे में सेहत की जगह स्वाद को महत्त्व देते हैं और वही खाते हैं जो उन की टेस्ट बड को अच्छा लगता है. इस के अतिरिक्त कई बार अकेले खाने से लोग बेहिसाब खाना खा जाते हैं जो सेहत के लिए हानिकारक हो सकता है.

·       कई बार परिवार के सदस्यों के मध्य मतभेद उत्पन्न हो जाते हैं और इस स्थिति में वो सब से पहले साथ बैठ कर भोजन करना छोड़ देते हैं जबकि मतभेद होने के बाद भी साथ बैठ कर भोजन किया जाए तो मसले के सुलझने के बहुत मौके होते हैं.

·       अकेले डिनर करने वाले लोग परिवार के साथ डिनर करने वालों से कम और्गेनाइज्ड होते हैं. उन्हें जब, जहां और जिस हाल में खाना मिल जाए खा लेते हैं. जबकि खाने को सलीके और आराम से खाया जाए तब ही वो सेहत के लिए फायदेमंद होता है.

·       फैमिली डिनर आप की आर्थिक स्थिति पर भी असर डालता है. यदि परिवार का हर सदस्य अलगअलग वक्त पर भोजन करता है तो उतनी ही बार भोजन को गरम करना पड़ेगा. भोजन को या तो गैस या माइक्रोवेव में ही गरम किया जाएगा इसलिए यह आप के खर्चे बढ़ाएगा. साथ ही रीहीटेड भोजन करने से सेहत खराब होगी तो डाक्टर की फीस का खर्चा भी बढ़ेगा.

जहां बेटी बोझ नहीं वरदान है

सख्त कानून के बावजूद कन्या भ्रूण हत्या जहां सभ्य समाज के मुंह पर तमाचा है, तो वहीं देश में एक गांव ऐसा भी है जहां बेटी होने पर न सिर्फ खुशियां मनाई जाती हैं, 111 फलदार पेड़ भी इस खुशी में लगाए जाते हैं.

पूरे गांव की बेटी

राजस्थान का एक गांव पिपलंत्री में बेटी मानो एक वरदान बन कर पैदा लेती है. इस मौके पर 111 फलदार पेड़ तो लगाए ही जाते हैं, साथ ही गांव वाले 21,000 रूपए इकट्ठा कर के उस के नाम से बैंक अकाउंट भी खुलवा देते हैं. इतना ही नहीं बेटी की सुरक्षित भविष्य के लिए उस के माता पिता को एक ऐफीडेविट भी देनी होती है, जिस में लिखा होता है कि-

*बेटी की शादी कानूनी उम्र यानी 18 साल से पहले नहीं करेंगे.

*वे बेटी को नियमित स्कूल भेजेंगे.

*वे उन 111 फलदार पेड़ों की जिम्मेदारी भी उठाएंगे, वगैरह.

अब तक ढाई लाख पेड़

गांव के लोग अब तक ढाई लाख पेड़ लगा चुके हैं और हर पेड़ गांव वालों के लिए बेटी के बराबर है. दरअसल, यह परंपरा गांव के एक सरपंच द्वारा अपनी बेटी की कम उम्र में गुजर जाने की याद में शुरू की गई थी, जिसे अब गांव वाले बखूबी निभा रहे हैं.

कब खुलेगी समाज की आंखें

यह वाकेआ दिलचस्प होने के साथसाथ समाज की आंखें खोलने के लिए भी पर्याप्त हैं कि जिस समाज में बेटियां लिंग भेद, वर्ण, धर्म आदि की भेंट चढ़ कर गर्भ में ही मार दी जाती हैं, वहीं एक ऐसा भी समाज है, जिन के लिए बेटियां वरदान से कम नहीं हैं.

सिर्फ कहने को बुद्धिजीवी

बेटियों के प्रति यह प्रेम उन शहरी आबादी को भी मुंह चिढ़ाता है, जहां के पढ़ेलिखे, टाईकोट लगाए, लग्जरी गाङियों में घूमने वाले तथाकथित बुद्धिजीवियों द्वारा आज भी बेटियों को बोझ ही समझा जाता है और इन आबादी में भी बेटियां पैदा होने से पहले ही मार दी जाती हैं.

कामकाजी महिलाएं छोड़ना चाहती हैं नौकरी

हाल ही में एसोचैम द्वारा किये गए  एक सर्वे में पाया गया कि ४० प्रतिशत कामकाजी माएं अपने बच्चों की परवरिश के लिए नौकरी छोड़न  चाहती  हैं.   बच्चों के अलावा लैंगिक पक्षपात, कार्यस्थल में शोषण, काम का असुविधाजनक समय, कम वेतन, पारिवारिक मुद्दे आदि कुछ अन्य वजह हैं, जो उन्हें नौकरी छोड़ने की बात सोचने पर विवश करते हैं. ऐसा नही कि जॉब करने वाली सभी महिलाएं परेशान हैं, बहुत सी महिलाएं अपने काम और कार्यस्थल के माहौल से खुश हैं, मगर कुछ ऐसी भी हैं जो दोहरा शोषण सह रही हैं.

एक तरफ कम वेतन, सीनियर्स की डांट और कार्य की अधिकता के साथ ऑफिस और रास्ते में असुरक्षा का खौफ , तो दूसरी तरफ घर के काम और बच्चों की जिम्मेदारी संभालते हुए ऑफिस में तनावपूर्ण माहौल में काम कर पाना आसान नही होता. आज के समय में जबकि महिलाएं ऊँचे से ऊँचे पदों पर पहुंचकर अपने हुनर और योग्यता का लोहा मनवा रही हैं, तो जरुरी है कि कहीं न कहीं उन्हें घर और ऑफिस  दोनों ही जगह  उचित माहौल प्रोत्साहन और सहयोग भी मिले. वो भी सुरक्षा के साथ ऑफिस में योग्यतानुसार ऊँचा पद व वेतन पाने की हकदार हैं.  जेनीफर लोपेज व दीपिका पादुकोण ने भी पुरुष व महिलाओं के वेतन में अंतर के मुद्दे को उठाया था.

यही नही ऑफिस या आसपास क्रेच की सुविधा भी इस दिशा में सराहनीय कदम होगा, जहाँ वे अपने छोटे बच्चों को रखकर तनाव रहित हो कर काम केर सकती हैं. तो वहीं घरवालों का सहयोग भी अनिवार्य है. ये वही देश है जहां  हर १० में से ६ पुरुष अपनी पत्नी के साथ हिंसक व्यवहार करते हैं. महानगरों की पढ़ी लिखी कामकाजी, हाई सोसाइटी वाली जिन महिलाओं को आमतौर पर सशक्त माना जाता है, वे भी घरेलू मामलों में उतनी ही पीड़ित और अकेली हैं घर की साड़ी जिम्मेदारों निभाने के बाद ऑफिस सम्भालना आसान नही. 

      

एक बाल्टी पानी के लिए तीसरा विश्व युद्ध

हमारे गांव में दो कुँए थे. एक गाँव के बीचोबीच था. जहाँ गाँवभर की ब्राह्मण, ठाकुर जैसे ऊंची जातियां पानी भरती, नहातीं और कपडे धोतीं और गाँव के आखिरी छोर पर बने दूसरे कुँए को दलित व पिछड़ों के लिए छोड़ दिया गया था. एक दिन खेलखेल में एक दलित बच्चा बड़े कुँए में नहाने आ गया. फिर क्या था. गाँव भर के दबंग और सरपंच ने मिलकर सरेआम उस बच्चे और उस के पिता की जमकर धुनाई की. कई बोरे अनाज का दंड भरवाया सो अलग.

गाँव से दूर शहरकसबों में अब भले ही कुओं और जातिबिरादरी वाला कल्चर थोडा कम हो गया है और सरकारी नल और हैंडपंप आ गए हों, लेकिन पानी को लेकर आज भी दो गुटों के बीच झड़प, जूतमपैजार और यहाँ तक कि हत्या जैसी वारदात हो ही जाती है.

11 मार्च को बदायूं में सरकारी नल से एक बाल्टी पानी भरने को लेकर एक ही परिवार के कुछ व्यक्तियों के बीच लड़ाई शुरू हो गई. सभी पहले अपनी बाल्टी में पानी भरना चाहते थे. कहासुनी इतनी बड़ी कि सभी लोग एकदूसरे को पीटने लगे. जिसमें बीचबचाव की कोशिश में एक व्यक्ति को ऐसी चोट लगी कि उसकी मौत ही हो गयी.

कुछ महीने पहले भी सोनीपत के भैसवान खुर्द गांव में एक बाल्टी पानी को लेकर दो पक्षों में विवाद हुआ था. दोनों पक्षों में लाठियां चलीं. एक शख्स की मौत हुई और छह लोग हमले में घायल हो गए. मामला बस इतना था कि स्थानीय निवासी महताब के घर के पास पानी की एक बाल्टी रखी थी और उस गली से गुजर रहे बंसत का पैर लगने से पानी की बाल्टी गिर गई. इतनी सी बात पर महताब ने अपने परिवार के लोगों के साथ मिलकर बंसत और उसके परिवार पर लाठियों और हथियारों से हमला कर दिया.

संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव ने बहुत पहले कहा था कि ‘अगर कभी तीसरा विश्व युद्ध लड़ा गया तो वो पानी के लिए लड़ा जाएगा.’. यह बात अब सांकेतिक तौर पर वास्तिवकता में घटती दिख रहे हैं. पानी को लेकर मारामारी शहर से लेकर गाँव कस्बों में हर जगह हो रही है. दिल्ली जैसे महानगर में जब जल निगम का टैंक जल आपूर्ती के लिए आता है तो मोहल्ले में युद्ध जैसे हालात खड़े हो जाते हैं. छीनाझपटी में आधे से ज्यादा पानी नालियों में बह जाता है और इस पानी के साथ आपसी झड़प में बहा खून भी शामिल होता है. फसल में पानी देने से लेकर ट्यूबबेल विवाद, नहर सींच और बम्बा सीमा विवाद में गाँव के गाँव भीड़ जाते हैं और इसे अस्मिता का प्रश्न बनाकर जानमाल का नुक्सान कर डालते हैं.

दरअसल देश दुनिया जल संकट से जूझ रहे हैं लेकिन इस तरह की झड़प हमारे यहाँ ज्यादा दिखती हैं. कोई समाधान पर ध्यान नहीं दे रहा है. जलस्तर लगातार नीचे जा रहा है. जल सरंक्षण को लेकर गंभीरता न के बराबर है. दिल्ली में तो वॉटर एटीएम लगाये जाने लगे हैं जहां आप पैसे डालकर प्रति लीटर के हिसाब से पानी निकाल सकते हैं. बोतल बंद पानी की फर्जी दुकानदारी भी जम चुकी है. बावजूद इसके हम पानी बचाने के बजाये एक दुसरे का खून बहा रहे हैं.

अगर इसी तरह पानी को लेकर आपस में लड़तेमरते रहे तो कोई ताज्जुब नहीं कि पानी को लेकर होने वाले तीसरे विश्वयुद्ध की शुरुआत हमारे यहाँ से हो. पानी के बिना हमारा जीवित रहना असंभव है. हमें इस कुदरत की अनमोल देन को हमेशा के लिए खत्म होने से बचाना है. बिना खाए इन्सान कुछ हफ्ते जिंदा रह सकता है, मगर पानी के बिना कुछ दिन भी जीवित नहीं रह सकता.

 ब्रह्म चेलानी अपनी किताब वॉटर, पीस ऐंड वॉर, कन्फ्रंटिंग द ग्लोबल वाटर क्राइसिस में लिखते हैं  “कच्चे तेल की कीमत में लगातार बढ़ोत्तरी के बावजूद अपने स्रोत पर उसकी कीमत खुदरा बोतलबंद पानी की कीमत से कम है.”. यह इशारा है भविष्य में होने वाली जलसंकट और उससे जुडी त्रासदियों को समझने का, वर्ना काफी देर हो जायेगी….

लखनऊ मे देश का सबसे खूबसूरत हाईकोर्ट

2012 में शुरु हुई बिल्डिंग को बनाने में 1300 करोड़ रुपए खर्च हुए. शुरुआती बजट 700 करोड़ था. इसे बनने में तीन साल लगे. लखनऊ के गोमतीनर में बनी यह कोर्ट आवागमन के हिसाब से भी बेहतर जगह पर है. जजों को तनाव से बचाने के लिए फिजियोथैरेपी सेंटर की भी व्यवस्था परिसर में ही की गई है. बिल्डिंग की सबसे बड़ी खासियत है कि इसे जिस तरफ से देखा जाएगा उसी तरफ बिल्डिंग का फ्रंट दिखाई देगा. इसके किसी भी साइड में जाने पर लोगों को ये नहीं लगेगा कि वे बिल्डिंग के पीछे की तरफ आ गए हैं.

कोर्ट रूम में ज्यादातर लकड़ी का इस्तेमाल किया गया है. कोर्ट रूम को उसी तरह से बनाया गया है, जिस तरह लोग टीवी में देखते आए हैं. कोर्ट रूम का लुक पुराना है, लेकिन इंटीरियर मॉडर्न पैटर्न पर बनाया गया है. कोर्ट परिसर में अंतरराष्ट्रीय सुविधाओं वाला जिम भी बनाया गया है. साथ ही कोर्ट की लाइब्रेरी में करीब एक लाख किताबें होंगी. पूरा परिसर वाईफाई से लैस होगा. कोर्ट परिसर में तीन हजार कारों के पार्किंग की व्यवस्था है. जज, वकील और पब्लिक तीनों के लिए अलग-अलग पार्किंग की व्यवस्था की गई है.

बिल्डिंग को बलुआ पत्थर से बनाया गया है. जिसे चुनार और राजस्थान से मंगाया गया है. इनकी खासियत होती है कि ये 150 साल तक खराब नहीं होती. यह बिल्डिंग क्लासिकल और मॉर्डन दोनों ऑर्किटेक्चरल का खूबसूरत नमूना है. देश में अब तक इससे बड़ा और खूबसूरत हाईकोर्ट नहीं बना है. बिल्डिंग को बाहर से देखने पर संसद भवन जैसा लुक दिखता है. इसकी डिजाइन में किसी को कॉपी नहीं किया गया है. इस बात का ध्यान रखा गया है कि यह ट्रेडिश्नल तो हो, लेकिन कॉपी न हो.

हाईकोर्ट बिल्डिंग 40 एकड़ के एरिया में बना है. इसे 3 फ्लोर में बनाया गया है. ग्राउंड फ्लोर में रजिस्ट्रार ऑफिस के साथ कोर्ट के दूसरे ऑफिस होंगे. जबकि फर्स्ट, सेकेंड और थर्ड फ्लोर पर कोर्ट रूम बनाए गए हैं..

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