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विश्वविद्यालयों में राजनीति

देश के विश्वविद्यालयों में राजनीति हो या न हो, रोहित वेमूला की आत्महत्या ने विवाद का मुद्दा खड़ा कर दिया है. रोहित वेमूला को अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की शिकायत पर केंद्रीय मंत्रियों की दखलंदाजी पर हैदराबाद विश्वविद्यालय के होस्टल से निकाल दिया गया था और उस की छात्रवृत्ति भी रोक दी गई थी. हर विश्वविद्यालय में राजनीतिक दलों की शाखाएं हैं और छात्रों को प्रवेश के साथ ही पौलिटिक्स का पाठ भी पढ़ाया जाना शुरू कर दिया जाता है.

1950-60-70 के दशकों में राजनीति अमीरीगरीबी के नारों के चारों ओर घूमती थी पर जब से आरक्षण का मामला गरमाया है, छात्र राजनीति पर जाति का रंग बुरी तरह चढ़ गया है. जैसे देश में कोनेकोने में जाति की खाइयां बनी हैं, वैसी ही विश्वविद्यालयों में बन जाती हैं और हरेक अपनेअपने द्वीप में ही रहने लगता है, वह दूसरे द्वीप वालों को दुश्मन मान कर रातदिन हमलों की तैयारी करता रहता है.

विश्वविद्यालयों में राजनीति का रंग इसलिए भी गहरा रहा है, क्योंकि इस उम्र में आते ही दिखने लगता है कि मौजमस्ती के दिन थोड़े से बचे हैं और अगर अपनी सही जड़ें नहीं जमाईं तो भविष्य क्या होगा मालूम नहीं. राजनीति में घुसने पर यह भरोसा हो जाता है कि और कुछ नहीं तो राजनीति से तो कुछ कमाया ही जा सकता है.

विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले तो थोड़े ही होते हैं. ज्यादातर को यही मालूम नहीं होता कि जो पढ़ रहे हैं उस से भविष्य बनेगा या नहीं. मैडिकल और इंजीनियरिंग में तो थोड़ा भरोसा होता है पर बाकी कोर्सों का क्या महत्त्व होता है, किसी को मालूम नहीं. राजनीति विश्वविद्यालय में बने रहने का एक पक्का उद्देश्य देती है.

राजनीति को वैसे भी अछूत नहीं समझा जाना चाहिए. राजनीति ही देश की धुरी है. राजनीति से ही शासन चलता है. टैक्स इसी से लगते हैं. पुलिस को राजनीति चलानी है. व्यापार और राजनीति का नाता अटूट है. राजनीति को चाहे जितना कोसो इस के बिना तो देश व समाज 4 दिन नहीं चल सकते. इस की पढ़ाई जितनी जल्दी हो सके उतना अच्छा.

अब जो लोग शोर मचा रहे हैं कि विश्वविद्यालयों को राजनीति से दूर रखा जाए, ये वे हैं जो डर रहे हैं कि विश्वविद्यालयों में तो भरमार पिछड़ों और दलितों की होने वाली है जो जनसंख्या का 90-92त्न हैं और अब तक राज कर रहे 8-10त्न का भविष्य खतरे में है. वे सरकारी खर्च पर चल रहे विश्वविद्यालयों को छोड़ने को मजबूर न हो जाएं इसलिए राजनीति को इस्तेमाल करते हुए उस का विरोध कर रहे हैं.

जरूरत इस बात की है कि विश्वविद्यालीय राजनीति में एकता, समरसता, भाईचारे, विचारविमर्श, विश्लेषण व नई चेतना का वातावरण बनाएं और विश्वविद्यालयों को पोंगापंथी वह चाहे भगवाई हो, इसलामी या अंबेडकरवादी, से बचाएं.

तरकीब

रतन सिंह की निगाहें पिछले कई दिनों से झुमरी पर लगी हुई थीं. वह जब भी उसे देखता, उस के मुंह से एक आह निकल जाती. झुमरी की खिलती जवानी ने उस के तनमन में एक हलचल सी मचा दी थी और वह उसे हासिल करने को बेताब हो उठा था. वैसे भी रतन सिंह के लिए ऐसा करना कोई बड़ी बात न थी. वह गांव के दबंग गगन सिंह का एकलौता और बिगड़ैल बेटा था. कई जरूरतमंद लड़कियों को अपनी हवस का शिकार उस ने बनाया था. झुमरी तो वैसे भी निचली जाति की थी. झुमरी 20वां वसंत पार कर चुकी एक खूबसूरत लड़की थी. गरीबी में पलीबढ़ी होने के बावजूद जवानी ने उस के रूप को यों निखारा था कि देखने वालों की निगाहें बरबस ही उस पर टिक जाती थीं. गोरा रंग, भरापूरा बदन, बड़ीबड़ी कजरारी आंखें और हिरनी सी मदमस्त चाल.

इस सब के बावजूद झुमरी में एक कमी थी. वह बोल नहीं सकती थी, पर उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था. वह अपनेआप में मस्त रहने वाली लड़की थी. झुमरी घर के कामों में अपनी मां की मदद करती और खेत के काम में अपने बापू की. उस के बापू तिलक के पास जमीन का एक छोटा सा टुकड़ा था, जिस के सहारे वह अपने परिवार को पालता था. वैसे भी उस का परिवार छोटा था. परिवार में पतिपत्नी और 2 बच्चे, झुमरी और शंकर थे. अपनी खेती से समय मिलने पर तिलक दूसरों के खेतों में भी मजदूरी का काम कर लिया करता था. गरीबी में भी तिलक का परिवार खुश था. परंतु कभीकभी पतिपत्नी यह सोच कर चिंतित हो उठते थे कि उन की गूंगी बेटी को कौन अपनाएगा?

झुमरी इन सब बातों से बेखबर मजे में अपनी जिंदगी जी रही थी. वह दिमागी रूप से तेज थी और गांव के स्कूल से 10 वीं जमात तक पढ़ाई कर चुकी थी. उसे खेतखलिहान, बागबगीचों से प्यार था. गांव के दक्षिणी छोर की अमराई में झुमरी अकसर शाम को आ बैठती और पेड़ों के झुरमुट में बैठे पक्षियों की आवाज सुना करती. कोयल की आवाज सुन कर उस का भी जी चाहता कि वह उस के सुर में सुर मिलाए, पर वह बोल नहीं सकती थी. झुमरी की इस कमी को रतन सिंह ने अपनी ताकत समझा. उस ने पहले तो झुमरी को तरहतरह के लालच दे कर अपने प्रेमजाल में फांसना चाहा और जब इस में कामयाब न हुआ, तो जबरदस्ती उसे हासिल करने का मन बना लिया. रात घिर आई थी. चारों तरफ अंधेरा हो चुका था. आज झुमरी को खेत से लौटने में देर हो गई थी. पिछले कई दिनों से उस की ताक में लगे रतन सिंह की नजर जब उस पर पड़ी, तो उस की आंखों में एक तेज चमक जाग उठी.

मौका अच्छा जान कर रतन सिंह उस के पीछे लग गया. एक तो अंधेरा, ऊपर से घर लौटने की जल्दी. झुमरी को इस बात का एहसास ही नहीं हुआ कि कोई उस के पीछे लगा हुआ है. वह चौंकी तब, जब अमराई में घुसते ही रतन सिंह उस का रास्ता रोक कर खड़ा हो गया. ‘‘मैं ने तुम्हारा प्यार पाने की बहुत कोशिश की…’’ रतन सिंह कामुक निगाहों से झुमरी के उभारों को घूरता हुआ बोला, ‘‘तुम्हें तरहतरह से रिझाया. तुम से प्रेम निवेदन किया, पर तू न मानी. आज अच्छा मौका है. आज मैं छक कर तेरी जवानी का रसपान करूंगा.’’ रतन सिंह का खतरनाक इरादा देख झुमरी के सारे तनबदन में डर की सिहरन दौड़ गई. उस ने रतन सिंह से बच कर निकल जाना चाहा, पर रतन सिंह ने उसे ऐसा नहीं करने दिया. उस ने झपट कर झुमरी को अपनी बांहों में भर लिया.

झुमरी ने चिल्लाना चाहा, पर उस के होंठों से शब्द न फूटे. झुमरी को रतन सिंह की आंखों में वासना की भूख नजर आई. रतन सिंह झुमरी को खींचता हुआ अमराई के बीचोंबीच ले आया और जबरदस्ती जमीन पर लिटा दिया. इस के पहले कि झुमरी उठे, वह उस पर सवार हो गया. झुमरी उस के चंगुल से छूटने के लिए छटपटाने लगी. दूसरी ओर वासना में अंधा रतन सिंह उस के कपड़े नोचने लगा. उस ने अपने बदन का पूरा भार झुमरी के नाजुक बदन पर डाल दिया, फिर किसी भूखे भेडि़ए की तरह उसे रौंदने लगा. झुमरी रो रही थी, तड़प रही थी, आंखों ही आंखों में फरियाद कर रही थी, लेकिन रतन सिंह ने उस की एक न सुनी और उसे तभी छोड़ा, जब अपनी वासना की आग बुझा ली. ऐसा होते ही रतन सिंह उस के ऊपर से उठ गया. उस ने एक उचटती नजर झुमरी पर डाली. जब उस की निगाहें झुमरी की निगाहों से टकराईं, तो उस को एक झटका सा लगा. झुमरी की आंखों में गुस्से की चिनगारियां फूट रही थीं, पर अभीअभी उस ने झुमरी के जवान जिस्म से लिपट कर जवानी का जो जाम चखा था, इसलिए उस ने झुमरी के गुस्से और नफरत की कोई परवाह नहीं की और उठ कर एक ओर चल पड़ा.

इस घटना ने झुमरी को झकझोर कर रख दिया था. वह 2 दिन तक अपने कमरे में पड़ी रही थी. झुमरी के मांबाप ने जब उस से इस की वजह पूछी, तो उस ने तबीयत खराब होने का बहाना बना दिया था. कई बार झुमरी के दिमाग में यह बात आई थी कि वह इस के बारे में उन्हें बतला दे, पर यह सोच कर वह चुप रह गई थी कि उन से कहने से कोई फायदा नहीं. वे चाह कर भी रतन सिंह का कुछ बिगाड़ नहीं पाएंगे, उलटा रतन सिंह उन की जिंदगी को नरक बना देगा. इस मामले में जो करना था, उसे ही करना था. रतन सिंह ने उस की इज्जत लूट ली थी और उसे इस के किए की सजा मिलनी ही चाहिए थी. पर कैसे?

झुमरी ने इस बात को गहराई से सोचा, फिर उस के दिमाग में एक तरकीब आ गई. रात आधी बीत चुकी थी. सारा गांव सो चुका था, पर झुमरी जाग रही थी. वह इस समय अमराई से थोड़ी दूर बांसवारी यानी बांसों के झुरमुट में खड़ी हाथों में कुदाल लिए एक गड्ढा खोद रही थी. तकरीबन 2 घंटे तक वह गड्ढा खोदती रही, फिर हाथ में कटार लिए बांस के पेड़ों के पास पहुंची. उस ने कटार की मदद से बांस की पतलीपतली अनेक डालियां काटीं, फिर उन्हें गड्ढे के करीब ले आई. डालियों को चिकना कर उन्हें बीच से चीर कर उन की कमाची बनाईं, फिर उन की चटाई बुनने लगी. अपनी इच्छानुसार चटाई बुनने में उसे तकरीबन 3 घंटे लग गए.

चटाई तैयार कर झुमरी ने उसे गड्ढे के मुंह पर रखा. चटाई ने तकरीबन एक मीटर दायरे के गड्ढे के मुंह को पूरी तरह ढक लिया. यह चटाई किसी आदमी का भार हरगिज सहन नहीं कर सकती थी. सुबह होने में अभी चंद घंटे बचे थे. हालांकि बांसों के इस झुरमुट की ओर गांव वाले कम ही आते थे और दिन में यह सुनसान ही रहता था, फिर भी झुमरी कोई खतरा मोल लेना नहीं चाहती थी. उस ने जमीन पर बिखरे बांस के सूखे पत्तों को इकट्ठा कर उन का ढेर लगा दिया. इस काम से निबट कर झुमरी ने बांस की चटाई से गड्ढे का मुंह ढका, पर उस पर पत्तों को इस तरह डाल दिया, ताकि चटाई पूरी तरह ढक जाए और किसी को वहां गड्ढा होने का एहसास न हो. गड्ढे से निकली मिट्टी को उस ने अपने साथ लाई टोकरी में भर कर गड्ढे से थोड़ी दूर डाल दिया.

काम खत्म कर झुमरी ने एक निगाह अपने अब तक के काम पर डाली, फिर अपने साथ लाए बड़े से थैले में अपना सारा सामान भरा और थैला कंधे पर लाद कर घर की ओर चल पड़ी. 7 दिनों तक झुमरी का यह काम चलता रहा. इतने दिन में उस ने 7 फुट गहरा गड्ढा तैयार कर लिया था. गड्ढे में उतरने और चढ़ने के लिए वह अपने साथ घर से लाई सीढ़ी का इस्तेमाल करती थी. काम पूरा कर उस ने पत्ते डाले, फिर अपने अगले काम को अंजाम देने के बारे में सोचती. रतन सिंह ने झुमरी की इज्जत लूट तो ली थी, परंतु अब वह इस बात से डरा हुआ था कि कहीं झुमरी इस बात का जिक्र अपने मांबाप से न कर दे और कोई हंगामा न खड़ा हो जाए. परंतु जब 10 दिन से ज्यादा हो गए और कुछ नहीं हुआ, तो उस ने राहत की सांस ली. अब उसे रात की तनहाई में वो पल याद आते, जब उस ने झुमरी के जवान जिस्म से अपनी वासना की आग बुझाई थी. जब भी ऐसा होता, उस का बदन कामना की आग में झुलसने लगता था.

इस बीच रतन सिंह ने 1-2 बार झुमरी को अपने खेत की ओर जाते या आते देखा था, परंतु उस के सामने जाने की उस की हिम्मत न हुई थी. पर उस दिन अचानक रतन सिंह का सामना झुमरी से हो गया. वह विचारों में खोया अमराई की ओर जा रहा था कि झुमरी उस के सामने आ खड़ी हुई. उसे यों अपने सामने देख एकबारगी तो रतन सिंह बौखला गया था और झुमरी को देखने लगा था. झुमरी कुछ देर तक खामोशी से उसे देखती रही, फिर उस के होंठों पर एक दिलकश मुसकान उभर उठी. उसे इस तरह मुसकराते देख रतन सिंह ने राहत की सांस ली और एकटक झुमरी के खूबसूरत चेहरे और भरेभरे बदन को देखने लगा. इस के बावजूद जब झुमरी मुसकराती रही, तो रतन सिंह बोला, ‘‘झुमरी, उस दिन जो हुआ, उस का तुम ने बुरा तो नहीं माना?’’

झुमरी ने न में सिर हिलाया.

‘‘सच…’’ कहते हुए रतन सिंह ने उस की हथेली कस कर थाम ली, ‘‘इस का मतलब यह है कि तू फिर वह सब करना चाहती है?’’ बदले में झुमरी खुल कर मुसकराई, फिर हौले से अपना हाथ छुड़ा कर एक ओर भाग गई. उस की इस हरकत पर रतन सिंह के तनमन में एक हलचल मच गई और उस की आंखों के सामने वो पल उभर आए, जब उस ने झुमरी की खिलती जवानी का रसपान किया था. झुमरी को फिर से पाने की लालसा में रतन सिंह उस के इर्दगिर्द मंडराने लगा. झुमरी भी अपनी मनमोहक  अदाओं से उस की कामनाओं को हवा दे रही थी. झुमरी ने एक दिन इशारोंइशारों में रतन सिंह से यह वादा कर लिया कि वह पूरे चांद की आधी रात को उस से अमराई में मिलेगी. आकाश में पूर्णिमा का चांद हंस रहा था. उस की चांदनी चारों ओर बिखरी हुई थी. ऐसे में रतन सिंह बड़ी बेकरारी से एक पेड़ के तने पर बैठा झुमरी का इंतजार कर रहा था.

झुमरी ने आधी रात को यहीं पर उस से मिलने का वादा किया था, परंतु वह अब तक नहीं आई थी. जैसेजैसे समय बीत रहा था, वैसेवैसे रतन सिंह की बेकरारी बढ़ रही थी. अचानक रतन सिंह को अपने पीछे किसी के खड़े होने की आहट मिली. उस ने पलट कर देखा, तो उस का दिल धक से रह गया. वह झटके से उठ खड़ा हुआ. उस के सामने झुमरी खड़ी थी. उस ने भड़कीले कपड़े पहन रखे थे, जिस से उस की जवानी फटी पड़ रही थी. जब झुमरी ने रतन सिंह को आंखें फाड़े अपनी ओर देखा पाया, तो उत्तेजक ढंग से अपने होंठों पर जीभ फेरी. उस की इस अदा ने रतन सिंह को और भी बेताब कर दिया. रतन सिंह ने झटपट झुमरी को अपनी बांहों में समेट लेना चाहा, लेकिन झुमरी छिटक कर दूर हो गई.

‘‘झुमरी, मेरे पास आओ. मेरे तनबदन में आग लगी है, इसे अपने प्यार की बरसात से शांत कर दो,’’ रतन सिंह बेचैन होते हुए बोला. झुमरी ने इशारे से रतन सिंह को खुद को पकड़ लेने की चुनौती दी. रतन सिंह उस की ओर दौड़ा, तो झुमरी ने भी दौड़ लगा दी. अगले पल हालत यह थी कि झुमरी किसी मस्त हिरनी की तरह भाग रही थी और रतन सिंह उसे पकड़ने के लिए उस के पीछे दौड़ रहा था. झुमरी अमराई से निकली, फिर बांस के झुरमुट की ओर भागी. वह उस गड्ढे की ओर भाग रही थी, जिसे उस ने कई दिनों की कड़ी मेनत से तैयार किया था. वह जैसे ही गड्ढे के नजदीक आई, एक लंबी छलांग भरी और गड्ढे की ओर पहुंच गई. झुमरी के हुस्न में पागल, गड्ढे से अनजान रतन सिंह अचानक गड्ढे में गिर गया. उस के मुंह से घुटीघुटी सी चीख निकली.

कुछ देर तक तो रतन सिंह कुछ समझ ही नहीं पाया कि क्या हो गया है. वह बौखलाया हुआ गड्ढे में गिरा इधरउधर झांक रहा था, पर जैसे ही उस के होशोहवास दुरुस्त हुए, वह जोरजोर से झुमरी को मदद के लिए पुकारने लगा. परंतु उधर से कोई मदद नहीं आई. झुमरी की ओर से निराश रतन सिंह खुद ही गड्ढे से बाहर निकलने की कोशिश करने लगा. उस ने अपने दोनों हाथ ऊपर उठा कर गड्ढे के किनारे को पकड़ना चाहा, परंतु वह उस की पहुंच से दूर था. रतन सिंह ने उछल कर बाहर निकलने की 2-4 बार नाकाम कोशिश की. आखिरकार वह गड्ढे का छोर पकड़ने में कामयाब हो गया. उस ने अपने बदन को सिकोड़ कर अपना सिर ऊपर उठाया. उस का सिर थोड़ा ऊपर आया, तभी उस की नजर झुमरी पर पड़ी. उस के हाथों में कुदाल थी और उस की आंखों से नफरत की चिनगारियां फूट रही थीं. इस के पहले कि रतन सिंह कुछ समझता, झुमरी ने कुदाल का भरपूर वार उस के सिर पर किया.

रतन सिंह की दिल दहलाने वाली चीख से वह सुनसान इलाका दहल उठा. उस का सिर फट गया था और खून की धारा फूट पड़ी थी. गड्ढे का किनारा रतन सिंह के हाथ से छूट गया और वह गिर पड़ा था. गड्ढे में गिरते ही रतन सिंह ने अपना सिर थाम लिया. उस की आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा था और उस पर बेहोशी छाने लगी थी. उस के दिमाग में एक विचार बिजली की तरह कौंधा कि यह झुमरी का फैलाया हुआ जाल था, जिस में फंसा कर वह उसे मार डालना चाहती है. तभी रतन सिंह के सिर पर ढेर सारी मिट्टी आ गिरी. उस ने अपनी बंद होती आंखें उठा कर ऊपर की ओर देखा, तो झुमरी टोकरी लिए वहां खड़ी थी. अगले ही पल वह बेहोशी के अंधेरों में गुम होता चला गया. झुमरी ने मिट्टी से पूरा गड्ढा भर दिया, फिर उस पर पत्तियां डाल कर उठ खड़ी हुई. उस ने सिर उठा कर ऊपर देखा. आकाश में पूर्णिमा का चांद हंस रहा था. थोड़ी देर बाद झुमरी कंधे पर थैला लादे अपने घर को लौट रही थी.

कीट पतंगे बने हथियार

एक बार एक मधुमक्खी ने मेरी गरदन में डंक मारा तो मेरे पति फौरन घर के भीतर से आलू का आधा टुकड़ा काट कर लाए और फिर उसे डंक वाली जगह पर रख दिया. ऐसा करने से डंक का असर कम करने में मदद मिलती है, लेकिन कुछ दिनों तक दर्द बना रहता है. राजीव और सोनिया एक बार बच्चों के साथ पिकनिक मनाने गए थे. बच्चों में से किसी ने वहां ततैयों के छत्ते पर पत्थर मार दिया. फलस्वरूप ततैयों के झुंड ने सभी को कई डंक मारे. ये लोग कई दिनों तक बीमार रहे. अच्छी बात यह रही कि इन में से कोई भी जहर के प्रति ऐलर्जिक नहीं था, क्योंकि जो जहर के प्रति ऐलर्जिक होता है उस की तो एक ही डंक से जान पर बन आती है.

मधुमक्खी भी हैं खतरनाक: जब मधुमक्खी काटती है, तो वह मर जाती है, क्योंकि उस का डंक उस के पेट का हिस्सा होता है. डंक मारते समय यह व्यक्ति के शरीर में ही टूट जाता है. यदि डंक को शरीर से न निकाला जाए तो जहर फैलने लगता है और बहुत दर्द होता है. मधुमक्खियों का परागण के लिए बेहद महत्त्व है. इन का शहद भी लोग बड़े चाव से खाते हैं. 2000 से चलन में आए निकोटिनौइड पेस्टीसाइड्स ने इस प्रजाति को 70% तक खत्म कर दिया. पता नहीं हमारी युवा पीढ़ी ने मधुमक्खियों को देखा भी है या नहीं. आइए, आप को इन के उस समय में ले चलते हैं जब ये इतिहास बनाया करती थीं:

योद्धा मधुमक्खियां: ‘सिक्स लैग्ड सोल्जर्स’ किताब के अनुसार, युद्ध में मधुमक्खियों का प्रयोग पहली बार तब किया गया था जब इनसान गुफाओं में रहता था. युद्ध करने वाले कबीलों के लोग मधुमक्खियों के छत्तों को रात में उस समय काट लेते थे जब वे शांत होती थीं और घुसपैठियों को ठीक से देख नहीं पाती थीं. ये योद्धा छत्ते को गीली मिट्टी से ढक देते थे ताकि मधुमक्खियां छत्ते से बाहर न निकल सकें. फिर हमला करने से पहले इन छत्तों को दुश्मन की गुफाओं में फेंक देते थे. छत्ता टूटते ही गुस्से से पागल मधुमक्खियां बाहर निकल कर गुफा के लोगों को डंक मारने लगती थीं. गुफा के लोग बचने के लिए बाहर भागते थे तो वहां हमला करने वाले घात लगा कर बैठे रहते थे.

बाइबल के पुराने विधान में मधुमक्खियों, ततैयों को हमला करने के लिए इस्तेमाल करने की युक्ति स्पष्ट रूप से दर्ज है. जोशुआ के अध्याय 24:12 के अनुसार, ‘‘मैं ने दुश्मनों को बाहर खदेड़ने के लिए ततैये भेजे हैं जो उन को बाहर निकाल लाएंगे, यहां तक कि अमोराइट के 2 राजाओं को भी.’’ एग्जोडस के अनुसार, ‘‘और मैं उन के लिए ततैये भेजूंगा जो हिवाइट, द कैनानाइट और द हाइटाइट को बाहर निकाल लाएंगे.’’

इतिहास: प्राचीनकाल के नाइजीरियाई कबीले के लोगों ने मधुमक्खियों की तोपें तैयार की थीं. इन तोपों में एक खास तकनीक से मधुमक्खियों को भर कर दुश्मनों पर दागा जाता था. मायन समुदाय ने एक अनूठा हथियार बनाया था. योद्धाओं के पुतले तैयार कर के ये लोग उन के सिरों में मधुमक्खियां ठूंस देते थे. दुश्मन जब इन पुतलों के सिर पर वार करता था तो ये मधुमक्खियां झुंड में इन पर टूट पड़ती थीं.

मिडल ईस्ट की सेनाएं तो और भी ज्यादा चतुर निकलीं. यहां मिट्टी के बरतन बनाने वाले महारथियों ने कीटपतंगों को आकर्षित करने के लिए मिट्टी के ऐसे कंटेनर बनाए, जिन में कीट अपना ठिकाना बना लेते थे. जब दुश्मनों पर इन कंटेनरों का इस्तेमाल करना होता था तो ये लोग इन्हें घासफूस से ढक कर इन की तरफ फेंकते थे. मधुमक्खियों से हमले की सफलता को देखते हुए बाद में चींटियों और बिच्छुओं पर भी प्रयोग किए गए. समय बदला हथियार नहीं: जैसेजैसे शहरों की तरक्की होती गई वैसेवैसे शहरों और राज्यों के बीच युद्ध भी बढ़ते गए. शहरों के आसपास का इलाका बढ़ता गया और हर शहर एक किले में बदल गया. किले पर हमला करने वाले योजना बना कर किले के चारों तरफ डेरा जमा लेते थे ताकि किले को पहुंचने वाला खानापानी रोक सकें. ये किले के भीतर चुपचाप घुसने के लिए सुरंगें भी बनाते थे.

400 ईसापूर्व युद्ध रणनीतिज्ञ एनियस ने छोराबंदी से निबटने के तरीकों पर एक किताब लिखी थी. घेराबंदी में फंसे लोगों को सलाह देते हुए उस ने कहा था कि जिन सुरंगों से घुस कर दुश्मन आने वाला है उन में ततैयों और मधुमक्खियों को छोड़ दो. रोम की सेना मधुमक्खियों और अन्य कीटों को अपने साम्राज्य विस्तार के लिए प्रमुख हथियार के रूप में इस्तेमाल करती थी. प्लीनि, जिसे अपने समय का सब से जानकार प्रकृति विज्ञानी माना जाता था, उस ने प्रकृति के जीवजंतुओं के बारे में सब बकवास बातें लिखी हैं. उस ने यह भी कहा था कि इनसान को मौत के घाट उतारने के लिए 27 डंकों की जरूरत पड़ती है. रोम में मधुमक्खियों से हमला करने का तरीका इतना ज्यादा प्रचलित हुआ कि रोमन साम्राज्य के दौरान मधुमक्खियों के छत्ते दिखना ही कम हो गए थे.

मधुमक्खियां बनीं अचूक हथियार: रोमन साम्राज्य के दौरान ही किलों को सुरक्षित रखने का यह तरीका आम हो गया था. इंगलैंड के चैस्टर पर  हमला करने के लिए स्कैंडीनैविएंस ने सुरंगें बनाई थीं. चैस्टर के निवासियों ने इस हमले से बचने के लिए मधुमक्खियों को इन सुरंगों में छोड़ दिया, जिस की वजह से दुश्मनों को भागना पड़ा. इस घटना के 700 सालों के बाद स्कैंडीनैविएंस ने सिटी औफ किसिंजेन पर हमला किया और बचाव में यहां के निवासियों ने इन पर मधुमक्खियां छोड़ दीं. इस बार हमला करने वाले मधुमक्खियों से बचने के लिए पूरी तरह तैयार थे, लेकिन उन के घोड़े मधुमक्खियों की वजह से परेशान हो गए और इधरउधर भागने लगे. इस तरह यह हमला भी असफल रहा.

धीरेधीरे पूरे यूरोप ने इस तरीके को अपना लिया. जरमन ने आस्ट्रियन के खिलाफ, ग्रीक ने लुटेरों से बचने के लिए, तो हंगरी के लोगों ने तुर्क हमले से बचाव के लिए इस तरीके का इस्तेमाल किया. यहां तक कि यूनाइटेड किंगडम के ज्यादातर शहरों में भी बड़े स्तर पर मधुमक्खी पालन शुरू कर दिया गया, खासतौर पर स्काटलैंड में. आज भी कहींकहीं इस के निशान देखने को मिल जाते हैं. शेर दिल के नाम से प्रसिद्ध किंग रिचर्ड, जिन का नाम तक रोबिन हुड की कहानियों में नहीं मिलता, ने मुसलिम साम्राज्य पर हमला करने के लिए इंगलैंड छोड़ा था. इस लड़ाई को धर्मयुद्ध के नाम से जाना गया था. इस लड़ाई के बाद किंग रिचर्ड का ‘शेर दिल’ उपनाम ‘बी आर्म्ड’ में बदल गया था, क्योंकि रिचर्ड युद्ध में मधुमक्खियों से हमले की तकनीक का इस्तेमाल करता था.यहां तक कि समुद्री लड़ाइयों में भी 300 बीसी के दौरान इस तकनीक का इस्तेमाल शुरू हो गया था. जहाजों में मधुमक्खियों को ले जाया जाता था और दूसरे जहाजों पर इन के छत्ते फेंक कर हमला किया जाता था. 16वीं शताब्दी तक इसी तरह हमले किए गए. बौमबार्ड शब्द, जिस का अर्थ बड़ी संख्या में अस्त्र या गोले चलाना है, लैटिन शब्द बौमबस से बना है. बौमबस का मतलब है गुंजायमान करना.

भारत में खुला पहला समलैंगिक मैट्रिमोनियल

आज तक आप ने केवल लड़के और लड़कियों के लिए मैट्रिमोनियल साइट्स के बारे में सुना होगा, लेकिन अब समलैंगिकों के लिए भी भारत में पहला मैरिज ब्यूरो खोला गया है, जिस के जरिए अब गे और लैस्बियन भी भारत और विदेशों में अपना सही पार्टनर खोज पाएंगे.

किस ने की है शुरुआत

यह मैरिज ब्यूरो गुजरात के एक एनआरआई बेनहर सैमसन ने खोला है. सैमसन इस से पहले 2013 में गे कम्यूनिटी के लिए सेरोगेसी में मदद कर रहे हैं. सैमसन बताते हैं कि इस मैरिज ब्यूरो पर काम शुरू किए अभी सिर्फ 3 महीने हुए हैं. अब तक हमें करीब 250 इंक्वारी आई हैं और 24 लोगों ने नाम एनरोल कराया है. अभी इन के मैच को ढूंढ़ा जा रहा है. पार्टनर मिल जाने पर उस शख्स को 5 हजार डौलर (करीब 3.3 लाख) का भुगतान करना पड़ेगा.

क्या है उद्देश्य

इस मैरिज ब्यूरो का मुख्य उद्देश्य समलैंगिकों को भारत और विदेशों में सही पार्टनर खोजने में मदद करना है. इस मैरिज ब्यूरो का दावा है कि ये गे और लेस्बियन कम्युनिटी में चाहें कोई डाक्टर, इंजीनियर हो या आईआईटी, एक्टर या फिर कोई और उसे सही पाट्रनर खोज कर दिया जाएगा.

बदहाल अस्पतालों की बलि चढ़ती बेहाल जननी

राजस्थान में उदयपुर के महाराणा भूपाल के सरकारी अस्पताल में पेट से हुई एक बीमार औरत 12 घंटे तक वार्ड की खींचतान में फंसी रही. डाक्टरों की लापरवाही की वजह से समय पर इलाज नहीं हो पाने के चलते आखिरकार उस ने दम तोड़ दिया. जानकारी के मुताबिक, उदयपुर के कोटडा इलाके के पिलका गांव की 35 साला मोहिनी गरासिया 8-9 महीने के पेट से थी. पेट में दर्द उठने पर उसे गांव के ही सामुदायिक अस्पताल में दिखाया गया, जहां इलाज नहीं होने पर जांच के बाद उसे उदयपुर के सब से बड़े सरकारी अस्पताल के जनाना वार्ड में भरती कराया गया. लेकिन डाक्टरों ने मामूली बुखार बताते हुए उसे मामूली बीमारी वाले वार्ड में रैफर कर दिया. मामूली बीमारी वाले वार्ड के डाक्टरों ने भी उस का इलाज किए बिना ही डिलीवरी का केस बताते हुए वापस जनाना वार्ड में भेज दिया, लेकिन वहां भी मामूली जांच के बाद उसे फिर से जनरल वार्ड में भेज दिया गया.

बारबार इधर से उधर वार्ड के चक्कर लगाने के दौरान मोहिनी की तबीयत ज्यादा खराब हो गई और उस ने वार्ड के बीच बरामदे में ही दम तोड़ दिया. बाद में जब पूरे मामल की जांच की गई, तो मोहिनी के मरने की वजह उस के पेट में पल रहे बच्चे की 12 घंटे पहले हुई मौत से उस के भी बदन में जहर फैलने को बताया गया. बूंदी जिले की नैनवां तहसील के गांव हीरापुरा की रहने वाली मंजू के साथ जो हुआ, उस तरह का दर्द हर दिन राजस्थान के गंवई इलाकों की सैकड़ों औरतों को झेलना पड़ता है. दरअसल, हर राज्य सरकार ने गंवई और कसबाई इलाकों के सरकारी अस्पतालों में जरूरतमंद पेट से हुई औरतों को खून चढ़ाने के लिए ब्लड स्टोरेज यूनिट तो बना दी है और बदोबस्त दुरुस्त रखने के लिए आपरेशन थिएटर भी बना दिए हैं, लेकिन इन को सही तरह से चलाने के मामले में सेहत महकमा फेल नजर आ रहा है.

कुछ चुनिंदा जगहों को छोड़ कर तमाम अस्पतालों की ब्लड स्टोरेज यूनिटें बंद पड़ी हैं, लाखों रुपए के औजार व सामान धूल खा रहे हैं. इन सब खामियों के चलते गंवई इलाके की पेट से हुई औरतों की जान पर आफत बनी हुई है. कुछ महीने पहले हीरापुरा गांव की मंजू को बच्चा जनने की हालत में नैनवां के सरकारी अस्पताल में भरती कराया गया था. बदन में खून की कमी के चलते डाक्टरों ने मंजू का आपरेशन करने से पहले 3 यूनिट खून की जरूरत बताई. डाक्टरों ने मंजू के परिवार वालों से खून का बंदोबस्त करने के लिए आधा घंटे का समय दिया. उन्होंने जब अस्पताल में बनी ब्लड स्टोरेज यूनिट से ही खून देने की मांग डाक्टरों से की, तो डाक्टरों ने ब्लड यूनिट के खराब होने की बात बताई.

ऐसे हालात में शहर का अस्पताल दूर होने के चलते खून का बंदोबस्त वक्त पर नहीं हो पाया. इस दौरान मंजू की तबीयत बिगड़ती देखी, तो डाक्टरों ने बिना खून चढ़ाए ही आननफानन उस का आपरेशन कर दिया. लेकिन इस आपरेशन के महज एक घंटे बाद ही मंजू की मौत हो गई

ऐसे होते हैं डाक्टर

तय है कि जब किसी औरत को बच्चा जनने का दर्द उठता है, तो उस के पैर सीधे अस्पताल की ओर ही उठते हैं और वहां डाक्टरों के हाथों में ही सबकुछ होता है. भारत में ज्यादातर 2 तरह के अस्पताल हैं, एक सरकारी व दूसरे गैरसरकारी. सरकारी अस्पतालों में कदम रखते ही दिल में चुभन करने वाली बातों का सामना करना होता है. जैसे ‘सीधे खड़ी रह’, ‘लाइन में लग जा’, ‘नाटक मत कर’ वगैरह.

फिर बारी आती है चैकअप की. मुंह पर कपड़ा बांधे जो औरत आती है, वह डाक्टर है भी या नहीं, यह पता करना बहुत मुश्किल होता है. वह चैकअप के दौरान जिन शब्दों का इस्तेमाल करती है, कानों में गरम सीसे की तरह पिघलते हैं और बच्चा जनने का ख्वाब खौफनाक बन जाता है. फिर नंबर आता है बच्चा जनने का. यहां भी डाक्टर अपनी ही सहूलियत का ध्यान रखते हैं. बात सिजेरियन की ही नहीं, बल्कि सामान्य डिलीवरी केस में भी कोशिश यही होती है कि बच्चा दिन में ही पैदा हो, ताकि रात को उन की नींद में कोई खलल न पड़े. वैसे, बच्चा पैदा करना एक आसान बात है. बच्चे के पैदा करने में खास रोल उस की मां का होता है. उस की अंदरूनी ताकत ही उसे बच्चा जनने को उकसाती है. डाक्टर, नर्स, दाई वगैरह का काम तो इस ताकत को बढ़ावा देना होता है.

जयपुर में एक जनाना अस्पताल की हैड विमला शर्मा की मानें, तो अगर बच्चा जनने के दौरान किसी औरत के साथ कठोर बरताव होता है, तो वह खुल कर दर्द सहन नहीं कर पाती और ज्यादातर केस इसी वजह से बिगड़ते हैं. फिर भी आम लोगों का डाक्टरों पर यकीन पूरी तरह से कायम है, लेकिन डाक्टरों के पास इतना समय नहीं होता कि वे औरत में बच्चा जनने के कुदरती दर्द का इंतजार कर सकें. वे अपनी सहूलियत के मुताबिक दर्द देने वाली दवाओं का इस्तेमाल करने की कोशिश में लग जाते हैं.

लापरवाही डाक्टरों की

लक्ष्मी एक पढ़ीलिखी औरत है. पहला बच्चा होने के समय घर वाले उसे गांव के अस्पताल ले आए. दर्द के झटके तो शुरू हो गए थे, पर पूरी तरह दर्द शुरू नहीं हुआ था. जिस यूनिट में वह भरती हुई थी, उस यूनिट की हैड को कुछ दिनों के लिए छुट्टी पर जाना था, इसलिए उसे दवाओं से दर्द उठाने के इंजैक्शन दिए गए. जो दर्द नौर्मल तरीके से उठना था, उसे जबरदस्ती तकलीफदेह बनाया गया. एक और दूसरे मामले में डाक्टर द्वारा दी गई बच्चा जनने की तारीख के बाद भी नमिता को दर्द शुरू नहीं हुआ, तो उसे दर्द देने वाली दवा का इंजैक्शन लगाया गया. इस से दर्द तो शुरू हो गया, पर यह दर्द शुरू होतेहोते रात हो गई. क्योंकि डाक्टर का अपना बच्चा छोटा था, इसलिए उस का घर पर जाना जरूरी था. नतीजतन, नमिता की ड्रिप बंद कर दी गई. मामला सिजेरियन आपरेशन तक पहुंच गया.

अगर बच्चा जनने के मामले में डाक्टर से ले कर पूरे स्टाफ तक का रवैया मरीज के प्रति सही नहीं होता है, तो डाक्टर की इतनी जरूरत क्यों? फिर एक सवाल यह भी उठता है कि क्या हमारी पुरानी व्यवस्था ही सही थी?

दिमागी तौर पर रहें तैयार

डाक्टर विमला शर्मा कहती हैं, ‘‘बच्चे को जनने वाली मां अपने मन से बच्चा जनने का डर बाहर निकाले. एक जान को अपने भीतर पालने वाली औरत में बहुत ताकत होती है. जरूरत है, तो बस उसे पहचानने की. बच्चे को नौर्मल तरीके से पैदा करने में मां को ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती. बस, उसे खुद को दिमागी तौर पर तैयार करना होता है.’’ 

दलित जब घोड़ी चढ़ा, अगड़ों का पारा बढ़ा

67वें गणतंत्र दिवस के ठीक अगले दिन 27 जनवरी की सुबह का वक्त था. एक दूल्हा सजासंवरा घोड़ी पर सवार था. बराती नाचगा रहे थे. यह ठीक वैसा ही नजारा था, जैसे आम बरातों में होता है, लेकिन सब से अजीब अगर कुछ था, तो वह थी उस बरात में हथियारबंद पुलिस वालों की मौजूदगी. इस नजारे के पीछे अहम वजह यह थी कि दूल्हा दलित था और उसे अगड़ों से खतरा था. अगड़ों का यह फरमान था कि कोई दलित घोड़ी चढ़ा, तो उसे अंजाम भुगतना होगा. गांव में दलित जाति के लोगों को शादी में घोड़ी पर सवार होने की इजाजत कतई नहीं थी. इसी डर की बदौलत दूल्हा बने सुनील के पिता गोरधनलाल ने पुलिस प्रशासन से सिक्योरिटी की मांग की थी.

गोरधनलाल रतलाम, मध्य प्रदेश के संदला इलाके के रहने वाले थे. अगड़ों के फरमान से सहमे दलित परिवार ने घोड़ी पर दूल्हे को चढ़ाने का फैसला कर के सिक्योरिटी मांगी, तो पुलिस की मौजूदगी में चढ़त हो गई.

सुनील घोड़ी पर सवार होने वाला अपने गांव का पहला दलित दूल्हा बन गया. गोरधनलाल खुश थे कि उन की पीढि़यों में पहली बार कोई घोड़ी पर इस तरह सवार हुआ था. बीएसएफ में नौकरी पाने और घोड़ी चढ़ने से सुनील भी खुश था. इस दौरान दर्जनों पुलिस वालों की मौजूदगी के चलते कोई फसाद नहीं हुआ. आजादी के बाद पहली बार ऐसा हुआ था, जब इस गांव का कोई दलित घोड़ी चढ़ा था. लेकिन प्रवीण भार्गव को घोड़ी न चढ़ने का मलाल जिंदगीभर रहेगा. दरअसल, प्रवीण की शादी जयपुर, राजस्थान के खिमाड़ा गांव में सीआईएसएफ की कांस्टेबल नीतू के साथ तय हुई थी. नीतू के गांव में किसी दलित दूल्हे को घोड़ी चढ़ने की इजाजत नहीं थी. अगड़ी जाति के लोगों ने इस दबंग परंपरा को कायम रखा हुआ था, जबकि नीतू और प्रवीण ऐसा चाहते थे. इसी के चलते नीतू ने शिकायत करते हुए पुलिस प्रशासनिक इंतजाम करा लिए थे. प्रशासन ने ही घोड़ी का इंतजाम भी किया था.

बरात की चढ़त के दौरान बात दूल्हे के घोड़ी चढ़ने की आई, तो अगड़ी जाति के लोगों ने विरोध करते हुए नारेबाजी शुरू की. विरोध करने वालों में धर्म के ठेकेदार भी थे. कोई अनहोनी न हो जाए, इसलिए पुलिस भी दबाव में आ गई. सालों पुरानी रूढि़वादी परंपरा कायम रही. यह घटना महज एक किस्सा बन कर रह गई. पिछले साल रतलाम जिले के नेगरून गांव में पवन के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. उस के गांव में किसी भी दलित को घोड़ी पर बैठ कर बरात निकालने की इजाजत नहीं थी, लेकिन उस ने ऐसा कर के परंपरा को तोड़ने की कोशिश की. पवन घोड़ी पर दूल्हा बन कर सवार हो गया. अगड़ी जाति के लोगों को यह पता चला, तो उन्हें बरदाश्त नहीं हुआ. उन्होंने एकत्र हो कर बरात में नाचगा रहे लोगों पर पथराव कर दिया. इस की सूचना पुलिस को दी गई. पुलिस मौके पर पहुंची. बाद में बरात पुलिस की सिक्योरिटी में निकाली गई और दूल्हे को सेहरे की जगह पथराव से बचने के लिए हैलमैट पहनना पड़ा. राजस्थान के पथरेड़ी गांव में एक नौजवान ने भी पुलिस की मौजूदगी में घोड़ी चढ़ कर इस परंपरा को तोड़ा. हालांकि अगड़ी जाति के लोगों ने अपनी घोड़ी देने से यह कहते हुए मना कर दिया था कि वह अछूत हो जाएगी. इस के बाद 30 किलोमीटर दूसे एक घोड़ी को लाया गया. सभ्य समाज में इस तरह की घटनाएं किसी कलंक से कम नहीं हैं. देश में दलितों के साथ होने वाला बरताव किसी से छिपा नहीं है. माली तौर और थोड़ी पहुंच वाले दलितों की बात छोड़ दी जाए, तो गरीब व दूरदराज इलाकों के दलितों की हालत में आज भी कोई बदलाव नहीं आ सका है.

देश में जातिगत भेदभाव की जड़ें बहुत गहरी हैं. नैशनल काउंसिल औफ एंप्लौइड इकोनौमिक रिसर्च की रिपोर्ट के मुताबिक, देश के 27 फीसदी से ज्यादा लोग किसी न किसी रूप में छुआछूत को मानते हैं. दलित सामाजिक, माली व पढ़ाई के मामले में पिछड़े हुए हैं. सदियों से वे अगड़ों का शिकार रहे हैं. देहात के इलाकों में उन के साथ मारपीट की घटनाएं आम हैं और रोजमर्रा के कामों में रचबस चुकी हैं. राष्ट्रीय अपराध रिकौर्ड ब्यूरो के मुताबिक, साल 2014 में दलितों के खिलाफ 47,064 अपराध हुए. दलितों के खिलाफ होने वाले अपराध का आंकड़ा घटने के बजाय बढ़ा है. साल 2010 में यह आंकड़ा 33,712, साल 2011 में 33,719, साल2012 में 33,655 और साल 2013 में 39,408 था.

राजनीतिक पार्टियां दलितों की हालत को ले कर चिल्लाती तो जरूर हैं, लेकिन उन की यह चिल्लाहट शायद वोट पाने तक ही सीमित होती है. भेदभाव और छुआछूत कभी सामाजिक और राजनीतिक मुद्दा नहीं बनते. हालत तब और भी शर्मनाक हो जाती है, जब देश के बड़े बदलाव की ताल बड़ेबड़े मंचों से ठोंकी जाती है

साथ खाना खाया तो काट दी नाक

सदियों से दलितों के साथ भेदभाव का सिलसिला तो जारी है ही, इस के साथ उन्हें दबंग अपने अंदाज में कानून से भी बड़ी कबीलाई सजाएं भी देते हैं. उत्तर प्रदेश के जालौन जिले के सुरपति गांव के अमर सिंह ने भी ऐसी ही दिल दहला देने वाली सजा भुगती. गांव में अगड़ी जाति से ताल्लुक रखने वाले लोगों के यहां वह मजदूरी करता था. उस परिवार में एक नौजवान की शादी हुई, तो अमर सिंह भी बरात में गया. उस ने दूसरे बरातियों के साथ बैठ कर खाना खाया, तो बात बिगड़ गई. दूल्हा व दुलहन पक्ष इस से नाराज हो गया.

लोगों ने कहा कि दलित के उन के साथ खाना खाने से उन की नाक कट गई. बरात जब गांव में वापस आई, तो आधा दर्जन दबंगों ने अमर सिंह को पकड़ कर उस की पिटाई की और कहा कि उस की वजह से उन की नाक कटी है, इसलिए अब उस की नाक काटी जाएगी. यह कहते हुए उन्होंने चाकू से उस की नाक को काट दिया. घटना की जानकारी होने पर अमर सिंह को उस के परिवार वाले साथ ले गए. बाद में पुलिस ने मामला दर्ज कर लिया.

टी-20 वर्ल्ड कप के बाद संन्यास लेंगे शेन वाटसन

ऑस्ट्रेलिया के हरफनमौला खिलाड़ी शेन वॉटसन ने अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट से संन्यास की घोषणा कर दी है. वह टी-20 विश्व कप के बाद ऑस्ट्रेलियाई टीम से विदा ले लेंगे. वॉटसन पहले ही टेस्ट क्रिकेट से संन्यास ले चुके हैं. उन्होंने बीते सात सितंबर के बाद से अपने देश के लिए वनडे क्रिकेट भी नहीं खेला है.

वॉटसन मौजूदा ऑस्ट्रेलियाई टीम में 2000 के दशक की उस टीम का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिसने कई सालों तक विश्व क्रिकेट पर राज किया था. वॉटसन का करियर 14 साल का है. क्रिकेट के तीनों प्रारूपों में ऑस्ट्रेलिया के कप्तान रह चुके वॉटसन ने यह भी कहा कि वह प्रथम श्रेणी क्रिकेट से भी संन्यास ले रहे हैं, जिसमें वह एशेज टूर के बाद से नहीं खेले हैं.

वॉटसन ने जिस दिन अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में पदार्पण किया था, उसी दिन उन्होंने संन्यास की घोषणा की. वॉटसन पहली बार 24 मार्च, 2002 को अपने देश के लिए सेंचुरियन में दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ वनडे मैच खेले थे. अब जबकि वह 34 साल के हो चुके हैं और पाकिस्तान के खिलाफ एक अहम टी-20 मुकाबले के लिए तैयार हैं, दो बच्चों के पिता वॉटसन ने साफ कर दिया कि उनके लिए अब जीवन के दूसरे चरण में प्रवेश का वक्त आ गया है.

शेन वॉटसन ने अपने देश के लिए 190 एकदिवसीय मैच, 56 टी-20 मैच और 59 टेस्ट मैच खेले हैं. वह क्रिकेट इतिहास के सात ऐसे खिलाड़ियों में शामिल हैं,जिन्होने 10 हजार से अधिक रन और 250 से अधिक विकेट लिए हैं. वॉटसन ने टेस्ट में 3731, एकदिवसीय मैचों में 5757 और टी-20 में 1400 रन बनाए हैं. टेस्ट में उनके नाम 75, एकदिवसीय मैचों में 168 और टी-20 मैचों में 46 विकेट दर्ज हैं.

पूनम पांडे ने ‘हॉट’ अंदाज में दिया टीम इंडिया को ये गिफ्ट

टी20 वर्ल्ड कप में बुधवार को भारत और बांग्लादेश के बीच हुआ मैच क्रिकेट की दुनिया के सबसे रोमांचक मैचों में शुमार हो गया है. आखिरी तीन गेंदों पर हुए कमाल की बदौलत हुए टीम इंडिया ने बांग्लादेश को महज एक रन से पराजित किया और इसी के साथ अपने सेमीफाइनल में खेलने की उम्मीदों को बरकरार रखा है. हालांकि टीम इंडिया को सेमीफाइनल में जाने के लिये रविवार को मोहाली में ऑस्ट्रेलिया को हराना पड़ेगा.

बांग्लादेश के खिलाफ मिली जीत से बॉलीवुड गर्ल पूनम पांडे भी बेहद खुश हैं. उन्होंने ट्वीट करते हुए धोनी ब्रिगेड के नाम एक 'छोटा सा' तोहफा दिया है. आप भी देखिए पूनम का ट्वीट…

अखिलेश सरकार पर भारी पड़ेगी सस्ती शराब

उत्तर प्रदेश की अखिलेश सरकार में चिकित्सा एवं स्वास्थ्य परिवार कल्याण तथा मातृ एवं शिशु कल्याण राज्यमंत्री शंखलाल माझी लखनऊ के होटल गोमती में महिला किसानों के कार्यक्रम में हिस्सा लेने आये थे. जब कार्यक्रम खत्म हो गया और चाय पीने का दौर चला, तो गोरखपुर जिले की कई महिलाओं ने मंत्री शंखलाल माझी को घेर लिया. सभी महिलाओं का एक ही कथन था कि शराब बंद होनी चाहिये. शंखलाल माझी ने किसी तरह से महिलाओं को समझाया और अपना पल्ला सा झाड लिया. मंत्री शंखलाल माझी के जाने  के बाद महिलाओं ने शराब से बरबाद हो रहे घरों की कहानी बतानी शुरू की. इससे पता चलता है कि प्रदेश में शराब को लेकर हालात बिगड रहे है. बिहार के विधानसभा चुनावों में शराबबंदी एक बडा मुद्दा बन गया था. जिसके चलते नीतीश सरकार ने 1 अप्रैल 2016 से बिहार में देशी शराब के बिकने और बनने पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा दिया है.

उत्तर प्रदेश और बिहार की राजनीतिक और सामाजिक हालात एक जैसे ही है. उत्तर प्रदेश में हर साल देशी शराब से सैंकडों लोगों की मौत होती है. शराब के नशे में लोग हत्या, आत्महत्या, लडाई, झगडा और घर जमीन को बेचने जैसे तमाम काम करते है. शराब का नशा घरेलू झगडों को बढा रहा है. इससे परेशान महिलायें चाहती है कि शराब बंद हो. अगर जातीय आधर पर देखें तो दलित और पिछडी जातियों में इसका ज्यादा असर हो रहा है. प्रदेश के इतिहास में पहली बार समाजवादी पार्टी की सरकार ने शराब के दामों में कमी की है. समाजवादी सरकार को शराब लाबी का पक्षधर माना जाता है. इस फैसले से यह बात भी साबित होती है. 1 अप्रैल से उत्तर प्रदेश में शराब पीने वालों के अच्छे दिन आ रहे है. शराब की बोतल 250 रूपये तक सस्ती होने जा रही है. सरकार का तर्क है कि सस्ती शराब के चक्कर में लोग जहरीली शराब पीकर जान जोखिम में डालते है. ऐसे में अंग्रेजी शराब सस्ती होगी तो लोग जहरीली शराब नहीं पियेगे.

सरकार के फैसले से ही उसकी नीयत झलकती है. सरकार ने देशी शराब की कीमत बहुत कम बढाई है. 64 रूपये में 180 मिलीलीटर मिलने वाली शराब अब 65 रूपये में मिलेगी. बीयर पीने से शहरों में युवाओं में नशे की शुरूआत होती है सरकार ने बीयर को केवल 5 रूपये कैन की दर से बढाया है. यह सच बात है कि आज के समय में विरोधी दलों के लिये यह मुद्दा नहीं है पर जनता नशे से परेशान है. नशे के खिलाफ समाज में एक अलग माहौल बन रहा है. ऐसे में विधानसभा चुनाव में अखिलेश सरकार का फैसला भारी पड सकता है. शराब समाज को तमाम तरह से खराब कर रही है. समय रहते सचेत होने की जरूरत है. शराब से जितना पैसा राजस्व के रूप में मिलता है उससे ज्यादा पैसा अस्पतालों में शराब से होने वाली बीमारियों के निदान पर खर्च हो जाता है.

सोनू निगम के बेटे निवान ने गाया गीत

यदि अभिनेता का बेटा अभिनेता बन सकता है, तो गायक का बेटा गायक क्यों नहीं बन सकता. जरुर बन सकता है. तभी तो मशहूर गायक सोनू निगम के लगभग नौ साल की उम्र के बेटे निवान निगम ने सोनू निगम के ही साथ निर्देशक आकाशदीप शब्बीर की फिल्म ‘‘संता बंता प्रा.लिमिटेड’’ के लिए एक गीत गाया है. फिल्म‘‘संता बंता प्रा.लिमिटेड’’ के लिए सोनू निगम ने एक गीत ‘‘मछली जल की रानी है..’’ रिकार्ड किया. बाद में उन्हे अहसास हुआ कि यदि इसकी कुछ लाइन बच्चा गए तो बच्चों के बीच यह गीत काफी लोकप्रिय हो सकता है. यही सोचकर उन्होंने अपने बेटे निवान से इस गीत की कुछ लाइने गंवायी. सूत्रों के अनुसार फिल्म के परदे पर इस गीत की अपने बेटे निवान द्वारा स्वरबद्ध लाइनों पर खुद सोनू निगम झूमते हुए नजर आएंगे.

यूं तो निवान निगम आठ माह की उम्र से ही गुनगुनाने लगा था. निवान ने महज चार साल से भी कम उम्र में लता मंगेशकर के साथ एक गीत ‘‘गीत कब सरहदें मानते है..’’ गाया था, जो कि काफी लोकप्रिय हुआ था. पर पहली बार निवान ने किसी फिल्म के लिए अपने पिता के  साथ गीत गाया है. अपने बेटे निवान की चर्चा करते हुए खुद सोनू निगम कहते हैं-‘‘निवान को संगीत ईश्वर प्रदत्त है. जब वह साढे़ आठ माह का था, तभी उसने कुछ गा दिया था. उसने साढ़े आठ माह की उम्र में मेरे साथ सुर लगाया था. उसकी रिकार्डिंग आज भी मेरे पास मौजूद है. उस वक्त मैंने उसका वीडियो बना लिया था. मुझमें और मेरे बेटे में बहुत समानताएं हैं. हमारे चेहरे मिलते हैं. हमारे हाथ मिलते हैं. वह भी मेरी तरह खुश आत्मा है. मैं भी खुश आत्मा हूं. मुझे सड़े हुए लोगों के साथ रहना पसंद नहीं. मेरा बेटा मुझसे भी ज्यादा खुश रहता है. वह एक अलग ही ‘खुश आत्मा’ हैं.’’ 

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