देश के विश्वविद्यालयों में राजनीति हो या न हो, रोहित वेमूला की आत्महत्या ने विवाद का मुद्दा खड़ा कर दिया है. रोहित वेमूला को अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की शिकायत पर केंद्रीय मंत्रियों की दखलंदाजी पर हैदराबाद विश्वविद्यालय के होस्टल से निकाल दिया गया था और उस की छात्रवृत्ति भी रोक दी गई थी. हर विश्वविद्यालय में राजनीतिक दलों की शाखाएं हैं और छात्रों को प्रवेश के साथ ही पौलिटिक्स का पाठ भी पढ़ाया जाना शुरू कर दिया जाता है.

1950-60-70 के दशकों में राजनीति अमीरीगरीबी के नारों के चारों ओर घूमती थी पर जब से आरक्षण का मामला गरमाया है, छात्र राजनीति पर जाति का रंग बुरी तरह चढ़ गया है. जैसे देश में कोनेकोने में जाति की खाइयां बनी हैं, वैसी ही विश्वविद्यालयों में बन जाती हैं और हरेक अपनेअपने द्वीप में ही रहने लगता है, वह दूसरे द्वीप वालों को दुश्मन मान कर रातदिन हमलों की तैयारी करता रहता है.

विश्वविद्यालयों में राजनीति का रंग इसलिए भी गहरा रहा है, क्योंकि इस उम्र में आते ही दिखने लगता है कि मौजमस्ती के दिन थोड़े से बचे हैं और अगर अपनी सही जड़ें नहीं जमाईं तो भविष्य क्या होगा मालूम नहीं. राजनीति में घुसने पर यह भरोसा हो जाता है कि और कुछ नहीं तो राजनीति से तो कुछ कमाया ही जा सकता है.

विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले तो थोड़े ही होते हैं. ज्यादातर को यही मालूम नहीं होता कि जो पढ़ रहे हैं उस से भविष्य बनेगा या नहीं. मैडिकल और इंजीनियरिंग में तो थोड़ा भरोसा होता है पर बाकी कोर्सों का क्या महत्त्व होता है, किसी को मालूम नहीं. राजनीति विश्वविद्यालय में बने रहने का एक पक्का उद्देश्य देती है.

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