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MRI बताएगी बच्चे के दुनिया में आने का सही समय

हर गर्भवती माँ जानना चाहती है की उसके गर्भ में पल रहा बच्चा दुनिया में कब आएगा. ऐसे में वह  अल्ट्रासाउंड तकनीक का सहारा लेती है, लेकिन यह तकनीक भी सही समय बताने में असफल रहती है .ऐसे में एमआरआई द्वारा बच्चे के आने का सही समय पता लगाया जा सकता है, क्योंकि समय से पहले डिलिवरी के बारे में जानकारी के लिए गर्भाशय क्षेत्र का एमआरआई अल्ट्रासाउंड की तुलना में ज़्यादा बेहतर परिणाम देता है .

स्पींजा विश्वविद्यालय द्वारा हाल में ही हुए एक शोध के अनुसार गर्भाशय ग्रीवा (यूटरिन सर्विक्स) का टाइम से पहले फैल जाने के कारण समय से पहले डिलीवरी होने का खतरा हो सकता है. गर्भावस्था की दूसरी तिमाही के दौरान अल्ट्रासाउंड में अगर गर्भाशय ग्रीवा का फैलाव 15 मिलीमीटर या उससे कम दिखता है तो उसे समयपूर्व प्रसव के उच्च खतरे की श्रेणी में रखा जाता है.समयपूर्व प्रसव का पहले अनुमान लगाने में अल्ट्रासाउंड की सीमाएं हैं, क्योंकि यह गर्भाशय के टीशूज़ में प्रसव से ठीक पहले के समय में बदलाव की महत्वपूर्ण जानकारी नहीं दे पाता .ऐसे में गर्भावस्था में समयपूर्व प्रसव को समझने के लिए गर्भाशय में  हो रहे बदलाव की सटीक जानकारी एमआरआई से मिल सकती है.

तो इस खेल का नाम है कौन बनेगा ‘होशियार’ पति

एक शादी का ब्रेनवार्मिंग नजारा-

लोकेशन- उत्तर प्रदेश, मैनपुरी

सीन- शादी का मंडप – आउटडोर

मुख्य कलाकार- खुशबू, ओमवीर सिंह और अन्य तमाशबीन बाराती

खुशबू सक्सेना की ओमवीर सिंह से शादी है. पंडितपुरोहित हवनकुंड की आग में घी डालते हुए हर वो मंतर पढ़ रहे हैं जो शायद ही किसी को आजतक समझ में आये हों. कहानी में ट्विस्ट तब आता है जब दुल्हन सरेआम शादी से पहले दूल्हे मियाँ का आईक्यू जांचने की जिद करने लगती है. लड़के वाले भौचक्के है. सोच रहे हैं कि दहेज़ या खाने में कमी या कार के मनमुताबिक मॉडल न मिलने पर पर नाराज होकर बारात वापस ले जाने का लोकतांत्रिक हक़ तो सिर्फ उनका था.

बहरहाल, लडकी इस सस्पेंस को तोड़ते हुए बताती है कि लड़का बुडबक टाइप का है. बातबात पर तुतलाता है. वह इस बीएपास लड़के का आईक्यू टेस्ट लेना चाहती है. खुशबू की यह बात सुनकर सब दंग. ये कैसी दुल्हन है जो बीच मंडप अपनी ही शादी खतरे में डाल रही है. खैर, बीच बरात अपनी जगहंसाई होते देख लड़के के भाई और दोस्त इस केबीसी की तर्ज पर होने वाली केबीएच यानी कौन बनेगा ‘होशियार’ पति खेलने को राजी हो जाते हैं.

पहले और आसान सवाल के तौर पर खुशबू ने ओमवीर से मोबाइल में अपना मोबाइल नंबर डायल करने को कहा, लेकिन वो अपना नंबर भूल गया. पहले ही पड़ाव पर औन्धे मुंह गिरने के बाद ओमवीर से अगले सवाल में दुल्हन ने 69 और 79 में फर्क पूछा तो ओमवीर की वीरता फिर फुस्स हो गई. इसके बाद खुशबू ने ओमवीर को कुछ सिक्के दिए और उससे उन्हें जोडऩे को कहा लेकिन वो उसे नहीं कर पाया.

कौन बनेगा ‘होशियार’ पति के आखिरी पड़ाव तक आते आते ओमवीर की सारी लाइफ लाइनें पानी मांग रही थी. कोई कमर्शियल ब्रेक भी नहीं मिल रहा था. लिहाजा मंडप की हौटसीट जो अब उबल रही थी, पर बैठे ओमवीर से आखिर आसान सवाल पर खुशबू ने उसे एक टच स्क्रीन फोन दिया और इसे यूज करने को कहा, लेकिन वो फोन को यूज नहीं कर पाया. फोन के एप्स को देखकर उलझ गया. कार्यक्रम के समाप्त होने की घोषणा करते हुए खुशबू ने ओमवीर को पवेलियन का रास्ता दिखाते हुए अपनी शादी तोड़ दी. लड़केवाले गिड़गिड़ाए लेकिन ख़ुशबू ने बारात लौटा दी.

अब ओमवीर फ़्लैशबैक में है.जब वह खुशबू को देखने आया था. उस दिन तो सवालों की बौछार कर दी थी. लडकी कितना पढी है, खाना क्या क्या बना लेती है, गानाबजाना जानती है, चलकर दिखाओ कहीं लंगडी तो नहीं है,  लेकिन अब फ्लैश बैक से क्या होगा. अब तो कहानी के क्लाइमैक्स तक आतेआते ओमवीर पिटे हुए विलेन की तरह बिन दुल्हन  के घर लौटा है.

– उत्तर प्रदेश के मैनपुरी में बीते दिनों हुई इस अनोखी और अधूरी शादी में जो अदम्य साहस का परिचय खुशबू ने दिया है, वो सबक है हर उस लड़की के लिए जो ऐसे ही न जाने कितने अनपढ़, गंवार ओमवीरों से शादी कर उनके घरों में मांबाप की आज्ञा मानकर सर झुकाए चली जाती हैं. अपनी काबिलियत के हिसाब से वर की चाह लड़का और लडकी दोनों का हक़ होता है और अगर कोई रीतिरिवाज और संस्कारों के नाम पर लड़की से उसका यह हक़ छीने तो उसे भी खुशबू की तरह कौन बनेगा ‘होशियार’ पति खेलकर सरेआम ऐसा ही तमाचा मारना चाहिए. शर्म, संकोच और धर्म आदि नियमों से अगर खुशबू भी घबराती तो सारी ज़िंदगी नरक भरा जीवन जीने पर मजबूर होती.

बिटिया ने बढ़ाया पिता का मान

सम्मान और सफलता समाज में व्यक्ति की हैसियत की मोहताज नहीं होती. मेहनत और लगन ही उस की जिंदगी की सच्ची तस्वीर बनाते हैं. रांची के साधारण से औटोचालक शिवनारायण ने कहां सोचा था कि वो कभी अपनी बिटिया को पद्मश्री अवार्ड से सम्मानित होते हुए देखेंगे. सिर्फ पद्मश्री ही नहीं, उन्हें 2012 में खेल से जुड़ा दूसरा सब से बड़ा अवार्ड, अर्जुन अवार्ड समेत और भी कई सम्मान मिल चुके हैं.

रांची से 15 किमी दूर, एक छोटे से गांव में रहने वाली दीपिका कुमारी ने तीरंदाजी के क्षेत्र में महिलाओं का परचम लहराया है. औटोचालक पिता और नर्स मां की बेटी दीपिका कुमारी बचपन में पेड़ से आम तोड़ती और लकड़ी के बने तीर धनुष से निशाने लगाती थीं. आज वह छोटी सी उम्र में ही इतनी बड़ी तीरंदाज बन गईं कि उन का नाम फोर्ब्स पत्रिका के ‘30 अंडर 30’ की फेहरिश्त में शामिल हो चुका है.

वर्ष 2013 में उन्होंने मेडिलिन के आर्चरी वर्ल्ड कप में देश के लिए गोल्ड मैडल जीता था और नवंबर 2015 में सिल्वर मैडल हासिल किया. हाल ही में उन्हें पद्मश्री अवार्ड हेतु दिल्ली बुलाया गया. बेटी की सफलता से गदगद मांबाप के लिए यह सब एक सपने जैसा था. अपनी बेटी का अवार्ड थामे मातापिता गत 30 मार्च को गरीब रथ एक्सप्रेस ट्रेन से रांची स्टेशन पर उतरे तो उन की सादगी देखते ही बनती थी. पिता स्वयं औटो चला कर घर की तरफ रवाना हुए और पीछे बेटी के मैडल को संभाले मां बैठी थीं. दीपिका कुमारी दिल्ली से ही तुर्की जा चुकी थी.

दिग्विजय सिंह के ‘मन की बात’

अपने राजनैतिक जीवन के कठिन दिन जैसे तैसे काट रहे कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह इन दिनो वाकई ज्यादा परेशान हैं, इसकी वजहें कई हैं पर इनमें सबसे बड़ी यह है कि वे अपनी धार और पैनापन खोते जा रहे हैं. हालांकि बढ़ती उम्र के चलते यह स्वभाविक भी है. लेकिन उन्हे नज़दीक से जानने वाले इस बात पर भी हैरान हैं, कि आरएसएस के प्रति उनके तेवर पहले से सख्त और तार्किक नहीं रह गये हैं. अब दिग्विजय ने  ट्वीट कर प्रधानमंत्री पर ताना यह कसा है कि पार्टनर न हो तो मन की वात सार्वजनिक रूप से करना पड़ती है.

इस ताने के अपने मायने हैं कि नरेंद्र मोदी ने अपनी पत्नी जसोदा बेन को घोषित तौर पर छोड़ रखा है, लेकिन इस बात पर उम्मीद के मुताबिक बवाल नहीं मचता. पत्नी को छोड़ना कोई संगीन गुनाह भी नहीं है, बशर्ते पत्नी कोई गंभीर आरोप पति पर न लगाये. जसोदा बेन ने अभी तक तो पति की शान के खिलाफ कोई वात नहीं कही है, लेकिन दिग्विजय की मंशा यह है कि यह मामला तूल पकड़े, क्योंकि लाख कोशिशों के बाद भी कांग्रेस मोदी को घेर नहीं पा रही है.

भाजपा खेमे ने दिग्विजय के इस तंज़ को नज़रंदाज़ कर देना ही बेहतर समझा, वजह इस पर दी गई कोई भी प्रतिक्रिया दिग्विजय की मंशा को पूरा करने वाली बात होती. यही वात दिग्विजय की घटती साख की वजह है कि अब लोग उनका अभिप्राय समझने लगे हैं, जबकि कामयाब राजनेता होने की पहली शर्त यह भी होती है कि आप के मन की वात पत्नी भी न समझ पाये, रही वात पत्नियों से मन की बात साझा करने कि तो हर समझदार पति पत्नी को मन की बताता कम है छुपाता ज्यादा है.

उधर भाजपा खेमे से आई तत्कालिक प्रतिक्रिया भी कम दिलचस्प नहीं थी कि पार्ट्नर इतने भी नहीं होने चहिये कि मन की बात सुनने में आपस मे झगडा करने लगें. जाहिर है इशारा दिग्विजय की नई पत्नी अमृता राय की तरफ़ था, यानि एक गम्भीर मसले को भाजपा फाग के हँसी मजाक मे समेटने मे कामयाब रही, लेकिन जोश जोश मे अगर कोई भाजपाई इस पर बोला, जिसकी उम्मीद कम ही है तो वह अपने नेता को ही परेशानी मे डालने वाली बात होगी. राजनीति मे व्यक्तिगत मामलों पर कटाक्ष करना नई वात नहीं, पर दिग्विजय के ट्वीट से यह बात तो उजागर हुई कि नरेंद्र मोदी को भगवान साबित करना आसान काम नहीं है. एक कमजोरी उनकी जिंदगी मे भी है जिसे दिग्विजय सरीखे धुर विरोधी जब तब उठाकर फ़साद खड़ा करने की कोशिशों से बाज नहीं आयेंगे.

ऐसे काम करेगा मध्य प्रदेश में हैप्पीनेस मंत्रालय

मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने नया ऐलान यह किया है कि जल्द ही प्रदेश मे हैप्पीनेस मंत्रालय खोला जायेगा, जिसका काम लोगों को खुश करने के तौर तरीकों को बढ़ावा देना होगा. भाजपा की एक मीटिंग को सम्बोधित करते करते वे राजनीति की ज़मीन से छलाँग लगाते दर्शन शास्त्र के छज्जे पर चढ़े तो मानव दुखों पर व्याख्यान देने लगे कि हर कोई दुखी है. यहां तक कि मंत्री ओर मुख्य मंत्री भी सुखी और खुश नहीं हैं. फ़िर आम आदमी के दुखों की वजहों का तो अंत ही नहीं. इसलिये मध्य प्रदेश मे खुशी मंत्रालय खोला जायेगा, जो लोगों को खुश करने के तरीकों पर अमल करेगा.

मसलन जो लोग नॄत्य संगीत से खुश होते हैं उनके लिये नाच गाने के समारोह आयोजित किये जायेंगे, जिन्हे खेल से खुशी मिलती है उन्हे खिलाया जयेगा और मुद्दे की बात जिन्हे धर्म से खुशी मिलती है उनके लिये धार्मिक आयोजन किये जायेंगे, यानि किसी भी कीमत पर किसी को दुखी नहीं रहने दिया जयेगा. कभी बुद्ध भी मानव मात्र के दुख दूर करने आधी रात को पत्नी बच्चों को सोता छोड़ राज़ पाट त्याग कर खिसक लिये थे, पर शिवराज कुर्सी पर बैठे बैठे लोगों के दुख दूर करना चाहते हैं, तो कहा जा सकता है आइडिया बुरा नहीं, बशर्ते इसकी आड़ मे धर्म गुरुओं को रोजगार देने की उनकी मंशा न हो, नहीं तो खुश और सुखी रहने का एक मात्र उपाय इन्ही के पास है कि दक्षिणा चढ़ाओ और दुख भूल जाओ.

हैप्पीनेस मिनिस्ट्री शुरू करने का दूसरा पहलू यह स्वीकरोक्ति भी है कि लोग शिवराज के कार्यकाल से खुश नहीं हैं, इसलिये खुशी का उत्पादन वितरण और संचार सरकार खुद करे और सार रुप मे यह कहे कि दरअसल मे तुम जिसे दुख समझ रहे हो, वह दुख नहीं एक मानसिक अवस्था है, जिसका व्यवस्था से कोई लेना देना नहीं. इसलिये तुम इसी मे खुशी ढूँढ़ लो. पटवारी या कोई इंसपेक्टर घूस मांगे तो किल्पौ मत, खुशी खुशी दे दो, खाना नहीं है तो एक थाली की कल्पना करो, जो छप्पन व्यंजनों से सजी है, बच्चों को नौकरी नहीं मिल रही है तो परेशान मत हो, उल्टे खुश हो कि वे हम्माली करने से बचे हैं. मकान का तनाव ती बिल्कुल मत पालो क्योंकि पूरी दुनिया तुम्हारा घर है. लोकतंत्र मे प्रजा की इस हद तक चिंता आज कल कोई नेता नहीं करता सब के सब ज़मीन जायदाद बनाने और भाईयो व सालों को पैसा कमाने की खुली छूट दिये हुये भ्रष्टाचार मे लिप्त हैं. ऐसे मे शिवराज की यह पहल वाकई स्वागत योग्य है.

मोदी पास आए, नीतीश मुस्कुराए

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार एक दूसरे को देख कर क्या मुस्कुराए कि बिहार के राजनीतिक गलियारों में हलचल और कानाफूसी का दौर थमने का नाम नहीं ले रहा है. मोदी और नीतीश का एक दूसरे को देख कर मुस्कुराना, हंस-हंस कर बातें करना और गर्मजोशी से हाथ मिलाने से कुछ लोगों के कलेजे पर सांप लोटने लगा है. इतना ही नहीं एक अप्रैल को जब नीतीश ने नरेंद्र मोदी के जुमले की तर्ज पर कहा- ‘न पीएंगे, न पीने देंगे’ तो कई लोगों के माथे पर बल पड़ गए हैं. मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद भ्रष्टाचार को खत्म करने का ऐलान करते हुए ‘न खाएंगे, न खाने देंगे’ का नारा दिया था. उन्हीं के सुर में सुर मिलाते हुए नीतीश ने बिहार में शराबबंदी का ऐलान करते हुए कहा कि न पीएंगे, न पीने देंगे.

पिछले 12 मार्च को प्रधानमंत्री हाजीपुर में दीघा-सोनपुर और मुंगेर रेल सह सड़क पुल का शिलान्यास करने और पटना हाई कोर्ट के शताब्दी समारोह में शिरकत करने बिहार पहुंचे थे. दोनों समारोहों में मोदी और नीतीश कुमार साथ-साथ मौजूद थे. दोनों समारोहो में मोदी ने नीतीश की जम कर तारीफ की. मोदी ने खुल कर कहा कि गांवों में बिजली पहुंचाने की योजना को तेज रफ्तार देने के लिए नीतीश ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है. एक हजार दिनों में 18 हजार गांवों में बिजली पहुंचाने का लक्ष्य रखा गया था और 6 हजार गांवों मे बिजली पहुंचाई जा चुकी है.

मोदी के सुर में सुर मिलाते हुए नीतीश ने कहा कि प्रधनमंत्री के बिहार आने से लोगों की उम्मीदें बढ़ गई हैं. वह बिहार की तरक्की के लिए बार-बार बिहार आते रहें. केंद्र और राज्य मिल कर काम करेंगे तो बिहार की विकास की गाड़ी तेजी से दौड़ने लगेगी.

मोदी आए और चले गए. नीतीश उनसे मिले और खुल कर मिले और बतियाए. यह सरकारी जलसा था. बात आई -गई हो गई. लेकिन प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के इस मुलाकात की गूंज अभी भी राज्य के सियासत और सत्ता के गलियारे में सुनाई दे रही है. नीतीश और मोदी के तरक्की की जुगलबंदी को लेकर राजद में बौखलाहट बढ़ती जा रही है. वहीं भाजपा के सूत्रों की मानें तो मोदी और नीतीश एक बार फिर साथ आना चाहते हैं. नीतीश भी बिहार की तरक्की में केंद्र की भरपूर मदद के लिए मोदी से नजदीकियां बढ़ाने की जुगत में लगे हुए हैं. वहीं एक भाजपा के एक बड़बोले नेता की मानें तो नीतीश और मोदी इस बात पर मंथन कर रहे हैं कि क्या नीतीश लालू का साथ छोड़ कर फिर से भाजपा के खेमे में आ सकते हैं या नहीं?

अगर दोनों दलों के सीटों और वोट प्रतिशत पर गौर करें तो राजग को पिछले विधानसभा चुनाव में  कुल 33 फीसदी वोट मिले थे, जिसमें से भाजपा को 24.4 फीसदी मिला था. जदयू को 16.8 फीसदी वोट मिला था. राजग की झोली में 58 और जदयू के खाते में 71 सीट गई थी. दोनों की सीटों को जोड़ने से 129 सीट हो जाता है और विधानसभा मे बहुमत पाने के लिए 122 सीट की दरकार होती है. जदयू के भी कई नेता मानते हैं कि लालू की महत्वाकाक्षांओं और परिवारवाद का बोझ नीतीश ज्यादा समय तक नहीं ढो सकते हैं.

मोदी और नीतीश का करीब आना और एक दूसरे की तारीफ में कसीदे पढ़ने से राजद में बैचेनी बढ़ती जा रही है. राजद के अंदरखाने की खबरों के मुताबिक राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव  को मोदी और नीतीश की ‘रसभरी’ मुलाकात हजम नहीं हो पा रही है. राजद के एक नेता दबी जुबान में कहते हैं- ‘मोगांबो खुश नहीं हुआ’.

 

शब्द जो उछल पड़े

कहे हुए शब्द सहेजे जाते हैं

मन की संदूक में

कभीकभी रत्न जैसे

जड़ जाते हैं हृदय पर

कई बार मील का पत्थर

बन जाते हैं कहे हुए शब्द

शब्द अगर यों ही उगले जाते रहे तो

शब्दों की गरिमा कम हो जाएगी

वे चिंतन का पर्याय कहलाते हैं

जो दिनचर्या को दमका दिया करते हैं.

                        – पूनम पांडे

 

 

औनलाइन विक्रेता कंपनियां

भारीभरकम प्रचार और मोटी छूट का लालच दे कर ईकौमर्स कंपनियों ने बहुत थोड़े समय में ही धाक और धूम मचा दी है. अब गलियों में पीठ पर बड़ा सा बैकपैक लादे डिलीवरीमैन दिखने आम हो गए हैं जो ग्राहकों को उन के द्वारा औनलाइन बुक किए गए सामान को पहुंचा रहे हैं. इस नई विधा पर व्यापारी और निवेशक बहुत खुश हो रहे हैं पर इस ईकौमर्स में पेंच ही पेंच हैं. सब से मोटी बात तो यह जान लें कि 3-4 मुख्य कंपनियों का कुल घाटा इस समय 5 हजार करोड़ रुपए का है. यानी ग्राहकों को सस्ता सामान तो मिला है पर उस की कीमत कोई और देगा. अनुमान यह है कि बैंक देंगे जिन्होंने इन कंपनियों को उस कीमत पर कर्ज दिया कि अगर कंपनी बेची जाए तो वह कीमत मिल सकती थी. यह कीमत, असल में, कोहेनूर हीरे या एम एफ हुसैन की पेंटिंग की तरह की सी होती है कि खरीदने वाले का मन है तो वह 10-20 अरब रुपए में खरीद ले. बहुत सी नुकसान देने वाली कंपनियां सैकड़ों करोड़ रुपए में बिक जाती हैं.

इन ईकौमर्स कंपनियों ने देश को कुछ नया दिया भी नहीं है. पड़ोस की किराना शौप या बड़े बाजार के इलैक्ट्रौनिक शोरूम में जो मिल सकता है उसी को उन्होंने आकर्षक छूट के नाम पर ग्राहकों को बेच दिया. बहुत से ग्राहक तो ‘सस्ता है तो लूट लो’ के चक्कर में सामान खरीद लिया जो उन्हें चाहिए था ही नहीं. इन कंपनियों ने न तो सामान बनाने के कारखाने लगाए हैं न ग्राहकों की पसंद जान कर नए उत्पाद बनवाए हैं. ये तो पुराने उत्पाद ही आकर्षक फोटोग्राफों से, मोबाइलों के माध्यम से बेच रही हैं. इन कंपनियों ने पिछले साल बहुत से नए मेधावी युवाओं को नौकरियां दी थीं पर सालभर में ही, भारीभरकम प्रचार के बावजूद, इन की हालत पतली होती नजर आ रही है और इस साल इन के मच्छीमारों ने एमबीए संस्थानों में होशियार युवाओं को जाल में फंसाने से इनकार कर दिया है.

यह ठीक है कि हमारे देश का खुदरा व्यापारी भरोसे के लायक नहीं है. पहली बात तो यह है कि देशभर में 90 फीसदी दुकानों में ग्राहक को दुकान में घुसने तक नहीं दिया जाता, उसे पटरी पर खड़े हो कर खरीदारी करनी होती है. इस अपमान के बजाय मोबाइल पर सामान और्डर करना सुलभ लगता है. फिर हमारे दुकानदार यह नहीं समझते कि अगर एक बाजार में 10 दुकानें हैं तो सभी को अलगअलग तरह का सामान बेचना चाहिए. यहां सभी एक ही ब्रैंड या चीज बेचते नजर आएंगे जबकि दूसरी हजारों चीजें मिलेंगी ही नहीं. औनलाइन व्यापार ने विविधता का अवसर दिया था पर होड़, प्रचार के खर्च, भरोसे के अभाव में यह नई विधा दम तोड़ने लगी है. ये कंपनियां धोखेबाज बचत कंपनियों की तरह न हो जाएं,  ग्राहकों को घटिया सामान दे कर और सप्लायरों को ठेंगा दिखा कर लुप्त न हो जाएं.

संघर्ष कभी खत्म नहीं होता: सौरभ शुक्ला

15 सालों से सिनेमा, थिएटर और टैलीविजन पर अभिनय, निर्देशन व लेखन करने के तौर पर अपनी खास पहचान बना चुके सौरभ शुक्ला ‘सत्या’ फिल्म के अपने यादगार किरदार कल्लू मामा के बारे में बताते हैं कि फिल्म के निर्देशक रामगोपाल वर्मा ने उन्हें फिल्म की कहानी लिखने को कहा तो पहले उन्होंने इनकार कर दिया. बाद में जब रामगोपाल वर्मा ने उन्हें फिल्म में बढि़या रोल देने की बात कही तो वे कहानी लिखने के लिए तैयार हो गए और आज के कामयाब डायरैक्टर अनुराग कश्यप के साथ मिल कर सत्या की कहानी लिख डाली.

‘बैंडिट क्वीन’, ‘सत्या’, ‘नायक’, ‘स्लमडौग मिलेनियर’, ‘बर्फी’, ‘मोहब्बतें’, ‘बादशाह’, ‘ताल’, ‘लगे रहो मुन्ना भाई’, ‘ये साली जिंदगी’, ‘मैं तेरा हीरो’, ‘फटा पोस्टर निकला हीरो’, ‘जौली एलएलबी’ और ‘पीके’ जैसी कई फिल्मों के जरिए अपनी ऐक्टिंग का जलवा दिखा चुके सौरभ कहते हैं, ‘‘किसी भी प्रोफैशन में संघर्ष कभी भी खत्म नहीं होता है. पहले कामयाबी पाने के लिए स्ट्रगल करना पड़ता है, उस के बाद शिखर पर बने रहने के लिए ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है. ‘सत्या’ फिल्म के किरदार कल्लू मामा से ले कर ‘पीके’ फिल्म के तपस्वी महाराज तक का सफर तय करने के बाद भी उन का स्ट्रगल जारी है. लगातार स्ट्रगल करना ही कामयाबी दिलाता है और उस कामयाबी को लंबे समय तक कायम भी रखता है. अमिताभ बच्चन जैसे कलाकार भी आज तक स्ट्रगल कर रहे हैं, इसलिए वे आज भी कामयाब हैं.’’

उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले में पैदा हुए 52 साल के सौरभ कहते हैं कि उन के परिवार में पढ़ाईलिखाई का काफी अच्छा माहौल था और हर कोई आसानी से एमए पास कर लेता था. उन पर एमए करने का काफी प्रैशर था, लेकिन उन्होंने पिता से इजाजत ले कर थिएटर का रास्ता चुन लिया. ‘व्यू फ्रौम द ब्रिज’, ‘घासीराम कोतवाल’ और ‘लुक बैक इन एंगर’ नाटकों ने उन की जिंदगी की दिशा और दशा बदल दी. उस के बाद टैलीविजन और सिनेमा में बहुत औफर मिलने लगे. टैलीविजन सीरियल ‘तहकीकात’ की कामयाबी ने सौरभ के लिए हिंदी फिल्मों के दरवाजे खोल दिए और पहली बार शेखर कपूर की फिल्म ‘बैंडिट क्वीन’ में उन्हें अभिनय करने का मौका मिला. सौरभ बताते हैं कि सत्या फिल्म और उस फिल्म में उन के किरदार ‘कल्लू मामा’ को कामयाबी मिलने के बाद भी महीनों तक उन्हें काम नहीं मिला था. हताशा में उन्होंने मुंबई छोड़ने का मन बना लिया था. कुछेक छोटेमोटे रोल मिले पर वे उन्हें पसंद नहीं आए, लेकिन अच्छे रोल की खोज में वे भटकते रहे. फिल्म ‘जौली एलएलबी’ और ‘बर्फी’ ने उन्हें फिल्म इंडस्ट्री में फिर से जमने का मौका दिया. हिंदी फिल्मों में कौमेडी के गिरते स्तर के बारे में सौरभ शुक्ला कहते हैं कि कौमेडी का मतलब भौंडापन नहीं होता है. हर इंसान के दिल को जो किरदार या डायलौग गुदगुदाए वही असली कौमेडी है. अपनी आने वाली फिल्म ‘फ्रौड सैंया’ के बारे में सौरभ बताते हैं कि उस में उन्होंने एक ठग का बड़ा ही दिलचस्प किरदार निभाया है. इस के अलावा ‘जौली एलएलबी-2’ और अनुराग बसु की ‘जग्गा जासूस’ से उन्हें काफी उम्मीदें हैं. सौरभ शुक्ला बतौर निर्देशक भी कई गुणवत्तापरक फिल्मों का निर्देशन कर चुके हैं. इसीलिए जब भी देश के किसी कोने में खासकर राजधानी में रंगमंचीय गतिविधि में शामिल होने का न्योता मिलता है, सौरभ कभी इनकार नहीं करते. उम्मीद है सौरभ आगे भी अपने अभिनय से दर्शकों को लुभाते रहेंगे.

16 साल बाद अरविंद स्वामी की हिंदी फिल्म में वापसी

मशहूर फिल्मकार मणि रत्नम की खोज माने जाने वाले अभिनेता अरविंद स्वामी तमिल फिल्मों के स्टार कलाकार है. लगभग 25 साल पहले मणि रत्नम निर्देशित तमिल फिल्म ‘‘थलपथी’’ के साथ ही मणि रत्नम निर्देशित हिंदी फिल्म ‘‘रोजा’’ में भी अरविंद स्वामी ने अभिनय किया था. उसके बाद वह दक्षिण भारत में तमिल, तेलगू व मलयालम फिल्मों में अभिनय करते रहे. फिर वह 1998 में हिंदी फिल्म ‘‘सात रंग के सपने’’ तथा 2000 में ‘‘राजा को रानी से प्यार हो गया’’ में भी नजर आए थे. लेकिन उसके बाद वह हिंदी फिल्मों में नजर नहीं आए.

अब पूरे 16 साल बाद वह नवोदित फिल्मकार तनुज भ्रमर की हिंदी फिल्म ‘‘डिअर डैड’’ में नजर आने वाले हैं, जो कि हिंदी के साथ साथ तमिल भाषा में भी बनी है. 16 साल बाद हिंदी फिल्म ‘‘डिअर डैड’’ में अरविंद स्वामी के अभिनय करने की मूल वजह फिल्म की पटकथा है. वैसे 2000 के बाद अरविंद स्वामी अभिनय के साथ साथ व्यापार भी करने लगे थे. 2006 में उनका एक्सीडेंट भी हुआ था. जिसके चलते पिछले 16 साल के दौरान अरविंद स्वामी ने सिर्फ चार तमिल फिल्मों में ही अभिनय किया था.

फिल्म ‘‘डिअर डैड’’ की कथा पिता पुत्र के इर्द गिर्द घूमती है. यह कहानी है 45 वर्षीय नितिन स्वामीनाथन (अरविंद स्वामी) और उनके 14 वर्षीय बेटे शिवम की. पिता पुत्र अपने दिल्ली के घर से मसूरी के लिए सड़क के रास्ते रवाना होते हैं. मसूरी में शिवम का बोर्डिंग स्कूल है. रास्ते में इन्हे किस मोड़ से गुजरना पड़ता है और इस यात्रा के दारान पिता पुत्र के बीच जो बाते होती हैं, वह सब दर्शकों को रोमांचित करने वाला होगा. फिल्म ‘डिअर डैड’ में अभिनय करने की चर्चा चलने पर अरविंद स्वामी कहते हैं-‘‘इस तरह की कहानियां कही जानी चाहिए और इस तरह की फिल्मों को बढ़ावा मिलना चाहिए. इसीलिए मैंने इस फिल्म में अभिनय किया है.’’

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