भारीभरकम प्रचार और मोटी छूट का लालच दे कर ईकौमर्स कंपनियों ने बहुत थोड़े समय में ही धाक और धूम मचा दी है. अब गलियों में पीठ पर बड़ा सा बैकपैक लादे डिलीवरीमैन दिखने आम हो गए हैं जो ग्राहकों को उन के द्वारा औनलाइन बुक किए गए सामान को पहुंचा रहे हैं. इस नई विधा पर व्यापारी और निवेशक बहुत खुश हो रहे हैं पर इस ईकौमर्स में पेंच ही पेंच हैं. सब से मोटी बात तो यह जान लें कि 3-4 मुख्य कंपनियों का कुल घाटा इस समय 5 हजार करोड़ रुपए का है. यानी ग्राहकों को सस्ता सामान तो मिला है पर उस की कीमत कोई और देगा. अनुमान यह है कि बैंक देंगे जिन्होंने इन कंपनियों को उस कीमत पर कर्ज दिया कि अगर कंपनी बेची जाए तो वह कीमत मिल सकती थी. यह कीमत, असल में, कोहेनूर हीरे या एम एफ हुसैन की पेंटिंग की तरह की सी होती है कि खरीदने वाले का मन है तो वह 10-20 अरब रुपए में खरीद ले. बहुत सी नुकसान देने वाली कंपनियां सैकड़ों करोड़ रुपए में बिक जाती हैं.

इन ईकौमर्स कंपनियों ने देश को कुछ नया दिया भी नहीं है. पड़ोस की किराना शौप या बड़े बाजार के इलैक्ट्रौनिक शोरूम में जो मिल सकता है उसी को उन्होंने आकर्षक छूट के नाम पर ग्राहकों को बेच दिया. बहुत से ग्राहक तो ‘सस्ता है तो लूट लो’ के चक्कर में सामान खरीद लिया जो उन्हें चाहिए था ही नहीं. इन कंपनियों ने न तो सामान बनाने के कारखाने लगाए हैं न ग्राहकों की पसंद जान कर नए उत्पाद बनवाए हैं. ये तो पुराने उत्पाद ही आकर्षक फोटोग्राफों से, मोबाइलों के माध्यम से बेच रही हैं. इन कंपनियों ने पिछले साल बहुत से नए मेधावी युवाओं को नौकरियां दी थीं पर सालभर में ही, भारीभरकम प्रचार के बावजूद, इन की हालत पतली होती नजर आ रही है और इस साल इन के मच्छीमारों ने एमबीए संस्थानों में होशियार युवाओं को जाल में फंसाने से इनकार कर दिया है.

यह ठीक है कि हमारे देश का खुदरा व्यापारी भरोसे के लायक नहीं है. पहली बात तो यह है कि देशभर में 90 फीसदी दुकानों में ग्राहक को दुकान में घुसने तक नहीं दिया जाता, उसे पटरी पर खड़े हो कर खरीदारी करनी होती है. इस अपमान के बजाय मोबाइल पर सामान और्डर करना सुलभ लगता है. फिर हमारे दुकानदार यह नहीं समझते कि अगर एक बाजार में 10 दुकानें हैं तो सभी को अलगअलग तरह का सामान बेचना चाहिए. यहां सभी एक ही ब्रैंड या चीज बेचते नजर आएंगे जबकि दूसरी हजारों चीजें मिलेंगी ही नहीं. औनलाइन व्यापार ने विविधता का अवसर दिया था पर होड़, प्रचार के खर्च, भरोसे के अभाव में यह नई विधा दम तोड़ने लगी है. ये कंपनियां धोखेबाज बचत कंपनियों की तरह न हो जाएं,  ग्राहकों को घटिया सामान दे कर और सप्लायरों को ठेंगा दिखा कर लुप्त न हो जाएं.

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