Download App

आरक्षण की मांग: अब पिछड़े बनने की होड़

जिन दिनों देश की राजधानी नई दिल्ली से सटा हरियाणा प्रदेश जाटों के आरक्षण की उग्र मांग से झुलस रहा था, तब एक दैनिक अखबार में छपे एक लेख में एक लाइन लिखी थी कि करुणा से पैदा होने वाली क्रांति ही नए समाज का निर्माण करेगी.

करुणा से क्रांति? क्या यह मुमकिन है? क्योंकि अब तक तो यह माना जाता रहा है कि जब कभी भी कहीं भी कोई क्रांति हुई है, उस में आगे की लाइन में खड़े लोगों को अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ती है, तब कहीं जा कर पीछे खड़ी भीड़ की बातें सुनी जाती हैं.

हम ने आरक्षण के मामले में हुई हर छोटीबड़ी क्रांति में ऐसा ही कुछ देखा है. 90 के दशक में तब के प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने जब मंडल कमीशन की शर्तें लागू कराई थीं, तब भी देश में ऐसा ही अशांत माहौल बना था.

हालिया जाट आरक्षण के आंदोलन में जो हिंसा हुई है, उस में कुछ बेगुनाह लोगों की जानें तो गई ही, हरियाणा को 20 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा का नुकसान भी हुआ.

इस नुकसान का आकलन करने वाली एसोचैम ने बताया कि सब से ज्यादा नुकसान रोहतक, झज्जर, बहादुरगढ़, हिसार, भिवानी, जींद, गोहाना, सोनीपत, कैथल और पानीपत जिलों में हुआ. दिल्ली से सटे गुड़गांव और फरीदाबाद शहरों पर भी इस उग्र आंदोलन का बुरा असर दिखा.

मांग की वजह

जाटों की आरक्षण की मांग नई नहीं है. वे साल 1955 से अपने लिए आरक्षण की मांग करते चले आ रहे हैं. यही वजह है कि अभी तक इनेगिने राज्यों में उन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल किया जा चुका है, लेकिन वे पूरे देश में ऐसा ही चाहते हैं. इस से जाट समुदाय के लोगों को सरकारी नौकरियों और संस्थानों में अन्य पिछड़ा वर्ग कोटे से दाखिला मिल सकेगा.

अन्य पिछड़ा वर्ग के लोग उन निम्न और मध्यवर्ती जातियों से आते हैं, जिन्हें इसलिए पिछड़ा माना जाता, क्योंकि उन्हें समाज में ऊंची जाति का दर्जा हासिल नहीं है. जाट दलित या पिछड़े नहीं हैं, लेकिन ऐसा माना जाता है कि उन का सामाजिक रुतबा अगड़ों से कुछ ही कमतर है.

जाट समाज का यह भी मानना है कि जमीन का मालिक होते हुए भी उस की सरकारी नौकरियों में शिक्षा के लैवल पर ढंग की नुमाइंदगी नहीं है. इतना ही नहीं, जमीन का दायरा कम होने और खेतीबारी में आमदनी कम होने से भी यह समुदाय खुद को पिछड़ा महसूस कर रहा है.

हरियाणा में कुल 49.5 फीसदी रिजर्वेशन है. इस में 15 फीसदी अनुसूचित जाति, 7.5 फीसदी अनुसूचित जनजाति और 27 फीसदी अन्य पिछड़ा वर्ग के नाम पर रिजर्व किया गया है. जाट अन्य पिछड़ा वर्ग के 27 फीसदी में खुद को शामिल कराना चाहते हैं.

एक आकलन के मुताबिक, पूरे देश में तकरीबन साढ़े 8 करोड़ जाट हैं. वे हरियाणा की तकरीबन 25 फीसदी आबादी का हिस्सा हैं. तकरीबन 84 फीसदी जाट खेतीबारी से जुड़े हैं.

ऐसा नहीं है कि जाट सरकारी नौकरियों में नहीं हैं, बल्कि हरियाणा राज्य की क्लास वन और क्लास टू सेवाओं में 21 फीसदी जाट हैं. सेना और पुलिस में भी जाट समुदाय के लोगों की काफी पैठ है. पर यह पूरी जाट आबादी का बहुत छोटा हिस्सा है. यही वजह है कि वे अपने लिए आरक्षण की मांग कर रहे हैं.

साथ ही, यह बात भी बहुत अहम है कि जाति के तौर पर पिछड़ों को सरकारी नौकरी पाने के बाद अगड़ों से बराबरी करने का एहसास होता है, फिर चाहे कैसे भी नौकरी क्यों न हासिल की जाए.

यह जो जातिगत खाई बनी हुई है, वह आज की बात नहीं है. पौराणिक जमाने की बात करें, तो असुरों ने देवताओं की समुद्र मंथन में इसलिए मदद की थी, जिस से उन्हें भी अमृत मिल जाए और वे भी देवताओं की बराबरी पा सकें. लेकिन देवताओं ने उन के साथ विश्वासघात किया और उन से अमृत हड़प लिया.

आज भी आजाद भारत में दबेकुचलों के साथ ऐसा ही बरताव किया जाता है. उन्हें जाति के नाम पर दुत्कारा जाता है और किसी भी तरह से पिछड़ा बनाए रखने की साजिश रची जाती है. लेकिन आजादी के बाद जब संविधान बना, तब डाक्टर भीमराव अंबेडकर ने इन्हीं जातियों को उबारने के लिए आरक्षण देने का इंतजाम किया था. उन्हें पता था कि जैसेजैसे ये लोग सरकारी नौकरियों में घुसते जाएंगे, वैसेवैसे इन का सामाजिक रुतबा ऊंचा होता जाएगा और ये अगड़ों के साथ बराबरी का हक पाते जाएंगे.

लेकिन पिछले कुछ समय से आरक्षण की मांग करने वाली जातियों में जिस तरह से इजाफा हो रहा है, उन के आंदोलनों में जुड़ने वाली भीड़ को देख कर तो यही लगता है कि आज भी आम लोगों में आरक्षण को ले कर भरपूर समर्थन है. जो पिछड़ी जातियां केवल खेती पर निर्भर हैं, उन के भविष्य पर सवालिया निशान लगा होता है, क्योंकि खेती का मुनाफा आज भी मौसम के मुताबिक तय होता है.

वैसे भी माली तौर पर मजबूती देखी जाए, तो आज भी एक ही जाति, समुदाय के शहर में रहने वाले लोगों और गांव में मौजूद लोगों में फर्क होता है. आरक्षण के आंदोलनों में भी गांवदेहात की यही भीड़ ज्यादा दिखाई देती है, क्योंकि इस की खेती की कमाई पर हमेशा संकट के बादल छाए रहते हैं.

सामाजिक और माली तौर पर पिछड़े लोगों को आरक्षण दे कर उन को तरक्की की राह पर लाने की सोच तो समझ में आती है, लेकिन पिछले कुछ समय से ताकतवर जातियों का आरक्षण के प्रति प्रेम समझ से परे है. चूंकि इस में कुछ लोगों के राजनीतिक फायदे भी दिखाई दे रहे हैं, इसलिए यह सोच देश और समाज के लिए घातक भी साबित हो सकती है.

इस साल फरवरी महीने की शुरुआत में आंध्र प्रदेश के कापू समाज ने भी खुद को अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल कराने के लिए राज्य में ऐसे ही हालात पैदा कर दिए थे. तब वहां के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू को अपने पैर पीछे खींचने पड़े थे और किसी तरह माहौल शांत हो पाया था.

पिछले साल हुआ पटेल समाज का आंदोलन भी शायद ही कोई भूला होगा. तब गुजरात में हार्दिक पटेल की अगुआई में इतने खतरनाक हालात पैदा हो गए थे कि राज्य सरकार को मामले पर काबू पाने के लिए पसीना आ गया था.

जहां तक सामाजिक दबदबे की बात है, तो गुजरात में पटेल, आंध्र प्रदेश में कापू समाज और हरियाणा में जाट बिरादरी के लोग माली तौर पर बेहद मजबूत हैं, तो फिर इन्हें पिछड़ा क्यों माना जाए?

कहीं इस तरह के आंदोलन राजनीति से तो प्रेरित नहीं हैं? साल 1999 में राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने वहां के जाट समुदाय को अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल किया था, तब से दूसरे जाट बहुल राज्यों में जाट आरक्षण की मांग तेज हो गई.

इस के बाद संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार का नमूना देखिए. उस ने पिछले लोकसभा चुनाव की अधिसूचना जारी होने से कुछ समय पहले जाट समुदाय को अन्य पिछड़ा वर्ग के तहत लाने का ऐलान किया था, ताकि उस का वोट बैंक बढ़ सके, पर पिछले साल मार्च महीने में सुप्रीम कोर्ट ने इसे रद्द कर दिया.

राजस्थान में जब जाट अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल हुए, तो वहां की पहले से आरक्षित जातियों ने इस बात को कैसे लिया? यकीनन, वे खुद को असुरक्षित महसूस करने लगी थीं. यही वजह थी कि गुर्जरों ने खुद को अन्य पिछड़ा वर्ग से हटा कर अनुसूचित जाति में शामिल करने की मांग उठाई.

इस से अनुसूचित जाति में शामिल जातियों को बहुत बुरा लगा. राजस्थान के मीणा समाज ने इस पर घोर एतराज जताया. नतीजतन, मीणा और गुर्जर समाज में खूनी टकराव देखा गया.

हरियाणा में भी कुछ ऐसा ही देखा गया. बहुत सी जगह जाटों और उन जातियों के बीच संघर्ष दिखा, जो पहले से ही आरक्षित थीं. जाट आरक्षण आंदोलन के खिलाफ खड़े हुए अन्य पिछड़ा वर्ग ब्रिगेड के नेता और कुरुक्षेत्र से लोकसभा सांसद राजकुमार सैनी ने भी साफ किया था कि उन की जाट आरक्षण विरोधी मुहिम जारी रहेगी.

पलवल में भी गैरजाटों ने इस आंदोलन का विरोध किया और कहा कि जाट बिरादरी प्रदेश में माली तौर पर बहुत मजबूत है और सुप्रीम कोर्ट भी जाट आरक्षण के खिलाफ फैसला दे चुका है, तो फिर इस बवाल का मतलब क्या है?

इतना ही नहीं, साल 2015 में जाट आरक्षण के खिलाफ अन्य पिछड़ा वर्ग का एक फोरम बना था, जो जाटों के आरक्षण के खिलाफ दिल्ली के जंतरमंतर पर प्रदर्शन कर चेतावनी दे चुका था.

मान लेते हैं कि कल को जाटों की मांग सुन ली जाती है और वे अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल हो जाते हैं, तो क्या वाकई उन की तरक्की होगी या वे सामाजिक तौर पर भी पिछड़ों की जमात में शामिल हो जाएंगे? असलियत तो यह है कि अब सरकारी नौकरियां न के बराबर रह गई हैं और उन्हें पाने के लिए मारामारी मची है.

सवाल यह भी उठता है कि क्या जाट सरकारी नौकरी के लालच में पिछड़ा होने का तमगा अपनी छाती पर टांगने को तैयार हैं, क्योंकि आज भी हमारे समाज में लोगों के दिलोदिमाग पर जातिवाद का जहर इस कदर भरा हुआ है कि कोटे से आया कोई बड़ा अफसर ऊंची जाति के लोगों की निगाह में छोटा ही रहता है? गांवदेहात में तो हर छोटीबड़ी सरकारी नौकरी पर बैठे लोगों की जाति उन के काम पर हावी रहती है. बड़ी जाति का छोटे पद पर बैठा आदमी छोटी जाति के अफसर को कुछ नहीं समझता है. आज भी हमारे यहां उसी की इज्जत ज्यादा होती है, जो बड़ी जाति का हो भले ही कमाता कम हो.

मिसाल के तौर पर एक ब्राह्मण के 2 बेटे हैं. वे दोनों गांव में रहते हैं. एक बेटा सरकारी नौकरी करता है, लेकिन छोटे पद पर है. वह अपनी तनख्वाह में अपने परिवार का पालनपोषण खूब अच्छी तरह करता है. दूसरा बेटा गांव के मंदिर का पुजारी है. उस की आमदनी कम है और परिवार का खर्च दूसरों के दान पर निर्भर है. लेकिन जब गांवसमाज में इज्जत की बात आएगी, तो लोग पुजारी के पैर पड़ेंगे, सरकारी नौकरी वाले के नहीं.

सामाजिक और माली तौर पर मजबूत जातियों के साथ भी अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल होने पर कहीं ऐसा तो नहीं होगा?

यह बड़ा पेचीदा सवाल है, लेकिन बहुत अहम है, जिसे अपने फायदे के लिए राजनीतिक पार्टियां इस्तेमाल तो कर सकती हैं, लेकिन इस पर बोलने की जहमत नहीं उठाएंगी.

आरक्षण के लिए आंदोलन करने वालों को कल क्या मिलता है, यह तो बाद की बात है, लेकिन आंदोलन के नाम पर दंगा करना या उसे बढ़ावा देना कतई सही नहीं है. इस से होने वाले जानमाल के नुकसान का ठीकरा नेताओं की लोकलुभावन राजनीति के सिर पर फोड़ा जाना चाहिए, लेकिन अफसोस, उन की मोटी चमड़ी पर रत्तीभर भी असर नहीं पड़ेगा.

अब न रहेंगे पीने वाले, अब न रहेगी मधुशाला

एक अप्रैल से देसी शराब पर रोक लगाई गई और 5 अप्रैल से विदेशी शराब और ताड़ी पर भी पूरी तरह से पाबंदी लगाने के बाद बिहार ‘ड्राइ स्टेट’ बन गया है. राज्य में किसी भी तरह की शराब बेचने, खरीदने और पीने पर रोक लग गई है. होटलों, क्लबों, बार और रेस्टोरेंट में भी शराब का लुत्फ नहीं लिया जा सकेगा. इससे जहां सरकार को सालाना 4 हजार करोड़ रूपए का नुकसान उठाना पड़ेगा वहीं शराब की कुल 4771 दुकानों पर ताला लटक जाने से करीब 25 हजार परिवारों की रोजी-रोटी फिलहाल बंद हो गई है.

पिछले साल 20 नबंबर को जब पांचवी बार नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने उसी समय ऐलान कर दिया था कि एक अप्रैल 2016 से बिहार में शराब पर पूरी तरह से रोक लगा दी जाएगी और उन्होंने यह कर दिखाया. बिहार में महिलाएं काफी दिनों से शराब पर रोक लगाने की मांग करती रही हैं. मर्द शराब पीते हैं और उसका खामियाजा महिलाओं और बच्चों समेत समूचे परिवार को उठाना पड़ता है. पूरी तरह से शराबबंदी का ऐलान कर नीतीश ने अपने मजबूत इरादे तो जाताए हैं, लेकिन इस फैसले से सरकार के सामने कई चुनौतियां और मुश्किलें खड़ी होने वाली है, जिससे निबटना आसान नहीं होगा. जहां भी शराब पर रोक लगी है वहां शराब माफियाओं और तस्करों को बड़ा नेटवर्क खड़ा हो जाता है और सरकार के मंसूबे फेल हो जाते है. शराब पर रोक भी नहीं लग पाती है और सरकार को इससे होने वाले हजारों करोड़ रूपए से हाथ भी धोना पड़ता है.

राज्य सरकारों के मिलने वाले राजस्व का बड़ा हिस्सा शराब से ही आता है. राज्य सरकारें इसे बढ़ावा देने में ही लगी रही हैं. इसके साथ ही शराबबंदी का दूसरा पहलू यह भी है कि शराब पर रोक लगाने की नीति खास कामयाब नहीं हो सकी हैं. हरियाणा में बंसीलाल सरकार ने शराब पर रोक लगाई थी पर उन्हें कामयाबी नहीं मिल सकी. एनटी रामाराव ने आंध्र प्रदेश में शराबबंदी लागू किया पर कुछ समय बाद ही वापस लेना पड़ा. शराबबंदी लागू होने से गैरकानूनी नेटवर्क पैदा हो जाता है और इससे संगठित अपराधी और दबंग समूह काफी ताकतवर हो जाते हैं. गुजरात में 1960 से ही शराब पर रोक लगी हुई है, इसके बाद भी अपराधी समूह सरकार और कानून को ठेंगा दिखाते हुए शराब का धंधा चला रहे हैं.

इससे पहले बिहार में साल 1977 में जब कपूर्री ठाकुर मुख्यमंत्री बने थे तो उन्होंने शराब पर पाबंदी लगा दी थी. उसके बाद शराब की तस्करी बढ़ने और अवैध शराब का कारोबार करने वाले अपराधियों के पनपने के बाद शराबबंदी को वापस ले लिया गया था. हरियाणा, आंध्र प्रदेश, मिजोरम में भी शराबबंदी कामयाब नहीं हो सकी और वहां शराब की बिक्री जारी है. केरल में 30 मई 2014 से शराब की दुकानों को लाइसेंस देने का काम सरकार ने बंद कर दिया है.

यह बात किसी से छुपी नहीं है कि देश भर में शराब की लौबी काफी मजबूत है. शराबबंदी के बाद सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती कालाबाजारी और तस्करी से निबटना होगा. अवैध रूप से देसी शराब के बनने और बिकने में तेजी आने का खतरा भी है. सैर-सपाटे के लिए बिहार आने वाले देसी-विदेशी पर्यटकों की संख्या में भी कमी आएगी. रिटायर्ड मुख्य सचिव वीएस दूबे कहते हैं कि शराब पर पूरी तरह से रोक लगाना सरकार का काफी अच्छा फैसला है पर यह तभी कामयाब हो सकेगी जब पुलिस दारोगा और आबकारी दारोगा पर पूरी तरह जबाबदेही डाली जाएगी. अवैध शराब की तस्करी को रोकने के लिए पड़ोसी राज्यों की सीमा पर ठोस निगरानी तंत्र बनाने होंगे. कई गैर जरूरी मदों में खर्चे को कम कर आय की कमी को दूर किया जा सकता है.

गौरतलब है कि 9 जुलाई 2015 को में मद्य निषेध दिवस के मौके पर आयोजित समारोह में स्वयं सहायता समूह की महिलाओं ने मुख्यमंत्री नीतीश को अपने कड़वे अनुभव सुनाए थे. खगडि़या के चैथम गांव की आशा देवी, गया के खिजसराय गांव की रेखा देवी और मुजफ्फरपुर की गीता ने मुख्यमंत्री को बताया कि किस तरह से उन्होंने गांव की औरतों के साथ मिल कर अपने इलाकों में शराब पर रोक लगा दी है. समारोह में पहुंची हजारों महिलाओं ने एक साथ आवाज लगाई कि मुख्यमंत्री जी शराब को बंद कराइए. इससे हजारों घर-परिवार बर्बाद हो रहे हैं. उन्ही महिलाओं के किस्सों को सुनकर नीतीश ने उसी समय ऐलान कर दिया था कि अगर वह दुबारा सत्ता में आएंगे तो शराब पर पूरी तरह से पाबंदी लगा देंगे.

महिलाओं की इस मांग को पूरी करने के पीछे भी वोट की राजनीति भी छिपी हुई है. पिछले विधान सभा चुनाव में महिलाओं ने बढ़-चढ़ कर वोट डाला. महिलाओं को वोट फीसदी 54.85 के मुकाबले मर्दो को वोट फीसदी 50.70 रहा था. साल 2000 के चुनाव में मर्दों के मुकाबले 20 फीसदी औरतों ने वोट की ताकत का इस्तेमाल किया था. शराबबंदी का ऐलान के साथ पंचायत चुनाव में महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण देकर नीतीश ने महिलाओं को गोलबंद कर लिया था.

बिहार में शराब पर पूरी तरह से रोक लगने से सरकार को करीब 4 हजार करोड़ रूपए का सालाना नुकसान होगा. देसी शराब से 2300 हजार करोड़ और विदेशी शराब से 1700 करोड़ रूपए का राजस्व सरकार को मिलता था. एक अप्रैल 2016 से पहले तक बिहार में 1410 लाख लीटर शराब की खपत होती थी. इसमें 990.36 लाख लीटर देसी शराब, 420 लाख लीटर विदेशी शराब और 512.37 लाख लीटर बीयर की खपत थी.  बिहार में प्रति व्यक्ति प्रति सप्ताह देसी शराब और ताड़ी की खपत 266 मिलीलीटर और विदेशी शराब और बीयर की खपत 17 मिलीलीटर थी.

बिहार में हर तरह के शराब पर रोक लगा कर नीतीश ने साहस का परिचय तो दिया है पर उनके इस फैसले के कई जोखिम भी हैं, जिससे निपटने में कामयाबी मिलने के बाद ही शराबबंदी भी कामयाब हो सकेगी. शराब के गैरकानूनी नेटवर्क को पनपने नहीं देना और तस्करों पर रोक लगाना सबसे बड़ी चुनौती है. रिटायर्ड डीजीपी डीपी ओझा कहते हैं कि सरकार के इस फैसले को जनता का सपोर्ट मिला है, पर शराबबंदी को कड़ाई से लागू करने की जरूरत होगी. सरकार को कई तरह के सियासी दबाबों और गैरकानूनी नेटवर्क से निबटना होगा.

मैं 12वीं तक पढ़ाई कर के नेता बनना चाहता हूं. इस के लिए मैं और क्या करूं.

सवाल

मैं 20 साल का हूं और 5वीं जमात तक पढ़ा हूं. मेरा भाई 15 साल का है और 8वीं जमात तक पढ़ा है. मेरी 2 बहनों की शादी हो चुकी है और तीसरी बहन की शादी होने वाली है. हमारे पिताजी गुजर चुके हैं. मां हमारे साथ हैं. हम दोनों भाई मुंबई के एक कारखाने में काम करते हैं. बहन की शादी के बाद मैं 12वीं जमात तक की पढ़ाई कर के विकासवादी नेता बनना चाहता हूं. इस के लिए मैं और क्या करूं?

जवाब

पढ़ाई करना अच्छी बात है. आप काम के साथसाथ 10वीं व 12वीं जमात की पढ़ाई कर सकते हैं. आप प्राइवेट तालीम हासिल कर सकते हैं. आप ओपन स्कूल से तालीम ले सकते हैं. जहां तक नेता बनने की बात है, तो यह उतना आसान व कारगर नहीं है.

 

अगर आप भी इस समस्या पर अपने सुझाव देना चाहते हैं, तो नीचे दिए गए कमेंट बॉक्स में जाकर कमेंट करें और अपनी राय हमारे पाठकों तक पहुंचाएं.

आईपीएल में हुआ बड़ा बदलाव, अब दर्शक होंगे अंपायर

इंडियन प्रीमियर लीग यानी आईपीएल हर बार कुछ अलग-अगल रंगों से लबरेज होता है. इस बार आईपीएल-9 में दर्शकों को भी अंपायर की भूमिका निभाने का मौका मिल सकेगा. लेकिन दर्शक इस भूमिका का निर्वाह स्टेडियम में बैठे-बैठे ही कर सकेंगे. इसके लिए उनके मैदान पर आने की जरूरत नहीं होगी.

आईपीएल के नौंवे सीजन में इस बार मैदान में मौजूद दर्शकों को भी थर्ड अंपायर को रैफर किए गए फैसले पर अपनी राय देने का मौका होगा. आईपीएल के चेयरमैन राजीव शुक्ला ने कहा कि मैदान में मौजूद दर्शकों को एक प्लेकार्ड दिया जाएगा, जिस पर आउट या नॉट आउट लिखा होगा.

कैमरे पर दर्शकों की राय को दिखाया जाएगा, लेकिन इस मामले में थर्ड अंपायर के फैसले को ही अंतिम फैसला माना जाएगा. दर्शकों की राय का थर्ड अंपायर के फैसले पर कोई असर नहीं पड़ेगा. थर्ड अंपायर टीवी पर रिप्ले देखकर ही अपना फैसला करेगा. लेकिन माना जा रहा है कि इस कदम से दर्शकों की संख्या में बढ़ोतरी देखने को मिल सकती है.

आईपीएल सीजन-9 में 8 टीमें हिस्सा ले रही हैं और ये टूर्नामेंट 9 अप्रैल से 29 मई तक खेला जाएगा. पुणे की राइजिंग पुणे सुपरजाइंट्स और राजकोट की गुजरात लांयस पहली बार लीग में हिस्सा ले रही है.

गजब का कप्तान: प्रदर्शन जीरो, फिर भी बन गया हीरो

कई बार ऐसा देखा गया है कि एक टीम की हार या जीत के लिए ज्यादा से ज्यादा कप्तान को दोषी माना जाता है. अगर कोई कप्तान अच्छा खेलता है लेकिन उसकी टीम हार जाती है तब उसकी कप्तानी को लेकर सवाल उठाया जाता है. अगर किसी कप्तान का ज्यादा योगदान नहीं होता टीम मैच जीत जाती है तब भी कप्तान की तारीफ होती रहती है.

यह भारत के महान खिलाड़ी सचिन तेंदुलकर के साथ भी हो चुका है. सचिन जब टीम इंडिया के कप्तान बने थे तब उनका प्रदर्शन अच्छा होते हुए भी भारत ज्यादा मैच नहीं जीत पाया था, जिसकी वजह से उनकी कप्तानी को लेकर कई सवाल उठाए जा रहे थे और उन्हें कप्तानी छोड़नी पड़ी थी.

टी-20 वर्ल्ड कप में ऐसा मामला फिर सामने आया है. लेकिन यह मामला सचिन से अलग है, वेस्टइंडीज के कप्तान डैरेन सैमी इस वर्ल्ड कप के हीरो बन गए हैं, क्योंकि उनकी कप्तानी में वेस्टइंडीज ने वर्ल्ड कप जीता है. अगर सैमी के खुद के खेल की बात की जाए तो सैमी ने इस वर्ल्ड कप में कोई अच्छा प्रदर्शन नहीं किया है. चाहे वह गेंदबाज़ी में हो या बल्लेबाजी में, लेकिन फिर भी उनकी कप्तानी में वेस्टइंडीज ने वर्ल्ड कप जीत लिया है. चलिए जानते हैं इस वर्ल्ड कप में कैसा रहा सैमी का प्रदर्शन.

16, मार्च इंग्लैंड के खिलाफ वेस्टइंडीज का पहला मैच

इस मैच में सैमी ने एक भी ओवर बॉलिंग नहीं की और न ही बैटिंग में उन्हें मौका मिला. इस मैच के हीरो क्रिस गेल रहे जिन्होंने शानदार शतक ठोका. वेस्टइंडीज ने इस मैच को छह विकेट से जीता था.

21 मार्च को श्रीलंका के खिलाफ दूसरा मैच

इस मैच में भी सैमी ने खुद गेंदबाज़ी नहीं की और बल्लेबाजी में उनका नंबर नहीं आया. वेस्टइंडीज ने इस मैच को सात विकेट से जीता था.

25 मार्च, साउथ अफ्रीका के खिलाफ मैच

इस मैच में सैमी ने क्रिस गेल से तो गेंदबाजी करवाई, लेकिन खुद बॉलिंग नहीं की. इस मैच में सैमी को बल्लेबाजी करने का मौका तो मिला लेकिन पहली ही गेंद पर आउट हो गए. वेस्टइंडीज ने यह मैच तीन विकेट से जीता था.

30 मार्च को अफ़ग़ानिस्तान के खिलाफ

वेस्ट इंडीज ने अपना आखिर लीग मैच अफगानिस्तान के खिलाफ खेला. इस मैच में वेस्टइंडीज की हार हुई थी. कप्तान सैमी खुद अपने प्रदर्शन में फ़ेल हुए. सैमी ने इस मैच में दो ओवर बॉलिंग की और 17 रन दिए थे और उन्हें एक विकेट भी मिला था और दस गेंदों का सामना करते हुए उन्होंने सिर्फ छह रन बनाए थे.

भारत के खिलाफ सेमीफाइनल मैच

टीम इंडिया के खिलाफ सेमीफाइनल मैच में न सैमी ने बॉलिंग की और न ही बैटिंग, लेकिन दूसरे खिलाड़ियों के शानदार प्रदर्शन की वजह से वेस्टइंडीज को इस मैच में जीत मिली और वेस्टइंडीज फाइनल में पहुंचा.

इंग्लैंड के खिलाफ फाइनल मैच

टी-20 वर्ल्ड कप के फाइनल मैच में इंग्लैंड के खिलाफ सैमी ने एक ओवर गेंदबाज़ी करते हुए 14 रन दिए और फिर जब बल्लेबाजी में मौका मिला तो सिर्फ दो रन बना पाए.

इस प्रकार से देखा जाए तो पूरे वर्ल्ड कप टी 20 टूर्नामेंट में सैमी ने छह मैच खेलते हुए सिर्फ तीन ओवर यानि 18 गेंदें बॉलिंग करते हुए 31 रन देकर एक विकेट लिया और बल्लेबाजी में पूरे छह मैच में 13 गेंद खेलते हुए सिर्फ 8 रन बनाए जिसमें न एक भी चौका था और न छक्का. लेकिन उनकी कप्तानी में वेस्टइंडीज ने वर्ल्ड कप जीत लिया. सैमी सबसे भाग्यशाली कप्तान इस मामले में भी रहे कि छह मैचों में से पांच मैच में टॉस जीता, जिसकी वेस्टइंडीज को खास जरूरत थी.

VIDEO: जब लाइव मैच में वार्न ने सैमुअल्स को दी गालियां

वेस्टइंडीज के आक्रामक बल्लेबाज मार्लोन सैमुअल्स और शेन वार्न के बीच टकराहट की खबरें आती रही है. गौर हो कि वर्ष 2013 में एक बीबीएल मैच के दौरान डेविड हसी जब दूसरा रन लेने की कोशिश कर रहे थे तो गेंदबाजी कर रहे सैमुअल्स ने उनका टी-शर्ट पकड़कर उन्हें रोकने की कोशिश की थी.

शेन वार्न इस पूरे घटनाक्रम से आग बबूला हो गए थे और जब दोनों का आमना-सामना हुआ तो वार्न ने सैमुअल्स की टी-शर्ट पकड़ उन्हें भद्दी गालियां दी थी. दोनों के बीच लाइव मैच के दौरान काफी देर तक बहस हुई थी. इसके अलावा मैच के दौरान ही वार्न के एक थ्रो से सैमुअल्स बौखला गए थे और उन्होंने गुस्से में अपना बल्ला फेंक दिया था.

दरअसल सोशल मीडिया पर टी20 वर्ल्ड कप में वेस्टइंडीज की रोमांचक जीत के बाद यह वीडियो वायरल हो रहा है. वॉर्न और सैमुअल्स के बीच की यह लड़ाई तीन साल पुरानी है. गौर हो कि टी20 विश्व कप में वेस्टइंडीज की जीत के नायक रहे मार्लोन सैमुअल्स ने ऑस्ट्रेलिया के महान गेंदबाज शेन वार्न पर निशाना साधा था.

सैमुअल्स ने वार्न पर व्यंग्य कसते हुए कहा था कि वह बल्ले से जवाब देते है माइक पर नहीं. टी20 वर्ल्ड कप के फाइनल में वेस्टइंडीज क्रिकेट टीम के स्टार बैट्समैन क्रिस गेल का जल्दी विकेट गंवाने के बाद सैमुअल्स ने मोर्चा संभालते हुए 66 गेंदों में 9 चौकों और दो छक्कों की मदद से 85 रनों की शानदार पारी खेल अपनी टीम के लिए जीत की राह आसान कर दी थी.

कंगना के वकील ने दी रितिक रोशन को धमकी

बॉलीवुड में आये दिन किसी न किसी स्टार्स के बीच झगड़े की खबर आती ही रहती हैं. किन्तु कंगना और रितिक के झगड़े नें अब तो विशाल रूप धारण कर लिया हैं तथा कंगना के वकील नें तो रितिक के लिए यहाँ तक कह दिया हैं की यदि रितिक परेशानियों से बचना चाहतें हैं तो अपना नोटिस वापस ले ले और केस को खत्म करें.

कंगना रानौत के वकील रिजवान सिदि्दकी ने एक बयान जारी करके कहा 'अभिनेत्री कंगना इस मामले को खत्म करना चाहती हैं. अगर रितिक नोटिस वापस लेकर इसमें सहयोग प्रदान करे तो. वकील नें कहा नोटिस वापस लेना सबसे सही रहेगा और यही एक विकल्प है. अन्यथा मीडिया ट्रायल और मुद्दे को भटकाने से हालात और बिगड़ सकते हैं. इससे न्याय मिलने की प्रक्रिया ही और जटिल होती जाएगी.

गौरतलब है की रितिक नें कंगना को ये नोटिस तब भेजा था जब कंगना नें रितिक के लिए सिली एक्स शब्द का उपयोग किया था. तब रितिक ने कंगना को कानूनी नोटिस भेजकर उन्हें 'सिली एक्स' कहने पर सार्वजनिक रूप से माफी मांगने को कहा.

रितिक नें कंगना को क़ानूनी नोटिस फरवरी माह में भेजा था, जबाव में कंगना नें रितिक को 21 पेज का कानूनी नोटिस भेजा था. जिसमे उन्होंने रितिक पर धमकाने का आरोप लगाया था. हालाँकि कंगना के नोटिस का अभी तक रितिक नें कोई जवाब नही दिया हैं.

VIDEO: सनी की ‘वन नाइट स्टैंड’ का दूसरा गाना रिलीज

बॉलीवुड अदाकारा सनी लियोनी की आगामी फिल्म वन नाइट स्टैंड का दूसरा गाना रिलीज हो गया है. इस गाने में सनी लियोनी का बेहद हॉट एंड बोल्ड अंदाज दिख रहा है. गाने में सनी ने बोल्ड सीन्स की भरमार लगा दी है. गाने में उनके साथ फिल्म के एक्टर तनुज विरवानी है. दोनों बेहद रोमांटिक होते हुए दिख रहे है.

जैस्मीन डिसूजा के निर्देशन में बन रही इस फिल्म में सनी लियोन के साथ अभिनेता तनुज विरवानी (रति अग्निहोत्री के बेटे) मुख्य किरदार निभा रहे हैं. गौर हो कि ‘पुरानी जींस’ और ‘लव यू सोनियो’ जैसी फिल्मों में काम कर चुके तनुज एक लंबे समय के बाद ‘वन नाइट स्टैंड’ में नजर आएंगे. फिल्म की रिलीज डेट 22 अप्रैल को बताई जा रही है.

19 में शादी, 3 बच्चे, 30 में तलाक…अब शाहरुख की हीरोइन

बॉलीवुड अभिनेता शाहरुख खान 15 फरवरी को रिलीज होने वाली फिल्म 'फैन' में मॉडल और एक्ट्रेस वलुश्चा डिसूजा से रोमांस करते हुए दिखाई देंगे. बॉलीवुड फिल्म डायरेक्टर मनीष शर्मा की इस थ्रिलर फिल्म से  33 वर्षीय वलुश्चा डिसूजा बॉलीवुड डेब्यू करने जा रही हैं.

वलुश्चा डिसूजा ने 19 साल की उम्र में सुपरमॉडल मार्क रॉबिन्सन से फरवरी, 2002 में लव मैरिज की थी. वलुश्चा डिसूजा तीन बच्चों शनेल, ब्रुकलिन, सिएना की मां है.  2013 में  वलुश्चा डिसूजा और  मार्क रॉबिन्सन दोनों अलग हो गए.

गोवा में जन्मी वलुश्चा डिसूजा के परिवार में सभी एडवोकेट और डॉक्टर्स हैं. सभी चाहते थे कि वो इनमें से ही कोई प्रोफेशन में करियर बनाए. जब वलुश्चा डिसूजा 10वीं क्लास में थीं तो एक मोटिवेशनल लेक्चर सुनने गई थीं. सभी स्टूडेंट्स इकोनॉमिक्स, साइकोलॉजी अन्य सब्जेक्ट्स के बारे में पूछ रहे थे.

उनसे जब कुछ पूछने को कहा गया तो वलुश्चा डिसूजा ने पूछा कि बॉलीवुड में कैसे जा सकते हैं और सभी क्लास मेट्स उन पर हंसने लगे थे. वलुश्चा डिसूजा ने 16 साल की उम्र से ही  मॉडलिंग करना शुरू कर दिया. वलुश्चा डिसूजा ने मॉडलिंग को करियर के रूप में चुना और 2000 में मिस इंडिया में हिस्सा लिया. फैशन इंडस्ट्री में  वलुश्चा डिसूजा ने एक खास पहचान बनाई है.

दिल्ली में शुरू हुई बाइक टैक्सी सर्विस, 5 रुपये में करें सफर

दिल्ली की कंपनी प्रॉम्टो ने शहर की पहली इको फ्रेंडली टू व्हीलकर इलेक्ट्रिक बाइक टैक्सी सर्विस की शुरुआत कर दी है. दूरी तय करने के लिहाज से यह एक बड़ा कदम माना जा रहा है.

शुरुआती चरण में प्रॉम्टो ने 20 बैटरी चलित बाइक्स को हरी झंडी दिखाई. ये सभी दिल्ली स्थित कनॉट प्लेस से उसके इर्द-गिर्द 5 किलोमीटर के दायरे में सर्विस देंगी. इनका किराया महज 5 रुपये प्रति किलोमीटर रहेगा.

ये सभी बाइक्स पॉल्यूशन फ्री हैं और इन सभी में जीपीएस लगा है. इनका वेरीफिकेशन भी किया जा चुका है और इनके ड्राइवर्स का टेस्ट भी हो चुका है. प्रॉम्टो के मुखिया निखिल मलिक की मानें तो बाइक टैक्सी सर्विस की शुरुआत से दिल्ली में प्रदूषण को ​कंट्रोल करने में मदद मिलेगी.

आगामी 6 महीनों में प्रॉम्टो ऐसी 500 बैटरी चलित बाइक्स को लाने की प्लानिंग कर रहा है. साथ ही आगामी 3 वर्षों में 10 हजार ऐसी बाइक्स लाने का प्राम्टो का विचार है.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें