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सौहार्द पर टिका है बच्चों का भविष्य

झगड़ा करने वाले पति पत्नी आम हैं. मारपीट भी अनसुनी नहीं है. किसी भी आर्थिक व शैक्षिक स्तर पर हाथापाई पर उतर आना अजब नहीं होता. वाक्युद्ध तो प्रेम में डूबे पति पत्नी भी करते रहते हैं पर जल्द ही मान भी जाते हैं. अब बच्चे ज्यादा चौकन्ने होने लगे हैं. कानून, पुलिस, दादादादी, नानानानी से ज्यादा प्रभावशाली बच्चों की उपस्थिति झगड़े के दौरान होने लगी है.

कोलकाता के एक स्कूल की लड़की ने अपने मातापिता की पोलपट्टी तब खोल दी, जब उस ने स्कूल में दिए गए ‘माई फैमिली’ पर ऐस्से में घर में होने वाली मार पिटाई साफसाफ शब्दों में लिख दी. इस पर स्कूल ने ज्यादा समझदारी दिखाई और मातापिता को बुला कर उन्हें घर बांट लेने की सलाह दी ताकि बेटी मारपीट की दर्शक या शिकार न बने.

आज के बच्चे बहुत सी बातों की सहीगलत की समझ ही नहीं रखते, उसे कहने में भी हिचकते नहीं हैं. घर में दादादादी या नानानानी न हों तो वे स्कूल में मित्रोंसहेलियों व शिक्षकों से अपने दुख शेयर कर सकते हैं. शिक्षकों के लिए मातापिता की प्रतिष्ठा से ज्यादा बच्चों की सुखशांति महत्त्वपूर्ण होती है और उन के पास मातापिता को बुलाने का वह अधिकार है, जो मजिस्ट्रेटों के पास भी नहीं है और वह भी बिना वकील के.

पतिपत्नी बच्चे पैदा करने के बाद अपनी बहुत सी स्वतंत्रताएं खो देते हैं, यह उन्हें समझ लेना चाहिए. बच्चे उन के अपने सुखों, कैरियर, गुस्से, फ्रस्ट्रेशन से ऊपर हैं, यह समझ कर ही उन से व्यवहार करना चाहिए. बच्चों के प्रति ज्यादा लाडप्यार गलत है और उन की मनमानी सहना भी खतरनाक है पर उन की छत पर क्रैक्स न हों, यह जिम्मेदारी मातापिता की है.

स्कूलों को बच्चों को एनकरेज करना चाहिए कि वे घर की बातें शिक्षकों से शेयर करें. यह पाठ्यक्रम और बच्चों के विकास का हिस्सा हो. मातापिता अपनी प्राइवेसी में इसे दखल मान सकते हैं पर यह बच्चों के मानसिक व शारीरिक विकास के लिए जरूरी है.

यह नहीं भूलना चाहिए कि जो पतिपत्नी जराजरा सी बात पर घर में लड़ते हैं, वर्क प्लेस में एकदम दब्बू बन जाते हैं और दफ्तरों के अनुशासन चुपचाप सहते हैं, क्योंकि उन का वर्तमान और भविष्य इसी पर निर्भर है.

इसी तरह घरों में बच्चों का वर्तमान व भविष्य मातापिता के आपसी सौहार्द पर टिका है. मतभेद आम हैं पर उन में चीखनेचिल्लाने या हिंसा की जगह नहीं है. सामाजिक कानूनों, काउंसलरों और पारिवारिक दबावों से ज्यादा स्कूल का पीयर प्रैशर मातापिता को अनुशासित रखने में कारगर है. इस का सदुपयोग करा जाना चाहिए.

दो युवतियां

अभी तक आप ने पढ़ा…

बड़े शहर के एक कालेज में 2 युवतियां मिलीं. उन की दोस्ती प्रगाढ़ हो गई. शहर वाली युवती प्रियांशी सुखसुविधाओं से संपन्न थी जबकि कसबाई युवती सीधीसादी. शहरी युवती मस्ती और जोश में जीती व कालेज के सभी युवकों से फ्लर्ट करती. सभी युवक उस के आगेपीछे चक्कर लगाते रहते लेकिन वह सभी को नचाती. उस की सहेली प्रतिभा अकसर युवकों के सामने शर्माती और निगाहें फेर लेती. उस ने प्रतिभा को भी आधुनिक ढंग से जीने के टिप्स दिए. लेकिन कसबाई युवती संकोची थी. शहरी युवती को वैलेंटाइन पर युवकों ने महंगे गिफ्ट्स दिए लेकिन उस ने उन्हें ठुकरा दिया. एक युवक से उस ने काफी बातचीत की पर उसे भी कह दिया कि घबराओं मत मैं तुम से शादी नहीं करने वाली. प्रियांशी को लगता कि प्रेम तो शारीरिक आकर्षण है और शारीरिक मिलन पर जा कर समाप्त होता है. ऐसे में दोस्ती के तार झनझना कर टूट जाते हैं.

अब आगे…

कसबे वाली युवती…

मेरी समझ में अच्छी तरह आ गया है कि मेरी सुंदरता प्रियांशी के सामने बिलकुल वैसी ही है, जैसी पूर्णिमा की रात को उस के अगलबगल रहने वाले तारों की होती है, जो चांद की चमक के सामने किसी को दिखाई नहीं देते. मैं ने मन बना लिया है कि यदि मुझे अपने अस्तित्व को बचाए रखना है, तो प्रियांशी से दूर जाना होगा.

वह अच्छी युवती है, अच्छी दोस्त है, सलाहकार है, लेकिन इस उम्र में मुझे एक अच्छी दोस्त की नहीं बल्कि एक अच्छे प्रेमी की आवश्यकता है. मेरे बदन में जो आग है उसे प्रेमी की ठंडी फुहारें ही बुझा सकती हैं. मैं प्रियांशी से धीरेधीरे किनारा कर रही हूं और उसे इस बात का आभास भी हो गया है, लेकिन मुझे उस की चिंता नहीं करनी है. उस की चिंता करूंगी तो मैं कभी किसी युवक का प्यार हासिल नहीं कर पाऊंगी.

सौंदर्य और प्रेम के बीच एक अनोखा विरोधाभास मैं ने अनुभव किया. अधिक सुंदर युवती अति साधारण रंगरूप और कदकाठी वाले युवक के साथ प्यार के रंग में रंग जाती है, तो दूसरी तरफ अति साधारण युवती अति सुंदर और अमीर युवक को फंसाने में कामयाब हो जाती है. इस में अपवाद भी हो सकते हैं, परंतु विरोधाभास बहुत है और यह एक परम सत्य है.

मेरे सौंदर्य पर कई युवक मरने लगे थे. अत: मैं ने किसी एक युवक को चुना. प्रियांशी के ठुकराए प्रेमी ही मेरा शिकार बन सकते थे, क्योंकि घायल की गति घायल ही जान सकता था. मैं ने प्रवीण की तरफ ध्यान दिया. वह अमीर युवक था और कार से कालेज आता था. उस से बात करने में कई दिन लग गए. जब वह एकांत में मिला तो मैं ने हलके से मुसकरा कर उस की तरफ देखा. उस के होंठों पर भी एक टूटी हुई मुसकराहट बिखर गई. मैं ने अपनी शर्म त्याग दी थी, संकोच को दबा दिया था. प्यार के लिए यह दोनों ही दुश्मन होते हैं. मैं ने कहा, ‘‘कैसे हैं?’’

‘‘ठीक हूं. आप कैसी हैं?’’

‘‘बस, ठीक ही हूं. आप तो हम जैसे साधारण लोगों की तरफ ध्यान ही नहीं देते कि कभी हालचाल ही पूछ लें.’’

वह संकोच से दब गया, ‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है.’’

फिर वह चुप हो कर ध्यान से मेरा चेहरा देखने लगा. मैं एकटक उसे ही देख रही थी. मैं ने बिना हिचक कहा, ‘‘केवल गुलाब के फूल ही खुशबू नहीं देते, दूसरे फूलों में भी खुशबू होती है. कभी दूसरी तरफ भी नजर उठा कर देख लिया कीजिए.’’

प्रवीण के चेहरे पर हैरानी के भाव दिखाई दिए. मैं लगातार मुसकराते हुए उसे देखे जा रही थी. वह मेरे मनोभाव समझ गया. थोड़ा पास खिसक आया और बोला, ‘‘प्रियांशी के साथ रहते हुए कभी ऐसा नहीं लगा कि आप के मन में ऐसा कुछ है. आप तो सीधीसादी, साधारण सी चुप रहने वाली युवती लगती थीं. कभी आप को हंसतेमुसकराते या बात करते नहीं देखा. ऐसी नीरस युवती से कैसे प्यार किया जा सकता है.’’

‘‘नहीं, यह बात नहीं है. आप प्रियांशी के सौंदर्य की चमक में खोए हुए थे, तभी तो आप को उस के पास जलता हुआ चिराग दिखाई नहीं दिया. लेकिन यह सत्य है कि चांद सब का नहीं होता और चांद की चमक घटतीबढ़ती रहती है. उस के जीवन में अमावस भी आती है, लेकिन चिराग तो सब के घरों में होता है और यह सदा एक जैसा ही चमकता है.’’

‘‘वाह, बातें तो आप बहुत सुंदर कर लेती हैं. आप का दिल वाकई बहुत खूबसूरत है. मैं समुद्र में पानी तलाश रहा था, जबकि खूबसूरत मीठे जल की झील मेरे सामने ही लहरा रही है.’’

‘‘आप उस झील में डुबकी लगा सकते हैं.’’

‘‘सच, मुझे विश्वास नहीं होता,’’ उस ने अपना हाथ मेरी तरफ बढ़ाया.

मैं ने लपक कर उस का हाथ थाम लिया, ‘‘आप विश्वास कर सकते हैं. मैं प्रियांशी नहीं प्रतिमा हूं.’’

‘‘उसे भूल गया मैं,’’ कह कर उस ने मुझे अपने आगोश में ले लिया.

‘‘आग दोनों तरफ लगी थी और उसे बुझाने की जल्दी भी थी. पहले तो हम उस की कार में घूमे, फिर पार्क के एकांत कोने में बैठ कर गुफ्तगू की, हाथ में हाथ डाल कर टहले. प्यार की प्राथमिक प्रक्रिया हम ने पूरी कर ली, पर इस से तो आग और भड़क गई थी. दोनों ही इसे बुझाना चाहते थे. मैं इशारोंइशारों में उस से कहती, कहीं और चलें?’’

‘‘कहां?’’ वह पूछता.

‘‘कहीं भी, जहां केवल हम दोनों हों, अंधेरा हो और…’’

फिर हम दोनों शहर के बाहर एक रिसोर्ट में गए. प्रवीण ने वहां एक कौटेज बुक कर रखा था. वहां हम दोनों स्वतंत्र थे. दिन में खूब मौजमस्ती की और रात में हम दोनों… वह हमारा पहला मिलन था, बहुत ही अद्भुत और अनोखा… पूरी रात हम आनंद के सागर में गोते लगाते रहे. पता ही नहीं चला कि कब रात बीत गई.

फिर यह सिलसिला चल पड़ा.

प्यार के इस खेल से मैं ऐसी सम्मोहित हुई और उस में इस तरह डूब गई कि पढ़ाई की तरफ से अब मेरा ध्यान एकदम हट गया. वार्षिक परीक्षा में मैं फेल होतेहोते बची. प्रियांशी हैरान थी. उसे पता चल चुका था कि मैं कौन सा खेल खेल रही हूं. उस ने मुझे समझाने का प्रयास किया, लेकिन मैं ने उस पर ध्यान नहीं दिया. प्यार में प्रेमीप्रेमिका को किसी की भी सलाह अच्छी नहीं लगती.

गरमी की छुट्टियों में मैं अपने घर भी नहीं गई. प्रवीण के प्यार ने मुझे इस कदर भरमा दिया कि मैं पूरी तरह उसी के रंग में रंग गई. मांबाप का प्यार पीछे छूट गया. उन से पढ़ाई का झूठा बहाना बनाया और गरमी की छुट्टियों में भी होस्टल में ही रुकी रही. पूरी गरमी प्रवीण के साथ मौजमस्ती में कट गई. पढ़ाई के नाम पर कौपीकिताबों पर धूल की परतें चढ़ती रहीं.

प्रियांशी को पता था कि मैं शहर में ही हूं, उस ने कई बार मिलने का प्रयास किया, पर मैं बहाने बना कर टालती रही. उस से अब दोस्ती केवल हायहैलो तक ही सीमित रह गई थी. मुझे मेरी चाहत मिल गई थी, उस में डूब कर अब बाहर निकलना अच्छा नहीं लग रहा था. देहसुख से बड़ा सुख और कोई नहीं होता. मैं जिस उम्र में थी, उस में इस का चसका लगने के बाद, अब मुझे किसी और सुख की चाह नहीं रह गई थी.

एक दिन प्रियांशी ने कहा, ‘‘प्रतिमा, मुझे नहीं पता तुम क्या कर रही हो, लेकिन मुझे जितना आभास हो रहा है, उस से यही प्रतीत होता है कि तुम पतन के मार्ग पर चल पड़ी हो.’’

‘‘मुझे नहीं लगता कि आज हर युवकयुवती यही कर रहे हैं.’’

‘‘हो सकता है, पर इस राह की मंजिल सुखद नहीं होती.’’

‘‘जब कष्ट मिलेगा, तब यह राह छोड़ देंगे.’’

‘‘तब तक बहुत देर हो जाएगी,’’प्रियांशी के शब्दों में चेतावनी थी. मैं ने ध्यान नहीं दिया. जब आंखों में इंद्रधनुष के रंग भरे हों, तो आसमान सुहाना लगता है, धरती पर चारों तरफ हरियाली ही नजर आती है. प्रवीण के संसर्ग से मैं कामाग्नि में जलने लगी थी. हर पल उस से मिलने का मन करता, लेकिन रोजरोज मिलना उस के लिए भी संभव नहीं था. मिल भी जाएं, तो संसर्ग नहीं हो पाता. मैं कुढ़ कर रह जाती. उस के सीने को नोचती सी कहती, ‘‘यह तुम ने कहां ला कर खड़ा कर दिया मुझे. मैं बरदाश्त नहीं कर सकती. मुझे कहीं ले कर चलो.’’

वह संशय भरी निगाहों से देखता हुआ कहता, ‘‘प्रतिमा, रोजरोज यह संभव नहीं है. तुम अपने को संभालो, प्यार में केवल सैक्स ही नहीं होता.’’

‘‘लेकिन मैं अपने को संभाल नहीं सकती. मेरे अंदर की आग बढ़ती जा रही है. इसे बुझाने के लिए कुछ करो.’’

प्रवीण जितना कर सकता था, कर रहा था. उस ने मेरे ऊपर काफी रुपया खर्च किया. अधिकांश रुपया तो होटल और रिसोर्ट्स में खर्च हुआ था. बाकी मेरे उपहारों पर… फिर भी मैं संतुष्ट नहीं थी. उपहारों से तो थी, पर शरीर की मांग बढ़ती ही जा रही थी और इसे पूरा करने में प्रवीण खुद को असमर्थ पा रहा था. मैं जितना मांगती, उतना ही वह पीछे हटता जाता.

आखिर प्रवीण मेरी बढ़ती मांग से परेशान हो गया. अब वह मुझ से कटने लगा, लेकिन मैं उसे कहां छोड़ने वाली थी. अभी कुछ छुट्टियां बाकी थीं. मैं ने उस से कहा, ‘‘छुट्टियां खत्म होने से पहले एक बार वाटर पार्क चलते हैं. रात को रिसोर्ट में  ही रुकेंगे.’’

प्रवीण कुछ सोच कर बोला, ‘‘यार, मैं ने काफी पैसा खर्च कर दिया है. अभी छुट्टियां हैं. पिताजी से मांगना मुश्किल है. मैं क्या बताऊंगा उन्हें? मम्मी का पर्स मैं ने खाली कर दिया है. कालेज बंद है इसलिए  कौपीकिताबों का बहाना भी नहीं चल सकता.’’

‘‘तो फिर… कुछ न कुछ करो.’’

‘‘मैं एक काम करता हूं. मैं अपने कुछ दोस्तों से बात करता हूं. हम सभी मिल कर प्रोग्राम बनाते हैं. इस से रिसोर्ट और वाटर पार्क का खर्च आपस में बंट जाएगा. किसी एक के ऊपर बोझ भी नहीं पड़ेगा.’’

‘‘लेकिन तुम और मैं…’’

‘‘हम दोनों अलग कमरे में रह कर मौज करेंगे.’’

मैं ने ज्यादा नहीं सोचा, मान गई. अगले ही दिन प्रवीण अपने 4 दोस्तों के साथ मुझे ले कर एक बहुत अच्छे रिसोर्ट कम वाटर पार्क में चला गया. दिन भर हम लोगों ने वाटर पार्क में मस्ती की. शाम को खाना खाया. प्रवीण ने अपने दोस्तों के साथ बियर पी. कुछ ने शायद ड्रिंक भी ली थी. मैं ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया. मुझे तो खाना खा कर कमरे में जाने की जल्दी थी, ताकि मैं प्रवीण के साथ अपने कामसुख को प्राप्त कर सकूं.

उस दिन पहली बार ऐसा हुआ जब खाना खातेखाते मुझे झपकी आने लगी. खाना खत्म होने तक मैं मदहोश सी हो गई थी. मुझे याद है, प्रवीण मुझे सहारा दे कर कमरे में लाया था. कमरे के अंदर आते ही मैं ने अनिद्रा में उस को कस कर भींच लिया था. फिर मैं उस को अपने ऊपर लिए पलंग पर गिर पड़ी.

कैसी थी वह रात… भयानक और लिजलिजी सी. सारी रात मैं जागतीसोती सी अवस्था में रही. जब भी मेरी तंद्रा टूटती मुझे लगता, कोई पहाड़ मेरे ऊपर सरक रहा है. मैं फूल सी मसलती जाती और लगता, जैसे मेरे अंदर कोई गरम लावा बह रहा था. बेहोशी के आलम में मैं कुछ समझ न पाती कि मेरे साथ क्या हो रहा था, पर जो भी हो रहा था, वह बहुत घिनौना और भयानक था. पूरी रात न तो मेरी बेहोशी टूटी, न मेरे ऊपर से पहाड़ हटा, मैं टूटी ही नहीं, मसल दी गई थी, पूरी तरह से. अब मैं किसी मंदिर का फूल नहीं थी, मैं सड़क पर गिरा हुआ एक फूल थी, जिस के ऊपर से सैकड़ों लोगों के पैर गुजर चुके थे.

अगले दिन दोपहर को जब मेरी तंद्रा टूटी, तब मुझे एहसास हुआ कि मेरे साथ क्या हुआ था. पूरी रात मुझे 5 दरिंदों ने झिंझोड़ा ही नहीं, नोच कर खाया भी था. मेरे शरीर के खून की एकएक बूंद उन पांचों वहशियों ने पी थी, उन के मुख लाल थे और मैं रक्तविहीन, अर्द्धबेहोशी की हालत में लुटी, असहाय बिस्तर पर निर्वस्त्र पड़ी थी. मुझ में इतनी भी ताकत नहीं बची थी कि मैं उठ कर अपनी अस्मत को कपड़े के एक टुकड़े से ढक सकती.

वे पांचों कुटिलता से मुसकरा रहे थे. मेरा शरीर जल रहा था, लेकिन मैं उठ कर उन के रक्त से सने मुख नहीं नोच सकती थी. मैं ने अपने मुरदा हाथों को उठा कर किसी तरह अपनी जांघों के बीच रखा, तभी प्रवीण की कुटिलता भरी हंसी की ध्वनि मेरे कानों में पड़ी. वह कह रहा था, ‘‘आशा है, अब तुम्हारी कामेच्छा शांत हो गई होगी. इस के बाद अब तुम्हें किसी और के पास जाने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी.’’

सुनतेसुनते मैं फिर से बेहोश होने लगी थी और इसी अर्द्धबेहोशी की हालत में मैं ने देखा कि पांचों भेडि़यों के जबड़े फैलने लगे थे. उन की आंखों में क्रूरता और पिपासा के भाव जाग्रत हो रहे थे. वे फिर से मेरे ऊपर हमला करने के लिए स्वयं को तैयार कर रहे थे.

अंतिम हमला मैं ने कैसे झेला, मुझे नहीं पता.

शहर वाली युवती…

प्रतिमा की आंखों में इंद्रधनुषी सपने थे, लेकिन सपने देखने वाला व्यक्ति यह भूल जाता है कि नींद टूटने के बाद केवल सुबह का उजाला ही नहीं दिखाई पड़ता है, कभीकभी चारों तरफ नीरव रात का अंधेरा भी होता है. इंद्रधनुषी आसमान में घनघोर घटाएं भी घिरती हैं जो कभीकभी अतिवृष्टि से धरा को जलमग्न कर देती हैं. तब चारों ओर सैलाब का हाहाकार होता है, जिस में सबकुछ बह जाता है.

मुझे यह महसूस हो रहा था, प्रतिमा प्रेम के रंग में नहीं, बल्कि आधुनिकता की बंधनहीन स्वतंत्रता और उच्छृंखलता के बीच भटक गई थी. वह प्रेम की पवित्रता और मर्यादा को तोड़ कर पाश्चात्य सभ्यता के नवनिर्मित उन्मुक्त संसार में विचरने लगी थी. इस उन्मुक्त संसार में कोई नैतिक मूल्य नहीं थे. युवकों और युवतियों को जो अच्छा लग रहा था, वही कर रहे थे. मेरा मानना है कि प्रेम को उन्मुक्त नहीं होना चाहिए. बिना किसी प्रतिबंध और प्रतिबद्धता के जब हम कोई कार्य करते हैं, तो उस के दुष्परिणाम भी भयंकर होते हैं.

आज का युवा जिस संसार में सामाजिक मूल्यों को तोड़ कर रह रहा है, उस के दुष्परिणाम दोचार साल में ही सामने आने लगते हैं. एकदूसरे के ऊपर आरोपप्रत्यारोप, अत्याचार, शोषण और बलात्कार के मुकदमे दर्ज हो रहे हैं. जो जीवन में कभी नहीं होता था, वह युवा अपने छात्र जीवन में ही एक अपराधी की तरह झेलने को मजबूर हो जाता है. यही आधुनिक प्रेम की परिणति है.

प्रतिमा कितनी सीधी और शर्मीली थी, लेकिन आज उस ने शर्म और संकोच के सभी बंधन तोड़ दिए हैं. जो व्यक्ति कभी घर से नहीं निकलता है, वह बाहर की धूप में आ कर चौंधिया जाता है, रास्ते उसे भरमाते हैं, तो हवाएं उसे मदहोश कर देती हैं. ऐसे में उस का भटकना स्वाभाविक होता है. प्रतिमा के साथ भी यही हो रहा था. अचानक कसबे से शहर आई तो यहां की चकाचौंध ने उसे भ्रमित कर दिया. चारों तरफ चमकदमक थी और वह उस रंगीन दुनिया में भटक गई.

मैं उस के बारे में चिंतित हूं. मुझे पता चल गया है कि वह प्रवीण के साथ कौन सा खेल खेल रही थी. मैं उसे समझाना चाहती हूं, पर वह मुझ से बात ही नहीं करती, जैसे मैं प्रवीण को उस से छीन लूंगी. मुझे क्या पड़ी है?

प्रवीण को तो मैं ने ही ठुकराया था. फिर मुझे युवकों की क्या कमी? सारे तो मेरे पीछे पड़े रहते हैं, लेकिन प्रतिमा ने ऐसा क्यों किया? चटाक से सारे बंधन तोड़ दिए और परदों को खींच कर फाड़ दिया. क्या कोई विश्वास करेगा कि कुछ दिन पहले तक वह एक शर्मीली युवती थी. इतनी शर्मीली कि युवतियों से भी बात करने में उस की जबान लड़खड़ाने लगती थी, लेकिन आज वह युवकों के साथ तितलियों की तरह उड़ती फिर रही है.

प्रेम की बयार न जाने उसे ले कर कहां पटकेगी?

यों ही एक दिन मेरे मन में आया कि अचानक जा कर प्रतिमा से मिलूं. मैं उस के होस्टल गई, वह वहां नहीं थी. किसी को पता भी नहीं था कि कहां गई है? छुट्टियां थीं, इसलिए वार्डन को भी परवा नहीं थी. मैं ने उस का मोबाइल मिलाया लेकिन वह बंद था. मुझे चिंता हुई. उस के होस्टल के चौकीदार से बस इतना पता चला कि 3-4 दिन से वह होस्टल नहीं आई थी.

कुछ सोच कर मैं ने प्रवीण को फोन मिलाया. उस का फोन भी स्विच औफ था. अचानक दिमाग में आया कि उन दोनों के साथ कोई हादसा तो नहीं हो गया. मैं ने अपनी कुछ क्लासमेट्स से बात की. उन्हें भी उन का कुछ पता नहीं था. प्रतिमा मुझ से विरक्त थी, पर मुझे उस की चिंता थी. पहले मैं ने अपने मम्मीपापा से बात की. उन्होंने भी चिंता व्यक्त की कि कुछ भी हो सकता है. फिर हमसब कालेज प्रशासन से मिले. उन्होंने तत्काल प्रतिमा के घर संपर्क करने के लिए कहा. कालेज रिकौर्ड से उस के घर का पता और फोन नंबर मिल गया. पता चला कि प्रतिमा घर भी नहीं गई थी.

सब ने सलाह की कि पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करवा दी जाए. यह कालेज प्रशासन की तरफ से हुआ. पुलिस ने सब से पहला काम यह किया कि मेरे कहने पर प्रवीण और प्रतिमा के कौल डिटेल्स निकलवाए. उन से पता चला कि प्रतिमा की अंतिम बातचीत प्रवीण के फोन पर हुई थी और उस की अंतिम लोकेशन रोहतक रोड का एक रिसोर्ट था. प्रवीण के फोन की भी यही लोकेशन थी. हालांकि प्रवीण के फोन से बाद में अन्य लोगों से भी बात हुई थी और उस की अंतिम बातें शहर की लोकेशन से हुई थीं. इस से यह साबित हो गया कि अंतिम समय में प्रतिमा और प्रवीण एकसाथ थे.

पुलिस ने सक्रियता दिखाई और सब से पहले प्रवीण के घर पर छापा मारा. वह घर पर निश्चिंत और बेखौफ था. उसे थाने लाया गया. उस से पूछताछ हुई, पर हर पेशेवर अपराधी की तरह उस ने भी मनगढ़ंत कहानियां सुनाईं, पुलिस को गुमराह करने की कोशिश की, लेकिन फोन के कौल डिटेल्स अलग ही कहानी बयां कर रहे थे. उन के आधार पर प्रवीण टूट गया. फिर जो उस ने कहानी सुनाई, वह प्रतिमा के जोशीले प्रेम के दर्दनाक अंत की कहानी थी.

प्रतिमा ने जब प्रेम के मैदान में कदम रखा तो वह बहुत तेज दौड़ने लगी. प्रवीण उस की हर जरूरत पूरी करता, पर हर रोज प्रतिमा की शारीरिक जरूरत पूरी करना न तो प्रवीण के वश में था, न यह संभव था. इस के लिए वक्त और धन दोनों की आवश्यकता थी. वह प्रतिमा से मना करने लगा तो वह उग्र होने लगी और उसे धमकियां देती कि बलात्कार के मामले में फंसा देगी. तंग आ कर प्रवीण ने उस से छुटकारा पाने का एक खतरनाक तरीका अपनाया.

एक सोचीसमझी साजिश के तहत प्रवीण प्रतिमा को अपने मित्रों के साथ ले कर लोनावला के एक रिसोर्ट में गया. उस ने शाम के खाने में प्रतिमा को बेहोशी की दवा दे दी थी. फिर रात भर उन पांचों ने मिल कर उस के साथ बुरी तरह बलात्कार किया और यह सिलसिला अगले दिन शाम तक जारी रहा. तब तक प्रतिमा मृतप्राय सी हो गई थी. वे भी थक गए थे. रात को उन सब ने मिल कर तय किया कि प्रतिमा को उसी हालत में जंगल में फेंक कर भाग जाएंगे. खुले जंगल में कोई जानवर उसे खा जाएगा या फिर वह यों ही समाप्त हो जाएगी.

मृतप्राय प्रतिमा को ये लोग जंगल में फेंक कर रात को ही शहर भाग आए थे. अब प्रतिमा का पता नहीं था.

पुलिस ने तुरंत प्रवीण के अन्य चारों दोस्तों को गिरफ्तार कर लिया. उन्हें साथ ले कर वह घटनास्थल पर पहुंचे, जहां प्रतिमा को जीवित या मृत अवस्था में फेंका गया था. वहां न कोई लाश मिली, न उस के अवशेष. संबंधित थाने में पता किया गया, तो पता चला कि 2 दिन पहले एक युवती नग्नावस्था में बेहोश जंगल में कुछ गांव वालों को मिली थी. उन्होंने पुलिस को खबर की, पुलिस ने युवती को कसबे के अस्पताल में भरती करवा दिया था और अज्ञात लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर तफतीश आरंभ कर दी थी.

स्थानीय पुलिस को घटनास्थल से ऐसा कोई सूत्र नहीं मिला, जिस से वह अपनी कार्यवाही आगे बढ़ा सके. प्रतिमा अभी तक बेहोश थी. उस का बयान दर्ज नहीं हुआ था.

अस्पताल जा कर जब मैं ने प्रतिमा की हालत देखी, तो मैं स्वयं बेहोश होतेहोते बची. कोई भेडि़या भी उस को इस तरह नोच कर नहीं खाता, जिस तरह से प्रवीण और उस के दोस्तों ने उस के शरीर के साथ अत्याचार किया था.

काश, प्रतिमा यह बात समझ पाती कि प्रेम जीवन के लिए आवश्यक है, पर इतना भी आवश्यक नहीं कि उस के लिए अपनेआप को ही हवन कर दिया जाए. अगर वह समय पर समझ लेती, तो उस की यह दुर्दशा न होती.

प्रतिमा जाने कब होश में आएगी. जब उसे होश आएगा, तब क्या वह किसी पुरुष को फिर से प्यार करने की हिम्मत जुटा पाएगी? अधिकांश प्रेमसंबंधों का अंत विरह में होता है, पर ऐसा कभी नहीं होता, जैसा प्रतिमा के प्रेम का हुआ था.               

मुक्तेश्वर: हिमालय की गोद में प्रकृति का घर

नेचरलवर होने के साथसाथ आप फ्लाइंग स्पोर्ट्स के भी दीवाने हैं तो मुक्तेश्वर आप के लिए उपयुक्त पर्यटन स्थल है. उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में नैनीताल से लगभग 52 किलोमीटर की दूरी पर स्थित मुक्तेश्वर में ऊंची, हरीभरी पहाडि़यों और हजारों फुट गहरी खाइयों का अद्भुत नजारा देखने को मिलता है. कुहासे से भीगी सड़कें, धुंध के बादलों की अठखेलियां और चेहरे को छूती ठंडी हवाएं, मुक्तेश्वर तक जाने वाले रास्ते की ये ऐसी हवाएं हैं जो आप के सफर को यादगार बना देंगी.

खूबसूरत डगर : यों तो नैनीताल और काठगोदाम से उत्तराखंड परिवहन की बस से मुक्तेश्वर पहुंचा जा सकता है, लेकिन सफर का असली मजा लेना हो तो प्राइवेट टैक्सी या अपने निजी वाहन से यहां जाएं. चीड़, देवदार से लदे पहाड़ों को काट कर बनाया गया रास्ता बेहद घुमावदार है.

फलों के बाग : काठगोदाम या नैनीताल से लगभग 20 किलोमीटर का सफर तय करने के बाद ही आप को सड़़क के किनारे फलों के बाग दिखने लगेंगे. बाग की देखरेख करने वाले सड़क किनारे ताजे आड़ू, खुबानी और सेब इत्यादि बेचते रहते हैं. कुछ पैसे ले कर ये लोग आप को बाग में घूमने और यहां बिताए यादगार पलों को कैमरे में कैद करने की इजाजत भी दे देते हैं. यकीन मानिए, रसभरी खुबानी और आड़ू के ये बाग घूमने के बाद आगे के सफर के लिए आप का उत्साह दोगुना हो जाएगा.

टी टाइम ब्रैक : मुक्तेश्वर के रास्ते में रोडसाइड ढाबे कम हैं. ज्यादातर ढाबों पर ब्रैकफास्ट, स्नैक्स और चाय के लिए रुका जा सकता है. गरमी के मौसम में इन ढाबों के बाहर एक ‘डू नौट मिस’ खाने की चीज मिलती है और वह है सफेद दानों से भरा भुट्टा. अपना अलग ही स्वाद और मिठास लिए यह भुट्टा आप को जरूर भाएगा. हां, खाने के पहले मोलभाव जरूर कर लें क्योंकि सिर्फ एक भुट्टा खा कर न तो आप का पेट भरेगा और न ही मन. यदि आप नौनवेज खाने के शौकीन हैं और अक्तूबर से नवंबर के बीच मुक्तेश्वर जाने की योजना बना रहे हैं तो यहां के टी पौइंट्स पर मिलने वाला मुरगे का अचार जरूर चख कर देखें.

क्या देखें

प्रकृति के खूबसूरत नजारों को देखने के साथसाथ यहां देखने की कुछ ऐसी जगहें भी हैं जहां गए बगैर आप का सफर अधूरा है :

हिमालय दर्शन : मुक्तेश्वर के पीडब्लूडी रैस्टहाउस के पार्क से हिमालय की नंदा देवी, त्रिशूल और पंचचूली चोटियों का विहंगम दृश्य देखते ही बनता है.

चौली की जाली : इसे चौथी जाली के नाम से भी जाना जाता है. पहाड़ से बाहर की तरफ निकली इस बड़ी चट्टान से भी हिमालय का सुंदर नजारा मिलता है.

यह चट्टान वैसे तो प्रकृति की एक अद्भुत रचना है मगर अंधविश्वास ने इस पत्थर के टुकड़े को भी नहीं छोड़ा. इस चट्टान में एक बड़ा होल है. अंधविश्वासी मानते हैं कि यह देवी का पवित्र स्थान है और जो निसंतान महिला इस होल में देख कर मन्नत मांगेगी, उसे संतान की प्राप्ति होगी. आप इन बेसिरपैर की मान्यताओं से दूर रहेंगे तो इस जगह का असली आनंद उठा सकेंगे.

सीतला एस्टेट : ट्रैकिंग के शौकीन लोग मुक्तेश्वर से 5 किलोमीटर की दूरी तय कर के सीतला गांव जा सकते हैं. सीतला एस्टेट नए रूप में आज भी यहां मौजूद हैं. ट्रैकिंग करने का सब से अच्छा समय सुबह का है. बर्ड फोटोग्राफी के शौकीन लोगों के लिए सीतला गांव के रास्ते में बहुत कुछ है. चिडि़यां अपने लिए खाना ढूंढ़ने के लिए सुबह ही निकलती हैं. ऐसे में आप को इन की फोटोग्राफी करने का अच्छा मौका मिलेगा. सीतला एस्टेट के सुइट्स में रुकने का इरादा है तो पहले से बुकिंग करा के आना होगा.

कैंपिंग और फ्लाइंग स्पोर्ट्स : ऐडवैंचर के शौकीन लोग मुक्तेश्वर के पास सरगाखेत इत्यादि गांव में कैंपिंग, हाइकिंग और पैराग्लाइडिंग का आनंद उठा सकते हैं. कैंपिंग और हिल स्पोर्ट्स का असली मजा मार्च से जून के दौरान आता है.

सीजन में इन सब का आनंद उठाने के लिए पहले से बुकिंग करवाएं. दोस्तों के गु्रप या परिवार के साथ कैंपिंग करने आएं तो जीप सफारी जरूर करें. हाइकिंग, रौक क्लाइंबिंग और पैराग्लाइडिंग के लिए फिट होना बेहद जरूरी है. उत्तराखंड टूरिज्म की वैबसाइट पर इस से जुड़ी जानकारी उपलब्ध है.

कैंप बुक कराने से पहले यह जरूर सुनिश्चित करें कि टौयलेट, टैंट या बाथिंग टैंट में रनिंग वाटर और दूसरी जरूरी सुविधाएं हैं या नहीं. इन कैंपों में रहनेखाने और हिल स्पोर्ट्स, जीप सफारी इत्यादि का पैकेज अलगअलग होता है. ऐसे में यह सुविधा लेने का प्रतिव्यक्ति खर्चा 7 हजार रुपए तक जा सकता है जोकि मुक्तेश्वर आनेजाने के खर्चे के अतिरिक्त होगा. अपने टूर औपरेटर से सारी जानकारी पहले से लें.

कहां ठहरें

मुक्तेश्वर और उस के आसपास कई रिजौर्ट्स हैं. सीजन में 2 स्टार रिजौर्ट का टैरिफ भी कम से कम 3 हजार रुपए से शुरू होता है. पहले से बुक कराए बगैर यहां आने की गलती न करें. सीजन में सारे रिजौर्ट्स बुक रहते हैं. ऐसे में यदि आप को कोई कमरा मिल भी गया तो आप को उस के 5 हजार रुपए तक भी देने पड़ सकते हैं.

कैसे जाएं

मुक्तेश्वर से काठगोदाम रेलवे स्टेशन लगभग 65 किलोमीटर की दूरी पर है जोकि देश के सभी प्रमुख स्थानों से रेलमार्ग द्वारा जुड़ा है. काठगोदाम से प्राइवेट टैक्सी या उत्तराखंड परिवहन की बस से मुक्तेश्वर आया जा सकता है. मुक्तेश्वर से लगभग 100 किलोमीटर की दूरी पर पंतनगर हवाई अड्डा है. हवाई मार्ग से यहां आने का प्लान न ही बनाएं तो बेहतर होगा क्योंकि यहां आने वाली उड़ानों की संख्या काफी कम है और फिर यहां से मुक्तेश्वर जाना आप के यात्रा बजट को बिगाड़ भी सकता है.

सड़क मार्ग से मुक्तेश्वर आने के लिए दिल्ली, उत्तर प्रदेश परिवहन की बसें उपलब्ध हैं. इस के अलावा आप अपनी सुविधानुसार निजी वाहन से भी आजा सकते हैं. यदि आप नैशनल हाइवे नं. 24 से लखनऊ की तरफ से आ रहे हैं तो बरेली, भोजीपुरा, हल्द्वानी, काठगोदाम होते हुए मुक्तेश्वर आ सकते हैं. यदि दिल्ली से नैशनल हाइवे नं. 24 से आ रहे हैं तो गाजियाबाद, मुरादाबाद, रामपुर, रुद्रपुर, हल्द्वानी, काठगोदाम सड़क मार्ग सही रहेगा.

ताकि ट्रिप का मजा न हो किरकिरा

मुक्तेश्वर का सफर आप के लिए सिरदर्द न बने, इस के लिए कुछ बातों का ध्यान जरूर रखें :

–       अपने साथ ठीकठाक कैश ले कर जाएं. काठगोदाम से निकलने के बाद एटीएम की सुविधा बहुत कम है और यदि है भी तो ज्यादातर में कैश नहीं होता. प्लास्टिक मनी ज्यादातर जगहों पर नहीं चलती.

–       मार्च से जून के बीच में भी यहां तापमान 10-12 डिगरी सैल्सियस तक आ सकता है, इसलिए हलके गरम कपड़े ले जाएं.

–       अन्य पहाड़ी रास्तों की अपेक्षा मुक्तेश्वर तक का रास्ता बहुत ज्यादा घुमावदार है. वौमिटिंग से निबटने की तैयारी कर के निकलें.

–       फ्लाइंग स्पोर्ट्स करने जा रहे हैं तो उस के हिसाब से कपड़े, जूते व अन्य सामान जरूर रख लें. यदि हाइट का फोबिया है या पैराग्लाइडिंग और हाइकिंग की जरूरी जानकारी नहीं है तो यह सब करने का बिलकुल प्रयास न करें.

चलो चलें बरोट और लुहारडी की वादियों में

भारत के ताज की सुरभि है हिमाचल प्रदेश. इसलिए हम ने सैरसपाटे के लिए इस के खूबसूरत स्थल बरोट और लुहारडी को चुना. पंजाब के पठानकोट से हम 3 दोस्त-मैं, राज वकील और मनमोहन धकालवी कार से निकल पड़े. पठानकोट से 5 किलोमीटर दूर से ही पहाड़ी क्षेत्र शुरू हो जाता है. सब से पहले हिमाचल का बैरियर आता है. यहां पर बसा गांव है तंडवाल. यहां से छोटीछोटी पहाडि़यां शुरू हो जाती हैं. हिमाचल के होटल, सड़क के इर्दगिर्द हरेभरे वृक्षों की छांव, छोटेछोटे खेत, आम, अमरूद, लीची और फलों के बाग हैं.

कई गांव निकलते हुए हम पहुंचे जसूर. यह छोटा सा शहर है. यहां कई होटल तथा ऐतिहासिक स्थल हैं. यहां से बड़े पहाड़ों की शृंखला शुरू होती है. यहां के टेढ़ेमेढ़े रास्ते अपनी पहचान करवाते हैं. फिर आ जाता है नूरपुर. इस शहर में एक प्राचीन ऐतिहासिक किला है. नूरपुर में लक्कड़ का कारोबार बहुत होता है. कांगड़ा में प्रवेश करते हुए हम ने शाम को मालमपुर के रेलवे रैस्ट हाउस में प्रवेश किया. यह रैस्ट हाउस बहुत ही मनमोहक स्थान पर है. साफस्वच्छ रैस्ट हाउस था. यहां हम ने एक दोस्त के फोन पर रेलवे विभाग के उच्च कर्मचारी के नाम पर कमरा बुक करवाया. वहां के कर्मचारी ने हम से एक रात के मात्र 30 रुपए लिए.

यहां हम ठहरे. रैस्ट हाउस के पास ही बड़ा बाजार है. यहां सभी सुविधाएं उपलब्ध हैं. सुबह हम निकल पड़े मंजिल की ओर. रास्ते में कहींकहीं रुक कर फोटोग्राफी का आनंद लेते रहे. बैजनाथ बाईपास से कुछ किलोमीटर दूर ऊपर पहाड़ी से बैजनाथ शहर बहुत अच्छा दिख रहा था. दूर से छोटे घरों के समूह मन को भा रहे थे. वादियों के सुंदर दृश्य नजर आ रहे थे. खड्डे तथा ऊंची पहाडि़यों का सुमेल आंखों को अच्छा लग रहा था. यह दृश्य हृदय तथा मस्तिष्क को आनंद व सुकून पहुंचाने वाला था.

दोपहर को हम गुम्मा गांव में पहुंचे. यहां पहाड़ों के बीच का रास्ता अंगरेजी के ‘सी’ अक्षर की भांति दिखता है. इस मोड़ पर एक ढाबे में हम ने दोपहर का भोजन किया. यहां की झूलती पहाडि़यों के दृश्य देखते ही बनते हैं. जब सूर्य की किरणें हरीभरी पहाडि़यों पर पड़ती हैं तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे हरियाली के ऊपर प्रकृति ने सोने की पारदर्शी सुनहरी चादर ओढ़ा दी हो. गुम्मा खूबसूरत घाटी का नाम है. गुम्मा की घाटी में खूब सब्जियां होती हैं. फलों के खेत भी मिलते हैं.

मंडी जिले की जोगेंदर नगर तहसील में जोगेंदर मंडी सड़क पर जोगेंदरनगर से 11 किलोमीटर दूर गुम्मा गांव एक घुमावदार स्थान पर स्थित है. घुमाव से ही यहां का घुमा नाम पड़ा जो बाद में गुम्मा हो गया. गुम्मा में पत्थर के काले नमक की खानें हैं. इन काले नमक की खानों से गुम्मा की एक विशिष्ट पहचान है. नमक की खानें केंद्रीय सरकार के नियंत्रण में हैं. यह नमक पशुओं को खिलाने के काम आता है. घोघड़ाधार जिला मंडी की एक प्रमुख पर्वत श्रेणी है. इस पर्वत श्रेणी के अंतर्गत डायना पार्क, हिमरी गंगा आदि स्थान दर्शनीय हैं. इस की उत्तरी ढलानों का जलप्रवाह विभिन्न नालों के जरिए ऊहल नदी में तथा दक्षिणी ढलानों का अधिकांश जलप्रवाह विभिन्न नालों के रूप में रणा खड्ड में संगम करता है.

गुम्मा (घोघुड़ाधन) चीड़, शीशम, सेमल के वनों के लिए प्रसिद्ध है. यहां घने वन हैं. झटीगरी, मंडी राजवंश की ग्रीष्मकालीन राजधानी थी. गुम्मा के आसपास कई छोटेबड़े प्रपात पहाडि़यों की सुंदरता को चार चांद लगाते हैं. गुम्मा से ऊपर की ओर कुछ घंटों का सफर तय कर हम झटीगरी के चौक में पहुंच गए. यहां चाय पीते वक्त मैं ने दुकानदार से पूछा, ‘यहां देखने वाली कोई जगह है?’ उस ने कहा कि यहां से लगभग 1 किलोमीटर दाईं ओर ऊंची पहाड़ी पर एक प्राचीन स्थान है, रानी की कोठी.

रानी की कोठी तक एक पथरीला, ऊबड़खाबड़ रास्ता जाता नजर आता है. सीधी चढ़ाई पर सांस फूलने लगती है क्योंकि रास्ते के पत्थर समतल नहीं हैं. यहां पहुंचते ही किसी आनंदविभोरावस्था में आप चले जाएंगे. यहां बर्फीली हवाएं घेर लेती हैं. यहां तिकोने पहाड़ों के बीच प्राचीन छोटीछोटी कोठियां नजर आती हैं. घने वृक्षों के बीच रानी की कोठी लगभग 1 एकड़ के समतल क्षेत्र में फैली है. इस के आगे थोड़ा रास्ता छोड़ कर फिर लगभग 1 एकड़ समतल पहाड़ी है. यहां से चोटियों के दिलकश नजारे दिखाई देते हैं.

रानी की कोठी जोगेंदर नगर से 32 किलोमीटर दूर है. यह 2,130 फुट की ऊंचाई पर है. बताया जाता है कि इस क्षेत्र का राजा गरमी के दिनों में यहां आया करता था. झटीगरी के नीचे घाटी का खूबसूरत दृश्य देखते ही बनता है. झटीगरी में आलुओं का व्यापार बड़े पैमाने पर होता है. यहां आलू बहुत पैदा होता है. रानी की कोठी के खुले आंगन में बच्चों के खेलनेकूदने के लिए अच्छा वातावरण है. घुमक्कड़ लोग अपने साथ फोल्डिंग तंबू ले कर आते हैं क्योंकि यहां कब बूंदाबांदी या तेज बारिश आ जाए, पता नहीं. बारिश में यहां प्राकृतिक दृश्य देखने का अपना अलग ही आनंद होता है. रानी की कोठी में रात के समय जब चांदसितारे साफ मौसम में झिलमिलाते हैं तो दृश्य स्वप्नलोक से कम नहीं होता.

रानी की कोठी (झटीगरी) से हम बरोट की ओर बढ़े. बरोट जाने के लिए घटासनी जाना पड़ता है. घटासनी एक छोटा सा शहर है. पठानकोट (पंजाब) से घटासनी लगभग 190 किलोमीटर की दूरी पर है. घटासनी से बरोट जाने का रास्ता एकदम सीधी चढ़ाई वाला है. यह रास्ता एक बड़े दरवाजेनुमा लगता है जैसे किसी बड़े महल का मुख्य गेट. हमारा मित्र राज डर गया. कहने लगा, छोड़ो यार, यह तो एकदम सीधी चढ़ाई है और सड़क भी बिलकुल छोटी है. चलो, वापस चलें. परंतु मैं ने देखा एक बस हमारे आगे जा रही थी. मैं ने कहा, ‘यार, जब यह बस, जा सकती है तो हम क्यों नहीं जा सकते. हिम्मत करो, चलो.’

घटासनी एक सुंदर घाटी है. घटासनी से बरोट जाते समय सुंदर दृश्य देखने को मिलते हैं. पहाड़ों के साथसाथ सड़क, नीचे खड्ड, खड्ड में सांप की भांति बहता दरिया दिल को दहला देते हैं. रास्ते में हुरला गांव में प्राचीन पहाड़ी शैली के घर दिखाई देते हैं. चीड़ के घने जंगलों से गुजरती सड़क से जब कार गुजरी तो एक अजीब सा डर लगने लगा.

मनमोहक बरोट

कई छोटेबड़े पड़ाव पार करते हुए थकेहारे हम बरोट पहुंचे. हिमाचल प्रदेश का यह विशेष अद्भुत नजारों वाला स्थान है. हम गाड़ी एक होटल के पास खड़ी कर के घूमने लगे. बरोट नगर खूबसूरती की जीवंत मिसाल है. ऊंचे पहाड़ों में बसा यह सुंदर नगर ऐसे प्रतीत होता है जैसे आसमान की गोद में कोई बच्चा खेल रहा हो.

बरोट ऊहल दरिया के छोर पर बसा हुआ है. दरिया के साथसाथ होटल बने हुए हैं. दरिया अपने से अलग हो कर कई झीलों का स्वरूप लेता है. हरीभरी पहाडि़यां अतुल्य सौंदर्य के गीत गाती प्रतीत होती हैं. दूर पहाड़ी की चोटी पर चढ़ कर सुबह का सूर्य देखने का अद्भुत आनंद है. ऐसा लगता है जैसे आसमान से कोई रोशनी नंगेपांव उतर रही हो.

शाम को ठंडी हवाओं में आसमान जब साफ होता है तो चांदतारों की बरात के साथ शामिल होना कितना अच्छा, कितना सुखद, कितना हृदयमयी हो जाता है. बादलों को छूना कितना अच्छा लगता है. बादल नीचे और आप ऊपर, जैसे आसमान में उड़ रहे हों. अच्छेअच्छे मनमोहक दृश्य आप के मनमस्तिष्क में सदैव के लिए कैद हो जाते हैं.

मंडी जिले की चुहार घाटी में नदी के किनारे बसा बरोट एक रमणीय स्थान है. बरोट का नाम जलविद्युत उत्पादन के इतिहास में बहुत प्रसिद्ध है. सन 1925 में ब्रिटिश सरकार की ओर से अंगरेजी सेना के इंजीनियर कर्नल बंटी तथा मंडी के राजा जोगेंदर सेन के बीच एक अनुबंध हुआ जिस से जोगेंदर नगर की शानन और बस्सी जलविद्युत परियोजना साकार हुई. इस परियोजना का जलभंडारण केंद्र बरोट में बना. यहीं से 2 बड़े पाइपों से पानी ले जा कर शानन और बस्सी में बिजली उत्पादन किया जाता है. यहां सरकारी होटल, रैस्ट हाउस भी हैं.

बरोट की विशेषता यह भी है कि यहां बहुत विशाल मत्स्य विभाग ट्राउट मछली केंद्र भी है. यहां ट्राउट सफेद मछली का बीज भी तैयार किया जाता है. यह नवंबर से फरवरी तक बंद रहता है. इस को मत्स्य पालन विभाग, हिमाचल प्रदेश ने संभाल रखा है. ट्राउट मछली फार्म में 400 रुपए किलोग्राम के हिसाब से मछली व्यापारियों को दी जाती है. जबकि बाजार में यह 800 से ले कर 1000 रुपए किलोग्राम के हिसाब से बेची जाती है. यह सफेद रंग की होती है तथा देखने में अति सुंदर लगती है. यह मछली ऊहल दरिया के ठंडे पानी में होती है. बर्फ से भी ज्यादा ठंडे तापमान में रहती है.

हिमाचल सरकार ने विशेष किस्म के उपकरण लगा कर इस मछली के पालन का प्रबंध किया हुआ है. यह मछली आम (साधारण) मछली से अलग होती है. बरोट के आसपास कई स्थान देखने वाले जैसे नारगु वाइल्डलाइफ सैंटर, हर्बल म्यूजियम, हर्बल गार्डन इत्यादि हैं.

बरोट से कुछ दूरी पर एक स्थान देखने योग्य है. यह स्थान लुहारडी है. बरोट से छोटे रास्ते से होते हुए हम वहां पहुंचे. लुहारडी प्रकृति की गोद में बसा एक छोटा गांव है. कांगड़ा जिले की बैजनाथ तहसील के छोटा भंगाल क्षेत्र के इस गांव में पहले केवल लुहार समुदाय के लोग रहते थे. उसी आधार पर यहां का नाम लुहारडी पड़ा.

लुहारडी गांव में लगभग 100 घर होंगे. यहां के एक नवयुवक राजेश कुमार ने बताया कि यहां के लोग शाही राजपूत की फौज में थे. इस के आसपास 11 गांव पड़ते हैं. यहां के लोग कृषि तथा हथकरघा का काम करते हैं. विशेषतौर पर महिलाएं हथकरघा का काम करती हैं. यहां सब्जियां भी होती हैं. यहां 3 से 4 फुट तक बर्फ पड़ती है. यहां के लोग भेड़बकरी का भी व्यापार करते हैं. सर्दी में जोगेंदर नगर का रास्ता, बर्फ पड़ने के कारण बंद हो जाता है. लुहारडी से सीधी चढ़ाई वाले रास्ते से 14 किलोमीटर दूर स्थित प्रसिद्ध ‘देना सर झील’ तक की पहाड़ी यात्रा पैदल ही करनी पड़ती है. कोई भी वाहन यहां नहीं जा सकता.

मंडी में व्यास नदी के दाएं किनारे प्रवेश करने वाली सब से बड़ी नदी ऊहल है. गहरी खाइयों में बहने के कारण इस नदी का जल सिंचाई हेतु प्रयोग में नहीं लाया जाता. मात्र बरोट में सरोवरों में जलसंग्रह कर सुरंग के जरिए जोगेंदर नगर पहुंचाया गया जहां पूर्व पंजाब (अविभाजित पंजाब) के समय 1930-33 में शानन विद्युत परियोजना आरंभ कर उस समय अमृतसर और लाहौर (पाकिस्तान) को बिजली की आपूर्ति की जाती थी. यहां के हृदयस्पर्शी, मिलनसार, मीठे स्वभाव के लोग अच्छे लगते हैं. यहां गरमी के मौसम में भी ठंड पड़ती है. यहां सैलानियों के लिए रहने का पूरा इंतजाम है.

– बलविंदर 'बालम' 

युवा दिखना है तो धैर्य रखना सीखें

क्या आप को हर काम की जल्दी होती है, आप फटाफट काम खत्म करने में विश्वास रखती हैं, कोई आप की बात नहीं सुनता है तो तुरंत अपना धैर्य खो देती हैं तो जरा ध्यान दीजिए. कहीं आप की यह आदत आप को बुढ़ापे की तरफ ना ले जाए. कहने का तात्पर्य यह है कि आप अपनी उम्र से पहले ही बुढ़ी नजर ना आने लगें.

आप सोच रही होंगी कि भला आप की इन आदतों का बुढ़ापे से क्या संबंध है, तो आप को बता दें कि यह बात एक अध्ययन में सामने आई है कि जो युवा महिलाएं धैर्य नहीं रखती हैं वे बुढ़ापे की तरफ जल्दी बढ़ती हैं, जबकि धैर्य रखने वाली महिलाएं अपनी युवावस्था को अधिक समय तक बनाए रख सकती हैं.

नैशनल यूनिवर्सिटी औफ सिंगापुर (एनयूएस) के अनुसंधानकर्त्ताओं ने पाया है कि धैर्य ना रखने वाली युवा चीनी महिलाओं में कोशिकीय स्तर पर तेजी से वृद्धावस्था की ओर अग्रसर होने के लक्षण दिखाई देते हैं. उन्होंने पाया कि उतावलापन रखने वाली युवा महिलाओं की कोशिकाएं धैर्य रखने वाली युवा महिलाओं की कोशिकाओं के मुकाबले शीघ्रता से बुढ़ापे की ओर बढ़ती हैं. अनुसंधानकर्त्ताओं ने स्नातक कर रही 1,158 चीनी लड़कियों को अध्ययन में शामिल किया था.

रिश्तों पर भी पड़ता है असर

धैर्य ना रखने से आप केवल बुढ़ापे की ओर अग्रसर नहीं होती बल्कि इस का असर आप के रिश्तों पर भी पड़ता है. आप उन के साथ चिड़चिड़ा व्यवहार करने लगती हैं, उन की पूरी बात सुने बगैर ही रिऐक्ट कर देती हैं.

धैर्य रख कर आप ना केवल अपनी युवावस्था को बनाएं रख सकती हैं बल्कि खुश भी रह सकती हैं. इस से आप का स्ट्रैस लैवल भी कम होता है. आप में निर्णय लेने की क्षमता विकसित होती है. जिस से आप समझ पाते हैं कि आप के लिए क्या सही है और क्या गलत.

 

सोने की नौकरी करना चाहेंगे आप

अभी तक आप ने ऐसी नौकरियों के बारे में सुना होगा जिस में कंपनी कर्मचारियों से सिर्फ काम ही मांगती है उन्हें काम में जरा भी लापरवाही बरदाश्त नहीं होती लेकिन अब एक कंपनी ने पूरी ठाठबाट वाली यानी सोने की नौकरी के लिए वैकेंसी निकाली है.

सुन कर आप को लग रहा होगा कि सोने की नौकरी क्या कंपनी का दिमाग खराब हो गया है जो उन के दिमाग में ऐसा आइडिया आया. क्या मेहनत करने वाले लोग दुनिया में नहीं रहे जो कंपनी को आलसी लोगों की जरूरत पड़ गई.

तो आप को बता दें कि कंपनी अर्बन लैडर ने अपने गद्दों की जांच के लिए ऐसी वैकेंसी निकाली है. उन्हें ऐसे व्यक्ति की तलाश है जो पूरे दिन मजे से गद्दों पर आराम फरमाए और फिर उन्हें बताए कि गद्दे कितने आरामदायक हैं.

यहां तक कि कंपनी ने लिंक्डिन डौट कौम पर ऐड भी निकाला है जिस में लिखा है, ‘हमें एक आलसी व्यक्ति की तलाश है जो बिस्तर से निकलना ही नहीं चाहता हो.’ तो है न कमाल की नौकरी. जिस में पूरे दिन सोने को मिलेगा और बदले में तनख्वाह भी मिलेगी. तो अगर आप भी खूब आलस काटने में विश्वास करते हैं तो जल्दी करिए ताकि ये नौकरी आप के हाथ से न जाने पाए.

जालिम बहू, बेचारी सास

वो दिन गए जब बहू पर सास के जुलमों की कहानियां हर दूसरे घर में सुनी जाती थीं. आज बहुएं पढ़ी लिखी और मैच्योर होती हैं. अपवाद छोड़ दें तो सताई गई बेचारी बहुएं नजर नहीं आतीं. उलटा अब तो बहुएं भी सास पर अत्याचार करने लगी हैं. ऐसा ही एक वाक्या हाल में जमशेदपुर में नजर आया.

3 अप्रैल की शाम, बहू पूनम पांडेय किसी बात पर अपने बच्चे को पीट रही थी. सास, सीता देवी (55 वर्ष) ने अपने पोते को बचाना चाहा तो पूनम ने उन की चप्पल से पिटाई कर दी. बहू की ऐसी हरकत देख सीता देवी अपने बेटे, पवन को फोन लगाने का प्रयास करने लगीं, इस पर बहू गुस्से से चिल्लाती हुई उन पर टूट पड़ी और शरीर पर केरोसिन उड़ेल कर माचिस लगा दी.

जिस वक्त बहू ने सास को जलाया, घर में कोई और नहीं था, सीतादेवी को हौस्पीटल ले जाया गया, मगर उन की मौत हो गई. मरने से पहले दिए गए अपने बयान में उन्होंने बहू की कारस्तानी का खुलासा किया.

पुलिस तहकीकात में यह बात सामने आई कि सासबहू के बीच अक्सर झगडे़ हुए करते थे. बहू अक्सर सास के साथ गालीगलौज और मारपीट करती थी, मगर पवन अपनी पत्नी से कुछ नहीं कह पाते थे.

तलाक के लिये अननैचुरल सेक्स का बहाना

सेक्स पति पत्नी के आपसी संबंधों को मजबूती देता है. जब एक पक्ष को एतराज हो तो यही सेक्स तलाक का आधार भी बन सकता है. भारत में अभी वैवाहिक बलात्कार कानून को मान्यता नहीं मिली है. इससे पत्नी को पति के खिलाफ बलात्कार कानून का प्रयोग करने का अधिकार हासिल नहीं है. महिला अधिकारों की बात करने वाले इस बात की हिमायत कर रहे हैं कि देश में वैवाहिक बलात्कार कानून लागू किया जाये. वैवाहिक बलात्कार कानून भले ही देश में लागू न हो पर सेक्स का आधार बनाकर तलाक मांगने और पति को परेशान करने के मामले तेजी से बढ रहे हैं. पारिवारिक न्यायालयों, पुलिस थानों और सामाजिक संगठनों के पास ऐसे तमाम ममाले आते हैं, जिनमें पत्नी की तरफ से पति के खिलाफ आईपीसी की धरा 377 के तहत मुकदमा लिखे जाने की बात कहीं जाती है. पति के खिलाफ यह धारा लगाई जाये इसके लिये पत्नी कहती है कि उसके पति ने उसके साथ जबरन अननैचुरल सेक्स यानि अप्राकृतिक सेक्स संबंध बनाया गया. कई बार यह आरोप भी लगाया जाता है कि अप्राकृतिक सेक्स संबंध की कोशिश की गई.

पति परिवार कल्याण संस्था की प्रमुख इंन्दू सुभाष कहती है ‘तलाक लेने के समय पति पत्नी के बीच दूरी इतना बढ जाती है कि पत्नी पति को ज्यादा से ज्यादा परेशान करने की कोशिश करती है. इसके लिये वह कडे से कडे कानून का सहारा लेना चाहती है. धारा 377 इसमें सबसे अधिक कारगर होती है. आईपीसी की धारा 377 संज्ञेय अपराध की श्रेणी में आती है. इसके तहत जमानत लेना मुश्किल ही नहीं असंभव होता है. आरोप लगाने के बाद पत्नी को कुछ साबित करने की जरूरत नहीं होती. पति को ही अपनी बेगुनाही साबित करनी पडती है. अगर पति के खिलाफ आरोप सही पाया जाता है तो उसे 10 साल तक की सजा हो सकती है.’ इस तरह के आरोप से घबराकर पति जल्द ही तलाक के लिये राजी हो जाता है. यही कारण है कि पत्नियां तलाक के लिये धारा 377 को आधार बनाने लगी हैं.

कानून के जानकार लोग मानते है कि धारा 377 का आरोप लगने के बाद उससे दामन बचा पाना पति के लिये मुश्किल हो जाता है. इसलिये वह सरलता से पत्नी की बात को मानकर उसे तलाक देने पर राजी हो जाता है. अप्राकृतिक सेक्स को लेकर जो कानून बना है उसके अनुसार पति पत्नी के बीच भी इसको गैर कानूनी माना गया है. इसलिये धारा 377 के तहत इस बात का अधिकार है कि अप्राकृतिक सेक्स संबंधों के खिलाफ कानून की मदद ले सके. ऐसे में अब पत्नियों ने धारा 377 को तलाक के आधार के रूप में प्रयोग करना शुरू कर दिया है. देखने वाली बात यह है कि ऐसे आधार बनाने वाली पत्नियों में उम्र की कोई बाधा नहीं है. पति के साथ शादी के 20 साल गुजारने वाली पत्नी से लेकर शादी करके आई नई नवेली दुल्हन तक ऐसे आरोप लगा रही है. पुलिस विभाग के लोग मानते है कि पहले इस तरह की शिकायतें कभी कभार सुनने को मिलती थी. अब ऐसे आरोप सामान्य बात हो गये है.

आरक्षण की मांग: अब पिछड़े बनने की होड़

जिन दिनों देश की राजधानी नई दिल्ली से सटा हरियाणा प्रदेश जाटों के आरक्षण की उग्र मांग से झुलस रहा था, तब एक दैनिक अखबार में छपे एक लेख में एक लाइन लिखी थी कि करुणा से पैदा होने वाली क्रांति ही नए समाज का निर्माण करेगी.

करुणा से क्रांति? क्या यह मुमकिन है? क्योंकि अब तक तो यह माना जाता रहा है कि जब कभी भी कहीं भी कोई क्रांति हुई है, उस में आगे की लाइन में खड़े लोगों को अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ती है, तब कहीं जा कर पीछे खड़ी भीड़ की बातें सुनी जाती हैं.

हम ने आरक्षण के मामले में हुई हर छोटीबड़ी क्रांति में ऐसा ही कुछ देखा है. 90 के दशक में तब के प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने जब मंडल कमीशन की शर्तें लागू कराई थीं, तब भी देश में ऐसा ही अशांत माहौल बना था.

हालिया जाट आरक्षण के आंदोलन में जो हिंसा हुई है, उस में कुछ बेगुनाह लोगों की जानें तो गई ही, हरियाणा को 20 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा का नुकसान भी हुआ.

इस नुकसान का आकलन करने वाली एसोचैम ने बताया कि सब से ज्यादा नुकसान रोहतक, झज्जर, बहादुरगढ़, हिसार, भिवानी, जींद, गोहाना, सोनीपत, कैथल और पानीपत जिलों में हुआ. दिल्ली से सटे गुड़गांव और फरीदाबाद शहरों पर भी इस उग्र आंदोलन का बुरा असर दिखा.

मांग की वजह

जाटों की आरक्षण की मांग नई नहीं है. वे साल 1955 से अपने लिए आरक्षण की मांग करते चले आ रहे हैं. यही वजह है कि अभी तक इनेगिने राज्यों में उन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल किया जा चुका है, लेकिन वे पूरे देश में ऐसा ही चाहते हैं. इस से जाट समुदाय के लोगों को सरकारी नौकरियों और संस्थानों में अन्य पिछड़ा वर्ग कोटे से दाखिला मिल सकेगा.

अन्य पिछड़ा वर्ग के लोग उन निम्न और मध्यवर्ती जातियों से आते हैं, जिन्हें इसलिए पिछड़ा माना जाता, क्योंकि उन्हें समाज में ऊंची जाति का दर्जा हासिल नहीं है. जाट दलित या पिछड़े नहीं हैं, लेकिन ऐसा माना जाता है कि उन का सामाजिक रुतबा अगड़ों से कुछ ही कमतर है.

जाट समाज का यह भी मानना है कि जमीन का मालिक होते हुए भी उस की सरकारी नौकरियों में शिक्षा के लैवल पर ढंग की नुमाइंदगी नहीं है. इतना ही नहीं, जमीन का दायरा कम होने और खेतीबारी में आमदनी कम होने से भी यह समुदाय खुद को पिछड़ा महसूस कर रहा है.

हरियाणा में कुल 49.5 फीसदी रिजर्वेशन है. इस में 15 फीसदी अनुसूचित जाति, 7.5 फीसदी अनुसूचित जनजाति और 27 फीसदी अन्य पिछड़ा वर्ग के नाम पर रिजर्व किया गया है. जाट अन्य पिछड़ा वर्ग के 27 फीसदी में खुद को शामिल कराना चाहते हैं.

एक आकलन के मुताबिक, पूरे देश में तकरीबन साढ़े 8 करोड़ जाट हैं. वे हरियाणा की तकरीबन 25 फीसदी आबादी का हिस्सा हैं. तकरीबन 84 फीसदी जाट खेतीबारी से जुड़े हैं.

ऐसा नहीं है कि जाट सरकारी नौकरियों में नहीं हैं, बल्कि हरियाणा राज्य की क्लास वन और क्लास टू सेवाओं में 21 फीसदी जाट हैं. सेना और पुलिस में भी जाट समुदाय के लोगों की काफी पैठ है. पर यह पूरी जाट आबादी का बहुत छोटा हिस्सा है. यही वजह है कि वे अपने लिए आरक्षण की मांग कर रहे हैं.

साथ ही, यह बात भी बहुत अहम है कि जाति के तौर पर पिछड़ों को सरकारी नौकरी पाने के बाद अगड़ों से बराबरी करने का एहसास होता है, फिर चाहे कैसे भी नौकरी क्यों न हासिल की जाए.

यह जो जातिगत खाई बनी हुई है, वह आज की बात नहीं है. पौराणिक जमाने की बात करें, तो असुरों ने देवताओं की समुद्र मंथन में इसलिए मदद की थी, जिस से उन्हें भी अमृत मिल जाए और वे भी देवताओं की बराबरी पा सकें. लेकिन देवताओं ने उन के साथ विश्वासघात किया और उन से अमृत हड़प लिया.

आज भी आजाद भारत में दबेकुचलों के साथ ऐसा ही बरताव किया जाता है. उन्हें जाति के नाम पर दुत्कारा जाता है और किसी भी तरह से पिछड़ा बनाए रखने की साजिश रची जाती है. लेकिन आजादी के बाद जब संविधान बना, तब डाक्टर भीमराव अंबेडकर ने इन्हीं जातियों को उबारने के लिए आरक्षण देने का इंतजाम किया था. उन्हें पता था कि जैसेजैसे ये लोग सरकारी नौकरियों में घुसते जाएंगे, वैसेवैसे इन का सामाजिक रुतबा ऊंचा होता जाएगा और ये अगड़ों के साथ बराबरी का हक पाते जाएंगे.

लेकिन पिछले कुछ समय से आरक्षण की मांग करने वाली जातियों में जिस तरह से इजाफा हो रहा है, उन के आंदोलनों में जुड़ने वाली भीड़ को देख कर तो यही लगता है कि आज भी आम लोगों में आरक्षण को ले कर भरपूर समर्थन है. जो पिछड़ी जातियां केवल खेती पर निर्भर हैं, उन के भविष्य पर सवालिया निशान लगा होता है, क्योंकि खेती का मुनाफा आज भी मौसम के मुताबिक तय होता है.

वैसे भी माली तौर पर मजबूती देखी जाए, तो आज भी एक ही जाति, समुदाय के शहर में रहने वाले लोगों और गांव में मौजूद लोगों में फर्क होता है. आरक्षण के आंदोलनों में भी गांवदेहात की यही भीड़ ज्यादा दिखाई देती है, क्योंकि इस की खेती की कमाई पर हमेशा संकट के बादल छाए रहते हैं.

सामाजिक और माली तौर पर पिछड़े लोगों को आरक्षण दे कर उन को तरक्की की राह पर लाने की सोच तो समझ में आती है, लेकिन पिछले कुछ समय से ताकतवर जातियों का आरक्षण के प्रति प्रेम समझ से परे है. चूंकि इस में कुछ लोगों के राजनीतिक फायदे भी दिखाई दे रहे हैं, इसलिए यह सोच देश और समाज के लिए घातक भी साबित हो सकती है.

इस साल फरवरी महीने की शुरुआत में आंध्र प्रदेश के कापू समाज ने भी खुद को अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल कराने के लिए राज्य में ऐसे ही हालात पैदा कर दिए थे. तब वहां के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू को अपने पैर पीछे खींचने पड़े थे और किसी तरह माहौल शांत हो पाया था.

पिछले साल हुआ पटेल समाज का आंदोलन भी शायद ही कोई भूला होगा. तब गुजरात में हार्दिक पटेल की अगुआई में इतने खतरनाक हालात पैदा हो गए थे कि राज्य सरकार को मामले पर काबू पाने के लिए पसीना आ गया था.

जहां तक सामाजिक दबदबे की बात है, तो गुजरात में पटेल, आंध्र प्रदेश में कापू समाज और हरियाणा में जाट बिरादरी के लोग माली तौर पर बेहद मजबूत हैं, तो फिर इन्हें पिछड़ा क्यों माना जाए?

कहीं इस तरह के आंदोलन राजनीति से तो प्रेरित नहीं हैं? साल 1999 में राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने वहां के जाट समुदाय को अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल किया था, तब से दूसरे जाट बहुल राज्यों में जाट आरक्षण की मांग तेज हो गई.

इस के बाद संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार का नमूना देखिए. उस ने पिछले लोकसभा चुनाव की अधिसूचना जारी होने से कुछ समय पहले जाट समुदाय को अन्य पिछड़ा वर्ग के तहत लाने का ऐलान किया था, ताकि उस का वोट बैंक बढ़ सके, पर पिछले साल मार्च महीने में सुप्रीम कोर्ट ने इसे रद्द कर दिया.

राजस्थान में जब जाट अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल हुए, तो वहां की पहले से आरक्षित जातियों ने इस बात को कैसे लिया? यकीनन, वे खुद को असुरक्षित महसूस करने लगी थीं. यही वजह थी कि गुर्जरों ने खुद को अन्य पिछड़ा वर्ग से हटा कर अनुसूचित जाति में शामिल करने की मांग उठाई.

इस से अनुसूचित जाति में शामिल जातियों को बहुत बुरा लगा. राजस्थान के मीणा समाज ने इस पर घोर एतराज जताया. नतीजतन, मीणा और गुर्जर समाज में खूनी टकराव देखा गया.

हरियाणा में भी कुछ ऐसा ही देखा गया. बहुत सी जगह जाटों और उन जातियों के बीच संघर्ष दिखा, जो पहले से ही आरक्षित थीं. जाट आरक्षण आंदोलन के खिलाफ खड़े हुए अन्य पिछड़ा वर्ग ब्रिगेड के नेता और कुरुक्षेत्र से लोकसभा सांसद राजकुमार सैनी ने भी साफ किया था कि उन की जाट आरक्षण विरोधी मुहिम जारी रहेगी.

पलवल में भी गैरजाटों ने इस आंदोलन का विरोध किया और कहा कि जाट बिरादरी प्रदेश में माली तौर पर बहुत मजबूत है और सुप्रीम कोर्ट भी जाट आरक्षण के खिलाफ फैसला दे चुका है, तो फिर इस बवाल का मतलब क्या है?

इतना ही नहीं, साल 2015 में जाट आरक्षण के खिलाफ अन्य पिछड़ा वर्ग का एक फोरम बना था, जो जाटों के आरक्षण के खिलाफ दिल्ली के जंतरमंतर पर प्रदर्शन कर चेतावनी दे चुका था.

मान लेते हैं कि कल को जाटों की मांग सुन ली जाती है और वे अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल हो जाते हैं, तो क्या वाकई उन की तरक्की होगी या वे सामाजिक तौर पर भी पिछड़ों की जमात में शामिल हो जाएंगे? असलियत तो यह है कि अब सरकारी नौकरियां न के बराबर रह गई हैं और उन्हें पाने के लिए मारामारी मची है.

सवाल यह भी उठता है कि क्या जाट सरकारी नौकरी के लालच में पिछड़ा होने का तमगा अपनी छाती पर टांगने को तैयार हैं, क्योंकि आज भी हमारे समाज में लोगों के दिलोदिमाग पर जातिवाद का जहर इस कदर भरा हुआ है कि कोटे से आया कोई बड़ा अफसर ऊंची जाति के लोगों की निगाह में छोटा ही रहता है? गांवदेहात में तो हर छोटीबड़ी सरकारी नौकरी पर बैठे लोगों की जाति उन के काम पर हावी रहती है. बड़ी जाति का छोटे पद पर बैठा आदमी छोटी जाति के अफसर को कुछ नहीं समझता है. आज भी हमारे यहां उसी की इज्जत ज्यादा होती है, जो बड़ी जाति का हो भले ही कमाता कम हो.

मिसाल के तौर पर एक ब्राह्मण के 2 बेटे हैं. वे दोनों गांव में रहते हैं. एक बेटा सरकारी नौकरी करता है, लेकिन छोटे पद पर है. वह अपनी तनख्वाह में अपने परिवार का पालनपोषण खूब अच्छी तरह करता है. दूसरा बेटा गांव के मंदिर का पुजारी है. उस की आमदनी कम है और परिवार का खर्च दूसरों के दान पर निर्भर है. लेकिन जब गांवसमाज में इज्जत की बात आएगी, तो लोग पुजारी के पैर पड़ेंगे, सरकारी नौकरी वाले के नहीं.

सामाजिक और माली तौर पर मजबूत जातियों के साथ भी अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल होने पर कहीं ऐसा तो नहीं होगा?

यह बड़ा पेचीदा सवाल है, लेकिन बहुत अहम है, जिसे अपने फायदे के लिए राजनीतिक पार्टियां इस्तेमाल तो कर सकती हैं, लेकिन इस पर बोलने की जहमत नहीं उठाएंगी.

आरक्षण के लिए आंदोलन करने वालों को कल क्या मिलता है, यह तो बाद की बात है, लेकिन आंदोलन के नाम पर दंगा करना या उसे बढ़ावा देना कतई सही नहीं है. इस से होने वाले जानमाल के नुकसान का ठीकरा नेताओं की लोकलुभावन राजनीति के सिर पर फोड़ा जाना चाहिए, लेकिन अफसोस, उन की मोटी चमड़ी पर रत्तीभर भी असर नहीं पड़ेगा.

अब न रहेंगे पीने वाले, अब न रहेगी मधुशाला

एक अप्रैल से देसी शराब पर रोक लगाई गई और 5 अप्रैल से विदेशी शराब और ताड़ी पर भी पूरी तरह से पाबंदी लगाने के बाद बिहार ‘ड्राइ स्टेट’ बन गया है. राज्य में किसी भी तरह की शराब बेचने, खरीदने और पीने पर रोक लग गई है. होटलों, क्लबों, बार और रेस्टोरेंट में भी शराब का लुत्फ नहीं लिया जा सकेगा. इससे जहां सरकार को सालाना 4 हजार करोड़ रूपए का नुकसान उठाना पड़ेगा वहीं शराब की कुल 4771 दुकानों पर ताला लटक जाने से करीब 25 हजार परिवारों की रोजी-रोटी फिलहाल बंद हो गई है.

पिछले साल 20 नबंबर को जब पांचवी बार नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने उसी समय ऐलान कर दिया था कि एक अप्रैल 2016 से बिहार में शराब पर पूरी तरह से रोक लगा दी जाएगी और उन्होंने यह कर दिखाया. बिहार में महिलाएं काफी दिनों से शराब पर रोक लगाने की मांग करती रही हैं. मर्द शराब पीते हैं और उसका खामियाजा महिलाओं और बच्चों समेत समूचे परिवार को उठाना पड़ता है. पूरी तरह से शराबबंदी का ऐलान कर नीतीश ने अपने मजबूत इरादे तो जाताए हैं, लेकिन इस फैसले से सरकार के सामने कई चुनौतियां और मुश्किलें खड़ी होने वाली है, जिससे निबटना आसान नहीं होगा. जहां भी शराब पर रोक लगी है वहां शराब माफियाओं और तस्करों को बड़ा नेटवर्क खड़ा हो जाता है और सरकार के मंसूबे फेल हो जाते है. शराब पर रोक भी नहीं लग पाती है और सरकार को इससे होने वाले हजारों करोड़ रूपए से हाथ भी धोना पड़ता है.

राज्य सरकारों के मिलने वाले राजस्व का बड़ा हिस्सा शराब से ही आता है. राज्य सरकारें इसे बढ़ावा देने में ही लगी रही हैं. इसके साथ ही शराबबंदी का दूसरा पहलू यह भी है कि शराब पर रोक लगाने की नीति खास कामयाब नहीं हो सकी हैं. हरियाणा में बंसीलाल सरकार ने शराब पर रोक लगाई थी पर उन्हें कामयाबी नहीं मिल सकी. एनटी रामाराव ने आंध्र प्रदेश में शराबबंदी लागू किया पर कुछ समय बाद ही वापस लेना पड़ा. शराबबंदी लागू होने से गैरकानूनी नेटवर्क पैदा हो जाता है और इससे संगठित अपराधी और दबंग समूह काफी ताकतवर हो जाते हैं. गुजरात में 1960 से ही शराब पर रोक लगी हुई है, इसके बाद भी अपराधी समूह सरकार और कानून को ठेंगा दिखाते हुए शराब का धंधा चला रहे हैं.

इससे पहले बिहार में साल 1977 में जब कपूर्री ठाकुर मुख्यमंत्री बने थे तो उन्होंने शराब पर पाबंदी लगा दी थी. उसके बाद शराब की तस्करी बढ़ने और अवैध शराब का कारोबार करने वाले अपराधियों के पनपने के बाद शराबबंदी को वापस ले लिया गया था. हरियाणा, आंध्र प्रदेश, मिजोरम में भी शराबबंदी कामयाब नहीं हो सकी और वहां शराब की बिक्री जारी है. केरल में 30 मई 2014 से शराब की दुकानों को लाइसेंस देने का काम सरकार ने बंद कर दिया है.

यह बात किसी से छुपी नहीं है कि देश भर में शराब की लौबी काफी मजबूत है. शराबबंदी के बाद सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती कालाबाजारी और तस्करी से निबटना होगा. अवैध रूप से देसी शराब के बनने और बिकने में तेजी आने का खतरा भी है. सैर-सपाटे के लिए बिहार आने वाले देसी-विदेशी पर्यटकों की संख्या में भी कमी आएगी. रिटायर्ड मुख्य सचिव वीएस दूबे कहते हैं कि शराब पर पूरी तरह से रोक लगाना सरकार का काफी अच्छा फैसला है पर यह तभी कामयाब हो सकेगी जब पुलिस दारोगा और आबकारी दारोगा पर पूरी तरह जबाबदेही डाली जाएगी. अवैध शराब की तस्करी को रोकने के लिए पड़ोसी राज्यों की सीमा पर ठोस निगरानी तंत्र बनाने होंगे. कई गैर जरूरी मदों में खर्चे को कम कर आय की कमी को दूर किया जा सकता है.

गौरतलब है कि 9 जुलाई 2015 को में मद्य निषेध दिवस के मौके पर आयोजित समारोह में स्वयं सहायता समूह की महिलाओं ने मुख्यमंत्री नीतीश को अपने कड़वे अनुभव सुनाए थे. खगडि़या के चैथम गांव की आशा देवी, गया के खिजसराय गांव की रेखा देवी और मुजफ्फरपुर की गीता ने मुख्यमंत्री को बताया कि किस तरह से उन्होंने गांव की औरतों के साथ मिल कर अपने इलाकों में शराब पर रोक लगा दी है. समारोह में पहुंची हजारों महिलाओं ने एक साथ आवाज लगाई कि मुख्यमंत्री जी शराब को बंद कराइए. इससे हजारों घर-परिवार बर्बाद हो रहे हैं. उन्ही महिलाओं के किस्सों को सुनकर नीतीश ने उसी समय ऐलान कर दिया था कि अगर वह दुबारा सत्ता में आएंगे तो शराब पर पूरी तरह से पाबंदी लगा देंगे.

महिलाओं की इस मांग को पूरी करने के पीछे भी वोट की राजनीति भी छिपी हुई है. पिछले विधान सभा चुनाव में महिलाओं ने बढ़-चढ़ कर वोट डाला. महिलाओं को वोट फीसदी 54.85 के मुकाबले मर्दो को वोट फीसदी 50.70 रहा था. साल 2000 के चुनाव में मर्दों के मुकाबले 20 फीसदी औरतों ने वोट की ताकत का इस्तेमाल किया था. शराबबंदी का ऐलान के साथ पंचायत चुनाव में महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण देकर नीतीश ने महिलाओं को गोलबंद कर लिया था.

बिहार में शराब पर पूरी तरह से रोक लगने से सरकार को करीब 4 हजार करोड़ रूपए का सालाना नुकसान होगा. देसी शराब से 2300 हजार करोड़ और विदेशी शराब से 1700 करोड़ रूपए का राजस्व सरकार को मिलता था. एक अप्रैल 2016 से पहले तक बिहार में 1410 लाख लीटर शराब की खपत होती थी. इसमें 990.36 लाख लीटर देसी शराब, 420 लाख लीटर विदेशी शराब और 512.37 लाख लीटर बीयर की खपत थी.  बिहार में प्रति व्यक्ति प्रति सप्ताह देसी शराब और ताड़ी की खपत 266 मिलीलीटर और विदेशी शराब और बीयर की खपत 17 मिलीलीटर थी.

बिहार में हर तरह के शराब पर रोक लगा कर नीतीश ने साहस का परिचय तो दिया है पर उनके इस फैसले के कई जोखिम भी हैं, जिससे निपटने में कामयाबी मिलने के बाद ही शराबबंदी भी कामयाब हो सकेगी. शराब के गैरकानूनी नेटवर्क को पनपने नहीं देना और तस्करों पर रोक लगाना सबसे बड़ी चुनौती है. रिटायर्ड डीजीपी डीपी ओझा कहते हैं कि सरकार के इस फैसले को जनता का सपोर्ट मिला है, पर शराबबंदी को कड़ाई से लागू करने की जरूरत होगी. सरकार को कई तरह के सियासी दबाबों और गैरकानूनी नेटवर्क से निबटना होगा.

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