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लालू यादव: बदले बदले से सरकार नजर आते हैं

जनता दल यूनाइटेड के नेता व बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ अपने 2 बेटों को लगा कर राष्ट्रीय जनता दल के मुखिया लालू प्रसाद यादव राजनीतिक अखाड़े में ताल ठोंकने की तैयारी कर रहे हैं. वे साफतौर पर कहते हैं कि नीतीश बिहार संभाल रहे हैं, वे दिल्ली पहुंच कर भाजपा को धूल चटाने के लिए कसरत शुरू करेंगे. दिल्ली में टिकने के लिए उन्होंने उपाय भी ढूंढ़ लिया है. अपनी बड़ी बेटी मीसा भारती को राज्यसभा पहुंचाने के बाद उन्हें दिल्ली में रहने का सरकारी ठिकाना मिल जाएगा. विधानसभा चुनाव में दमदार वापसी करने के बाद लालू की राजनीति में काफी बदलाव दिखने लगा है. अब वे ‘दिल’ के बजाय ‘दिमाग’ से राजनीति करने के फायदे को समझ चुके हैं और पिछली सारी कमियों को दूर करने की पूरी कोशिश कर रहे हैं. उन की कोशिश रंग लाती भी दिखने लगी है. दिलचस्प बात यह है कि उन्होंने अपने ठेठ गंवई अंदाज को छोड़ दिया है.

लालू यादव को विरोधियों के जंगलराज के आरोप के सच होने के खतरे का एहसास है तभी तो उन्होंने नीतीश कुमार से साफ कह दिया है कि कानून व्यवस्था को चुनौती देने वालों से कड़ाई से निबटा जाए. ऐसे मामलों में पुलिस की कार्यवाही में उन की पार्टी दखल नहीं देगी. लालू को उन के कुछ बिगड़ैल नेताओं और समर्थकों की मनमानी की वजह से उन्हें 10 साल तक सत्ता से दूर रहना पड़ा. लाठी रैली में कभी यकीन रखने वाले लालू अब इस बात का पूरा खयाल रख रहे हैं कि उन से मिलने आए किसी भी नेता, समर्थक या कार्यकर्ता के हाथों में लाठी, पिस्तौल, राइफल या बंदूक नहीं हो. उन्होंने अपने सिक्योरिटी स्टाफ को हिदायत दे रखी है कि ऐसे किसी भी आदमी को उन के घर में न घुसने दिया जाए. लालू ने पार्टी के झंडा और बैनरों को गाडि़यों पर लगाने के लिए भी सख्त मनाही कर रखी है. गौरतलब है कि साल 2005 में पहली बार मुख्यमंत्री बनने के बाद नीतीश कुमार ने पार्टी के अलावा किसी को भी पार्टी के झंडों को गाडि़यों पर लगाने पर पाबंदी लगा दी थी. लालू यादव इस मामले में भी नीतीश कुमार का साथ दे रहे हैं.

गठजोड़ का गणित

लालू बखूबी समझ रहे हैं कि साल 2005 में उन्हें राजनीतिक रूप से हाशिए पर ढकेलने वाले नीतीश कुमार की वजह से ही उन्हें अब फिर से बिहार के सियासी अखाड़े में ताल ठोंकने का मौका मिला है. लालू और नीतीश पिछले 24 सालों से लगातार बिहार की सियासत की धुरी बने हुए हैं. साल 1996 में लालू से अलग हो कर नीतीश के समता पार्टी बनाने के बाद साल 2015 में हुए विधानसभा चुनाव

के कुछ पहले तक दोनों एकदूसरे के विरोध की राजनीति करते रहे थे. दोनों अपनीअपनी सियासी मजबूरियों और भाजपा को दरकिनार करने के लिए फिर से साथ मिले. चुनाव में उन्हें कामयाबी मिलने के बाद तो उत्तर भारत की सियासत में नया विकल्प पैदा करने की उम्मीद तक जगने लगी है.

लालू और नीतीश के गठजोड़ ने साबित कर दिया है कि उन के पास मजबूत वोटबैंक है. 243 सदस्यों वाली बिहार विधानसभा में 178 सीटों पर महागठबंधन का कब्जा है. इस में जदयू की झोली में 71, राजद के खाते में 80 और कांग्रेस के हाथ में 27 सीटें हैं. नीतीश की पार्टी जदयू को 16.8, राजद को 18.4 और कांगे्रस को 6.7 फीसदी वोट मिले जो कुल 41.9 फीसदी हो जाता है. ऐसे में महागठबंधन को फिलहाल किसी दल या गठबंधन से चुनौती मिलनी दूर की कौड़ी है. इस दमदार आंकड़े एवं अपने दोनों बेटों को विधायक व मंत्री बना कर लालू ने बिहार की राजनीति में अपने पांव मजबूती से जमा लिए हैं.

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि लालू यादव ने बिहार की राजनीति से अगड़ी जातियों के कब्जे को खत्म किया बल्कि दलितों, पिछड़ों और मुसलमानों को गोलबंद भी किया. आजादी के बाद से ले कर 80 के दशक तक बिहार की राजनीति और सत्ता पर अगड़ी जातियों की ही हुकूमत चलती रही और पिछड़ों व दलितों को महज वोटबैंक के रूप में ही इस्तेमाल किया गया.

भूमिहारों, राजपूतों, कायस्थों और ब्राह्मणों का ही राजनीति में दबदबा रहा. सूबे के पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह के बाद दीपनारायण सिंह, विनोदानंद झा, एस के सहाय, महामाया प्रसाद, केदार पांडे, जगन्नाथ मिश्र, चंद्रशेखर सिंह, बिंदेश्वरी दुबे, भगवत झा आजाद, सत्येंद्र नारायण सिंह का ही जलवा रहा. बीचबीच में कुछकुछ समय के लिए पिछड़ी जाति के नेताओं में भोला पासवान, कर्पूरी ठाकुर और रामसुंदर दास को मौके मिले, पर वे ज्यादा समय तक राज नहीं कर सके या उन्हें राज करने नहीं दिया गया.

मंडल कमीशन के बाद सूबे की सियासत की दशा और दिशा तब बदल गई जब लालू यादव मुख्यमंत्री बने. उस के बाद से ले कर अब तक अगड़ी जाति का कोई भी मुख्यमंत्री नहीं बन सका और विधानसभा व मंत्रिमंडल में भी पिछड़ों, दलितों का ही बोलबाला रहा.

यह लालू को पता है कि सूबे के 38 जिलों की 243 विधानसभा सीटों और 40 लोकसभा सीटों पर जीत उसी की होती है जो बिहार की कुल 119 जातियों में से ज्यादा को अपने पक्ष में गोलबंद करने में कामयाब हो जाता है. इस के लिए लालू माय यानी मुसलिमयादव समीकरण के बूते बगैर कुछ काम किए 15 सालों तक बिहार पर राज कर चुके हैं और 2015 के विधानसभा चुनाव में अपने बेटों को आगे कर के एक बार फिर सत्ता पाने में कामयाब हो गए हैं.

लालू यादव ने 2004 के आम चुनाव में 22 सीटों पर कब्जा जमा कर पटना से दिल्ली तक अपनी धमक और ठसक दिखाई थी. 2004 में राजद को कुल 30.7 फीसदी वोट मिले थे जो 2009 में 19 फीसदी पर सिमट कर रह गए. 2009 में उन्होंने 28 उम्मीदवार मैदान में उतारे लेकिन 4 ही जीत सके थे. राजद के एक सीनियर लीडर मानते हैं कि राजद को लालू के बड़बोलेपन और उन के 2 साले साधु यादव और सुभाष यादव की वजह से काफी नुकसान उठाना पड़ा था, जिस की भरपाई लालू के बेटों ने कर दी है. विधानसभा के पिछले चुनाव के बाद लालू के बेटों ने अपने साथसाथ पार्टी को भी राज्य की सियासत में फिर से जमा दिया है.

साल 2010 के विधानसभा के पिछले चुनाव में कुल 243 सीटों में से लालू की पार्टी को महज 22 सीटों पर ही जीत मिली थी. इस बार के चुनाव में राजद को 80 सीटों पर जीत मिली और 18.4 फीसदी वोट हासिल हुए. राजद की इस कामयाबी में लालू यादव के साथ तेजस्वी और तेजप्रताप की अहम भूमिका रही है. लालू दावा करते हैं कि 90 फीसदी पिछड़े, दलित, अल्पसंख्यक और सवर्ण गरीबों ने महागठबंधन को वोट दिया है. 1977 और 1995 के चुनावों की तरह 2015 के विधानसभा चुनाव में भी पिछड़े वर्ग की जोरदार गोलबंदी हुई.

अब लालू का इरादा फिर से दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में चहलकदमी करने का है. चारा घोटाला में सजायाफ्ता होने के बाद वे खुद अपने बूते ऐसा नहीं कर सकते हैं, इसलिए अपनी बेटी मीसा भारती को राज्यसभा में भेजने की जुगत में लगे हैं. पिछले लोकसभा चुनाव में लालू ने मीसा भारती को पाटलिपुत्र सीट से मैदान में उतारा था. लालू की रणनीति मीसा के बहाने दिल्ली पहुंच कर अपने सियासी पैर को दोबारा जमाना था, पर वे तब कामयाब नहीं हो सके थे. भाजपा के उम्मीदवार रामकृपाल यादव से मीसा भारती 40,322 वोटों से हार गई थीं. 37 साल की मीसा ने एमबीबीएस की डिगरी ले रखी है और उन के पति शैलेश इंजीनियर हैं. मीसा अब राजद का लोकप्रिय, युवा और ताजा चेहरा भी बन गई हैं.

लालू ने अपने बेटों में राजनीति के गुरों को कूटकूट कर भर दिया है. उन के बेटे दलितों और पिछड़ों की सियासत को आगे बढ़ाने के साथसाथ राज्य की तरक्की की वकालत करते दिख रहे हैं. पिछले 10 सालों के दौरान लस्तपस्त हो चुके राष्ट्रीय जनता दल में उन्होंने नई जान फूंकने के साथ ही पार्टी का ज्यादातर बोझ भी अपने मजबूत कंधों पर उठा लिया है. अब उन्हें अपने पिता की छाया से निकल कर अपनी सियासी जमीन तैयार करने की जरूरत है. अपने पिता के ठेठ गंवई अंदाज से इतर बेटों ने अपना अलग अंदाज गढ़ते हुए पार्टी को नए सिरे से एकजुट करने की कोशिश शुरू कर दी है. वे पिता की गैरमौजूदगी में भी पार्टी के कार्यक्रमों, बैठकों, सभाओं में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेने लगे हैं. बेटों और बेटी को सियासत के मैदान में उतारने के बाद जबजब भी लालू पर परिवारवाद को बढ़ावा देने का आरोप लगाया गया तो वे अपने ही अंदाज में सफाई देते हैं कि जब डाक्टर का बेटा डाक्टर, इंजीनियर का बेटा इंजीनियर, बिजनैसमैन का बेटा बिजनैसमैन और अभिनेता का बेटा अभिनेता बन सकता है तो राजनेता के बेटों के राजनेता बनने पर हायतौबा क्यों मचाई जाती है.

परिवारवाद का साया

लालू के बेटों ने भले ही अपनी राह बना ली हो पर यह भी सच है कि लालू कभी भी परिवार की छाया से बाहर नहीं निकल सके हैं. चारा घोटाला में फंसने के बाद 1997 में जब जेल जाने की नौबत आई तो उन्होंने अपनी बीवी राबड़ी देवी को किचन से निकाल कर सीधे मुख्यमंत्री की कुरसी पर बिठा दिया था. उस के बाद पार्टी और सरकार में उन के साले साधु यादव और सुभाष यादव का कब्जा रहा.

पिछले विधानसभा चुनाव में उन्होंने अपने छोटे बेटे तेजस्वी यादव को राधोपुर सीट और बड़े बेटे तेजप्रताप यादव को महुआ सीट से चुनाव लड़ाया. दोनों जीत गए. लालू ने अपनी पार्टी के नेताओं की सैकंड और थर्ड लाइन नहीं बनने दी या कहिए जानबूझ कर बनाई ही नहीं, ताकि पार्टी हमेशा उन की मुट्ठी में रहे. अपनी पार्टी के एक से 10वें नंबर तक केवल लालू और लालू ही रहे हैं. अब उन के बेटों के सामने सब से बड़ी चुनौती अपने पिता की राजनीतिक विरासत को संभालने और पार्टी के सीनियर नेताओं का भरोसा हासिल करने की है.

भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी कहते हैं कि लालू यादव कभी भी परिवार के मकड़जाल से बाहर नहीं निकल सके. कांग्रेस पर परिवारवाद की राजनीति करने के खिलाफ अपनी सियासी जमीन तैयार करने वाले लालू खुद ही परिवारवाद के जाल में उलझे रहे हैं. कभी लालू यादव के भरोसेमंद रहे सांसद पप्पू यादव कहते हैं कि अपने दोनों बेटों को मंत्री बनवा कर लालू ने फिर यह साबित कर दिया है कि वे कभी भी परिवार से बाहर नहीं निकल सकते. अपने दोनों बेटों को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने पार्टी के कई नेताओं को कुरबान कर दिया है. अल्पसंख्यक और दलित प्रेम लालू यादव का चुनावी जुमला भर है.

अपने पिता और अपने ऊपर लगे वंशवाद के तमाम आरोपों को खारिज करते हुए तेजप्रताप यादव कहते हैं, ‘‘जब जनता उन का काम देखेगी तो विरोधियों के सारे आरोप परदे के पीछे चले जाएंगे और उन के काम की ही बातें होंगी.’’

फिलहाल तो 90 के दशक वाले लालू और आज के लालू में काफी फर्क नजर आ रहा है. पहले लालू की सोच थी कि वोट तरक्की से नहीं, बल्कि जातीय गोलबंदी से मिलते हैं, पर इस बार लालू भी नीतीश के सुर में सुर मिला कर तरक्की की रट लगाने लगे हैं. लालू के बेटे और उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव कहते हैं कि सरकार का इकलौता एजेंडा बिहार की तरक्की है. अभी तो सरकार ने काम करना शुरू ही किया है, जल्द ही अच्छे नतीजे सामने आएंगे और तब विरोधियों की जबान पर ताले लग जाएंगे.

आम आदमी पार्टी, कांग्रेस, शिवसेना, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, कम्युनिष्ट पार्टी औफ इंडिया, जनता दल (एस), इंडियन नैशनल लोकदल, झारखंड विकास मोरचा, झारखंड मुक्ति मोरचा, असम गण परिषद और अकाली दल के नेताओं के साथ राजनीतिक दोस्ती बनाने में नीतीश की कोशिशों में लालू पूरा साथ दे रहे हैं. विधानसभा चुनाव के बाद नीतीश के शपथग्रहण समारोह में इन दलों के नेता मौजूद थे. समारोह में 9 राज्यों के मुख्यमंत्रियों सहित 15 दलों के नेताओं को एक मंच पर खड़ा कर नीतीश और लालू ने भाजपा को बेचैन कर रखा है. गौरतलब है कि इन 15 दलों का राज्यसभा की कुल 244 सीटों में से 132 पर कब्जा है. इस हिसाब से मोदी विरोधी दलों को राज्यसभा में पूरा बहुमत है, जिस से मोदी सरकार की परेशानी बढ़नी तय है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के खिलाफ नैशनल मोरचा खड़ा करने की लालू और नीतीश की कवायद रंग लाती नजर आने लगी है. नीतीश का मकसद है कि बिहार में महागठबंधन को भारी कामयाबी मिलने के बाद राष्ट्रीय स्तर पर भी महागठबंधन का प्रयोग किया जाए, लालू यादव ताल ठोंक कर कहते हैं कि नीतीश बिहार संभाल रहे हैं और वे दिल्ली जा कर भाजपा की जड़ें उखाड़ेंगे. बिहार में महागठबंधन को कामयाबी मिलने के बाद भाजपा का माथा चकरा गया है. अब पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु, केरल, पंजाब और उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में महागठबंधन की ताकत दिखाई देगी.

बिहार के सियासी मामलों के जानकार और चिंतक हेमंत राव कहते हैं कि अपराध और भ्रष्टाचार पर नकेल कस कर ही नीतीश सरकार जनता की उम्मीदों पर खरा उतर सकती है. नीतीश के लिए सब से बड़ी चुनौती और ??खतरा लालू यादव की महत्त्वाकांक्षा और उन के परिवार को आगे बढ़ाने की ललक होगी. अब यह देखना होगा कि लालू की महत्त्वाकांक्षाओं, ठेठ गंवई अंदाज और मुंहफट अंदाज को नीतीश कितना और कब तक बरदाश्त कर पाते हैं. जिस नीतीश को भाजपा से 17 साल पुराना नाता तोड़ने में जरा भी देरी और हिचक नहीं हुई वे लालू से कितने दिनों तक दोस्ती निभा पाते हैं, इस पर कुछ कहना अभी ठीक नहीं है. वहीं, अभी यह कह देना काफी जल्दबाजी होगी कि लालू यादव बदल गए हैं.

जनता की उम्मीदों पर खरा उतरूंगा

–तेजस्वी यादव, उपमुख्यमंत्री, बिहार

25 साल के तेजस्वी यादव को लालू प्रसाद यादव के राजनीतिक उत्तराधिकारी के तौर पर देखा जा रहा है. नीतीश सरकार में उपमुख्यमंत्री और पीडब्लूडी मंत्री का ओहदा पाने वाले तेजतर्रार युवा नेता तेजस्वी कहते हैं कि बिहार की तरक्की ही अब उन का मकसद और सपना है. अपनी प्राथमिकता बताते हुए वे कहते हैं कि बिहार के हर गांव को सड़कों से जोड़ना उन का पहला लक्ष्य है. जब तक गांवों को सड़कों से नहीं जोड़ा जाएगा तब तक गांव तक तरक्की नहीं पहुंच सकेगी. उन का जोर बिहार की ब्रैंड वैल्यू बढ़ाना है. तेजस्वी का मानना है कि उन की जीत में बिहार के दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों के साथसाथ युवाओं का पूरा हाथ रहा है और उन की सरकार उन लोगों की उम्मीदों पर सौ फीसदी खरी उतरेगी.

जीवंत और अनंत रंगों की धरोहर गुजरात

रोमांच, रहस्य, जीवंत रंगों और अनंत सुंदरता से भरी सांस्कृतिक धरोहरों को संजोए गुजरात की धरती का विशिष्ट स्थान है. अहमदाबाद की खास पहचान जहां एक तरफ वहां के म्यूजियम, पुरानी हवेलियां, आधुनिक वास्तुशिल्प और मल्टीनैशनल संस्कृति है वहीं राज्य के समुद्रीतटों पर मन को लुभाते रिजौर्ट और ब्लू लगून के साथ गुजरात में देश के उम्दा बीच हैं. गुजरात की खूबसूरती के बारे में सुन कर अब जब आप ने इन छुट्टियों में गुजरात में कुछ दिन गुजारने का मन बना ही लिया है तो हम आप को यहां के किसी रिजौर्ट में रहने की सलाह देंगे जहां रह कर आप पर्यटन का पूरा आनंद ले सकेंगे.

अहमदाबाद का एक रिजौर्ट स्वप्न सृष्टि रिजौर्ट आप को अपनी छुट्टियां एंजौय करने का पूरा मौका देगा. ग्रामीण व शहरी जीवनशैली के मिश्रण से बना यह रिजौर्ट हर उम्र के लोगों के लिए परफैक्ट है. यहां बने वाटर पार्क में आप स्नोफौल व मिसीसिपी राइड का आनंद उठा सकते हैं. यह लंबी वाटर राइड है. ठहरने के लिए यहां आप को अपनी जरूरत व जेब के अनुसार एसी रूम्स, कच्चे झोंपड़ीनुमा घर, रौयल टैंट हाउस और अनूठे ट्रक हाउस मिल जाएंगे, जहां आप शहरी व ग्रामीण दोनों जीवनशैलियों का पूरा आनंद उठा सकते हैं. गुजरात के निम्न दर्शनीय स्थलों को देख कर आप अपनी छुट्टियों को सफल बना सकते हैं.

अहमदाबाद : अहमदाबाद का ऐतिहासिक महत्त्व इस शहर के महात्मा गांधी से जुड़े होने के कारण भी है. आश्रम रोड पर बने साबरमती आश्रम, जिसे महात्मा गांधी का घर भी कहा जाता है, को देखने जाएं. देश की आजादी की लड़ाई में विशेष महत्त्व रखने वाले इस आश्रम में गांधीजी से जुड़ी वस्तुओं को मूल स्थिति में रखा गया है.

झूलती मीनारें : अहमदाबाद के उत्तर में 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित इन मीनारों की खासीयत यह है कि इन पर जरा सा दबाव पड़ते ही ये हिलने लगती हैं लेकिन आप की जानकारी के लिए बता दें कि आप को इन मीनारों को हिलाने की इजाजत नहीं है. मीनारों को आप दूर से ही देख सकते हैं.

नल सरोवर : यह सरोवर अपने दुर्लभ जीवनचक्र के लिए प्रसिद्ध है. अहमदाबाद से 45 किलोमीटर की दूरी पर स्थित नल सरोवर का वातावरण विशेष प्रकार की वनस्पतियों, जलपक्षियों, मछलियों, कीटपतंगों और जीवजंतुओं को शरण प्रदान करता है. यहां सर्दियों में कई तरह के देशीविदेशी पक्षियों का जमावड़ा रहता है.

गिर अभयारण्य : गुजरात आएं तो गिर अभयारण्य देखना न भूलें. अहमदाबाद से 395 किलोमीटर दूर स्थित यह अभयारण्य एशिया का एकमात्र अभयारण्य है जहां सिंहों को अपने प्राकृतिक आवास में देखा जा सकता है. इस अभयारण्य में स्तनधारी, सरीसृप व अन्य जीवजंतुओं व पशुपक्षियों की कई जातियां देखने को मिलती हैं.

जामनगर : अहमदाबाद से 302 किलोमीटर की दूरी पर स्थित जामनगर वास्तुकला के उत्कृष्ट नमूनों, किलों, महलों के लिए खासा प्रसिद्ध है. यहां आ कर पर्यटक विलिंगटन क्रिसैंट, लखोटा किला, धूपघड़ी, जामसाहब महल, लखोटा संग्रहालय, रणमाल झील देखने जा सकते हैं.

कच्छ : भारत के सब से बड़े जनपदों में से एक कच्छ एक बंजर भूभाग है. कोई इसे दलदली भूमि तो कोई मरुभूमि कहता है. 45,652 किलोमीटर के क्षेत्रफल में फैले कच्छ को देखने के लिए पर्यटकों को यहां के शहर भुज पहुंचना होगा. अगर पर्यटक कच्छ की असली खूबसूरती देखना चाहते हैं तो रण उत्सव के दौरान जाएं. लोकगीत व संगीत आयोजनों से सराबोर इस उत्सव में पर्यटकों को गुजराती शिल्पकला की बेहतरीन वस्तुएं देखने व उन्हें खरीदने का अवसर प्राप्त होता है. आप की जानकारी के लिए बता दें कि कच्छ में ‘लगान’ व ‘रिफ्यूजी’ जैसी कई बहुचर्चित हिंदी फिल्मों की शूटिंग हुई हैं. कच्छ की सांस्कृतिक रंगों की छटा बड़े परदे पर ऐसा जादू बिखेरती है कि दर्शक स्क्रीन पर से अपनी नजरें नहीं हटा पाते.

मांडवी : अरब सागर से केवल 1 किलोमीटर की दूरी पर स्थित मांडवी की तटीय सुंदरता व संस्कृति बरबस ही पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करती है. मांडवी जाने के लिए नजदीकी हवाई अड्डा भुज 50 किलोमीटर और नजदीकी रेलवे स्टेशन गांधीधाम 95 किलोमीटर दूर है. मांडवी का एक खास आकर्षण विजय विलास पैलेस है. स्थापत्यकला के इस अद्भुत पैलेस का मुख्य आकर्षण यहां के सुंदर उद्यान और फौआरे हैं. यहां एक ओर जहां सागर की अथाह जलराशि दिखाई देती है वहीं दूसरी ओर सैकड़ों पवनचक्कियां कतार में खड़ी नजर आती हैं.

गुजरात के चटख रंग : रंगीन सांस्कृतिक धरोहरों को अपने में समेटे गुजरात की धरती पर त्योहारों के दौरान गरबा नृत्य की धूम देखने और पारंपरिक व्यंजनों का स्वाद चखने को मिलता है. पर्यटक गुजरात आने पर यहां की समृद्ध हस्तशिल्प कला के अनूठे नमूने वंशेज, ब्लौक प्रिंट व मिरर वर्क की रंगबिरंगी साडि़यों की शौपिंग कर सकते हैं. वे पाटन से पटोला की साडि़यां खरीद सकते हैं. पाटन जाने के लिए पर्यटकों को अहमदाबाद से 125 किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है.  

कैसे जाएं

अहमदाबाद में अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे के अतिरिक्त राज्य में 10 घरेलू हवाई अड्डे हैं. अधिकांश एअरलाइंस राज्य को भारत के अन्य हिस्सों से जोड़ती हैं. रेलमार्ग द्वारा भी गुजरात देश के मुख्य शहरों से जुड़ा है. वडोदरा जंक्शन गुजरात का सब से व्यस्त रेलवे स्टेशन है. इस के अलावा अहमदाबाद, सूरत, राजकोट, भुज व भावनगर अन्य महत्त्वपूर्ण स्टेशन हैं. सड़कमार्ग से भी गुजरात देश के सभी मुख्य शहरों से राष्ट्रीय राजमार्ग से जुड़ा है. पर्यटक गुजरात राज्य परिवहन निगम और प्राइवेट औपरेटर्स द्वारा चलाई जाने वाली बसों से अहमदाबाद व गुजरात के मुख्य शहरों तक पहुंच सकते हैं.

जरा देखो तो

बरबाद बगीचे में जरा घूम के देखो

कोई तो खिले फूल जरा झूम के देखो

ऐसे तो वो तुम से सदा रूठे ही रहेंगे

तुम भी करो कुछ मान, जरा रूठ के देखो

साए तो साथ हैं, वो आएं या न आएं

खुद के ही दायरे में जरा घूम के देखो

रहबर हों, रहनुमा हों, कभी काम न आएं

खुद अपने रास्तों को जरा मोड़ के देखो

पहले से वो डरे हैं, उन्हें क्यों डराइए

जिंदा हैं किस तरह से, जरा पूछ के देखो

ये लोग न जाने कहां आएंगे, जाएंगे

इन को भी रास्तों में जरा छोड़ के देखो.

 

                                    – राकेश भ्रमर

ऐसा भी होता है

मैं डाकघर में बिल जमा करवा रहा था. मेरे साथ वाली खिड़की पर एक ग्रामीण ने अपना पार्सल डाकबाबू को दिया तो उस को तौल कर वह ग्रामीण से बोला, ‘‘इस का वजन ज्यादा है, 10 रुपए के टिकट और लगा कर लाओ.’’ वह ग्रामीण पार्सल हाथ में ले कर सहजभाव से बोला, ‘‘डाकबाबू, और टिकट लगाने से इस का वजन कम हो जाएगा क्या?’’ इस से पहले कि डाकबाबू कोई जवाब देते, वहां उपस्थित सभी ग्राहकों की हंसी छूट गई और डाकबाबू से कुछ कहते नहीं बना.

मुकेश जैन पारस, बंगाली मार्केट (न.दि.)

*

हिंदी पखवाड़ा चल रहा था. विद्यालय में सभी बच्चों को हिंदी में बात करने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा था. ‘विद्यार्थी गर्व से बोलें मातृभाषा’ विषय पर वादविवाद प्रतियोगिता भी रखी गई थी. प्रतियोगिता की तैयारी जोरों से चल रही थी कि मेरे मोबाइल की घंटी बजी. मैं ने फोन उठाया, फोन मेरे मित्र का था. उस ने फोन पर कहा, ‘‘हैलो मैडम, गुडमौर्निंग, आई एम रेनु, विश यू ए वैरी हैप्पी हिंदी डे, सैलिब्रेट इट ऐंड एंजौय.’’ मेरे उत्तर देने से पहले ही फोन कट गया. मैं सोच रही थी कि इन्हीं शब्दों को यदि वह हिंदी में कहती तो मुझे अधिक प्रसन्नता होती.

उपमा मिश्रा, लखनऊ (उ.प्र.)

*

एक दिन मैं अपनी पत्नी के साथ पड़ोसी के घर मिलने गया. वे घर पर नहीं मिले. उन के दरवाजे पर ताला लगा था. हम लोग वापस अपने घर लौटने वाले थे कि रास्ते में बगल में रहने वाले एक अन्य पड़ोसी मिल गए. वे हम लोगों को अपने घर ले गए. वहां चायनाश्ते और बातोंबातों में समय का पता नहीं चला. रात काफी हो गई थी. हम अपने घर जाने के लिए बाहर आए ही थे, इतने में देखा कि एक बाइक कुछ दूर पर रुक गई और एक युवक तेजी से पड़ोसी के घर की तरफ आया और उस ने अपने मोबाइल से ही पड़ोसी के बंद घर और गेट पर लगे ताले का फोटो खींचा. वह भागने ही वाला था कि हम ने शोर मचा दिया. शोर मचने पर युवक पकड़ा गया.

जब उस की जम कर पिटाई हुई तो उस ने कबूला, ‘वह बंद घरों का फोटो खींच कर चोरी करने के लिए अपने साथियों को जानकारी देता था.’ जांच करने पर पाया गया कि उस के मोबाइल में बंद पड़े घरों के सैकड़ों फोटो थे.

चैतन्य कुमार श्रीवास्तव, लखनऊ (उ.प्र.)

अर्थव्यवस्था पर आत्ममुग्ध भारत

केंद्रीय सरकार अर्थव्यवस्था की तरक्की पर इन दिनों खूब इतरा रही है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और वित्तमंत्री अरुण जेटली अपनी पीठ ठोंकते दिखाई दे रहे हैं. मोदी देश की अर्थव्यवस्था की रफ्तार को एक अद्भुत घटना करार देते हुए कहते हैं, ‘‘भारत ने साबित कर दिया है कि एक बड़ा लोकतंत्र भी तेजी से आर्थिक प्रगति हासिल कर सकता है.’’

अरुण जेटली कहते हैं, ‘‘हमारी अर्थव्यवस्था अन्य देशों की तुलना में अधिक ऊंचे और स्थिर मुकाम पर है.’’ विशाखापट्टनम में सीआईआई साझेदारी सम्मेलन में वे बोले, ‘‘कठिन दौर में भी भारतीय अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन अच्छा रहा है. भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया की सब से तेज विकास दर वाली अर्थव्यवस्था बनी हुई है. 7-7.5 फीसदी विकास दर की वजह से हम दुनिया में एक आकर्षक देश बने हुए हैं.’’ इंडिया इन्वैस्टमैंट समिट में जेटली ने फरमाया कि देश की माली हालत सुधर रही है, देश सही दिशा में तरक्की कर रहा है.

देश की अर्थव्यवस्था पर सरकार का इतना उछलना, इतराना खयाली पुलाव पकाना भर है. यह 2003-04 में वाजपेयी सरकार की ‘शाइनिंग इंडिया’ जैसी खुशफहमी है. तब ऐसी ही खुशफहमी में भाजपा समय से पहले लोकसभा चुनाव करवा बैठी थी, नतीजतन बुरी तरह हारी थी.

यह कैसा विकास

देश में कैसी आर्थिक तरक्की, कौन सा विकास, किस का विकास हो रहा है? आर्थिक खबरों और आंकड़ों पर गौर करें तो पता चलता है कि देश के आम, मध्यम और गरीब परिवार मौजूदा अर्थव्यवस्था में कोई राहत महसूस नहीं कर रहे. व्यापारी मंदी का रोना रो रहे हैं. नौकरीपेशा वालों के दिन कहीं से अच्छे दिखाई नहीं दे रहे. छंटनी से बेकारी की समस्या बढ़ रही है. युवाओं के लिए रोजगार के नए रास्ते नहीं खुल रहे. किसानों द्वारा आत्महत्या किया जाना रुक नहीं रहा. थोक मूल्य सूचकांक नकारात्मक बना नजर आता है. खाद्य क्षेत्र में महंगाई कम नहीं हुई है.

पैसे की कमी की वजह से केंद्र सरकार ने कई बचत योजनाओं पर ब्याज दर में कटौती कर दी है. भ्रष्टाचार पर नियंत्रण और सुधार के नाम पर कई व्यापारिक पाबंदियां लगा दी गई हैं.

देश में निवेश का माहौल निराशाजनक है. ऊपर से सरकार के पुराणवादी संगठनों ने राष्ट्रवाद, सहिष्णुता के नाम पर धर्मभक्ति थोपने का माहौल पैदा कर कई देशों को बिदका दिया है. अच्छे दिन का जुमला अब हकीकत में जुमला ही साबित हो गया है. राहुल गांधी को मोदी सरकार की कालाधन वापस लाने की योजना को ‘फेयर ऐंड लवली’ योजना बता कर व्यंग्य करने का अवसर मिल गया.

निचले पायदान पर

भारत की अर्थव्यवस्था दुनिया की सब से बड़ी 5 अर्थव्यवस्थाओं में से एक है. लेकिन दूसरी ओर स्थिति यह है कि भारत में बेहद गरीबी में जीवन बसर करने वालों की तादाद दुनिया में सब से ज्यादा है. कुपोषण के मामले में हम दुनिया के सब से निचले पायदान पर खड़े हैं. देश की तीनचौथाई आबादी को स्वास्थ्य की सुविधाएं नहीं मिल रही हैं.

मार्च माह में आई वर्ल्ड हैप्पीनैस रिपोर्ट भी वित्तमंत्री के दावों के विपरीत है. इस रिपोर्ट के मुताबिक, 157 देशों में भारत का स्थान 118वां है. भारत उन चंद देशों में से है जो पिछले साल के मुकाबले नीचे की ओर खिसके हैं. आश्चर्यजनक यह है कि हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान, बंगलादेश और चीन भारत से बेहतर स्थिति में हैं. यहां तक कि सोमालिया, ईरान और लगातार युद्ध से आक्रांत फिलिस्तीन भी भारत से ऊपर हैं. वर्ल्ड हैप्पीनैस रिपोर्ट हर वर्ष 20 मार्च को वर्ल्ड हैप्पीनैस डे के मौके पर जारी की जाती है.

नागरिकों की खुशी कई सामाजिक, आर्थिक कारणों पर निर्भर होती है. तरक्की से खुशी का स्तर नापने के लिए कई पैमाने इस्तेमाल किए गए हैं जिन में प्रतिव्यक्ति आय, सामाजिक सुरक्षा, लंबे जीवन की संभावना और अपने फैसले खुद करने की आजादी शामिल हैं. लोकतंत्र और बहुधर्मीय होते हुए भी भारत इन बातों में इतना नीचे क्यों है?

आंकड़ों का सच

अरुण जेटली जिस बढ़ती अर्थव्यवस्था का जगहजगह नगाड़ा पीटते फिर रहे हैं वहां पर कैपिटा इनकम यानी प्रतिव्यक्ति आय के मामले में भारत फिसड्डी दिखाई दे रहा है. प्रतिव्यक्ति आय के मामले में दक्षिण अफ्रीकी गरीब, गुलाम देश भी हम से आगे हैं जो हमारे बाद औपनिवेशिक परतंत्रता से मुक्त हुए और जिन के पास तेल, गैस या अन्य प्राकृतिक खनन का खजाना भी नहीं है.

आंकड़े बता रहे हैं कि 2014 में भारत में प्रतिव्यक्ति आय 1,581.15 अमेरिकी डौलर यानी लगभग 95 हजार रुपए थी जबकि यूरोपीय मानकों के आधार पर यूरोप के एक गरीब देश अल्बानिया की प्रतिव्यक्ति आय भारत से करीब 4 गुना ज्यादा यानी करीब 6 हजार डौलर रही.

आर्थिक समस्याओं का रोड़ा

भारत की तरह अल्बानिया में भी कृषि प्रमुख है, जिस में देश की 58 फीसदी कार्यशक्ति लगी हुई थी. हालांकि वहां प्राकृतिक गैस के कुछ भंडार हैं पर उस से केवल घरेलू मांग की आपूर्ति ही पूरी हो पाती है. 1991 में भारत की प्रतिव्यक्ति आय 309 डौलर थी जबकि अल्बानिया की प्रतिव्यक्ति आय 348 डौलर थी.

भारत से अधिक यानी 500 साल तक तुर्कों का गुलाम रहा अल्बानिया तकरीबन अशांत रहा है. वह रूसी खेमे का गुलाम भी रहा. वहां अभी भी आर्थिक समस्याएं बनी हुई हैं. निवेश की कमी, आधारभूत ढांचे में कमी, अपर्याप्त बिजली आपूर्ति और भ्रष्टाचार व काली अर्थव्यवस्था तथा संगठित अपराध भी वहां हावी रहे हैं.

अफ्रीकी देश अल्जीरिया भी 1962 में फ्रांस के कब्जे से स्वतंत्र हो कर हम से ज्यादा प्रतिव्यक्ति आय वाले देश की हैसियत रखता है. 5,484.1 डौलर प्रतिव्यक्ति आय वाला यह मुसलिम देश है और इसलामिक स्टेट के कहर से प्रभावित है लेकिन अरबी, यहूदी और फ्रांसीसी लोगों ने यहां का व्यापार फिर भी बेहतर ढंग से संभाले रखा है. प्राचीन सभ्यताओं वाले इस देश में कई सल्तनतों का शासन रहा है.

5,900.5 डौलर प्रतिव्यक्ति आय वाला दक्षिण अफ्रीकी देश अंगोला 1975 में आजाद हुआ और 27 वर्षों तक गृहयुद्ध झेलने के बावजूद आर्थिक तरक्की कर रहा है और भारत से कहीं अधिक अच्छा है.

अफ्रीकी महाद्वीप के दक्षिण में स्थित बोत्सवाना ब्रिटेन का गुलाम रहा. 1966 में स्वतंत्र होने के बाद आज इस देश की गिनती अफ्रीका के मध्यम आय वाले देशों में होने लगी है. यह विश्व की कुछ तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों में गिना जा रहा है. इस की 7,123.3 डौलर प्रतिव्यक्ति आय है.

स्वतंत्रता के समय गरीब रहे इस देश ने तब से लगातार तरक्की की है. इस समय इस की औसत वृद्धि दर 9 फीसदी की है. बड़े स्तर पर व्याप्त गरीबी, असमानता और निम्न मानव विकास सूचकांक के बावजूद बोत्सवाना ने सुशासन व व्यापक आर्थिक वित्तीय प्रबंधन द्वारा प्रगति हासिल की है. हीरे और मांस पर पूरी तरह निर्भर यह देश अपनी अर्थव्यवस्था में और विविधता लाने में जुटा हुआ है.

दुनिया में सब से अधिक मुसलिम आबादी वाला देश इंडोनेशिया अर्थव्यवस्था के मामले में भारत से बेहतर स्थिति में है. 350 साल तक यह देश डचों के पंजों में रहा. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद स्वतंत्र इंडोनेशिया का इतिहास उथलपुथल भरा रहा. भ्रष्टाचार, प्राकृतिक आपदाएं, अलगाववाद और लोकतांत्रिक प्रक्रिया से उत्पन्न चुनौतियों से जूझता रहा.

इस के बावजूद इस देश की अर्थव्यवस्था दक्षिणपूर्वी एशिया की सब से बड़ी अर्थव्यवस्था है. 2010 में इंडोनेशिया का अनुमानित सकल घरेलू उत्पाद लगभग 706.73 अरब डौलर था. सकल घरेलू उत्पाद में सब से अधिक 46.4 प्रतिशत योगदान उद्योग क्षेत्र का रहा. सेवा क्षेत्र और कृषि क्षेत्र में भी यह देश अपने देश के नागरिकों की बेहतरी के लिए बेहतर काम कर रहा है. यहां की अर्थव्यवस्था में निजी और सरकारी दोनों क्षेत्रों की भूमिका है और यहां के नागरिकों की प्रतिव्यक्ति आय 3,491.9 डौलर है.

इन के अलावा ब्राजील 11,384.4, अरमेनिया 3,873.5, अफ्रीकी गरीब कांगो 3,147.1, गृहयुद्ध से जूझते रहे कोस्टारिका 10,415.4, उत्तरी अफ्रीका में स्थिति मिस्र अरब गणराज्य 3,198.7 डौलर प्रतिव्यक्ति आय वाले देश भी विश्वगुरु बनने जा रहे भारत से समृद्धि में काफी आगे खड़े दिखाई दे रहे हैं.

हमारे नेता विश्व में भारत की बढ़ती अर्थव्यवस्था का चाहे कितना गुणगान करते घूमें पर सचाई यह है कि अभी भी देश की बहुत बड़ी आबादी गरीबी, पिछड़ेपन, अशिक्षा, बेकारी, भेदभाव और छुआछूत से जूझ रही है.

सामाजिक व्यवस्था

असल में यह स्थिति भारत में सदियों से कायम रही सामाजिक व्यवस्था की वजह से है. देश में व्यवसाय, शिक्षा जातीय आधार पर बंटे रहे. देश का 80 प्रतिशत वर्ग मेहनत करता रहा और ऊपर का 20 प्रतिशत वर्ग उस मेहनत का फायदा उठाता रहा. आजादी के बाद भी इस भेदभाव में कोई फर्क नहीं आया. यही वजह है कि दुनिया के तमाम गरीबों का 5वां हिस्सा भारत में रहता है.

उदारवादी व्यवस्था के बाद तो असमानताएं कम होने के बजाय बढ़ती गईं. सब से धनी एक फीसदी भारतीयों के हाथों में इस समय देश की संपदा के 53 प्रतिशत हिस्से का स्वामित्व है. अमीरीगरीबी का फासला लगातार बढ़ रहा है. 2015 में किसानों की आत्महत्या के चौंकाने वाले आंकड़े आए हैं. अकेले महाराष्ट्र में 3,228 आत्महत्याएं हुईं. कृषि संकट के चलते ग्रामीण गरीबों की तादाद बढ़ती जा रही है.

गरीबों की ही नहीं, मध्यवर्ग की स्थिति में भी सुधार नहीं दिखता. खबर है कि भारतीय शेयर बाजार में निवेशकों की संपत्ति पिछले 1 साल में करीब 14 लाख करोड़ रुपए कम हुई है. जबकि इसी दौरान शेयर बाजार के प्रमुख सूचकांक रिकौर्ड ऊंचाई से करीब 18 प्रतिशत नीचे आ चुका है.

मजे की बात यह है कि दूसरे देशों की तुलना में कुछ लोग जनसंख्या का तर्क देते हैं लेकिन जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक, मौजूदा समय में पहली बार भारत में आधे से ज्यादा परिवारों में 1 या 2 बच्चे हैं. 2001 की जनगणना में ऐसे परिवारों का प्रतिशत 46.6 था जो 2011 में 54 हो गया. इस हिसाब से 2016 तक यह प्रतिशत और बढ़ गया है.

2011 में भारत में करीब 34 करोड़ विवाहित महिलाएं थीं जिन के करीब 92 करोड़ बच्चे थे यानी प्रति विवाहित महिला के बच्चों का औसत 2.69 रहा. सवाल है जनसंख्या में इस कमी के बावजूद अभी भी भारत की प्रतिव्यक्ति आय अन्य गरीब, पिछड़े माने जाने वाले देशों से पीछे क्यों है?

दरअसल, इस की वजह है भारत में असमानता आधारित जाति, धार्मिक व्यवस्था. सरकारें भी इसी आधार की नीतियां, योजनाएं बनाती और लागू करने की सोच रखती हैं. यह गैरबराबरी ही प्रतिव्यक्ति आय में कमी की वजह है. जाति, धर्म, वर्ग के आधार पर गैरबराबरी घटाने की न कोशिश हुई है, न किसी की रुचि है. जब तक सरकारों की यह पौराणिक सोच हावी रहेगी, भारत नीचे ही रहेगा.

भारत अर्थव्यवस्था में चीन से मुकाबले की बात करता है. उसे अपना भ्रष्टाचार चीन के भ्रष्टाचार में मौजूद नहीं दिखता. टै्रफिक जाम व गंदगी ने दिल्ली व मुंबई जैसे शहरों के साथ मानो एक सा सौदा कर रखा है. ऐसे में निवेश के लिए लगातार की जा रही मिन्नतें सिरे नहीं चढ़ रही हैं. इस के अलावा भारत बड़ी तादाद में अपनी प्रतिभाओं को रोक पाने में नाकाम रहा है. देश से प्रतिभा पलायन जारी है. दुनियाभर में कितनी ही कंपनियों में ऊंचे पदों पर भारतीय दिखाई दे रहे हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इन प्रतिभाओं से विदेशों में जा मिल कर और उन्हें भारत आने का न्योता दे कर सिर्फ गौरवान्वित हो रहे हैं. पर वापस आता कोई नहीं है जबकि हम सब से तेज हैं. 1991 में चीन की प्रतिव्यक्ति आय 331 डौलर थी और भारत की 309 डौलर.

बदलावों पर अमल नहीं

मोदी सरकार को अन्य पूर्ववर्ती सरकारों की अपेक्षा मजबूत जनादेश मिला है, फिर भी नरेंद्र मोदी अपने पूर्ववर्तियों की तरह केवल बातें ही कर रहे हैं, काम नहीं. वे परिवर्तनों पर अमल करने में नाकाम हैं. हालांकि उन्होंने कुछ सार्थक सामाजिक मुद्दों को छुआ है पर भारत को अभी भी कई बदलावों की दरकार है. भारत ने अपने किसानों को विदेशियों के लिए अवैध करार दे कर 5 हैक्टेयर का मालिक बनाया पर क्या एक भारतीय किसान 50 हजार हैक्टेयर के साथ एक आस्ट्रेलियाई किसान की बराबरी कर सकता है?

भारत का सकल घरेलू उत्पाद 2.1 ट्रिलियन अमेरिकी डौलर है जबकि चीन इस से कहीं ज्यादा 11.3 ट्रिलियन डौलर लिए खड़ा है. यह सदी चीन की मानी जा रही है. हर तरह के कच्चे माल को ज्यादा से ज्यादा मात्रा में उत्पादित करने के लिए चीन बहुत ही ज्यादा सड़कें, पुल, फ्लाईओवर, फैक्टरियां बना रहा है. कच्चे माल के लिए तो वह इतना लोलुप दिख रहा है जैसे वह इस क्षेत्र से संतुष्ट ही न होगा. दरअसल, इसी से तो ब्राजील और रूस की अर्थव्यवस्था मजबूत हुई थी. सो, चीन अब बहुत तेजी से आर्थिक मजबूती की ओर बढ़ रहा है जबकि दूसरे देशों की अर्थव्यवस्था कमजोर हो रही है. ऐसे में, चीन के मुकाबले में भारत कहां ठहर पा रहा है.

सकल घरेलू उत्पाद में भारत

देश   जीडीपी (अमेरिकी डौलर) अरब डौलर

अमेरिका     17,968

चीन           11,385

जापान       4,116

जरमनी       3,371

ब्रिटेन         2,865

फ्रांस          2,423

भारत         2,183

इटली         1,819

ब्राजील       1,800

कनाडा       1,573

कोरिया      1,393

आस्ट्रेलिया   1,241

रूस           1,236

स्पेन           1,221

मैक्सिको     1,161

इंडोनेशिया  873

नीदरलैंड     751

तुर्की           722

स्विट्जरलैंड 677

सऊदी अरब 632

अर्जेंटीना     579 

गरीब देशों में भारत

प्रतिव्यक्ति आय (अमेरिकी डौलर में)

देश           प्रतिव्यक्ति आय 

भारत         1,581.5

कांगो         3,147.1   

इजिप्ट        3,198.7

इंडोनेशिया  3,491.9

अरमेनिया   3,873.5

अल्बानिया  4,564.4

फिजी         5,112.3

अल्जीरिया  5,484.1

अंगोला       5,900.5

बोत्सवाना   7,123.3

कोस्टारिका  10,415.4

गबोन         10,772.1

लोकतंत्र या पावरतंत्र

उत्तराखंड में अंत में चाहे कुछ भी हो, इस मामले में राष्ट्रपति शासन लागू कर के भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने दर्शा दिया है कि संवैधानिक अधिकारों के दुरुपयोग में वह पिछली सरकारों से एक कदम आगे ही है. अपने मुख्यमंत्री से नाराज पार्टी के सदस्यों को विरोधी दल की केंद्र सरकार प्रोत्साहन दे, संरक्षण दे, यह लोकतंत्र की भावना के एकदम खिलाफ है. आयाराम-गयाराम के खेल को देख कर ही दलबदल का सख्त कानून बना था और उस से काफी शांति बनी रही है. पर लगता है दिल्ली और बिहार की हार की खीज भारतीय जनता पार्टी विपक्षी दलों की सरकारों में उपजे मतभेदों को भुना कर निकाल रही है.

दलों में मतभेद होना सामान्य है और यह ही लोकतंत्र की जड़ हैं. पर इस की वजह से चुने हुए सदस्य दूसरी तरफ वालों से मिल जाएं तो यह न केवल संविधान के खिलाफ है बल्कि यह मतदाताओं के भी खिलाफ है. आज जो सदस्य विधानसभाओं या लोकसभा में चुन कर आते हैं, वे अपने बलबूते पर नहीं, अपनी पार्टी के बलबूते चुन कर आते हैं. जनता एक उम्मीदवार को नहीं, उस की पार्टी को वोट देती है. उस चुने हुए नेता का कोई नैतिक हक नहीं कि वह मतभेदों के कारण दूसरे खेमे में चला जाए. वह त्यागपत्र दे सकता है पर उस स्थिति में भी सरकार पर आंच नहीं आए, ऐसा प्रावधान होना चाहिए. हां, जब वह फिर से चुन कर किसी दूसरी पार्टी से आ जाए, तो ही उस के वोट को उस की पिछली पार्टी का न माना जाए.

उत्तराखंड के 9 कांग्रेसी विधायक पैसे और घर के लालच में बगावत का झंडा उठाए घूम रहे हैं, इस में कोई संदेह नहीं. अगर उन्हें पार्टी के फैसलों से शिकायत होती तो वे उसे अपने अध्यक्ष सोनिया गांधी के आगे ला सकते थे. पर उन्हें तो  पद चाहिए था जो अपनी पार्टी के मुख्यमंत्री को हटा कर ही मिल सकता था. उन के विद्रोह के पीछे न कोई नीति है, न आदर्श. यह कोरा लेनदेन का मामला है.

भारतीय जनता पार्टी ने उन्हें उकसा कर साबित कर दिया है कि कालेधन से मुक्त, स्वच्छ, सुशासन आदि की बातें केवल चुनावी सभाओं के लिए हैं. जीतने के बाद तो पद व पावर की भूख बढ़ती ही है और भारतीय जनता पार्टी अपनी गिरती साख को दूसरी पार्टियों में सूराख कर के बचाना चाह रही है. कांगे्रस इस खेल में माहिर है, पर न जाने क्यों आजकल वह लेनदेन कम कर रही है वरना मजाल है कि कांगे्रसी विधायक वर्षों बाद मिले पद को इस तरह खतरे में डाल सकें. दरअसल, पूरे घटनाचक्र में पार्टी का ढीलापन दिख रहा है. कुल मिला कर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अपनों से गद्दारी तो हमारी संस्कृति और हमारे धर्म का अभिन्न अंग है. घर के भेदी यहां एक पत्थर के नीचे 4 मिलते हैं और उत्तराखंड तो भई, धर्म का स्रोत है. वहीं का पानी पी कर ही तो विधायकों के दिलोदिमाग में गद्दारी पनपी है. इस पूरे नाटक ने देवभूमि की पोल खोली है.

बदनामी ठीक नहीं

फिल्मनगरी में यह कहावत बहुत प्रचलित है कि नाम होना चाहिए, भले ही बदनाम हो जाएं. इस फलसफे पर कई नाम न सिर्फ चर्चा बटोर चुके हैं बल्कि फिल्मों में काम भी पा चुके हैं. राखी सावंत, मीका सिंह, पूनम पांडे, डौली बिंद्रा जैसे कई नाम हैं जो बदनाम हो कर भी लोकप्रिय हो चुके हैं.

लेकिन अभिनेत्री नरगिस फाखरी को प्रसिद्धि पाने के लिए कोई ‘शौर्टकट’ रास्ता अपनाना पसंद नहीं है. उन का मानना है कि वे बदनामी के साथ लोकप्रिय होने के बजाय मेहनत और कौशल के साथ काम करने में विश्वास रखती हैं. नरगिस मानती हैं कि बौलीवुड के कलाकार विदेशी फिल्मों में अच्छा नाम कमा रहे हैं. नरगिस भी हौलीवुड फिल्म ‘द स्पाई’ में काम कर चुकी हैं. वे रितेश देशमुख के साथ आगामी फिल्म ‘बैंजो’ और ‘हाउसफुल 3’ में भी नजर आएंगी.

प्रीति की फजीहत

पंजाबी हस्ती हरभजन मान को चैक बाउंस होने के मामले में कानूनी प्रक्रिया का सामना करना पड़ रहा है. इस से पहले भी प्रीति जिंटा को चैक बाउंस के लंबे केस में उलझना पड़ा था. दरअसल, कुछ साल पहले प्रीति ने एक फिल्म का निर्माण किया था जिस की पटकथा अब्बास टायरवाला ने लिखी थी. जब अब्बास को प्रीति ने पेमैंट का चैक दिया तो वह बाउंस हो गया. इस मामले को ले कर अब्बास ने केस कर दिया. बहरहाल कुछ दिन पहले ही शहर की एक मैट्रोपौलिटन मजिस्ट्रेट अदालत ने अभिनेत्री प्रीति जिंटा को एक पटकथा लेखक द्वारा दायर चैक बाउंस के मामले में बरी कर दिया. उन के वकील ने अदालत में दलील दी कि चैक बिना बताए जमा किया गया. अदालत ने इस दावे को स्वीकार कर लिया. लेकिन प्रीति की जो फजीहत होनी थी हो ही गई.

नो जोक्स, प्लीज

अभिनेता अभिषेक बच्चन इन दिनों सोशल मीडिया में जम कर कोसे जा रहे हैं. कोई उन्हें सब से कम प्रसिद्ध सितारा बता रहा है तो कोई बेरोजगार. पिछले दिनों जब अभिषेक बच्चन भारतपाक का क्रिकेट मैच देखने कोलकाता पहुंचे तो उन की उपस्थिति को ले कर जम कर ट्विटर पर मजाक उड़ा. कहा गया कि इतनी भी बेरोजगारी ठीक नहीं कि हर मैच देखने पहुंच जाओ.

हालांकि अभिषेक बच्चन अपने सैलिब्रिटी स्टेटस का मजाक उड़ते देख चुप नहीं रहे और अपने चिरपरिचित अंदाज में ट्विटर पर उन पर कसे जा रहे तंज का जवाब दिया. इस से पहले भी जब किसी ने उन की बेटी आराध्या के बारे में मजाकिया ट्वीट किया था तो बच्चन ने मुंहतोड़ जवाब दिया था. सोशल मीडिया में इस तरह की बहसबाजी से अभिषेक खबरों में जरूर आ गए लेकिन किसी पब्लिक प्लेटफौर्म पर सरेआम इंसल्ट करना ठीक नहीं.

नैशनल अवार्ड

63वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों के तहत इस बार स्पैशल इफैक्ट्स और कटप्पा जोक्स के लिए चर्चित रही फिल्म ‘बाहुबली’ को बैस्ट फिल्म का अवार्ड हासिल हुआ जबकि  फिल्म ‘पीकू’ के लिए अमिताभ बच्चन ने सर्वश्रेष्ठ अभिनेता, कंगना राणावत को ‘तनु वेड्स मनु रिटर्न्स’ के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का नैशनल अवार्ड दिया गया.

फिल्म ‘मसान’ के लिए निर्देशक नीरज घेवान को सर्वश्रेष्ठ नवोदित निर्देशक का पुरस्कार मिला. बाजीराव मस्तानी के लिए संजय लीला भंसाली को सर्वश्रेष्ठ निर्देशक, ‘तलवार’ के लिए विशाल भारद्वाज ने सर्वश्रेष्ठ रूपांतरित पटकथा का पुरस्कार अपने नाम किया. जूही चतुर्वेदी और हिमांशु शर्मा ने भी संयुक्त अवार्ड जीता.

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