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भवन निर्माताओं की दिक्कतें

भवन निर्माताओं को कठघरे में खड़ा करने की आदत देशभर में बुरी तरह फैली हुई है. लोगों को मकान चाहिए पर वे मकान बनाने की दिक्कतों को न तो समझने को तैयार हैं और न ही सरकार पर दबाव बनाने को. आम लोग अब जमीन खरीद कर मकान बनाने से कतराते हैं क्योंकि वे मकान बनाने में आने वाली अड़चनों का सामना नहीं कर सकते. पर जब वे पैसे ले कर भवन निर्माता के पास जाते हैं तो उन्हें लगता है कि सैकंडों में वह काम हो जाएगा जो वे वर्षों में नहीं कर पाते. भवन निर्माण में सरकारी अड़चनों की कोई सीमा नहीं है. जमीन खरीदी से ले कर अंत तक न जाने कितने फौर्म भरने पड़ते हैं. तब कहीं जा कर खरीदार उस में रह पाता है. ऊपर से जब से भवन निर्माण में तेजी आई है, मजदूर मिलने कम हो गए हैं. बैंक कर्ज देते हैं पर वह स्रोत कहीं बीच में न रुक जाए, यह डर बना रहता है.

मकानों के बाजार में ऊंचनीच चलती रहती है. लोगों की पसंद कब बदल जाए, पता नहीं चलता. जो इलाके शहर के अच्छे माने जाते थे और जहां दाम कुछ ज्यादा थे, देखतेदेखते स्लम और ट्रैफिक की चपेट में आ कर कब खराब हो जाएं, पता नहीं चलता. एक बाग के सामने बना मकान अच्छे पैसे देता है पर बाग की जगह पर कब कारखाना, स्कूल, मंडी या डंप उग आएं, कहा नहीं जा सकता. भवन निर्माताओं की इन दिक्कतों को कोई नहीं देखता. सरकार भवन निर्माताओं पर पेंच कसने के नियमकानून बना रही है. उपभोक्ता अदालतें लगातार भवन निर्माताओं के विरुद्ध फैसले देती रहती हैं. सुप्रीम कोर्ट में अकसर भवन निर्माताओं को फटकार पड़ती है, बनेबनाए मकानों को तोड़ने के आदेश दे दिए जाते हैं.

जिस देश में सड़कों पर कब्जा कर दुकान चलाना मौलिक हक सा बन गया हो, जहां सैकड़ों एकड़ खाली जगह पर दशकों से झुग्गीझोंपडि़यां बसी हों, जहां कोई नगरनिगम, राज्य सरकार या केंद्र सरकार 5 मील लंबी साफ व बाधारहित सड़क नहीं बना सकती हो, जहां सरकारी मकान भद्दे व कच्चे बनते हों, वहां भवन निर्माताओं को खलनायक सिद्ध करना कैसे सही कहा जा सकता है. ठीक है कि भवन निर्माताओं ने पिछले दशकों में बहुत कमाई की है पर उस तरह की कमाई किसानों और मकानमालिकों ने भी की है. उन दोनों की कमाई सिर्फ इस बात पर हुई है कि शहरीकरण तेजी से बढ़ा और कौडि़यों की जमीनों के दाम करोड़ों तक पहुंच गए. इस गुनाह के साझेदार सारे ही लोग हैं, सरकार सब से बड़ी.

भवन निर्माण आवश्यकता है. रोटीकपड़े के बाद मकान की जरूरत अहम है. उसे बनाने वाला पैसे के साथ सम्मान चाहता है, कोरी गालियां नहीं. नए कानून जो बनाए जा रहे हैं उन में सभी दिक्कतों का खयाल रखा जाए. भवन निर्माण में आने वाली सरकारी रुकावटें पहले दूर हों. और तब भी अगर भवन निर्माताओं की ओर से गड़बड़ी हो तो ही उन्हें कठघरे में खड़ा किया जाए.

कहानी पर तकनीक हावी न हो: इम्तियाज अली

झारखंड के जमशेदपुर के रहने वाले निर्देशक इम्तियाज अली का मानना है कि फिल्म बनाने के लिए सब से जरूरी चीज कहानी है. आप के पास दर्शकों से कहने के लिए कुछ होना चाहिए. कहानी ऐसी होनी चाहिए जो जिंदगी से मिलतीजुलती हो. वे बताते हैं कि वे कहानी की खोज में खूब घूमते हैं और कई लोगों से मिलते हैं. एक लेखक और निर्देशक को समाज व उस की समस्याओं से रूबरू होना बहुत जरूरी है. आज फिल्म इंडस्ट्री में कहानी पर तकनीक हावी हो गई है. कहानी फिल्म की जान होती है और जब किसी चीज में जान ही न हो तो उस से क्या उम्मीद की जा सकती है. पिछले दिनों उन से हुई मुलाकात के दौरान उन्होंने बताया कि तीसरी क्लास से 8वीं क्लास तक की पढ़ाई उन्होंने पटना में की थी. 44 साल के इम्तियाज कहते हैं कि बिहार की किसी थीम पर वे फिल्म बनाना चाहते हैं और इस के लिए वे अच्छी कहानी की तलाश में हैं. पटना के नेट्रोड्रम और सैंट माइकल स्कूल से पढ़ाई करने के बाद आगे की पढ़ाई उन्होंने जमशेदपुर में की और उस के बाद दिल्ली के हिंदू कालेज से ग्रेजुएशन किया. जल्द ही उन की किसी फिल्म में बिहार या झारखंड नजर आ सकता है.

वे कहते हैं कि पढ़ाई के दौरान उन्होंने फिल्म के बारे में कुछ नहीं सोचा था और इस बारे में कुछ जानकारी भी नहीं थी. स्कूल में पढ़ाई के दौरान नाटक करते थे. पिता ने कभी भी उन्हें नाटक करने से मना नहीं किया. नाटक की पटकथा लिखने और निर्देशन का काम वे खुद ही करते थे. पढ़ाई के दौरान काफी कविताएं भी लिखीं. लेखन से ले कर टैलीविजन के कई शो को डायरैक्ट किया. युवाओं की थीम पर फिल्में बनाने के लिए मशहूर इम्तियाज अली कहते हैं कि उन का जैसा मन करता है, वैसी फिल्में बना देते हैं. फिल्में सफल होंगी या नहीं, इस की चिंता नहीं करते हैं. आगे वे कहते हैं कि जब किसी चीज को पूरे मन और मेहनत से किया जाए तो उसे कामयाबी मिलती ही है.

साल 2004 में फिल्म ‘ब्लैक फ्राइडे’ में ऐक्ंिटग कर अपने फिल्मी कैरियर की शुरुआत करने वाले इम्तियाज का मन ऐक्ंिटग में नहीं रमा और साल 2005 में उन्होंने ‘सोचा न था’ फिल्म का निर्देशन किया. उस के बाद साल 2007 में फिल्म ‘जब वी मेट’ की कामयाबी ने हिंदी सिनेमा में निर्देशक के तौर पर उन के पांव जमा दिए. उस के बाद तो इम्तियाज कामयाब फिल्मों की गारंटी ही बन गए. ‘लव आजकल’, ‘रौकस्टार’, ‘कौकटेल’, ‘हाइवे’, ‘तमाशा’ आदि फिल्मों की कामयाबी ने उन्हें बेहतरीन निर्देशकों की कतार में खड़ा कर दिया. उन की हर फिल्म के केंद्र में प्रेम के होने के सवाल के जवाब में वे कहते हैं कि मोहब्बत ही उन की फिल्मों की यूएसपी है. प्रेम कहानियों में हर मोड़ पर नयापन और बदलाव आता रहता है और दर्शक उस से बंधे रहते हैं. वे कहते हैं कि निर्देशक को काफी और लगातार पढ़ते रहने की दरकार है, तभी वह अपनी फिल्मों में नयापन और सचाई पेश कर सकेगा. ज्यादातर फिल्म निर्देशकों को कहानी, कविता, गीत, संगीत आदि की कोई समझ ही नहीं होती है, जिस का असर उन की फिल्मों पर साफतौर पर दिखाई देता है.

आर्ट और कमर्शियल फिल्म के अंतर के बारे में इम्तियाज का मानना है कि कोई अंतर नहीं है. हर फिल्म बनाने वाला चाहता है कि उस की फिल्म बौक्स औफिस पर चले. कोई भी नुकसान उठाने के लिए फिल्म नहीं बनाता. फिल्ममेकर अपनी सोच के हिसाब से फिल्में बनाते हैं और क्रिटिक ही उसे आर्ट और कमर्शियल फिल्मों के खांचे में बिठा देते हैं. फिल्म बनाना ही एक बहुत बड़ा आर्ट है और हर फिल्म में आर्ट होता ही है.

ओडिशा बुलाते समुद्र तट, लुभाते आकर्षक मंदिर

500 किलोमीटर लंबे समुद्रतट से घिरा ओडिशा दुनिया का सब से बेहतरीन समुद्रतट माना जाता है जो पर्यटकों को सदियों से अपनी ओर लुभाता रहा है. पुरी, चांदीपुर, गोपालपुर, कोणार्क, पारादीप, बालेश्वर, चंद्रभागा, पाटा सोनापुर, तलसारी जैसे समुद्रतटों की खूबसूरती और कोणार्क, लिंगराज, जगन्नाथ जैसे ऐतिहासिक मंदिर पर्यटकों को बारबार आने के लिए मजबूर करते रहे हैं. ओडिशा में एक नया टूरिस्ट स्पौट लवर्स पौइंट पर्यटकों के लिए खासा आकर्षण बन गया है. इसे ओडिशा पर्यटन की ओर से बनाया गया है. इसे एडल्ट टूरिस्ट स्पौट भी कहा जाता है. पुरी समुद्रतट और चंद्रभागा समुद्रतट के बीच विकसित किए गए लवर्स पौइंट पर रोज हजारों एडल्ट पर्यटक पहुंचते हैं और जीवन की रंगीनियों का खुल कर लुत्फ उठाते हैं. पुरी समुद्रतट से करीब 3 किलोमीटर की दूरी पर बने इस पौइंट पर बड़ेबड़े पत्थरों को रखा गया है और काफी घने पेड़ लगाए गए हैं. पेड़ों, पत्थरों और समुद्र की गर्जना के बीच दुनिया के कोलाहल से दूर प्रेमी जोड़े यहां मुहब्बत का अनोखा आनंद महसूस करते हैं.

ओडिशा की मशहूर चिल्का झील भारत की सब से बड़ी और दुनिया की दूसरी सब से बड़ी समुद्री झील है. इसे चिलिका झील के नाम से भी पुकारा जाता है. 70 किलोमीटर लंबी और 30 किलोमीटर चौड़ी चिल्का झील पर मानो प्रकृति कुछ खास ही मेहरबान रही है. इस झील की प्राकृतिक सुंदरता के साथ एक बड़ी खासीयत यह है कि दिसंबर से जून महीने तक इस का पानी खारा रहता है और बारिश के मौसम में इस का पानी मीठा हो जाता है. इस झील में बोटिंग का आनंद लिया जा सकता है.

पर्यटकों को लुभाने वाली जैव संपदाओं और समुद्री मछलियों से भरपूर चिल्का झील से करीब डेढ़ लाख मछुआरों की रोजीरोटी चलती है. ओडिशा के तकरीबन 150 गांवों के लोगों का गुजारा इसी झील के जरिए चलता है. चिल्का झील समुद्री मछलियों, झींगा मछली, केकड़ा, समुद्री शैवालों, समुद्री बीजों और लघु शैवालों से भरी पड़ी है. इस झील के आसपास 160 प्रजातियों के पक्षियों का विचरण स्थल है. कैस्पियन सागर, अरब सागर, मंगोलिया, रूस, मध्य एशिया, लद्दाख समेत कई देशों से आए पक्षियों के झुंड चिल्का झील की खूबसूरती में चारचांद लगा देते हैं. यह भुवनेश्वर से करीब 70 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. रहने के लिए कई रिजौर्ट हैं, नीलाद्रि रिजौर्ट उन में से एक है.

ओडिशा के गोल्डन तट से 50 किलोमीटर की दूरी पर बसे नीलाद्रि रिजौर्ट में पर्यटकों के लिए हर सुविधाएं मौजूद हैं और वहां से ओडिशा के कई पर्यटनस्थलों की दूरी काफी कम है. करीब डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर जगन्नाथ टैंपल है तो कोणार्क सूर्य मंदिर 37 किलोमीटर की दूरी पर है. ओडिशा का पुरी समुद्रतट देशविदेश के टूरिस्टों का पसंदीदा टूरिस्ट स्पौट है. जगन्नाथपुरी मंदिर से 3 किलोमीटर की दूरी पर स्थित पुरी समुद्रतट पर फैली बालू पर बैठ कर समुद्र की अठखेलियों के साथ सूर्योदय व सूर्यास्त के विहंगम दृश्य का लुत्फ उठाया जा सकता है. पुरी के समुद्रतट की खूबसूरती पर्यटकों को लुभाती रही है. पुरी का जगन्नाथपुरी मंदिर का परिसर 4 लाख वर्गफुट में फैला हुआ है. मंदिर का मुख्य ढांचा 65 मीटर ऊंचे पत्थर के चबूतरे पर बना हुआ है. हर साल जूनजुलाई में होने वाली रथयात्रा पर्यटकों को आकर्षित करती रही है. पुरी रेलवे स्टेशन से पुरी समुद्रतट महज 2 किलोमीटर की दूरी पर है. यहां का सब से नजदीकी हवाई अड्डा भुवनेश्वर का बीजू पटनायक एअरपोर्ट 60 किलोमीटर दूर है.

कोणार्क सूर्य मंदिर भी ओडिशा का मुख्य पर्यटनस्थल है. यूनेस्को ने इसे साल 1884 में विश्व धरोहर स्थल घोषित किया था. लाल बलुआ पत्थर और काले ग्रेनाइट से बना यह मंदिर कलिंगा स्थापत्यकला का अद्भुत नमूना है और इसे ब्लैक पैगोडा के नाम से भी जाना जाता है. रथ के रूप मेें बने इस मंदिर में 7 घोड़े और 12 जोड़े पहिए बने हुए हैं. 13वीं सदी में बने इस मंदिर की बाहरी दीवारों पर स्त्रियों व पुरुषों की कई काम मुद्राएं उकेरी हुई हैं. यह भुवनेश्वर से करीब 40 किलोमीटर और पुरी से 35किलोमीटर की दूरी पर है. बस और टैक्सी के जरिए आसानी से कोणार्क पहुंचा जा सकता है.

ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर में 990 एकड़ यानी 400 हेक्टेअर में फैले नंदन कानन बोटैनिकल गार्डन में हर तरह के जंगली जानवरों व पक्षियों को नजदीक से देखने का आनंद लिया जा सकता है. 1979 में आम लोगों के लिए खोले गए इस बोटैनिकल गार्डन में 67 स्तनधारी जानवरों की प्रजातियों, 81 पक्षियों की प्रजातियों, 18 सरीसृप प्रजातियों समेत 166 प्रजातियों के जानवरों की भरमार है. सफेद बाघ और घडि़याल इस के रोमांच व सुंदरता को कई गुना ज्यादा बढ़ा देते हैं. यह गार्डन भुवनेश्वर स्टेशन से महज 12 किलोमीटर की दूरी पर है. सिमलीपाल नैशनल पार्क घने जंगल और जंगली जानवरों से भरा पड़ा है. ओडिशा के मयूरभंज जिले में स्थित यह पार्क 845.70 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है. इस नैशनल पार्क में सिमल यानी लाल कपासों की भरमार है, इसलिए इसे सिमलीपाल नाम दिया गया है. इस पार्क में हर समय हाथियों की चिंघाड़ और बाघों की गर्जना सुनाई देती है. इस में 432 हाथी और 99 बाघों का डेरा है. इस के अलावा हिरण, गौर और चौसिंगे इस नैशनल पार्क में भरे हुए हैं. सिमलीपाल नैशनल पार्क की एक ओर बड़ी खूबसूरती जोरांडा और बरेहीपानी जैसे कलकल- छलछल करते झरने हैं. दोनों झरने पर्यटकों को अपने पास ठहरने को मजबूर कर देते हैं. इस नैशनल पार्क में रात गुजारने के लिए पर्यटकों के लिए तंबुओं का भी इंतजाम किया गया है. घना रहस्यमयी जंगल, झरने और पहाडि़यां इस नैशनल पार्क को दुनिया के बाकी नैशनल पार्कों से अलग खड़ा करते हैं. यह नैशनल पार्क भुवनेश्वर से 200 किलोमीटर और बालेश्वर से 400 किलोमीटर की दूरी पर है.

इन टूरिस्ट स्पौटों के अलावा लिंगराज मंदिर, लक्ष्मीनारायण मंदिर, राजारानी मंदिर, धौलागिरी हिल्स, उदयगिरी, हीराकुंड बांध, भीतर कनिका राष्ट्रीय उद्यान भी ओडिशा के पर्यटन की पहचान हैं. मंदिर अंधविश्वास को तो जगाते हैं पर अपनी वास्तुकला के लिए इन्हें देखना तो अनिवार्य सा ही है. जहां मंदिर पूजापाठ का केंद्र हैं वहीं बेहद भीड़ और गंदगी है पर बहुत से मंदिर सिर्फ अपनी सुंदर मूर्तियों व सांस्कृतिक कलाकृतियों के लिए प्रसिद्ध हैं. पर्यटन के तौर पर आप यह भी देखें कि हमारी वास्तु धरोहर कैसी है और यह भी कि आज भी हमारा समाज कैसे अंधभक्ति पर पैसे लुटा रहा है.

शिमला जैसा कोई नहीं

शिमला खूबसूरत हिल स्टेशन है. यह हिमाचल प्रदेश की राजधानी है. यह समुद्र की सतह से 2,202 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है. हिमालय पर्वत की निचली शृंखलाओं में बसा यह शहर देवदार, चीड़ और माजू के जंगलों से घिरा है. आप शिमला घूमने जा रहे हैं तो वहां रुकने की व्यवस्था पहले ही कर लें ताकि वहां पहुंचने के बाद ठहरने की व्यवस्था करने में समय बरबाद न करना पड़े. यहां छोटेबड़े कई रिजौर्ट हैं जहां सभी तरह की सुविधाएं मुहैया हैं. वहां ठहर कर आप अपनी छुट्टी का मजा दोगुना कर सकते हैं.

शिमला में एक ऐसा ही रिजौर्ट शिमला हैवेंस है. देवदार व चीड़ के पेड़ों से घिरा यह रिजौर्ट 6 एकड़ जमीन पर फैला है. यह शिमला के आईएसबीटी से 4 किलोमीटर और समर हिल रेलवे स्टेशन से 1 किलोमीटर की दूरी पर है. इस रिजौर्ट को शिमला की पारंपरिक वास्तुकला को ध्यान में रख कर बनाया गया है ताकि यहां आने वाले पर्यटक शिमला की संस्कृति से रूबरू हो सकें. शिमला हैवेंस के सीईओ संजय शर्मा बताते हैं कि यहां टीवी, वाईफाई व अन्य सुविधाएं उपलब्ध हैं. साथ ही, यहां रेस्तरां भी है जिस में कई तरह के व्यंजन मिलते हैं. खास बात यह है कि इस के सभी कमरों से देवदार व चीड़ के पेड़ों व पहाड़ों का खूबसूरत नजारा दिखता है.

रिजौर्ट में जिम की सुविधा है. रिजौर्ट में कैरेम बोर्ड, टेबल टैनिस, बास्केटबौल, बैडमिंटन जैसे खेल भी खेल सकते हैं. शिमला आएं तो आसपास के स्थानों को देखने के साथसाथ, आप को एडवैंचर का शौक है तो यहां साहसिक खेलों का भी आनंद उठाएं. पर्यटकों के अलावा भी कुछ है. बर्फ पर स्कीइंग करने वालों को जनवरी से मार्च मध्य के बीच यह मौका मिल जाता है. फिश्ंिग व गोल्फ के साथ ही आप यहां ट्रैकिंग का मजा भी ले सकते हैं. शिमला-किन्नौर क्षेत्र में नरकंडा से बंजर और सराहन से सांगला यहां के मशहूर ट्रैक रूट हैं. दोनों ही रूट 3 किलोमीटर की दूरी पर हैं.

कब जाएं

वैसे तो शिमला किसी भी मौसम में घूमने जाया जा सकता है. लेकिन यहां आने का सब से अच्छा समय अप्रैल से जून और अक्तूबर से नवंबर का होता है. अगर आप को बर्फ पर स्कीइंग का शौक है तो जनवरी से मार्च मध्य तक का समय अच्छा है. सर्दी का मौसम स्कीइंग और आइस स्केटिंग का आनंद उठाने के लिए सब से अच्छा होता है जबकि दर्शनीय स्थलों की यात्रा और ट्रैकिंग के लिए गरमी का मौसम आदर्श होता है.

क्या खाएं : शिमला में अधिकांश रेस्तरां माल रोड के साथसाथ हैं. यहां का खाना विशेष हिमाचली नहीं होता, बल्कि इन का स्वाद पंजाबी खाने की तरह होता है. यहां पंजाबी खाने के साथसाथ साउथ इंडियन, चाइनीज, कौंटिनैंटल आदि तरह के व्यंजन मिलते हैं. माल रोड पर कई बेकरियां भी हैं जो फास्ट फूड बेचती हैं जहां पिज्जा, बर्गर व पैटीज उपलब्ध होते हैं. यहां के स्ट्रीट फूड भी लाजवाब होते हैं. यहां आएं तो मशहूर फू्रट चाट व बटरबिस्कुट के साथ चाय जरूर ट्राई करें.

दर्शनीय स्थल

माल रोड : शिमला घूमने जाएं तो माल रोड जाना न भूलें. बौलीवुड की कई फिल्मों में इस जगह को दिखाया गया है. यह रोड शहर के बीच में है. यह शिमला का मुख्य शौपिंग सैंटर है. यहां ब्रिटिश थिएटर भी है जो अब सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र है. यहां कई अच्छे रेस्तरां, बेकरी और आइसक्रीम पार्लर हैं.

स्कैंडल पौइंट : माल रोड पर सब से ऊंचा पौइंट माना जाने वाला स्थान स्कैंडल पौइंट कहलाता है. यहां से माल रोड का नजारा देखते ही बनता है.

राज्य संग्रहालय : यहां हिमाचल प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों की संस्कृति, परिवेश, लोककलाओं, लघु पहाड़ी चित्रों, पुस्तकों, मुगल, राजस्थानी और समकालीन पेंटिंग्स, विभिन्न कांस्य कलाकृतियां, टिकट संग्रह, मानवविज्ञान संबंधित चीजें देखने को मिलती हैं.

रिज : शहर के बीच में एक बड़ा और खुला स्थान है, जिसे रिज कहते हैं. यहां से पर्वत शृंखलाओं का सुंदर दृश्य देखा जा सकता है. यह शिमला की सभी सांस्कृतिक गतिविधियों का हब है. यह माल रोड के साथ ही है. आसपास के क्षेत्रों में जाने के लिए आप सुबह 7 बजे से 9 बजे के बीच उपलब्ध स्थानीय बस सेवा का उपयोग कर सकते हैं. स्थानीय यात्रा और साइट सीइंग के लिए टैक्सियां भी उपलब्ध हैं. हिमाचल प्रदेश पर्यटन विकास निगम द्वारा टूरिस्ट बसें भी चलाई जाती हैं जिन की बुकिंग माल रोड पर स्थित पर्यटक सूचना केंद्र से होती है.

चैल : शिमला के निकट बसा एक छोटा सा गांव चैल है. इस के चारों ओर घने वन हैं. यहां से हिमाचल की चोटियों पर हिम को देखा जा सकता है. सतलुज नदी के दोनों ओर स्थित कसौली और शिमला से इस की दूरी बराबर है. चैल का सब से आकर्षक क्षेत्र पहाड़ी के ऊपर बना क्रिकेट का मैदान है जिसे विश्व का सब से ऊंचाई वाला स्टेडियम माना जाता है.

कुफरी : यहां की खूबसूरती देखते ही बनती है. यह स्थान शिमला से 16 किलोमीटर दूर 2,510 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है. यहां पर कई तरह के बर्फ के खेल खेले जाते हैं. पर्यटकों के लिए यहां स्कीइंग की विशेष व्यवस्था है.

जाखू पहाड़ी : यह शिमला से 2 किलोमीटर दूर है जो 2,455 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है. यहां से सूर्योदय का दृश्य अत्यंत खूबसूरत दिखाई देता है.

तत्तापानी : शिमलामनाली मार्ग पर बरास्ता नालदेहरा सड़क पर स्थित तत्तापानी में गरम पानी के झरने हैं, जिन का पानी सल्फर मिश्रित है.

चाडविक फौल्स : शिमला से 7 किलोमीटर दूर 1,586 मीटर की ऊंचाई पर स्थित यह झरना पर्यटकों को खास आकर्षित करता है. अगर आप को पैदल घूमने का शौक है तो समर हिल चौक से लगभग 45 मिनट की पैदल दूरी से यहां पहुंचा जा सकता है. यह हरीभरी झाडि़यों से घिरा एक आकर्षक झरना है. इस झरने की संगीतमय मनमोहक ध्वनि सैलानियों के दिलोदिमाग में ताजगी भर देती है. यहां सैलानी प्रकृति के विभिन्न रूपों से रूबरू होते हैं.

नारकंडा : हिंदुस्तानतिब्बत मार्ग पर स्थित नारकंडा के बर्फ से ढकी पर्वत शृंखला के सुंदर दृश्य देखे जा सकते हैं. देवदार के जंगलों से घिरा ऊपर की ओर जाता मार्ग हाटु चोटी तक जाता है.

नालदेहरा : यह शिमला से 23 किलोमीटर दूर 2,044 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है. यहां गोल्फ का मैदान है. अप्रैलमई का महीना इस जगह को देखने के लिए सब से अच्छा समय है. नालदेहरा पिकनिक स्पौट और घुड़सवारी के लिए भी प्रसिद्ध है.

रामपुर : यह शहर सतलुज नदी के किनारे स्थित है. यह एक बड़ा वाणिज्यिक केंद्र है जो प्रतिवर्ष नवंबर में आयोजित होने वाले अंतर्राष्ट्रीय लाबी मेले के लिए प्रसिद्ध है.

कसौली : कालकाशिमला मार्ग पर स्थित कसौली काफी खूबसूरत है. कसौली में कई दर्शनीय स्थल हैं जहां प्राकृतिक सौंदर्य का नजारा देखा जा सकता है. बलूत, चीड़ और घोड़ों के लिए बनी सुरंगों से संपूर्ण क्षेत्र अत्यंत खूबसूरत लगता है.

क्या खरीदें

शिमला घूमने जाएं और वहां से खरीदारी न करें, भला ऐसा कैसे हो सकता है. शिमला में लोअर बाजार, लक्कड़ बाजार और तिब्बतियन बाजार से खरीदारी की जा सकती है. लक्कड़ बाजार में लकड़ी से बने खिलौने पर्यटकों को खूब लुभाते हैं. इस बाजार में लकड़ी की बनी स्थानीय हैंडीक्राफ्ट की कई चीजें सस्ते दामों पर मिलती हैं. यहां लकड़ी के टेबल व बौक्स, हैंडीक्राफ्ट ज्वैलरी के अलावा ऊनी कपड़े व शौल भी अच्छी क्वालिटी के मिलते हैं. इन बाजारों से आप हिमाचली टोपी भी याद के तौर पर खरीद सकते हैं. यहां के बाजारों में खरीदारी करते समय मोलभाव करना न भूलें.

वैज्ञानिकों को चुनौती देता दुबई का मौसम

तकरीबन 10 वर्षों के अंतराल में मुझे एक बार फिर दुबई जाने का मौका मिला. हमारा हवाई जहाज ‘फ्लाई दुबई’ दुबई एअरपोर्ट की ओर बढ़ रहा था. दुबई के समयानुसार सुबह के 8 बज रहे थे. हवाई जहाज की खिड़की से देखने पर समुद्र के कोने से सूर्य अपनी रोशनी से आसमान और धरती पर एकछत्र राज जमाने के लिए धीरेधीरे निकल रहा था. अरेबियन और परशियन समुद्र के किनारे बसे दुबई की मटमैले भूरे रंग की इमारतें (अरब देशों में सभी इमारतों का रंग मटमैला भूरा या इस से मिलताजुलता रखना सरकारी आदेश के अनुसार अनिवार्य है तथा इन देशों में इमारतों पर रंगबिरंगे चटकीले रंग किए जाने की मान्यता नहीं है) भूरे ही रंग के रेगिस्तान को मुंह चिढ़ाती हुई स्पष्ट होती जा रही थीं. आसमान से दिखाई दे रहे छोटेछोटे चौकोर घेरों में से झांकती ये इमारतें ऐसी लग रही थीं जैसे बच्चों ने रेत पर अपने खेलने के लिए नन्हेंनन्हें घर बना दिए हों, जिन के आसपास छोटीछोटी सड़कों पर वे अपनी खिलौनागाडि़यों को सरपट दौड़ा कर आनंदित हो रहे हों. और फिर देखते ही देखते हमारा हवाई जहाज दुबई एअरपोर्ट पर लैंड कर गया.

एअरपोर्ट से अपना सामान इत्यादि ले कर बाहर निकलते ही और घर तक यानी पूरे रास्तेभर पिछले लगभग 10 वर्षों में हुए दुबई में प्रगति के निशान स्पष्ट नजर आ रहे थे. दुबई, रेगिस्तान की बंजर जमीन पर बसा एक सुव्यवस्थित और चमचमाता शहर है. उस की इसी चकाचौंध प्रगति ने विश्व के कोनेकोने से लोगों को अपने यहां रोजगार के नए से नए अवसर प्रदान कर उन्हें इस भीषण गरमी वाले शहर में आने के लिए मजबूर किया है, खासकर भारतीयों को. दुबई, मिनी इंडिया के नाम से भी जाना जाता है. इस का प्रमाण इस बात से स्पष्ट मिलता है कि यहां लगभग सभी हिंदी भाषा बोलते मिल जाएंगे, यहां तक कि स्थानीय लोग भी भारतीयों के साथ रह कर हिंदी सीख जाते है और वे हिंदी भाषा समझते व बोलते भी हैं. यहां बसे भारत के केरल राज्य के लोगों की संख्या को देख कर तो ऐसा लगता है मानो पूरे के पूरे केरल राज्य के लोग यहां आ कर बस गए हैं.

बड़ी संख्या में आ कर बसने वाले बाहरी लोगों के कारण दिनप्रतिदिन पैदा होती जा रही यातायात की समस्या से निबटने के लिए यहां की सरकार ने फ्लाईओवर, मैट्रो और ट्राम जैसी सुविधाएं अपना कर दुबई को एक नए रूप से संवारा है. दुबई मैट्रो को बनाने में तो भारतीय इंजीनियरों ने योगदान भी दिया है. इस के अलावा शेख जायदा रोड पर बसे ‘डाऊन टाउन दुबई’ जो पिछले 10 वर्षों से बनी गगनचुंबी इमारतों ने पुराने बसे ‘बर दुबई’ और ‘डेरा’ जैसे स्थानों के मध्य, नए व पुराने दुबई की रेखा ही खींच दी है. ‘डाऊन टाऊन दुबई’ में विश्व की सब से ऊंची इमारत बुर्ज खलीफा, जिस की ऊंचाई 828 मीटर है, विश्व के लोगों के लिए मुख्य आकर्षण केंद्र है. इस ऊंची गगनचुंबी इमारत को भीतर से देखने के लिए 200 से 400 दिरहम, मौसम के अनुसार यहां आने वाले पर्यटकों की भीड़ को देखते हुए, प्रति व्यक्ति टिकट से प्रवेश मिलता है. दिरहम यहां की करैंसी है. भारतीय रुपए की तुलना में यह टिकट क्रमश: 3,400 रुपए से 6,800 रुपए के बराबर होता है.

 ऐसा माना जाता है कि आजकल दुबई सिंगापुर से भी बड़ा बिजनैस सैंटर बन चुका है. यहां कई विश्वप्रसिद्ध मौल हैं जिन में ‘दुबई मौल’ विश्व का सब से बड़ा मौल है. इस के अलावा चाइना मौल, मौल औफ एमिरेट्स, अल गुरैर, सिटी सैंटर जैसे कई प्रसिद्ध मौल हैं.

ग्लोबल वार्मिंग की मार

दुबई आने वाले हर व्यक्ति को यहां की प्रगति चारों ओर नजर आती है. लेकिन साथ ही एक सब से महत्त्वपूर्ण बात जो देखने को मिलती है वह है यहां का मौसम, जो विश्व के पर्यावरण वैज्ञानिकों को खुली चुनौती देता नजर आता है. जहां एक ओर विश्व के पर्यावरण वैज्ञानिक ग्लोबल वार्मिंग से बचने के लिए तरहतरह के तरीके अपनाते हुए जीतोड़ मेहनत कर रहे हैं वहीं दुबई और उस के संलग्न एमिरेट्स के मौसम में अभूतपूर्व बदलाव आ चुका है, जिस का मुख्य श्रेय यहां चारों ओर तेजी से उगाए जा रहे पेड़पौधों को जाता है.

वर्ष 1991-92 में जब मुझे पहली बार दुबई आने का मौका मिला था तब यहां कहींकहीं खजूर के पेड़ लगे दिखाई देते थे. तब यहां वर्षा की एक बूंद भी नहीं बरसती थी. जिस का ज्वलंत उदाहरण सड़कों के किनारों पर वर्षा के पानी के निकास के लिए नालियों का कभी न रखा जाना है. यहां बादल आते तो थे लेकिन वे इन इलाकों को मुंह चिढ़ाते यों ही बिना बरसे उड़ जाते थे. नतीजा वर्षभर यहां लोग भयंकर गरमी से त्रस्त रहते थे और अपने को वातानुकूलित घरों, दफ्तरों, दुकानों, गाडि़यों में बंद रखने के लिए मजबूर होते थे. दिनरात भयंकर गरमी और गरम हवाओं का यहां साम्राज्य रहता था पर अब काले बादल जब भी आते हैं तो वे यहां बरसने के लिए मजबूर हो जाते हैं, जिस का नतीजा यह होता है कि यहां सड़कें लबालब पानी से भर जाती हैं. वर्षा के जल निकास का प्रबंधन न होने से सरकार को पंप लगा कर इस समस्या का निबटारा करना पड़ता है.

दुबई में अब सितंबर से मार्च तक के मौसम में अत्यधिक बदलाव देखने को मिलता है. इन महीनों में सुबह व शाम का मौसम तो इतना सुहावना हो जाता है कि छुट्टी वाले दिन लोग पार्को में, समुद्र के किनारे बनाए गए कृत्रिम बीचेज पर और खुले रैस्टोरेंट्स में बड़ी संख्या में देखने को मिलते हैं. दिसंबरजनवरी में तो लोग यहां गुलाबी ठंड का भी आनंद उठाते हैं. अप्रैल से अगस्त तक अब गरमी का मौसम रहता है जिस में तापमान 50 डिगरी तक पहुंच कर अपना कहर अब भी बरपाता है.

पेड़पौधे लगाने पर जोर

नए बसाए जा रहे दुबई में हमें हर तरह के पेड़पौधे लगे देखने को मिले. नीम और पीपल जैसे वृक्षों के साथसाथ फूलों में बोगेनबेलिया, सदाबहार, मधुमालनी, गेंदा, चमेली, कनैर इत्यादि बहुत से जानेपहचाने पौधों को यहां की जलवायु में फलतेफूलते देख कर हैरानी होती है. सड़कों के किनारे बिल्ंिडग के आसपास घनेघने ऊंचेऊंचे वृक्ष घने जंगलों जैसा आभास कराते हैं.

रेगिस्तान में जहां भयंकर गरमी पड़ती है और पानी की बेहद कमी होती है वहां इन पेड़पौधों को जीवित रखना भी बहुत बड़ी चुनौती होती है. इस बात की तहकीकात करने पर  हम ने पाया कि पौधों की सिंचाई के लिए सीवर के पानी और समुद्र के पानी (दुबई समुद्र के किनारे बसा होने के कारण) को साफ कर उपयोग में लाया जाता है. पेड़पौधों को उचित खाद दिए जाने के साथसाथ पूरे वर्षभर दिन में 3 बार (सुबह, दोपहर और शाम) नियमित पानी दिया जाता है. इस में बिलकुल भी ढिलाई नहीं दी जाती है. पौधों की सिंचाई करने का ड्रिप इरीगेशन का वैज्ञानिक तरीका अपनाया जाता है. इस तकनीक में हर पेड़पौधे के पास प्लास्टिक की बनी पानी की पाइपें बिछा दी जाती हैं जिन में थोड़ीथोड़ी दूरी पर छेद होते हैं जिन में वौल्व लगे होते हैं जो पानी की मात्रा को रैगुलेट भी करते हैं. इन पाइपों में समयानुसार पौधों को सींचने के लिए पानी छोड़ा जाता है. फूलों के छोटे पौधों के साथसाथ बड़ेबड़े वृक्षों की पत्तियों को भी धोया जाता है. पौधों के बीच फौआरे लगा कर सुंदरता बढ़ाने के साथ आसपास के तापमान को संतुलित भी किया जाता है.

नए भवनों का निर्माण करने से पहले सरकारी आदेश के अनुसार इलाके को पहले ही पेड़पौधे लगा कर हराभरा बनाना अनिवार्य है. समुद्र के भीतर पाम जुमैरा जैसी सिटी बनाने का अद्भुत कार्य भी यहां देखने को मिलता है. इस नगर को पाम वृक्ष की पत्तियों जैसा रूप दिया गया है जिस में दोनों ओर 8-8 पत्तियों जैसा कटाव बना कर उसे बीच सड़क से जोड़ कर आकार दिया गया है और इस कटाव के साथसाथ समुद्र के पानी को नगर के भीतर तक लाया गया है, और इसी पानी का उपयोग कर यहां पेड़पौधे उगा कर खूब हरियाली की गई है. ऐसी खूबसूरत जगह में भारत की नामीगिरामी हस्तियों ने भी बंगले खरीदे हुए हैं. दुबई में दुबई वाटर कैनाल प्रोजैक्ट पर इन दिनों बड़े जोरशोर से कार्य चल रहा है, जिस के अंतर्गत समुद्र के पानी को शहर के भीतर तक ला कर पेड़पौधे उगा कर उसे हराभरा व खूबसूरत बनाया जाएगा.

मेरी स्किन बहुत ही औयली है. त्वचा चिपचिपी हो जाती है. बताएं क्या करूं.

सवाल

मैं 33 वर्षीय महिला हूं. मेरी स्किन बहुत ही औयली है. चेहरे से हर समय औयल निकलता रहता है. बारबार फेसवाश करने पर भी ऐसा होता है, जिस से त्वचा चिपचिपी हो जाती है. गरमी के मौसम में तो यह परेशानी और भी बढ़ जाती है. कृपया बताएं क्या करूं?

जवाब

आप की त्वचा संवेदनशील है. आप बायोसैंसिटिव प्रोडक्ट्स का प्रयोग करें. रोजमैरी, सौम्य क्लींजर, विटामिन ई युक्त 5.5 टोनर व हर्ब चेस्ट नैट स्क्रब का प्रयोग करें. चेहरा धोने के लिए फेसवाश का ही प्रयोग करें. इस के अलावा आप 250 एमएल पानी में 2-3 बूंदें टीट्री औयल की डाल कर स्प्रे बोतल में रख लें. फिर इसे हिला कर फेस पर स्प्रे किया करें. इस से चेहरे में फ्रैशनैस आ जाएगी.

 

अगर आप भी इस समस्या पर अपने सुझाव देना चाहते हैं, तो नीचे दिए गए कमेंट बॉक्स में जाकर कमेंट करें और अपनी राय हमारे पाठकों तक पहुंचाएं.

मेरा ऊपर वाला होंठ नीचे वाले होंठ से काला है. कृपया बताएं कि मैं क्या करूं.

सवाल

मैं 21 वर्षीय लड़की हूं. मेरी समस्या यह है कि मेरा ऊपर वाला होंठ नीचे वाले होंठ से काला है. कृपया बताएं कि मैं क्या करूं जो ऊपर वाले होंठ का रंग भी नीचे वाले होंठ के जैसा हो जाए?

जवाब

आप अपने होंठों पर गुलाब की पत्तियों को पीस कर शहद के साथ मिला कर लगाएं. होंठों पर प्रतिदिन नारियल तेल भी लगा सकती हैं. इस के अलावा आप लैवेंडर औयल से होंठों पर धीरेधीरे मसाज करें. वैसलीन का प्रयोग भी नियमित करें. कुछ दिन ऐसा करने पर जरूर फायदा होगा.

 

यह कैसी शिक्षा: चमक खोती मातृभाषाएं

जनसंख्या के स्तर पर विश्व के दूसरे सब से बड़े देश भारत में उस की अपनी भाषाएं चमक खोती जा रही हैं. देश की राष्ट्रीय भाषा हिंदी ही नहीं, कुछ राज्यों की अपनी राजकीय भाषाएं भी फीकी पड़ती जा रही हैं. देश की इन मातृभाषाओं को पढ़ने, लिखने, बोलने व समझने वाले ही एक विदेशी भाषा अंगरेजी को बहुत अधिक महत्त्व दे रहे हैं. जबकि देश व विदेशों के भाषाविदों का कहना है कि मातृभाषा, जिस की जो भी हो, की शिक्षा बच्चे को सर्वप्रथम दी जाए तो उस का दिमाग दूसरी भाषा, राष्ट्रीय हो या कोई विदेशी, को सीखने का कौशल खुद ही विकसित कर लेता है. इसलिए शिक्षा के माध्यम यानी मीडियम औफ एजुकेशन की भाषा बच्चे की उस की अपनी मातृभाषा होनी ज्यादा फायदेमंद है. राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने विश्वविद्यालयों के दीक्षांत समारोहों को संबोधित करते हुए अकसर यह चिंता व्यक्त की है कि दुनिया के 200 शीर्षस्थ विश्वविद्यालयों की सूची में भारत का एक भी विश्वविद्यालय नहीं है. हमारे विश्वविद्यालयों के पिछड़ने के कई कारण हो सकते हैं लेकिन दुख यह है कि एक बुनियादी सत्य की ओर महामहिम का ध्यान नहीं गया या उन्होंने उस को ध्यान देने योग्य नहीं समझा. वह बुनियादी सत्य है ‘शिक्षा के माध्यम की भाषा’ यानी मीडियम औफ एजुकेशन की भाषा.

राष्ट्रपति की दृष्टि में जो 200 विश्वविद्यालय हैं वे ब्रिटेन, फ्रांस, कोरिया, जरमनी, जापान, चीन, रूस और अमेरिका के हैं. इन सभी देशों में शिक्षा का माध्यम वहां की अपनीअपनी मुख्य भाषाएं हैं. उन में से कोई भी देश किसी पराई (विदेशी) भाषा को अपने देश की शिक्षा का माध्यम नहीं बनाए हुए है. दुनिया के कई प्रयोगों के नतीजे यह साबित करते हैं कि बच्चा मातृभाषा में शिक्षा स्वाभाविक, असरकारी व आसानी से हासिल करता है. अनजानी या पराई भाषा के माध्यम से शिक्षा हासिल करने में विद्यार्थी को दोहरी लड़ाई लड़नी पड़ती है – शिक्षा के माध्यम की भाषा पर अधिकार हासिल करना, जरूरी विषयों का ज्ञान हासिल करना. इस तरह से शिक्षा हासिल करना विद्यार्थी के लिए बहुत ही मुश्किल हो जाता है.

सवाई मानसिंह मैडिकल कालेज के सेवानिवृत्त प्राचार्य व मशहूर न्यूरोलौजिस्ट डा. अशोक पनगडि़या ने देश में बढ़ते जा रहे अंगरेजी माध्यम के स्कूलों और स्वदेशी भाषाओं के स्कूलों में पढ़ रहे विद्यार्थियों का तुलनात्मक अध्ययन कर चौंकाने वाले नतीजे पेश किए हैं. उन के अध्ययन के मुताबिक, मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा हासिल करने वाले विद्यार्थी ग्रहण करने की शक्ति ज्यादा होती है, पराई भाषा के माध्यम से शिक्षा हासिल करने वाले विद्यार्थियों की तुलना में उन में पहल करने का मनोबल भी ज्यादा होता है. इस के अतिरिक्त ऐसे विद्यार्थी बातचीत करने में तर्क भी खूब पेश करते हैं. डा. पनगडि़या कहते हैं कि मातृभाषा के स्थान पर किसी दूसरी भाषा के माध्यम से शिक्षा दिलाना बच्चों के मानसिक, भावनात्मक और नैतिक विकास को प्रभावित करता है. अपने शोध में डा. पनगडि़या ने भाषायिक मनोविज्ञान के विश्वप्रसिद्ध विद्वान नोम चोम्सकी के सिद्धांत का हवाला देते हुए दर्शाया है कि पीढि़यों से चली आ रही पारिवारिक भाषा के व्याकरण की मूल बातें व वाक्य बनाना बच्चे को खुद ही मालूम हो जाते हैं. इस वजह से बच्चा मातृभाषा में बताई गई बातें आसानी से ग्रहण कर लेता है.

मातृभाषा में शिक्षा पाने से बच्चों के मस्तिष्क में भाषा सीखने की स्किल यानी कुशलता जल्दी जागती और बढ़ती है. साथ ही, बच्चे जैसेजैसे बढ़ते जाते हैं, उन की महारत यानी दक्षता भी बढ़ती जाती है. इसी से उन में अंतर्दृष्टि और विचारों को विस्तार देने की काबिलीयत में भी इजाफा होता है. तंत्रिका विज्ञान यानी न्यूरोलौजी पर डा. पनगडि़या की शोध बताती है कि मातृभाषा भलीभांति सीख लेने के साथ बच्चा भाषा की बारीकियां, पहेलियां, मुहावरे, कहावतों का मर्म भी समझ जाता है. इस से वह भाषा पर अधिकार करने के साथसाथ साहित्य की समझ भी जल्दी विकसित कर लेता है. मातृभाषा के सुचारु ज्ञान के पहले 2 भाषाओं की शिक्षा एकसाथ देने की स्थिति ऐसी होती है जैसे बिना तैयारी के अनजानी नदी में किसी को 2 नावों की सवारी के लिए एकसाथ उतारा जा रहा हो. ऐसी हालत में बच्चा कोई भी भाषा कुशलतापूर्वक नहीं सीख पाता. डा. पनगडि़या स्पष्ट मत व्यक्त करते हैं कि प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में ही होनी चाहिए, प्राथमिक स्तर पर अंगरेजी भाषा की शिक्षा बच्चों की शिक्षाप्राप्ति (सीखने) के कौशल में बाधक है.

भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय की राष्ट्रीय एकीकरण समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि स्वदेशी भाषाओं को शिक्षण का माध्यम बनाने से न केवल देश की अंदरूनी एकता मजबूत होगी, बल्कि शैक्षिक संवाद बेहतर तौर पर प्राथमिक स्तर से विश्वविद्यालय स्तर तक स्थापित हो सकेगा. अकसर कहा व सुना जाता है कि जनसामान्य में बौद्धिक व्यक्तियों की तादाद घट रही है. जनता में गंभीर चिंतन करने वाले व्यक्तियों की हो रही कमी निश्चित ही चिंता का विषय होना चाहिए. यह चिंतनीय हालत अचानक या 1-2 वर्षों में नहीं हुई है. यह दुष्परिणाम हुआ है शिक्षा जैसे अतिमहत्त्वपूर्ण विषय को चलाऊ ढंग से संचालित करने, स्वदेशी भाषाओं के शिक्षण को हलकेफुलके तौर से निबटाने तथा विदेशी भाषा अंगरेजी को बहुत ज्यादा महत्त्व देने के कारण.

भाषाएं दरअसल विचारों, विचारधाराओं, कल्पनाओं और व्यापक दर्शन को साफतौर से व्यक्त करने का माध्यम होती हैं. हमारा देश, विशेषकर युवावर्ग, भाषाई पंगुता का शिकार हो गया है और हुआ जा रहा है. नई पीढ़ी खुद को न तो अच्छी तरह अंगरेजी में और न ही खुद की मातृभाषा में भलीभांति व्यक्त कर पाती है. यह केवल युवाओं की निजी हानि नहीं, बल्कि राष्ट्र की हानि है. जबान होते हुए भी देश बेजबान हुआ जा रहा है, बनाया जा रहा है. ऐसे में क्या यह अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए कि सरकार भाषा शिक्षा नीति में सुधार करे, ताकि बच्चों की नियति ‘न घर के न घाट के’ होने से बच सके. बच्चा एक बार जब अपनी मातृभाषा सीख लेता है जिसे वह बचपन में ही हासिल कर लेता है बिना पुस्तकों के, तब वह दूसरे विचारों, भाषाओं को जल्दी जाननेसमझने में समर्थ हो जाता है. इतना ही नहीं, वह तब तर्कशक्ति का इस्तेमाल कर प्रश्नप्रतिप्रश्न और उत्तरों को अच्छी तरह से खोजने में भी दक्ष हो जाता है.

लालू यादव: बदले बदले से सरकार नजर आते हैं

जनता दल यूनाइटेड के नेता व बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ अपने 2 बेटों को लगा कर राष्ट्रीय जनता दल के मुखिया लालू प्रसाद यादव राजनीतिक अखाड़े में ताल ठोंकने की तैयारी कर रहे हैं. वे साफतौर पर कहते हैं कि नीतीश बिहार संभाल रहे हैं, वे दिल्ली पहुंच कर भाजपा को धूल चटाने के लिए कसरत शुरू करेंगे. दिल्ली में टिकने के लिए उन्होंने उपाय भी ढूंढ़ लिया है. अपनी बड़ी बेटी मीसा भारती को राज्यसभा पहुंचाने के बाद उन्हें दिल्ली में रहने का सरकारी ठिकाना मिल जाएगा. विधानसभा चुनाव में दमदार वापसी करने के बाद लालू की राजनीति में काफी बदलाव दिखने लगा है. अब वे ‘दिल’ के बजाय ‘दिमाग’ से राजनीति करने के फायदे को समझ चुके हैं और पिछली सारी कमियों को दूर करने की पूरी कोशिश कर रहे हैं. उन की कोशिश रंग लाती भी दिखने लगी है. दिलचस्प बात यह है कि उन्होंने अपने ठेठ गंवई अंदाज को छोड़ दिया है.

लालू यादव को विरोधियों के जंगलराज के आरोप के सच होने के खतरे का एहसास है तभी तो उन्होंने नीतीश कुमार से साफ कह दिया है कि कानून व्यवस्था को चुनौती देने वालों से कड़ाई से निबटा जाए. ऐसे मामलों में पुलिस की कार्यवाही में उन की पार्टी दखल नहीं देगी. लालू को उन के कुछ बिगड़ैल नेताओं और समर्थकों की मनमानी की वजह से उन्हें 10 साल तक सत्ता से दूर रहना पड़ा. लाठी रैली में कभी यकीन रखने वाले लालू अब इस बात का पूरा खयाल रख रहे हैं कि उन से मिलने आए किसी भी नेता, समर्थक या कार्यकर्ता के हाथों में लाठी, पिस्तौल, राइफल या बंदूक नहीं हो. उन्होंने अपने सिक्योरिटी स्टाफ को हिदायत दे रखी है कि ऐसे किसी भी आदमी को उन के घर में न घुसने दिया जाए. लालू ने पार्टी के झंडा और बैनरों को गाडि़यों पर लगाने के लिए भी सख्त मनाही कर रखी है. गौरतलब है कि साल 2005 में पहली बार मुख्यमंत्री बनने के बाद नीतीश कुमार ने पार्टी के अलावा किसी को भी पार्टी के झंडों को गाडि़यों पर लगाने पर पाबंदी लगा दी थी. लालू यादव इस मामले में भी नीतीश कुमार का साथ दे रहे हैं.

गठजोड़ का गणित

लालू बखूबी समझ रहे हैं कि साल 2005 में उन्हें राजनीतिक रूप से हाशिए पर ढकेलने वाले नीतीश कुमार की वजह से ही उन्हें अब फिर से बिहार के सियासी अखाड़े में ताल ठोंकने का मौका मिला है. लालू और नीतीश पिछले 24 सालों से लगातार बिहार की सियासत की धुरी बने हुए हैं. साल 1996 में लालू से अलग हो कर नीतीश के समता पार्टी बनाने के बाद साल 2015 में हुए विधानसभा चुनाव

के कुछ पहले तक दोनों एकदूसरे के विरोध की राजनीति करते रहे थे. दोनों अपनीअपनी सियासी मजबूरियों और भाजपा को दरकिनार करने के लिए फिर से साथ मिले. चुनाव में उन्हें कामयाबी मिलने के बाद तो उत्तर भारत की सियासत में नया विकल्प पैदा करने की उम्मीद तक जगने लगी है.

लालू और नीतीश के गठजोड़ ने साबित कर दिया है कि उन के पास मजबूत वोटबैंक है. 243 सदस्यों वाली बिहार विधानसभा में 178 सीटों पर महागठबंधन का कब्जा है. इस में जदयू की झोली में 71, राजद के खाते में 80 और कांग्रेस के हाथ में 27 सीटें हैं. नीतीश की पार्टी जदयू को 16.8, राजद को 18.4 और कांगे्रस को 6.7 फीसदी वोट मिले जो कुल 41.9 फीसदी हो जाता है. ऐसे में महागठबंधन को फिलहाल किसी दल या गठबंधन से चुनौती मिलनी दूर की कौड़ी है. इस दमदार आंकड़े एवं अपने दोनों बेटों को विधायक व मंत्री बना कर लालू ने बिहार की राजनीति में अपने पांव मजबूती से जमा लिए हैं.

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि लालू यादव ने बिहार की राजनीति से अगड़ी जातियों के कब्जे को खत्म किया बल्कि दलितों, पिछड़ों और मुसलमानों को गोलबंद भी किया. आजादी के बाद से ले कर 80 के दशक तक बिहार की राजनीति और सत्ता पर अगड़ी जातियों की ही हुकूमत चलती रही और पिछड़ों व दलितों को महज वोटबैंक के रूप में ही इस्तेमाल किया गया.

भूमिहारों, राजपूतों, कायस्थों और ब्राह्मणों का ही राजनीति में दबदबा रहा. सूबे के पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह के बाद दीपनारायण सिंह, विनोदानंद झा, एस के सहाय, महामाया प्रसाद, केदार पांडे, जगन्नाथ मिश्र, चंद्रशेखर सिंह, बिंदेश्वरी दुबे, भगवत झा आजाद, सत्येंद्र नारायण सिंह का ही जलवा रहा. बीचबीच में कुछकुछ समय के लिए पिछड़ी जाति के नेताओं में भोला पासवान, कर्पूरी ठाकुर और रामसुंदर दास को मौके मिले, पर वे ज्यादा समय तक राज नहीं कर सके या उन्हें राज करने नहीं दिया गया.

मंडल कमीशन के बाद सूबे की सियासत की दशा और दिशा तब बदल गई जब लालू यादव मुख्यमंत्री बने. उस के बाद से ले कर अब तक अगड़ी जाति का कोई भी मुख्यमंत्री नहीं बन सका और विधानसभा व मंत्रिमंडल में भी पिछड़ों, दलितों का ही बोलबाला रहा.

यह लालू को पता है कि सूबे के 38 जिलों की 243 विधानसभा सीटों और 40 लोकसभा सीटों पर जीत उसी की होती है जो बिहार की कुल 119 जातियों में से ज्यादा को अपने पक्ष में गोलबंद करने में कामयाब हो जाता है. इस के लिए लालू माय यानी मुसलिमयादव समीकरण के बूते बगैर कुछ काम किए 15 सालों तक बिहार पर राज कर चुके हैं और 2015 के विधानसभा चुनाव में अपने बेटों को आगे कर के एक बार फिर सत्ता पाने में कामयाब हो गए हैं.

लालू यादव ने 2004 के आम चुनाव में 22 सीटों पर कब्जा जमा कर पटना से दिल्ली तक अपनी धमक और ठसक दिखाई थी. 2004 में राजद को कुल 30.7 फीसदी वोट मिले थे जो 2009 में 19 फीसदी पर सिमट कर रह गए. 2009 में उन्होंने 28 उम्मीदवार मैदान में उतारे लेकिन 4 ही जीत सके थे. राजद के एक सीनियर लीडर मानते हैं कि राजद को लालू के बड़बोलेपन और उन के 2 साले साधु यादव और सुभाष यादव की वजह से काफी नुकसान उठाना पड़ा था, जिस की भरपाई लालू के बेटों ने कर दी है. विधानसभा के पिछले चुनाव के बाद लालू के बेटों ने अपने साथसाथ पार्टी को भी राज्य की सियासत में फिर से जमा दिया है.

साल 2010 के विधानसभा के पिछले चुनाव में कुल 243 सीटों में से लालू की पार्टी को महज 22 सीटों पर ही जीत मिली थी. इस बार के चुनाव में राजद को 80 सीटों पर जीत मिली और 18.4 फीसदी वोट हासिल हुए. राजद की इस कामयाबी में लालू यादव के साथ तेजस्वी और तेजप्रताप की अहम भूमिका रही है. लालू दावा करते हैं कि 90 फीसदी पिछड़े, दलित, अल्पसंख्यक और सवर्ण गरीबों ने महागठबंधन को वोट दिया है. 1977 और 1995 के चुनावों की तरह 2015 के विधानसभा चुनाव में भी पिछड़े वर्ग की जोरदार गोलबंदी हुई.

अब लालू का इरादा फिर से दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में चहलकदमी करने का है. चारा घोटाला में सजायाफ्ता होने के बाद वे खुद अपने बूते ऐसा नहीं कर सकते हैं, इसलिए अपनी बेटी मीसा भारती को राज्यसभा में भेजने की जुगत में लगे हैं. पिछले लोकसभा चुनाव में लालू ने मीसा भारती को पाटलिपुत्र सीट से मैदान में उतारा था. लालू की रणनीति मीसा के बहाने दिल्ली पहुंच कर अपने सियासी पैर को दोबारा जमाना था, पर वे तब कामयाब नहीं हो सके थे. भाजपा के उम्मीदवार रामकृपाल यादव से मीसा भारती 40,322 वोटों से हार गई थीं. 37 साल की मीसा ने एमबीबीएस की डिगरी ले रखी है और उन के पति शैलेश इंजीनियर हैं. मीसा अब राजद का लोकप्रिय, युवा और ताजा चेहरा भी बन गई हैं.

लालू ने अपने बेटों में राजनीति के गुरों को कूटकूट कर भर दिया है. उन के बेटे दलितों और पिछड़ों की सियासत को आगे बढ़ाने के साथसाथ राज्य की तरक्की की वकालत करते दिख रहे हैं. पिछले 10 सालों के दौरान लस्तपस्त हो चुके राष्ट्रीय जनता दल में उन्होंने नई जान फूंकने के साथ ही पार्टी का ज्यादातर बोझ भी अपने मजबूत कंधों पर उठा लिया है. अब उन्हें अपने पिता की छाया से निकल कर अपनी सियासी जमीन तैयार करने की जरूरत है. अपने पिता के ठेठ गंवई अंदाज से इतर बेटों ने अपना अलग अंदाज गढ़ते हुए पार्टी को नए सिरे से एकजुट करने की कोशिश शुरू कर दी है. वे पिता की गैरमौजूदगी में भी पार्टी के कार्यक्रमों, बैठकों, सभाओं में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेने लगे हैं. बेटों और बेटी को सियासत के मैदान में उतारने के बाद जबजब भी लालू पर परिवारवाद को बढ़ावा देने का आरोप लगाया गया तो वे अपने ही अंदाज में सफाई देते हैं कि जब डाक्टर का बेटा डाक्टर, इंजीनियर का बेटा इंजीनियर, बिजनैसमैन का बेटा बिजनैसमैन और अभिनेता का बेटा अभिनेता बन सकता है तो राजनेता के बेटों के राजनेता बनने पर हायतौबा क्यों मचाई जाती है.

परिवारवाद का साया

लालू के बेटों ने भले ही अपनी राह बना ली हो पर यह भी सच है कि लालू कभी भी परिवार की छाया से बाहर नहीं निकल सके हैं. चारा घोटाला में फंसने के बाद 1997 में जब जेल जाने की नौबत आई तो उन्होंने अपनी बीवी राबड़ी देवी को किचन से निकाल कर सीधे मुख्यमंत्री की कुरसी पर बिठा दिया था. उस के बाद पार्टी और सरकार में उन के साले साधु यादव और सुभाष यादव का कब्जा रहा.

पिछले विधानसभा चुनाव में उन्होंने अपने छोटे बेटे तेजस्वी यादव को राधोपुर सीट और बड़े बेटे तेजप्रताप यादव को महुआ सीट से चुनाव लड़ाया. दोनों जीत गए. लालू ने अपनी पार्टी के नेताओं की सैकंड और थर्ड लाइन नहीं बनने दी या कहिए जानबूझ कर बनाई ही नहीं, ताकि पार्टी हमेशा उन की मुट्ठी में रहे. अपनी पार्टी के एक से 10वें नंबर तक केवल लालू और लालू ही रहे हैं. अब उन के बेटों के सामने सब से बड़ी चुनौती अपने पिता की राजनीतिक विरासत को संभालने और पार्टी के सीनियर नेताओं का भरोसा हासिल करने की है.

भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी कहते हैं कि लालू यादव कभी भी परिवार के मकड़जाल से बाहर नहीं निकल सके. कांग्रेस पर परिवारवाद की राजनीति करने के खिलाफ अपनी सियासी जमीन तैयार करने वाले लालू खुद ही परिवारवाद के जाल में उलझे रहे हैं. कभी लालू यादव के भरोसेमंद रहे सांसद पप्पू यादव कहते हैं कि अपने दोनों बेटों को मंत्री बनवा कर लालू ने फिर यह साबित कर दिया है कि वे कभी भी परिवार से बाहर नहीं निकल सकते. अपने दोनों बेटों को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने पार्टी के कई नेताओं को कुरबान कर दिया है. अल्पसंख्यक और दलित प्रेम लालू यादव का चुनावी जुमला भर है.

अपने पिता और अपने ऊपर लगे वंशवाद के तमाम आरोपों को खारिज करते हुए तेजप्रताप यादव कहते हैं, ‘‘जब जनता उन का काम देखेगी तो विरोधियों के सारे आरोप परदे के पीछे चले जाएंगे और उन के काम की ही बातें होंगी.’’

फिलहाल तो 90 के दशक वाले लालू और आज के लालू में काफी फर्क नजर आ रहा है. पहले लालू की सोच थी कि वोट तरक्की से नहीं, बल्कि जातीय गोलबंदी से मिलते हैं, पर इस बार लालू भी नीतीश के सुर में सुर मिला कर तरक्की की रट लगाने लगे हैं. लालू के बेटे और उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव कहते हैं कि सरकार का इकलौता एजेंडा बिहार की तरक्की है. अभी तो सरकार ने काम करना शुरू ही किया है, जल्द ही अच्छे नतीजे सामने आएंगे और तब विरोधियों की जबान पर ताले लग जाएंगे.

आम आदमी पार्टी, कांग्रेस, शिवसेना, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, कम्युनिष्ट पार्टी औफ इंडिया, जनता दल (एस), इंडियन नैशनल लोकदल, झारखंड विकास मोरचा, झारखंड मुक्ति मोरचा, असम गण परिषद और अकाली दल के नेताओं के साथ राजनीतिक दोस्ती बनाने में नीतीश की कोशिशों में लालू पूरा साथ दे रहे हैं. विधानसभा चुनाव के बाद नीतीश के शपथग्रहण समारोह में इन दलों के नेता मौजूद थे. समारोह में 9 राज्यों के मुख्यमंत्रियों सहित 15 दलों के नेताओं को एक मंच पर खड़ा कर नीतीश और लालू ने भाजपा को बेचैन कर रखा है. गौरतलब है कि इन 15 दलों का राज्यसभा की कुल 244 सीटों में से 132 पर कब्जा है. इस हिसाब से मोदी विरोधी दलों को राज्यसभा में पूरा बहुमत है, जिस से मोदी सरकार की परेशानी बढ़नी तय है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के खिलाफ नैशनल मोरचा खड़ा करने की लालू और नीतीश की कवायद रंग लाती नजर आने लगी है. नीतीश का मकसद है कि बिहार में महागठबंधन को भारी कामयाबी मिलने के बाद राष्ट्रीय स्तर पर भी महागठबंधन का प्रयोग किया जाए, लालू यादव ताल ठोंक कर कहते हैं कि नीतीश बिहार संभाल रहे हैं और वे दिल्ली जा कर भाजपा की जड़ें उखाड़ेंगे. बिहार में महागठबंधन को कामयाबी मिलने के बाद भाजपा का माथा चकरा गया है. अब पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु, केरल, पंजाब और उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में महागठबंधन की ताकत दिखाई देगी.

बिहार के सियासी मामलों के जानकार और चिंतक हेमंत राव कहते हैं कि अपराध और भ्रष्टाचार पर नकेल कस कर ही नीतीश सरकार जनता की उम्मीदों पर खरा उतर सकती है. नीतीश के लिए सब से बड़ी चुनौती और ??खतरा लालू यादव की महत्त्वाकांक्षा और उन के परिवार को आगे बढ़ाने की ललक होगी. अब यह देखना होगा कि लालू की महत्त्वाकांक्षाओं, ठेठ गंवई अंदाज और मुंहफट अंदाज को नीतीश कितना और कब तक बरदाश्त कर पाते हैं. जिस नीतीश को भाजपा से 17 साल पुराना नाता तोड़ने में जरा भी देरी और हिचक नहीं हुई वे लालू से कितने दिनों तक दोस्ती निभा पाते हैं, इस पर कुछ कहना अभी ठीक नहीं है. वहीं, अभी यह कह देना काफी जल्दबाजी होगी कि लालू यादव बदल गए हैं.

जनता की उम्मीदों पर खरा उतरूंगा

–तेजस्वी यादव, उपमुख्यमंत्री, बिहार

25 साल के तेजस्वी यादव को लालू प्रसाद यादव के राजनीतिक उत्तराधिकारी के तौर पर देखा जा रहा है. नीतीश सरकार में उपमुख्यमंत्री और पीडब्लूडी मंत्री का ओहदा पाने वाले तेजतर्रार युवा नेता तेजस्वी कहते हैं कि बिहार की तरक्की ही अब उन का मकसद और सपना है. अपनी प्राथमिकता बताते हुए वे कहते हैं कि बिहार के हर गांव को सड़कों से जोड़ना उन का पहला लक्ष्य है. जब तक गांवों को सड़कों से नहीं जोड़ा जाएगा तब तक गांव तक तरक्की नहीं पहुंच सकेगी. उन का जोर बिहार की ब्रैंड वैल्यू बढ़ाना है. तेजस्वी का मानना है कि उन की जीत में बिहार के दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों के साथसाथ युवाओं का पूरा हाथ रहा है और उन की सरकार उन लोगों की उम्मीदों पर सौ फीसदी खरी उतरेगी.

जीवंत और अनंत रंगों की धरोहर गुजरात

रोमांच, रहस्य, जीवंत रंगों और अनंत सुंदरता से भरी सांस्कृतिक धरोहरों को संजोए गुजरात की धरती का विशिष्ट स्थान है. अहमदाबाद की खास पहचान जहां एक तरफ वहां के म्यूजियम, पुरानी हवेलियां, आधुनिक वास्तुशिल्प और मल्टीनैशनल संस्कृति है वहीं राज्य के समुद्रीतटों पर मन को लुभाते रिजौर्ट और ब्लू लगून के साथ गुजरात में देश के उम्दा बीच हैं. गुजरात की खूबसूरती के बारे में सुन कर अब जब आप ने इन छुट्टियों में गुजरात में कुछ दिन गुजारने का मन बना ही लिया है तो हम आप को यहां के किसी रिजौर्ट में रहने की सलाह देंगे जहां रह कर आप पर्यटन का पूरा आनंद ले सकेंगे.

अहमदाबाद का एक रिजौर्ट स्वप्न सृष्टि रिजौर्ट आप को अपनी छुट्टियां एंजौय करने का पूरा मौका देगा. ग्रामीण व शहरी जीवनशैली के मिश्रण से बना यह रिजौर्ट हर उम्र के लोगों के लिए परफैक्ट है. यहां बने वाटर पार्क में आप स्नोफौल व मिसीसिपी राइड का आनंद उठा सकते हैं. यह लंबी वाटर राइड है. ठहरने के लिए यहां आप को अपनी जरूरत व जेब के अनुसार एसी रूम्स, कच्चे झोंपड़ीनुमा घर, रौयल टैंट हाउस और अनूठे ट्रक हाउस मिल जाएंगे, जहां आप शहरी व ग्रामीण दोनों जीवनशैलियों का पूरा आनंद उठा सकते हैं. गुजरात के निम्न दर्शनीय स्थलों को देख कर आप अपनी छुट्टियों को सफल बना सकते हैं.

अहमदाबाद : अहमदाबाद का ऐतिहासिक महत्त्व इस शहर के महात्मा गांधी से जुड़े होने के कारण भी है. आश्रम रोड पर बने साबरमती आश्रम, जिसे महात्मा गांधी का घर भी कहा जाता है, को देखने जाएं. देश की आजादी की लड़ाई में विशेष महत्त्व रखने वाले इस आश्रम में गांधीजी से जुड़ी वस्तुओं को मूल स्थिति में रखा गया है.

झूलती मीनारें : अहमदाबाद के उत्तर में 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित इन मीनारों की खासीयत यह है कि इन पर जरा सा दबाव पड़ते ही ये हिलने लगती हैं लेकिन आप की जानकारी के लिए बता दें कि आप को इन मीनारों को हिलाने की इजाजत नहीं है. मीनारों को आप दूर से ही देख सकते हैं.

नल सरोवर : यह सरोवर अपने दुर्लभ जीवनचक्र के लिए प्रसिद्ध है. अहमदाबाद से 45 किलोमीटर की दूरी पर स्थित नल सरोवर का वातावरण विशेष प्रकार की वनस्पतियों, जलपक्षियों, मछलियों, कीटपतंगों और जीवजंतुओं को शरण प्रदान करता है. यहां सर्दियों में कई तरह के देशीविदेशी पक्षियों का जमावड़ा रहता है.

गिर अभयारण्य : गुजरात आएं तो गिर अभयारण्य देखना न भूलें. अहमदाबाद से 395 किलोमीटर दूर स्थित यह अभयारण्य एशिया का एकमात्र अभयारण्य है जहां सिंहों को अपने प्राकृतिक आवास में देखा जा सकता है. इस अभयारण्य में स्तनधारी, सरीसृप व अन्य जीवजंतुओं व पशुपक्षियों की कई जातियां देखने को मिलती हैं.

जामनगर : अहमदाबाद से 302 किलोमीटर की दूरी पर स्थित जामनगर वास्तुकला के उत्कृष्ट नमूनों, किलों, महलों के लिए खासा प्रसिद्ध है. यहां आ कर पर्यटक विलिंगटन क्रिसैंट, लखोटा किला, धूपघड़ी, जामसाहब महल, लखोटा संग्रहालय, रणमाल झील देखने जा सकते हैं.

कच्छ : भारत के सब से बड़े जनपदों में से एक कच्छ एक बंजर भूभाग है. कोई इसे दलदली भूमि तो कोई मरुभूमि कहता है. 45,652 किलोमीटर के क्षेत्रफल में फैले कच्छ को देखने के लिए पर्यटकों को यहां के शहर भुज पहुंचना होगा. अगर पर्यटक कच्छ की असली खूबसूरती देखना चाहते हैं तो रण उत्सव के दौरान जाएं. लोकगीत व संगीत आयोजनों से सराबोर इस उत्सव में पर्यटकों को गुजराती शिल्पकला की बेहतरीन वस्तुएं देखने व उन्हें खरीदने का अवसर प्राप्त होता है. आप की जानकारी के लिए बता दें कि कच्छ में ‘लगान’ व ‘रिफ्यूजी’ जैसी कई बहुचर्चित हिंदी फिल्मों की शूटिंग हुई हैं. कच्छ की सांस्कृतिक रंगों की छटा बड़े परदे पर ऐसा जादू बिखेरती है कि दर्शक स्क्रीन पर से अपनी नजरें नहीं हटा पाते.

मांडवी : अरब सागर से केवल 1 किलोमीटर की दूरी पर स्थित मांडवी की तटीय सुंदरता व संस्कृति बरबस ही पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करती है. मांडवी जाने के लिए नजदीकी हवाई अड्डा भुज 50 किलोमीटर और नजदीकी रेलवे स्टेशन गांधीधाम 95 किलोमीटर दूर है. मांडवी का एक खास आकर्षण विजय विलास पैलेस है. स्थापत्यकला के इस अद्भुत पैलेस का मुख्य आकर्षण यहां के सुंदर उद्यान और फौआरे हैं. यहां एक ओर जहां सागर की अथाह जलराशि दिखाई देती है वहीं दूसरी ओर सैकड़ों पवनचक्कियां कतार में खड़ी नजर आती हैं.

गुजरात के चटख रंग : रंगीन सांस्कृतिक धरोहरों को अपने में समेटे गुजरात की धरती पर त्योहारों के दौरान गरबा नृत्य की धूम देखने और पारंपरिक व्यंजनों का स्वाद चखने को मिलता है. पर्यटक गुजरात आने पर यहां की समृद्ध हस्तशिल्प कला के अनूठे नमूने वंशेज, ब्लौक प्रिंट व मिरर वर्क की रंगबिरंगी साडि़यों की शौपिंग कर सकते हैं. वे पाटन से पटोला की साडि़यां खरीद सकते हैं. पाटन जाने के लिए पर्यटकों को अहमदाबाद से 125 किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है.  

कैसे जाएं

अहमदाबाद में अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे के अतिरिक्त राज्य में 10 घरेलू हवाई अड्डे हैं. अधिकांश एअरलाइंस राज्य को भारत के अन्य हिस्सों से जोड़ती हैं. रेलमार्ग द्वारा भी गुजरात देश के मुख्य शहरों से जुड़ा है. वडोदरा जंक्शन गुजरात का सब से व्यस्त रेलवे स्टेशन है. इस के अलावा अहमदाबाद, सूरत, राजकोट, भुज व भावनगर अन्य महत्त्वपूर्ण स्टेशन हैं. सड़कमार्ग से भी गुजरात देश के सभी मुख्य शहरों से राष्ट्रीय राजमार्ग से जुड़ा है. पर्यटक गुजरात राज्य परिवहन निगम और प्राइवेट औपरेटर्स द्वारा चलाई जाने वाली बसों से अहमदाबाद व गुजरात के मुख्य शहरों तक पहुंच सकते हैं.

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